Thursday, December 4, 2014

क्या लड़का होना गुनाह है?


       मेरे एक मित्र ने व्हाट्स अप पर एक वीडियो भेजा है जिसमें एक छोटी सी घटना के माध्यम से पुरुष और स्त्री की मानसिकता को दर्शाया गया है -- एक मेट्रो शहर में एक लड़की आधुनिक परिधान में बस के इन्तज़ार में खड़ी है। उसके पीछे एक अधेड़ आदमी हाथ में छड़ी लिये धीरे-धीरे चलते हुए आता है। उसकी आंखों पर गहरे काले रंग का धूप का चश्मा है। छड़ी से रास्ता टटोलता वह आगे बढ़ रहा है। रास्ता ढूंढ़ने के चक्कर में उसकी छड़ी का स्पर्श अधुनिका लड़की के कटि के नीचे पृष्ठ भाग से हो जाता है। लड़की क्रोध से पीछे की ओर मुड़ती है और चिल्लाते हुए अधेड़ आदमी को पीटना चालू कर देती है। आसपास के लोग भी लड़की का साथ देते हैं और अपना हाथ साफ कर लेते हैं। इस मारपीट में अधेड़ का चश्मा गिर जाता है। वह नीचे बैठकर टटोलते हुए अपने चश्मे को ढूंढ़ने की कोशिश करता है, तब लोगों को पता चलता है कि वह अन्धा है। एक किशोर उसका चश्मा ढूंढ़ लेता है और भीड़ के दुर्व्यवहार के लिए माफ़ी मांगते हुए उसे फिए से चश्मा पहना देता है। लड़की खड़ी सब देख रही होती है लेकिन माफ़ी नहीं मांगती है।
      अधेड़ अन्धा उसी फ़ुटपाथ पर आगे बढ़ता है। कुछ लड़के समूह में गोलगप्पा खा रहे हैं। रास्ते की तलाश में अन्धे की छड़ी का स्पर्श पुनः एक लड़के के कटि के नीचे के पृष्ठ भाग से होता है। लड़का पीछे मुड़कर पूछता है - “दिखाई नहीं पड़ रहा है क्या?” “नहीं बेटा, मुझे दिखाई नहीं देता। मैं अन्धा हूं। जानबूझकर मैंने तुम्हें नहीं छुआ है। मुझे मारना मत।” लड़के ने सहानुभूति दर्शाते हुए उसका हाथ पकड़ा और गन्तव्य स्थान का नाम पूछा। अन्धे को सड़क पार करनी थी। लड़के ने अपने मित्र की सहायता से अन्धे को सड़क के उस पार पहुंचाया।
      वीडियो सिर्फ़ ३ मिनट का था लेकिन पुरुष और स्त्री की मानसिकता के विषय में बहुत कुछ कह गया था।
      दो दिन पहले रोहतक जाने वाली बस में सवार दो लड़कियों ने छेड़खानी के आरोप में तीन लड़कों की पिटाई की थी। सारे अखबारों और टीवी चैनलों ने लड़कियों की बहादुरी के गुणगान में हिन्दी-अंग्रेजी के सारे शब्द इस्तेमाल किये। सभी राजनीतिक पार्टियों की महिला नेत्रियों ने उन कथित मनचलों की जी भरके निन्दा की। हरियाणा की सरकार ने दोनों लड़कियों को गणतन्त्र दिवस पर पुरस्कृत करने की घोषणा भी कर दी। घटना के ४८ घन्टों के अन्दर विभिन्न एन.जी.ओ. में लड़कियों को नकद पुरस्कार देने की होड़-सी लग गई। तभी कहानी में नया ट्वीस्ट आया। बस में सवार प्रत्यक्षदर्शी महिलाओं ने थाने में जाकर बताया कि लड़के निर्दोष थे। उन्होंने लड़कियों को नहीं छेड़ा था। लड़कियां एक गर्भवती महिला की सीट पर जबर्दस्ती बैठी थीं। लड़कों ने लड़कियों से सीट खाली करने को कहा था। इसी बात पर झड़प हुई और एक लड़की ने बेल्ट निकाल कर लड़के को पीटना चालू कर दिया। लड़कों का चुनाव सेना के लिये हो गया था। वे तन्दरुस्त और अच्छी कद-काठी के थे। वे तीन लड़के चाहते तो लड़कियों की बुरी तरह पिटाई कर सकते थे। लेकिन जैसा वीडियो में स्पष्ट है, उन्होंने लड़कियों पर हाथ नहीं उठाया।
      आज दिनांक ४ दिसंबर को सायं ६ बजे जी-न्युज ने दोनों लड़कियों और घटना में शामिल दो लड़कों का लाइव डिबेट कराया। एंकर और लड़कों के एक भी सवाल का लड़कियां उत्तर नहीं दे पाईं। एंकर भी एक महिला ही थीं। वे बहुत संयम से प्रश्न पूछ रही थीं ताकि सच सामने आ जाय। लड़कियां जवाब देने के बदले उद्दण्डता पर उतर आईं और डिबेट के मध्य में ही अनाप-शनाप बोलते हुए चली गईं। हरियाणा सरकार ने पूजा और आरती को सम्मानित करने का फ़ैसला स्थगित कर दिया है। एक अन्य लड़के की पिटाई करते हुए उन्हीं लड़कियों का एक और वीडियो जारी हुआ है। अमूमन अगर लड़की किसी लड़के पर छेड़खानी का आरोप लगाते हुए किसी लड़के से उलझती है, तो भीड़ लड़के का पक्ष सुने बिना लड़के की धुनाई कर देती है। लेकिन उस बस में एक भी पुरु्ष-महिला यात्री या चालक-कन्डक्टर लड़कियों के पक्ष में खड़ा नहीं हुआ। अब सच कुछ-कुछ सामने आ रहा है। लेकिन एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है - क्या लड़का होना गुनाह है?

Thursday, November 13, 2014

नेहरुजी को श्रद्धांजलि


आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू की १२५वीं जयन्ती है। भारत सरकार अधिकृत रूप से इसे आज मना रही है और नेहरूजी की विरासत पर अपना एकाधिकार माननेवाली सोनिया कांग्रेस ने इसे एक दिन पहले ही मना लिया। लोक-परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं भी सोच रहा हूं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री को उनकी सेवाओं के लिये आज विशेष रूप से याद करूं और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूं। मस्तिष्क पर जब बहुत जोर दिया, तो उनसे संबन्धित निम्न घटनायें स्मृति-पटल पर साकार हो उठीं --
१. कमला नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरूजी अकेले हो गये थे। उनकी देखरेख के लिये पद्मजा नायडू जो भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की पुत्री थीं, आगे आईं। उन्होंने अपनी सेवा से नेहरूजी का दिल जीत लिया। दोनों के संबन्ध अन्तरंग से भी कुछ अधिक हो गए। दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन गांधीजी ने इसकी इज़ाज़त नहीं दी। वे चाहते थे कि वे दोनों शादी करें, लेकिन आज़ादी मिलने के बाद क्योंकि पहले ही ऐसा काम करने से कांग्रेस और स्वयं जवाहर लाल नेहरू की छवि खराब होने की प्रबल संभावना थी। नेहरूजी मान गये और पद्मा को वचन भी दिया कि आज़ादी मिलने के बाद वे विधिवत ब्याह रचा लेंगे। पद्मा भी मान गईं और दोनों पहले की तरह पति-पत्नी की भांति रहने लगे।
२. भारत आज़ाद हो गया। नेहरूजी तीन मूर्ति भवन में रहने लगे। पद्मजा भी नेहरूजी के साथ ही तीन मूर्ति भवन में ही रहने लगीं। तभी नेहरूजी की ज़िन्दगी में हिन्दुस्तान के तात्कालिक गवर्नर जेनरल लार्ड माउन्ट्बैटन की सुन्दर पत्नी एडविना माउन्ट्बैटन का प्रवेश हुआ। नेहरूजी के दिलो-दिमाग पर वह महिला इस कदर छा गई कि भारत विभाजन में उसकी छद्म भूमिका को भी वे पहचान नहीं सके। अल्प समय में ही यह प्यार परवान चढ़ गया। पद्मजा ने सारी गतिविधियां अपनी आंखों से देखी, अपना प्रबल विरोध भी दर्ज़ कराया लेकिन नेहरूजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रोती-बिलखती पद्मजा ने १९४८ में त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। वे आजन्म कुंवारी रहीं। नेहरूजी ने उनकी कोई सुधि नहीं ली।
३. भारत-विभाजन के लिए एडविना ने ही नेहरूजी को तैयार किया। फिर क्या था - एडविना की मुहब्बत में गिरफ़्तार नेहरू लार्ड माउन्ट्बैटन के इशारे पर खेलने लगे और पाकिस्तान के निर्माण के लिये सहमति दे दी। गांधीजी ने घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। वे जीवित भी रहे और अपनी आंखों से देखते भी रहे। नेहरू की ज़िद के आगे उन्हें समर्पण करना पड़ा। १४ अगस्त, १९४७ को देश बंट गया। लाखों लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ गये, करोड़ों शरणार्थी बन गये, गांधीजी ने किसी भी स्वतन्त्रता-समारोह में शामिल होने से इन्कार कर दिया लेकिन उसी समय नेहरु २१ तोपों की सलामी के बीच लाल किले पर अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश की पूर्ति का दिन था १५, अगस्त, १९४७ जिसकी बुनियाद में भारत का विभाजन और लाखों निर्दोषों की लाशें हैं। (सन्दर्भ - Freedom at midnight by Abul Kalam Azad)
४. इतिहास के किसी कालखंड में भारत और चीन की सीमायें एक दूसरे से कहीं नहीं मिलती थीं। संप्रभु देश तिब्बत दोनों के बीच बफ़र स्टेट की भूमिका सदियों से निभा रहा था। चीन तिब्बत पर माओ के उद्भव के साथ ही गृद्ध-दृष्टि रखने लगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा आदि दू्रदृष्टि रखनेवाले कई राष्ट्रभक्तों ने चीन की नीयत से नेहरू को सावधान भी किया लेकिन वे हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में मस्त थे। चीन ने तिब्बत को हड़प लिया और भारत तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता देनेवाला पहला देश बना। चीन यहीं तक नहीं रुका। उसने १९६२ में भारत पर भी आक्रमण किया और हमारी पवित्र मातृभूमि के ६० हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर जबरन कब्ज़ा भी कर लिया। आज भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के पूरे भूभाग पर अपना दावा पेश करने से बाज़ नहीं आता। 
५.पाकिस्तान ने कबायलियों के रूप में १९४८ में कश्मीर पर आक्रमण किया। कबायली श्रीनगर तक पहुंच गये। नेहरू शान्ति-वार्त्ता में मगन थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तात्कालीन सर संघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर और सरदार पटेल के प्रयासों के परिणामस्वरूप कश्मीर के राजा हरी सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किया। सरदार पटेल ने कश्मीर की मुक्ति के लिए भारत की फ़ौज़ को कश्मीर भेजा। सेना ने दो-तिहाई कश्मीर को मुक्त भी करा लिया था, तभी सरदार के विरोध के बावजूद नेहरू ने इस मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ को समर्पित कर दिया और उसके निर्देश पर सीज फायर लागू कर दिया। कश्मीर एक नासूर बन गया, आतंकवाद पूरे हिन्दुस्तान में छा गया और अपने ही देश में मुसलमानों की राष्ट्रनिष्ठा सन्दिग्ध हो गई। 
आज १४ नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस के अवसर पर राष्ट्र पर उनके द्वारा किये गये उपरोक्त एहसानों को क्या याद नहीं करना चाहिये? जरूर करना चाहिये। उन्हें ही नहीं, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा गांधी को भी इस शुभ दिन पर हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर नमस्कार करना चाहिए।

Monday, November 3, 2014

कांग्रेस के क्या लगते हैं राबर्ट वाड्रा

     सत्ता चली गई लेकिन नशा नहीं गया। राबर्ट वाड्रा ने एक सवाल के जवाब में पत्रकार के साथ बदसलूकी की, उसका कैमरा फेंक दिया। जो भी हुआ, उसपर माफ़ी मांगने की नैतिक जिम्मेदारी स्वयं वाड्रा की थी। उसके बाद यह जिम्मेदारी क्रमवार प्रियंका, सोनिया और राहुल की बनती है क्योंकि वाड्रा उनके परिवार के अंग हैं। लेकिन राजपरिवार ने इस घटना पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। एक अदने पत्रकार से राजपरिवार के सदस्य ने एक छोटी-सी बदसलूकी कर ही दी, तो कोई पहाड़ तो नहीं टूट गया? यह तो उस परिवार का विशेषाधिकार है। अप्रिय सवालों के जवाब में स्व. नेहरू तो पत्रकारों पर हाथ भी उठा देते थे। इन्दिराजी मीडिया, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष पत्रकारिता के प्रति सर्वाधिक असहिष्णु थी। आपात्काल लगाकर लोकतन्त्र का गला घोंटने के अतिरिक्त उन्होंने जो प्रेस सेंसरशीप लागू की वह भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय था जिसने स्वतंत्र लेखन के अपराध में अंग्रेजों द्वारा स्व. बाल गंगाधर तिलक को देश निकाले और अंडमान की जेल में भेजने की घटना की याद सहज ही दिला दी थी। आपात्काल में देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में पत्रकार भी जेल में ठूंस दिए गए थे। पत्रकार इन्दिरा गांधी की नीयत से शुरु में पूरी तरह वाकिफ़ नहीं थे। प्रेस सेन्सरशीप और इमर्जेन्सी के विरोध में कुछ अखबारों ने २६ जून, १९७५ को प्रकाशित अपने संस्करण के पहले पेज पर कोई समाचार नहीं छापा। पूरे पेज को काले रंग से लीप दिया। उन्हें अपनी गलती का एहसास तब हुआ जब उसी दिन संपादक/प्रकाशक जेल भेज दिये गये। बाद में पत्रकारों ने अपनी गलती सुधारी और बढ़-चढ़कर इमर्जेन्सी के समर्थन में कसीदाकारी की। जिस पत्र ने जितने ज्यादा कसीदे काढ़े, उसे उतना ही ज्यादा सरकारी विज्ञापन मिले। सोनिया तो मीडिया से मिलने में वैसे ही परहेज़ करती हैं, राहुल बाहें चढ़ाकर कई बार वाड्रा जैसी हरकतें कर चुके हैं। इसलिये मुझे वाड्रा की बदसलूकी पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। बेचारा वैसे ही लैंड-डील के खुलासे से मानसिक रूप से परेशान है। अब न तो दिल्ली में और ना ही हरियाणा-राजस्थान में उसकी सास की सरकारें हैं। ऐसे में असहज करनेवाले पत्रकारों के सवाल! बेचारा आपा खो बैठा, तो क्या गलती की?
आश्चर्य तब होता है, जब कांग्रेस के राजपरिवार के दामाद के इस कृत्य पर पार्टी के नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगी जाती है। सुन्दर युवती अमृता राय के अवैध पति उम्रदराज़ महामहिम दिग्विजय सिंह ने सबसे पहले दामादजी की बदसलूकी के लिए माफ़ी मांगी। फिर तो माफ़ी मांगनेवालों में होड़ मच गई। ताज़ा नाम कांग्रेस के संगठन सचिव दुर्गा दास कामत का है। उन्होंने गोवा में दामादजी की बदसलूकी के लिये कांग्रेस की ओर से माफ़ी मांगी है। समझ में नहीं आता है कि राबर्ट वाड्रा कांग्रेस के क्या हैं - अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव-महासचिव या कोई अन्य आफ़िस बियरर? फिर पार्टी की ओर से माफ़ी मांगने का क्या औचित्य है? वंशवाद के चमचों की चाटुकारिता का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही मिले!

Monday, October 27, 2014

इन गद्दार सेकुलरिस्टों की आंखें कब खुलेंगी?

पश्चिम बंगाल के बर्दवान में हुए बम धमाकों की जांच के सिलसिले में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जब बर्दवान जिले के खागड़ागढ़ पहुंचे, तो कुछ चौंकानेवाले तथ्य पूरे देश के सामने आये। उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ विस्फोट स्थल का मुआयना किया और कुख्यात आतंकी संगठन ज़मात-उल-मुज़ाहिदीन के बहुमंजिला मुख्यालय का भी निरीक्षण किया। बहुमंजिली ईमारत में बम बनाने का विशाल कारखाना था, बड़ी मात्रा में अलगाववादी और ज़ेहादी साहित्य था, बड़ी मात्रा में अवैध अत्याधुनिक आग्नेयास्त्र थे, भारत के विभिन्न महत्त्वपूर्ण नगर एवं प्रतिष्ठानों के नक्शे थे, पचासों कंप्यूटर थे, हज़ारों सीडी, पेन ड्राइव थे जिसमें भारत विरोधी और इस्लामी ज़ेहाद की प्रचार-सामग्री भरी थी। यही नहीं उस बहुमंजिली ईमारत से १.५ किमी की एक पक्की सुरंग भी मिली जिसका धड़ल्ले से आतंकवादी उपयोग करते थे। सुरक्षा बलों ने इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों पर कार्यशील ६५ बम बनानेवाले कारखानों का भी प्रमाण के साथ पता लगाया।
आतंकवादियों ने इतना बड़ा नेटवर्क कोई एक दिन में नहीं खड़ा किया होगा। ऐसा भी नहीं हो सकता कि ज़मात-उल-मुज़ाहिदीन की गतिविधियों,  उसके बम के कारखानों और उसके बहुमंजिले मुख्यालय की सूचना पश्चिम बंगाल सरकार और पुलिस को न रही हो। बर्दवान न तो कश्मीर की तरह दुर्गम पहाड़ियों-घाटियों वाला क्षेत्र है और ना ही झारखण्ड जैसा दुर्गम वन-क्षेत्र। एक मैदानी इलाके में ऐसी दुर्दान्त आतंकवादी गतिविधियां चलती रहीं और राज्य सरकार कान में तेल डाल, आंखें बन्द कर सोती रही - सिर्फ तुष्टीकरण और वोट के लिये। इतने बड़े खुलासे के बाद भी ममता बनर्जी, वामपन्थी पार्टियां, सोनिया-राहुल, मेधा पाटेकर, अरविन्द केजरीवाल, लालू, मुलायम, नीतिश, नवीन, दिग्विजय आदि बड़बोले नेता बिल्कुल खामोश रहे। किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 
क्या ये सेकुलरिस्ट भारत के सीरिया या इराक बनने का इन्तज़ार कर रहे हैं? इस देश में आतंकवाद या नक्सलवाद फल-फूल ही नहीं सकता है अगर उसे इन राष्ट्रद्रोहियों का समर्थन प्राप्त न हो। क्या उनकी आंखें तब खुलेंगी जब हिन्दुस्तान पैन इस्लाम की छतरी तले आ जायेगा? लेकिन तब पछताने के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा। 

Tuesday, October 21, 2014

महाभारत - ७


धृतराष्ट्र फिर भी अपना ध्येय नहीं बदलता। वह प्रतिप्रश्न करता है - मेरी राजसभा भीष्म, द्रोण, कृप आदि वीर पुरुषों और ज्ञानियों से अलंकृत है। वे सभी महासमर में मेरा ही साथ देंगें। फिर मैं अपनी विजय के प्रति आश्वस्त क्यों नहीं होऊं। विदुरजी धृतराष्ट्र की राजसभा की पोल खोलते हुए कहते हैं -
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मं ।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम ॥
(उद्योग पर्व ३५;४९)
जहां वृद्ध न हों, वह सभा नहीं है, जो धर्म का उद्घोष न करें वे वृद्ध नहीं हैं, जिसमें सत्य नहीं है, वह धर्म नहीं है और जिसमें छल हो, वह सत्य नहीं है।
धृतराष्ट्र की सभा में वृद्ध हैं, पर वे धर्म का उद्घोष करने में डरते हैं, नहीं तो द्रौपदी चीर-हरण के समय वे चुप क्यों रहते? आदमी उम्र से वृद्ध हो जाय, तो भी वह वृद्ध नहीं होता। वह धर्म का उद्घोष करे तभी वृद्ध की श्रेणी में आ सकता है। वृद्ध का अर्थ होता है - ज्ञान प्राप्त, अभ्युदय प्राप्त। धर्म किसी भी परिस्थिति में सत्य से वंचित हो ही नहीं सकता और जहां शकुनि का छल चलता हो, वहां सत्य कैसे टिक सकता है? वे आगे कहते हैं - जैसे शुष्क सरोवर का चक्कर काटकर हंस उड़ जाते हैं, उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार ऐश्वर्य जिनका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी हैं और इन्द्रियों के गुलाम हैं, उनका त्याग करता है।
धृतराष्ट्र सब सुनकर भी प्रश्न करता है - क्या मैं पाण्डवों के हित के लिए अपने पुत्रों का त्याग कर दूं? पाण्डु-पुत्रों को इन्द्रप्रस्थ वापस देने का सीधा परिणाम होगा - या तो दुर्योधन मुझे त्याग देगा या मुझे दुर्योधन को त्यागना पड़ेगा। दोनों में से एक भी विकल्प मुझे स्वीकार नहीं है। मैं दुर्योधन के बिना जी नहीं पाऊंगा। वह पुनः पाण्डवों को उनका अधिकार देने से इन्कार करता है। धृतराष्ट्र के मंत्रियों में एकमात्र विदुरजी ही ऐसे मंत्री थे जो हमेशा धर्म, सत्य और न्याय के पक्षधर रहे। कई अवसरों पर दुर्योधन और उसकी खल-मंडली ने सार्वजनिक रूप से उन्हें अपमानित किया लेकिन वे न तो तनिक डरे और न ही अपने पथ से विचलित हुए। अपने मधुर स्वर में उन्होंने हमेशा सत्य का ही गान किया। अपने कथन का समापन भी वे नीति-वचन से करते हैं -
महाराज! कुल की रक्षा के लिए पुरुष का, ग्राम की रक्षा के लिए कुल का, देश की रक्षा के लिये गांव का और आत्मा के कल्याण के लिए सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिए।
         ॥इति॥

Monday, October 20, 2014

महाभारत - ६


      यदि ज्ञान से धृतराष्ट्र का हृदय परिवर्तन संभव होता, तो विदुर के वचनों से कभी का हो गया होता। विदुरजी को यह तथ्य ज्ञात है फिर भी वे बार-बार सत्परामर्श देने से चुकते नहीं हैं। उस रात्रि में धृतराष्ट्र की उद्विग्नता कम होने का नाम ही नहीं लेती। उसे ज्ञान नहीं, सान्त्वना की आवश्यकता थी और सान्त्वना भी ऐसी जिसमें उसके और दुर्योधन के विगत कर्मों और आगे की योजना के लिए समर्थन हो। लेकिन उस रात उसने पात्र का गलत चयन कर लिया। विदुरजी के स्थान पर उसने कर्ण या शकुनि को सान्त्वना के लिये बुलाया होता, तो संभवतः उसे शान्ति प्राप्त हो जाती। लेकिन विदुर तो जैसे उसके जले पर नमक छिड़कने के लिए कृतसंकल्प थे। वे कहते हैं -
     एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
     विद्येका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥
         (उद्योग पर्व ३३;४८)
      केवल धर्म ही श्रेयस्कर है, शान्ति का सर्वोत्तम उपाय क्षमा, विद्या ही परमदृष्टि है और अहिंसा ही परम सुख है।
      अपने उपरोक्त कथन में विदुरजी क्या नहीं कह जाते हैं। धर्म का पारंपरिक अर्थ है; समाज को धारण करनेवाला तत्त्व - धारयति इति धर्मः, ऐसा धर्म ही कल्याणकारी होता है। शान्ति सिद्ध करनी हो, तो क्षमा ही श्रेष्ठ उपाय है। क्षमाशील लोगों पर एक ही आरोप लगता है, वह है असमर्थता का। क्षमाशील मानव को प्रायः लोग निर्बल मान लेते हैं। परन्तु इस तथाकथित दोष को भी सहकर क्षमाशील बने रहें, तभी शान्ति संपन्न होती है। लोग इस संसार को चर्मचक्षु के माध्यम से देखते हैं, पर परम दृष्टि विद्या की होती है और अहिंसा में ही परम सुख निहित है। धृतराष्ट्र यदि विदुर के अनेक वचनों में से केवल उपरोक्त वचन पर अमल का प्रयास करे तो, शान्ति दूर नहीं है। पर उसपर विदुरजी के वचन निष्प्रभावी रहे। विदुरजी भी अपना धैर्य कहां खोनेवाले थे। वे कहते हैं - 
     य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये ।
     सुखे सौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥
         (उद्योग पर्व ३४;४०)
      जो दूसरे के धन की, रूप की, पराक्रम की, कुलीनता की, सुख की, सौभाग्य की या सत्कार की ईर्ष्या करते हैं, उनकी यह व्याधि असाध्य है। उनके रोग का कोई इलाज नहीं। दुर्योधन को पाण्डवों के धन, पराक्रम, सुख, सौभाग्य, उनको प्राप्त होते आदर-सम्मान -- इन सबसे ईर्ष्या है जो असाध्य रोग बन चुका है।

 अगले अंक में - विदुरजी की अन्तिम सलाह

Sunday, October 19, 2014

महाभारत-५


श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का उत्तर सुनने के बाद संजय के पास कहने को कुछ भी शेष नहीं रहा। वह जाने के लिए प्रस्तुत होता है। अर्जुन उसे विदा करने जाते हैं। सदा कर्म में विश्वास करनेवाले अर्जुन सदैव अल्पभाषी रहे हैं। बहुत आवश्यकता पड़ने पर ही वे कुछ बोलते थे। संजय के माध्यम से प्रेषित संदेश से अर्जुन विचलित तो तनिक भी नहीं हुए लेकिन क्रोध अवश्य आया। वार्त्तालाप चूंकि बड़ों के बीच हो रहा था, उन्होंने मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा। लेकिन संजय को विदा करते समय एकान्त का लाभ लेकर उन्होंने दुर्योधन को चेतावनी दे ही डाली -
संजय! यदि दुर्योधन हमारा इन्द्रप्रस्थ हमें वापस लौटाने के लिए तैयार नहीं है, तो यह स्पष्ट है कि राजसभा में पांचाली का अपमान करने के अतिरिक्त कोई ऐसा और भी पापकर्म शेष है जिसका फल उसे भोगना बाकी है। वह शान्ति-प्रस्ताव को ठुकराकर हमारा मनोरथ ही सिद्ध करना चाहता है। उसने ऐसे-ऐसे अपराध किए हैं जो क्षमा के योग्य नहीं हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण को मृत्युदण्ड देने के लिए भीम की गदा फड़कती है और मेरा गाण्डीव भी कड़कता है। पांचाली के आंसू प्रतिशोध मांगते हैं। तेरह वर्षों से उसके खुले केश दुःशासन के रक्त के प्यासे हैं। मैंने अबतक के जीवन काल में किसी भी युद्ध में अपने समस्त अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन आसन्न महासमर में, मैं उनका प्रयोग करूंगा। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में अग्नि प्रज्ज्वलित होकर गहन वन को जला डालती है, उसी प्रकार पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र, इन्द्रास्त्र आदि अलौकिक दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर, मैं समस्त कौरवों को उनके शुभचिन्तकों के साथ भस्म कर दूंगा। हे संजय! दुर्योधन को यह बता देना कि ऐसा किए बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।
हस्तिनापुर पहुंचकर संजय ने धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर और अर्जुन का संदेश ज्यों का त्यों सुना दिया। धृतराष्ट्र की अन्धी आंखों में अब नींद कहां? बेचैनी बढ़ जाती है। उत्ताप की परिसीमा में वे विदुर को बुलाते हैं। अर्द्धरात्रि में अपने कक्ष में बेचैनी से टहलते हुए सम्राट को देख विदुर पूछते हैं -
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः ।
कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृटोसि नराधिप कच्चिन्न परवित्तेषु गृधन्विपरितप्यसे ॥
बलवान मनुष्य से झगड़ा हुआ हो ऐसे साधनविहीन दुर्बल मनुष्य को , कामी को, चोर को या पराये धन का लोभ रखनेवाले को नींद नहीं आती। हे नराधिप, आपको इन महादोषों में से किसी ने स्पर्श तो नहीं किया है?
विदुर ने ठीक मर्मस्थान पर अंगुली रख दी है। पराये धन के लोभ ने ही धृतराष्ट्र की आंखों की नींद उड़ा दी है। धृतराष्ट्र और उस जैसे पात्रों की यही विचित्रता है। ऐसे पात्र आज भी हर गांव, हर नगर, हर महानगर और हर देश में बहुतायत में पाये जाते हैं। उन्हें यह मालूम है कि धर्म क्या है, नीति क्या है, सत्य क्या है, नैतिक क्या है, उचित क्या है, पर छोटे या बड़े स्वार्थ के वशीभूत उसे आचरण में नहीं लाने के लिये वे संकल्पवद्ध हैं। धृतराष्ट्र का दर्द यही है कि पाण्डवों को उनका हक नहीं देना है और युद्ध भी टालना है। ऐसा कैसे हो सकता है? विदुर ज्ञान दे सकते हैं लेकिन विवेक का प्रयोग तो धृतराष्ट्र को ही करना है।
अगले अंक में - विदुर द्वारा ज्ञान-दान

Saturday, October 18, 2014

महाभारत-४

        श्रीकृष्ण आरंभ में युद्ध ही एकमात्र समाधान है, ऐसा नहीं मानते। सर्वशक्तिमान होने के बावजूद वे कभी अनायास शक्ति-प्रयोग की बात भी नहीं करते परन्तु उपमा-उपमेय के द्वारा शिष्ट भाषा में सबकुछ कह भी जाते हैं। संजय के माध्यम से वे धृतराष्ट्र को संदेश देते हैं -
वनं राजा धृतराष्ट्रः सपुत्रो व्याघ्रा वने संजय पांडवेयाः ।
मा वनं छिन्दि स व्याघ्रं मा व्याघ्रान्नीनशो वनात ॥
पुत्रों सहित धृतराष्ट्र एक वन हैं और पांडव उस वन के सिंह हैं। अतः न तो इस सिंहयुक्त वन को काटो, न वन के सिंहों का नाश करो।
निर्वनो वध्यते व्याघ्रो निर्व्याघ्रं छिद्यते वनं ।
तस्मात व्याघ्रो वतं रक्षेत वनं व्याघ्रं च पालयेत ॥
यदि वनरहित सिंह होते हैं, तो उनका वध होता है और सिंहविहीन वन को लकड़हारे बिना किसी भय के काट डालते हैं। इससे बेहतर यही है कि सिंह वन की रक्षा करें और वन सिंहों का पालन करे।
श्रीकृष्ण शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की बात युद्ध के पहले तक अलग-अलग अवसरों पर बार-बार कहते हैं। वे धृतराष्ट्र के कुल का नाश नहीं चाहते थे। पाण्डवों का अधिकार दिलाने एवं धृतराष्ट्र के कुल का विनाश रोकने के लिये वे तरह-तरह की उपमायें देते हैं। वे कहते हैं -
पाण्डव शाल के वृक्ष के समान हैं और धृतराष्ट्र के पुत्र लता सदृश। कोई भी लता बड़े वृक्ष के आश्रय के बिना आगे नहीं बढ़ सकती। पाण्डव और कौरव प्रेमपूर्वक रहते हैं तो इस लोक का कोई भी शत्रु उन्हें बुरी नज़र से देखने का दुस्साहस कभी नहीं कर सकता। अन्त में वे एक कड़ा संदेश देने से भी नहीं चुकते -
धर्माचारी पाण्डव शान्ति के लिये तैयार हैं और युद्ध के लिये भी समर्थ हैं। वे अपना अधिकार लेकर ही रहेंगे, इसके लिये चाहे जो भी करना पड़े। हे संजय! तुझे धृतराष्ट्र से जो कहना है, वह कह देना। हमने दो विकल्प दिए हैं। चुनाव उन्हें ही करना है।
जाते-जाते युधिष्ठिर संजय को अन्तिम संदेश देते हैं - 
धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने पृथ्वी पर जिनकी समानता नहीं है, ऐसे अनेक योद्धा एकत्र किए होंगे। पर धर्म ही नित्य है। मेरे पास इन सब शत्रुओं को नष्ट कर सके, ऐसा महाबल है। वह है मेरा धर्म! 
ददस्व वा शक्रपुरं ममैव युद्दस्व वा भारतमुख्यवीर । 
मेरा इन्द्रप्रस्थ मुझे वापस लौटा दो अथवा भारत-वंश के प्रमुख वीर, तुम युद्ध करो।
                        अगले अंक में - धृतराष्ट्र को विदुर की सलाह

Friday, October 17, 2014

महाभारत-३


संजय भी जल्दी हार माननेवाला कहां था। वह ज्ञानी भले ही न हो, जानकार तो था ही। सामान्य जन ज्ञान और जानकारी को एक ही मानते हैं। सत्य और असत्य को पहचानना उतना कठिन नहीं है, जितना ज्ञान और जानकारी में अन्तर समझना। ज्ञान प्राप्त होने के बाद मनुष्य मौन हो जाता है। उसकी वाणी विवेक द्वारा संचालित होने लगती है, जबकि जानकार की जिह्वा द्वारा। वह सत्य के उद्घाटन हेतु प्रबुद्ध जनों के बीच ही अत्यन्त आवश्यकता पड़ने पर ज्ञान बांटता है और एतदर्थ बोलता है। इसके विपरीत जानकार अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के लिये हमेशा बोलता ही रहता है। वह सुननेवाले कुपात्रों और सुपात्रों में भी भेद नहीं करता है। अल्पबुद्धि श्रोता जानकार को ही ज्ञानी समझने की भूल सदियों से करते आए हैं। संजय ने धृतराष्ट्र की स्वार्थसिद्धि के लिये बातों के अनगिनत जाल बिछाए। श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने संजय को बीच में नहीं टोका। संजय ने अपनी बात पूरी करने के बाद आशा भरी निगाह से युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को देखा। श्री कृष्ण ने बड़े नपे-तुले शब्दों में उत्तर दिया -
अविनाशं संजय पांडवानामिच्छाम्यहं भूमिमेषां प्रियं च।
तथा राज्ञो धृतराष्ट्रस्य सूत सदाशंसे बहुपुत्रस्य वृद्धिम॥
(उद्योग पर्व २९;१)
संजय! मैं पाण्डवों के लिए अविनाश चाहता हूं, उन्हें ऐश्वर्य मिले, उनका प्रिय हो, यह भी हृदय से चाहता हूं। इसके साथ ही, इसी प्रकार से, अनेक पुत्रोंवाले धृतराष्ट्र की भी वृद्धि अर्थात अभुदय चाहता हूं।
श्रीकृष्ण स्पष्टवक्ता हैं। उनकी यह विशेषता थी कि जो जिस भाषा में समझने के योग्य होता था, वे वही इस्तेमाल करते थे। युधिष्ठिर और संजय की वार्त्ता अन्तहीन वाद-विवाद में परिणत हो रही थी। इसे विराम देना आवश्यक था। श्रीकृष्ण ने अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए कहा -
संजय, मैं पाण्डवों का श्रेय चाहता हूं, पर कौरवों का अहित भी नहीं चाहता। किन्तु कौरवों ने एक महान अपराध किया है; वे परभूमि - पराई भूमि पचा जाना चाहते हैं। पराया धन प्रकट रूप से या चोरी-छिपे हरण करनेवाले चोर-लुटेरे और दुर्योधन के बीच कोई अन्तर है क्या?
श्रीकृष्ण का प्रश्न सुनकर संजय नज़रें झुका लेता है। श्रीकृष्ण की बातों में सत्य का बल है। कुतर्क सत्य के सामने बहुत देर तक कभी नहीं टिकता।
अगले अंक में - कौरवों को श्रीकृष्ण का संदेश

Wednesday, October 15, 2014

महाभारत-१


  महाभारत की रचना महर्षि वेद व्यास ने की। यह भारत का सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ है जिसमें वह सबकुछ है जो इस लोक में घटित हुआ है, हो रहा है और होनेवाला है। यह हमें अनायास ही युगों-युगों से चले आ रहे उस संघर्ष की याद दिलाता है जो मानव हृदय को आज भी उद्वेलित कर रहा है। द्वापर के अन्तिम चरण में आर्यावर्त्त और विशेष रूप से हस्तिनापुर की गतिविधियों को कथानक के रूप में , क्रमवद्ध तथा नियोजित विधि से अपने में समेटे, यह अद्भुत ग्रन्थ मानवीय मूल्यों, आस्थाओं, आदर्शों, दर्शन और संवेदना के उत्कर्ष तथा कल्पनातीत पतन - दोनों के चरम की झलक प्रस्तुत करता है। महाभारत की कथा मनुष्य के चरित्र की संभावनाओं और विसंगतियों के प्रकाशन का साक्षात उदाहरण है जो आज भी प्रासंगिक है। मैं इसके कुछ मुख्य अंशों को अपनी भाषा, शैली और विवेचना के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं।
      पाण्डव १२ वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद विराटनगर में डेरा डाले हैं। पांचाल नरेश द्रुपद के राजपुरोहित के माध्यम से उन्होंने धृतराष्ट्र के पास इन्द्रप्रस्थ का राज वापस करने का सन्देश भिजवाया। दुर्योधन उनका राज वापस करने के लिये कतई तैयार नहीं था। धृतराष्ट्र ने अपना उत्तर अपने मन्त्री एवं दूत सन्जय के माध्यम से भिजवाया। सन्जय पाण्डवों के पास जाकर सन्देश सुनाते हैं -
     न चेद भागं कुरवोअन्यत्र युद्धात प्रयछन्ते तुभ्यमजातशत्रो ।
     भैक्षचर्यामन्धकवृष्णिराज्ये श्रेयो मन्ये न तु युद्धेन राज्यम ॥
      हे अजातशत्रु! यदि कौरव युद्ध किये बिना तुमको तुम्हारे राज्य का हिस्सा नहीं देते, तो अन्धक तथा वॄष्णिवंश के क्षत्रियों के राज्य में भिक्षा मांगकर तुम निर्वाह करो, यही तुम्हारे लिए अच्छा है। युद्ध करके राज्य प्राप्त करें यह तुम्हारे यश के अनुरूप नहीं है।
      धृतराष्ट्र महाभारत का सबसे बड़ा खलनायक है। पिता यदि अपनी सन्तान को गलत मार्ग पर चलने से नहीं रोक पाता है, तो वह अपराधी है परन्तु अपराध क्षमायोग्य है। लेकिन पिता अपनी ही सन्तान को गलत मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित करता है, तो यह बड़े अपराध की श्रेणी में आता है जो किसी भी काल में क्षम्य नहीं है। वह हमेशा किसी भी कीमत पर सिर्फ अपने बेटों का ही कल्याण चाहता है। लेकिन दुनिया की नज़रों अच्छा दीखने की लालसा भी उसके मन में किसी से कम नहीं है। कूटनीति और कूटयोजना बनाने में वह सिर्फ दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की सलाह लेता है परन्तु अपने निर्णय को अनुमोदित कराने के लिये भीष्म, द्रोण और विदुर की भी सहमति का प्रयास करता है। अपने इस प्रयास में अक्सर वह सफल नहीं होता था लेकिन सलाह-मशविरा करने का ढोंग वह हमेशा करता था। सभा ने तय किया था कि संजय के माध्यम से हस्तिनापुर नरेश युधिष्ठिर को उत्तर भिजवायेंगे लेकिन क्या उत्तर भिजवायेंगे, इसका निर्णय दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की चाण्डाल चौकड़ी ने किया। संजय को यह भी निर्देश दिया गया कि कहे गये संदेश में अपनी ओर से वे कोई जोड़-घटाव या गुणा-भाग नहीं करेंगे। यह संदेश धृतराष्ट्र ही नहीं, विश्व के समस्त स्वार्थी और तानाशाह शासकों की मनोदशा का प्रत्यक्ष दर्पण है। अन्धक और वृष्णिवंश की राजधानी द्वारिका थी। श्रीकृष्ण से पाण्डवों की मैत्री को लक्ष्य बनाकर यह संदेश भिजवाया गया था। स्पष्ट सलाह थी कि राज्य के लिये भयंकर विनाशकारी युद्ध करने से अच्छा होगा कि युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ द्वारिका में भिक्षा मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करें। ऐसा संदेश एक निर्लज्ज तानाशाह ही दे सकता था।

      अगले अंक में युधिष्ठिर का उत्तर

महाभारत-२


      युधिष्ठिर के धार्मिक एवं शान्तिप्रिय स्वभाव को लक्ष्य करके ही धृतराष्ट्र ने ऐसा संदेश भिजवाया था। मनुष्य जो भी करता है उसे उचित ठहराने की कोशिश अवश्य करता है। इसके लिये वह कभी धर्म का तर्क देता है, कभी सत्य का, कभी परंपरा का, कभी सिद्धान्त का, तो कभी नैतिकता का। वाकपटु मनुष्य असत्य को भी सत्य की चाशनी चढ़ाकर इस तरह प्रस्तुत करता है कि असत्य में सत्य का बोध होने लगता है और सत्य में असत्य का। एक पुरानी कहानी है कि सत्य और असत्य जुड़वा बहनें हैं। एक बार दोनों नदी किनारे स्नान करने गईं। अपना वस्त्र नदी के किनारे रख दोनों नदी में नहाने लगीं। असत्य ने पहले नहा लिया और सत्य के कपड़े पहन चलती बनी। सत्य नहाकर जब किनारे आई, तो पाया कि उसके कपड़े नदारद थे। मज़बूरी में उसे असत्य के कपड़े पहनने पड़े। तभी से लोग सत्य-असत्य के बीच भ्रम में पड़े रहते हैं। युधिष्ठिर को सुन्दर शब्दों में धर्म की चाशनी चढ़ाकर धृतराष्ट्र द्वारा भेजे गये संदेश की असली मंशा समझते देर नहीं लगी। उन्होंने उसी तरह का जटिल उत्तर भी दिया -
     यत्राधर्मो धर्मरूपाणि बिभ्रद कृत्स्नो धर्मः दृश्यतेअधर्मरूपः ।
     तथा धर्मो धारयन्धर्मरूपं विद्वांसस्तं सम्प्रश्यन्ति बुद्धयाः ॥
                (उद्योग पर्व २८;२)
     कही तो अधर्म ही धर्म का रूप धारण कर लेता है, कही पूर्णतया धर्म अधर्म जैसा दिखाई पड़ता है; तथा कही धर्म अत्यन्त वास्तविक स्वरूप धारण करके रहता है। विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि से विचार करके उसके असली रूप को देख लेते हैं, समझ लेते हैं।
      युधिष्ठिर का उपरोक्त उत्तर संजय के सिर के उपर से गुजरा। दोनों अलग-अलग तल से बात कर रहे थे। अपने उत्तर को और सरल बनाते हुए युधिष्ठिर ने स्पष्ट किया -
      संजय! भिक्षावृत्ति ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं। मैं आजतक ज्येष्ठ पिताश्री को एक न्यायप्रिय महाराज के रूप में जानता था। अगर तुम्हारे द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर उनकी सहमति है, तो यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। पुत्रमोह के कारण उनका अन्तर भी कलुषित हो जायेगा, इसकी अपेक्षा नहीं थी। अपने अधर्मी पुत्रों को सन्मार्ग पर लाने में असफल महाराज मुझे धर्म की शिक्षा दे रहे हैं। संजय, मैं नास्तिक नहीं हूं। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन है, देवताओं, प्रजापतियों और ब्रह्माजी के लोक में जो भी वैभव है, वे सभी मुझको प्राप्त होते हैं, तो भी मैं उन्हें अधर्म से लेना नहीं चाहूंगा। लेकिन अधर्म से कोई अगर मेरे अधिकार का तृण भी लेना चाहेगा, तो मैं उसे पंगु बना दूंगा। अधर्म करना और सहना, दोनों दुष्कर्म की श्रेणी में आते हैं। न्याय के लिये अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। मैं युद्ध नहीं चाहता, लेकिन अगर युद्ध अपरिहार्य हो, तो डरता भी नहीं। क्षत्रिय-कुल में जन्म लिया है, युद्ध से क्यों डरूं?
 अगले अंक में - श्रीकृष्ण का संजय को उत्तर


Wednesday, September 24, 2014

मंगल पर ऐतिहासिक विजय


      २४ सितम्बर, २०१४ का वह सुहाना सवेरा क्या कोई भारतीय भूल पाएगा? शायद कभी नहीं। यह दिन हमारे लिये उतना ही गौरवशाली और ऐतिहासिक है जितना अमेरिकियों के लिए २१ जुलाई १९६९ था जिस दिन नील ए. आर्मस्ट्रौन्ग ने चन्द्रमा पर पहला कदम रखा था। भारतीय वैज्ञानिकों ने वह कर दिखाया जिसे सारी दुनिया असंभव समझती थी। २४ सितंबर को सवेरे ७.४७ बजे हमारे स्वदेशी मंगलयान को हमारे वैज्ञानिकों ने सफलतापूर्वक लाल ग्रह की कक्षा में स्थापित कर दिया। सारा देश खुशी और गर्व से झूम उठा। इस ऐतिहासिक क्षण का इसरो के वैज्ञानिकों के साथ साझा करते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अपने हृदय के स्वाभाविक उद्गार व्यक्त करते हुए कहा - जब काम मंगल होता है, इरादे मंगल होते हैं, तो यात्रा भी मंगल होती है। प्रधानमंत्री का कथन सौ फीसदी सत्य है। भारत को जगत्गुरु बनने से कोई रोक नहीं सकता।

      PSLV-C25 प्रक्षेपक से ऐतिहासिक मंगलयान गत वर्ष ५ नवम्बर, २०१३ को श्रीहरिकोटा से प्रक्षिप्त किया गया। यान ने दिनांक १ दिसम्बर, २०१३ को पृथ्वी की कक्षा का परित्याग कर लाल ग्रह के लिये अपनी महत्त्वाकांक्षी यात्रा आरंभ की। यह एक जटिल प्रक्रिया थी क्योंकि भारत परंपरागत ठोस ईंधन के स्थान पर तरल ईंधन का प्रयोग कर रहा था। सारी दुनिया इस प्रयोग को संशय की दृष्टि से देख रही थी। उन्हें विश्वास ही नहीं था कि एक विकासशील देश ऐसे प्रयोग से मंगल तक पहुंच सकता है। लेकिन सबके सन्देह उस दिन ध्वस्त हो गये जिस दिन नैनो कार की आकृति के बराबर हमारे मंगल यान ने लाल ग्रह से प्रभावित वातावरण में प्रवेश किया। यह शुभ दिन १९ सितम्बर २०१४ का था। २२ सितम्बर को हमारा यान मंगल के और करीब आया और सफलतापूर्वक मंगल के गोल मंडल में प्रवेश कर गया। विदेशी वैज्ञानिक जहां हैरान थे वही हमारे वैज्ञानिकों के चेहरे चमक रहे थे। लेकिन अन्तिम परीक्षा बाकी थी। लाल ग्रह की कक्षा में सही-सही स्थापित करने के लिये लगाया गया हमारा 440N Liquid Engine लगभग ३०० दिनों से सुप्त था। अगर वह चालू नहीं होता, तो सारा मिशन व्यर्थ हो जाता। सबके दिल धड़क रहे थे। वैज्ञानिकों की आंखों से नींद गायब हो चुकी थी। रेडियो सिग्नल की मदद से इन्जन का पायरो (Pyro)  वाल्व खोला गया और उसी दिन, २२ सितम्बर को ३३० दिनों से सुप्त 440N Liquid Engine को ४ सेकेन्ड के लिये फ़ायर करके मंगलयान की Trajectory को सही किया गया। अबतक किये गये सारे प्रयोग शत प्रतिशत सही एवं खरे उतर रहे थे। प्रधानमंत्री लगातार वैज्ञानिको के संपर्क में थे। वे अपनी उत्सुकता को दबा नहीं पाये और दिनांक २४ सितम्बर को उन वैज्ञानिकों के बीच पहुंच ही गये जिन्होंने भारत को उस मुकाम तक पहुंचाया था जहां बड़े-बड़े विकसित देश भी नहीं पहुंच पाये थे। प्रधानमंत्री की उपस्थिति में वैज्ञानिकों ने तरल इंजन को दुबारा फायर किया और खुली आंखों से देखा हुआ एक सपना साकार हो ही गया। हमारा मंगलयान सवेरे ७ बजकर ४७ मिनट पर मंगल की कक्षा में स्थापित हो गया। भारत ओलंपिक में १०० स्वर्ण पदक पा ले, एसियाड के सारे गोल्ड मेडल पर कब्जा कर ले, तो भी उतनी खुशी नहीं होगी, जितनी खुशी २४ सितम्बर का यह स्वर्णिम दिवस दे गया।
      भारत की यह उपलब्धि इसलिए और भी विशिष्ट हो जाती है कि अपने प्रथम प्रयास में ही लाल ग्रह पर पहुंचने वाला यह पहला देश बन गया है। अबतक मंगल तक पहुंचने के लिये विश्व ने ५१ प्रयास किये हैं लेकिन मात्र २१ प्रयास ही सफलता प्राप्त कर सके हैं। हमारा मंगलयान  Lyman Alpha Photometer से लैस है जो मंगल के उपरी वातावरण में deuterium और hydrogen की उपस्थिति और मात्रा की माप करेगा जिससे यह पता लगाया जा सकेगा कि ग्रह की उपरी सतह पर कभी जल था या नहीं। यान में स्थापित मिथेन सेंसर ग्रह पर मिथेन गैस की खोज करेगा और रंगीन कैमरा - Thermal infrared spectrometer वे दुर्लभ तस्वीरें लेगा जिससे ग्रह से उत्सर्जित तापीय ऊर्जा, खनिज पदार्थ एवं मिट्टी का आंकलन किया जा सकेगा। मंगल ग्रह पर यान भेजने के अपने पहले मिशन में अमेरिका ने जहां ४००० करोड़, युरोपियन यूनियन ने ३५०० करोड़, रुस ने २५०० करोड़ रुपए खर्च किये थे वहां हमने सिर्फ ४५० करोड़ खर्च करके यह उपलब्धि पाई है। दुनिया आश्चर्यचकित है। हमने असंभव को संभव कर दिखाया है। सचमुच हमारा सीना ५६ इन्च का हो गया है।
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा

Saturday, September 13, 2014

ये संवैधानिक पद


          राष्ट्रपति, राज्यपाल, सी.ए.जी., मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष और विश्वविद्यालयों के वाईस चान्सलर आदि के पद संवैधानिक मान्यता प्राप्त पद हैं लेकिन पिछले ६५ वर्षों में इन पदों पर सत्ताधारी पार्टियों ने जिस तरह योग्यता और प्रतिभा की अनदेखी कर अपने चमचों की नियुक्तियां की है, उससे न सिर्फ़ इन पदों की गरिमा घटी है बल्कि आम जनता में यह धारणा पुष्ट हो गई है कि ये पद सत्ताधारी पार्टी के निष्क्रिय नेताओं और चमचों के लिये आरक्षित रहते थे, रहते हैं और रहेंगे भी। निस्सन्देह सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में रहे कांग्रेसियों ने अपने कार्यकर्त्ताओं और समर्थकों को इन मलाईदार पदों का तोहफ़ा सर्वाधिक दिया है लेकिन अन्य पार्टियां भी पीछे नहीं रही हैं। जिसको जितना भी मौका मिला, जी भर के फायदा लिया। अब तो वी.सी. बनने के लिये करोड़ों रुपये एडवान्स दिये जा रहे हैं।
श्रीमती प्रतिभा पाटिल इन्दिरा गांधी की किचेन में उनकी पसन्द के स्पेशल डिश बनाती थीं। सोनिया ने उन्हें राष्ट्रपति बना दिया। ज्ञानी जैल सिंह कहते थे कि इन्दिरा जी कहें तो मैं झाड़ू भी लगा सकता हूं। उन्हें वफ़ादारी का ईनाम मिला। वे राष्ट्रपति बना दिये गये। एक-एक राष्ट्रपति की कुण्डली पर चर्चा करना बहुत उपयोगी नहीं होगा। बस इतना ही पर्याप्त है कि भारत की जनता सिर्फ़ तीन राष्ट्रपतियों को भारत का सच्चा राष्ट्रपति मानती है। वे हैं - डा. राजेन्द्र प्रसाद, डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और डा. ए.पी.जे. कलाम। राजभवन तो सड़े-गले नेताओं का आश्रय हो गया है। हैदराबाद के राजभवन में नारायण दत्त तिवारी ने क्या नहीं किया? उनकी रति-क्रीड़ा की सीडी के सार्वजनिक होने के बाद ही उनसे इस्तीफ़ा लिया गया। मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष पद पर विद्यमान सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री बालकृष्णन आज भी अपने कार्यकाल के दौरान दामाद द्वारा उनके नाम पर किये गये अनेक घोटालों में फ़ंसे हुए हैं। रिटायर होने के बाद अध्यक्ष पद का तोहफ़ा पा गये। सरकार के पक्ष में कुछ निर्णायक फ़ैसले जो दिये थे उन्होंने।
वीसी का पद तो आजकल पूरी तरह बिकाऊ हो गया है। जो जितनी ऊंची बोली लगायेगा, चुना जायेगा। अगर गहरी राजनीतिक पैठ है, तो मामला सस्ते में भी निपट सकता है। मैं बी.एच.यू. का छात्र रहा हूं। कालू लाल श्रीमाली से लेकर आजतक इस केन्द्रीय विश्वविद्यालय को एकाध अपवाद को छोड़कर कोई भी योग्य वीसी नहीं मिला। इतना सुन्दर विश्वविद्यालय दुर्दशा को प्राप्त हो गया है। जिस विश्वविद्यालय के कुलपति के पद को परम आदरणीय महामना मालवीय जी, डा. राधाकृष्णन, आचार्य नरेन्द्र्देव इत्यादि विभूतियों ने गौरव प्रदान किया उसी पद पर कालू लाल श्रीमाली जैसे घटिया राजनीतिज्ञ और लालजी सिंह, पंजाब सिंह जैसे जोड़-तोड़ में माहिर घोर जातिवादियों को बैठाया गया। आश्चर्य होता है कि आजकल चपरासी के पद पर भी नियुक्ति के पूर्व लिखित परीक्षा और साक्षात्कार से गुजरना पड़ता है लेकिन वीसी की नियुक्ति के लिये कुछ भी आवश्यक नहीं है। यह पद आनेवाली पीढ़ियों को मार्गदर्शन प्रदान करनेवाला पद है। इसपर कार्य करनेवाले व्यक्ति के पास प्रशासनिक और प्रबन्धन की दक्षता होनी चाहिये। संघ लोकसेवा आयोग को लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के माध्यम से वीसी के चयन की जिम्मेदारी देनी चाहिए। तभी इन पदों पर योग्य व्यक्तियों की तैनाती संभव है। इन पदों पर नियुक्ति में कांग्रेस द्वारा फिलाए गए भ्रष्टाचार तो जगजाहिर हैं लेकिन उस गन्दगी को साफ करने के लिये वर्तमान सरकार की ओर से भी कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है। भारत की शिक्षा-व्यवस्था का भगवान ही मालिक है।

Tuesday, September 9, 2014

फ़िरकापरस्त और कश्मीर की बाढ़


आज का समाचार है कि कश्मीर में चार लाख लोग अभी भी बाढ़ में फ़ंसे हैं। राहत कार्य में सेना के एक लाख जवान जुटे हैं। ६० हजार लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया।
कश्मीर में अपनी जान को जोखिम में डालकर बाढ़ पीड़ितों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचानेवाले सेना के ये वही जवान हैं जिन्हें  वहां के राजनेता, फ़िरकापरस्त और कट्टरपन्थी कल तक काफ़िर कहकर संबोधित करते थे। ज़िहादी उनके खून के प्यासे थे। वही सेना के जवान आज देवदूत बनकर कश्मीरियों की रक्षा के लिये अपनी जान की बाज़ी लगा रहे हैं। पिछले आम चुनाव में फ़ारुख अब्दुल्ला ने सार्वजनिक बयान दिया था कि नरेन्द्र मोदी और उनको वोट देने वालों को समुन्दर में फ़ेंक देना चाहिये। उसी नरेन्द्र मोदी ने कश्मीरियों के लिये केन्द्र का खज़ाना खोल दिया है। बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिये न तो हिज़्बुल मुज़ाहिदिन आगे आया और न तालिबान। न आई.एस.आई.एस. ने पहल की न अल-कायदा ने। न आज़म खां आगे बढ़े, न ओवैसी। उनकी मदद की है तथाकथित सांप्रदायिक सेना ने, मौत का सौदागर कहे जाने वाले नरेन्द्र मोदी ने और ज़िहाद के शिकार करोड़ों काफ़िरों ने।
कश्मीर में आई बाढ़ से लाखों लोग विस्थापित हो गये हैं। अपना घर छोड़कर शरणार्थी बनने का दर्द अब उन्हें महसूस होना चाहिये। प्रकृति ने उन्हें यह अवसर प्रदान किया है। इन बाढ़ पीड़ितों को तो सिर्फ़ अपना घर छोड़ना पड़ा है लेकिन तनिक खयाल कीजिए उन हिन्दू विस्थापितों का जिन्हें कश्मीरी आतंकवादियों और अलगाववादियों ने बम-गोले और एके-४७ की मदद से जबरन घाटी से निकाल दिया था। किसी ने अपनी जवान बेटी खोई, तो किसी ने अपनी बहू। किसी ने अपना पिता खोया, किसी ने बेटा। न फ़ारुख की आंख से आंसू का एक बूंद टपका न उमर का दिल पसीजा। न सोनिया ने एक शब्द कहा, न राहुल ने बांहें चढ़ाई। इसके उलट ओवैसी के हैदराबाद और आज़म के रामपुर में मिठाइयां बांटी गईं।
यह वक्त है स्थिर चित्त से चिन्तन करने का। क्या धारा ३७० की उपयोगिता अभी भी है?

Monday, July 28, 2014

एक पाती राहुल बबुआ के नाम


प्रिय राहुल बबुआ,
      जब से तुम्हारी पार्टी लोकसभा का चुनाव हारी, हम सदमे में चले गये। उत्तराखण्ड में हुए उपचुनाव में तीनों विधान सभा की सीटें कांग्रेस ने जीत ली है। इस खबर से इस मुर्दे में थोड़ी जान आई है। इसीलिये आज बहुत दिनों के बाद एक पाती लिख रहा हूं।
      बेटा, हिम्मत मत हारना। हारिए न हिम्मत बिसारिये न हरि नाम। हरि से तो तुम्हारे खानदान और परिवार का कोई वास्ता कभी नहीं रहा है लेकिन हिम्मत से हमेशा रहा है। हिम्मत के मामले में तुम्हारी दादी बेजोड़ रही हैं। कांग्रेस से अलग होकर इन्दिरा कांग्रेस बनाने तथा १९७५ में एमरजेन्सी लगाने का काम कोई बड़ी हिम्मत वाला शक्स ही कर सकता था। तुम्हारे में भी थोड़ी-बहुत हिम्मत है। जब तुम बाहें चढ़ाकर चमचों के बीच भाषण देते थे, तो लोग तुम्हें यन्ग्री यंगमैन समझने लगे थे। मीडिया ने तुमको अमिताभ बच्चन का नया अवतार कहना शुरु कर दिया था। जब तुमने दागी विधायकों और सांसदों को बचानेवाले अपने ही सरकार के अध्यादेश  को प्रेस के सामने फाड़ कर फेंक दिया था, तुम अचानक राजनीति के राबिनहुड बन गये थे। चाटुकार दरबारियों को तुमसे बहुत आशायें थी लेकिन नरेन्द्र मोदी ने सब गुड़ गोबर कर दिया। योजना तो तुमने ठीक ही बनाई थी। केजरीवाल को पटाकर लोकसभा की ४४० से अधिक सीटों पर आप के उम्मीदवार खड़ा कराकर काग्रेस विरोधी वोट बांटने का तुम्हारा और भौजी का प्रयास सराहनीय था। लेकिन केजरीवाल पर भगोड़ा होने का लेबल इस तरह चस्पा  हुआ कि वह खुद तो हारा ही अपने महारथियों की जमानत भी गंवा बैठा। तुम्हारा गुरु योगेन्द्र यादव चारों खाने चित्त हो गया। मोदी की सुनामी ने बड़े बड़ों का बन्टाढाढ़ कर दिया। बताओ, आज नेता विरोधी दल के भी लाले पड़ गए।
      पुरखे कह गये हैं - मनुष्य बली नहीं होत है, समय होत बलवान, भीलन गोपी छीन लिए वही अर्जुन वही बाण | बेटा, सपने हमेशा ऊंचे देखना चाहिये। प्रधान मंत्री का सपना देखते-देखते, नेता विपक्ष का सपना क्यों देखने लगे? तुम्हीं बताओ, ४४ की संख्या पर नेता, विपक्ष कैसे बनोगे? यह छोटा सा गणित तुम्हरी समझ में काहे नहीं आ रहा है? तुम लोगों के लिये सौ खून माफ़ है, लेकिन मोदी ने अगर एक गलती की, तो नेशनल/इन्टर नेशनल मीडिया उसे शूली पर टांग देगी। तुम्हारी दादी के किचेन में घुसकर खाना बनानेवाली प्रतिभा पाटिल को तुम्हारी मम्मी और हमारी भौजाई ही राष्ट्रपति बना सकती हैं, दूसरे किसी में इतनी हिम्मत नहीं है। बेटवा, यह माना कि तुम खानदानी शहज़ादा हो। लाल बत्ती की गाड़ी में चलने की तुम्हारे परिवार को आदत है लेकिन यह लोकतंत्र भी कभी-कभी पेनाल्टी किक दागिए देता है। इन्तज़ार करने में कवनो हरज नहीं है। पैसा-कौड़ी की तो तुम्हारे पास वैसे ही कवनो किल्लत नहीं है। अभी तो राजीव भैया के स्विटजरलैंड का पैसा ही खर्च नहीं हुआ होगा, २-जी, ३-जी, कोलगेट, कामनवेल्थ आदि-आदि का पैसा भी भौजाई बीमारी के बहाने अमेरिका जाकर सुरक्षित जगह पर रखिये आई हैं। एक नहीं, सौ जेटली आयेंगे, तो भी तुम्हारे पैसे का सुराग नहीं पा पायेंगे। इसलिये चिन्ता की कवनो बात नहीं है। लेकिन बेटा, कुछ बुरी आदतें तो छोड़नी ही पड़ेंगी। लोकसभा चल रही थी, महंगाई पर गंभीर चर्चा चल रही थी और तीसरी पंक्ति में बैठे-बैठे तुम सो रहे थे। टीवी चैनल वालों की मदद से सारी दुनिया ने यह दृश्य देखा। दूसरे दिन भौजा ने बुलाकर फ़्रौन्ट रो में तुम्हें अपने पास बिठाया। बेटा, वे कबतक स्कूल मास्टर की भूमिका निभायेंगी। उनके आंचल की छांव में कबतक पनाह लोगे। अब तो तुम्हारी उमर भी ४५ को पार कर गई होगी। अब अपने लिये फ़ुल टिकट की व्यवस्था करो। हाफ़ टिकट पर कबतक चलोगे? कोई भी बाप अपनी बेटी के लिये एक कमाऊ और समझदार बालिग दामाद ढूंढ़ता है। जरा मैच्युरिटी दिखाओ, वरना ज़िन्दगी भर कुंवारा ही रहना पड़ेगा। कही तुमने प्रधानमन्त्री बनने के बाद ही शादी करने की कसम तो नहीं खा रखी है? अगर ऐसा है, तो बहुत बुरा है। जनता ने जिस तरह लोकतंत्र का पेनाल्टी किक लगाया है, उसको देखते हुए तो ऐसा नहीं लग रहा है कि ५ साल बाद भी कोई चान्स मिलेगा। वैसे भी मोदी जहां का चार्ज लेते हैं वहां कम से कम तीन चुनाव तो जीतते ही हैं। तबतक तुम्हारी बुढ़ौती आ जायेगी। फिर भांजों के साथ ही बारात निकालनी पड़ेगी। दिग्विजय को अमृता राय मिल भी गई, तुम्हारे लिये लड़की तलाशना लोहे  का चना चबाने जैसा होगा। फिर तुम्हें खुद ही अपने परनाना की तरह किसी एडविना माउन्टबेटन की तलाश करनी होगी।
      हमलोग यहां राजी-खुशी हैं। भगवान तुम्हें भी भौजी के साथ राजी-खुशी रखें। बबुआ मेरी बात का खयाल रखना -
            तूने रात गंवाई खाय के; दिवस गंवाया सोय के,
            हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाय।
      जय रामजी की। इति शुभ।
                  तुम्हारा - चाचा बनारसी

Thursday, July 17, 2014

घरेलू उपकरणों में बिजली की बचत - रेफ़्रिजरेटर



     रेफ़्रिजरेटर - सब्जी, भोजन, फल व अन्य सामग्रियों को ताजा रखने के लिए रेफ़्रिजरेटर जिसे फ़्रीज भी कहते हैं, अब लगभग हर घर में प्रयोग में आने लगा है। गृहिणियों के लिए यह उपकरण बड़े काम का है। इसकी मदद से वे बच्चों को आइसक्रीम खिला सकती हैं और कोल्ड ड्रिन्क्स भी पिला सकती हैं। दिन का खाना रात में भी खिला सकती हैं और रोज-रोज सब्जी खरीदने से मुक्ति भी पा सकती हैं। फ़्रीज का परिचालन अगर थोड़ी सी सावधानी से करें, तो ३०% बिजली की बचत भी हो सकती है और फ़्रीज की आयु भी बढ़ सकती है। कुछ सुझाव निम्नवत हैं --
     १. नियमित रूप से फ़्रीज और फ़्रीजर को डिफ़्रास्ट करते रहें। फ़्रीज के अन्दर नमी बढ़ने से कम्प्रेसर अधिक चलता है जिसके कारण बिजली की      खपत ज्यादा होती है।
     २. फ़्रीज और दीवार के बीच हवा के प्रवाह के लिए कम से कम ९ इन्च जगह खाली रखें। फ़्रीज के    पिछले हिस्से से ही कम्प्रेसर की गर्मी बाहर     निकलती है। अगर गर्म हवा बिना किसी प्रतिरोध के बाहर निकलती है, तो फ़्रीज की कार्य कुशलता बढ़ जाती है और बिजली की खपत भी कम हो      जाती है।
     ३. फ़्रीज के दरवाजे को वायु निरोधक बनायें। दरवाजे से फ़्रीज के अन्दर न हवा अन्दर आनी चाहिये     और न फ़्रीज की ठंढ़ी हवा बाहर जानी    चाहिए। दरवाजा पूरी तरह एयर टाइट होना चाहिए।
     ४. फ़्रीज में रखे जाने वाले तरल एवं खाद्य पदार्थों को ढक कर रखें। बिना ढके भोज्य पदार्थ नमी पैदा   करते हैं जिससे कम्प्रेसर पर दबाव बढ़ जाता    है और बिजली की खपत ज्यादा होती है।
     ५. फ़्रीज के दरवाजे को अनावश्यक अथवा अधिक समय तक न खोलें। ऐसा करने से भी कम्प्रेसर पर     दबाव बढ़ जाता है और बिजली कि खपत बढ़   जाती है, फलस्वरूप आपका बिल ज्यादा आता है।
     ६. नियमित रूप से प्रयोग की जाने वाली चीजों के लिए छोटे कैबिनेट का प्रयोग करें।     
     ७. फ़्रीज में भोजन अथवा अन्य भोज्य पदार्थ कमरे के तापक्रम पर लाने के बाद ही रखें। गर्म भोजन अथवा पदार्थ सीधे फ़्रीज में रखने से ठंढ़ा करने के लिए फ़्रीज को ज्यादा कार्य करना पड़ता है। इससे   कम्प्रेसर अतिभारित होता है और बिजली की खपत बढ़ जाती है।
              आपके द्वारा की गई बिजली की बचत विद्युत उत्पादन करने के समतुल्य है। राष्ट्रहित में बिजली बचायें।

Monday, July 14, 2014

घरेलू उपकरणों में बिजली की बचत


     एयर कन्डीशनर - कमरे/हाल/दूकान/कार्यस्थल के अन्दर तापमान को सुविधाजनक स्तर पर रखने के लिये एयर कन्डीशनर का प्रयोग एक आम बात हो गई है। एयर कन्डीशनर को स्वतः तापमान नियंत्रक कट आफ़ पर रखें। रेगुलटर को २२ डिग्री से २६ डिग्री पर सेट करें। यही तापमान का वह रेन्ज है जो मानव शरीर के अनुकूल है। कुछ लोग निम्नतम तापमान सेट नहीं करते हैं जिसके कारण एयर कन्डीशनर  लगातार चलता रहता है और तापमान काफी नीचे आ जता है। यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। लगातार चलने से एसी का कम्प्रेसर गर्म हो जाता है और जलने की संभावना बढ़ जाती है। कम्प्रेसर एयर कन्डीशनर का दिल होता है। कम्प्रेसर बन्द तो एसी बन्द। कम्प्रेसर जैसे-जैसे गर्म होता है, बिजली की खपत वैसे-वैसे बढ़ती जाती है। अतः रेगुलेटर को २२ से २६ डिग्री के बीच ही रखें।
      एयर कन्डीशनर के साथ छत पर लगे पंखे को भी चलायें। ऐसा करने से ठंढ़ी हवा पूरे कमरे में प्रभावी ढंग से फैलती है जिससे एसी और ठंढ़क प्रदान करता है। सिर्फ़ एसी चलाने से ठंढी हवा नीचे रहती है और गर्म हवा ऊपर रहती है। इसके कारण एयर कन्डीशनर पर अनावश्यक भार पड़ता है।
      एयर कन्डीशनर खरीदते समय स्टार रेटेड एसी ही लेने का प्रयास करें। स्टार रेटेड एसी में बिजली की खपत कम होती है। कमरे की साईज़ के अनुकूल ही एसी की क्षमता का चयन करें। छोटे कमरे में बड़ी क्षमता का एसी लगाने से ठंढ़क थोड़ी ज्यादा जरूर मिलती है लेकिन बिजली की खपत बहुत बढ़ जाती है। कमरे के क्षेत्रफल के हिसाब से ही एसी कि क्षमता का चयन करें। १२० वर्गफ़ीट के कमरे के लिये १ टन की क्षमता वाले एसी की आवश्यकता होती है। एसी लगे कमरों की खिड़कियों पर पर्दे अवश्य लगायें। खिड़की और दरवाजे कभी खुला न रखें। बाहर से हवा आने-जाने वाले सभी स्रोतों को सील कर दें।
       एसी थर्मोस्टेट के निकट लैम्प, टीवी, कमप्यूटर या कोई अन्य गर्म होने वाला उपकरण न रखें। इन उपकरणों से गर्मी निकलती है जिसे थर्मोस्टेट ग्रहण करता है। इसके कारण एसी अनावश्यक रूप से अधिक समय तक चलता है। इससे बिजली ज्यादा खर्च होती है और बिल की राशि भी बढ़ जाती है।
      कमरे के बाहर निकले एसी के भाग पर हमेशा छांव रखने कि व्यवस्था करें। इसके लिए उसके आसपास लता या छोटे-बड़े पेड़ लगाएं। यदि यह संभव नहीं है तो उचित दूरी एवं ऊंचाई के शेड का प्रयोग करें। इससे १०% तक बिजली की बचत होती है।
      ध्यान रहे, विद्युत की बचत विद्युत उत्पादन के समतुल्य है।

Saturday, July 12, 2014

ऊर्जा का महत्त्व, उपयोग एवं संरक्ष ण


    मार्च २०११ में मैं दादा बना। पोते के आगमन पर खुशी तो हो रही थी लेकिन मन में तरह-तरह की शंकाएं भी घर कर रही थीं। कारण था - मेरा पोता निर्धारित समय से एक महीना पूर्व ही आ गया था। यह एक प्री मैच्योर्ड डिलीवरी का केस था। स्वाभाविक था - बच्चा बहुत कमजोर था और वज़न भी कम था। खुशियां तो आईं लेकिन आशंकाओं और दुश्चिन्ताओं की संभावनाओं के साथ। मैंने अपनी चिन्ता डाक्टर को बताई। वे हंसी और बोलीं - "आप नाहक परेशान हो रहे हैं। हम बेबी को १५ दिन तक इन्क्यूबेटर में रखेंगे, उसके बाद ही आपको सौंपेंगे। १५ दिनों में बेबी का फ़ुल ग्रोथ हो जायेगा। चिन्ता की कोई बात नहीं है।” इन्क्यूबेटर एक ऐसा साधन है जिसका तापक्रम मां के गर्भ के समान रखा जाता है। बच्चे को भोजन और केयर बिल्कुल मां के गर्भ की तरह मिलता है। एलेक्ट्रिकल इन्जीनियरिंग, मेकेनिकल इन्जीनियरिंग और मेडिकल साइन्स की उच्च श्रेणी की प्रतिभा के समन्वय का नाम है इन्क्यूबेटर। मेरा पोता १५ दिनों के बाद हास्पीटल से डिस्चार्ज हुआ। वह पूर्ण स्वस्थ था और वज़न भी बढ़ गया था। आजकल वह स्कूल जाता है। अपनी उम्र के लड़कों में वह सबसे ज्यादा सक्रिय है। मैं सोचता हूं कि आपरेशन थिएटर और इन्क्यूबेटर के लिए यदि हमने २४ घंटे की विद्युत आपूर्ति न दी होती, तो क्या हम अपने पोते को वर्तमान रूप में पा पाते?
      कुछ वर्ष पहले जो कार्य असंभव दिखता था, आज हम बिजली के माध्यम से चुटकी बजाते कर लेते हैं। २०वीं सदी के आरंभ में हवा और पानी ही हमारे जीवित रहने के प्रमुख कारक थे लेकिन  २१वीं सदी के आते-आते हवा और पानी के साथ बिजली का नाम भी जुड़ गया। बिजली हमारी जीवन रेखा बन गई। इस सदी के बच्चे का पहला पड़ाव होगा, बिजली से चलने वाला आपरेशन थिएटर और अन्तिम पड़ाव होगा विद्युत शवदाह गृह।
      आज की तारीख में देश का ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं होगा जो बिजली का उपयोग नहीं करता। मोबाइल फ़ोन से लेकर टीवी, किचेन से लेकर बेडरूम, झोंपड़ी से लेकर गगनचुम्बी एपार्टमेन्ट - सबमें बिजली का उपयोग अनिवार्य आवश्यकता बन गई है। हम सभी बिजली का इस्तेमाल तो करते हैं लेकि कभी हमने सोचा है कि बिजली की खपत में बचत करके आने वाली पीढ़ियों और राष्ट्र के उपर हम सीधा अनुग्रह कर सकते हैं?
      इस समय उपलब्ध बिजली का ६०% हम ताप विद्युत गृहों से प्राप्त करते हैं। ऐसी बिजली के उत्पादन के लिए कोयले की आवश्यकता होती है। कोयले का भंडार सीमित है। पूरे विश्व में अगर इसी तरह कोयले की खपत होती रही, तो आनेवाले ७५ वर्षों में कोयले का भंडार समाप्त हो जाएगा। फिर हम अगली पीढ़ी के लिए विरासत में क्या छोड़ जायेंगे? क्या हम पुनः लालटेन युग में लौट जायेंगे? समस्या भयावह है लेकिन समाधान असंभव नहीं। छोटा से बड़ा आदमी भी अगर बिजली का इस्तेमाल कंजूस के धन की तरह करे, तो हम अपनी खपत ३५% तक कम कर सकते हैं। इससे हमारा बिजली का बिल भी कम आयेगा और हमारे संसाधन भी लंबे समय तक संरक्षित रहेंगे। इसके लिए कोई कठिन श्रम करने की आवश्यकता  नहीं है, बस निम्न सुझाओं को अपनाने की जरुरत है -
      १. साधारण बल्ब या ट्यूब राड की जगह सीएफ़एल या एलईडी लैंप का उपयोग किया जाय।
      २. एसी. फ़्रीज तथा अन्य विद्युत उपकरण आई.एस.आई. अथवा स्टार रेटिंग वाला ही खरीदा जाय।
      ३. पंखा/पंप/मोटर आदि की समय-समय पत ग्रिसिंग/सर्विसिंग कराई जाय।
      ४. काम समाप्त होने पर कंप्यूटर/टीवी/माइक्रोवेव/ओवन/पंखा/लाईट स्विच से बन्द किया जाय।
      ५. एसी में लगे एयर फ़िल्टर की प्रत्येक सप्ताह सफाई की जाय।
      ६. फ़्रीज को कम से कम खोला जाय और सप्ताह में कम से कम एक बार डिफ़्रास्ट किया जाय।
      ७. घर से निकलते समय अनावश्यक विद्युत उपकरण के मेन स्विच बन्द कर दिये जांय।
            बिजली की बचत विद्युत उत्पादन करने के समतुल्य है।

Friday, June 20, 2014

किराये का मकान और केजरीवाल

       आदमी अपने कर्मों के कारण कितनी जल्दी अर्श से फ़र्श पर आता है, इसका ताज़ातरीन उदाहरण हैं आप के नेता अरविन्द केजरीवाल। जो आदमी कुछ ही दिन पहले दिल्ली की जनता का हीरो था, आज ज़ीरो है। उसको शरण देने के लिये दिल्ली में कोई तैयार नहीं हो रहा है। समाचार है कि दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल को किराये का मकान नहीं मिल रहा है। काफी ना-नुकुर के बाद केजरीवाल ने मुख्यमन्त्री के लिये आवंटित मकान को खाली किया। उस मकान पर कब्जा बनाये रखने के लिये उन्होंने वे सारे तिकड़म किये जो एक आम सरकारी अधिकारी या कर्मचारी करता है। कायदे से मुख्यमन्त्री का पद छोड़ने के बाद स्वतः उन्हें मुख्यमन्त्री का आवास खाली कर देना चाहिये था लेकिन उन्होंने प्रशासन को पत्र लिख कर मकान में रहने की अनुमति मांगी। तर्क यह दिया कि उनकी बेटी हाई स्कूल की परीक्षा दे रही है अतः वे मकान खाली नहीं कर सकते। आश्चर्य होता है कि मुख्यमन्त्री बनने के पहले वे गाज़ियाबाद में रहते थे। उनकी बेटी उनके साथ ही रहकर पढ़ती थी। ४९ दिनों तक मुख्यमन्त्री रहने के बाद ऐसा कौन सा बदलाव आ गया कि उनकी बेटी गाज़ियाबाद में रहकर परीक्षा नहीं दे सकती थी? दरअसल ४९ दिनों में कुछ नहीं बदला, केजरीवाल जरुर बदल गये। उन्हें मुख्यमन्त्री के रूप में प्राप्त सर-सुविधायें रास आने लगी। मुख्यमन्त्री बनने के पूर्व सरकारी मकान, सरकारी वाहन और सरकारी सुविधाओं को न लेने की सार्वजनिक घोषणा करने के बाद भी उन्होंने सबका भोग किया और ४९ दिनों में ही उनके आदी हो गए। वाराणसी से बुरी तरह चुनाव हारने के बाद दिल्ली के उपराज्यपाल से मिलकर केजरीवाल ने पुनः मुख्यमन्त्री बनने के लिये प्रस्ताव भी दिया जिसे स्वीकार नहीं किया गया। उनकी कथनी और करनी में फ़र्क को जनता ने अच्छी तरह समझ लिया। विश्वसनीयता के मामले में वे कांग्रेस से भी पीछे चल रहे हैं। उनके साथी भी एक-एक कर उनका साथ छोड़ते जा रहे हैं। एक बात स्पष्ट हो गई है कि अरविन्द केजरीवाल परम स्वार्थी और तानाशाही प्रवृत्ति के नेता हैं। वे अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये कुछ भी कर सकते हैं। उनकी स्वार्थी प्रवृत्ति का प्रमाण पिछला आम चुनाव था जिसमें उन्होंने भाजपा और कांग्रेस से भी ज्यादा प्रत्याशी मैदान में उतारे थे - लगभग ४३२। उन्होंने प्रत्याशी तो उतार दिये लेकिन न तो उन्हें धन मुहैया कराया और न उनका चुनाव प्रचार किया। स्वयं शुरु से लेकर अन्त तक वाराणसी में ही जमे रहे। अन्य प्रत्याशियों की कोई सुधि नहीं ली। वाराणसी में पैसा पानी की तरह बहाया गया, दूसरे प्रत्याशियों को पैंफलेट छापने के लिये भी पैसे नहीं दिए गए। चुनाव में खर्चों का केजरीवाल ने जो व्योरा दिया है, उसके अनुसार उन्होंने नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा पैसा खर्च किया है। यही कारण रहा कि शाज़िया इल्मी, योगेन्द्र यादव और कुमार विश्वास जैसे उनके स्टार प्रचारक और सहयोगी अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाये। अन्ना के जनान्दोलन से उपजे केजरीवाल मोदी की सुनामी में तिनके की भांति उड़ गये। रही सही कसर उनकी महत्वाकांक्षा और स्वार्थपरता ने पूरी कर दी। लोगबाग दिग्विजय सिंह से ज्यादा केजरीवाल पर अविश्वास करते हैं। आजकल वे जहां भी मकान के लिये जाते हैं, मकान मालिक ‘ना’ में सिर हिला देता है। जब सर्व सामर्थ्यशाली भारत सरकार भी पांच महीने तक उनसे मकान खाली करने में नाकाम रही तो साधारण मकान मालिक किस खेत की मूली है! वैसे यह भी केजरीवाल का एक ड्रामा ही है। उनकी पत्नी आयकर विभाग में कमिश्नर हैं और स्वयं केजरीवाल ने एनजीओ के माध्यम से कई सौ करोड़ रुपये बनाये हैं। वे एक मकान क्या पूरा अपार्टमेन्ट खरीद सकते हैं। लेकिन जिसको ड्रामा करने की आदत लग गई है, उसका क्या इलाज हो सकता है? 

Sunday, June 1, 2014

स्मृति ईरानी और लार्ड मेकाले की शिक्षा

          समरस समाज, प्रेरणादायक नेतृत्व और नागरिकों के उच्च चरित्र ही देश और समाज के सर्वंगीण विकास में सहायक होते हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथेमेटिक्स, इतिहास, भूगोल और अर्थशास्त्र की किस पुस्तक में लिखा है कि बड़ों का सम्मान करो, स्त्रियों को मां-बहन का सम्मान दो, माता-पिता-गुरु को पैर छूकर प्रणाम करो। राम, कृष्ण, गौतम, गांधी के चरित्र को हृदय से हृदयंगम किए बिना नैतिकता और चरित्र का विकास असंभव है। मैकाले की सेकुलर शिक्षा व्यवस्था ने नैतिकता और चरित्र को कालवाह्य बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
      फरवरी १८३५ में इंग्लैंड के हाउस आफ़ कामन्स में भारत की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन हेतु अपनी दलील देते हुए लार्ड मेकाले ने कहा था -
      "I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think that we would ever conquer this country unless we break the very backbone of this nation, which is the cultural and the spiritual heritage, and thereof, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them - a truly dominated nation." (बिना किसी संशोधन के एक-एक शब्द, कामा फ़ुलस्टाप के साथ मेकाले के लिखित वक्तव्य से उद्धृत)
      "मैंने पूरे भारत की यात्रा की और ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो भिखारी हो या चोर हो। इस तरह की संपत्ति मैंने इस देश में देखी है, इतने ऊंचे नैतिक मूल्य, लोगों की इतनी क्षमता, मुझे नहीं लगता कि कभी हम इस देश को जीत सकते हैं, जबतक कि इस देश की रीढ़ को नहीं तोड़ देते जो कि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्ताव करता हूं कि हमें इसकी पुरानी और प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था, इसकी संस्कृति को बदलना होगा। इसके लिए यदि हम भारतीयों को यह सोचना सिखा दें कि जो भी विदेशी है और अंग्रेज है, यह उनके लिए अच्छा और बेहतर है, तो इस तरह से वे अपना आत्मसम्मान खो देंगे, अपनी संस्कृति खो देंगे और वे वही बन जायेंगे जैसा हम चाहते हैं - एक बिल्कुल गुलाम देश।"
    आज़ादी के बाद भी हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार नहीं किया। हमने किसी भी व्यक्ति की योग्यता को लार्ड मेकाले के मापदंडों के आधार पर ही मापा। लेकिन मेकाले के अंध भक्तों ने देश को दिया क्या? सदियों पुराने देश का नाम बदलकर इंडिया रख दिया। मेकाले के सबसे बड़े भक्त जवाहर लाल नेहरू ने ५० हजार लाशों की नींव पर देश का बंटवारा करा दिया। सारी नैतिकता को ताक पर रखकर एडविना मौन्टबैटन से अनैतिक संबन्ध बनाए और कांग्रेस में वंशवाद के पुरोधा बने। इन्दिरा गांधी लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धति से कोई डिग्री तो नहीं ले पाईं लेकिन देश की प्रधान मंत्री अवश्य बन गईं। उन्हें भारत का इतिहास इमरजेन्सी के माध्यम से तानाशाही थोपने के लिये हमेशा याद करेगा। उनके पुत्र भी किसी विश्वविद्यालय से कोई डिग्री नहीं ले पाये। हां, हवाई जहाज उड़ाते-उड़ाते देश के पायलट जरुर बन गये। सोनिया जी लन्दन में मेकाले की शिक्षा पाने गईं अवश्य थीं लेकिन कोई डिग्री हाथ नहीं लगी। बार गर्ल की नौकरी के दौरान राजीव गांधी हाथ जरुर लग गये। उन्होंने १० वर्षों तक रिमोट कन्ट्रोल से भारत पर शासन किया। उनके सुपुत्र राहुल बबुआ भी डिग्री के लिये हिन्दुजा से डोनेशन दिलवाकर हार्वर्ड गये। पढ़ने के बदले कोलंबिया गर्ल से फ़्लर्ट करना ज्यादा मुनासिब समझा और खाली हाथ इंडिया लौट आए। यहां तो युवराज का पद आरक्षित पड़ा ही था। मेकाले के मापदंडों पर खरा उतरने वाले पिछली सरकार के रहनुमाओं में डा. मममोहन सिंह, चिदंबरम, ए. राजा, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, दिग्विजय सिंह, शशि थरुर, नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं के नाम स्वार्णाक्षरों में अंकित रहेंगे। लेकिन इन्होंने किया क्या? किसी ने परस्त्रीगमन किया, किसी ने रिश्वत लेकर देश बेचने का काम किया, तो किसी ने भारत की अर्थव्यवस्था को रसातल में पहुंचाने में अपना सर्वस्व झोंक दिया।
    भारत की जनता ने इनके कुकृत्यों के कारण गत माह में संपन्न हुए आम चुनाव में इन्हें बुरी तरह ठुकरा दिया। हताश मेकाले भक्तों को खांटी देसी प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी दिखाई पड़ गईं। ये वही महिला हैं जिन्होंने अमीठी में शहज़ादे को लगभग धूल चटा दी थी। खुन्दक खाए चाटुकार दरबारी, स्मृति की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाने लगे। इन चाटुकारों ने इसके पहले कभी भी इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, सन्जय गांधी, सोनिया गांधी और शहज़ादे राहुल गांधी की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल नहीं उठाए। क्या यह सत्य नहीं है कि मेकाले को ईश्वर का दूत मानने के बावजूद नेहरू जी के बाद उनके खानदान में कोई स्नातक की डिग्री नहीं ले पाया?
    शिक्षा और संस्कार से दो चीजें प्राप्त होती है - १. ज्ञान २. जानकारी। मेकाले की शिक्षा से सिर्फ़ जानकारी मिलती है जिसका चरित्र और संस्कार से कोई तालमेल नहीं है। भारतीय शिक्षा पद्धति से ज्ञान प्राप्त होता है जिसमें चरित्र और संस्कार कूट-कूट कर भरे रहते हैं। बाल्मीकि, तुलसी, सूर, कालिदास, कबीर, विद्यापति, शिव पूजन सहाय, जय शंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचन्द, मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन बाबा, मौसम वैज्ञानिक घाघ और अनेक देसी रत्नों ने कहीं से पी.एचडी. नहीं की थी लेकिन उनपर और उनकी कृतियों पर हजारों लोग पी.एचडी कर चुके हैं। अकबर, छत्रपति शिवाजी, महारानी लक्ष्मी बाई, अहिल्या बाई होलकर के पास लार्ड मेकाले की कोई डिग्री नहीं थी लेकिन उनकी शासन व्यवस्था, प्रबन्धन और कुशल नेतृत्व को इतिहास क्या कभी भुला पाएगा? आज के युग में हजारों इंजीनियरों और प्रबंधकों को नौकरी प्रदान करने वाले रिलायंस ग्रूप के संस्थापक धीरु भाई अंबानी के पास कौन सी डिग्री थी? एक लोटा और १०० रुपए के एक नोट के साथ पिलानी से कलकत्ता पहुंचने वाले घनश्याम दास बिड़ला तो हाई स्कूल पास भी नहीं थे। उन्होंने जो औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया, उसमें मेकाले का क्या योगदान है? सिर्फ़ आलोचना-धर्म के निर्वाह और चाटुकारिता के लिये माकन, सिब्बल, दिग्गी जैसे चारण स्मृति की आलोचना कर रहे हैं। उन्हें राज्य सभा में स्मृति द्वारा दिये गए विद्वतापूर्ण भाषण, टीवी चैनलों पर दिये गए साक्षात्कार और क्रान्तिकारी भाषण कभी याद नहीं आयेंगे। मेकाले की डिग्री और योग्यता  से कोई संबंध नहीं है। स्मृति के पास दृष्टि है, कार्य करने की इच्छा शक्ति है, कर्मठता है, नेतृत्व क्षमता है और सबसे बढ़कर भारत माता के प्रति अटूट निष्ठा है। ये सारे दुर्लभ गुण उन्हें सफलता के नये-नये सोपन प्रदान करेंगे। चन्द्रगुप्त की प्रतिभा को चाणक्य ने पहचाना था, स्मृति की प्रतिभा को नरेन्द्र ने पहचाना है। शुभम भवेत।

Wednesday, May 28, 2014

भारत की आज़ादी


१५ अगस्त १९४७ को इन्डिया आज़ाद हुआ था। वह एक अधूरी आज़ादी थी। हम मानसिक रूप से गुलामी की अवस्था में ही जी रहे थे। २६ मई, २०१४ को भारत आज़ाद हुआ। हमने मानसिक गुलामी की जंजीरें तोड़ डाली। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में सर्वत्र भारत दिखाई पड़ रहा था। ब्रिटेन और अमेरिका के अखबारों ने अन्त अन्त तक मोदी का घोर विरोध किया। लोकसभा चुनाव के पहले ब्रिटेन का प्रमुख अन्तराष्ट्रीय अखबार ‘गार्जियन’ यूरोप, अमेरिका और भारत के भी उन अंग्रेजी अखबारों में शामिल था, जिन्होंने भारतीय मतदाताओं से विभाजनकारी नरेन्द्र मोदी को न चुनने की  सेक्युलर बुद्धिजीवियों की अपीलें जोरदार ढंग से छापी थीं। लेकिन मोदी की भारी जीत के बाद इनके सुर अचानक बदल गये। १८ मई को गार्जियन ने अपने संपादकीय में लिखा - “मोदी की जीत दिखाती है कि अंग्रेज आखिर भारत से चले गए।” पश्चिम के एक और अखबार ने उन्हीं दिनों लिखा - “भारत एक केन्द्रीकृत, बाड़ों में बन्द, सांस्कृतिक रूप से दबा हुआ और पूर्ववर्तियों की तरह अपेक्षाकृत छोटे, अंग्रेजी बोलने वाले संभ्रान्त वर्ग द्वारा शासित देश था, जिसका आम लोगों के प्रति नज़रिया उनको नज़रानें बांटने और उनका फायदा उठाने का तो था, लेकिन सबको साथ लेकर चलने वाला कभी नहीं था।” इस अखबार समेत कई विचारक अब मान रहे हैं कि “नया भारत खैरात नहीं, अवसर और अपनी पहचान चाहता है और यह किसी की धौंस में आने को राजी नहीं है।” चर्चित समाचार वेबसाईट ‘हफ़िंगटन पोस्ट’ में प्रख्यात ब्लागर वामसी जुलुरी ने भाजपा विरोधी पार्टियों के सेक्युलरिज्म को ‘हिन्दुफ़ोबिया’ बताया है और लिखा है कि यह जनादेश जितना सुशासन और विकास के लिये है, उससे कही अधिक इस नए उभरते हुए विचार की घोषणा के लिये भी है कि विश्व में हिन्दू और भारतीय होने का क्या मतलब है; सर्व धर्म समादर और शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व जिसके सभ्यतागत जीवन मूल्य हैं। यह नया रूप १९८०-९० दशक के हिन्दू राष्ट्रवादी उभार से अलग है। भारतीयता का यह बोध उग्र राष्ट्रवाद और अल्पसंख्यकों की लानत-मलामत को तवज्जो नहीं देता, फ़र्जी सेक्युलरवाद और उद्धत राष्ट्रवादी अतिरेक, दोनों को नकारता है। प्रचलित धारणा के उलट भारत के लोगों ने ठीक ही सोचा कि यह चुनाव सेक्युलरिज्म और हिन्दू उग्रवाद के बीच नहीं बल्कि ‘हिन्दूफ़ोबिया’ और ‘भारत सबके लिए’ के बीच है।”
पश्चिमी जगत के अखबारों के ये बदलते स्वर अनायास नहीं हैं। सचमुच भारत की जनता को भी यह विश्वास है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को विश्व में एक नई पहचान देते हुए प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी इसे विकास की नई ऊंचाई प्रदान करेंगे। अगर हम निष्पक्ष समीक्षा करेंगे तो यह पायेंगे कि १९४७ में आज़ादी पाने के बाद भी हम मानसिक रूप से अंग्रेजों के गुलाम रहे। भारत की संसद, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की कार्यवाही देखने के बाद क्या कोई विश्वास के साथ कह सकता है कि हम एक आज़ाद देश के वासी हैं। हम भारतवासी अंग्रेजी, अंग्रेज और अंग्रेजियत के इस कदर गुलाम रहे कि एक वंश के शासन को ६० वर्षों तक स्वीकार करते रहे। हद तो तब हो गई जब अंग्रेजों के खिलाफ़ आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस ने एक आयातित गोरी चमड़ी का नेतृत्व सहज भाव से स्वीकार कर लिया। कांग्रेस के कुशासन से तंग आकर जनता ने एक खांटी देसी व्यक्ति को देश की कमान देकर भारत में कांग्रेस मुक्त राज की कल्पना को साकार किया है। कांग्रेस से मुक्ति पाये बिना सुशासन की कल्पना एक दिवास्वप्न थी। चाटुकारों और स्वार्थी तत्वों ने इस देश के स्वाभिमान को रसातल में पहुंचा दिया है। जनता ने उन्हें नकार दिया। लेकिन अभी भी कई काम अधूरे हैं। चुनाव ने तो राज को कांग्रेस मुक्त बना दिया लेकिन अगर कांग्रेसियों में तनिक भी स्वाभिमान शेष है तो भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को विदेशी नेतृत्व से मुक्त कराना होगा। वंशवाद की जिस बेल का कांग्रेस ने खाद-पानी देकर ६७ वर्षों से हरा-भरा किया, वह विषबेल अब भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियों को छोड़ सभी पार्टियों को अपनी गिरफ़्त में ले चुकी है। यह विषबेल लोकतंत्र और भारत के लिये भी गंभीर चुनौती है। अच्छे दिन आ गये हैं। हम आशा करते हैं कि हमारे महान राष्ट्र को वंशवाद से भी शीघ्र मुक्ति मिल जायेगी। बिहार ने राह दिखा दी है। अन्यों को सिर्फ़ अनुसरण करना है।