Thursday, May 31, 2012

कम्युनिज्म का अन्तर्द्वन्द्व, विरोधाभास और असफलता-3




परिवार के संबंध में भी कम्यून्स का प्रयोग प्रत्येक कम्युनिस्ट देश को भारी पड़ा। लोगों ने कम्यून्स में रुचि लेना बन्द कर दिया। विवशता में कम्यून्स में रहते हुए भी विशेष पुरुष, विशेष स्त्री में परस्पर स्वाभाविक आकर्षण और एक साथ रहने की इच्छा को दबाया नहीं जा सका। जिन बच्चों का पालन-पोषण राज्य के द्वारा किया गया, उनका समुचित विकास नहीं हुआ। बहुत कम समय में ही कम्यून्स की पद्धति को छोड़ना पड़ा और कम्यून्स टूट गए। स्त्री और पुरुष एक साथ, एक ही फ्लैट में बच्चों के साथ रहने लगे और इस तरह बिना विवाह-संस्था के भी परिवार संस्था की पुनर्वापसी हुई। बाद में बहुसंख्यक जनता ने पितृत्व के अधिकार की मांग की, जिसे स्वीकार करना पड़ा। परिवार संस्था और विवाह-संस्था, जो कम्युनिज्म या मार्क्सवाद के अनुसार एक प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ मान्यता थी, सारे कम्युनिस्ट देशों में अल्प समय में ही पुर्जीवित हो उठी।
जिन मज़दूरों के नाम पर सभी कम्युनिस्ट देशों का शासन चलता था, उन्हीं मज़दूरों की स्थिति बद से बदतर होती चली गई। कम्युनिस्ट देशों में मज़दूरों का जीवन घोर पूंजीवादी देशों के मज़दूरों से भी खराब था। पूंजीवादी देशों मे मज़दूरों को संगठन बनाने और हड़ताल का अस्त्र प्राप्त था और है भी। मज़दूरों का यह अधिकार कम्युनिस्ट देशों में तुरन्त समाप्त किया गया। अपनी सुविधाओं और वेतन में वृद्धि के लिए पूंजीवादी देशों में मज़दूरों का हड़ताल पर जाना एक आम बात है, लेकिन कम्युनिस्ट देशों में मज़दूर ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता। सातवें दशक में जब सोवियत रूस कम्युनिज्म के गिरफ़्त में था, एक बार अमेरिका ने मास्को में अमेरीकी मज़दूरों के जीवन पर एक प्रदर्शनी का आयोजन किया। अमेरिका में मज़दूर किस तरह के घर में रहता है, क्या खाता है, क्या पहनता है, किन सुविधाओं का उपयोग करता है, आदि सारी बातें चित्रों और माडलों के माध्यम से प्रदर्शित की गईं। रूस के मज़दूरों की विशाल भीड़ उसे देखने के लिए उमड़ पड़ी। वे देखना चाहते थे कि एक पूंजीवादी देश में जहां कम्युनिस्टों के अनुसार मज़दूरों का क्रूर शोषण होता है, कैसे रहते हैं? किन्तु जब उन्होंने देखा कि उनकी तुलना में अमेरिका के मज़दूरों को न केवल सुख-सुविधाएं ही अधिक हैं, उनका जीवन-स्तर भी ऊंचा है, आश्चर्यचकित रह गए। ऐसा भी हो सकता है, उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ। वे कहने लगे कि यह एक प्रचार है। किन्तु जब प्रदर्शनी के आयोजकों ने वस्तुस्थिति को प्रत्यक्ष देखने के लिए पांच रूसी मज़दूरों के प्रतिनिधि मण्डल को अपने खर्चे से अमेरिका भेजने की पेशकश की और यह कहा की प्रदर्शनी में वर्णित तथ्यों में यदि तनिक भी अतिरंजना पाई गई तो वे कम्युनिज्म स्वीकार कर लेंगे। प्रदर्शनी देखने के बाद स्थानीय मज़दूरों में असंतोष विकराल रूप लेने लगा। सरकार ने डरकर प्रदर्शनी ही बंद करा दी।
कम्युनिस्ट देशों में तथाकथित वर्गहीन समाज में नए वर्गों ने जन्म लेना आरंभ कर दिया। मार्क्स ने कहा था कि जब सभी वर्ग नष्ट हो जाएंगे, तब वर्गविहीन समाज का निर्माण होगा, लेकिन हुआ इसके ठीक विपरीत। एक ओर सरकारी स्तर से पुराने वर्गों को ध्वस्त करने की प्रक्रिया चलती रही, तो दूसरी ओर नए वर्ग बनते और बद्धमूल होते गए। युगोस्लाविया के भूतपूर्व उपप्रधान मंत्री ने अपनी पुस्तक ‘द न्यू क्लास’ में लिखा है - हमने पुराने वर्ग नष्ट किए, किन्तु नए वर्गों का निर्माण हुआ। ख्रुश्चेव ने स्वयं एक लेख में लिखा था - ‘मुझे पता नहीं चलता की क्या किया जाय? छोटे बच्चों में भी अलग-अलग वर्ग की भावना का निर्माण हो रहा है। शासक, उच्चाधिकारियों, इंजीनयरों, डाक्टरों के बच्चे स्कूल के मध्यावकाश में अलग ग्रूप बनाकर बैठते हैं और मज़दूर-किसानों के बच्चे अलग ग्रूप में। बचपन में ही वर्ग भावना निर्मित हो रही है। इसे कैसे दूर किया जाय?’
रूस द्वारा अन्तरिक्ष में पहला उपकरण भेजने पर ख्रुश्चेव ने गर्व से कहा था कि यह उपग्रह विश्व में कम्युनिज्म की विजय का परिणाम है। इसपर प्रख्यात दार्शनिक बर्ट्रेन्ड रसेल ने कहा था कि यह कम्युनिज्म की विजय का नहीं, पराजय का प्रमाण है। यदि वैज्ञानिकों को कम्यून में रखने के बदले विशेष सुविधा और अधिकार नहीं दिए गए होते, तो उन्हें स्पूतनिक विज्ञान और अनुसंधान की प्रेरणा ही नहीं मिली होती। किसी वर्ग को विशेष सुविधा और अधिकार देना कम्युनिज्म या मार्क्सवाद के घोषित सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। बात विशेषाधिकार प्राप्त एक या दो वर्गों की नहीं, आज विश्व के एकमात्र घोषित कम्युनिस्ट देश चीन में लघुत्तम और महत्तम आमदनी में १ और ९० का अनुपात है। आय में तो अन्तर है ही, भयंकर सामाजिक विषमता भी है।
कम्युनिस्ट देशों में समानता और वर्गहीनता की बात एक छलावा सिद्ध हुई। मार्क्स ने कहा था कि सर्वहारा (Proletariate), जिसके पास भगवान के द्वारा प्रदत्त दो हाथों के सिवा कुछ भी महीं है, वे ही क्रान्ति का नेतृत्व करेंगे। लेकिन लेनिन को इससे समस्याओं का सामना करना पड़ा। मार्क्स ने सिर्फ सिद्धान्त-सरणि दी थी, लेकिन लेनिन को प्रत्यक्ष क्रान्ति का काम करना था। उन्होंने अनुभव किया कि सर्वहारा क्रान्ति के लिए मर तो सकता है, क्योंकि उसके लिए मार्क्स ने कहा था कि तुम्हारा कुछ भी नुकसान नहीं, क्रान्ति में सिर्फ तुम्हारे बंधन टूटेंगे (You have nothing to lose but your chains), लेकिन नेतृत्व नहीं कर सकता। नेतृत्व के लिए बुद्धि, संगठन क्षमता और प्रशासनिक दक्षता की आवश्यकता होती है। लेनिन ने मार्क्स के सिद्धान्त में परिवर्तन करते हुए कहा कि सर्वहारा नेतृत्व नहीं करेगा। वह सिपाही का काम करेगा, नेतृत्व तो कम्युनिस्ट पार्टी के अनुभवी क्रान्तिकारी (Professional Revolutionaries) ही करेंगे। और इस तरह एक विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ। रूस में एक परंपरा-सी बन गई थी कि शासन के विभिन्न संगठनों के प्रमुख जैसे न्यायाधीश, प्रबंधक, प्राचार्य, कुलपति, सचिव, निदेशक, सेनापति आदि सभी पार्टी के नेतृत्व वर्ग से ही चुने जाएंगे, भले ही उनमें अपेक्षित योग्यता हो या न हो। किसी विज्ञान-संस्था का प्रमुख एक गैर विज्ञानी भी हो सकता था। इससे चापलूसी को प्रश्रय मिला और अयोग्य लोग भी उच्च पदों पर पहुंचने लगे। इस वर्ग को विशेष सुविधाएं, जैसे फार्म हाउस, समस्त सुविधाओं से युक्त आलीशान बंगला, फर्नीचर, कारें, प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों में बच्चों के प्रवेश की सुविधा, आयातित वस्तुओं की प्राप्ति की सुविधा, सर्वोत्त्कृष्ट चिकित्सा सेवा की सुविधा आसानी से प्राप्त होने लगी। यहां तक कि मास्को के प्रसिद्ध नाट्यगृह के टिकट भी पहले उन्हें ही प्राप्त होते थे। 
मार्क्स को मानव-मन की अत्यन्त अल्प जानकारी थी। मनुष्य के मन के विकास के लिए उनके साहित्य में कुछ भी नहीं है। उन्होंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कि किसी भी कार्यक्रम के सुचारु क्रियान्यवन के लिए चरित्रवान मनुष्य की आवश्यकता प्रथम शर्त है। या तो उन्होंने इस विषय का अध्ययन नहीं किया था या किया भी होगा तो अत्यन्त अल्प अध्ययन किया होगा। वे मनुष्य को एक यंत्र मानते थे जिसके कारण उनके समस्त सिद्धान्त व्यवहार के धरातल पर असफल हो गए। अनिर्बाध और अनियंत्रित सत्ता प्राप्त होने पर कट्टर कम्युनिस्ट भी मार्क्स को भूल गए। रूमानिया  के कम्युनिस्ट राष्ट्राध्यक्ष चाउसेस्कू ने उस देश पर लगातार २४ वर्षों तक तानाशाही के बल पर शासन किया था। यह भी कैसा संयोग है कि जिस अधिनायकवाद का विरोध मार्क्स ने अपनी हर पुस्तक और लेख में किया था, कम्युनिस्ट देशों में वही सबसे पहले आया। प्रत्येक कम्युनिस्ट देश का प्रमुख तानाशाह ही होता है। रूस का स्टालिन, युगोस्लाविया का मार्शल टीटो, क्यूबा का फिडेल कास्त्रो, चीन का माओ और रूमानिया का चाउसेस्कू इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। रूमानिया में अपनी २४ साल की तानाशाही के दौरान, चाउसेस्कू के भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद की चर्चा के बिना यह लेख अधूरा ही रहेगा। चाउसेस्कू की पत्नी एलीना, प्रथम उप प्रधानमंत्री, जो चाउसेस्कू के बाद सर्वाधिक शक्तिशाली पद था पर आसीन थी। चाउसेस्कू का भाई रक्षा मंत्री, दूसरा योजना आयोग का अध्यक्ष, तीसरा राजदूत, चौथा कम्युनिस्ट पार्टी के मुख्य पत्र का संपादक, एक साला कृषि सचिव, दूसरा ट्रेड उनियन का प्रमुख तथा सबसे छोटा लड़का ट्रान्ससिल्वानिया में पार्टी के सचिव पद पर काबिज़ था। वैभव-विलास का जीवन बिताने में उसने रोम के सम्राटों को भी पीछे छोड़ दिया था। तीन-तीन आलिशान बंगले - पहाड़ पर एक, काले सागर पर एक तथा राजधानी बुखारेस्ट के बाहर तालाब के किनारे संगमरमरी फ़र्श का वैभवपूर्ण महल! चालीस कमरों के इस महल में एक परिवार का निवास, सर्वत्र सोने-चांदी की वस्तुएं तथा दुर्लभ कलाकृतियों की राजसी सजावट। चाउसेस्कू महोदय सोने के बर्त्तनों में ही भोजन करते थे। 
तानाशाह चाउसेस्कू का पतन भी बड़े भयानक ढंग से हुआ। जनता ने उसके निकट संबंधियों के साथ बुखारेस्ट के एक चौराहे पर खड़ा कर सार्वजनिक रूप से गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। यह सामान्य जनता की मार्क्सवाद या कम्युनिज्म के प्रति दीर्घ असंतोष का प्रकटीकरण था। उसकी मृत्यु के बाद पत्रकारों ने उसके महल में जब प्रवेश किया, तो आश्चर्य से उनकी आंखें फटी रह गईं। जूतों की अनेक कतारें, जिनमें कुछ की एड़ियों में हीरे जड़े हुए, इतालवी फ़र्श वाले स्नानगारों में सोने के नलों से गरम पानी आने की व्यवस्था। चाउसेस्कू की पत्नी एलीना रोयेंदार जानवरों के चमड़ों के वस्त्रों तथा महंगे आभूषणों पर बेशुमार धन खर्च करती थी। रूमानिया की सामान्य जनता के प्रति उसके मन में अपार घृणा थी। वह कहा करती थी - ‘इन कीड़े मकोड़ों को चाहे जितना खाने को दो, ये कभी संतुष्ट नहीं हो सकते।’ चाउसेस्कू दंपत्ति ने उस समय ४० करोड़ डालर का सोना स्विस बैंकों में जमा कर रखा था। चीन के माउत्से तुंग भी इस विकृति से बच नहीं सके। उन्होंने चीन की एक खूबसूरत अभिनेत्री जियान किंग से शादी की थी, जिसे कालान्तर में उन्होंने पोलिट ब्यूरो का सदस्य बना दिया। जियान किंग माओ के बुढ़ापे के दिनों में इतनी शक्तिशाली और प्रभावशाली हो गईं कि अपने तीन और वफ़ादारों के साथ माओ को किनारे करते हुए वर्षों तक चीन पर राज किया। इन चारों को गैंग आफ़ फ़ोर कहा गया, जिनके कारनामे माओ की मृत्यु के बाद स्वयं चीनी शासकों ने उजागर किए और वर्षों तक विश्व समाचार की सूर्खियां बटोरते रहे। ये चारों अत्यन्त क्रूर, भ्रष्ट, विलासी और तानाशाही प्रवृत्ति के थे। माओ की पत्नी जियान किंग, चाउसेस्कू की पत्नी एलीना से इंच भर भी कम नहीं थीं। माओ के बाद जब डेन शियाओ पिंग ने सत्ता संभाली, तो इस गैंग आफ़ फ़ोर को उनके अपराधों के लिए मृत्यु दंड दिया गया। रूस में ब्रेज़नेव के प्रधानमंत्रीत्व काल में उनके दामाद प्रशासन में बहुत ताकतवर हो गए थे। उसी समय रूसी सेना ने अफ़गानिस्तान पर कब्जा किया था। वहां की भौगोलिक दशा और स्थानीय लड़ाकों के खूनी आक्रमण के डर के कारण कोई रूसी सैनिक वहां जाना नहीं चाहता था। वहां जाने का अर्थ था - फिर कभी लौट के नहीं आना। इसका फायदा उठाते हुए ब्रेज़नेव के दामाद ने अफ़गानिस्तान में सैनिकों की पोस्टिंग रोकने के लिए अकूत धन कमाया। भारत में स्व. ज्योति बसु के पुत्र चन्दन बसु ने सत्ता का दुरुपयोग कर पश्चिम बंगाल में कई उद्योग लगाए। वे आज बंगाल के अग्रणी पूंजीपति हैं। स्व. ज्योतिर्मय बसु की कलकत्ता की छः मंजिली इमारत चाउसेस्कू के महल के आगे झोंपड़ी ही मानी जाएगी। सोमनाथ चटर्जी ने मार्क्सवाद को त्याग दिया लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष की कुर्सी नहीं त्यागी। अनगिनत किस्से हैं व्यवहारिक धरातल पर मार्क्सवाद के असफल होने की। 
सोवियत रूस के पूर्व शासक गोर्बाचोव ने, जो एक कट्टर कम्युनिस्ट थे, समय रहते यह पहचान लिया कि कम्युनिज्म अव्यवहारिक है और सिर्फ मार्क्सवाद के खोखले नारे से जनता की समस्याओं का समाधान तथा देश का उत्थान नहीं किया जा सकता। उन्होंने ‘पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) और ग्लासनोस्त (खुलापन) के नाम से स्वतंत्र चिन्तन और आलोचना को स्थान दिया। उन्होंने रूस में परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया। जून १९९० की कम्युनिस्ट पार्टी की २८वीं कांग्रेस में जो प्रस्ताव स्वीकार किया गया उसमें मार्क्सवाद और लेनिनवाद का दूर-दूर तक कोई नाम नहीं था। उसमें प्रमुख बातें थीं - 
१. सोवियत रूस के संविधान की धारा ६ को निरस्त कर दिया गया जो कम्युनिस्ट पार्टी को एकमात्र अधिकृत पार्टी मानती थी। इससे अन्य दलों के चुनाव लड़ने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
२. जेनेरल सेक्रेटरी के अधिकार राष्ट्राध्यक्ष को सौंपकर पार्टी और प्रशासन को अलग करने की दिशा में कदम उठाया गया।
३. व्यक्तिगत संपत्ति न रखने के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के मौलिक सिद्धान्त को तिलांजलि देते हुए कहा गया कि - पार्टी व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार को मानती है और उत्पादन के साधनों पर व्यक्ति के स्वामित्व को स्वीकार करती है।
कम्युनिस्ट व्यवस्था में जिनका निहित स्वार्थ था, ऐसे लोगों की टोली ने एक आखिरी प्रयास किया। गोर्बाचोव को गिरफ़्तार कर कालचक्र को विपरीत दिशा में घुमाने की कोशिश की। किन्तु ग्लासनोस्त के कारण स्वतंत्रता का स्वाद चखे जनगण ने उनके प्रयत्नों को पूर्ण विफल कर दिया और तीन दिन बाद ही गोर्बाचोव पुनः राष्ट्रपति के पद पर आसीन किए गए। षडयंत्रकारियों को  गिरफ़्तार कर लिया गया और गोर्बाचोव ने हमेशा के लिए कम्युनिस्ट पार्टी से त्यागपत्र दे दिया। कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यालय और संपत्ति जब्त कर कर ली गई। रूसी गणराज्य की जनता ने रूस के हसिया-हथौड़े वाले झंडे को त्यागकर उसके स्थान पर १९१७ के पूर्व का झंडा अपना लिया। स्थान-स्थान पर औंधे मुंह पड़े लेनिन के पुतले कम्युनिज्म की विफलता और दर्दनाक अन्त पर सिसकियां भर रहे थे। सोवियत संघ की दासता से उज़्बेकिस्तान, कज़किस्तान, उक्रेन आदि अनेक देशों ने स्वतंत्रता प्राप्त की। फिर तो यह सिलसिला चल पड़ा। हंगरी, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लोवाकिया, रूमानिया, पूर्वी जर्मनी, चीन, वियतनाम इत्यादि देशों ने भी जबर्दस्ती थोपे गए मार्क्सवाद का जूआ उतार फेंका। कई नए देश अस्तित्व में आए। किसी को भी विश्वास नहीं था कि पूंजीवाद की Thesis में क्रान्ति का  Antithesis लगाकर, मार्क्सवाद के नाम पर निर्मित Thesis - कम्युनिज्म - इतनी जल्दी स्वयं Thesis बनकर दूसरे Synthesis का मार्ग प्रशस्त करेगा और स्वयं अज़ायबघर (Museum)  की एक वस्तु बन जाएगा।
                    समाप्त

कम्युनिज्म का अन्तर्द्वन्द्व, विरोधाभास और असफलता-२



कार्ल मार्क्स के जीवन का अधिकांश भाग इंगलैन्ड में व्यतीत हुआ था। उन्होंने संपूर्ण अध्ययन वहीं किया था। उनके मन-मस्तिष्क पर वहां की पृष्ठभूमि का गहरा असर था। इंगलैन्ड की अर्थनीति कृषि पर आधारित नहीं थी। वहां पूरी तरह औद्योगिक क्रान्ति हो चुकी थी। मार्क्स की पूरी अवधारणा और सोच उद्योगों में काम कर रहे मज़दूरों पर ही केन्द्रित थी। इसके कारण कृषि प्रधान देशों की समस्याओं की कल्पना वे ठीक से नहीं कर सके।
मार्क्स ने कहा कि राष्ट्रीयता, धर्म, लिंग और क्षेत्र के आधार पर मनुष्यता का बंटवारा बिल्कुल गलत है। मनुष्य का विभाजन उन्होंने दो खेमों में किया - पहला खेमा है उत्पादन के साधन के मालिकों (Haves) का, दूसरा खेमा है वंचितजनों (Have nots) का। मार्क्स ने Haves और Have nots को बांटनेवाली जिस क्षैतिज रेखा (Horizontal line) की कल्पना की, वह आज तक परिभाषित नहीं हो पाई। उद्योगों में तो इसका वर्गीकरण किया जा सकता है, वह भी पूरी तरह नहीं। अगर किसी भी उद्योग के मालिक को Haves के खेमे में रखा जा सकता है, तो उसमें काम करने वाले मज़दूर से लेकर महाप्रबंधक को Have nots के खेमे में रखना पड़ेगा। क्या एक दैनिक वेतन भोगी मज़दूर और उसके महाप्रबंधक की आमदनी और सुविधाओं की तुलना की जा सकती है? जिन उद्योगों को दृष्टि में रखकर मार्क्स ने Haves और Have nots खेमे की कल्पना की, उन्हीं में इन दोनों खेमों को अलग करने वाली क्षैतिज रेखा खींचना मुश्किल ही नहीं असंभव है। 
कृषि के क्षेत्र में तो यह और भी दुष्कर कार्य है। वह किसान जिसके पास एक बीघा जमीन है, वह मार्क्स के अनुसार Have nots नहीं हो सकता है क्योंकि उसके पास छोटा ही सही उत्पादन का एक साधन है। अतः वह Haves है। एक किसान एक बीघा जमीन का मालिक होने के बावजूद भी  इसके सहारे अपने परिवार का भरण-पोषण नहीं कर सकता इसलिए वह दूसरे के यहां मज़दूरी भी करता है। वहां वह Have nots है। इस दुनिया में ऐसा कोई आदमी है क्या जिसके पास कुछ भी न हो? अगर किसानों की जोत के आधार पर वर्गीकरण किया जाय और पांच बीघे की जोत पर विभाजन की क्षैतिज रेखा रखी जाय, तो ४.९९९ बीघे वाला  Have nots होगा और पांच बीघे वाला Haves के खेमे में आएगा। अपने देश की स्थिति में टाटा, बिड़ला, रिलायंस आदि निश्चित रूप से Haves के खेमे में होंगे और ५ बीघा जमीन जोतने वाला किसान  तथा परचून की दूकान का मालिक भी Haves खेमे में ही होगा। क्या यह कही से भी व्यवहारिक और न्यायोचित होगा? मार्क्स के जीवन काल में ही पूर्वी यूरोप के कृषि प्रधान देशों के अनेक कम्युनिस्टों ने उनको पत्र लिखकर यह प्रश्न पूछा था कि कम्युनिस्ट सिद्धान्त सरणि में किसानों की स्थिति कहां आती है? मार्क्स अपने जीवन के अन्त तक इसका कोई उत्तर नहीं दे पाए। आज भी किसी कम्युनिस्ट विचारक के पास इसका उत्तर नहीं है। वस्तुतः मानव जाति को मात्र दो खेमों - Haves और Have nots में बांटना असंभव है।
कार्ल मार्क्स दो देशों के बीच सीमाओं को मान्यता नहीं देते थे। वे राष्ट्रीयता के प्रबल और पूर्ण विरोधी थे। उनका नारा था - दुनिया के मज़दूरों एक हो। लेकिन यह परिकल्पना मनुष्य के मौलिक स्वभाव के सर्वथा विपरीत है। एक समय आधी दुनिया में जब कम्युनिज्म का बोलबाला था, तब भी यह सिद्धान्त व्यवहारिक नही बन पाया। कम्युनिस्ट देशों ने आपस में कई युद्ध किए। रूस और चीन के बीच स्थित चेन माओ द्वीप पर प्रभुत्व के लिए माउत्से तुंग ने अपने संबंध युद्ध होने की स्थिति तक पहुंचा दिया। चीन ने रूस को कम्युनिस्ट देश मानने से इंकार कर दिया। माओ के ज़माने में रेडियो पेकिंग रूस को संशोधनवादी कहता था और रेडियो मास्को चीन को विस्तारवादी। चेकोस्लोवाकिया भी कम्युनिस्ट देश था और सोवियत रूस भी। चेकोस्लोवाकिया के राष्ट्रध्यक्ष एल्क्जेन्डर दुबचेक से ब्रेजनेव की अनबन हो गई। परिणाम हुआ सन १९६८ में सोवियत रूस द्वारा चेकोस्लोवाकिया पर सैनिक कार्यवाही। एलेक्ज़ेन्डर दुबचेक को गिरफ़्तार करके युद्ध अपराधी कि भांति ब्रेज़नेव के सामने पेश किया गया। मार्क्स को राष्ट्रीयता से घोर नफ़रत थी। वे अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के कट्टर पोषक और समर्थक थे। लेकिन कम्युनिज्म के चरम उत्कर्ष के दिनों में भी कम्युनिस्ट देश एक-दूसरे से लड़ते दिखाई दिए। चेकोस्लोवाकिया, युगोस्लाविया, रुमानिया, हंगरी, पोलैन्ड, सोवियत रूस और चीन के बीच सीमा-विवाद और संघर्षों का सिलसिला विश्व में कम्युनिज्म के पतन के बाद ही थम पाया। कम्युनिस्ट विस्तारवाद के सबसे बड़े भुक्त भोगियों में से एक हमारा भारतवर्ष भी रहा है। कम्युनिस्ट चीन ने पहले तिब्बत पर अनधिकृत कब्ज़ा किया, फिर हमारी ६० हज़ार वर्ग किलो मीटर जमीन भी बलात अपने कब्जे में कर ली। कम्युनिस्ट देश इस तरह एक ओर मार्क्स के अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के 
सिद्धान्तों की सार्वजनिक रूप से धज्जियां उड़ाते रहे और दूसरी तरफ अपने को कम्युनिस्ट कहने का भी प्रचार करते रहे।
राष्ट्रीयता मनुष्य के मन में गौरव का भाव भरती है। इसका त्याग करके कोई देश आगे नहीं बढ़ सकता। दूसरे विश्व युद्ध के समय रूस में हिटलर की सेना अन्दर तक घुस गई और बढ़ती गई। फसलों को जलाते हुए रूसी सेना सिर्फ पीछे भाग रही थी। कम्युनिज्म और अन्तराष्ट्रीयता के नाम पर न सेना को लड़ने-मरने की प्रेरणा प्राप्त हो रही थी, न जनता को। ऐसे में स्टालिन ने अपने विचार और सिद्धान्त के विपरीत जनता और सेना से देश के लिए सबकुछ न्योछावर करने का आह्वान करते हुए कहा - अपनी पवित्र पितृभूमि की सीमाओं कि रक्षा के लिए अपना सबकुछ होम कर दो। मार्क्स ने कहा था कि आपके देश की दो ही सीमाएं हो सकती हैं - उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव। लेकिन किस कम्युनिस्ट देश ने इन सीमाओं को स्वीकार किया? स्टालिन ने द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान न सिर्फ पवित्र पितृभूमि की सीमाओं की बात की, बल्कि रूस के इतिहास पुरुष रहे पुराने वीरों के माध्यम से अपनी सेना और जनता में देशभक्ति का ज़ज़्बा भरा। उन सभी राष्ट्रपुरुषों, राष्ट्रनायकों और वीर पुरुषों कि विरुदावली फिर से गाई गई और सम्मानित किया गया जिन्हें सर्वहारा क्रान्ति के दौरान ‘फ्यूडल लार्ड्स’ कहकर बुरी तरह निन्दित किया गया था। मार्क्स, हेगेल, लेनिन और स्टालिन का नाम सैनिकों में जोश भरने में पूरी तरह नाकाम रहा। महान रूस के गुजरे जमाने के पीटर द ग्रेट जैसे राजाओं, कैथरीन द ग्रेट जै्सी रानियों और वीर सेनानायकों की यशोगाथा श्रद्धा-भक्ति से फिर दुहराई गई, उनके पुतले लगाए गए। रूसी सेना और जनता में पुनः उत्साह का संचार हुआ, रूस की भागती सेनाएं वापस लौट आईं और अन्ततः हिटलर की सेना को पराजय का मुख देखना पड़ा। राष्ट्रीयता मनुष्य का मूल स्वभाव है। युद्धभूमि से लेकर खेल के मैदान तक, शान्ति काल हो या युद्ध काल, बिना राष्ट्रवाद के कोई भी उपलब्धि हासिल नहीं की जा सकती। चीन द्वारा शून्य से आरंभ कर ओलंपिक में सबसे अधिक स्वर्ण पदक हासिल करने के पीछे उसका प्रबल राष्ट्रवाद ही मुख्य कारक है। 
दुनिया के किसी भी हिस्से में अल्प अवधि के लिए भी, कभी भी राष्ट्रवाद का लोप नहीं हुआ। मार्क्सवाद की यह सबसे बड़ी सैद्धान्तिक और व्यवहारिक असफलता है। दुनिया के मज़दूरों को एक करने का नारा देने वाले किसी एक देश में भी मज़दूरों को संगठित नहीं कर सके। भारत में ही लगभग दो दर्ज़न मान्यताप्राप्त मज़दूर संगठन और एक दर्ज़न कम्युनिस्ट पार्टियां हैं। कोई हिंसा में विश्वास करता है, कोई संसदीय प्रणाली में। कोई संविधान को शौचालय में इस्तेमाल होनेवाले टिश्यू पेपर की संज्ञा देता है, तो कोई इसी संविधान की रक्षा करने की शपथ के साथ सालो साल मलाई खाता है। सभी मार्क्सवाद को अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि पूरा कम्युनिस्ट वांगमय अस्पष्ट और विरोधाभासों से भरा है। मार्क्स ने कोई ब्लू प्रिन्ट नहीं दिया।
मार्क्स ने धर्म को अफ़ीम कहा था। वे घोर नास्तिक थे तथा धर्म को बुर्जुआ वर्ग का संरक्षक मानते थे। इसी कारण रूस में लेनिन के आते ही चर्च गिराए गए। पुरातत्त्व अन्वेषण कि दृष्टि से जो चर्च बच गए, उनमें भी जनता का प्रवेश या प्रार्थना वर्जित थी। चीन में भी असंख्य बौद्ध मठ ध्वस्त किए गए लेकिन कुछ ही समय के बाद कम्युनिस्टों की समझ में आ गया कि आम जनता को सदा के लिए धर्म से विरत नहीं किया जा सकता। जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अधिकृत रूप से कहना शुरु कर दिया कि मार्क्स ने मज़हब के बारे में जो कहा था वह सब सामयिक चर्च नीति से प्रभावित चित्र था। वह उनके लिए तो सही हो सकता है, किन्तु उनके मन्तव्य को सार्वजनीन नहीं माना जा सकता। वे कहने लगे - ‘Culture, ethics and religion in their turn mould socio-economic conditions, both act and react upon each other.' - मज़हब, संस्कृति और नीति आर्थिक और सामाजिक ढांचे को गढ़ती है और दोनों एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। लगभग सभी कम्युनिस्ट धार्मिक रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. ज्योति बसु दुर्गा-पूजा के अवसर पर कलकत्ता के प्रमुख पंडालों में सार्वजनिक रूप से जाते थे और सपत्नीक पूजा करते थे। एकाध बार कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने फ़तवा जारी कर अपने कार्यकर्ताओं से पूजा में भाग न लेने की अपील की लेकिन किसी ने इस बेसिर-पैर के फ़तवे को नहीं माना। सभी कम्युनिस्ट पुत्री के विवाह में कन्यादान करते हैं। हिन्दू सात फेरे लेते हैं और मुसलमान निकाह करते हैं। जीवन भर ढकोसला की चादर ओढ़ने वाला हर कम्युनिस्ट मरने के बाद चिता पर जलाया ही जाता है या दफ़नाया जाता है। धर्म को अफ़ीम माननेवाले कार्ल मार्क्स ने मानव मन की जटिलताओं को समझने में भयंकर भूल की। उन्होंने मनुष्य को एक मशीन समझा।
मार्क्स परिवार नामक संस्था के घोर विरोधी थे। इस संबंध में उनके नकारात्मक निर्देशक सिद्धान्त स्पष्ट थे - जैसे विवाह संस्था की समाप्ति, परिवार की समाप्ति, निजी संपत्ति की समाप्ति और अन्त में इकाई के नाते राष्ट्र की समाप्ति। उनका मानना था कि जहां अपनापन होता है, वहां संपत्ति का केन्द्रीकरण होता है। इसीलिए विवाह संस्था को त्याज्य मान उन्होंने ‘कम्यून्स’ (सामूहिक जीवन) की वकालत की। वे परिवार को वे बुर्जुवा व्यवस्था मानते थे। उन्होंने ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें कोई किसी का पति नहीं, कोई किसी की पत्नी नहीं। संपूर्ण समाज एक है। सब लोग समूह में रहेंगे। पति नहीं, पत्नी नहीं, बच्चा नहीं, पिता नहीं, माता नहीं - सारे बुर्जुवा संबंधों को समाप्त करने के निर्देश दिए गए। कम्युनिस्ट देशों में कम्यून्स की स्थिति पशुओं के बाड़े के समान हो गई, सब एक-दूसरे से समागम करने लगे। प्रजनन उत्पादन का एक रूप हो गया। जो भी बच्चे पैदा हुए उनपर किसी का मातृत्व या पितृत्व नहीं माना गया। सबके सब राज्य की संपत्ति बन गए। बच्चे का सीधा संबंध राज्य से था। राज्य ही उसके लालन-पालन और भविष्य के लिए जिम्मेदार था। जब निज का परिवार ही नहीं तो निज की संपत्ति कहां से आएगी! इस तरह उत्पादन के साधन तो राज्य के हाथ में गए ही किसानों को भी जमीन, हल, बखर, पशु आदि का मालिक मानकर उन्हें भी अन्तिम बुर्जुआ मान लिया गया। इन सिद्धान्तों के क्रियान्यवन में दो काम मुख्य रूप से किए गए - पहला उद्योगों का सरकारीकरण और दूसरा खेती का सामूहिकीकरण। खेती के सामूहिकीकरण का प्रत्येक कम्युनिस्ट देश में प्रबल विरोध हुआ जिसे बड़ी निर्ममता से कुचला गया और इस प्रक्रिया में रूस में एक करोड़ तथा चीन में दो करोड़ किसानों को मौत के घाट उतार दिया गया। 
इस सारी प्रक्रिया में मानव जीवन की संवेदना और मौलिक सिद्धान्त को आंखों से ओझल कर दिया गया कि मनुष्य अपनों के लिए ही सारा कष्ट उठाता है। जिसके साथ अपनापन ही नहीं, उसके साथ कार्य करने की प्रेरणा ही नहीं होती। अतः कम्यून्स और सामूहिकीकरण की योजनाएं पूरी तरह असफल रहीं। जनता जमीन को परती छोड़ शहर की ओर भागी। रूस में एक लाख गांव उजड़ गए और अस्सी लाख हेक्टेयर जमीन परती छोड़ दी गई। रूमानिया में चाउसेस्कू ने ८००० गावों को उजाड़कर उन्हें शहरी आबादी में बदलने का प्रयत्न किया जिससे जनता पर अधिक और अच्छा नियंत्रण किया जा सके। किन्तु उसने खेती चौपट कर दी। भारत के प्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता सी. राजेश्वर राव ने भी स्वीकार किया कि खेती का सामूहिकीकरण करने से मज़दूर नियमानुसार बेमन से केवल ७ घंटे काम करते थे और वह भी सप्ताह में ५ दिन। खेती का सामान्य जानकार भी यह स्वीकार करेगा कि इससे खेती के नष्ट होने के अतिरिक्त कोई परिणाम नहीं निकल सकता। रूस में ख्रुश्चेव के समय ही कृषि में उत्पादन इतना घट गया कि देश में भयंकर अन्न संकट उपस्थित हो गया। विदेशों से अन्न आयात करना पड़ा। सरकार ने घर के आस-पास की कुछ जमीन इच्छुक परिवारों को Kitchen land रूप में देकर एक नया प्रयोग शुरु किया। परिणाम आश्चर्यजनक थे। प्रथम वर्ष ही कुल राष्ट्रीय उत्पाद का ६०% Kitchen land से आया तथा शेष ४०% पूरे देश में बड़े स्तर पर स्थापित सामूहिक कृषि फार्मों से। रूस में ही kithen land के साथ Pocket money की भी शुरुआत हुई। बाज़ार पुनः अस्तित्व में आए। किसानों को यह स्वतंत्रता दी गई कि Kitchen land  के अपने अतिरिक्त उत्पादों को वे बाज़ार में बेच सकते थे और इस तरह से प्राप्त धन को pocket money के रूप में उपयोग में ला सकते थे।
क्रमशः

Tuesday, May 29, 2012

कम्युनिज्म का अन्तर्द्वन्द्व, विरोधाभास और विफलता-१




कम्युनिज्म का उदय मानवीय संवेदनाओं के संरक्षण के लिए हुआ था।पूरे विश्व में उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के दौरान औद्योगिक क्रान्ति ने उत्पादन तो बढ़ाया किन्तु मजदूरों की दशा को अत्यन्त दयनीय बना दिया। कार्ल मार्क्स इससे द्रवित हुए। उनके लंबे अध्ययन और चिन्तन से कम्युनिज्म का जन्म हुआ। उन्होंने अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त खोज निकाला जिसके अनुसार किसी कच्चे माल को मजदूर जब अपने श्रम से पक्के माल में बदल देता है, तब उसकी जो मूल्य वृद्धि होती है, वह श्रमिक को न मिलकर पूंजीपति के हाथों में चली जाती है और इस प्रकार मजदूर का शोषण होता है। उन्होंने कहा कि उत्पादन के साधनों का स्वामित्व निजी हाथों से छीनकर समाज अर्थात शासन के हाथों में दे देना चाहिए। साथ में उन्होंने यह भी कहा कि जनतंत्रीय शासन व्यवस्था में पैसों के बलपर पूंजीपति शासन पर कब्जा कर लेते हैं, इसलिए ऐसे शासन के हाथों स्वामित्व देने पर भी मजदूरों की स्थिति में कोई अन्तर नहीं आयेगा। अतः मजदूरों को संगठित कर हिंसक क्रान्ति द्वारा मजदूरों की सरकार स्थापित करनी होगी। ऐसी क्रान्ति के लिए उन्होंने मजदूरों को ही सबसे उपयुक्त माध्यम पाया क्योंकि उनके पास बेड़ियां छोड़कर अपना कहने के लिए कुछ नहीं होता। साथ ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त का निरुपण कर उन्होंने बताया की जनतंत्र के विरुद्ध होकर पूंजीवाद का ढहना और कम्युनिज्म का आना एक अनिवार्य ऐतिहासिक प्रक्रिया है। अर्थात सबसे अन्त में कम्युनिज्म का आना अवश्यंभावी है।
यह सत्य है कि मार्क्स ने संसार के समक्ष एक शास्त्रीय चिन्तन दिया। उसमें कई गतिशील और विकासशील विचार (Dynamic and developing)  और विचार-प्रणाली(Way of thinking) है। मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद (Materialistic dialecticism)  में परिवर्तन अवश्यंभावी माना गया है। यदि ऐसा मान लिया जाय तो उसमें परिवर्तन हो सकता है लेकिन मार्क्स के विचारों को वाद (Ism) मान लेने पर मार्क्स का पूरा साहित्य बन्द किताब में बदल जाता है और उसमें ढेर सारी त्रुटियां दृष्टिगत होती हैं। समय के प्रवाह के साथ वही हुआ जो मार्क्स नहीं चाहते थे। स्वयं मार्क्स का एक वाक्य है - Thanks God, I am not a marxist - ईश्वर को धन्यवाद कि मैं मार्क्सवादी नहीं हूं। लेकिन उनके ही अनुयायियों ने उनके विचारों को संकलित कर इसे वाद(Ism) का रूप दे डाला, जो मार्क्स के साथ भारी अन्याय है। कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को एक मजहब बना डाला। उन्होंने मजहब की सारी शर्तों(Characteristics) को मार्क्स के विचारों में समाहित कर दिया। मजहब की पवित्र पुस्तक कुरान या बाइबिल की तरह एक किताब रहे, मोहम्मद साहेब या ईसा मसीह की तरह एक मसीहा रहे, कम्युनिस्टों ने इसकी पूरी व्यवस्था कर डाली। मजहबी पुस्तक के स्थान पर उन्होंने दास कैपिटल(Dass Capital) और पैगंबर के स्थान पर मार्क्स को प्रतिष्ठित कर डाला। सात स्वर्गों के स्थान पर कम्युनिज्म की उच्चत्तम अवस्थाओं(Hyper phases of Communism) की कल्पना दी जो बिल्कुल स्वर्ग के समान है, जहां सबको सबकुछ मिलेगा। इसके लिए उन्होंने एक अल्ला भी बताया - द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद(Materialistic Dialecticism). इस तरह एक मसीहा, एक धर्मग्रन्थ, एक स्वर्ग, एक अल्ला - इन सारे मजहब के तत्त्वों को मार्क्सवाद पर लागू किया गया।
कार्ल मार्क्स ने विश्व साहित्य, विज्ञान, दर्शन, इतिहास और व्यवस्था पर गंभीर अध्ययन और चिन्तन किया था। उन्होंने जो आधारभूत सिद्धान्त प्रतिपादित किए उनका आधार वैश्विक दर्शन है जिसे अंग्रेजी में Cosmology  कहते हैं। यह जो सारा अस्तित्व है जिसे विश्व या ब्रह्माण्ड कहते हैं, उसके विषय में जो नियम हैं उनको वैश्विक दर्शन या Cosmology कहा जाता है। इसमें तीन प्रश्नों के उत्तर में  समस्त समाधान है - १. सारा अस्तित्व कहां से निकला, २. किधर जा रहा है और ३. जाने का क्या रास्ता है - Whence, Whither and How?  मार्क्स ने इन तीनों प्रश्नों के उत्तर विज्ञान और दर्शन से प्राप्त किए। उनपर न्यूटन, डार्विन और हेगेल का प्रबल प्रभाव था।
अस्तित्व के जन्म का सिद्धान्त - सारा अस्तित्व कहां से निकला - मार्क्स ने न्यूटन से प्राप्त किया। न्यूटन ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया था कि यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड पदार्थ से निकला है। जड़-द्रव्य या भौतिक-द्रव्य ही सबकुछ है। यही मौलिक, मूलभूत या बेसिक है। मार्क्स ने इस सिद्धान्त को ज्यों का त्यों स्वीकार किया। उस समय ऐसा लगा कि मार्क्स ने अबतक अनुत्तरित रहे प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कर दिया। लेकिन कुछ ही समय बाद यह सिद्धान्त वैज्ञानिक आधार पर ध्वस्त हो गया जब आइन्स्टीन ने द्रव्य के ऊर्जा में रूपान्तरण और ऊर्जा के द्रव्य में रूपान्तरण का अनोखा सिद्धान्त प्रतिपादित किया। E=mc2 के सिद्धान्त ने संसार के सारे वैज्ञानिकों को मानने के लिए विवश कर दिया कि द्रव्य और ऊर्जा एक दूसरे में परिवर्तनीय हैं - Energy and matter are interconvertable. यह सिद्ध हो गया कि द्रव्य(Matter) मौलिक चीज नहीं हो सकती है। जब दोनों एक दूसरे में परस्पर परिवर्तनशील सिद्ध हो गए तो मौलिक या बेसिक जो भी उसका स्वरूप था वह स्वतः समाप्त हो गया। इसलिए यह धारणा कि सारा अस्तित्व द्रव्य पदार्थ से निकला है, अपने आप पूरी तरह गलत सिद्ध हो गई। मार्क्स के वैश्विक दर्शन को वैज्ञानिक आधार पर पहला धक्का आइन्स्टीन ने पहुंचाया।
वैश्विक दर्शन के दूसरे महत्त्वपूर्ण प्रश्न - सारा अस्तित्व किधर जा रहा है का उत्तर जीव विज्ञान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन ने दिया था। उनका कहना था कि सारा अस्तित्व उत्क्रान्ति(Evolution) की ओर जा रहा है। मार्क्स ने जीव विज्ञान का यह सिद्धान्त वहां से उठाकर अपने वैश्विक दर्शन में समाहित कर लिया और कहा कि यह द्रव्य पदार्थ की उर्ध्वगामी गति है और द्रव्य उत्क्रान्ति की ओर बढ़ता जा रहा है (This is upward movement of matter).
स्वयं डार्विन को अपने जीवन काल में ही यह सन्देह हो गया था कि वास्तव में क्या सारा अस्तित्व अनिवार्य रूप से उत्क्रान्ति की ओर जा रहा है? जीव-विज्ञान में बाद में जो शोध-कार्य हुए उसमें सिर्फ उत्क्रान्ति (Evolution) की धारणा में परिवर्तन स्वीकार किए गए। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया कि उत्क्रान्ति(Evolution) के साथ अपक्रान्ति(Involution) की क्रिया भी होती है। यह सिद्धान्त कि सबकुछ केवल उत्क्रान्ति की ओर बढ़ रहा है, गलत सिद्ध हुआ। इस नए सिद्धान्त के कारण उत्क्रान्ति(Evolution) के संबंध में मार्क्स के वैश्विक दर्शन का दूसरा स्तंभ भी ध्वस्त हो गया।
वैश्विक दर्शन के तीसरे प्रश्न कि अस्तित्व के जाने का रास्ता क्या है, इसका उत्तर मार्क्स ने अपने से वरिष्ठ तत्त्वज्ञ हेगेल की विरोध-विकासवाद(Dialecticism) की अवधारणा से प्राप्त किया। दर्शन शास्त्र से हेगेल के चिन्तन को निकालकर मार्क्स ने अपने वैश्विक दर्शन का अंग बना लिया और एक सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया। मार्क्स ने कहा कि विरोध-विकासवाद(Dialecticism) के माध्यम से जड़-पदार्थ(Matter) का विकास होता है। Dialecticism को विस्तार से समझने की आवश्यकता है क्योंकि कम्युनिज्म में इसका महत्त्व सर्वाधिक है।
विरोध व विकासवाद एक प्रक्रिया है। सृष्टि में व्याप्त किसी भी अवस्था का उदाहरण लिया जा सकता है। जिस अवस्था पर प्रयोग किया जा रहा है उसे क्रिया(Thesis) कहा गया है। उस Thesis के पेट में उसकी विरोधी शक्तियों का निर्माण होता है जिसे प्रतिक्रिया(Antityhesis) कहा गया। Thesis और Antithesis का संघर्ष होता है। इसमें पहली चीज यानि Thesis नष्ट होता है और तीसरी चीज का निर्माण होता है, जिसे Synthesis कहा गया है। कालान्तर मे Synthesis स्वयं Thesis बन जाता है और Antithesis का सामना करता है। एक उदाहरण से यह सिद्धान्त और स्पष्ट हो जाएगा।
मुर्गी के सामान्य अण्डे को Thesis माना जा सकता है। उसके पेट में प्राणशक्ति निर्मित होती है जिसे Antithesis कहा जा सकता है। दोनों का संघर्ष होता है, अण्डा नष्ट होता है और Synthesis के रूप में चूजा निकलता है। किसी भी वृक्ष का बीज Thesis है, उसके पेट की प्राणशक्ति Antithesis है। दोनों का संघर्ष होता है जिसके परिणामस्वरूप उपर का बीज नष्ट होता है और Synthesis यानि अंकुर निकल आता है। इस तरह यह प्रक्रिया चलती रहती है। यह Synthesis आगे चलकर पुनः स्वयं Thesis बन जाता है।
मार्क्स ने हेगेल से विरोध-विकासवाद (Dialecticism) का सिद्धान्त लिया। यह भारतीय दर्शन में वर्णित ‘कालचक्र’ के सिद्धान्त का आंशिक रूपान्तरण है। हेगेल भारतीय दर्शन के अच्छे अध्येता थे। उनके मस्तिष्क में विरोध-विकासवाद का  विचार भारतीय सांख्य-दर्शन से आया, यह एक स्वीकृत तथ्य है।
विरोध-विकासवाद का रास्ता? इस प्रक्रिया के अनुसार पूंजीवाद Thesis है। उसके पेट में उपभोक्ताओं और मजदूरों का असंतोष Antithesis के रूप में पलता है। दोनों के संघर्ष में पूंजीवाद के रूप में जो Thesis है, वह नष्ट होता है और साम्यवाद रूपी Synthesis का निर्माण होता है। प्रत्येक Synthesis कुछ समय के बाद Thesis बन जाएगा और पुनः उससे Antithesis संघर्ष करेगा, मार्क्स ने इसकी कल्पना नहीं की थी। बहुत कम समय में ही लगभग आधी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में रखने वाला कम्युनिज्म स्वयं Thesis बन गया, जनता के प्रबल विरोध ने Antithesis का काम किया और Synthesis के रूप में मार्क्सवाद या साम्यवाद आज विश्व में कहीं नहीं रह गया है। विज्ञान ने भी मार्क्स के वैश्विक दर्शन के सिद्धान्तों को झुठला दिया। विज्ञान कहता है कि कोई भी वस्तु नष्ट नहीं होती है, बस उसका रूपान्तरण होता है। जमीन में दबा बीज नष्ट नहीं होता, एक पेड़ के रूप में उसका रूपान्तरण अवश्य होता है। इसी प्रकार पानी, बर्फ़ या बादल में परिणत हो जाता है, नष्ट नहीं होता। ठीक इसी तरह पदार्थ ऊर्जा में तथा ऊर्जा पदार्थ में परिवर्तनीय हैं। पदार्थ को नष्ट नहीं किया जा सकता। विज्ञान का यह सिद्धान्त हिन्दू-दर्शन के शाश्वत सिद्धान्त की पुष्टि करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में आधारभूत सिद्धान्त के विषय में कहा गया है - नाऽसतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः - अनास्तित्व से अस्तित्व आ नहीं सकता और अस्तित्व स्वयं को अनास्तित्व में परिणत नहीं कर सकता।
‘Out of non existence, existence cannot emerge and existence cannot culminate itself into non existence.'
कम्युनिस्टों द्वारा संचालित मजदूरों का आन्दोलन, बोनस, महंगाई भत्ता, वेतनवृद्धि की लडाई और इनके माध्यम से वर्ग-संघर्ष का प्रतिपादन मार्क्स के वैश्विक दर्शन का उप उत्पादन (Byproduct) है। ये सभी विरोध-विकासवाद (Dislecticism) के ही उपसिद्धान्त हैं। इस तरह मार्क्स के विचारों के आधार को ही विज्ञान ने ध्वस्त कर दिया है। अब विज्ञान के कारण कम्युनिस्टों के लिए यह कहना कठिन हो गया है कि मार्क्स ने जो कुछ भी कहा है वह अक्षरशः सही है।
                                                                                                                                            क्रमशः

Monday, May 14, 2012

हिन्दुत्व और विश्व बंधुत्व





      वेदान्त का सर्वविदित सूत्र है - एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति - एक ही सत्य विद्वान अनेक तरह से कहते हैं। बाइबिल में भी सत्य है, कुरान में भी सत्य है, वेदों में भी सत्य है। ये सभी सत्य अन्त में जाकर परम सत्ता के परम सत्य में विलीन हो जाते हैं। यह कहना कि मेरे ग्रन्थ में प्रतिपादित सत्य ही अन्तिम सत्य है, बाकी सब मिथ्या, घोर अज्ञान है। आज दुनिया में फैली अशान्ति और हिंसा का यही मूल कारण है। इतिहास साक्षी है कि इस विश्व में जितना नरसंहार धर्म के नाम पर हुआ है, उतना प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध और हिरोशिमा-नागासाकी पर अणु बम के प्रहार से या किसी सुनामी से नहीं हुआ है। एक सुशिक्षित, सभ्य और विकसित विश्व में क्या पुनः धर्म के नाम पर खून की नदियां बहाने की इज़ाज़त दी जा सकती है? ईश्वर करे, वह दिन कभी न आए। यह प्रकृति जिसने हम सभी को बनाया है, वही जब चाहे, जैसे चाहे हमारा विध्वंश करे, यह तो स्वीकार है, लेकिन इस विध्वंश की जिम्मेदारी किसी मनुष्य पर आए, कम से कम मैं यह नहीं चाहता। तकनिकी दृष्टि से आज पूरा विश्व एक गांव जैसा हो गया है, लेकिन गांव के परस्परावलंबन और शान्तिपूर्ण सह  अस्तित्व के सिद्धान्त का पालन करने की दिशा में हम अग्रसर हैं क्या? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका समय रहते उत्तर अपेक्षित है।

      गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो भी, जैसे भी, जिस रूप में मेरे पास आता है, मैं उसे उसी रूप में स्वीकार करता हूं, क्योंकि इस ब्रह्माण्ड के सारे रास्ते, चाहे वे कितने भी अलग-अलग क्यों न हों, मुझमें (परम सत्य) ही आकर मिलते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो की धर्मसभा के उद्घाटन भाषण में गीता का संदर्भ देते हुए जब श्रीकृष्ण की उपरोक्त उक्ति दुहराई, तो हाल तालियों कि गड़गड़ाहट से गूंज उठा। सबके लिए यह रहस्योद्घाटन सर्वथा नया था। उनके संबोधन के दौरान दो बार जबर्दस्त करतल ध्वनि हुई - पहली बार जब उन्होंने उपस्थित जन समुदाय को Sisters and brothers of America कहकर संबोधित किया और दूसरी बार जब गीता की उपरोक्त सूक्ति का भावार्थ अपनी ओजपूर्ण वाणी में प्रस्तुत किया। ये दोनों चीजें शेष विश्व के लिए नई थीं लेकिन भारत और विशेष रूप से हिन्दुओं के लिए चिरपरिचित थीं और हैं। विश्व को एकता, भाईचारा, शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व, समानता और सौहार्द्र के मज़बूत धागे में पिरोकर एक सुन्दर पुष्पहार बनाने की क्षमता मात्र हिन्दू धर्म में है।

      गीता के उपदेशों का भारत पर इतना गहरा प्रभाव था कि भारतवर्ष में अनेक संप्रदायों के जन्म और विस्तार होने के बाद भी परस्पर सांप्रदायिक सद्भाव था। जबसे कुछ विदेशी हमलावरों ने हिंसा के द्वारा जबर्दस्ती अपना संप्रदाय दूसरों पर थोपना शुरु किया, तबसे सांप्रदायिकता का जन्म हुआ। भारतवर्ष में धर्म सर्वव्यापक था। हिन्दू धर्म ने सभी प्राणियों को समान अवसर देते हुए, सम्मान के साथ जीने की व्यवस्था दी है। धर्मान्तरण को किसी रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं -

      श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात।

      स्वधर्मे निधनम श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥”

      अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय देनेवाला है।

      सर्वधर्म समभाव के सिद्धान्त को हिन्दू अपने जन्म से पाए संस्कार के कारण स्वभाविक रूप से स्वीकार करता है। उसे तनिक भी भय नहीं है कि अज़मेर शरीफ़ पर चादर चढ़ाने से वह विधर्मी घोषित किया जा सकता है। ऐसा हो भी नहीं सकता क्योंकि यहां फ़तवा जारी करने की न तो परंपरा है और न स्वीकार्य है। ईश्वर की परम सत्ता में उसे अटूट श्रद्धा और विश्वास है। वह मज़ार पर जा सकता है, गुरुद्वारा में अरदास कर सकता है, चर्च में प्रार्थना कर सकता है, बौद्ध मठ में ध्यान लगा सकता है और वापस लौटकर मन्दिर में निर्विघ्न पूजा भी कर सकता है। उसे यह बताने कि आवश्यकता नहीं कि ईश्वर एक है और सर्वव्यापी है। मज़ार पर चादर चढ़ाने या चर्च में प्रार्थना करने मात्र से वह धर्मभ्रष्ट नहीं हो सकता। क्या ऐसी छूट ईसाइयत या इस्लाम दे सकते हैं? कदापि नहीं। हिन्दू धर्म अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण मानव धर्म या विश्व धर्म प्राप्त करने कि पात्रता स्वयमेव प्राप्त कर लेता है। स्वामी विवेकानन्द ने इसकी स्पष्ट घोषणा की थी कि आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों, जब दुनिया तमाम धार्मिक संघर्षों से ऊबकर चिरस्थायी शान्ति के लिए  दृष्टि उपर उठाएगी, तो वह भारत पर आकर ही ठहरेगी। निश्चित रूप से भारतवर्ष और हमारा हिन्दू धर्म ही विश्व और संपूर्ण मानवता को वांछित समाधान देगा, क्योंकि हिन्दुत्व ही विश्व बन्धुत्व का संदेशवाहक है।

      विश्व के सभी धर्म महान हैं। देश काल और तात्कालीन परिस्थिति के अनुसार उनमें नियम और उपनियम बनाए गए, जो उस विशेष समय के लिए उचित भी थे लेकिन बदलते समय के अनुसार वे अपने में किसी भी तरह का परिवर्तन करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे सभी से अपनी पुस्तक में वर्णित नियमों और उपनियमों के पालन की अपेक्षा रखते हैं, अन्यथा की स्थिति में उन्हें जबर्दस्ती तलवार के बल पर दूसरों पर अपना धर्म थोपने की सब प्रकार की छूट है। वस्तुतः धर्म होने की अर्हताएं हिन्दू धर्म के अतिरिक्त, कोई दूसरा धर्म पूरा ही नहीं करता। एक पुस्तक और एक देवदूत को ही अन्तिम सत्य मानने वाले एक संप्रदाय विशेष का निर्माण तो कर सकते हैं, धर्म का नहीं। धर्म बड़ा व्यापक शब्द है। इसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता। जो भी अच्छा धारण करने योग्य है, वह धर्म है। हिन्दुत्व अच्छे कर्त्तव्य को भी धर्म की संज्ञा दी गई है - राजा के लिए राजधर्म, प्रजा के लिए प्रजाधर्म, पिता के लिए पितृधर्म, पुत्र के लिए पुत्रधर्म, देवता के लिए देवधर्म और मानव के लिए मानव धर्म। हिन्दू धर्म के अतिरिक्त, संप्रदाय होने के कारण, किसी भी धर्म में समग्र चिन्तन का अभाव स्पष्ट दीखता है। सबने खण्ड-खण्ड में चिन्तन किया है लेकिन संपूर्ण पृथ्वी को अपना कुटुंब या परिवार मानने का आह्वान बिना धर्म परिवर्तन के किसी ने भी नहीं किया है।

      “अयं निज परोवेति गणना लघुचेतसाम।

      उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम ॥”

      यह मेरा है, वह तेरा है, ऐसा छोटे चिन्तन वाले कहते हैं; उदार चरित्र और चिन्तन वालों के लिए तो समस्त पृथ्वी ही एक परिवार है।

      क्या उपरोक्त सूत्र की व्याख्या की आवश्यकता है? दो पंक्तियों में हिन्दू मनीषियों ने विश्व की समस्त समस्याओं का समाधान दे दिया है।

      इस संसार के समस्त मानवों को कैसा होना चाहिए - उनका आचरण कैसा होना चाहिए, उनका चिन्तन कैसा होना चाहिए और उनका विकास किस तरह होना चाहिए, संपूर्ण संस्कृत वांगमय इसी की चर्चा करता है। हिन्दू धर्म का उद्देश्य न तो किसी साम्राज्य की स्थापना है और ना  ही अनावश्यक विस्तार। इसने मनुष्य को एक पूर्ण इकाई माना है और उसका विकास ही इसका परम उद्देश्य है। मनुष्य के विकसित होते ही सारी समस्याओं का समाधान अपने आप निकल आता है। सारे वेद, पुराणों और उपनिषदों का कालजयी सार संपूर्ण मानवता के लिए महर्षि वेद व्यास ने निम्नलिखित श्लोक की दो पंक्तियों में भर दिया है -

      अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम।

      परोपकारम पुण्याय पापाय परपीडनम॥”

                                         परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुःख पहुंचाना सबसे पड़ा पाप।

      पाप और पुण्य की संपूर्ण मानवता के हित के लिए इतनी सरल और व्यापक व्याख्या अन्यत्र दुर्लभ है। अगर सभी इसे हृदयंगम कर लें और अपने आचरण में उतार लें, तो क्या पूरे विश्व में कहीं भी हिंसा के लिए तनिक भी स्थान शेष रह जाएगा? विश्व बन्धुत्व के लिए किसी भी मनीषी द्वारा प्रतिपादित यह सबसे महत्वपूर्ण, उल्लेखनीय और अनुकरणीय सूत्र है।

      एक सच्चे विद्वान या इन्सान के आवश्यक गुणों का वर्णन करते हुए हिन्दू धर्म शास्त्रों में कहा गया है -

      “मातृवत परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत।

      आत्मवत सर्वभूतेषु य पश्यन्ति स पण्डितः॥”

      दूसरे की स्त्रियों को माता के समान, दूसरे के धन को मिट्टी के ढेले के समान और संसार के सभी प्राणियों को अपने समान जो देखता और मानता है, वही विद्वान है, पण्डित है, इन्सान है।

      दुनिया की सारी अशान्ति, अराजकता और असंतोष का समाधान उपरोक्त सूक्ति में है। मनुष्य में इन सद्गुणों की जो कल्पना की गई है वह पूजा पद्धति और विचारधारा के बंधनों से सर्वथा मुक्त है। एक सच्चा हिन्दू, सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रार्थना करते हुए किसी भौतिक उपलब्धि की याचना नहीं करता। वह कहता है -

      “हे प्रभो, आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिए,

      लीजिए अपनी शरण में, हम सदाचारी बनें,

      ब्रह्मचारी, धर्मरक्षक, वीर, व्रतधारी बनें।”

      स्वयं यानि व्यष्टि के लिए परमात्मा की शरण और ज्ञान की कामना करते हुए एक सनातनी हिन्दू समष्टि के हित की भी कामना अपने हृदय के अन्तस्तल से करता है -

      “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे शन्तु निरामयाः।

      सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चितदुःखभाग्भवेत॥”

            ऊँ शान्तिः  शान्तिः शान्तिः।

      सभी सुखी हों, सभी निरापद हों, सभी शुभ देखें, शुभ सोचें; कोई कभी भी दुःख को प्राप्त न हो। वह सबके लिए शान्ति की कामना करता है। इसीलिए एकमात्र हिन्दुत्व ही विश्व बन्धुत्व लाने में सक्षम है।

     

Thursday, May 10, 2012

इस्लाम और ज़िहाद




      अपने आरंभिक दिनों में इस्लाम धर्म एक उदारवादी, सुधारवादी, मानवतावादी और प्रगतिशील धर्म के रूप में दुनिया के सामने आया। यही कारण था कि अत्यन्त अल्प समय में यह विश्वव्यापी हो गया। यह सत्य है कि इसके विस्तार के लिए सत्ता और तलवार का सहारा लिया गया लेकिन यह भी सत्य है कि धर्म परिवर्त्तन के बाद भी जिस दृढ़ता के साथ इसके अनुयायियों ने इसके साथ अपने को संबद्ध रखा, उसके पीछे कोई न कोई आकर्षण तो रहा ही है।
      इस्लाम की स्थापना पैगंबर मुहम्मद साहब ने की थी। जिस समय मुहम्मद साहब क जन्म हुआ, उस समय उस क्षेत्र में ईसाई, यहुदी, सनातन और बौद्ध धर्म का प्रभाव था। मुहम्मद साहब का जन्म ५७० ईस्वी में अरब के मक्का नगर में हुआ था। उनका संबन्ध कुरैश कबीला से था। मक्का के प्रसिद्ध तीर्थस्थल की देखरेख इसी कबीले के सरदार करते थे। इस कबीले के लोग व्यापार भी करते थे जिसके कारण पूरे क्षेत्र में सबसे संपन्न और दबदबा वाले माने जाते थे। मुहम्मद साहब के पिता उनके जन्म के पहले ही स्वर्गवासी हो चुके थे, माता का प्यार और स्नेह भी उन्हें बहुत दिनों तक नहीं मिला। बचपन के आरंभिक दिनों में ही उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। उनका लालन-पालन उनके चाचा ने किया। बचपन से ही वे अन्तर्मुखी थे। सांसारिकता में उनका मन कम ही लगता था। वे अक्सर मक्का की पहाड़ियों में सैर के लिए निकल जाते थे और घंटों, कभी-कभी तो कई दिनों तक गुफ़ाओं में बैठकर साधना किया करते थे। सन ६१० में उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। यह घटना हिन्दू ऋषि-मुनियों द्वारा घोर तपस्या से ज्ञान प्राप्त करने की घटनाओं से मिलती-जुलती है। उन्हें मक्का की गुफ़ाओं में ही देवदूत गैब्रिएल ने साक्षात दर्शन दिए थे। प्रथम दर्शन के बाद तो वे काफी भयभीत हो गए थे। उन्होंने पूरी घटना अपनी पत्नी को बताई। उनकी पत्नी ने उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी मुलाकात किसी भूत से नहीं, बल्कि किसी देवदूत से हुई है। खुदा अपने दूत के माध्यम से उन्हें कोई पैगाम देना चाहता है। पत्नी की बात सच निकली मुहम्मद सहब को समय-समय पर अपनी तपस्या के दौरान गैब्रिएल के माध्यम से ईश्वर का संदेश प्राप्त होता रहा जिसे वे अपने शिष्यों को सुनाते रहे। सन ६३२ में उनकी मृत्यु के बाद समस्त संदेश शिष्यों द्वारा लिपिबद्ध किए गए जिसे पवित्र कुरान कहते हैं। आरंभ के दिनों में सन ६१३ तक अपने विचारों को फैलाने का कार्य वे गुप्त रूप से करते थे। बाद में उन्हें सामान्य जन में भी अपने विचारों के प्रचार-प्रसार का खुदाई आदेश प्राप्त हुआ और उन्होंने पूरी निष्ठा और दृढ़ता से खुदा के आदेश का पालन किया। लेकिन यह काम आसान नहीं था। उन्हें स्थानीय लोगों और पहले से विद्यमान धर्मावलंबियों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। अपने कठिन श्रम और कुशल नेतृत्व के बावजूद भी पैगंबर साहब मक्का में १५० से अधिक शिष्य नहीं बना सके। मक्का के पवित्र तीर्थस्थल पर अपना नियंत्रण स्थापित कर वे वहां से इस्लाम का प्रचार करना चाहते थे, परन्तु इसमें वे उस समय सफल नहीं हो सके। लेकिन उन्होंने हौसला नहीं छोड़ा। उन्होंने मक्का छोड़ दी और सन ६२२ में मदीना को अपनी कर्मभूमि बनाई। यहां उन्हें अनुकूल परिस्थितियां मिली। उनके शिष्यों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई। इससे प्रेरित हो उन्होंने मदीना में पह्ले इस्लामी राज्य की स्थापना की। पश्चात उन्होंने पड़ोसी क्षेत्रों को भी अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। अन्त में उन्होंने मक्का पर भी सन ६३० में विजय प्राप्त की और इस तरह पूरे अरब क्षेत्र के मालिक बन बैठे। संपूर्ण अरब जगत का इस्लामी करण कर वे उस क्षेत्र के निर्विवाद धार्मिक नेता स्वयमेव बन गए। सन ६३२ में उनका देहान्त हो गया। उसके बाद भी उनके शिष्यों ने अनेकों देशों को जीतने का व्यापक सैन्य अभियान चलाया और अधिकांश में सफलता भी प्राप्त की। विजित देशों के नागरिकों का जबरन धर्म-परिवर्तन कर इस्लाम अनुयायियों की संख्या में जबर्दस्त वृद्धि की। आज विश्व में इस्लाम धर्म को मानने वालों की संख्या २०% है।
      आरंभ में इस्लाम उदारवादी धर्म था। इस्लाम का अर्थ ही होता है शान्ति और अल्लाह के प्रति पूर्ण समर्पण। कुरान के अनुसार इस्लाम के पांच प्रमुख स्तंभ हैं -
      १. ईमान (विश्वास) - एकमात्र ईश्वर के रूप में अल्लाह पर पूर्ण विश्वास।
      २. नमाज़ (पूजा,प्रार्थना) -  प्रतिदिन पांच बार नमाज़ पढ़ना।
      ३. ज़कात (दान) - सामाजिक कल्याण एवं गरीबों के लिए
      ४. रोज़ा - रमज़ान के महीने में आत्मशुद्धि के लिए उपवास
      ५. हज़ - पवित्र तीर्थस्थल मक्का की तीर्थयात्रा
      जबतक इस्लाम के ये पांच स्तंभ प्रचलन में थे, तबतक यह शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व में विश्वास करने वाला धर्म बना रहा लेकिन जैसे ही ज़िहाद के रूप में इसके छ्ठे स्तंभ की परिकल्पना उभर कर आई यह गैरमुस्लिमों के लिए आक्रामक और खतरनाक हो गया। एक सच्चे मुसलमान के लिए यह अनिवार्य है कि वह -
      १. एक ईश्वर, जिसे अल्लाह कहते हैं, में ही विश्वास करे।
      २. उस देवदूत में विश्वास करे जिसने अल्लाह के संदेश को पैगंबर साहब       तक पहुंचाया।
      ३. मुहम्मद साहब को अन्तिम पैगंबर के रूप में स्वीकार करे।
      ४. ईश्वरीय पुस्तक के रूप में कुरान पर विश्वास करे।
      ५. न्य़ाय के दिन पर विश्वास करे।
      उपरोक्त निर्देशों में से किसी एक को भी न माननेवाला सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त ईश्वर, अल्लाह, गाड को एक  या पुनर्जन्म या मूर्तिपूजा को माननेवाला भी सच्चा मुसलमान नहीं हो सकता। ऐसा सोचना या करना भी कुफ़्र (महापाप) है जो इस्लाम में सबसे बड़ा अपराध है। जो इस्लाम में वर्णित निर्देशों को नहीं मानता वह काफ़िर है और उसे जीवित रहने का कोई अधिकार नहीं है। अतः एक सच्चे मुसलमान का कर्त्तव्य है कि ऐसे लोगों को समझा बुझा कर अपने धर्म में दीक्षित करें। ऐसा न हो पाने की स्थिति में उसे समाप्त कर दिया जाय। इसी कार्य को आजकल ज़िहाद कहा जाता है जिसे इस्लामी आतंकवादियों ने अपने आदर्श के रूप में ग्रहण किया है।
      इस्लाम के घातक हथियारों के समूह में यह सबसे प्रभावी और समयानुसार प्रयोग में आनेवाला अस्त्र है। इस्लाम के कट्टर विद्वानों के शब्दकोश में यह इस्लाम का मूल तथा सबसे सम्मानजनक शब्द है। इस शब्द का एक और अर्थ   उदारपंथियों ने दिया है - ईश्वर के पवित्र कार्य को बढ़ाने के लिए पवित्र संघर्ष।
      कुरान की अधिकांश आयतें मुहम्मद साहब द्वारा मक्का में प्राप्त अल्लाह के संदेशों का संग्रह है। इसमें ११४ सूरा (अध्याय) और ६२०० आयतें हैं। लेकिन आश्चर्यजनक ढ़ंग से इसमें से मात्र तीन या चार आयतों, २५.५२, २९.६, २९.८, २९.६९ में ज़िहाद का उल्लेख मिलता है। इनमें ज़िहाद का अर्थ है कुरान की मदद से अपने विचारों के विस्तार के लिए संघर्ष लेकिन प्रवचन और तर्क के द्वारा, तलवार के द्वारा नहीं। हदीस के अनुसार पैगंबर साहब के शब्दों में, हज़ जैसी तीर्थयात्रा सर्वश्रेष्ठ ज़िहाद है। यहां ज़िहाद पूर्णतः अहिंसक नज़र आता है जिसका उद्देश्य एक मुसलमान का आध्यात्मिक विकास है।
      आजकल विश्व के सभी इस्लामी आतंकवादी ज़िहाद के सशस्त्र आक्रामक और असहिष्णु स्वरूप के प्रति ही श्रद्धा रखते हैं। उन्हें मदरसों और ट्रेनिंग कैंपों में यही पढ़ाया भी जाता है। ज़िहाद में सफल होने पर सीधे जन्नत की प्राप्ति होती है और शहीद होने पर भी ज़न्नत ही मिलता है। यही कारण है कि देह में बम बांधकर आत्मघाती आतंकवादियों ने असंख्य हत्याएं की हैं। इस्लाम और ज़िहाद का सच्चा स्वरूप आम जनता और मुसलमानों के बीच लाने और प्रचार-प्रसार का दायित्व इस्लामी विद्वानों और देवबन्द या बरेलवी जैसे प्रतिष्ठित इस्लामी संगठनों की है, लेकिन दुर्भाग्य से इन्होंने अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया है। पूरी दुनिया को आज की तिथि में किसी एक धर्म में दीक्षित  नहीं किया जा सकता। सभी के लिए शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व ही एकमात्र विकल्प है। इस्लामी विद्वान जो भय या तात्कालिक लाभ के कारण आतंकवादियों का मौन समर्थन कर रहे हैं, वे अपने धर्म का ही नुकसान कर रहे हैं। शान्ति, सद्भावना और मनुष्यों में बराबरी के लिए स्थापित मुहम्मद साहब का यह महान धर्म कही आतंकवाद और क्रूरता का पर्याय न बन जाय, इसपर विचार करने की महान जिम्मेदारी इस्लामी विद्वानों और मुस्लिम समुदाय की है। सारी दुनिया उनकी सद्बुद्धि पर टकटकी लगाए हुए है।


     

Saturday, May 5, 2012

भारत रत्न




      ‘भारत रत्न’, भारत सरकार द्वारा कला, साहित्य, विज्ञान और निर्विवाद उच्चस्तरीय समाज सेवा के क्षेत्र में अद्वितीय योगदान के लिए प्रदान किया जानेवाला सर्वोच्च नागरिक सम्मान है। देश के अद्वितीय भौतिक वैज्ञानिक प्रो. सी. वी. रमन ‘भारत रत्न’ से अलंकृत होनेवाले प्रथम व्यक्ति थे। वे वास्तव में भारत रत्न थे। उनके कारण इस सम्मान की गरिमा बढ़ी। लेकिन इन्दिरा गांधी के आगमन के साथ ही इस सर्वोच्च सम्मान की गरिमा में ह्रास होना आरंभ हो गया। इस सम्मान का उपयोग वोट बैंक, नेहरू परिवार के प्रति वफ़ादारी और अपनों को उपकृत करने के लिए किया जाने लगा। यह सम्मान कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए था लेकिन १९९२ में प्रख्यात व्यवसायी और उद्योगपति जे.आर.डी.टाटा को इस सम्मान के लिए चुना गया। उसी वर्ष, उसी सूची में पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का नाम पद्मविभूषण प्राप्त करने वालों में शामिल था। कैसी विडंबना थी - एक समाजसेवी पद्म पुरस्कार के लिए नामित था और एक व्यवसायी जो भारत रत्न की अर्हता कही से भी पूरी नहीं कर रहा था, भारत रत्न पा गया! यह बात और है कि जनता ने कुछ ही वर्षों के पश्चात अटल जी को प्रधान मंत्री बना दिया। एक सामान्य आदमी भी अन्दाजा लगा सकता है कि ऐसा क्यों हुआ था। अटल जी को अपमानित करना ही इसका एकमात्र उद्देश्य था। के. कामराज, एम.जी.रामचन्द्रन और राजीव गांधी को भारत रत्न दिया जा सकता है लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी को नहीं। कम्युनिस्टों के दबाव में अरुणा आसफ़ अली को मरणोपरान्त १९९७ में ‘भारत रत्न’ प्रदान किया गया लेकिन क्या कभी यह सम्मान भगत सिंह, चन्द्रशेखर आज़ाद या वीर सावरकर को मरणोपरान्त ही सही, दिए जाने की कोई कल्पना कर सकता है?
      आजकल मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत साहित्य के लिए मिर्ज़ा गालिब और कला-संगीत के लिए प्रख्यात पार्श्वगायक मोहम्मद रफ़ी को भारत रत्न देने की मांग उठ रही है। मिर्ज़ा गालिब की शायरी और मोहम्मद रफ़ी की गायकी का सम्मान हर भारतीय करता है लेकिन उन्हें सांप्रदायिक आधार पर यह अलंकरण दिया जाय, यह स्वागत योग्य नहीं होगा। जब गालिब के नाम पर विचार हो सकता है, तो तुलसीदास, कालिदास, महर्षि व्यास और आदिकवि वाल्मीकि के नाम पर विचार क्यों नहीं हो सकता? मो.रफ़ी के नाम पर विचार किया जा सकता है, तो किशोर कुमार, मुकेश और कुन्दन लाल सहगल के नाम पर विचार क्यों नहीं हो सकता। इन्होंने कौन सा अपराध किया है? ये तीनों लोकप्रियता, शैली और स्वर-माधुर्य में अपने समकालीन से बीस ही पड़ते हैं, उन्नीस नहीं। मुकेश ने तो तात्कालीन राष्ट्रपति से देश के सर्वश्रेष्ठ गायक का पुरस्कार भी प्राप्त किया था। संविधान ने इस पुरस्कार के लिए समय की कोई लक्ष्मण रेखा भी नहीं खींची है।
      ‘भारत रत्न’ प्राप्त करने वाले एक ही वंश के तीन व्यक्ति हैं - जवाहर लाल नेहरू, इन्दिरा गांधी और राजीव गांधी। एक ने प्रधान मंत्री की कुर्सी के लिए देश का बंटवारा किया, दूसरी ने आपातकाल थोपकर तानाशाही स्थापित की और तीसरे ने बोफ़ोर्स तोप खरीद कर शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार की शुरुआत की। घोर आश्चर्य की बात है - अबतक इस अलंकरण से सोनिया गांधी क्यों वंचित हैं? उनमें वे सारी योग्यताएं हैं, जो इस समय यह पुरस्कार पाने के लिए आवश्यक होती हैं।
      आजकल सचिन तेन्दुलकर के लिए इस सम्मान की मांग की जा रही है। राज्य सभा की सदस्यता की भांति उनकी लोकप्रियता को भुनाने और अपने पापों को कुछ हद तक धोने के लिए यह सरकार उन्हें भी भारत रत्न दे सकती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सचिन इस सम्मान के सर्वथा योग्य प्रत्याशी हैं, लेकिन सरकार की नीयत साफ नहीं है। अपने समय की सबसे विवादास्पद अभिनेत्री, अमिताभ बच्चन की पूर्व प्रेमिका, जिसने जया बच्चन का बसा-बसाया घर उजाड़ने की अपनी ओर से जी जान से कोशिश की, के साथ सचिन को राज्य सभा के लिए नामित करना एक षडयंत्र का हिस्सा है। सचिन की आड़ में जया बच्चन की काट के रूप में रेखा को संसद में लाया गया है। क्या राज्य सभा की सदस्यता के लिए, वह भी राष्ट्रपति द्वारा नामित, चरित्र कोई मापदंड नहीं होता है? अगर क्रिकेट से ही किसी को राज्य सभा के लिए नामित करना इतना आवश्यक था, तो यह नाम सुनील गावस्कर का होना चाहिए था। सचिन अन्तर्मुखी व्यक्ति हैं, अभी नियमित खिलाड़ी हैं। वे किसी भी विषय पर अपनी टिप्पणी देने से कतराएंगे। राज्य सभा की कार्यवाही में वे नियमित रूप से भाग भी नहीं ले सकते। इसके विपरीत गावस्कर एक महान खिलाड़ी के साथ, एक अच्छे वक्ता तथा विचारक भी हैं। अगर सचिन के पहले गावस्कर ने सोनिया गांधी से मुलाकात कर ली होती, तो सचिन की जगह वे राज्य सभा के सांसद होते।
      अंग्रेजी राज में अपने वफ़ादारों को सम्मानित करने के लिए और वफ़ादारी खरीदने के लिए सर, राय बहादुर, खान बहादुर आदि उपाधियां रेवड़ी की तरह बांटी जाती थी। उम्मीद थी आज़ाद भारत में इसे समाप्त कर दिया जाएगा। लेकिन उसी परिपाटी को जारी रखते हुए स्वतंत्र भारत की सरकार ने भी पद्म पुरस्कारों और भारत रत्न सरीखे सजावटी सम्मान की व्यवस्था की। इतिहास साक्षी है कि इन उपाधियों का सदुपयोग से ज्यादा दुरुपयोग हुआ है। अब समय आ गया है -- जनता की गाढ़ी कमाई से दरबारियों को दिए जाने वाले ये अलंकरण समाप्त किए जांय।