Thursday, December 27, 2012

यौन-अनाचार, कानून और समाज


१. दिल्ली की चलती बस में एक २३ वर्षीया युवती के साथ छः दरिन्दों द्वारा ब्लात्कार। युवती अस्पताल में वेन्टीलेटर पर।
२. ऊंझा (मेहसाना) में गत मंगलवार की रात में एक ३७ वर्षीया विधवा से दो लोगों द्वारा ब्लात्कार।
३. पुलिस की हिरासत में पिछले ९ वर्षों में बलात्कार की ४५ घटनाएं (पंजीकृत एफ़.आई.आर के आधार पर) - द एशियन सेन्टर फ़ार ह्युमन राइट्स
४. पटना के मनेर कस्बे में रात में सोते समय एक युवती से सामूहिक ब्लात्कार की कोशिश। असफल होने पर तेज़ाब से हमला। लड़की का पटना मेडिकल कालेज हास्पीटल में गत २ महीने से जीवन और मृत्यु से संघर्ष जारी।
५. पूर्व मुख्यमंत्री और राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के अवैध पुत्र को हाईकोर्ट ने नारायण दत्त तिवारी का वैध पुत्र घोषित किया।
६. कांग्रेस के प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी द्वारा सुप्रीम कोर्ट के अपने चैंबर में एक महिला के साथ यौनाचार।
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      महिलाओं पर पुरुषों की दरिन्दगी के न जाने कितने ऐसे मामले हैं जो प्रकाश में आए ही नहीं। ऐसी घटनाएं जो अखबारों में छप जाती हैं या न्यूज चैनलों द्वारा प्रमुखता से कवर कर ली जाती हैं, वास्तविक घटना का मात्र १% है। जब भी दिल्ली की चलती बस में ब्लात्कार जैसी कोई घटना प्रकाश में आती है, जनाक्रोश, प्रदर्शन, आन्दोलन की बाढ़-सी आ जाती है। कुछ दिनों के बाद सबकुछ सामान्य हो जाता है। केन्द्रीय गृह मन्त्री शिन्दे ठीक ही कहते हैं - जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है। इस समय देश के हर कोने से यह मांग की जा रही है कि संसद का विशेष सत्र बुलाकर बलात्कारियों को मृत्युदण्ड देने के लिए कानून बनाया जाय। क्या मत्युदण्ड या कोई अन्य सख्त कानून इस समस्या का समाधान हो सकता है? क्या हत्यारे को मृत्युदण्ड देने का स्पष्ट प्रावधान कानून में नहीं है? हत्याओं का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है। क्या दहेज लेना गैर कानूनी नहीं है? यह रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। क्या रिश्वत और भ्रष्टाचार विधिसम्मत है? अन्ना के आन्दोलन के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आई है। किस अपराध के लिए इंडियन पेनल कोड-१८६० में दण्ड की व्यवस्था नहीं है? क्या अपराध कानून बनाने से रुक जाते हैं?
      समरस समाज, प्रेरणादायक नेतृत्व और नागरिकों के उच्च चरित्र ही अपराध की रोकथाम या उन्मूलन में सहायक होते हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथेमेटिक्स, इतिहास, भूगोल और अर्थशास्त्र की किस पुस्तक में लिखा है कि बड़ों का सम्मान करो, स्त्रियों को मां-बहन का सम्मान दो, माता-पिता-गुरु को पैर छूकर प्रणाम करो। राम, कृष्ण, गौतम, गांधी के चरित्र को हृदय से हृदयंगम किए बिना नैतिकता और चरित्र का विकास असंभव है। मैकाले की सेकुलर शिक्षा व्यवस्था ने नैतिकता और चरित्र को कालवाह्य बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
      फरवरी १८३५ में इंग्लैंड के हाउस आफ़ कामन्स में भारत की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन हेतु अपनी दलील देते हुए लार्ड मेकाले ने कहा था -
      "I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think that we would ever conquer this country unless we break the very backbone of this nation, which is the cultural and the spiritual heritage, and thereof, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them - a truly dominated nation." (बिना किसी संशोधन के एक-एक शब्द, कामा फ़ुलस्टाप के साथ मेकाले के लिखित वक्तव्य से उद्धृत)
      "मैंने पूरे भारत की यात्रा की और ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो भिखारी हो या चोर हो। इस तरह की संपत्ति मैंने इस देश में देखी है, इतने ऊंचे नैतिक मूल्य, लोगों की इतनी क्षमता, मुझे नहीं लगता कि कभी हम इस देश को जीत सकते हैं, जबतक कि इस देश की रीढ़ को नहीं तोड़ देते जो कि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्ताव करता हूं कि हमें इसकी पुरानी और प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था, इसकी संस्कृति को बदलना होगा। इसके लिए यदि हम भारतीयों को यह सोचना सिखा दें कि जो भी विदेशी है और अंग्रेज है, यह उनके लिए अच्छा और बेहतर है, तो इस तरह से वे अपना आत्मसम्मान खो देंगे, अपनी संस्कृति खो देंगे और वे वही बन जायेंगे जैसा हम चाहते हैं - एक बिल्कुल गुलाम देश।"
      एक अंग्रेज जो भारत और भारतीयों के लिए बड़ी ओछी मानसिकता रखता था, वह भी भारतीयों के चरित्र और व्यवस्था से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। भारतीयों को अपनी मूल प्रकृति, संस्कृति, शिक्षा और उच्च नैतिक मूल्यों से विरत करने के लिए ही उसने स्पष्ट रूप से भारत में शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेजीकरण की वकालत की थी जिसे इंग्लैंड की संसद ने न सिर्फ स्वीकार किया बल्कि लागू भी कर दिया। आज़ादी के बाद हमारे पास अपना संविधान, अपने नियम-कानून, अपनी न्याय-व्यवस्था और अपनी शिक्षा-व्यवस्था को परिभाषित करने तथा लागू करने का अवसर प्राप्त हुआ था जिसे हमने बड़ी सहजता से गंवा दिया। दुर्भाग्य से हमारा नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ में चला गया, जो मैकाले की मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त थे और जिन्हें भारत की संस्कृति के लिए कोई आदर-भाव भी नहीं था। भारत का युवा किसका अनुसरण करे - जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी, नारायण दत्त तिवारी या अभिषेक मनु सिंहवी का? रही सही कसर हमारी फिल्मों, टीवी सिरियल्स, इन्टरनेट और घटिया साहित्य ने पूरी कर दी। अभिनय के लिए हमारा सर्वोच्च राष्ट्रीय पुरस्कार ‘डर्टी पिक्चर’ में अभिनय के लिए विद्या बालन को जाता है। इस फिल्म को कोई भी संवेदशील व्यक्ति अपने पूरे परिवार के साथ नहीं देख सकता। ऐसी फिल्मों ने राखी सावन्त, प्रियंका चोपड़ा, मलाइका अरोड़ा, बीना मलिक, सनी लियोन आदि को देश की युवतियों का रोल माडेल बना दिया। नारी स्वातंत्रय, उच्छृंखलता और अल्प वस्त्र का पर्याय बन गया। असंस्कारित युवक-युवतियों का सार्वजनिक स्थानों पर आपत्तिजनक अवस्था में प्रेम-प्रदर्शन मुंबई, दिल्ली पुणे या अन्य मेट्रोपोलिटन में आम बात है। ऐसी स्थिति में दिल्ली जैसी घटना की पुनरावृत्ति  मात्र कानून बनाने से नहीं रोकी जा सकती।
      मेरे गांव से मेरा स्कूल दो किलो मीटर की दूरी पर था। मेरे गांव के सभी लड़के और लड़कियां एक स्थान पर एकत्रित होते थे और साथ ही पैदल स्कूल जाते थे। लड़कियों की सुरक्षा का सामूहिक दायित्व लड़कों पर रहता था क्योंकि होश संभालने के बाद से ही हमें बताया गया था कि गांव की सभी लड़कियां तुम्हारी बहनें हैं। मैं ११वीं कक्षा क छात्र था - शरीफ़ एवं पढ़ाकू। मेरे गांव की एक लड़की जो दसवीं कक्षा में पढती थी को उसके क्लास के एक लड़के ने छेड़ दिया। उसने लौटते समय हमलोगों को बताया। दूसरे दिन हम लोग थोड़ा जल्दी घर से निकले, स्कूल के गेट पर उस लड़के को पकड़ा और लात-घूंसों से जबर्दस्त पिटाई की। उसने स्कूल के प्रिन्सिपल से हमलोगों की शिकायत की। प्रिन्सिपल ने मुझे बुलाकर पूछताछ की। मैंने अपराध स्वीकार किया और यह भी बताया कि क्यों हमलोगों को ऐसा करना पड़ा। विद्यालय का अनुशासन तोड़ने की सज़ा हमें मिली - दो-दो बेंत हमलोगों की हथेलियों पर लगाए गए। वहां उपस्थित वाइस प्रिन्सिपल ने हमलोगों की सज़ा का विरोध किया था। प्रिन्सिपल ने अपनी सफाई में कहा था - लड़कों ने काम तो अच्छा किया था लेकिन अनुशासन के लिए सज़ा देना जरुरी था। हमलोगों को न कोई खेद था, न पश्चाताप। शाम को हमलोग अपने गांव आए। गांव के बुज़ुर्गों ने भी हमारे कार्य की सराहना की। क्या लड़के-लड़कियों में आज के अभिभावक ऐसी भावना भर रहे हैं? कोई भी सामाजिक संस्था इस दिशा में कार्य कर रही है? शायद नहीं।
      चरित्र और चरित्र निर्माण ही एकमात्र विकल्प है। विवेकानन्द ने कहा था - I want a man with capital `M'. कहां लुप्त हो गया हमारा capital `M'? इस देश को राजनीतिक परिवर्तन की कम, सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है। जन्मघुट्टी की तरह प्रत्येक के मन-मस्तिष्क में यह संदेश स्थापित करने की आवश्यकता है -
      मातृवत परदारेषु पर द्रव्येषु लोष्टवत।
      आत्मवत सर्वभूतेषु यः पश्यति स पण्डितः॥
      सभी स्त्रियों को माता समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान तथा सभी जीवों को अपने समान जो देखता है, वही सच्चा विद्वान है।
      पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में हम कबतक अपनी मौलिक अच्छाइयों की अनदेखी करते रहेंगे? हम इन अच्छाइयों को कालवाह्य या दकियानूसी मानकर खारिज़ नहीं कर सकते। हम भारतीय हैं, कभी भी अंग्रेज नहीं बन सकते। हमारा चरित्र-बल ही हमें हमारी समस्त समस्याओं से मुक्ति दिलाने का एकमात्र साधन है। क्यों नहीं अपने आचार-विचार, बोल-चाल और वस्त्रों में हम मर्यादा का ध्यान रखें? जो चीज हमारे पूरे समाज में क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती है, उसे अपनाने में कैसा संकोच? यह निर्णय लेने की घड़ी है - अभी नहीं तो कभी नहीं।
      

Saturday, December 22, 2012

नरेन्द्र मोदी और चुनावी विश्लेषण


 भारतीय जनता पार्टी की जीत को हमारा सेकुलर मीडिया, चुनावी विश्लेषक और कांग्रेसी पचा नहीं पा रहे हैं। नरेन्द्र मोदी द्वारा अर्जित चुनावी सफलता से हतप्रभ विशेषज्ञों ने चुनाव परिणाम के बाद जो वक्तव्य दिए वे इतने हास्यास्पद थे कि उनका उल्लेख करना किसी चुटकुले को पढ़ना और सुनाने जैसा है। जनता की इच्छाओं का सम्मान करने और मोदी को बधाई देने के बदले हमारे वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने बयान दिया कि भाजपा को पिछले चुनाव से दो सीटें कम मिली हैं, इसलिए इसे भाजपा या मोदी की जीत नहीं कहा जा सकता। दूसरे बड़बोले मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि यह मोदी के ३-डी प्रचार का २-डी परिणाम है। एक चुनावी विश्लेषक के अनुसार मोदी ने चूंकि ५१% मत नहीं प्राप्त किए हैं अतः इसे मोदी की स्पष्ट जीत नहीं कहा जा सकता। अभी डिग्गी राजा का ()विद्वतापूर्ण बयान आया ही नहीं; शायद वे होमवर्क कर रहे हैं। लोग यह भूल जा रहे हैं कि गुजरात के कद्दावर नेता विद्रोही भाजपायी केशुभाई पटेल की गुजरात परिवर्तन पार्टी द्वारा सभी १८२ सीटों पर अपना उम्मीदवार उतारने के बावजूद भाजपा ने ११५ सीटों पर जीत हासिल की। यह मोदी का जादू नहीं तो और क्या है? अगर केशुभाई पटेल अलग चुनाव नहीं लड़ते तो भाजपा का आंकड़ा १५० को छू रहा होता।
      भारत की वह जनता जो सुशासन और विकास चाहती है, मोदी की ऐतिहासिक जीत से अत्यन्त उत्साहित और आशान्वित है। भारतीय जनता पार्टी को अटल बिहारी वाजपेयी के बाद राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार एक योग्य नेता जिसके पास जनता तक सीधे अपनी बात पहुंचाने वाली वक्तृत्व क्षमता और स्पष्ट दृष्टि है, मोदी के रूप में प्राप्त हुआ है। निश्चित रूप से भाजपा पंडित दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी की पार्टी नहीं रही, फिर भी अपनी अपनी तमाम कमियों के बावजूद वह कांग्रेस से हजार गुना अच्छी है। जनता भी भाजपा को वोट देना चाहती है, परन्तु भाजपा वोट नहीं ले पाती है। इसी वर्ष उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के बाद १५ महानगरों के नगर निगम के चुनाव हुए। भाजपा ने ११ महानगरों में मेयर के पद पर जनता का विश्वास प्राप्त किया। केजरीवाल, अन्ना और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का भाजपा को सीधे लाभ पहुंचना चाहिए था लेकिन इस पार्टी ने अपने प्रतिगामी निर्णयों से लगता है वह अवसर गंवा दिया है। नितिन गडकरी को लाल कृष्ण आडवानी का अनुशरण करते हुए क्लीन चिट मिलने तक अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए था। तब भ्रष्टाचार के विरुद्ध उसके संघर्ष में स्वाभाविक पैनापन आ जाता। पदोन्नति में आरक्षण का विरोध करके भाजपा ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। उत्तर प्रदेश जहां लोकसभा की ८० सीटें हैं, की अनदेखी कर कोई भी राष्ट्रीय पार्टी केन्द्र में सत्तारुढ़ नहीं हो सकती। मुलायम सिंह यादव ने २०१४ के चुनावों को दृष्टि में रखकर ही प्रोमोशन में आरक्षण का पूरी शक्ति से विरोध किया है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा या सपा लाख उपाय करें, वे मायावती के अनुसूचित वोट बैंक में सेंध लगाने की बात तो दूर, एक छोटा सा सुराख भी नहीं कर सकते। मुलायम सिंह ने इस तथ्य को भलीभांति समझ लिया है। यहां पहलवान मुलायम सिंह अरुण जेटली और सुषमा स्वराज से अधिक समझदार प्रतीत होते हैं। भाजपा ने हाथ आए इस अवसर को खो दिया है। अब सिर्फ नरेन्द्र मोदी ही भाजपा के लिए आशा के एकमात्र केन्द्र हैं। देखें, भाजपा नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और विकास पुरुष की छवि को जनता के सामने रख लोकसभा का अगला चुनाव लड़ती है या वातानुकूलित संसद में जोरदार भाषण देनेवाले जड़विहीन नेताओं के सहारे?
      गुजरात के लिए नरेन्द्र मोदी ने वे कार्य किए हैं जो किसी भी राज्य में किसी भी नेता या मुख्यमंत्री ने नहीं किया है। इस चुनाव में गुजरात के दौरे पर गए मोदी के धुर विरोधी अर्थशास्त्रियों और पत्रकारों ने जब गुजरात में विकास की चकाचौंध देखी तो उनकी आंखें भी चौंधियाए बिना नहीं रह सकीं। गुजरात के लगातार और स्थायी विकास, दूर तक विस्तृत आधुनिक सिंचाई सुविधाओं से संपन्न खेत-खलिहान, निर्धूम कल-कारखाने, पवन ऊर्जा, सौर ऊर्जा और नर्मदा के जल-विद्युत गृहों के बल पर पर्यावरणमित्र निर्बाध विद्युत आपूर्ति, सुन्दर और गड्ढ़ामुक्त सड़कें, विकसित जनजाति, नियंत्रित कानून-व्यव्स्था और अपेक्षाकृत स्वच्छ तथा प्रभावी प्रशासन देखकर सभी आश्चर्यचकित थे। गुजरात देश का आज की तिथि में पहला राज्य है जहां बिजली का उत्पादन मांग से अधिक है। इस बरसात में अपने कई ताप विद्युत गृहों में उत्पादन कम करके - जिसे थर्मल बैकिंग कहते हैं - गुजरात ने पश्चिमी क्षेत्र के ग्रीड की फ्रिक्वेन्सी मेन्टेन की। पूरे देश में किस राज्य के पास ऐसा उदाहरण है? गुजरात में बिना गए गुजरात की प्रगति का साक्षात्कार संभव नहीं है। वहां जाने पर एक ही प्रश्न मस्तिष्क में कौंधता है - क्या गुजरात भी हिन्दुस्तान में ही है?
      हमारा देश १८५७ की क्रान्ति की असफलता के बाद जब निराशा के अंधकार में डूब रहा था, तब भी गुजरात ने ही रोशनी दिखाई थी। बांस की एक लाठी लिए और आधे तन पर वस्त्र धारण किए महात्मा गांधी ने दुनिया के सबसे विशाल साम्राज्य को घुटने टेकने पर विवश किया था। द्वापर में द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण ने ही संपूर्ण आर्यावर्त को धर्म की राह दिखाई थी। अब बारी नरेन्द्र मोदी की है। सारा देश उनकी ओर टकटकी लगाए देख रहा है। बस भाजपा के कुछ नेताओं की आंखें खुलनी बाकी है।

Tuesday, December 18, 2012

पदोन्नति में आरक्षण



  कोई भी व्यक्ति या संस्था अगर सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना करती है, तो पूरे देश में एकसाथ बवाल मच जाता है, लेकिन अगर सरकार ही इस संवैधानिक संगठन के आदेश को मानने से इंकार कर दे, तो क्या किया जा सकता है! केन्द्र की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर सीएजी, सीबीआई, सीवीसी तक प्रत्येक स्वायत्तशासी संगठन को अपने अनुसार चलाने का कार्य किया है। अगर इन संगठनों ने देशहित और न्याय के हित में सरकार के अनुकूल कोई काम नहीं किया तो सरकार ने इनकी विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एनडीए के कार्यकाल में अपना निर्णय देते हुए प्रोन्नति में आरक्षण को अवैध घोषित किया था। सारी राजनीतिक पार्टियों ने वोट की राजनीति करते हुए संविधान में संशोधन करके प्रोन्नति में आरक्षण को बहाल कर दिया। इसके खिलाफ़ विभिन्न कर्मचारी संगठनों ने देश के लगभग प्रत्येक भाग से विभिन्न उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की। सभी याचिकाओं को एकसाथ सुनवाई के लिए मंजूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मार्च महीने में प्रोन्नति में आरक्षण को खारिज़ करते हुए अपना निर्णय सुनाया। कोर्ट ने यह भी कहा कि प्रोन्नति में आरक्षण संविधान में वर्णित समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन है। नौकरी में आरक्षण को जायज ठहराते हुए कोर्ट ने यह टिप्पणी की थी कि नौकरी प्राप्त करने के समय सामाजिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए समानता प्राप्त करने हेतु आरक्षण उचित है लेकिन एक बार समानता प्राप्त कर लेने के बाद पुनः आरक्षण देना अपने कुछ नागरिकों को जाति के आधार पर विशेषाधिकार देने के समान है जो संविधान की मूल आत्मा के हनन के समान होगा। सुप्रीम कोर्ट ने दूसरी बार प्रोन्नति में आरक्षण के खिलाफ़ अपना निर्णय सुनाया। इसपर गंभीरता से सोच-विचार के बदले सरकार ने अपनी सत्ता की रक्षा हेतु बसपा सुप्रीमो मायावती के तुष्टीकरण के लिए संविधान में संसोधन करना ही मुनासिब समझा। बिल राज्यसभा से पारित हो चुका है और लोकसभा से भी इसका पारित होना निश्चित है। मुलायम सिंह यादव की सपा को छोड़कर सभी राजनीतिक दल संगठित दलित वोटों की चाहत में इसका विरोध करने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं।
      सत्ता की राजनीति ने इस देश का जितना अकल्याण किया है, उतना विदेशी शासकों ने भी नहीं किया है। देश के बंटवारे से लेकर समाज के विभाजन के खेल खेले गए। सारे देश को सन २०२० तक विकसित राष्ट्र बनाने का सपना दिखाया जाता है परन्तु अक्षम और अयोग्य व्यवस्था के साथ क्या यह सपना पूरा किया जा सकता है? प्रोन्नति में आरक्षण के कारण सभी ऊंचे पदों पर आरक्षित जातियों के अधिकारी और कर्मचारी छा जाएंगे। उनसे दक्ष और वरिष्ठ अधिकारी तथा कर्मचारी अपने मूल पद से ही सेवानिवृत्ति के लिए वाध्य होंगे जैसा उत्तर प्रदेश में मार्च २०१२ के पहले हो रहा था।
      मैंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग में स्नातक होने के बाद सन १९७८ में तब के उत्तर प्रदेश राज्य विद्युत परिषद में सहायक अभियन्ता के पद पर नियुक्ति के साथ नौकरी शुरु की थी। नियम के अनुसार मुझे सात वर्षों के बाद अधिशासी अभियन्ता के पद पर पहली प्रोन्नति मिलनी चाहिए थी। लेकिन नहीं मिली। मेरे साथ सहायक अभियन्ता के पद पर नियुक्ति पाने वाले मेरे ही साथियों को जो अनुसूचित जाति से आते थे, सात वर्ष के बाद प्रोन्नति मिल गई। वे सात वर्षों के बाद अधिशासी अभियन्ता, अगले पांच वर्षों के बाद अधीक्षण अभियन्ता और उसके अगले तीन वर्षों के बाद मुख्य अभियन्ता के पद पर प्रोन्नति पा गए। मैं २६ वर्षों तक अपने मूल पद पर सहायक अभियन्ता के रूप में कार्य करता रहा जबकि आरक्षित वर्ग के मेरे साथी और कनिष्ठ २० वर्षों में ही प्रबन्ध निदेशक के उच्चतम पद पर आसीन थे। इस दौरान मुझे अपने से १५ साल जूनियर अधिकारी की मातहती में काम करना पड़ा। मुझे लगातार कई वर्षों तक उत्कृष्ट कार्य करने का प्रमाण पत्र भी मिला लेकिन यह किसी काम का नहीं था। मैंने सन २००४ में अधिशासी अभियन्ता के पद पर पहला प्रोमोशन पाया और आठ साल बाद पिछले मई में अधीक्षण अभियन्ता का प्रोमोशन सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद पाया। देश के सारे प्रदेशों में कमोबेस यही स्थिति है। देश की सारी विकास योजनाएं राज्य सरकारों द्वारा ही लागू की जाती हैं। राज्य सरकारों में विभिन्न विभागों में सर्वोच्च पदों पर नीति निर्धारक और कार्यान्यवन अधिकारी के रूप में जाति के आधार पर आरक्षण पाए अधिकारी ही उपलब्ध होंगे जिनपर विकास की जिम्मेदारी होगी। उनकी टीम में सबसे निचले स्तर पर वे लोग होंगे जो उनसे वरिष्ठ, कुशल, दक्ष और प्रतिभाशाली हैं। जातीय आधार पर बंटे प्राशासकीय तंत्र से किस तरह के चमत्कार की उम्मीद की जा सकती है। एक तरफ होंगे भग्न हृदय, भग्न मनोबल वाले निम्न अधिकारी और कर्मचारी तथा दूसरी ओर होंगे राजनीतिज्ञों से अभयदान प्राप्त आरक्षित वर्ग के कनिष्ठ और अपेक्षाकृत अकुशल अधिकारी/कर्मचारी।
      राजनीतिक दलों को न देश की चिन्ता है, न विकास की और ना ही सामाजिक समरसता की। उनकी आंखें तो सिर्फ कुर्सी पर है चाहे वह जिस विधि मिले -
तमाम मुल्क अंधेरे में डूब जाए तो क्या,
वो चाहते हैं कि सूरज उन्हीं के घर में रहे।

Saturday, December 8, 2012

सन्देह के घेरे में अरविन्द केजरीवाल




      दिनांक ६ दिसंबर को अन्ना हजारे जी ने अरविन्द केजरीवाल के विरुद्ध जो वक्तव्य दिया उससे अरविन्द केजरीवाल की निष्ठा सन्दिग्ध हुई है। अन्नाजी ने कहा कि अरविन्द केजरीवाल सत्ता और धन के लिए राजनीति कर रहे हैं और वे कभी भी केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के पक्ष में वोट नहीं डालेंगे। अन्नाजी कोई दिग्विजय सिंह नहीं हैं जिनके कथन को हवा में उड़ा दिया जाय। अन्नाजी के कारण ही केजरीवाल ज़ीरो से हीरो बने। उन्होंने यश और प्रसिद्धि के लिए अन्ना जी का भरपूर दोहन किया। अन्नाजी को जब केजरीवाल की असली मन्शा का पता लगा तो उन्होंने अविलंब केजरीवाल से संबन्ध तोड़ लिया। अन्ना के जन आन्दोलन के साथ अरविन्द केजरीवाल की निष्ठा आरंभ से ही सन्दिग्ध रही है। कांग्रेस के एजेन्ट स्वामी अग्निवेश केजरीवाल की ही अनुशंसा पर अन्ना की कोर कमिटी के सदस्य बने। अग्निवेश के चरित्र को सबसे पहले किरण बेदी ने पहचाना और वीडियो के माध्यम से आम जनता के सामने रखा। किरण बेदी और केजरीवाल के बीच मतभेदों की यही शुरुआत थी। आज भी स्वामी अग्निवेश से केजरीवाल के संबन्ध पूर्ववत हैं। सन २००५-०६ में केजरीवाल ने स्वामी अग्निवेश के माध्यम से सोनिया गांधी तक उनकी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्यता पाने के लिए जोरदार लाबिंग की थी। किसी तरह आमंत्रित सदस्य के रूप में दिनांक ४ अप्रिल २००११ को स्वामी अग्निवेश के साथ राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की बैठक में सोनिया गांधी के साथ चाय पीने की उनकी आकांक्षा सफल हो पाई।
      केजरीवाल के दादा हरियाणा के एक सफल व्यवसायी थे। धन के प्रति केजरीवाल का लोभ भी जगजाहिर हो चुका है। अन्नाजी ने उनके इस लोभ को सार्वजनिक किया है। केजरीवाल अपने और अपने एनजीओ के लिए देसी या विदेशी, कहीं से भी धन लेने में तनिक भी परहेज़ नहीं करते। वे घोषित रूप से  मुख्यतया ‘परिवर्तन’ और ‘कबीर’ नामक दो एनजीओ से संबन्धित हैं। उनकी संस्था ‘कबीर’ ने अमेरिका के फोर्ड फाउन्डेशन से वर्ष २००५ मे १,७२००० एवं वर्ष २००६ में १,९७,००० डालर प्राप्त किए। इसके पर्याप्त साक्ष्य हैं। उन्होंने वर्ष २०१० में भी लाखों डालर फोर्ड फाउन्डेशन से प्राप्त किए। इन सभी अनुदानों का क्या उपयोग हुआ और और किन उद्देश्यों के लिए प्राप्त किए गए, आज तक रहस्य बने हुए हैं। फोर्ड एक मज़े हुए व्यवसायी हैं। बिना लाभ के वे एक धेला भी खर्च नहीं कर सकते। उनके माध्यम से अमेरिका विदेशों में अपने हित साधन करता है। अमेरिका में ‘आवाज़’ नामक एक एनजीओ है जिसे वहां के उद्योगपति चलाते हैं। इस संस्था ने विश्व में अमेरिका के हित में कार्य करते हुए अनेक संस्थाओं को प्रत्यक्ष वित्तीय अनुदान दिया है। मिस्र के तहरीर चौक में आन्दोलन चलाने के लिए इसने करोड़ों डालर खर्च किए, लीबिया में तख्ता पलट के लिए उसने सारे खर्चे उठाए और अब सीरिया में गृह युद्ध के लिए यह संस्था दोनों हाथों से धन ऊलीच रही है। केजरीवाल के दोनों एनजीओ ‘आवाज़’ से संबद्ध हैं। 
      केजरीवाल को कांग्रेस तथा सरकार में तबतक कोई बुराई या भ्रष्टाचार दिखाई नहीं पड़ा जबतक वे सोनिया गांधी के नेतृत्व में कार्यरत राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सदस्यता के प्रति आशान्वित थे। सरकार के आशीर्वाद से ही लगभग २० वर्षों तक आयकर विभाग में वे दिल्ली में ही पदस्थापित थे। दिल्ली के बाहर उनका एक बार भी स्थानान्तरण नहीं हुआ। जबकि उनके स्तर के अन्य अधिकारियों को इतनी ही अवधि में पूरा देश दिखा दिया जाता है। उनकी पत्नी श्रीमती सुनीता केजरीवाल जो उनकी बैचमेट हैं, आज भी विगत २० वर्षों से अतिरिक्त इन्कम टैक्स कमिश्नर के पद पर दिल्ली में ही जमी हुई हैं। उनका भी आज तक दिल्ली के बाहर एक बार भी तबादला नहीं हुआ है। ये उनकी कुछ ऐसी कमजोरियां हैं जिनका केन्द्रीय सरकार जब चाहे अपने पक्ष में इस्तेमाल करती हैं। भाजपा के नेताओं पर केजरीवाल ने कांग्रेस के इशारे पर ही आरोप लगाए थे। वे मुकेश अंबानी, अनु पटेल इत्यादि के चुटकी भर धन के विदेशी बैंकों में जमा होने का भंडाफोड़ करते हैं। मुकेश अंबानी एक अन्तराष्ट्रीय व्यवसायी हैं, उनके यदि सौ करोड़ विदेशी बैंकों में जमा हैं, तो कौन सी आश्चर्य की बात है? केजरीवाल ऐसे ही रहस्योद्घाटन करते हैं। विदेशों में कार्यरत या वहां से वापस आने वाले भारत के  लाखों इन्जीनियरों, डाक्टरों, प्रबन्धकों, वैज्ञानिकों और उद्यमियों के खाते विदेशी बैंकों में हैं। क्या उनके द्वारा जमा धन काला धन है? केजरीवाल सोनिया गांधी और राजीव गांधी के विदेशी बैंकों में जमा लाखों करोड़ रुपयों पर रहस्यमयी चुप्पी साध लेते हैं। बाबा रामदेव पूरे हिन्दुस्तान में प्रमाणों के साथ चिल्ला-चिल्ला कर यह बात कहते हैं, सुब्रहमण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री को भेजी अपनी २५६ पेज की याचिका में प्रमाणों के साथ इन तथ्यों का खुलासा किया है, लेकिन केजरीवाल सोनिया जी पर एक शब्द भी नहीं बोलते।
      १९७४-७५ में इन्दिरा सरकार और कांग्रेस आज की तरह ही भ्रष्टाचार और निरंकुशता का प्रतीक बन चुकी थी। इन्दिरा गांधी के लोकसभा के चुनाव को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अवैध घोषित कर दिया था, जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति का देशव्यापी आन्दोलन अपने चरम पर था। इन्दिरा जी ने आपात्काल लागू करके अपनी सत्ता बचा ली और लोकतंत्र का गला घोंट दिया। उस समय कांग्रेस के कुशासन और तानाशाही से देश की मुक्ति के लिए सभी विरोधी दलों का एकीकरण अत्यन्त आवश्यक था। जयप्रकाश नारायण ने यह असंभव कार्य कर दिखाया और १९७७ में पहली बार मोरारजी भाई के नेतृत्व में एक प्रभावी और भ्रष्टाचारमुक्त गैरकांग्रेसी सरकार बनी। अपने ढाई साल के कार्यकाल में उस सरकार ने जिस तरह महंगाई, भ्रष्टाचार और तानाशाही के विरुद्ध प्रभावशाली नियंत्रण स्थापित किया उसे हिन्दुस्तान की जनता आज भी याद करती है। अल्प समय में ही वह सरकार कांग्रेस के षडयंत्र का शिकार बन गई। उस समय राजनारायण और चौधरी चरण सिंह ने इन्दिरा जी के इशारे पर जनता के साथ जो विश्वासघात किया, वही कार्य सोनिया जी के इशारे पर आज अरविन्द केजरीवाल और मनीष सिसोदिया कर रहे हैं। अगर २०१४ के आम चुनावों के बाद भ्रष्ट और निकम्मी कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आती है, तो इसका पूरा श्रेय राहुल-सोनिया को नहीं, अरविन्द केजरीवाल को जाएगा जो विपक्ष की विश्वसनीयता को सन्देह के घेरे में लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं