Saturday, February 25, 2012

उपन्यास ‘क्या खोया क्या पाया’

‘क्या खोया क्या पाया’ - एक समीक्षा
प्रवक्ता ब्यूरो
सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विषयों पर हिन्दी साहित्य में बड़ी संख्या में कई उपन्यास लिखे गए किन्तु विपिन किशोर सिन्हा का अद्यतन उपन्यास ‘क्या खोया क्या पाया’ कई मायनों में उन कथाओं से हटकर है क्योंकि इसमें न केवल कथासार है, सामाजिक विद्रूपताओं का जिक्र है, वैज्ञानिक ताना-बाना और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण है अपितु एक सहज व्यंग्य की औपन्यासिक शैली में एक सार्थक सोच और वैचारिक मंथन निहित है जिसके सैद्धान्तिक सूत्र हमारे आपके जीवन के अति निकट तो है ही, राष्ट्रीय चिन्तन और राष्ट्र निर्माण की भूमिका में भी क्रान्तिकारी भूमिका निभाने में सक्षम है। यह उपन्यास उस संक्रमण संस्कृति की भोगी गई पीड़ा का इतिवृत्त है जिसने हमारी आस्थापूर्ण पुरानी परंपराओं, जीवन शैली, भाईचारे, गावों के प्रशान्त वातावरण, निर्द्वन्द्व सामाजिक परिवेश, सौहार्द्र एवं निश्छल व्यवहार का बदलाव करके जीवन के हर पक्ष में विकास के नाम पर आज के समाज को विसंगत परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है और वह अपरिहार्य कारणों से रचनाकार को ग्राह्य नहीं है। उपन्यास के पात्रगण - बंगाली मिसिर, कान्ता आदि आज के लिए ज्वलन्त प्रश्न के रूप में उपस्थित किए गए हैं।
प्रो. बंगाली मिश्र, कुलपति यानि बी.एच.यू. के बंगाली मिसिर न केवल एक विद्रूप व्यंग्य है, मंत्री जी द्वारा प्रदत्त उपकार का बल्कि महामना द्वारा खड़े किए गए पवित्र विश्वविद्यालय के वर्तमान घटिया राजनैतिक हस्तक्षेप का जिसने हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षक वर्ग में जातीयता और क्षेत्रीयता की बढ़ती प्रवृति की ओर संकेत किया है। एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कालेज से लेकर कार्यालय तक कहीं भी अपने अखिल भारतीय स्वरूप को बचाने में सफल नहीं हो सका। प्राद्यौगिक संस्थान और चिकित्सा विज्ञान संस्थान में भले ही थोड़ा बहुत उसका रूप परिलक्षित होता हो परन्तु अन्य संकायों में स्थानीय लोगों का ही बोलबाला है। लेखक का दावा है कि महज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ही नहीं, सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालय इस दुर्व्यवस्था के शिकार हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय पंजाबियों के, शान्ति निकेतन बंगालियों के, अलीगढ़ मुसलमानों के और हैदराबाद तेलगु आबादी के कब्जे में है। रही सही कसर विद्यार्थियों के प्रवेश और शिक्षकों के चयन में आरक्षण की नीति ने पूरी कर दी है। शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है। यह एक कटु सत्य है कि विश्व के सर्वश्रेष्ठ सौ विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय का नाम दर्ज नहीं है।
इस उपन्यास के ९वें अध्याय के पृष्ठ ११७-११८ पर उद्धृत ऐसा कटु व्यंग्य-सत्य है जो किसी ‘राग दरबारी’ (श्रीलाल शुक्ल) की शैली से कमतर नहीं है। हमारी सरकारी नीतियां प्रतिभा और गुणवत्ता को प्रभावी ढंग से निरन्तर हतोत्साहित किए जा रही हैं। आधुनिक जीवन शैली अपनाने से किस प्रकार परिवार खोखला, अभावग्रस्त, रिश्वत में लिप्त और भ्रष्टाचार से ओतप्रोत हो जाता है, अध्याय दस में इसका रोंगटे खड़ा कर देनेवाला सजीव चित्र उपस्थित किया गया है।
उपन्यास की रचना में घटनाओं की कल्पनाएं, भले ही वे वास्तविकता का आधार लिए हुए हों, कथोपकथन एवं विवरणों की भाषा एक विशिष्ट शैली के रूप में प्रस्तुत हुई है जिसमें गांव के मेले, खेत-खलिहान, लोकगीतों की मधुरिमा, विभिन्न संबन्धीगणों की भावनाएं और एक-दूसरे के प्रति खेलते हुए दांवपेंच, नगर की चकाचौंध, नारी पात्रों की भावनाओं का प्रकटीकरण प्रांजल रूप में प्रस्तुत हुआ है। पत्नी का निश्छल स्वभाव नायक के जीवन में सावन की रिमझिम की तरह बरसता है, वसंत के कोयल की तरह कूकता है और रातरानी की तरह मीठी खुशबू बिखेरता है - यह उपन्यासकार की अपनी शैली है।
यह उपन्यास गांव की पुरानी स्मृति के प्रस्तुतीकरण पर आधारित है। इस परिवर्तनशील संसार में सबकुछ बदलता है। यदि कभी कुछ नहीं बदलता, तो वह है हमारा निश्छल प्यार - ठीक उपन्यास के नायक और नायिका की भांति। यह उपन्यास पाठकों के मन को झकझोरेगा। संक्रमण संस्कृति के दंश को भोगने की शक्ति प्रदान करेगा और साथ ही सांस्कृतिक बदलाव कैसा हो, इसके लिए विचार-विमर्श की परिस्थिति उत्पन्न करेगा जिससे भविष्य में हमारी संसकृति से मेल खाती सामजिक परिस्थितियां और उन्नति तथा विकास के मापदण्ड स्थापित हो सकें। पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, किन्तु सर्वस्व खो दें और कुछ भी न पाएं, इसी का उहापोह है ‘क्या खोया क्या पाया’। उत्तम छ्पाई, सुन्दर कलेवर तथा सामग्री हेतु इस उपन्यास का साहित्य जगत में स्वागत होगा।
पुस्तक का विमोचन वाराणसी के महमूरगंज, तुलसीपुर स्थित निवेदिता शिक्षा सदन बालिका इण्टर कालेज के भाऊराव देवरस सभागार में लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. देवेन्द्र प्रताप सिंह के करकमलों द्वारा दिनांक २४ फरवरी, २०१२ को संपन्न हुआ।
पुस्तक - ‘क्या खोया क्या पाया’
लेखक - विपिन किशोर सिन्हा
प्रकाशक - संजय प्रकाशन

Friday, February 24, 2012

आपरेशन बटाला हाउस के शहीद इन्स्पेक्टर मोहनचन्द शर्मा

कलम आज उनकी जय बोल -
१९ सितंबर, २००८ को सवेरे दिल्ली पुलिस को यह खुफिया जानकारी मिली कि नई दिल्ली के जामिया नगर क्षेत्र की चार मंजिली इमारत बटाला हाउस में पांच खूंखार आतंकवादी भविष्य के वारदात की योजना बना रहे हैं। दिल्ली पुलिस के इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा ने अविलंब कार्यवाही का निर्णय लिया। अपने सात साथियों की जांबाज टीम के साथ वे बटाला हाउस के आतंकवादियों के ठिकाने पर पहुंच गए। दिन के साढ़े दस बजे उन्होंने आतंकवादियों को पकड़ने की कार्यवाही आरंभ की। लेकिन दूसरी ओर से जबर्दस्त फायरिंग शुरु हो गई। गोलीबारी की आड़ में आतंकवादियों ने भागने की कोशिश की। पुलिस की जवाबी कार्यवाही में अतीफ अमीन और मोहम्मद साज़िद, दो आतंकवादी मारे गए; मोहम्मद सैफ और जिशान, दो घायल अवस्था में पकड़े गए और एक आरिज़ खां भागने में कामयाब रहा। इनमें से अतीफ अहमद छ: दिन पहले हुए (दिनांक - १३-९-०८) दिल्ली के सिरियल बम धमाकों का, जिसमें ३० लोग मारे गए थे और सौ से ज्यादा घायल हुए थे, का नामजद मुजरिम था। इसके अतिरिक्त वह अहमदाबाद, जयपुर, सूरत और फैज़ाबाद के जघन्य बम-विस्फोटों का भी मुज़रिम था। उसके खिलाफ कई न्यायालयों में हत्या, षड्‌यंत्र और बम विस्फोटों के आपराधिक मामले चल रहे हैं। इस आपरेशन में बेशक दो आतंकवादी मारे गए लेकिन पुलिस और देश को इसकी महंगी कीमत चुकानी पड़ी। दिल्ली पुलिस के वीर इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा इस कार्यवाही में शहीद हो गए। ये वही मोहनचन्द शर्मा थे जिन्होंने अपनी अल्प काल की सेवा में सात वीरता पुरस्कार अपनी जांबाजी और कर्त्तव्यनिष्ठा के बल पर हासिल किए थे। मरणोपरान्त उन्हें २६ जनवरी, २००९ को गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर भारत के राष्ट्रपति ने शान्तिकाल के सर्वोच्च सैनिक सम्मान ‘अशोक चक्र’ से अलंकृत किया। लेकिन उस अमर शहीद, वीर शिरोमणि मोहनचन्द शर्मा की राष्ट्रयज्ञ में दी गई आहुति को दिग्विजय सिंह, राहुल गांधी, अमर सिंह, मुलायम सिंह यादव और कई धर्मनिरपेक्षवादियों ने फर्जी साबित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। कई एन.जी.ओ. ने दिल्ली हाई कोर्ट में इसे फर्जी मुठभेड़ बताते हुए जांच के लिए याचिका दायर की। दिनांक २१ मई, २००९ को दिल्ली हाई कोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को घटना की जांच करने का आदेश दिया। मानवाधिकार आयोग ने अपनी ३० पेज की रिपोर्ट दिनांक २५-७-०९ को हाई कोर्ट में जमा कर दी। रिपोर्ट में किसी तरह के मानवाधिकार के उल्लंघन की बात स्वीकार नहीं की गई। आयोग ने दिल्ली पुलिस को भी ‘क्लीन चिट’ दी थी।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान विधान सभा चुनाव में दिग्विजय, राहुल और मुलायम की तिकड़ी ने आपरेशन बटाला हाउस को फर्जी एनकाउंटर घोषित किया। कांग्रेसी नेताओं ने विवाद में सोनिया गांधी को घसीटते हुए बयान दिए कि बटाला हाउस के मृत आतंकवादियों की लाशों को देखकर श्रीमती गांधी की आंखों से आंसू टपकने लगे थे। मुस्लिम वोटों की चाह में ये नेता और पार्टियां किस कदर नीचे गिर सकती हैं, इसका प्रमाण है, इस कार्यवाही को विवादास्पद बनाने की साज़िश। यह न सिर्फ अमर शहीद इन्सपेक्टर मोहनचन्द शर्मा की राष्ट्र की बलिवेदी पर दी गई पुण्य आहुति का अपमान है, बल्कि भारत के राष्ट्रपति, अशोक चक्र और न्यायपालिका का भी अपमान है।
अमर शहीद, वीरशिरोमणि मोहनचन्द शर्मा! इस देश को तुम्हारी अत्यन्त आवश्यकता थी। अभी तुम्हारी उम्र ही कितनी थी! तुम्हारी विधवा पत्नी और तुम्हारे बच्चों की आंखों से अनवरत गिरते आंसुओं पर किसी नेता का ध्यान नहीं जाता। उन्हें वोट की लालच में आतंकवादियों के शवों पर आंसू बहाने से फुर्सत ही कहां मिल पा रही है? अफवाह फैलाई गई कि विभागीय प्रतिद्वंद्विता के कारण योजनाबद्ध ढ़ंग से तुम्हें तुम्हारे साथियों ने ही गोली मार दी थी। ‘अशोक चक्र’ पाने वाले महावीर! तुम्हारी हुतात्मा यह प्रश्न अवश्य करती होगी - क्यों न्योछावर कर दिए अपने प्राण, ऐसे कृतघ्न देशवासियों के लिए।
लेकिन नहीं वीर इन्सपेक्टर! तुमपर करोड़ों हिन्दुस्तानियों को गर्व है। भारत सरकार तुम्हें अशोक चक्र तो दे सकती है, लेकि मुस्लिम बहुल जामिया नगर में, जहां तुम शहीद हुए थे, तुम्हारा कोई स्मारक नहीं बना सकती, किसी रोड का नामकरण तुम्हारे नाम पर नहीं कर सकती। वोट कटने के डर से तुम्हारी पुण्यतिथि पर कोई समारोह भी नहीं कर सकती। परन्तु हमने अपने हृदयों में तुम्हारा स्मारक बनाया है। तुम्हारी मां जब भी तुम्हें याद करेंगी, उनकी आंखें नम होंगी, परन्तु उन नम आंखों में जो सबसे चमकता सितारा दूसरों को दिखेगा, वह तुम होगे। तुम्हारे पिता तुम्हें स्मरण कर भले ही चुपचाप आकाश को देखने लगें, लेकिन अपनी छाती को गर्व से उन्नत होने से नहीं रोक सकते। तुम्हारी पत्नी अभी भले ही अपनी आंखों से झरते अनगिनत मोतियों को रोक पाने में सफल न हों, किन्तु वही अपने पोते-पोतियों को तुम्हारी शौर्य-गाथा सुनाते समय अपनी आंखों में दिव्य ज्योति की चमक को नहीं रोक पाएंगी।
इन्सपेक्टर। तुमने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया देश और समाज के लिए - उस संकट की घड़ी में, जो तुम्हारी सबसे कठिन परीक्षा की थी। तुमने अपने आदर्श, देशभक्ति और कर्त्तव्यनिष्ठा पर तनिक भी आंच नहीं आने दी। तुमने अपनी सामान्य ड्‌युटी से कई गुणा अधिक ड्‌युटी की है। हम हिन्दुस्तानी तुम्हें सदैव याद करेंगे - गर्व और सम्मान के साथ।

Saturday, February 18, 2012

सिन्दूर


आम धारणा है कि इस्लाम मर्दों की स्वधर्मनिष्ठा और हिन्दुत्व महिलाओं की स्वधर्मपरायणता के कारण टिका हुआ है। इस्लाम में समस्त धार्मिक कार्य प्रायः मर्द ही करते हैं। महिलाओं को पुरुषों के साथ मस्ज़िद में जुम्मे की नमाज़ पढ़ने की भी इज़ाज़त नहीं है। इसके उलट हिन्दुओं का कोई भी धार्मिक अनुष्ठान बिना पत्नी के संपन्न नहीं होता। परंपरा से हिन्दू महिलाएं पुरुषों की तुलना में अधिक धार्मिक होती हैं। हिन्दुओं के समस्त पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज आज भी महिलाओं के ही कारण जीवित हैं। हिन्दू पुरुष धार्मिक मामलों में लापरवाह होते हैं। अगर महिलाएं याद न दिलाएं तो वे होली-दिवाली भी भूल जाएं। दिवाली की पूजा में महिलाएं ही पुरुषों को जबरन बैठाती हैं। पुरुष तो घर से भागकर जुआ खेलने की फिराक में रहता है। किस पुरुष को महाशिवरात्रि, करवा चौथ, गणेश चौथ या हरतालिका की तिथि याद रहती है? दूसरे के घर से आई लड़की ससुराल के रीति-रिवाज आते ही सीख लेती है और उसके अनुसार जीवन भर आचरण भी करती है लेकिन पुरुष को कुछ भी याद नहीं रहता। बच्चे के जन्म से लेकर शादी-ब्याह तक, सत्यनारायण-कथा से लेकर रुद्राभिषेक तक, छठ पूजा से लेकर नवरात्र की शक्ति-पूजा तक की सारी विधियां. तौर-तरीके महिलाओं को पता रहती हैं, कण्ठस्थ रहती हैं। पुरुष यंत्रवत काम करता है। धार्मिक अनुष्ठानों और तीज-त्योहारों का विभाग हिन्दू परिवारों में पूर्ण रूप से महिलाओं के हवाले है। महिलाएं हिन्दू धर्म का सबसे मजबूत स्तंभ हैं; वस्तुतः रीढ़ की हड्डी हैं। आधुनिकता की आंधी और पश्चिमी संस्कृति ने टीवी, सिनेमा एवं माडेलिंग के माध्यम से हमारे इस सबसे मजबूत स्तंभ पर प्रबल आघात किया है।
प्रथम प्रहार महिलाओं के परिधान पर किया गया। साड़ी अब नानी और दादी का पहनावा बनकर रह गई है। माताओं ने जब दुपट्टा गले में लपेटना शुरु कर दिया, तो बेटियों ने इसे हमेशा के लिए फेंक दिया। लड़के तो ढ़ीला-ढ़ाला जिन्स पहनते हैं, लेकिन लड़कियां? कस्बे से लेकर महानगर तक आप स्वयं देख सकते हैं। क्या लड़कियों की शारीरिक संरचना इतने तंग टाप और चमड़े से चिपके जिन्स पहनने की इज़ाज़त देती है? जो महिला जितनी ही आधुनिक है, कपड़ों से उसे उतना ही परहेज़ है।
दूसरा और सबसे प्रबल प्रहार पश्चिमी आधुनिकता ने हिन्दू महिलाओं के प्रतीक-चिह्न पर किया है। जब भी कोई विवाहिता श्रेष्ठ जनों को प्रणाम करती है, तो प्रथम आशीर्वाद पाती है - सौभाग्यवती भव। सौभाग्य का प्रतीक सिन्दूर हर हिन्दू महिला अपनी मांग में धारण करती थी। इस सिन्दूर के कारण महिलाएं समाज में सम्मान पाती हैं। राह चलते मनचलों की दृष्टि भी जब सिन्दूर पर पड़ जाती है, तो तो वे भी सिर झुकाकर अलग खड़े हो जाते हैं। कहावत है, कुंआरी कन्या के हजार वर। लेकिन वही कुंआरी कन्या जब सिन्दूर से अलंकृत हो जाती है तो मांग में सिन्दूर भरने वाले की जनम-जनम की संगिनी बन जाती है। हिन्दू धर्म में पति-पत्नी का रिश्ता अत्यन्त पवित्र माना जाता है। विवाह के बाद हमारे समाज में किसी तरह का निकाहनामा, एग्रीमेन्ट या मैरेज सर्टिफिकेट जारी नहीं किया जाता। औरत की मांग का सिन्दूर ही सर्वोच्च मान्यताप्राप्त पवित्र मैरेज सर्टिफिकेट होता है। एकबार हनुमान जी ने जिज्ञासावश मां जानकी से पूछा था कि वे मांग में लाल लकीर क्यों लगाती हैं। मां सीता ने उत्तर दिया कि यह लाल लकीर सिन्दूर की रेखा है जो प्रभु श्रीराम को अत्यन्त प्रिय है और इस सिन्दूर के कारण ही वे प्रभु श्रीराम की प्रिया हैं। फिर क्या था? हनुमान जी ने अपने पूरे शरीर में सिन्दूर लगा लिया। महाकवि तुलसीदास जी ने हनुमत्‌वन्दना करते हुए लिखा भी है - लाल देह लाली लसै, अरु धरि लाल लंगूर; वज्र देह दानव दलन जय-जय-जय कपिसुर। सिन्दूर की पवित्रता और अखंडता के लिए हिन्दू वीरांगनाओं की त्याग, तपस्या और आहुतियों की गाथा से भारत का गौरवपूर्ण इतिहास और वांगमय भरा पड़ा है। सैकड़ों वर्षों की गुलामी और विपरीत परिस्थितियों में भी हिन्दू नारी ने अपने सौभाग्य के इस प्रतीक चिह्न को कभी अपने से अलग नहीं किया। लेकिन इक्कीसवीं सदी के आते ही मांग के सिन्दूर ने ललाट पर कब एक छोटे तिकोने टीके का रूप ले लिया, कुछ पता ही नहीं चला। हिन्दू नारी विवाहिता होने पर गर्व की अनुभूति करती थी, आज वह इसे छुपाने में गर्व महसूस करती है। अशुभ के हृदय में बैठे डर के कारण वह सिन्दूर का एक छोटा टीका ललाट के दाएं, बाएं या मध्य में लगा तो लेती है लेकिन बालों को थोड़ा आगे गिराकर उसे छिपाने की चेष्टा भी करती है। मांग तो सूनी ही दिखाई देती है। आश्चर्य तो तब होता है जब मातायें भी आधुनिकता की दौड़ में अपनी बेटियों से आगे निकलने की होड़ में शामिल हो जाती हैं। हिन्दू धर्म की रीढ़ में क्षय-रोग बसेरा बनाता जा रहा है।

Saturday, February 11, 2012

१० माह का आत्मन


गर्दन में डाल नन्हीं बांहें, जब गोद मेरी चढ़ जाता है,
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

होत सवेरा जगने पर, तू मुझे ढूंढ़ता आता है,
निश्छल आंखें बाहें पसार, तू मुझे निमंत्रण देता है,
जब पास मैं तेरे आता हूं, तू धीरे से मुस्काता है,
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

माता के हाथ कटोरी है, ममता से भरे निवेदन पर,
पापा की घेरेबन्दी में, चन्दा-तारों के गाने पर,
लंबी अवधि मनुहार करा, तू धीरे-धीरे खाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

नन्हीं सी तेरी हथेली है, अति कोमल हैं तेरे घुटने,
बन मकोइया तेजी से, चलता है, बुनता है सपनें,
अधरों से अस्फुट बोल फुटे, हंसता है सिर झटकाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

खेल, शरारत, तोड़फोड़, सोकर जगने पर यही काम,
खिलौने तुझको कम प्यारे, सब व्यस्त रहें बस एक ध्यान,
स्नानगृह के पास आकर, दस्तक दे मुझे बुलाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

संध्या को घूम-टहलकर मैं, जब वापस घर को आता हूं,
घंटी की ध्वनि सुनते ही, दरवाजे पर तू आता है,
चंचल आंखें, मुखमुद्रा से,अपनी बातें समझाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

कभी घुटने पर कभी पेट के बल, बस तू चलता ही रहता है,
जब मैं कहता हूं - पकड़-पकड़, तू और तेज हो जाता है,
फिर पीछे मुड़कर देख मुझे, हंसता है, खिल-खिल जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

मेरा चश्मा, तेरा दुश्मन, तू उसे फेंकना चाहे नित,
पर जब पहना देता तुझको, सुन्दरता बढ़ जाती अगणित,
शीशे से नेत्र तेरे झांकें, सम्मोहित तू कर जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

खेल-खेल कर दिन पर्यन्त, जब तू थोड़ा थक जाता है,
होठों को करके गोल-गोल, जब तू जमुहाई लेता है,
सचराचर सृष्टि मुझे दिखती, जीवन सार्थक बन जाता है;
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।

मेरी बेसुरी लोरी पर, कंधे पर मेरे सिर रखकर,
मेरी थपकी के साथ-साथ, मेरी धड़कन की आहट पर,
गुन-गुन, धीमे-धीमे, तू सुर में सुर मिलाता है
नवजीवन पा जाता हूं, जब तू बाबा तुतलाता है।