Sunday, October 19, 2014

महाभारत-५


श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का उत्तर सुनने के बाद संजय के पास कहने को कुछ भी शेष नहीं रहा। वह जाने के लिए प्रस्तुत होता है। अर्जुन उसे विदा करने जाते हैं। सदा कर्म में विश्वास करनेवाले अर्जुन सदैव अल्पभाषी रहे हैं। बहुत आवश्यकता पड़ने पर ही वे कुछ बोलते थे। संजय के माध्यम से प्रेषित संदेश से अर्जुन विचलित तो तनिक भी नहीं हुए लेकिन क्रोध अवश्य आया। वार्त्तालाप चूंकि बड़ों के बीच हो रहा था, उन्होंने मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा। लेकिन संजय को विदा करते समय एकान्त का लाभ लेकर उन्होंने दुर्योधन को चेतावनी दे ही डाली -
संजय! यदि दुर्योधन हमारा इन्द्रप्रस्थ हमें वापस लौटाने के लिए तैयार नहीं है, तो यह स्पष्ट है कि राजसभा में पांचाली का अपमान करने के अतिरिक्त कोई ऐसा और भी पापकर्म शेष है जिसका फल उसे भोगना बाकी है। वह शान्ति-प्रस्ताव को ठुकराकर हमारा मनोरथ ही सिद्ध करना चाहता है। उसने ऐसे-ऐसे अपराध किए हैं जो क्षमा के योग्य नहीं हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण को मृत्युदण्ड देने के लिए भीम की गदा फड़कती है और मेरा गाण्डीव भी कड़कता है। पांचाली के आंसू प्रतिशोध मांगते हैं। तेरह वर्षों से उसके खुले केश दुःशासन के रक्त के प्यासे हैं। मैंने अबतक के जीवन काल में किसी भी युद्ध में अपने समस्त अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन आसन्न महासमर में, मैं उनका प्रयोग करूंगा। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में अग्नि प्रज्ज्वलित होकर गहन वन को जला डालती है, उसी प्रकार पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र, इन्द्रास्त्र आदि अलौकिक दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर, मैं समस्त कौरवों को उनके शुभचिन्तकों के साथ भस्म कर दूंगा। हे संजय! दुर्योधन को यह बता देना कि ऐसा किए बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।
हस्तिनापुर पहुंचकर संजय ने धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर और अर्जुन का संदेश ज्यों का त्यों सुना दिया। धृतराष्ट्र की अन्धी आंखों में अब नींद कहां? बेचैनी बढ़ जाती है। उत्ताप की परिसीमा में वे विदुर को बुलाते हैं। अर्द्धरात्रि में अपने कक्ष में बेचैनी से टहलते हुए सम्राट को देख विदुर पूछते हैं -
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः ।
कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृटोसि नराधिप कच्चिन्न परवित्तेषु गृधन्विपरितप्यसे ॥
बलवान मनुष्य से झगड़ा हुआ हो ऐसे साधनविहीन दुर्बल मनुष्य को , कामी को, चोर को या पराये धन का लोभ रखनेवाले को नींद नहीं आती। हे नराधिप, आपको इन महादोषों में से किसी ने स्पर्श तो नहीं किया है?
विदुर ने ठीक मर्मस्थान पर अंगुली रख दी है। पराये धन के लोभ ने ही धृतराष्ट्र की आंखों की नींद उड़ा दी है। धृतराष्ट्र और उस जैसे पात्रों की यही विचित्रता है। ऐसे पात्र आज भी हर गांव, हर नगर, हर महानगर और हर देश में बहुतायत में पाये जाते हैं। उन्हें यह मालूम है कि धर्म क्या है, नीति क्या है, सत्य क्या है, नैतिक क्या है, उचित क्या है, पर छोटे या बड़े स्वार्थ के वशीभूत उसे आचरण में नहीं लाने के लिये वे संकल्पवद्ध हैं। धृतराष्ट्र का दर्द यही है कि पाण्डवों को उनका हक नहीं देना है और युद्ध भी टालना है। ऐसा कैसे हो सकता है? विदुर ज्ञान दे सकते हैं लेकिन विवेक का प्रयोग तो धृतराष्ट्र को ही करना है।
अगले अंक में - विदुर द्वारा ज्ञान-दान

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