Friday, April 24, 2015

हिन्दू हैं मुसलमानों की सुरक्षा की गारंटी

नेशनल कमीशन फॉर माइनारिटी एजुकेशनल इंस्टीट्यूशंस के चेयरमैन जस्टिस एज़ाज़ सिद्दिकी ने कल, रविवार (१९.०४.२०१५) को आगरा के ग्रांड होटल में बज़्म-ए-मैकश अवार्ड वितरण समारोह में बोलते हुए बिना किसी भय के स्पष्ट शब्दों में कहा कि अल्लाह के बाद हिन्दुस्तान में मुसलमानों के लिए सुरक्षा की कोई गारंटी है, तो वह हिन्दू समाज है। उन्होंने कहा कि भारत के हिन्दू और मुसलमानों का जीन्स और डीएनए एक है, यह विज्ञान भी प्रमाणित कर चुका है। दोनों के खानपान, पहनावा, पारिवारिक परंपराएं, जीवन मूल्य और आरज़ू भी एक है। हिन्दू और मुसलमान इत्तिहाद यानी दोनों का मेल देश की खुशहाली के लिए जरुरी है। कुछ लोगों ने दोनों कौमों के बीच दीवारें खड़ी कर दी हैं। मुसलमानों को जजीरे (टापू) की तरह बना दिया है। तन्हा बहने की आदत मुसलमान खत्म कर दें, क्योंकि दरिया में बहना है तो बूंद तन्हा नहीं बह सकती। उन्होंने और स्पष्ट करते हुए कहा कि हिन्दुओं से संवाद की जरुरत है। हमें उनके त्योहारों में, सुख-दुःख में शरीक होना चाहिए। हिन्दू स्वभाव से एक सेकुलर कौम है। अगर यह कौम सेकुलर नहीं होती तो मुल्क में इतने मज़हब और इतनी नस्लों के लोग भी न होते। उन्होंने आगे कहा कि मुसलमान फ़साद या जनाजे में तुरन्त एक हो जाते हैं लेकिन उसके बाद फिर अपनी-अपनी डफली बजाने लगते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि उनके कैरियर में मुसलमानों ने कोई मदद नहीं की बल्कि हिन्दू भाई ही मददगार बने।
      आज के ही अखबार में प्रख्यात बंगला लेखिका तस्लीमा नसरीन का एक लेख पढ़ने का भी मौका मिला। उन्होंने बांग्ला देश में जीवन भर अन्धविश्वास के खिलाफ़ मुहिम चलाने वाले सामाजिक कार्यकर्त्ता अभिजीत की फूटपाथ पर सरेआम हत्या पर दुःख जताते हुए कहा है कि अगर बांग्ला देश के बुद्धिजीवी शुरु से ही मज़हबी उन्माद का विरोध करते तो आज कट्टरवादी सरेआम लोगों की हत्या नहीं करते। अच्छा है कि वहां की सरकार ने मुझे देश में घुसने की इज़ाज़त नहीं दी, वरना मेरा हश्र भी अभिजीत जैसा होता। जबतक धर्मान्धता, कट्टरवाद, अन्धविश्वास, नारी-विद्वेष और हर प्रकार की विषमता को खत्म करके मुक्तचिन्ता. वैज्ञानिक सोच और समानता की स्थापना नहीं होगी, तबतक पाकिस्तान और बांग्ला देश का समाज इसी तरह अपनी मौत मरता रहेगा। जो यमन, सीरिया, इराक आदि अरब देशों में आज हो रहा है, कल पाकिस्तान और बांग्ला देश में भी होगा।
      तस्लीमा नसरीन ने अपने लेख में भारत का नाम नहीं लिया है लेकिन कमोबेश मुस्लिम समुदाय की मानसिकता यहां भी पाकिस्तान और बांग्ला देश की तरह बनती जा रही है। समझ में नहीं आता कि इस देश का मुस्लिम समाज आज भी कबीर, रहीम, बहादुर शाह जफ़र, मौलाना अब्दुल कलाम, मुहम्मद करीम छागला, ए.पी.जे. कलाम, एज़ाज़ सिद्दिकी आदि मुस्लिम बुद्धिजीवियों की सार्थक बातों को तवज्जू न देकर गिलानी, मसर्रत, अफ़ज़ल, ओवैसी को अपना हीरो क्यों मानते हैं? विज्ञान और इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि हिन्दुस्तान सबका है और सबके पूर्वज एक ही हैं क्योंकि पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्खिन के सभी निवासी, वे चाहे अपने को आर्य कहें, द्रविड़ कहें, शूद्र कहें, ब्राह्मण कहें, आदिवासी कहें, नगरवासी कहें, हिन्दू कहें या मुसलमान कहें - सबका डी.एन.ए. तो एक ही है।

    

Wednesday, April 22, 2015

दोहरी शिक्षा व्यवस्था और जनता का शोषण


  किसी भी देश के लिए शिक्षा की दोहरी व्यवस्था आनेवाली पीढ़ी के लिए अभिशाप होती है। अपने देश में एक तरफ शिक्षा माफ़ियाओं द्वारा संचालित सर्व सुविधासंपन्न निजी स्कूल हैं, तो दूसरी ओर मिड डे मील के आसरे संचालित सरकारी स्कूल हैं। एक में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा के नाम पर लूट-खसोट का सिलसिला प्रवेश प्रक्रिया से लेकर नाम कटाने तक खत्म नहीं होता। अनियंत्रित ऊंची फीस, टाई-बेल्ट, यूनिफार्म, कापी-किताब, बस की फीस, एजुकेशनल टूर, पिकनिक, वार्षिकोत्सव आदि के माध्यम से बच्चों और अभिभावकों का शोषण एक आम बात है। इसके अलावे एक और खेल चलता है, ट्यूशन का। निजी स्कूलों के शिक्षक सरे आम कोचिंग चलाते हैं। बच्चों पर दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि वे उनके यहां ट्यूशन पढ़ने आयें। ऐसे निजी स्कूलों में एक छात्र पर लगभग १५ हजार रुपए प्रति माह का खर्च आता है।
      ऐसे निजी स्कूलों का मुकाबला करने के लिए मिड डे मील के सहारे चलने वाले सरकारी स्कूल हैं जिसमें दो पहर के भोजन के अलावे छात्र/छात्राओं को कुछ प्राप्त नहीं होता। छ्ठी क्लास में पढ़ने वाले बच्चे हिन्दी का अखबार भी नहीं पढ़ पाते। मेरे घर काम करने वाली दाई ने अपनी बच्ची का नाम सरकारी स्कूल से कटवाकर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए एक लोकल कान्वेन्ट स्कूल में कराया है। सरकारी स्कूलों की शिक्षा रसातल को चली गई है। इसका लाभ लेकर शिक्षा माफ़िया अकूत धन कमा रहे हैं। सरकार का दोनों में से किसी पर नियंत्रण नहीं है। सरकारी शिक्षकों को छठे वेतन आयोग के बाद अच्छी तनख्वाह मिल रही है लेकिन उनका झुकाव बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की ओर बिल्कुल नहीं है। उनमें समर्पण की कमी है और पक्की नौकरी का अति विश्वास अलग से है। निजी स्कूलों के शिक्षकों की तनख्वाह सरकारी स्कूलों की तुलना में लगभग आधी है। निजी स्कूलों के शिक्षकों का औसत वेतन लगभग १० हजार रुपए है। वे तनख्वाह में कमी की भरपाई ट्यूशन से करते हैं। दोनों ही स्थितियों में शोषण का शिकार छात्र और अभिभावक ही होते हैं। पता नहीं सरकार की आंखें कब खुलेंगी? जबतक पूरे देश में एक सिलेबस और सिर्फ मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य नहीं की जाती, शोषण का यह खेल चलता रहेगा और शिक्षा माफ़िया अपनी जेबें भरती रहेंगी।


      

Tuesday, April 21, 2015

रेलवे और पिज़्ज़ा

रेलवे बज़ट अब आने ही वाला है। हमेशा की तरह लोक-लुभावन वादों की झड़ी इस बज़ट में भी होगी। अपने ६० वर्षों के जीवन में जब से होश संभाला है, बड़े ध्यान से रेलवे बज़ट देखता हूं। अन्यों की तरह मुझे भी जिज्ञाशा रहती है कि मेरे गृह-स्टेशन से इस साल  कोई नई ट्रेन चली या नहीं। सारी नई ट्रेनें कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, बंगलोर, अहमदाबाद, पटना या लखनऊ से ही चलती हैं। दूरस्थ स्थानों की सुधि लेनेवाला कोई नहीं है - चाहे वे लालू हों, नीतिश हों या सुरेश प्रभु हों।
      आज एक समाचार टीवी पर देखा - ट्रेन में अब पिज़्ज़ा भी मिलेगा। बर्गर, सैन्डविच, पकौड़े, दही, मठ्ठा, लिट्टी-बाटी, चावल-रोटी, दाल, सब्जी, वेज, नान-वेज, चाय-काफी आदि खाद्य सामग्री तो पहले भी मिला करती थीं। चलिये, एक नाम पिज़्ज़े का और जुड़ गया। मेरी समझ में नहीं आता है कि जनता रेल से सफ़र खाने के लिए करती है या गंतव्य तक पहुंचने के लिए? क्या महानगरियों तक जाने वाली ट्रेनों की सामान्य बोगियों की ओर कभी आपका ध्यान गया है? यदि आप सिर्फ एसी में सफ़र करते हैं, तो मेरा आग्रह है कि किसी स्टेशन पर रुककर सामान्य बोगियों का एक चक्कर अवश्य लगा लें।  आपकी आंखों में आंसू न आएं, ऐसा हो ही नहीं सकता। एक के उपर एक लदे लोग - बिल्कुल बोरे जैसे, शौचालय में भी अखबार बिछाकर बैठे लोग, रोते बच्चे, आंचल संभालतीं महिलायें, गर्मी में उतरकर स्टेशन से पीने का पानी न ले आने की मज़बूरी से ग्रस्त पुरुष और सबको कुचलकर डिब्बे में प्रवेश को आतुर भीड़ के दृश्य कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, चेन्नई आदि महानगरों को जाने वाली हर ट्रेन में दिखाई पड़ेंगे। अन्ना भी जन्तर-मन्तर पर धरने के लिए जिन्दल ग्रूप के हवाई जहाज से आते हैं, केजरीवाल भी विमान के एक्जीक्युटिव क्लास में सफ़र करते हैं। है कोई महात्मा गांधी, जो थर्ड क्लास (अब द्वितीय श्रेणी, सामान्य) में यात्रा करने का दुस्साहस कर सके? आज़ाद हिन्दुस्तान में तो ऐसा साहस न किसी नेता ने दिखाया है और न किसी समाजसेवी ने। अब आप ही सोचिए उस डब्बे में जब मूंगफली वाला प्रवेश करने की हिम्मत नहीं कर पाता है, तो वातानुकूलित पैन्ट्री कार का पिज़्ज़ा वाला कैसे पहुंच सकता है? क्या जेनरल बोगियों में यात्रा करने वाले के कष्टों के निवारण के लिए इस बज़ट में कुछ होगा? रेल राज्य मंत्री मनोज सिन्हा आई.आई.टी. बी.एच.यू. में मुझसे एक साल जूनियर थे। मित्रता अब भी बरकरार है। मेरी तरह वे भी एक साधारण परिवार से ही आये हैं। मैं यह लेख उनको भी मेल कर रहा हूं। देखता हूं, यह बज़ट भी हमेशा की तरह इंडिया के लिए ही होगा या भारत भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ेगा।

      ध्यान रहे कि जनता ट्रेन की यात्रा पिज़्ज़ा खाने के लिए नहीं करती। यात्रियों की सरकार और रेलवे से मात्र एक ही अपेक्षा रहती है - अपने गन्तव्य पर सुरक्षित और समय से पहुंच जायें। जब इन्दिरा गांधी के आपात्काल में सारी ट्रेनें समय से चल सकती थीं, तो मोदी के सुराज में यह संभव क्यों नहीं है? हम हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि रेलवे हमें हमारे गंतव्य पर सुरक्षित और समय से पहुंचाना सुनिश्चित करे। यह कठिन हो सकता है, असंभव नहीं।