Tuesday, October 26, 2010

दो कैन्सर रोगियों की आपबीती

वे जुलाई १९९५ के दिन थे. मेरी पत्नी - गीतू, जिसकी उम्र मात्र ३५ वर्ष थी, कैन्सर की शिकार हुई. बिना नहाए-धोए और पूजा किए वह अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करती थी. पान, तंबाकू, मदिरा इत्यादि से उसका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं था. उसकी बाईं ब्रेस्ट में एक गांठ उभरी. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल में उसे दिखाया गया. तरह-तरह के टेस्ट कराए गए. डक्टरों ने इसे कैन्सर घोषित किया और केस टाटा मेओरियल हास्पिटल, मुम्बई को रेफर कर दिया.
जीवन के सबसे कठिन क्षण थे वो. कैन्सर का नाम सुनते ही दिल बैठ गया, मस्तिष्क चक्कर खाने लगा. जीवन की सबसे प्रिय निधि - लगा - जल्दी ही खोनेवाला हूं. मैं उसे दिलासा दिलाता था - "जल्दी ही ठीक हो जाओगी." वह कम बोलने लगी थी. बात काटती नहीं थी, लेकिन उसकी आंखें मेरी बातों पर अविश्वास करने लगी थीं. मैं प्रत्यक्ष देख सकता था. उसे दिलासा देते हुए कभी-कभी मैं भी रो पड़ता था. कबतक अभिनय करता? मेरा निर्माण भी हाड़ मांस से ही हुआ था. मेरे अंदर भी भावनाएं उठती थीं.
"मुझे कैन्सर हुआ है न?" वह पूछती.
"नहीं ऐसा नहीं है," मैं उत्तर देता.
"आपको झूठ बोलना भी नहीं आता. आप होठों से प्रयास तो करते हैं लेकिन चेहरा सारा भेद खोल देता है. मैं अच्छी तरह जानती हूं - टाटा मेमोरियल में और किस रोग की चिकित्सा होती है?"
उसे अंधेरे में रखना संभव नहीं था लेकिन इस रोग के नाम का उच्चारण करने में रूह कांप जाती थी. हम साथ रोए थे - कई बार - गले लगकर. बिछड़ना ध्रुव सत्य लग रहा था. फिर भी प्रयास तो करना ही था. महासमर में उतरना ही था. हम लोग मुंबई के लिए चल पड़े. हास्पिटल के पास ही ’हरिओम’ होटल में ठहरे हमलोग. डा. पी.बी.देसाई की ओ.पी.डी. में पंजीयन कराया गया. चेक अप के बाद ढेर सारे टेस्ट लिख दिए उन्होंने. एक हफ़्ते तक टेस्ट ही कराते रहे हमलोग. एफ़.एन.ए.सी. टेस्ट से बहुत घबराती थी वह. दो बार यह टेस्ट हो चुका था. रिपोर्ट दिखाई गई, लेकिन टाटा मेमोरियल सिर्फ़ अपनी जांच पर ही भरोसा करता था. एफ़.एन.ए.सी. टेस्ट के लिए जाते समय वह बिलख-बिलख कर रोई थी. मैं उसकी कोई सहयता नहीं कर सका. ढाढ़स बंधाने की भी हिम्मत नहीं रह गई थी मुझमें. वह अंदर गई. आधे घंटे के बाद आंसू पोछते हुए वह टेस्ट लैब से बाहर निकली. मैंने बांहों का सहारा दिया. धीरे-धीरे टैक्सी तक ले आया. होटल पहुंचकर हम दोनों चुप थे. पंखा फुल स्पीड पर चल रहा था. हवा की सांय-सांय की आवाज़ आ रही थी.
एक हफ़्ते के बाद आपरेशन की डेट मिली. नियत तिथि पर आपरेशन हुआ. डा. देसाई ने बधाई दी. आपरेशन सफल था. मैंने डक्टर के पांव छू लिए उन्होंने गीतू को नई ज़िन्दगी दी थी. टांके सूखने में १५ दिन क समय लगा. फिर फाइनल चेक अप किया गया. कीमोथिरेपी के छः कोर्स पूरा करने की सलाह मिली. अगला पड़ाव बनारस था. हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल में यह चिकित्सा शुरू हुई. भयानक आफ्टर इफेक्ट होता है इस थेरेपी का. ड्रिप के सहारे धीरे-धीरे कैन्सर से प्रभावित सेलों को नष्ट करने के लिये दवा चढ़ाई जाती है. दो कीमो में इक्कीस दिनों का गैप होता था. कीमोथिरेपी से कैन्सर से प्रभावित कितने सेल नष्ट होते थे, यह तो नहीं मालूम लेकिन पर्याप्त मात्रा में स्वस्थ सेल अवश्य नष्ट हो जाते थे. हर कीमो के बाद गीतू एक ज़िन्दा लाश बन जाती थी. अपने पैरों पर खड़ी होने के लिये उसे हफ़्तों इंतज़ार करना पड़ता. किसी तरह कीमो के छः कोर्स पूरे हुए. फिर चेक अप के लिए मुंबई जाना पड़ा. सब ठीक था, लेकिन डाक्टर ने प्रत्येक छः महीनों के बाद मुंबई आकर नियमित चेक अप की सलाह दी. मेरे पूछने पर कि जब वह ठीक हो गई है तो बार-बार चेक अप की क्या आवश्यकता है, डाक्टर ने मुझे अलग ले जाकर बताया - मि. सिन्हा, रोग का फैलाव ज्यादा हो चुका है, इट इस इन एडवांस स्टेज. यू मस्ट रिमेन केयरफुल आल द टाइम. मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसकने लगी. मैंने सोचा था कि चक्रव्यूह तोड़ दिया लेकिन ऐसा नहीं था. पहले आपरेशन के अभी सात साल भी नहीं बीते थे कि आपरेशन वाली जगह पर एक गांठ फिर से उभर आई. विपत्ति का पहाड़ पुनः टूट पड़ा. "कितनी और यातना दोगे, कितनी और परीक्षा लोगे", भगवान से बार-बार पूछा मैंने. लेकिन पत्थर भी कभी बोलता है क्या? गीतू जीवन से निराश हो चुकी थी. बड़ी मुश्किल से उसे पुनः मुंबई चलने के लिए राज़ी किया. टाटा मेमोरियल में ही दूसरा आपरेशन हुआ. रेडियोथेरेपी के तीस कोर्स भी कराने पड़े.
समय तो कभी रुकता नहीं, आगे बढ़ता ही जाता है. मुंबई प्रवास के ढाई महीने भी गुज़र ही गए. कैसे गुज़रे, याद नहीं करना चाहता. बनारस लौटने के बाद हम फिर अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गए लेकिन हमलोग हंसना भूल गए. कैन्सर ने उसके बदन में बसेरा बना लिया था. हमेशा आशंका बनी रहती थी. डर के साए में हम दिन गुजार रहे थे. मैं तनावग्रस्त रहने लगा. रात में नींद नहीं आती थी. अक्सर गोली लेनी पड़ती थी. वज़न भी धीरे-धीरे कम होने लगा. शरीर में मधुमेह ने स्थाई बसेरा बना लिया. २००३ की जनवरी के आते-आते स्टूल के साथ खून का निकलना आरंभ हुआ. हिन्दू विश्वविद्यालय अस्पताल में तरह-तरह की जांच हुई. रेक्टम में एक ट्यूमर डायग्नोस हुआ. केस एस.जी.पी.जी.आई. लखनऊ के लिए रेफर कर दिया गया.
डाक्टरों ने सफलता पूर्वक मेरा आप्रेशन किया. डेढ़ महीने तक हास्पिटल में भर्ती रहा. वार्ड ब्वाय की गलती के कारण पहले आपरेशन के पांच दिन बाद ही एक इमर्जेंसी आपरेशन और करना पड़ा - इलियास्टमी की गई. पेट की दाईं ओर एक बैग लगा दिया गया. छोटी आंत को बड़ी आंत से अलग कर दिया गया. स्टूल बड़ी आंत में नहीं आता था - बैग में इकठ्ठा होता था. हमने इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी. एक सदमा सा लगा. गीतू ने संभाला मुझे, बोली -
"आप तनिक भी चिन्ता न करें. मैंने नर्स से ट्रेनिंग ले ली है. बैग निकालना, बदलना, लगाना और साफ करना, मैंने सीख लिया है. आपको ज़रा भी तकलीफ़ नहीं होगी. मैं हूं न."
मैं राज कपूर की तरह मुस्कुराया. वह मुकेश के ट्रेजडी गाने गाते समय भी हल्के से मुस्कुराता था.
ट्यूमर की बायप्सी रिपोर्ट तो आ गई थी लेकिन डाक्टर ने उसे डिस्क्लोज नहीं किया था. डिस्चार्ज वाले दिन उसने बताया --
"ट्यूमर मैलिग्नैंट था, आपको रेडियोथिरेपी और कीमोथिरेपी भी करानी पड़ेगी - यहां भी हो सकती है, बनारस में भी हो सकती है. आपको जहां भी सुविधा हो, दोनों थिरेपी करा लीजिएगा. पूरी रिपोर्ट डिस्चार्ज सर्टिफ़िकेट के साथ मिल जाएगी. विश यू आल द बेस्ट."
मैं जड़वत हो गया. दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता. डिस्चार्ज होने की खुशी समाप्त हो चुकी थी. कमरे में सन्नाटा छा गया. सिर्फ गीतू के फूट-फूटकर रोने की आवाज़ आ रही थी -
"मैंने क्या बिगाड़ा था भगवान आपका? क्या आपको यह रोग मुझे देकर संतुष्टि नहीं हुई? कोई जरूरी था कि इन्हें भी यह घातक रोग लग जाय? मुझे आपने बचा ही क्यों लिया? मर जाती तो यह बुरी खबर सुनने को तो नहीं मिलती. यह अन्याय है भगवन, सरासर अन्याय है."
विह्वल कर देने वाला था उसका करुण क्रन्दन. उपस्थित सभी लोगों की आंखें गीली हो गईं. सबने पलकों पर तिर आए आसुओं को पोंछा. हमलोग बनारस लौट आए. डाक्टर की सलाह के अनुसार भयावह रेडियोथिरेपी और कीमोथिरेपी कराई गई.
कैन्सर से भयावह इसकी चिकित्सा होती है. पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है. रोगी कई बार मरता है, कई बार जीता है. अवसाद हमेशा हावी रहता है. मृत्यु के आने तक कौन नहीं जीना चाहता है? पर कैन्सर का रोगी जी पाता है क्या? वन-उपवन, तरुवर-लता, कलियां-प्रसून, पपीहा कोयल, शुक-सारिका, मैना-गौरैया, बादल-बिजली, सावन-रिमझिम, सागर-झील, झरनें-नदियां, ताल-तलैया - सबको देखना चाहता है - पर देख पाता है क्या? क्षतिग्रस्त लिपिड, सेल-वेसेल वाल, असन्तुलित न्यूक्लियस, डीएनए, प्रोटीन, रेडियो, कीमो मेडिकेशन, पंचक्रिया, शल्यक्रिया - सबके बावजूद रोगी - हाथ, पांव, मस्तिष्क और दिल, सबका इस्तेमाल करना चाहता है - कर पाता है क्या? मैं अक्सर सोते समय भगवान से प्रार्थना करता था -
"हे भगवन! अगर मैंने जीवन में कुछ भी पुण्य अर्जित किया हो, तो मुझे कल का सवेरा मत दिखाना. यह जर्जर शरीर अब ढोया नहीं जाता. जीने की आकांक्षा अब शेष नहीं रह गई है. मुझे मुक्ति दे दो, मुझे मुक्ति दे दो."


उपर से मैं सामान्य दिखाई देता था लेकिन अंदर से शरीर जर्जर हो चुका था. आंतें सिकुड़ गईं थी. कब्ज़ ने स्थाई रूप धारण कर लिया. दिन में दस-बारह बार शौच जाना पड़ता था लेकिन पेट साफ नहीं होता था. भांति-भांति की दवाएं दी गईं लेकिन सब बेअसर. डाक्टरों ने हार मान ली. मुझे सलाह दी गई - अब ऐसे ही जीना सीखिए. मेरी दक्षता और क्षमता आधी से भी कम हो गई. घर और आफ़िस, यहीं दुनिया थी मेरी. वह मुझे ढाढ़स बंधाती थी और मैं उसे. एक दूसरे की् पीड़ा, एक दूसरे से अधिक कौन समझ सकता था. फिर भी कष्ट बांट हम खुश रहने की कोशिश करते. वह भगवान से एक ही प्रार्थना करती थी कि वे उसे सुहागिन की मृत्यु दें?
सन २००५ का नवंबर महीना चल रहा था. दिवाली के बाद गीतू को एक दिन तेज खांसी आई. कफ़ में खून के छींटे दिखाई पड़े. बी.एच.यू. में डाक्टर को फौरान दिखाया गया. ढेर सारे टेस्ट कराए गए - सीटी स्कैन, एफ़.एन.ए.सी, एक्सरे, सोनोग्राफी, इत्यादि, इत्यादि. धड़कते दिल से रिपोर्ट ले आता. लैब में जाने से पूर्व संकट मोचन मंदिर में जाकर बजरंग बली के दर्शन करता, रो-रोकर याचना करता - रिपोर्ट सही करना भगवान. लेकिन सब बेकार. सारी रिपोर्टें दिल तोड़ने वाली थीं. रोग का फैलाव दोनों फेफड़ों, राइट ब्रेस्ट और गले में हो चुका था. सर्जरी नहीं की जा सकती थी. कीमोथिरेपी की दारुण यंत्रणा से फिर गुजरना पड़ा. हमदोनों का एकमात्र पुत्र साफ्ट्वेयर इंजीनियर है. बंगलोर में नौकरी कर रहा था. उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसकी आंखों के सामने बेटे की शादी हो जाय. इधर कीमो चल रही थी, उधर सुयोग्य बहू की तलाश. कुछ ही दिनों में तलाश पूरी हो गई. दिसम्बर २००६ में बेटे की शादी संपन्न हो गई. अपार इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए उसने शादी की सारी रस्में पूरे उत्साह से निभाई. शादी के बाद एक दिन पूजा के दौरान वह बोली - "हे भगवान! मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गईं. अब जब चाहो, मुझे अपने पास बुला सकते हो."
जीवन! क्या होता है जीवन? चैतन्य की एक ओंकार ध्वनि ही तो है यह - पीढ़ी दर पीढ़ी की दीर्घ साधना की संस्कारशील यात्रा से प्राप्त. मनुष्य अपने बुद्धि कौशल से सबकुछ निर्माण कर सकता है लेकिन नहीं जोड़ सकता है एक पल भी अपनी इच्छा से. परन्तु संघर्ष करता है जीवन भर. उसे प्रतीत होता है - कुछ पल तो जोड़ ही सकता है अपने अथक प्रयासों से अपने और अपने प्रियजन के जीवन में. अद्भुत है यह मृग-मरीचिका. ज्ञानी भी अज्ञानी की भांति आचरण करता है.
गीतू धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही थी. चेहरे पर उभर आई सूजन अब साफ़ देखी जा सकती थी. उसके दाएं हाथ और दाहिने पैर ने अचानक काम करना बंद कर दिया. फिर तरह-तरह के टेस्ट हुए - सीटी स्कैन, बेरियम टेस्ट, सोनोग्राफी..........मस्तिष्क के दक्षिणी भाग में भी रोग की पहुंच हो गई थी. भोजन की नली लगभग बंद हो चुकी थी. हाथ-पांव को क्रियाशील बनाने के लिए रेडियोथिरेपी और भोजन की नली खोलने के लिए डाइलेटेशन का निर्णय लिया गया. मैंने डाक्टर से पूछा -
"इस ट्रीटमेंट के बाद क्या वह ठीक हो जाएगी?"
"अब हमलोगों का प्रयास है कि वे जबतक जीएं, कंफर्टेबली जीएं. आप "कहो कौन्तेय" के रचनाकार हैं, महाभारत और गीता के मर्मज्ञ हैं. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए और हर परिस्थिति के लिए तैयार रहिए."
डाक्टर ने संकेत में सब समझा दिया.
गीतू के शरीर से नियति को इतनी ईर्ष्या क्यों? सुबह होती, रंग फीका-फीका लगता तथापि जीवित रहती - बातचीत करती - पुस्तक पढ़ती - मृत्यु का अनादर करते हुए हंसती - भोर के चांद की तरह. यातना के साथ सूर्योदय होता - सूर्यास्त होता बेचैनी के साथ - रात गुजरती एक-एक निःशब्द, भयंकर, निश्चित प्रतीक्षा में - मृत्यु की. मृत्यु की याचना, मृत्यु का भय, गीतू के सामने बार-बार पराजित होते. दिन रात बेटे-बहू उसके पास बैठे रहते, थके मांदे मेरे साले दीवान के किनारे कुछ पलों के लिए आराम कुर्सी पर निढ़ाल हो जाते, फिर चौंक कर उठ बैठते. मैं लाबी में अस्थिर हो टहलता रहता. सेवम बरामदे में खंभे की टेक लगाए मृत्यु के पथ को रोककर बैठा रहता. सेविका उसकी देखभाल करती. उसके बचे-खुचे बालों को संवारती - मध्य में लाल सिन्दूर की एक रेखा बनाती - ललाट के बीचोबीच एक छोटी सी बिन्दी सजाती. साधारण प्रसाधनों से ही उसका चेहरा मणि की तरह दमक उठता.
दिनांक ८ मार्च २००७. रात में खाना खाते समय सबने लक्ष्य किया - वह प्रसन्न थी. खाना खिलाकर दवा दी गई. जल्दी ही सो गई. हमेशा की तरह नाक भी बजने लगी. ढाई बजे रात को नींद खुली. बाथ-रूम जाना था उसे. मैं सहारा देकर ले गया. लौटते समय बेड-रुम के दरवाजे तक पहुंची ही थी कि जोर की एक हिचकी आई और मेरी बाहों में झूल गई वह.
मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी. जीवन के उन्तीस अविस्मर्णीय वर्ष साथ-साथ व्यतीत करने के बाद अकेला छोड़ ही दिया उसने. मेरा करुण क्रन्दन भी रोक नहीं पाया उसे.
शव-यात्रा के पहले उसका शृंगार किया गया. नहला-धुलाकर शादी वाला जोड़ा पहनाया गया. होठों पर लिप्स्टिक लगाई गई. शृंगार पूरा होने के बाद मुझे बुलाया गया. मुझे उसकी मांग में सिन्दूर भरना था. अब मेरा साहस जवाब देने लगा. मेरे पैर कांपने लगे, लड़खड़ाया, लगा कि गिर जाऊंगा. तभी किसी ने थामा. चौहान भाभी थीं वो. आदेशात्मक स्वर में बोलीं -
"विपिनजी! बहुत सौभाग्यशालिनी थीं आपकी गीतू. मुझसे कहती थीं - मैं सुहागिन मरना चाहती हूं. भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की. हर हिन्दू औरत की यह प्रबल इच्छा होती है कि वह सुहागिन मरे. लेकिन कितनों को यह नसीब हो पाता है? वह पतिव्रता थीं, महान थीं. लीजिए यह सिंधोरा और भर दीजिए सिन्दूर से उनकी मांग, पूरी कर दीजिए उनकी अंतिम इच्छा. रोने के लिए तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है."
मैने आंसू पोंछ लिए. पहली बार उसकी मांग में सिन्दूर भर अपने घर ले आया था. उस दिन अंतिम बार मांग में सिन्दूर भर अपने ही घर से विदा कर रहा था - हमेशा के लिए. कैसी विडंबना है? भोले शिशु को खिलौना देना, अगले क्षण छीन लेना, फिर रुलाना. क्यों रचा यह नाटक? जो हाथ पसारकर मांगता है, उसके साथ खेलो. पर जो मांगता ही नहीं, उसके साथ खेल क्यों? मेरे पास अब बचा ही क्या था - टूटी हुई आशा, नष्ट हुआ भविष्य, बुझी हुई अग्निशिखा, दहकती दिशाएं.
मेरी छोटी सी दुनिया से वह मुक्त हो गई. वह उस विशाल आकाश का अंग बन गई, जहां ’मैं’ की संकीर्ण सत्ता का कोई अर्थ नहीं होता. अपने जीवन की सारी सार्थकता और अपने छोटे से ’मैं’ की संकीर्णता को वह मेरे छोटे स घर में छोड़कर विशाल परिसर की ओर उड़ गई. वह फिर भी, मेरे मन के आकाश में तितली की तरह काफी हल्के मन से मंडराती रहेगी, आकाश से भरी वर्षा की बूंद की तरह मेरे छोटे से आंगन में उतर आयेगी. वह तो भूल जाएगी कि कभी उसका एक शरीर था, मैं कैसे भूल पाऊंगा? उसके साथ दुख, शोक, कामना, वासना का लेशमात्र अंश भी नहीं रहेगा. उसके साथ रहेगी केवल सौन्दर्य की एक उदार, विस्तृत अनुभूति. वह लोक अत्यन्त सुन्दर होगा क्योंकि वहां नहीं होगा उसका जर्जर शरीर और नहीं होगी उससे उत्पन्न व्यथा एवं वेदना. शून्यता के बाग में आत्मा का एक फूल धीरे-धीरे खिलता रहेगा और उससे झरता रहेगा प्रेम का एक मधु-स्रोत - सारे संसार के लिए - मनुष्य के लिए - पशु-पक्षी और मेरे लिए भी.

Sunday, October 24, 2010

हमारी न्याय पद्धति

आज़ादी के बाद भी हमने अपनी न्याय-प्रणाली तनिक भी नहीं बदली. दीवानी और फ़ौज़दारी के जो कानून अंग्रेजों के जमाने में थे, वे ही आज भी विद्यमान हैं. वकीलों और जजों के काम करने का तरीका भी वही है. क्यों नहीं बदली यह व्यवस्था? आम जनता पर राज करने का यह एक आसान तरीका है, जो नेता, पूंजीपति और माफ़िया के हित में है.
कुछ निचली अदालतों को छोड़ दें तो भारत के सारे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा आज भी अंग्रेजी है. यह कैसी विडंबना है कि वादी या प्रतिवादी अपनी बात सीधे जज से नहीं कह सकता. उसे अनिवार्य रूप से बिचौलिये की आवश्यकता होती है, जिसे वकील कहते हैं. सारे वकील दलाली करते हैं. पीड़ित के लिये न्याय की फ़रियाद काला कोट पहने एक दूसरा व्यक्ति जज से करता है, जिसकी भाषा भी पीड़ित समझ नहीं पाता है. न्यायालय में सत्य या न्याय की जीत नहीं होती है, बल्कि वकील के दांव-पेंच और वक्तृत्व कला की जीत होती है. अपने फ़ायदे के लिये वकील तारीख पर तारीख लिये जाता है, जज दिए जाता है - भारत की गरीब जनता पिसती जाती है. देश की ९५% जनता की औकात ही नहीं है कि वह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाए. गरीबों को मुकदमे में फँसाकर उनका शोषण करना अमीरों का शौक बन गया है. वर्तमान न्याय-प्रणाली बाहुबलियों, पूंजीपतियों और रा्जनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बन गई है.
हमारे न्यायालयों मे सफ़ेद रंग की एक सुन्दर स्त्री की मूर्ति बनी रहती है, जिसके हाथ में तराजू रहता है और आंखों पर पट्टी बंधी रहती है. मूर्ति संदेश देती है - कानून अंधा होता है. अगर कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है, तो वह तराजू को कैसे बैलेन्स कर सकता है? इसपर किसी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया, बस नकल कर ली. कानून याने जज अंधा होता है, अंधा ही नहीं बहरा भी होता है. कोर्ट में वकील चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात सुनाते हैं और दस्तावेज़ दिखाते हैं. वकीलरूपी दलाल ही जज के आंख-कान हैं. कानून को जनता की चीखें सुनाई नहीं पड़तीं, भोपाल गैस त्रासदी के मृतकों की लाशें दिखाई नहीं पड़तीं. हाई कोर्ट से मौत की सज़ा पानेवाला मुज़रिम सुप्रीम कोर्ट से बाइज्जत बरी हो जाता है. अगर उसके पास पैसे नहीं होते तो? वह फ़ांसी पर झूल जाता. मुजरिम को हाई कोर्ट के जिस जज ने मौत की सज़ा दी और सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया - क्या उस जज पर हत्या के प्रयास का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंधे राजा (धृतराष्ट्र) और आंख पर पट्टी बांधी महारानी (गांधारी) की उपस्थिति में उनके ही बेटे कुलवधू का चीरहरण करते हैं.
हमारी निचली अदालतें पूरी तरह रिश्वतखोरी में लिप्त हैं. हाई कोर्ट में ६०% भ्रष्टाचार है तो सुप्रीम कोर्ट में ३०%. कर्नाटक के भ्रष्ट चीफ जस्टिस दिनकरन का केस हल नहीं हो पा रहा है क्योंकि अमेरिका और इंगलैंड से उधार लिये गये संविधान में कार्यवाही करने का जो तरीका दर्ज़ है, वह अड़ंगा लगाने और बच निकलने के लिये काफ़ी है. भ्रष्टाचार के प्रमाणित आरोपों के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश चो रामास्वामी का कोई बाल बांका भी हो कर सका. लोकसभा में महाभियोग लाया गया, लेकिन दो-तिहाई बहुमत का समर्थन नहीं मिल सका. श्री शशिभूषण, भूतपूर्व कानून मन्त्री, भारत सरकार ने एक इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के अबतक के १६ मुख्य न्यायाधिशों में से ८ को रिश्वतखोर बताया है. श्री रंगनाथ मिश्र - कांग्रेस के प्यारे न्यायाधीश और यूनियन कार्बाइड को सस्ते में छोड़वाने वाले जज न्यायमूर्ति अहमदी भी इसमें शामिल हैं.
भारतीय न्याय-पद्धति पंच परमेश्वर की न्याय पद्धति थी. सबके सामने दूध का दूध और पानी का पानी. बिना दलाल के जो न्याय मिलता है, वही सच्चा न्याय होता है. जज, वादी-प्रतिवादी से सीधी वार्त्ता क्यों नहीं कर सकता? उनसे अपने दावों के समर्थन में साक्ष्य क्यों नहीं ले सकता? आवश्यकता पड़ने पर स्थलीय निरीक्षण क्यों नहीं कर सकता? स्वयं जाकर आस-पास के लोगों से गोपनीय पूछ्ताछ क्यों नहीं कर सकता? वह सब कर सकता है, लेकिन करता नहीं, क्योंकि आज भी उसकी मानसिकता वही है, जो १९४७ के पहले थी. आज भी उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके पेशे के सहयोगी, तथाकथित कानून विशेषज्ञ वकीलों की रोजी-रोटी जाने का खतरा भी है. जनता न्याय के चक्रव्यूह में पिसती रहे - क्या फ़र्क पड़ता है! न्यायालय के जज, कर्मचारी और वकील की जेब तो भर रही है न.

Tuesday, October 12, 2010

भ्रष्टाचार -- एक अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे सरकारी विभागों को फ़टकार लगाते हुए दिनांक ९.१०.२०१० को टिप्पणी की -- "इससे बेहतर होता कि सरकार भ्रष्टाचार को वैध कर देती. कम से कम आम आदमी को पता रहेगा कि उसे रिश्वत में कितने पैसे देने हैं." तीन विभागों - आयकर. विक्रीकर और आबकारी का विशेष उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा कि इन महकमों में बिना पैसे दिये कोई काम नहीं होता. जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने एक अलग मामले में एक शातिर अपराधी की तरफ़ से पेश वकील, वेणु गोपाल पर निशाना साधते हुए कहा कि मिस्टर वेणुगोपाल, हम आपके स्तर के वकील से इस तरह के लोगों के लिए केस लड़ने की अपेक्षा नहीं करते. महात्मा गांधी भी वकील थे लेकिन इस तरह के लोगों के लिए कभी नहीं लड़े. वेणु गोपाल ने अपनी सफ़ाई में कहा कि महात्मा गांधी की तरह मामलों के चुनाव, अगर वे करने लगे, तो उनके ज्यादातर मुवक्किल हाथ से निकल जाएंगे, फ़ाकाकशी की नौबत आ सकती है. वेणु गोपाल ने कोई झूठ नहीं कहा. दूसरों से सदाचार की अपेक्षा करने वाले न्यायधीशों का दामन क्या पाकसाफ़ है? भारत के सभी न्यायालयों में जज की आंखों के सामने उनका पेशकार मात्र अगली डेट बताने के लिए पैसे लेता है. वे इसे दस्तूर कहते हैं, जो अंग्रेजों के समय से चला आ रहा है. ट्रान्सपेरेन्सी इन्टरनेशनल इंडिया द्वारा जारी भ्रष्टतम विभागों की सूची में न्याय व्यवस्था को गौरवशाली दूसरा स्थान (रजत पदक) प्राप्त है. पुलिस और राजनेता संयुक्त रूप से प्रथम स्थान (स्वर्ण पदक) पर विद्यमान हैं. भारत के टाप टेन भ्रष्ट विभागों की सूची निम्नवत है. ५ के पूर्णांक में उनके द्वारा अर्जित अंकों को भी दिखाया गया है --
१. पुलिस ४.७
राजनेता ४.७
२. न्याय ४.३
३. रजिस्ट्री ४.०
४. शिक्षा ३.८
कर ३.८
५. आधारभूत सेवाएं ३.७
६. संसद ३.४
७. वाणिज्य एवं निजी क्षेत्र ३.३
८. मीडिया २.७
९. रक्षा २.१
१०. जनता २.०
भ्रष्टाचार, कम या अधिक सभी जगहों पर हमेशा रहा है. इस समय सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि अब इसे सामाजिक मान्यता भी मिलने लगी है. पहले भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेताओं को जनता अगले चुनाव में ही धूल चटा देती थी -- अब चर्चा भी नहीं करती. आय से अधिक संपत्ति के मामलों में कितने मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट में मुकदमें विचाराधीन हैं, क्या आप गणना कर सकते हैं? स्व. राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व-काल में घोषित किया था कि एक रुपए का मात्र २० पैसा ही विकास पर खर्च होता है, शेष भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. उनके सुपुत्र और भारत के युवराज राहुल गांधी ने अपने बुंदेलखंड के दौरे पर बयान दिया कि १०० पैसों में से मात्र ५ पैसे ही विकास पर व्यय हो पा रहे हैं. देश के वित्त मंत्री के रूप में काम करते हुए श्री चिदंबरम ने कहा था कि १ रूपया विकास पर खर्च करने के लिए सरकार को लगभग ३.५ रुपए का व्यय करना पडता है. मतलब साफ है -- सरकार को भी सारी चीजें पता है और उसके द्वारा इसे मान्यता भी प्राप्त है. सरकार कांग्रेस की है और उसके नेता भ्रष्टाचार की बात स्वीकार करते हैं, लेकिन दूर करने का कोई उपाय नहीं करते. क्या यह सत्य नहीं है कि कांग्रेस के शासन-काल में भ्रष्टाचार चरम पर रहता है. सभी इसमें आकंठ डूबे हैं, समाधान कौन निकलेगा? यह उजागर हो गया है कि राज नेताओं, पूंजीपतियों और भ्रष्ट नौकरशाहों के लाखों करोड़ रुपए स्विस बैंकों में जमा हैं. इस अकूत काले धन को वापस लायेगा कौन?
इन्टरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान दुनिया के भूखे देशों की श्रेणी में ९४ वाँ है. हमसे आगे ९० पर नेपाल, ८८ पर पाकिस्तान, ६९ पर श्रीलंका व ६६ पर म्यामार हैं. अपने देश में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का ८०% कर्ज़ से है, जो दुनिया में सबसे अधिक है. भ्रष्ट देशों की सूची में हमारा स्थान ७२वाँ है. हमसे बेहतर कई अफ़्रीकी देश हैं. आर्थिक आज़ादी की सूची में भारत १०४वें स्थान पर है. विश्व बैंक ने अपने देश को व्यापार करने की दृष्टि से १२०वें स्थान पर, १७८ देशों की सूची में रखा है, जो दक्षिण एशिया में न्यूनतम है.
अपने गुनाहों को छिपाने के लिए सरकार जो तरक्की की तस्वीर पेड मीडिया और सरकारी आंकड़ों द्वारा प्रस्तुत कर रही है, वह धोखा है. चमकता भारत, उभरता भारत, प्रगतिशील भारत, महाशक्ति भारत का दावा मात्र छलावा है. भ्रष्टाचार के राहु ने हमारी सारी योजनाओं पर पूर्ण ग्रहण लगा रखा है. चांद और सूरज तो ग्रहण से मुक्त हो जाते हैं, क्या भारत हो पायेगा? यह एक अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न है.

Friday, October 1, 2010

शांतिपूर्ण सह अस्तित्व


श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद पर आखीरकार हाई कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना ही दिया. काश! यह फ़ैसला २० वर्ष पहले आया होता. लेकिन विलंब से आया फ़ैसला भी ऐतिहासिक है. कोई पक्ष पूर्ण जीत या हार का दावा नहीं कर सकता. हाई कोर्ट ने देश के विभाजन के बाद हिन्दू और मुसलमान, दोनों समुदायों को एक दूसरे की भावनाओं को समझने, आपसी भाईचारा और सौहार्द्र स्थापित करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया है. किसी भी पक्ष को इस फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में नहीं जाना चाहिए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत औए ज़ामा मस्ज़िद के इमाम के वक्तव्य को इसी परिप्रेक्ष्य में देश की जनता को ध्यान से सुनना और पढ़ना चाहिए. हिन्दू-मुसलमान लड़ेंगे तो देश कमजोर होगा. दोनों व्यक्तियों ने इसे पहली बार एकसाथ महसूस किया है. यह देश का सौभाग्य है.

कुछ कट्टरपन्थी हिन्दू यह मानते हैं कि पाकिस्तान बन जाने के बाद मुसलमानों को हिन्दुस्तान में रहने का हक नहीं है. उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए. इसी तरह कुछ कट्टरपन्थी मुसलमानों ने हिन्दुस्तान को दारुल इस्लाम बनाने की ज़ेहाद छेड़ रखी है. वे भारत मे मुगलकलीन इस्लामिक आधिपत्य का सपना देखते हैं. धरातलीय सत्य यह है कि दोनों ही बातें आज की तारीख में असंभव हैं. ना तो आप २० करोड़ मुसलमानों को देश निकाला देकर इसे हिन्दू राष्ट्र बना सकते हैं और न ही बना सकते हैं धर्मनिरपेक्ष भारत को इस्लामिक राष्ट्र. यह देश मुसलमानों की भी जन्मभूमि और मातृभूमि है, उतनी ही जितनी हिन्दुओं की. दोनों की चमड़ी का रंग एक है, खून एक है, बोलचाल की भाषा एक है, रहन-सहन का ढंग एक है, पहिरावा एक है, आदतें एक हैं. पूजा-पद्धति को छो्ड़ दिया जाय, तो सभ्यता और संस्कृति भी एक है. कार्यालय, स्कूल और कालेज में देखकर क्या आप बता सकते हैं कि अमुक लड़का हिन्दू है और अमुक लड़का मुसलमान? कोई नहीं बता सकता जबतक नाम न पूछा जाय. हिन्दू और मुसलमान में भारत की जनता का वर्गीकरण कृत्रिम है. सच्चाई यह है कि दोनों एक हैं. कट्टरवादी दोनों समुदायों में विभिन्नता की दलील देकर अबतक दोनों समुदायों को अलग रखने के अपने प्रयासों में कमोबेस सफल रहे हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि हम दोनों समुदायों में व्याप्त समानता की चर्चा करें. फूट डालो और राज करो, यह विदेशियों की कूट्नीति थी, जिसने हमें लंबी अवधि की दासता के अलावे कुछ नहीं दिया. क्या हम एक दूसरे की भावनाओं और पूजा-पद्धति का सम्मान नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं.

हिन्दुओं के पुरखों ने नारा दिया था - वसुधैव कुतुंबकम. सर्वे भवन्तु सुखिना. महाकवि इकबाल ने तराना गाया था - मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना. हम आदिम या मध्यकालीन युग में नहीं हैं. इक्कीसवीं सदी की आवश्यकता है - शांतिपूर्ण सह अस्तित्व. इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ का फ़ैसला इस दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है.