Monday, October 27, 2014

इन गद्दार सेकुलरिस्टों की आंखें कब खुलेंगी?

पश्चिम बंगाल के बर्दवान में हुए बम धमाकों की जांच के सिलसिले में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल जब बर्दवान जिले के खागड़ागढ़ पहुंचे, तो कुछ चौंकानेवाले तथ्य पूरे देश के सामने आये। उन्होंने वरिष्ठ अधिकारियों के साथ विस्फोट स्थल का मुआयना किया और कुख्यात आतंकी संगठन ज़मात-उल-मुज़ाहिदीन के बहुमंजिला मुख्यालय का भी निरीक्षण किया। बहुमंजिली ईमारत में बम बनाने का विशाल कारखाना था, बड़ी मात्रा में अलगाववादी और ज़ेहादी साहित्य था, बड़ी मात्रा में अवैध अत्याधुनिक आग्नेयास्त्र थे, भारत के विभिन्न महत्त्वपूर्ण नगर एवं प्रतिष्ठानों के नक्शे थे, पचासों कंप्यूटर थे, हज़ारों सीडी, पेन ड्राइव थे जिसमें भारत विरोधी और इस्लामी ज़ेहाद की प्रचार-सामग्री भरी थी। यही नहीं उस बहुमंजिली ईमारत से १.५ किमी की एक पक्की सुरंग भी मिली जिसका धड़ल्ले से आतंकवादी उपयोग करते थे। सुरक्षा बलों ने इसके अतिरिक्त विभिन्न स्थानों पर कार्यशील ६५ बम बनानेवाले कारखानों का भी प्रमाण के साथ पता लगाया।
आतंकवादियों ने इतना बड़ा नेटवर्क कोई एक दिन में नहीं खड़ा किया होगा। ऐसा भी नहीं हो सकता कि ज़मात-उल-मुज़ाहिदीन की गतिविधियों,  उसके बम के कारखानों और उसके बहुमंजिले मुख्यालय की सूचना पश्चिम बंगाल सरकार और पुलिस को न रही हो। बर्दवान न तो कश्मीर की तरह दुर्गम पहाड़ियों-घाटियों वाला क्षेत्र है और ना ही झारखण्ड जैसा दुर्गम वन-क्षेत्र। एक मैदानी इलाके में ऐसी दुर्दान्त आतंकवादी गतिविधियां चलती रहीं और राज्य सरकार कान में तेल डाल, आंखें बन्द कर सोती रही - सिर्फ तुष्टीकरण और वोट के लिये। इतने बड़े खुलासे के बाद भी ममता बनर्जी, वामपन्थी पार्टियां, सोनिया-राहुल, मेधा पाटेकर, अरविन्द केजरीवाल, लालू, मुलायम, नीतिश, नवीन, दिग्विजय आदि बड़बोले नेता बिल्कुल खामोश रहे। किसी ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। 
क्या ये सेकुलरिस्ट भारत के सीरिया या इराक बनने का इन्तज़ार कर रहे हैं? इस देश में आतंकवाद या नक्सलवाद फल-फूल ही नहीं सकता है अगर उसे इन राष्ट्रद्रोहियों का समर्थन प्राप्त न हो। क्या उनकी आंखें तब खुलेंगी जब हिन्दुस्तान पैन इस्लाम की छतरी तले आ जायेगा? लेकिन तब पछताने के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा। 

Tuesday, October 21, 2014

महाभारत - ७


धृतराष्ट्र फिर भी अपना ध्येय नहीं बदलता। वह प्रतिप्रश्न करता है - मेरी राजसभा भीष्म, द्रोण, कृप आदि वीर पुरुषों और ज्ञानियों से अलंकृत है। वे सभी महासमर में मेरा ही साथ देंगें। फिर मैं अपनी विजय के प्रति आश्वस्त क्यों नहीं होऊं। विदुरजी धृतराष्ट्र की राजसभा की पोल खोलते हुए कहते हैं -
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मं ।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम ॥
(उद्योग पर्व ३५;४९)
जहां वृद्ध न हों, वह सभा नहीं है, जो धर्म का उद्घोष न करें वे वृद्ध नहीं हैं, जिसमें सत्य नहीं है, वह धर्म नहीं है और जिसमें छल हो, वह सत्य नहीं है।
धृतराष्ट्र की सभा में वृद्ध हैं, पर वे धर्म का उद्घोष करने में डरते हैं, नहीं तो द्रौपदी चीर-हरण के समय वे चुप क्यों रहते? आदमी उम्र से वृद्ध हो जाय, तो भी वह वृद्ध नहीं होता। वह धर्म का उद्घोष करे तभी वृद्ध की श्रेणी में आ सकता है। वृद्ध का अर्थ होता है - ज्ञान प्राप्त, अभ्युदय प्राप्त। धर्म किसी भी परिस्थिति में सत्य से वंचित हो ही नहीं सकता और जहां शकुनि का छल चलता हो, वहां सत्य कैसे टिक सकता है? वे आगे कहते हैं - जैसे शुष्क सरोवर का चक्कर काटकर हंस उड़ जाते हैं, उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार ऐश्वर्य जिनका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी हैं और इन्द्रियों के गुलाम हैं, उनका त्याग करता है।
धृतराष्ट्र सब सुनकर भी प्रश्न करता है - क्या मैं पाण्डवों के हित के लिए अपने पुत्रों का त्याग कर दूं? पाण्डु-पुत्रों को इन्द्रप्रस्थ वापस देने का सीधा परिणाम होगा - या तो दुर्योधन मुझे त्याग देगा या मुझे दुर्योधन को त्यागना पड़ेगा। दोनों में से एक भी विकल्प मुझे स्वीकार नहीं है। मैं दुर्योधन के बिना जी नहीं पाऊंगा। वह पुनः पाण्डवों को उनका अधिकार देने से इन्कार करता है। धृतराष्ट्र के मंत्रियों में एकमात्र विदुरजी ही ऐसे मंत्री थे जो हमेशा धर्म, सत्य और न्याय के पक्षधर रहे। कई अवसरों पर दुर्योधन और उसकी खल-मंडली ने सार्वजनिक रूप से उन्हें अपमानित किया लेकिन वे न तो तनिक डरे और न ही अपने पथ से विचलित हुए। अपने मधुर स्वर में उन्होंने हमेशा सत्य का ही गान किया। अपने कथन का समापन भी वे नीति-वचन से करते हैं -
महाराज! कुल की रक्षा के लिए पुरुष का, ग्राम की रक्षा के लिए कुल का, देश की रक्षा के लिये गांव का और आत्मा के कल्याण के लिए सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिए।
         ॥इति॥

Monday, October 20, 2014

महाभारत - ६


      यदि ज्ञान से धृतराष्ट्र का हृदय परिवर्तन संभव होता, तो विदुर के वचनों से कभी का हो गया होता। विदुरजी को यह तथ्य ज्ञात है फिर भी वे बार-बार सत्परामर्श देने से चुकते नहीं हैं। उस रात्रि में धृतराष्ट्र की उद्विग्नता कम होने का नाम ही नहीं लेती। उसे ज्ञान नहीं, सान्त्वना की आवश्यकता थी और सान्त्वना भी ऐसी जिसमें उसके और दुर्योधन के विगत कर्मों और आगे की योजना के लिए समर्थन हो। लेकिन उस रात उसने पात्र का गलत चयन कर लिया। विदुरजी के स्थान पर उसने कर्ण या शकुनि को सान्त्वना के लिये बुलाया होता, तो संभवतः उसे शान्ति प्राप्त हो जाती। लेकिन विदुर तो जैसे उसके जले पर नमक छिड़कने के लिए कृतसंकल्प थे। वे कहते हैं -
     एको धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
     विद्येका परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥
         (उद्योग पर्व ३३;४८)
      केवल धर्म ही श्रेयस्कर है, शान्ति का सर्वोत्तम उपाय क्षमा, विद्या ही परमदृष्टि है और अहिंसा ही परम सुख है।
      अपने उपरोक्त कथन में विदुरजी क्या नहीं कह जाते हैं। धर्म का पारंपरिक अर्थ है; समाज को धारण करनेवाला तत्त्व - धारयति इति धर्मः, ऐसा धर्म ही कल्याणकारी होता है। शान्ति सिद्ध करनी हो, तो क्षमा ही श्रेष्ठ उपाय है। क्षमाशील लोगों पर एक ही आरोप लगता है, वह है असमर्थता का। क्षमाशील मानव को प्रायः लोग निर्बल मान लेते हैं। परन्तु इस तथाकथित दोष को भी सहकर क्षमाशील बने रहें, तभी शान्ति संपन्न होती है। लोग इस संसार को चर्मचक्षु के माध्यम से देखते हैं, पर परम दृष्टि विद्या की होती है और अहिंसा में ही परम सुख निहित है। धृतराष्ट्र यदि विदुर के अनेक वचनों में से केवल उपरोक्त वचन पर अमल का प्रयास करे तो, शान्ति दूर नहीं है। पर उसपर विदुरजी के वचन निष्प्रभावी रहे। विदुरजी भी अपना धैर्य कहां खोनेवाले थे। वे कहते हैं - 
     य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये ।
     सुखे सौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥
         (उद्योग पर्व ३४;४०)
      जो दूसरे के धन की, रूप की, पराक्रम की, कुलीनता की, सुख की, सौभाग्य की या सत्कार की ईर्ष्या करते हैं, उनकी यह व्याधि असाध्य है। उनके रोग का कोई इलाज नहीं। दुर्योधन को पाण्डवों के धन, पराक्रम, सुख, सौभाग्य, उनको प्राप्त होते आदर-सम्मान -- इन सबसे ईर्ष्या है जो असाध्य रोग बन चुका है।

 अगले अंक में - विदुरजी की अन्तिम सलाह

Sunday, October 19, 2014

महाभारत-५


श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर का उत्तर सुनने के बाद संजय के पास कहने को कुछ भी शेष नहीं रहा। वह जाने के लिए प्रस्तुत होता है। अर्जुन उसे विदा करने जाते हैं। सदा कर्म में विश्वास करनेवाले अर्जुन सदैव अल्पभाषी रहे हैं। बहुत आवश्यकता पड़ने पर ही वे कुछ बोलते थे। संजय के माध्यम से प्रेषित संदेश से अर्जुन विचलित तो तनिक भी नहीं हुए लेकिन क्रोध अवश्य आया। वार्त्तालाप चूंकि बड़ों के बीच हो रहा था, उन्होंने मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा। लेकिन संजय को विदा करते समय एकान्त का लाभ लेकर उन्होंने दुर्योधन को चेतावनी दे ही डाली -
संजय! यदि दुर्योधन हमारा इन्द्रप्रस्थ हमें वापस लौटाने के लिए तैयार नहीं है, तो यह स्पष्ट है कि राजसभा में पांचाली का अपमान करने के अतिरिक्त कोई ऐसा और भी पापकर्म शेष है जिसका फल उसे भोगना बाकी है। वह शान्ति-प्रस्ताव को ठुकराकर हमारा मनोरथ ही सिद्ध करना चाहता है। उसने ऐसे-ऐसे अपराध किए हैं जो क्षमा के योग्य नहीं हैं। दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण को मृत्युदण्ड देने के लिए भीम की गदा फड़कती है और मेरा गाण्डीव भी कड़कता है। पांचाली के आंसू प्रतिशोध मांगते हैं। तेरह वर्षों से उसके खुले केश दुःशासन के रक्त के प्यासे हैं। मैंने अबतक के जीवन काल में किसी भी युद्ध में अपने समस्त अस्त्रों का प्रयोग नहीं किया है, लेकिन आसन्न महासमर में, मैं उनका प्रयोग करूंगा। जिस प्रकार ग्रीष्म ऋतु में अग्नि प्रज्ज्वलित होकर गहन वन को जला डालती है, उसी प्रकार पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र, इन्द्रास्त्र आदि अलौकिक दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर, मैं समस्त कौरवों को उनके शुभचिन्तकों के साथ भस्म कर दूंगा। हे संजय! दुर्योधन को यह बता देना कि ऐसा किए बिना मुझे शान्ति नहीं मिलेगी।
हस्तिनापुर पहुंचकर संजय ने धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर और अर्जुन का संदेश ज्यों का त्यों सुना दिया। धृतराष्ट्र की अन्धी आंखों में अब नींद कहां? बेचैनी बढ़ जाती है। उत्ताप की परिसीमा में वे विदुर को बुलाते हैं। अर्द्धरात्रि में अपने कक्ष में बेचैनी से टहलते हुए सम्राट को देख विदुर पूछते हैं -
अभियुक्तं बलवता दुर्बलं हीनसाधनम हृतस्वं कामिनं चोरमाविशन्ति प्रजागराः ।
कच्चिदेतैर्महादोषैर्न स्पृटोसि नराधिप कच्चिन्न परवित्तेषु गृधन्विपरितप्यसे ॥
बलवान मनुष्य से झगड़ा हुआ हो ऐसे साधनविहीन दुर्बल मनुष्य को , कामी को, चोर को या पराये धन का लोभ रखनेवाले को नींद नहीं आती। हे नराधिप, आपको इन महादोषों में से किसी ने स्पर्श तो नहीं किया है?
विदुर ने ठीक मर्मस्थान पर अंगुली रख दी है। पराये धन के लोभ ने ही धृतराष्ट्र की आंखों की नींद उड़ा दी है। धृतराष्ट्र और उस जैसे पात्रों की यही विचित्रता है। ऐसे पात्र आज भी हर गांव, हर नगर, हर महानगर और हर देश में बहुतायत में पाये जाते हैं। उन्हें यह मालूम है कि धर्म क्या है, नीति क्या है, सत्य क्या है, नैतिक क्या है, उचित क्या है, पर छोटे या बड़े स्वार्थ के वशीभूत उसे आचरण में नहीं लाने के लिये वे संकल्पवद्ध हैं। धृतराष्ट्र का दर्द यही है कि पाण्डवों को उनका हक नहीं देना है और युद्ध भी टालना है। ऐसा कैसे हो सकता है? विदुर ज्ञान दे सकते हैं लेकिन विवेक का प्रयोग तो धृतराष्ट्र को ही करना है।
अगले अंक में - विदुर द्वारा ज्ञान-दान

Saturday, October 18, 2014

महाभारत-४

        श्रीकृष्ण आरंभ में युद्ध ही एकमात्र समाधान है, ऐसा नहीं मानते। सर्वशक्तिमान होने के बावजूद वे कभी अनायास शक्ति-प्रयोग की बात भी नहीं करते परन्तु उपमा-उपमेय के द्वारा शिष्ट भाषा में सबकुछ कह भी जाते हैं। संजय के माध्यम से वे धृतराष्ट्र को संदेश देते हैं -
वनं राजा धृतराष्ट्रः सपुत्रो व्याघ्रा वने संजय पांडवेयाः ।
मा वनं छिन्दि स व्याघ्रं मा व्याघ्रान्नीनशो वनात ॥
पुत्रों सहित धृतराष्ट्र एक वन हैं और पांडव उस वन के सिंह हैं। अतः न तो इस सिंहयुक्त वन को काटो, न वन के सिंहों का नाश करो।
निर्वनो वध्यते व्याघ्रो निर्व्याघ्रं छिद्यते वनं ।
तस्मात व्याघ्रो वतं रक्षेत वनं व्याघ्रं च पालयेत ॥
यदि वनरहित सिंह होते हैं, तो उनका वध होता है और सिंहविहीन वन को लकड़हारे बिना किसी भय के काट डालते हैं। इससे बेहतर यही है कि सिंह वन की रक्षा करें और वन सिंहों का पालन करे।
श्रीकृष्ण शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की बात युद्ध के पहले तक अलग-अलग अवसरों पर बार-बार कहते हैं। वे धृतराष्ट्र के कुल का नाश नहीं चाहते थे। पाण्डवों का अधिकार दिलाने एवं धृतराष्ट्र के कुल का विनाश रोकने के लिये वे तरह-तरह की उपमायें देते हैं। वे कहते हैं -
पाण्डव शाल के वृक्ष के समान हैं और धृतराष्ट्र के पुत्र लता सदृश। कोई भी लता बड़े वृक्ष के आश्रय के बिना आगे नहीं बढ़ सकती। पाण्डव और कौरव प्रेमपूर्वक रहते हैं तो इस लोक का कोई भी शत्रु उन्हें बुरी नज़र से देखने का दुस्साहस कभी नहीं कर सकता। अन्त में वे एक कड़ा संदेश देने से भी नहीं चुकते -
धर्माचारी पाण्डव शान्ति के लिये तैयार हैं और युद्ध के लिये भी समर्थ हैं। वे अपना अधिकार लेकर ही रहेंगे, इसके लिये चाहे जो भी करना पड़े। हे संजय! तुझे धृतराष्ट्र से जो कहना है, वह कह देना। हमने दो विकल्प दिए हैं। चुनाव उन्हें ही करना है।
जाते-जाते युधिष्ठिर संजय को अन्तिम संदेश देते हैं - 
धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने पृथ्वी पर जिनकी समानता नहीं है, ऐसे अनेक योद्धा एकत्र किए होंगे। पर धर्म ही नित्य है। मेरे पास इन सब शत्रुओं को नष्ट कर सके, ऐसा महाबल है। वह है मेरा धर्म! 
ददस्व वा शक्रपुरं ममैव युद्दस्व वा भारतमुख्यवीर । 
मेरा इन्द्रप्रस्थ मुझे वापस लौटा दो अथवा भारत-वंश के प्रमुख वीर, तुम युद्ध करो।
                        अगले अंक में - धृतराष्ट्र को विदुर की सलाह

Friday, October 17, 2014

महाभारत-३


संजय भी जल्दी हार माननेवाला कहां था। वह ज्ञानी भले ही न हो, जानकार तो था ही। सामान्य जन ज्ञान और जानकारी को एक ही मानते हैं। सत्य और असत्य को पहचानना उतना कठिन नहीं है, जितना ज्ञान और जानकारी में अन्तर समझना। ज्ञान प्राप्त होने के बाद मनुष्य मौन हो जाता है। उसकी वाणी विवेक द्वारा संचालित होने लगती है, जबकि जानकार की जिह्वा द्वारा। वह सत्य के उद्घाटन हेतु प्रबुद्ध जनों के बीच ही अत्यन्त आवश्यकता पड़ने पर ज्ञान बांटता है और एतदर्थ बोलता है। इसके विपरीत जानकार अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के लिये हमेशा बोलता ही रहता है। वह सुननेवाले कुपात्रों और सुपात्रों में भी भेद नहीं करता है। अल्पबुद्धि श्रोता जानकार को ही ज्ञानी समझने की भूल सदियों से करते आए हैं। संजय ने धृतराष्ट्र की स्वार्थसिद्धि के लिये बातों के अनगिनत जाल बिछाए। श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने संजय को बीच में नहीं टोका। संजय ने अपनी बात पूरी करने के बाद आशा भरी निगाह से युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को देखा। श्री कृष्ण ने बड़े नपे-तुले शब्दों में उत्तर दिया -
अविनाशं संजय पांडवानामिच्छाम्यहं भूमिमेषां प्रियं च।
तथा राज्ञो धृतराष्ट्रस्य सूत सदाशंसे बहुपुत्रस्य वृद्धिम॥
(उद्योग पर्व २९;१)
संजय! मैं पाण्डवों के लिए अविनाश चाहता हूं, उन्हें ऐश्वर्य मिले, उनका प्रिय हो, यह भी हृदय से चाहता हूं। इसके साथ ही, इसी प्रकार से, अनेक पुत्रोंवाले धृतराष्ट्र की भी वृद्धि अर्थात अभुदय चाहता हूं।
श्रीकृष्ण स्पष्टवक्ता हैं। उनकी यह विशेषता थी कि जो जिस भाषा में समझने के योग्य होता था, वे वही इस्तेमाल करते थे। युधिष्ठिर और संजय की वार्त्ता अन्तहीन वाद-विवाद में परिणत हो रही थी। इसे विराम देना आवश्यक था। श्रीकृष्ण ने अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए कहा -
संजय, मैं पाण्डवों का श्रेय चाहता हूं, पर कौरवों का अहित भी नहीं चाहता। किन्तु कौरवों ने एक महान अपराध किया है; वे परभूमि - पराई भूमि पचा जाना चाहते हैं। पराया धन प्रकट रूप से या चोरी-छिपे हरण करनेवाले चोर-लुटेरे और दुर्योधन के बीच कोई अन्तर है क्या?
श्रीकृष्ण का प्रश्न सुनकर संजय नज़रें झुका लेता है। श्रीकृष्ण की बातों में सत्य का बल है। कुतर्क सत्य के सामने बहुत देर तक कभी नहीं टिकता।
अगले अंक में - कौरवों को श्रीकृष्ण का संदेश

Wednesday, October 15, 2014

महाभारत-१


  महाभारत की रचना महर्षि वेद व्यास ने की। यह भारत का सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ है जिसमें वह सबकुछ है जो इस लोक में घटित हुआ है, हो रहा है और होनेवाला है। यह हमें अनायास ही युगों-युगों से चले आ रहे उस संघर्ष की याद दिलाता है जो मानव हृदय को आज भी उद्वेलित कर रहा है। द्वापर के अन्तिम चरण में आर्यावर्त्त और विशेष रूप से हस्तिनापुर की गतिविधियों को कथानक के रूप में , क्रमवद्ध तथा नियोजित विधि से अपने में समेटे, यह अद्भुत ग्रन्थ मानवीय मूल्यों, आस्थाओं, आदर्शों, दर्शन और संवेदना के उत्कर्ष तथा कल्पनातीत पतन - दोनों के चरम की झलक प्रस्तुत करता है। महाभारत की कथा मनुष्य के चरित्र की संभावनाओं और विसंगतियों के प्रकाशन का साक्षात उदाहरण है जो आज भी प्रासंगिक है। मैं इसके कुछ मुख्य अंशों को अपनी भाषा, शैली और विवेचना के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं।
      पाण्डव १२ वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद विराटनगर में डेरा डाले हैं। पांचाल नरेश द्रुपद के राजपुरोहित के माध्यम से उन्होंने धृतराष्ट्र के पास इन्द्रप्रस्थ का राज वापस करने का सन्देश भिजवाया। दुर्योधन उनका राज वापस करने के लिये कतई तैयार नहीं था। धृतराष्ट्र ने अपना उत्तर अपने मन्त्री एवं दूत सन्जय के माध्यम से भिजवाया। सन्जय पाण्डवों के पास जाकर सन्देश सुनाते हैं -
     न चेद भागं कुरवोअन्यत्र युद्धात प्रयछन्ते तुभ्यमजातशत्रो ।
     भैक्षचर्यामन्धकवृष्णिराज्ये श्रेयो मन्ये न तु युद्धेन राज्यम ॥
      हे अजातशत्रु! यदि कौरव युद्ध किये बिना तुमको तुम्हारे राज्य का हिस्सा नहीं देते, तो अन्धक तथा वॄष्णिवंश के क्षत्रियों के राज्य में भिक्षा मांगकर तुम निर्वाह करो, यही तुम्हारे लिए अच्छा है। युद्ध करके राज्य प्राप्त करें यह तुम्हारे यश के अनुरूप नहीं है।
      धृतराष्ट्र महाभारत का सबसे बड़ा खलनायक है। पिता यदि अपनी सन्तान को गलत मार्ग पर चलने से नहीं रोक पाता है, तो वह अपराधी है परन्तु अपराध क्षमायोग्य है। लेकिन पिता अपनी ही सन्तान को गलत मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित करता है, तो यह बड़े अपराध की श्रेणी में आता है जो किसी भी काल में क्षम्य नहीं है। वह हमेशा किसी भी कीमत पर सिर्फ अपने बेटों का ही कल्याण चाहता है। लेकिन दुनिया की नज़रों अच्छा दीखने की लालसा भी उसके मन में किसी से कम नहीं है। कूटनीति और कूटयोजना बनाने में वह सिर्फ दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की सलाह लेता है परन्तु अपने निर्णय को अनुमोदित कराने के लिये भीष्म, द्रोण और विदुर की भी सहमति का प्रयास करता है। अपने इस प्रयास में अक्सर वह सफल नहीं होता था लेकिन सलाह-मशविरा करने का ढोंग वह हमेशा करता था। सभा ने तय किया था कि संजय के माध्यम से हस्तिनापुर नरेश युधिष्ठिर को उत्तर भिजवायेंगे लेकिन क्या उत्तर भिजवायेंगे, इसका निर्णय दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की चाण्डाल चौकड़ी ने किया। संजय को यह भी निर्देश दिया गया कि कहे गये संदेश में अपनी ओर से वे कोई जोड़-घटाव या गुणा-भाग नहीं करेंगे। यह संदेश धृतराष्ट्र ही नहीं, विश्व के समस्त स्वार्थी और तानाशाह शासकों की मनोदशा का प्रत्यक्ष दर्पण है। अन्धक और वृष्णिवंश की राजधानी द्वारिका थी। श्रीकृष्ण से पाण्डवों की मैत्री को लक्ष्य बनाकर यह संदेश भिजवाया गया था। स्पष्ट सलाह थी कि राज्य के लिये भयंकर विनाशकारी युद्ध करने से अच्छा होगा कि युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ द्वारिका में भिक्षा मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करें। ऐसा संदेश एक निर्लज्ज तानाशाह ही दे सकता था।

      अगले अंक में युधिष्ठिर का उत्तर

महाभारत-२


      युधिष्ठिर के धार्मिक एवं शान्तिप्रिय स्वभाव को लक्ष्य करके ही धृतराष्ट्र ने ऐसा संदेश भिजवाया था। मनुष्य जो भी करता है उसे उचित ठहराने की कोशिश अवश्य करता है। इसके लिये वह कभी धर्म का तर्क देता है, कभी सत्य का, कभी परंपरा का, कभी सिद्धान्त का, तो कभी नैतिकता का। वाकपटु मनुष्य असत्य को भी सत्य की चाशनी चढ़ाकर इस तरह प्रस्तुत करता है कि असत्य में सत्य का बोध होने लगता है और सत्य में असत्य का। एक पुरानी कहानी है कि सत्य और असत्य जुड़वा बहनें हैं। एक बार दोनों नदी किनारे स्नान करने गईं। अपना वस्त्र नदी के किनारे रख दोनों नदी में नहाने लगीं। असत्य ने पहले नहा लिया और सत्य के कपड़े पहन चलती बनी। सत्य नहाकर जब किनारे आई, तो पाया कि उसके कपड़े नदारद थे। मज़बूरी में उसे असत्य के कपड़े पहनने पड़े। तभी से लोग सत्य-असत्य के बीच भ्रम में पड़े रहते हैं। युधिष्ठिर को सुन्दर शब्दों में धर्म की चाशनी चढ़ाकर धृतराष्ट्र द्वारा भेजे गये संदेश की असली मंशा समझते देर नहीं लगी। उन्होंने उसी तरह का जटिल उत्तर भी दिया -
     यत्राधर्मो धर्मरूपाणि बिभ्रद कृत्स्नो धर्मः दृश्यतेअधर्मरूपः ।
     तथा धर्मो धारयन्धर्मरूपं विद्वांसस्तं सम्प्रश्यन्ति बुद्धयाः ॥
                (उद्योग पर्व २८;२)
     कही तो अधर्म ही धर्म का रूप धारण कर लेता है, कही पूर्णतया धर्म अधर्म जैसा दिखाई पड़ता है; तथा कही धर्म अत्यन्त वास्तविक स्वरूप धारण करके रहता है। विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि से विचार करके उसके असली रूप को देख लेते हैं, समझ लेते हैं।
      युधिष्ठिर का उपरोक्त उत्तर संजय के सिर के उपर से गुजरा। दोनों अलग-अलग तल से बात कर रहे थे। अपने उत्तर को और सरल बनाते हुए युधिष्ठिर ने स्पष्ट किया -
      संजय! भिक्षावृत्ति ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं। मैं आजतक ज्येष्ठ पिताश्री को एक न्यायप्रिय महाराज के रूप में जानता था। अगर तुम्हारे द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर उनकी सहमति है, तो यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। पुत्रमोह के कारण उनका अन्तर भी कलुषित हो जायेगा, इसकी अपेक्षा नहीं थी। अपने अधर्मी पुत्रों को सन्मार्ग पर लाने में असफल महाराज मुझे धर्म की शिक्षा दे रहे हैं। संजय, मैं नास्तिक नहीं हूं। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन है, देवताओं, प्रजापतियों और ब्रह्माजी के लोक में जो भी वैभव है, वे सभी मुझको प्राप्त होते हैं, तो भी मैं उन्हें अधर्म से लेना नहीं चाहूंगा। लेकिन अधर्म से कोई अगर मेरे अधिकार का तृण भी लेना चाहेगा, तो मैं उसे पंगु बना दूंगा। अधर्म करना और सहना, दोनों दुष्कर्म की श्रेणी में आते हैं। न्याय के लिये अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। मैं युद्ध नहीं चाहता, लेकिन अगर युद्ध अपरिहार्य हो, तो डरता भी नहीं। क्षत्रिय-कुल में जन्म लिया है, युद्ध से क्यों डरूं?
 अगले अंक में - श्रीकृष्ण का संजय को उत्तर