Saturday, August 24, 2013

नैतिकता का मज़ाक

          गत १० जुलाई को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था - निचली अदालत से दो या दो साल से अधिक अवधि की सज़ा पाने वाले सभी जन प्रतिनिधियों की संसद और विधान सभा की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी तथा हिरासत या जेल में रहकर कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाएगा। यह फ़ैसला संसद और विधान सभाओं में हत्या, बलात्कार, रिश्वत या अन्य गंभीर अपराध के घोषित अपराधियों के संसद या विधान सभाओं में बेरोकटोक पहुंचने और कानून बनाने में उनकी हिस्सेदारी को ध्यान में रखते हुए संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत लिया गया था। देश की आम जनता ने सर्वोच्च न्यायालय के इस अभूतपूर्व फ़ैसले पर अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्य की थी। एक आस बंधी थी कि अब लोकतंत्र  के सर्वोच्च मन्दिरों में अपराधी नहीं पहुंच पायेंगे। फ़ैसले की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि कैबिनेट ने  सर्वसम्मत निर्णय से सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पलटने का निर्णय ले लिया। दिनांक २२ अगस्त को केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने दागी संसदों और विधायकों को तोहफ़ा देते हुए यह निर्णय लिया कि निचली अदालत से दो साल या उससे अधिक की सज़ा मिलने पर भी न तो सांसद-विधायकों की सदस्यता रद्द होगी और न ही हिरासत या जेल में रहने पर उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगेगी। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय के इस आशय के फ़ैसले को पलटने के लिए कैबिनेट ने जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन संबन्धी प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। सरकार के इस फ़ैसले पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सहमति पहले ही दे रखी है। जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के इस विधेयक का सर्वसम्मति से लोक सभा और राज्य सभा में पास होना तय है।
संसद और विधान सभाओं में अपराधियों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि वे जब चाहें अपने पक्ष में संविधान में संशोधन कराके अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं। आम जनता की भावनाओं का हमारी सरकार और हमारी संसद इतनी बेशर्मी से खुलेआम गला घोंटेगी, इसकी अपेक्षा नहीं थी। लेकिन मर्यादा और नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ चुकी इस सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? Party with a difference की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी की इस बिल को पास करने के लिए दी गई सहमति और भी आश्च्चर्यजनक है। नरेन्द्र मोदी अब किस मुंह से घूम-घूमकर नैतिकता की दुहाई दे पायेंगे? भाजपा के सांसद नरेन्द्र मोदी की हवा निकालने पर आमादा हैं। वे यह नहीं चाहते हैं कि देश का नेतृत्व एक ईमानदार और उच्च नैतिक मूल्यों से संपन्न नेता के पास जाय। इस विधेयक के समर्थन में लालू, मुलायम, मायावती, सोनिया आदि घोषित दागी नेता एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देंगे, यह तो प्रत्याशित था; लेकिन लाल कृष्ण आडवानी और अरुण जेटली भी उसी पंक्ति में खड़े हो जायेंगे, इसकी कही से भी उम्मीद नहीं थी। अब यह सिद्ध हो गया है कि सभी राजनीतिक दल और सारे नेता एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। अपनी तन्ख्वाह और अपने भत्ते बढ़ाने के लिए सारे सांसद किस तरह एकजूट हो जाते हैं, यह पहले भी देखा जा चुका है। ऐसा विधेयक बिना किसी चर्चा के संसद में दो मिनट में पारित हो जाता है।
सरकार में बैठे नेताओं और मौनी बाबा को तनिक भी सद्बुद्धि हो, तो वे संशोधन विधेयक लाने के पूर्व जनमत संग्रह करा लें। उन्हें जनता की राय मालूम हो जायेगी। लेकिन ऐसा करने की हिम्मत किसी में है क्या? कैबिनेट, सांसद और विधायकों के इन कृत्यों से देश की जनता का विश्वास इन जनतांत्रिक संस्थाओं से कही उठ न जाय। जनता का अविश्वास कालान्तर में लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। लेकिन इसकी चिन्ता ही किसे है? सब आज की मलाई चाटने में व्यस्त हैं। 

Saturday, August 17, 2013

चीन-पाक कोरिडोर और हमारी कुंभकर्णी नींद

राष्ट्रीय सुरक्षा की लगातार अनदेखी गहरी चिन्ता का विषय है। १९६२ के पहले सुरक्षा की अनदेखी तिब्बत पर चीन के कब्जे और साठ हज़ार वर्ग किलोमीटर भारतीय भूभाग पर चीन के अवैध कब्जे के रूप में सामने आई। १९६२ में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय नई पीढ़ी को भले ही याद न हो, लेकिन हमारे जैसे नागरिकों को एक शूल की भांति चुभता है। समझ में नहीं आता कि जिस देश ने अपने पड़ोसी देश का ऐसा विश्वासघात स्वयं झेला है, वह प्रत्यक्ष खतरे के प्रति क्यों आंखें मूंदकर बैठा है।
संसद ने पिछले ही हफ़्ते सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर यह दुहराया कि पूरा जम्मू और कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। संसद ने यह संकल्प भी दुहराया कि पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत का अंग है और हम इसे वापस लेकर रहेंगे। मुझे याद नहीं कि भारतीय संसद ने कितनी पर इस तरह का प्रस्ताव पारित किया है। चीन अधिकृत भूभाग को वापस लेने के कई प्रस्ताव भी हमारी संसद कई बार पारित कर चुकी है। लेकिन धरातल पर हमने इस दिशा में कभी कोई काम किया भी है क्या? संसद में हम जब-जब इस तरह का प्रस्ताव पारित करते हैं, चीन और पाकिस्तान की जनता हम पर हंसती हैं। हमारा प्रस्ताव धर्मशाला में स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार द्वारा पारित तिब्बत की आज़ादी के प्रस्ताव से ज्यादा अहमियत नहीं रखता। हम भारत की जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही ऐसे प्रस्ताव पारित करते हैं। सभी को ज्ञात है कि इसके पीछे हमारी कोई दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं होती। अभी-अभी जब हमने पूरे कश्मीर पर अपने अधिकार को जताते हुए संसद में प्रस्ताव पारित किया तो उसके तीसरे ही दिन नवाज़ शरीफ़ ने गुलाम कश्मीर से होकर चीन-पाक कोरिडोर के निर्माण को हरी झंडी दी। भारत के नक्शे में पूरा कश्मीर अभी भी भारत में ही दिखाया जाता है। अगर सरकार ऐसा मानती है, तो चीन-पाक कोरिडोर पर हमारी सरकार ने तीव्र विरोध क्यों नहीं दर्ज़ कराया? चीन और पाकिस्ता को जोड़ते हुए गुलाम कश्मीर से होकर पहले ही काराकोरम मार्ग का निर्माण चीन द्वारा किया जा चुका है। हमने तब भी खामोशी ओढ़ रखी थी। हम अब भी वही काम कर रहे हैं। चीन-पाक कोरिडोर भारतीय संप्रभुत्ता को चीन और पाकिस्तान की खुली चुनौती है। हमारे भूभाग से होकर कोई भी देश कोरिडोर कैसे बना सकता है? यह कोरिडोर चीन को सीधे ग्वादर बन्दरगाह तक पहुंचने का मार्ग प्रदान करेगा जो हमारे देश के लिए अत्यन्त खतरनाक है। चीन और पाकिस्तान की भारत को चारों तरफ़ से घेरने की रणनीति का यह एक सुविचारित हिस्सा है। चीन पहले से ही हमें घेरने के लिए म्यामार और श्रीलंका में अपने सैनिक ठिकाने स्थापित कर चुका है और मालदीव में अपने प्रयोग के लिए हवाई अड्डा बना चुका है। नेपाल में चीन समर्थक पार्टियों का ही बोलबाला है। निर्वाचित सरकार बनने के बाद वह जब चाहे नेपाल का इस्तेमाल अपने हित में कर सकता है। ऐसे में चीन-पाक कोरिडोर का निर्माण हमारी सुरक्षा के लिए कितना खतरनाक हो सकता है, यह छोटी सी बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती? 
हम अपने भूभाग में दूसरे देशों द्वारा किसी भी अनधिकृत निर्माण की इज़ाज़त नहीं दे सकते। हमें चीन और पाकिस्तान को स्पष्ट चेतावनी देनी चाहिए। इसके बावजूद भी अगर वे अपनी ज़िद पर अड़े रहते हैं, तो भारत को सैन्य-शक्ति का इस्तेमाल कर इसे रोकना होगा। अगर हम इसे रोकने में कामयाब नहीं होते हैं तो इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा। जो देश अपने इतिहास से सबक नहीं लेता है, उसका भूगोल बदल जाता है।

Thursday, August 15, 2013

आधुनिक शल्य - लाल कृष्ण आडवानी

          मद्र देश के राजा शल्य नकुल-सहदेव के सगे मामा थे। वे चले थे यह संकल्प लेकर कि वे अपने भांजों यानि पाण्डवों की ओर से युद्ध करेंगे। पाण्डवों को पूरा विश्वास था कि उनके मामाजी उनके शिविर में अपने आप आ जायेंगे। उनका यह विश्वास स्वाभाविक भी था। दुर्योधन राजा शल्य की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखे हुए था। यह तय हो गया था कि श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में शस्त्र नहीं उठायेंगे लेकिन अर्जुन के सारथि बनेंगे। युद्ध के निर्णायक पलों में सारथि का कौशल बहुत काम आता है। श्रीकृष्ण जैसा सारथि पूरे आर्यावर्त्त में दूसरा कोई नहीं था। राजा शल्य एक महारथी तो थे ही, श्रीकृष्ण के टक्कर के कुशल सारथि भी थे। दुर्योधन उन्हें कर्ण का सारथि बनाना चाहता था। लेकिन वे पाण्डवों के सगे मामा थे। उन्हें अपने पक्ष में ले आना कठिन ही नहीं असंभव भी लग रहा था। चिन्तित दुर्योधन को शकुनि ने सलाह दी - “शल्य को खातिरदारी और प्रशंसा अत्यन्त प्रिय है। हस्तिनापुर तक आनेवाले रास्ते में कालीन बिछा दो, गुलाब-जल का छिड़काव करा दो, स्थान-स्थान पर स्वागत-द्वार बनवा दो और अपने सचिवों को हर स्वागत द्वार पर फूल-मालाओं के साथ शल्य के स्वागत में तैनात कर दो। शल्य यह समझेंगे कि यह सारी व्यवस्था युधिष्ठिर ने की है। और इस तरह वे तुम्हारे निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर सीधे तुम्हारे पास पहुंच जायेंगे। उनके आने पर हम उनका इतना स्वागत करेंगे कि वे अपने भांजों को भूल जायेंगे और हमारी ओर से युद्ध करना स्वीकार कर लेंगे।" सारी घटनाएं शल्य की योजना के अनुसार ही घटीं। दुर्योधन की आवाभगत से प्रसन्न शल्य ने न सिर्फ दुर्योधन की ओर से लड़ना स्वीकार किया, अपितु कर्ण का सारथि बनने के लिए भी ‘हां’ कर दी। शल्य के निर्णय की सूचना पाकर पाण्डव बहुत चिन्तित हुए। लेकिन श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे थे। कारण पूछने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि समय आने पर शल्य का यह निर्णय भी पाण्डवों का ही भला करेगा। हुआ भी यही। भीष्म पितामह के शर-शय्या पर जाने और द्रोणाचार्य के निधन के बाद कर्ण कौरव सेना का सेनापति बना और शल्य उसके सारथि। श्रीकृष्ण की सलाह पर पांचों पाण्डवों ने उनके नेतृत्व में शल्य के शिविर में जाकर मुलाकात की। अपने उपर हुए दुर्योधन के अत्याचारों से उन्हें अवगत कराया। साथ ही यह भी बताया कि  द्यूत-क्रीड़ा के समय कर्ण द्वारा ही दुशासन को यह निर्देश दिया गया था कि द्रौपदी को निर्वस्त्र कर दो। शल्य आखिर थे तो पाण्डवों के ही मामा। वे द्रवित हुए बिना नहीं रह सके। पाण्डवों ने उन्हें अपने पक्ष में आने का न्योता दिया। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इसे अस्वीकार कर दिया कि वे दुर्योधन को वचन दे चुके हैं। अतः अन्त समय में वचनभंग नहीं कर सकते। श्रीकृष्ण ने उनसे दूसरे ढंग से सहायता पहुंचाने का प्रस्ताव किया किया जिसपर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। प्रस्ताव था - अर्जुन और कर्ण के युद्ध के समय शल्य अर्जुन की प्रशंसा करेंगे और कर्ण की वीरता और सामर्थ्य की निन्दा। वे कर्ण के मनोबल को गिराने की हर संभव कोशिश करेंगे। हत मनोबल और हत उत्साह से कोई युद्ध नहीं जीत सकता। श्रीकृष्ण की यह युक्ति काम आई। ऐन वक्त पर अर्जुन-कर्ण के निर्णायक युद्ध के वक्त जब श्रीकृष्ण अपनी बातों से अर्जुन का मनोबल बढ़ा रहे थे, शल्य योजनाबद्ध ढंग से कर्ण का मनोबल गिरा रहे थे। परिणाम वही हुआ जो ऐसी दशा में होना था। शाम ढलते-ढलते कर्ण को पराजय के साथ-साथ मृत्यु का भी वरण करना पड़ा।
भाजपा के तथाकथित भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवानी आजकल शल्य की ही भूमिका निभा रहे हैं। उनके जैसे नेता अगर चुनाव अभियान संभालेंगे, तो कांग्रेस को किसी दिग्विजय सिंह की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भुज में अपने भाषण के दौरान नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ सत्य को अनावृत किया था। क्या लालकिले से दिया गया प्रधान मंत्री का भाषण राजनीतिक नहीं था? भारत के प्रधानमंत्रियों का उल्लेख करते समय लाल बहादुर शास्त्री या अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेने से क्या स्वतंत्रता दिवस की फ़िज़ां खराब हो जाती? भारत की एकता और अखंडता के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करनेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल का नाम ले लेने से भारत की मर्यादा घट जाती? देश के जवानों का सिर काट कर ले जानेवाले पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी देने से विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न हो जाता? एक कठपुतली प्रधान मंत्री लाल किले की प्राचीर से भारत-विभाजन, आधे कश्मीर को पाकिस्तान को भेंट देनेवाले, १९४७ में हुए विश्व के सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगे, तिब्बत को चीन को गिफ़्ट देनेवाले, १९६२ में चीन के हाथों भारत की पराजय के जिम्मेदार और १९८४ में देश की सर्वाधिक देशभक्त सिक्ख कौम का नरसंहार करानेवाले परिवार का गुणगान करता रहे, तो सब कुछ उचित; परन्तु एक देशभक्त इसपर प्रश्न पूछ दे तो बहुत अनुचित। किश्तवाड़ की हिंसा पर लाल कृष्ण आडवानी का कोई वक्तव्य आया हो, मुझे याद नहीं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस के दिन ही भुज में नरेन्द्र मोदी के भाषण पर आडवानी की त्वरित प्रतिक्रिया हैरान करनेवाली है। समझ में नहीं आता कि वे भाजपा के लिए काम कर रहे हैं या कांग्रेस के लिए। बोलने के लिए सिर्फ वाणी की आवश्यकता होती है, परन्तु चुप रहने के लिए वाणी और विवेक, दोनों की आवश्यकता होती है।  

Monday, August 12, 2013

राष्ट्रीय सुरक्षा और घिनौनी राजनीति

        पिछले शुक्रवार को जम्मू के किश्तवाड़ में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में कई लोग मारे गए। हिन्दुस्तान में दंगे और वो भी जम्मू-कश्मीर में कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। सांप्रदायिक हिंसा के कारण ही पूरी कश्मीर घाटी से सभी हिन्दू वर्षों पहले पलायन कर गए। अब जम्मू भी कट्टरपंथियों की निगाह में खटक रहा है। यह उतनी बुरी बात नहीं है जितना इन घटनाओं पर छद्म सेक्यूलरवादियों का रवैया और उनके वक्तव्य। किश्तवाड़ में दस दिन पहले से ही पाकिस्तानी तत्त्वों ने माहौल बिगाड़ने की हर संभव कोशिश की थी। जगह-जगह अफ़ज़ल गुरु और मकबूल भट्ट की तस्वीरें चिपकाई गई थीं। हर नमाज़ के बाद मस्ज़िद से भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते थे। सरकार को खुफ़िया तंत्रों के माध्यम से इसकी पूर्ण जानकारी थी। लेकिन सरकार निष्क्रिय बनी रही और अन्ततः १० अगस्त को दंगा भड़क ही गया। दंगे में मारे गए लोगों की संख्या का सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है, क्योंकि सरकार ने मीडिया समेत किसी भी नेता को वहां पहुंचने नहीं दिया। घटना की निन्दा करने और उसपर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करने के अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने के बदले वहां के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने किश्तवाड़ के दंगे की तुलना २००२ के गुजरात दंगों से करके उसे न्यायोचित ठहराने की कोशिश की। कांग्रेस ने संसद के अन्दर और बाहर भी उमर अब्दुल्ला और फ़ारुख अब्दुल्ला का समर्थन किया। दंगे तो दंगे हैं - वे चाहे गुजरात में हों, हैदराबाद में हों या कश्मीर में हों, उनकी निन्दा ही होनी चाहिए। इससे कम कुछ भी नहीं। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक दंगे की आड़ में दूसरे दंगे को न्यायोचित ठहराना देशद्रोह के अलावा और कुछ भी नहीं। यह प्रवृति विघटन की ओर ले जाती है।
अब तो सैनिकों की शहादत पर भी राजनीति करने से कांग्रेसी बाज़ नहीं आ रहे हैं। पाकिस्तानी हिन्दुस्तानी सैनिकों का सिर काटकर ले जाते हैं, सरकार चुप रहती है। गश्त करते समय भारत के पांच सैनिकों की पाकिस्तानी सेना निर्मम हत्या कर देती है; रक्षा मंत्री उसे आतंकवादी कार्यवाही कहते हैं। एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि भाजपा के शासन के दौरान सीमा पर पाकिस्तानी अतिक्रमण और जवानों की हत्या के मामले अधिक हुए थे, इसलिए वर्तमान में मात्र पांच जवानों की शहादत पर ज्यादा शोरगुल मचाने की ज़रुरत नहीं है। जवानों की शहादत और जीडीपी के आंकड़ों को समान समझने की आदत सत्ताधारी पार्टी कब छोड़ेगी? ऐसा संवेदनहीन वक्तव्य कांग्रेस पार्टी का ही कोई नेता दे सकता है। सेक्यूलर बिरादरी में नये-नये शामिल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रियों ने तो हद ही कर दी। आतंकी इशरत जहां को बिहार की बहादुर बेटी बताने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शहीद हुए बिहार के चार सपूतों के शवों को देखने हवाई अड्डे पर जाना तो दूर श्रद्धांजलि के दो बोल भी नहीं बोले। उनके मंत्री ने तो यहां तक कहा कि सेना और पुलिस में तो लोग शहीद होने के लिए ही जाते हैं। क्या भारत के सभी मुसलमानों को इन सेकुलरवादियों ने पाकिस्तानी मान रखा है? क्या पाकिस्तान विरोध मुस्लिम विरोध का पर्याय बन चुका है? सेक्यूलरवादी अगर ऐसा मानते हैं, तो यह भारत के सभी मुसलमानों का घोर अपमान है। महज़ वोट की राजनीति के लिए देश की अस्मिता का बार-बार अपमान घोर निन्दनीय है।
जहां तक सांप्रदायिकता की बात है, तो इस देश में कांग्रेस से बड़ी दूसरी सांप्रदायिक पार्टी न हुई है और न होगी। इतिहास गवाह है कि इस पार्टी ने सांप्रदायिक आधार पर देश का बंटवारा किया जिसके फलस्वरूप १९४७ में पूरे देश में भयंकर दंगे हुए जिसमें लाखों हिन्दू-मुसलमान मारे गए। उन सांप्रदायिक दंगों का कलंक अभी ज्यों का त्यों था कि इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसियों ने देशव्यापी हिन्दू-सिक्ख दंगा करा दिया जिसमें हजारों सिक्ख दंगे की भेंट चढ़ गए। सेक्यूलरवादियों को इन घटनाओं की याद नहीं आती। राष्ट्र पर आक्रमण और दंगों को क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के चश्मे से देखना राष्ट्रद्रोह के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसकी बस निन्दा ही होनी चाहिए, तुलना नहीं।