Sunday, February 14, 2016

नेताओं का देशद्रोही आचरण

दिल्ली के जामिया नगर में स्थित बटाला हाउस में दिनांक १९, सितंबर, २००८ को आतंकवादी संगठन इंडियन मुज़ाहिदीन के आतंकवादियों के खिलाफ़ एक एनकाउन्टर किया गया था। इस अभियान का नेतृत्व दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चन्द शर्मा ने किया था। इसमें दो आतंकवादी, आतिफ़ अमीन और मोहम्मद साज़िद मारे गए, दो अपराधी मोहम्मद सैफ़ और जीशान गिरफ़्तार किए गए और एक आतंकवादी आरिज़ खान भागने में सफल रहा। इस अभियान में बहादुर पुलिस आफिसर मोहन चन्द शर्मा शहीद हुए। इन आतंकवादियों ने दिल्ली में छः दिन पहले ही, दिनांक १३, सितंबर, २००८ को सिरियल बम ब्लास्ट किया था, जिसमें ३० नागरिक मारे गए थे तथा १०० घायल हुए थे। आतिफ़ अमीन इंडियन मुज़ाहिदीन का चीफ़ बंबर था। उसने २००७ से लेकर २००९ तक दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर, सूरत और फ़ैज़ाबाद में हुए बम धमाकों की न सिर्फ योजना ही बनाई थी बल्कि अन्जाम भी दिया था। वह मोस्ट वान्टेड अपराधियों की सूची में शामिल था।
            देश में हो रहे सिरियल  बम  विस्फोटों से मरनेवालों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने के बदले कुछ मानवाधिकार संगठन, जामा मिलिया विश्वविद्यालय के शिक्षक-छात्र और वोट के सौदागर नेतागणों ने बटाला हाउस के एनकाउन्टर को फ़र्ज़ी घोषित किया और शहीद मोहन चन्द शर्मा को ही अपराधी घोषित कर दिया। भांड मीडिया ने भी भी खूब बवाल मचाया। आपनी ही पार्टी के कार्यकाल में घटित इस घटना के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने माफ़ी मांगी और आतंकवादियों के घर जाकर आंसू भी बहाए। घटना को इतना तूल दिया गया कि दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस घटना की जांच कर दो महीने में अपनी रिपोर्ट देने का आदेश पारित किया। मानवाधिकार आयोग ने सघन जांच के उपरान्त दिनांक २२, जुलाई, २००९ को अपनी रिपोर्ट पेश की। आयोग ने एन्काउन्टर को सही बताया तथा दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट भी दी। बाद में स्व. मोहन चन्द शर्मा को मरणोपरान्त उनके अद्भुत शौर्य के लिए राष्ट्रपति द्वारा अशोक चक्र भी प्रदान किया गया। राहुल, सोनिया, मुलायम, मायावती, येचुरी और ओवैसी तब भी आतिफ़ अमीन के लिए आंसू बहाते रहे।
            ऐसी ही एक घटना दिनांक १५, जून, २००४ को अहमदाबाद के बाहरी क्षेत्र में हुई। अभी-अभी, अदालत को दी गई अपनी गवाही में कुख्यात आतंकवादी डेविड हेडली ने यह स्वीकार किया है कि कि उस मुठभेड़ में मारी गई महिला इशरत जहां लश्करे तोयेबा की आत्मघाती हमलावर थी। वह और उसके तीन साथी, ज़ावेद शेख, ज़िशान जौहर और अमज़द अली राणा तात्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की योजना और उद्देश्य से अहमदाबाद आए थे। सब के सब पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए। अमेरिका से वीडियो कांफ्रेंसिंग के द्वारा मुंबई कोर्ट को दी गई हेडली की गवाही के बाद कहने को कुछ भी नहीं रह जाता। लेकिन देशद्रोह की इस घटना को भी नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए बुरी तरह उपयोग में लाया गया। पूरे देश में हाय-तोबा मचाई गई। कांग्रेस के नेता, विशेष रूप से सोनिया और राहुल इसमें सबसे आगे थे। बिहार के मुख्य मंत्री ने तो इशरत जहाँ को बिहार की बेटी घोषित किया | केन्द्रीय जांच एजेन्सियों का जबर्दस्त दुरुपयोग किया गया। गृह मंत्रालय के जिम्मेदार अधिकारियों के विरोध के बावजूद सन्‌ २०१३ में सीबीआई की जांच बिठाई गई। मोदी और अमित शाह को फंसाने के लिए जमीन-आसमान एक किए गए। कई कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारियों को मुअत्तल किया गया और उन्हें जेल की हवा भी खिलाई गई। हेडली के खुलासे के बाद केन्द्र सरकार की विश्वसनीय गुप्तचर एजेन्सी आई.बी. के पूर्व निदेशक राजेन्द्र कुमार ने दिनांक १३, फरवरी, २०१६ को यह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया है कि सोनिया गांधी के निर्देश पर उनके राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने आईबी को निर्देश दिया था कि चाहे जैसे हो नरेन्द्र मोदी को इस मामले में फंसाओ। इसके लिए अगर तथ्यों की अवहेलना करनी पड़े, तो वो भी किया जाये। जिन कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों ने गलत काम करने से मना किया उन्हें सीबीआई द्वारा फ़र्ज़ी मामलों में फंसाया गया। राजेन्द्र कुमार भी इसके शिकार रहे। एक ईमानदार पुलिस अधिकारी बंजारा आठ साल जेल में रहने के बाद हाल ही में बाहर आए हैं। हेडली की गवाही के बाद श्री कुमार ने सीबीआई के उन अधिकारियों और कांग्रेस के उन नेताओं को अदालत में घसीटने की घोषणा की है जिन्होंने उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फंसाने की कोशिश की।

            तीसरी आंख खोलनेवाली घटना कुछ ही दिन पूर्व जे.एन.यू. में घटी। वैसे तो यह विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केन्द्र रहा है, लेकिन हाल की घटना ने तो सारी हदें पार कर दी। विद्यार्थियों, छात्रसंघ के अध्यक्ष और शिक्षकों की उपस्थिति में कुख्यात आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई गई, उसे शहीद घोषित किया गया, कश्मीर की आज़ादी के लिए नारे लगाए गए, भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया गया, पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए गए और राष्ट्रवाद को जी भरकर गालियां दी गईं। समझ में नहीं आ रहा था कि इसका नाम जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) है या जेहादी नक्सल यूनिवर्सिटी? देशव्यापी विरोधों से सचेत हुई केन्द्र सरकार अचानक नींद से जागी और विश्वविद्यालय से कुछ देशद्रोही छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। मार्क्सवादियों और कांग्रेसियों को रोटी सेंकने का अच्छा मौका मिल गया। सीताराम येचूरी और राहुल गांधी तत्काल अराजक और देशद्रोही छात्रों की हौसल अफ़जाई के लिए परिसर में पहुंच गए। ये राजनेता मोदी के सत्ता में आने के कारण इतना बौखला गए हैं कि राष्ट्रविरोधी शक्तियों का समर्थन करने और उनका साथ देने में  इन्हें तनिक भीशर्म नहीं आती। वैसे भारत का इतिहास देखने के बाद कोई विशेष आश्चर्य नहीं होता है। अंग्रेजों के शासन-काल में भी एक वर्ग ऐसा था जो आंख बंदकर उनका समर्थन करता था। उन्हें राय बहादुर, खान बहादुर और सर की उपाधि से नवाज़ा जाता था। आज भी यह कहने वाले मिल जायेंगे कि अंग्रेजों का राज्य आज़ादी से अच्छा था।

Friday, February 12, 2016

बेलगाम राष्ट्रद्रोह


            कभी-कभी लगता है कि हम विचार-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के काबिल नहीं है। जब भी यह अधिकार बिना रोकटोक के हमें प्राप्त हुआ है, हमने इसका जमकर दुरुपयोग किया है। सन्‌ १९७५ में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्‌काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पूरी तरह छीन ली गई थी। कुलदीप नय्यर को छोड़ अधिकांश पत्रकारों ने इन्दिरा गांधी की प्रशंसा में ताजमहल खड़े कर दिए थे। चाटुकारिता की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए खुशवन्त सिंह ने तो संजय गांधी को Illustrated weekly पत्रिका का Man of the year भी चुना था। यह बात दूसरी है कि खुशवन्त सिंह के ही पाठकों ने उन्हें बाद में Chamacha of the year घोषित किया। आज भी आपात्‌काल के प्रशंसक मिल जायेंगे। अभीतक कांग्रेस, सोनिया या राहुल ने आपात्‌काल में किए गए अत्याचारों के लिए देशवासियों से माफ़ी नहीं मांगी है।
            इसके विपरीत भाजपा जब भी सत्ता में आती है, इमरजेन्सी को याद करते हुए देशवासियों को कुछ जरुरत से ज्यादा ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे देती है। जनसंघ से लेकर भाजपा तक की यात्रा में इस पार्टी पर सांप्रदायिकता के आरोप को चस्पा करने के लिए सभी दल अथक प्रयास करते रहे। वामपंथी बुद्धिजीवियों और विदेशी पत्रों के लिए पत्रकारिता करनेवाले पत्रकारों की इसमें अहम्‌ भूमिका रही। जो लोग पानी पी-पीकर जनसंघ को सांप्रदायिक कहते थे, मौका मिलने पर उसी के साथ सरकार भी बनाई। मुझे १९६७ के वो दिन भी याद हैं, जब बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और जनसंघ तथा कम्युनिस्ट, दोनों ही सरकार में शामिल थे। आज की तारीख में भाजपा के धुर विरोधी लालू यादव भाजपा/जनसंघ के ही समर्थन से पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। नीतीश, ममता, नवीन पटनायक, शरद पवार, शरद यादव, मुलायम, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू का इतिहास बहुत पुराना नहीं हैं। इन नेताओं को जब भाजपा को साथ लेकर सत्ता की मलाई चखनी होती है, तो भाजपा धर्म निरपेक्ष हो जाती है, बाकी समय सांप्रदायिक रहती है। बार-बार सांप्रदायिकता का आरोप लगाने से इन नेताओं ने एक सफलता तो प्राप्त कर ही ली, और वह है - स्वयं भाजपा के मन में सांप्रदायिकता की ग्रंथि का निर्माण। भाजपा ने इस ग्रंथि से मुक्त होने के लिए क्या नहीं किया? राम मंदिर के निर्माण से प्रत्यक्ष किनारा किया, धारा ३७० को दरकिनार करके कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन किया, समान नागरिक संहिता को ठंढे बस्ते में डाल दिया, भारत की जगह इंडिया को अपनाया ......... आदि, आदि। लेकिन विरोधियों के स्वर कभी भी मद्धिम नहीं पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी तो सांप्रदायिकता से इस कदर आक्रान्त थे कि जब  कांग्रेसी और वामपंथी उनके लिए कहते थे - A right man in wrong party, तो उन्हें  बड़ी खुशी होती थी | अपने को असांप्रदायिक सिद्ध करने के लिए उन्होंने जनसंघ का सिद्धांत ही बदल दिया। भाजपा को उन्होंने गांधीवादी समाजवाद का पोषक घोषित किया। इसके बावजूद भी उन्हें लोकसभा में मात्र २ सीटों पर संतोष करना पड़ा। जनता भाजपा को कांग्रेस या समाजवादी पार्टियों की कार्बन कापी के रूप में नहीं देखना चाहती थी। भला हो विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष स्व. अशोक सिंहल का, जिन्होंने राम मन्दिर आन्दोलन चलाकर भाजपा में नई जान फूंकी। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने। उन्होंने फसल जरूर काटी, लेकिन आन्दोलन में उनका योगदान कुछ विशेष नहीं था। उनको प्रधान मंत्री बनाने के पीछे भी भाजपा की हीन ग्रंथि ‘सांप्रदायिकता’ ही काम कर रही थी।
            भाजपा के इतिहास मे नरेन्द्र मोदी पहले ऐसे नेता हुए जिन्होंने सांप्रदायिकता के आरोप को ही  अपना अस्त्र  बना लिया। गुजरात में तीन-तीन आम चुनावों में उनकी शानदार जीत ने उनका मनोबल तो बढ़ाया ही देशवासियों के मन में भी उम्मीद की नई किरण भर दी। २०१४ के लोकसभा के आम चुनाव राष्ट्रवाद के उदय की एक अलग कहानी कह रहे थे। विरोधी मोदी पर सांप्रदायिकता का आरोप जितने जोरशोर से लगाते, जनता में उतना ही ध्रुवीकरण होता। विरोधियों का यह हथियार अपना पैनापन खो चुका था। मोदी के विकास के एजेंडे ने इसकी धार कुंद कर दी। वे मोदी को सत्ता में आने से तो नहीं रोक सके, लेकिन काम करने से तो रोक ही सकते थे। उन्होंने एक काल्पनिक अस्त्र का आविष्कार किया - असहिष्णुता। बिहार के चुनाव में इस अमोघ अस्त्र का जमकर प्रयोग किया गया। पुरस्कार वापसी से लेकर धरना-प्रदर्शन तक के असंख्य नाटक किए गए। दुर्भाग्य से बिहार चुनाव के परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं गए। ‘असहिष्णुता’ के अस्त्र को नई धार मिल गई और मोदी जैसा योद्धा भी बैकफ़ुट पर आ गया। परिणाम यह हुआ कि विचार अभिव्यक्ति के नाम पर संविधान की धज्जियां उड़ाना और देशद्रोह की बातें सार्वजनिक रूप से करना आम बात हो गई। बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं का मज़ाक उड़ाते हुए चौराहे और पार्कों में बीफ़ पार्टी के आयोजन को भारत का संविधान क्या अनुमति देता है? भारत सरकार खामोश रही। अकबर ओवैसी और आज़म खान जनसभाओं में हिन्दुओं के कत्लेआम की बात करते हैं, कानून कुछ नहीं करता। जे.एन.यू. में न्यायालय द्वारा घोषित आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई जाती है और लाउड स्पीकर से भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया जाता है, भारत सरकार चुपचाप देखती भर रह जाती है। देशद्रोहियों की ये गतिविधियां संभावित थीं। इसीलिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसे कार्यक्रम की अनुमति प्रदान नहीं की थी। समझ में नहीं आता कि जे.एन.यू.  दिल्ली में है या श्रीनगर में? जे.एन.यू.  भिंडरावाले का अकाल तख़्त बनता जा रहा है| अभीतक ये देशद्रोही सलाखों के पीछे क्यों नहीं पहुंचाए गए?

            ‘सांप्रदायिकता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त भाजपा की पिछली सरकारों की तरह मोदी सरकार भी ‘असहिष्णुता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त प्रतीत होती है। सरकार डरी हुई लग रही है कि कार्यवाही करने से पुरस्कार वापसी का ड्रामा फिर से न शुरु हो जाय। लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत। सरकार की अति सहिष्णुता अन्ततः असहिष्णुता को ही बढ़ावा देनेवाली सिद्ध होगी। इसका फायदा देशद्रोही और असामाजिक शक्तियां ही उठायेंगी क्योंकि हम अत्यधिक विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आदी नहीं हैं। हम अपने अधिकारों की बात तो करते हैं, परन्तु कर्त्तव्यों के प्रति सदा से उदासीन रहे हैं। सरकार की सहिष्णुता बेलगाम राष्ट्रद्रोह को प्रोत्साहित कर रही है।