Sunday, September 25, 2011

सुब्रह्मण्यम स्वामी > भाजपा+कांग्रेस+कम्युनिस्ट+अन्य............



कहावत है - अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। लेकिन सुब्रह्मण्यम स्वामी ने इसे झूठा सिद्ध कर दिखाया है। कुछ वर्ष पूर्व जब उन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी बैंकों में जमा अकूत धन के विषय में लेख लिखा, प्रधान मंत्री को पत्र लिखा और प्रेस कान्फ़रेन्स में अपनी बात दुहराई, तो कांग्रेसियों ने उन्हें पागल करार दिया। सरकार समर्थित मीडिया ने उन्हें अफ़वाह फैलाने वाला और सस्ती लोकप्रियता के लिए मनगढ़न्त कहानी बनाने वाला सबसे बड़ा झूठा घोषित किया। कांग्रेसियों ने डा. स्वामी के घर हमला भी किया था। लेकिन सुब्रह्मण्यम स्वामी न तो डरे और न हार मानी। २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की गंध सबसे पहले उन्होंने ही सूंघी। नवम्बर, २००८ में पौने दो लाख करोड़ रुपयों के घोटाले में संचार मंत्री सहित कई प्रभावशाली मंत्रियों और वी.आई.पी. की संलिप्तता के विषय में प्रमाण सहित उन्होंने जांच के लिए पांच चिठ्ठियां लिखीं। हमारे तथाकथित ईमानदार प्रधान मंत्री ने न कोई कार्यवाही कि और न चिठ्ठियों का कोई उत्तर ही दिया, उल्टे राजा, मारन और चिदम्बरम को क्लीन चीट दी अलग से। डा. स्वामी ने सर्वोच्च न्य़ायालय में जनहित याचिका दायर की, खुद ही बहस की और सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण रूप से संतुष्ट कर दिया कि घोटाला हुआ था। सरकार तो निष्क्रिय रही लेकिन सुप्रीम कोर्ट सक्रिय हुआ और सारा घोटाला सामने आ गया। फिर एक-एक कर कैग (CAG), सी.बी,आई, ट्राई (TRAI) और संयुक्त संसदीय समिति (JPC) ने भी घोटाले की पुष्टि की। परिणामस्वरूप पूर्व संचार मंत्री ए. राजा, करुणानिधि की बेटी और दर्जनों घोटालेबाज तिहाड़ जेल की शोभा बढ़ा रहे हैं। कोई स्वीकार करे या न करे, भ्रष्टाचार के खिलाफ़ पूरे देश में जो माहौल बना, उसके लिए जमीन सुब्रह्मण्यम स्वामी ने ही तैयार की थी। अब डा. स्वामी की बातों को कोई हल्के में नहीं लेता - न कोर्ट, न सरकार और न जनता। मीडिया का रुख अभी भी संतोषजनक नहीं है। सुब्रह्मण्यम स्वामी के अनुसार जेल में बंद ए. राजा बहुत छोटी मछली हैं। बड़ी मछलियां तो आज भी बाहर हैं। गृहमंत्री पी. चिदम्बरम और पूर्व संचार मंत्री दयानिधि मारन का इस घोटाले में बहुत बड़ा हिस्सा है। मारन को तो मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, चिदम्बरम जी जल्दी ही चित्त होने वाले हैं।
गत २१ सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट को डा. स्वामी द्वारा सौंपे गए अभिलेखों में ३० जनवरी, २००८ का वह अभिलेख भी है जिसमें चिदम्बरम ने खुली निविदा के बदले "पहले आओ, पहले पाओ" की ए. राजा की नीति का अनुमोदन किया था। ध्यान देने की बात है कि इस नीति के कारण ही दोनों अपनी मनपसन्द कंपनियों को २-जी स्पेक्ट्रम का इच्छित भाग आवंटित कर पाए जिसके कारण देश को पौने दो लाख करोड़ रुपयों का घाटा उठाना पड़ा। २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले का एक बड़ा हिस्सा राजा के अतिरिक्त चिदंबरम को भी प्राप्त हुआ था, जिसे उन्होंने विदेशी बैंक में जमा किया। इन्टरनेट पर जारी सूचना के अनुसार (Rudolf Elmer, 2.8.11, Port 9999 SSL enabled, IP 88.80.16.63) विदेशी बैंक Rothschild Bank AG के खाता संख्या 19sub में चिदंबरम के नाम से ३२००० करोड़ रुपए जमा हैं जबकि ए. राजा के विदेशी खाते में मात्र ७८०० करोड़ रुपए जमा हैं। प्रधान मंत्री अभी भी उन्हें बेदाग बता रहे हैं। चिदंबरम यदि मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दे देते हैं, तो अभी जेल जाएंगे और नहीं देते हैं अगली सरकार जेल भेजेगी।
सुब्रह्मण्यम स्वामी ने २-जी घोटाले में तीसरे और सबसे बड़े लाभार्थी के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के नाम का खुलासा किया है। उनका कहना है कि कुल घोटाले की ६०% राशि सोनिया जी और उनके रिश्तेदारों के पास गई है। सोनिया जी की बहनें, अनुष्का और नाडिया - प्रत्येक ने १८००० करोड़ रुपए पाए। उन्होंने दिनांक १५.४.११ को २०६ पृष्ठों की एक याचिका (Petition) उपलब्ध प्रमाणों के साथ प्रधान मंत्री के समक्ष दायर की है जिसके द्वारा उन्होंने सोनिया जी के खिलाफ़ मुकदमा चलाने की गुजारिश की है। उन्होंने सन १९७२ के बाद सोनिया जी द्वारा अवैध धन कमाने और भ्रष्टाचार के विवरण मज़बूत साक्ष्यों के साथ दिए हैं। स्विस पत्रिका Schweizer Illustriete (अंक ११.११.९१) का संदर्भ देते हुए यह रहस्योद्‌घाटन किया है कि उस समय यूनियन बैंक आफ़ स्विट्‌ज़रलैंड (UBS) के राजीव गांधी के खाते में २.२ बिलियन डालर जमा थे और सोनिया जी के खाते में १३००० करोड़ रुपए। प्रधान मंत्री कार्यालय से उनकी याचिका का कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ है, होगा भी नहीं। हमारे ईमानदार प्रधान मंत्री सब कर सकते हैं लेकिन सोनिया जी की नाराजगी नहीं मोल ले सकते। कुर्सी और अस्तित्व का सवाल जो है।
एक वर्ष पूर्व तक सुब्रह्मण्यम स्वामी को गंभीरता से नहीं लेने वाले उनके आलोचक भी अब उनकी बातों में गहराई तलाश रहे हैं। २-जी मामले में डा, स्वामी ने जिसपर भी ऊंगली उठाई है, उस पर घोटाला साबित हुआ है। राजा, मारन, चिदम्बरम की पोल तो खुल गई है, अब सोनिया जी की बारी है।
धुन के पक्के डा. स्वामी ने असंभव से दीखने वाले अनेक कार्य अकेले किए हैं जिसे कई संगठन मिलकर भी नहीं कर सकते थे। लोकनायक जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रान्ति से प्रेरणा प्राप्त बनी जनता पार्टी को जब उसके सारे घटक दलों ने छोड़ दिया, सुब्रह्मण्यम स्वामी ने अकेले उसका झण्डा पकड़े रखा। वे आज भी संपूर्ण क्रान्ति के लिए प्रतिबद्ध जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आह्वान पर वे हार्वार्ड युनिवर्सिटी, अमेरिका में प्रोफ़ेसर की नौकरी छोड़कर दिल्ली आए और तात्कालीन जनसंघ को सुस्पष्ट स्वदेशी आर्थिक नीति दी। इन्दिरा गांधी की तानाशाही और आपात्काल का उन्होंने प्रखर विरोध किया। सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार करने की बहुत कोशिश की लेकिन उन्हें गिरफ़्तार नहीं किया जा सका। चमत्कारिक रूप से उन्होंने सरकारी गुप्तचर एजेन्सियों को छकाते हुए इमरजेन्सी के दौरान एक दिन संसद की कार्यवाही में भाग भी लिया। बाहर निकलने पर उनको गिरफ़्तार करने की मुकम्मिल तैयारी थी लेकिन पता नहीं वे किस रास्ते से बाहर निकले कि पुलिस हाथ मलती रह गई; वे गिरफ़्तार नहीं किए जा सके। इमरजेन्सी की समाप्ति तक भूमिगत रहकर उन्होंने देशव्यापी आन्दोलन चलाया था। १९९०-९१ में चन्द्रशेखर की सरकार में केन्द्रीय वाणिज्य एवं विधि मंत्री की हैसियत से राष्ट्र के लिए आर्थिक सुधारों का पहला ब्लू प्रिन्ट डा. स्वामी ने ही तैयार किया था जिसे पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंहा राव ने भी अनुमोदित किया। नरसिंहा राव उनकी प्रतिभा से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने दलगत राजनीति से उपर उठकर उन्हें लेबर स्टैन्डरड्स और इन्टरनेशनल ट्रेड कारपोरेशन का अध्यक्ष बनाया। नरसिंहा राव, मनमोहन सिंह और सुब्रह्मण्यम स्वामी की तिकड़ी ने ही भारत में आर्थिक सुधारों की नींव डाली। इसमें सर्वाधिक उल्लेखनीय भूमिका डा. स्वामी की ही थी। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने कुछ ही महीने पूर्व इस तथ्य को स्वीकार किया है।
डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी देश की विदेश नीति, आन्तरिक सुरक्षा, आतंकवाद, आर्थिक नीति, भ्रष्टाचार और व्यवस्था परिवर्तन पर स्पष्ट राय और विचार रखते हैं। वे चीन के साथ भारत के अच्छे संबन्धों के सदा से पक्षपाती रहे हैं। इसके लिए उन्होंने चीनी भाषा सीखी। आज भी इसके लिए वे कार्यरत हैं। सन १९८१ में अपनी चीन यात्रा के दौरान उन्होंने चीन के राष्ट्राध्यक्ष डेंग ज़ियाओपिंग से भेंट की और दोनों देशों के नागरिकों के मध्य विश्वास बहाली के लिए तिब्बत स्थित कैलाश-मानसरोवर तीर्थ को भारतीयों के लिए खोलने का आग्रह किया। डा. स्वामी के तर्कों और बातचीत से प्रभावित हो डेंग ज़ियाओपिंग ने फौरन सहमति दी और तत्संबन्धी आदेश जारी किए। इस तरह हिन्दू तीर्थयात्रियों के लिए वर्षों से बन्द पड़ी कैलाश-मानसरोवर कि यात्रा का दुर्लभ स्वप्न पूरा हो सका। डा. स्वामी ने तीर्थयात्रियों के पहले जत्थे का नेतृत्व भी किया और १९८१ में ही कैलाश-मानसरोवर की यात्रा भी की।
भारत और श्रीलंका के बीच समुद्र से होते हुए सामुद्रिक जल परिवहन के लिए भारत सरकार ने सेतु समुद्रम शिपिंग चैनेल परियोजना को मंजूरी दे दी। इस परियोजना के पूरा होने पर हजारों वर्ष पुराने श्रीराम सेतु का नष्ट हो जाना निश्चित था। कई हिन्दू संगठनों ने इस परियोजना का विरोध किया लेकिन हमारी तथाकथित धर्म निरपेक्ष सरकार को हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं की परवाह ही कब रहती है, सो परियोजना पर काम आरंभ हो गया। डा. स्वामी ने सन २००९ में इस परियोजना को रोकने के लिए सीधे प्रधान मंत्री को पत्र लिखा। हमेशा की तरह प्रधान मंत्री कार्यालय से कोई उत्तर नहीं आया। कभी हार न मानने वाले स्वामी ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई। वहां से उन्हें स्टे मिला और इस तरह श्रीराम सेतु, जिसके अस्तित्व की पुष्टि नासा ने भी की थी, नष्ट होने से बच गया। अदालतों में अपने मामलों की पैरवी के लिए डा. स्वामी कोई वकील नहीं रखते। वे स्वयं बहस करते हैं जबकि उनकी पत्नी सुप्रीम कोर्ट की नामी वकील हैं।
अपनी बेबाकी और साफ़गोई के लिए प्रसिद्ध डा. स्वामी के विचार कभी अस्पष्ट नहीं रहे। कश्मीर के लिए बनी धारा ३७० की समाप्ति के लिए वे कल भी प्रतिबद्ध थे, आज भी हैं। श्रीलंका के आतंकवादी संगठन लिट्टे के वे मुखर विरोधी रहे हैं। वे महात्मा गांधी की तरह किसी भी तरह के धर्म परिवर्तन के धुर विरोधी हैं। एक जुझारू राष्ट्रवादी होने के नाते वे इस बात के पक्षधर हैं कि बांगला देश से आए करोड़ों अवैध नागरिकों को बसाने के लिए बांगला देश का कुछ हिस्सा भारत से संबद्ध कर लिया जाय। इस समस्या का यही समाधान है। भारत में इस्लामी आतंकवाद के प्रखर विरोधी डा. स्वामी के पास इस समस्या के समाधान के लिए ठोस समाधान है। उन्हें कुछ लोग घोर हिन्दूवादी और हिन्दू तालिबान का नेता कहते हैं। उनपर कई बार अराष्ट्रीय तत्वों द्वारा जानलेवा हमले भी हो चुके हैं लेकिन इन सबसे अप्रभावित डा, सुब्रह्मण्यम स्वामी अपने सिद्धान्तों और आदर्शों पर अडिग रहते हुए राष्ट्र कि सेवा में अहर्निश लगे हैं। उन्हें सर्वधर्म समभाव में अटूट श्रद्धा और विश्वास है। उनका अपना परिवार इसका सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाण है। उनकी पत्नी डा. रुखसाना स्वामी पारसी हैं। उनकी दो बेटियां हैं - गीतांजली स्वामी और सुहासिनी हैदर - एक दामाद मुस्लिम है। उनका ब्रदर इन ला यहूदी है और सिस्टर इन ला ईसाई।
भारत से भ्रष्टाचार के समूल उन्मूलन के लिए पूर्ण रूप से प्रतिबद्ध डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी के भगीरथ प्रयास के कारण ही भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटाले २-जी स्पेक्ट्रम स्कैम का पर्दाफ़ाश हुआ। अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आन्दोलन की पृष्ठभूमि डा. स्वामी ने ही तैयार की। भ्रष्टाचारमुक्त भारत के निर्माण के लिए डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी के योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। भारत के सभी राजनीतिक संगठन एकसाथ मिलकर भी इस संघर्षशील योद्धा का मुकाबला नहीं कर सकते।

Tuesday, September 13, 2011

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की हकीकत - दुनिया गोल है



बचपन में गुरुजी ने बताया था कि दुनिया गोल है। इसके प्रमाण में उन्होंने कहा था कि आप एक दिशा विशेष में एक नियत स्थान से अगर चलना प्रारंभ करेंगे, तो चलते-चलते पुनः उसी स्थान पर पहुंच जाएंगे, जहां से आपने यात्रा आरंभ की थी। भारत की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी, कांग्रेस की १२५ वर्षों से भी अधिक की यात्रा देखकर यह विश्वास अटल हो जाता है कि दुनिया वास्तव में गोल है। कांग्रेस ने अपनी यात्रा २८ दिसंबर, १९८५ में आरंभ की थी, एक अवकाश प्राप्त अंग्रेज उच्चाधिकारी लार्ड एलेन आक्टेवियन ह्यूम (Lord Allan Octavian Hume) के नेतृत्व में। सन्‌ १८५७ की क्रान्ति को अंग्रेजों ने साम, दाम, दण्ड, भेद का सहारा लेते हुए कुचल जरुर दिया था, लेकिन उनके अमानवीय अत्याचारों को जनता भूली नहीं थी। देसी रियासतों के राजाओं और सरकारी कृपा से सुख भोग रहे अंग्रेजी जाननेवाले कुछ अवसरवादी हिन्दुस्तानियों को छोड़, संपूर्ण भारतीय जनमानस में अंग्रेजों के प्रति घृणा और भयंकर आक्रोश व्याप्त था। लार्ड लिटन के दमनकारी शासन की समाप्ति पर भारत क्रान्ति के बहुत करीब पहुंच चुका था। भारतीय जनता की दयनीय दरिद्रता और शिक्षित नवयुवकों का घोर असन्तोष क्रान्ति का रूप ग्रहण करने वाला था। अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई दमनकारी नीतियां आग में घी का काम कर रही थीं। लार्ड ह्यूम को विश्वसनीय गुप्त सूचनाओं से यह भलीभांति ज्ञात हो गया था कि पूरे देश में राजनीतिक अशान्ति अन्दर ही अन्दर बढ़ रही थी। मंगल पाण्डेय, महारानी लक्ष्मी बाई, वीर कुंवर सिंह, तात्या टोपे, बहादुर शाह ज़फ़र और नाना साहब ने १८५७ में क्रान्ति की जो मशाल प्रज्ज्वलित की थी, वह उस समय तो लगा जैसे बुझ गई, लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। बंगाल में उग्र क्रान्तिकारियों ने संगठित होना आरंभ कर दिया था। वे अंग्रेजी सरकार के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गए थे। दक्षिणी क्षेत्र, जिसे अंग्रेज सबसे सुरक्षित मानते थे, वह भी सुलग रहा था। वहां के किसानों ने सरकार को चुनौती देते हुए ऐतिहासिक विद्रोह किया था। लार्ड ह्यूम भारत की जनता के जन आन्दोलन की इस क्रान्तिकारी भावना से अत्यन्त चिन्तित थे। उन्होंने अपनी चिन्ता नए वायसराय लार्ड डफरिन से साझा की। उन्होंने सरकार के वफ़ादार कुछ भारतीयों को लेकर एक संगठन बनाने का प्रस्ताव किया जिसके माध्यम से सशस्त्र क्रान्तिकारियों को हतोत्साहित किया जा सके। लार्ड ह्यूम की योजना एक ऐसे संगठन का निर्माण करने की थी, जो प्रमुख रूप से सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में अंग्रेजों के हित की रक्षा करते हुए काम करे। उपर से यह संगठन तटस्थ दीखे। कुछ पढ़े लिखे अंग्रेजी के विद्वान हिन्दुस्तानियों को इसका सदस्य बनाया जाय। अधिवेशन में उनकी बात सुनी जाय और सरकार सुविधानुसार उनकी कुछ बातों को स्वीकार कर उचित कार्यवाही करे। फिर सरकार द्वारा जनहित में किए गए कार्यों का प्रचार भी वह संगठन अपने हिन्दुस्तानी नेताओं के माध्यम से जनता में करे। तात्कालीन वायसराय को लार्ड ह्यूम की यह योजना पसंद आई। उन्होंने ह्यूम को इंगलैण्ड जाकर भारत में उच्च पदों पर रहे अंग्रेजों से विचार-विमर्श करने की सलाह दी। वायसराय के निर्देशों के अनुसार ह्यूम इंगलैण्ड पहुंचे। वहां भारत-विषयों के जानकार प्रमुख व्यक्तियों - लार्ड रिपन, डलहौज़ी, जान ब्राइट और स्लेग आदि से विचार-विनिमय किया। सबने सर्वसम्मत से भारत में एक अखिल भारतीय मंच ( कांग्रेस) की स्थापना करने के लिए लार्ड ह्यूम को अधिकृत किया। कांग्रेस का असली उद्देश्य था -
१. जनमानस में व्याप्त व्यापक असंतोष और आक्रोश के लिए एक सेफ़्टी वाल्व (Safety Valve) प्रदान करना।
२. ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करना।
३. उग्र क्रान्तिकारियों को हतोत्साहित करना।
लेकिन प्रत्यक्ष में लार्ड ह्यूम ने यह घोषणा करते हुए कांग्रेस की स्थापना की कि उसका उद्देश्य देशहित में कार्य करने वाले व्यक्तियों के बीच घनिष्टता स्थापित करना, राष्ट्रीय ऐक्य की भावनाओं का पोषण और परिवर्धन करना, महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करके सरकार को जन भावनाओं से अवगत कराना आदि है। इस तरह लार्ड ह्यूम ने सरकारी तंत्र के सहयोग से बंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज के भवन में २८ दिसंबर १८८५ को कांग्रेस का पहला अधिवेशन आयोजित करने में सफलता प्राप्त की। इस अधिवेशन में कूपलैंड और विलियम वैडरबर्न सहित कई अंग्रेज अधिकारियों के साथ अंग्रेजों के कृपापात्र कुछ हिन्दुस्तानियों ने भी भाग लिया। सारा आयोजन सरकारी आशीर्वाद से किया गया। अधिवेशन के बाद कूपलैण्ड ने लिखा - भारतीय राष्ट्रीयता ब्रिटिश राज्य की शिशु है और ब्रिटिश अधिकारियों ने उसे पालने का आशीर्वाद दिया।
लार्ड ह्यूम की जीवनी के लेखक सर विलियम वैडरबर्न ने अपनी पुस्तक में ह्यूम के कथन को संदर्भित करते हुए लिखा है - " भारत में असंतोष की बढ़ती हुई शक्तियों से बचने के लिए एक सेफ़्टी वाल्व की आवश्यकता है और कांग्रेस आन्दोलन से बढ़कर सेफ़्टी वाल्व जैसी दूसरी कोई चीज नहीं हो सकती।"
लाला लाजपत राय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Young India में उपर्युक्त तथ्य की पुष्टि करते हुए लिखा है -
"भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का मुख्य उद्देश्य यह था कि इस संस्था के संस्थापक ब्रिटिश साम्राज्य की संकटों से रक्षा करना और उसको छिन्न-भिन्न होने से बचाना चाहते थे।"
प्रसिद्ध इतिहासकार डा. नन्दलाल चटर्जी ने भी अपने लेख में यही विचार व्यक्त किया है। इस संबंध में रजनी पामदत्त ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Indian Today में लिखा है -
"कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश सरकार की एक पूर्व निश्चित गुप्त योजना के अनुसार की गई थी।"
कांग्रेस में पंडित मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद और नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के आगमन के पूर्व इसका स्वरूप अंग्रेज हुकुमत के चाटुकार के रूप में ही था। महात्मा गांधी द्वारा कांग्रेस पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के बाद इसकी कार्य प्रणाली, चिन्तन और व्यवहार में भारतीय राष्ट्रवाद की छाप स्पष्ट दिखाई देने लगी। फिर भी इसने अहिंसा के नाम पर क्रान्तिकारियों का मुखर विरोध जारी रखा। कांग्रेस ने तिलक के "स्वाधीनता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, हम इसे लेकर ही रहेंगे" और नेताजी का "तुम हमें खून दो, हम तुम्हें आज़ादी देंगे," का कभी हृदय से अनुमोदन नहीं किया। महात्मा गांधी ने अगर सरदार भगत सिंह की फांसी की सज़ा के खिलाफ़ अपने अमोघ अस्त्र - आमरण अनशन - के प्रयोग की धमकी दी होती, तो वह युवा क्रान्तिकारी बचाया जा सकता था।
आरंभ में कांग्रेस किसी भी हिन्दू को अपना अध्यक्ष बनाने से कतराती थी। हिन्दुओं पर अंग्रेजों का विश्वास नहीं था। कांग्रेस के संस्थापक ईसाई लार्ड ह्यूम थे, दूसरे अध्यक्ष दादा भाई नौरोज़ी पारसी थे, तीसरे बदरुद्दीन तैयब मुसलमान थे, चौथे जार्ज यूल तथा पांचवे विलियम वैडरबर्न अंग्रेज ईसाई थे।
बेशक महात्मा गांधी और कांग्रेस के नेतृत्व में भारत ने देश के बंटवारे की कीमत पर आज़ादी हासिल की, लेकिन लार्ड ह्यूम की आत्मा कांग्रेस पर हमेशा हावी रही। पंडित मदन मोहन मालवीय को कांग्रेस छोड़नी पड़ी, डा. केशव बलिराम हेडगवार को अलग होकर दूसरा राष्ट्रवादी संगठन (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) बनाना पड़ा, नेताजी सुभाषचन्द्र को कांग्रेस में घुटन महसूस हुई, उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई लड़ी, विनोबा भावे और जय प्रकाश नारायण को सर्वोदय की शरण लेनी पड़ी तथा श्यामा प्रसाद मुखर्जी, राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, जेपी कृपलानी आदि देशभक्त और ईमानदार नेताओं को अलग दल बनाने के लिए वाध्य होना पड़ा। महात्मा गांधी ने आज़ादी के मिलने के पश्चात १९४७ में ही कांग्रेस का रंग-ढंग देख लिया था। उन्होंने इसे भंग करने की स्पष्ट सलाह दी थी जिसे उनके ही शिष्यों ने उनके जीवन काल में ही नकार दिया।
महात्मा गांधी के भौतिक शरीर की हत्या नाथूराम गोड्‌से ने की थी लेकिन गांधी की कांग्रेस और गांधीवाद की हत्या उनके उत्तराधिकारियों ने बड़ी सफाई से की है। यूरोपियन अंग्रेज लार्ड ह्यूम कांग्रेस के पहले अध्यक्ष थे, आज युरोप (इटली) की ही सोनिया गांधी उसकी वर्तमान अध्यक्षा हैं। तब भी एक लंबे अरसे तक कांग्रेस को कोई राष्ट्र्वादी अध्यक्ष नहीं मिला था, आज भी नहीं मिल रहा है। तब कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा करती थी, आज ब्रिटिश साम्राज्य के नए अवतार अमेरिका के हितों की रक्षा के लिए कटिबद्ध है। गांधी की कांग्रेस अहिंसा में विश्वास करती थी, आज की कांग्रेस गांधीवादियों पर ही हिंसा में विश्वास करती है। बाबा रामदेव अर्द्धरात्रि में गिरफ़्तार किए जाते हैं, निहत्थे भक्तों पर बर्बर लाठी-चार्ज किया जाता है, अन्ना हजारे को बिना किसी अपराध के तिहाड़ जेल में बंद किया जाता है। दूसरी ओर क्वात्रोची को क्लीन चिट दी जाती है, काले धान की वापसी की मांग करने वालों को फ़र्ज़ी मुकदमों में फंसाया जता है और मृत्यु की सज़ा पाए देश के दुश्मन खूंखार आतंकवादियों को राजकीय अतिथि की तरह स्वागत में बिरयानी परोसा जाता है। कांग्रेस ने जहां से यात्रा आरंभ की थी, वही पहुंच गई है। वास्तव में दुनिया गोल है।

Thursday, September 8, 2011

कम्युनिस्टों का असली चेहरा



कम्युनिज्म और कम्युनिस्ट विश्व मानवता के लिए खतरा ही नहीं अभिशाप हैं। इन कम्युनिस्टों ने अपने ही देशवासियों को यातना देने में नादिरशाह, गज़नी, चगेज़ खां, हिटलर मुसोलिनी आदि विश्व प्रसिद्ध तानाशाहों को भी मात दे रखी है। रुस के साईबेरिया के यातना शिविरों के किस्से रोंगटे खड़ा कर देनेवाले हैं। चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के नाम पर माओ ने अपने करोड़ों देशवासियों को मौत के घाट उतार दिया। थ्येन आन मान चौराहे पर निहत्थे छात्रों पर चीनी शासकों ने बेरहमी से टैंक चलवा दिया। प्रदर्शनकारी चीन में लोकतंत्र की मांग कर रहे थे। आज भी तिब्बत और झिनझियांग प्रान्तों में नित्य ही हत्याएं होती रहती हैं। जहां ये सत्ता में हैं, वहां ये सरकारी संरक्षण में अन्य विचारधारा वालों की हत्या करते हैं और जहां सत्ता में नहीं हैं, वहां क्रान्ति के नाम पर जनसंहार करते हैं। भारत के कम्युनिस्टों की मानसिकता भी वही है, जो स्टालिन और माओ की थी। लोकतंत्र और संविधान में इनका विश्वास कभी नहीं रहा है। यहां पर वर्षों तक क्रान्ति के लिए काम करने के बाद जब इनकी समझ में आ गया कि भारत में खूनी क्रान्ति कभी सफल नहीं हो सकती, तो इनके एक बड़े हिस्से ने बड़ी मज़बूरी में भारत के संविधान और संसदीय लोकतंत्र में बड़े बेमन से विश्वास व्यक्त किया। यह उनकी नायाब अवसरवादिता थी। ऐसा सत्ता में रहकर मलाई खाने के लोभ के कारण हुआ। लगभग ३५ वर्षों तक बंगाल में सत्ता में रहकर वहां के कम्युनिस्टों ने अपनी आर्थिक स्थिति काफी मज़बूत कर ली है। आर्थिक दिवालियापन के कगार पर पहुंचे बंगाल की जनता की स्थिति बद से बदतर होती गई। हां, पूर्वी बंगाल से आए शरणार्थी ज्योति बसु के बेटे चन्दन बसु की किस्मत अवश्य खुल गई। आज वे बंगाल के अग्रणी व्यवसायी हैं, अरबों में खेलते हैं। केन्द्र में भी सरकार को अन्दर-बाहर से समर्थन देकर इन्होंने कम मलाई नहीं खाई है। इन्द्रजीत गुप्त को गृह मंत्री औरसोमनाथ चटर्जी को लोकसभा अध्यक्ष बनवाना सत्ता की बंदरबांट का ही परिणाम था। यह बात दूसरी है कि जब सत्ता का कुछ ज्यादा ही स्वाद सोमनाथ चटर्जी को लग गया, तो उन्होंने पार्टी के निर्देशों को मानने से ही इन्कार कर दिया। उन्होंने पार्टी छोड़ दी लेकिन लोकसभा के अध्यक्ष की कुर्सी नहीं छोड़ी। हिन्सा में इनका अटूट विश्वास रहा है। बंगाल के नन्दीग्राम और आसपास के इलाकों में सैकड़ों नरकंकाल मिले हैं जो मार्क्सवादी कैडरों के कारनामें उजागर करते हैं। केरल में भी कम्युनिस्टों ने अपने अनगिनत वैचारिक विरोधियों की निर्मम हत्याएं कराई हैं।
भारत के लिए इन्होंने दो नीतियां बनाई हैं - १. संसदीय लोकतंत्र पद्धति में छद्म विश्वास प्रकट करके सत्ता प्राप्त करना और इसके बूते अपने संसाधनों की वृद्धि करना। २. देश के दुर्गम क्षेत्र में रह रही अनपढ़ आबादी की अज्ञानता और सरलता का लाभ उठाते हुए माओवाद और खूनी क्रान्ति के नाम पर भारत की समस्त व्यवस्थाओं को ध्वस्त करना। इन दोनों क्षेत्रों में इन्हें थोड़ी-बहुत कामयाबी भी मिली है। जवाहर लाल नेहरु, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी और सोनिया गांधी के कार्यकाल में ये अत्यन्त प्रभावशाली रहे। इन्होंने योजनाबद्ध ढंग से मीडिया, शिक्षा, विभिन्न पुरस्कारों, इतिहास लेखन, मानवाधिकार संगठन और विश्वविद्यालयों पर कब्जा किया - चुपके से बिना किसी प्रचार के। अपने और अपने कार्यकर्ताओं के लिए इन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की तर्ज़ पर दिल्ली में जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की स्थापना भी करा दी। यह विश्वविद्यालय भारत में कम्युनिज़्म की नर्सरी है। भारत की युवा पीढ़ी को दिग्भ्रान्त कर अपने पाले में लाने के लिए इन्होंने अथक प्रयास किए। ६० और ७० के दशक में विश्वविद्यालयों में अपने को कम्युनिस्ट कहना एक फैशन बन गया था। सोवियत संघ में कम्युनिज़्म के पतन के बाद भारत में उनका आन्दोलन लगभग समाप्त हो गया। केरल में साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग और इसाई संगठनों की मेहरबानी से कभी-कभी सत्ता में आ जाते हैं तथा बंगाल में अपने अराजक कैडरों की गुण्डागर्दी के कारण लंबी अवधि तक सत्ता में बने रहे। पिछले चुनाव में चुनाव आयोग की सख्ती एवं ममता की निर्भीकता के कारण जनता ने अपने मताधिकार का पहली बार निडर होकर प्रयोग किया। परिणाम से सभी अवगत हैं - मार्क्सवादी चारो खाने चित्त हो गए। आज चीन में बहुदलीय लोकतंत्र की स्थापना हो जाय, कल कम्युनिज़्म वहां इतिहास का विषय बन जाएगा।
कम्युनिस्ट लोकतंत्र के सबसे बड़े शत्रु हैं। इन्हें वयस्क मताधिकार पर तनिक भी भरोसा नहीं। अपनी तमाम कमियों के बावजूद भी यह हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी सफलता है कि एक दलित महिला वयस्क मताधिकार के आधार पर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी हुई है। दलित जातियों से अधिक इस देश में किस जाति या समूह का शोषण हुआ है? इनसे ज्यादा अत्याचार किसने सहा है? लेकिन संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से उन्होंने सत्ता में अपनी हनक बनाई है। लेकिन कम्युनिस्ट ऐसा नहीं कर सकते।। वे जनता के बीच जाने से डरते हैं। क्योंकि जनता उन्हें देशद्रोही मानती है। १९६२ में चीन के साथ युद्ध में इन्होंने खुलकर चीन का साथ दिया था। १९४७ में इन्होंने देश के बंटवारे का स्वागत किया था। जनता इसे आजतक नहीं भूली है। अतः इन्होंने सोची समझी रणनीति के तहत संसदीय लोकतंत्र के समानान्तर, माओवाद-नक्सलवाद के नाम पर एक हिंसक अभियान छेड़ रखा है। इन्हें सफेदपोश कम्युनिस्ट नेताओं, तथाकथित प्रगतिशील साहित्यकारों, मानवाधिकार संगठन और मीडिया में भेजे गए घुसपैठी पत्रकारों का भी प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन प्राप्त है। चीन से इन्हें हथियार और धन भी प्राप्त होता है। स्थानीय सरकारी कर्मचारियों, ठेकेदार, व्यवसायी और उद्योगपतियों से जबरन धन उगाही अलग से की जाती है। इनका नारा है - सत्ता बन्दूक की नाली से प्राप्त की जाती है। कम्युनिस्टों का यही वास्तविक चेहरा है। भारत के युवराज बुन्देलखण्ड और नोएडा के किसानों के पास जाकर घड़ियाली आंसू बहा सकते हैं लेकिन कम्युनिस्टों की गुण्डागर्दी से पीड़ित जनता के पास एक बार भी नहीं जा सकते। हमारी कमज़ोर केन्द्रीय सरकार इस्लामी आतंकवादियों की तरह इनके फलने-फूलने के भी पर्याप्त अवसर दे रही है।
रुस और चीन के कम्युनिस्ट तानाशाहों (स्टालिन और माओ) ने बेशक अपनी जनता पर निर्मम अत्याचार किए लेकिन एक तथ्य निर्विवाद है कि उनकी अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठा असंदिग्ध एवं अटूट थी। वे प्रखर राष्ट्रवादी थे। भारत के कम्युनिस्टों ने उनके दुर्गुणों को तो अपना लिया लेकिन सद्‌गुणों को ठुकरा दिया। यहां के साम्यवादी भारत, भारतीयता और भारतीय राष्ट्रवाद से नफ़रत करते हैं। वे भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते। यही कारण है कि वे यहां प्रभावशाली नहीं हो पाए। लेकिन इन्होंने हार नहीं मानी है। नक्सलवाद के नाम पर देश को अस्थिर करने के लिए उनके द्वारा छेड़ा गया गुरिल्ला युद्ध एक सोची-समझी रणनीति है। लेकिन इससे वे कोई भी लक्ष्य नहीं प्राप्त कर पाएंगे। हां, कुछ समय के लिए प्रभावित क्षेत्रों के विकास को अवरुद्ध अवश्य कर देंगे। जिस दिन दिल्ली में एक मज़बूत राष्ट्रवादी सरकार आ जाएगी, इनकी राजनीति पर अपने आप विराम लग जाएगा, क्योंकि कम्युनिज़्म अब कालवाह्य हो चुका है।

Sunday, September 4, 2011

खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे



सरकार इतने निम्न स्तर पर आकर अपने विरोधियों के विरुद्ध कार्यवाही करेगी. कल्पना भी नहीं थी। अन्ना हज़ारे के जन आन्दोलन के समक्ष सरकार ने अत्यन्त बेबसी में घुटने टेके अवश्य, लेकिन शर्मनाक पराजय की एक कसक के साथ। तिहाड़ जेल में बन्द करने के बाद अन्ना के रामलीला मैदान में पहुंचने के पूर्व सरकार ने कई बार थूक कर चाटा। अब, जब लोकपाल बिल पर गंभीरता से कार्यवाही करके इसे जन आकांक्षाओं के अनुरूप कानून का रूप देकर अपनी भ्रष्टाचारी छवि से मुक्ति पाने का अवसर उसके पास उपलब्ध है, तो वह खिसियाहट में स्पष्ट दिखाई देनेवाली बदले की घटिया कर्यवाही पर उतर आई है। बाबा रामदेव, बालकृष्ण और अन्ना टीम के सदस्यों के खिलाफ सीबीआई, सीवीसी, इन्कम टैक्स और संसद के दुरुपयोग करने के प्रयास में सरकार ने समस्त नैतिक मूल्यों को तिलांजलि दे दी है। जबतक बाबा रामदेव से कुछ उम्मीद थी उनके लिए लाल कालीन बिछाई जा रही थी - चार-चार केन्द्रीय मन्त्री हवाई अड्डे पर स्वागत के लिए पहुंचते हैं। बात नहीं बनने पर बर्बरता की सीमा पार करते हुए आधी रात के बाद उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाता है, अहिंसक समर्थकों पर लाठी चार्ज किया जाता है। भविष्य में चुप बैठे रहने के लिए सीबीआई और सीवीसी के माध्यम से तरह-तरह के केस कायम कर यह संदेश दिया जाता है कि हमसे टकराने का यही अन्जाम होता है। अन्ना जी को कांग्रेस महाभ्रष्ट घोषित करती है। पासा उलटा पड़ जाने पर माफ़ी भी मांग लेती है। अब बारी आती है अरविन्द केजरीवाल, किरण बेदी और प्रशान्त भूषण की। इन्कम टैक्स विभाग और संसद की विशेषाधिकार समिति के विशेषाधिकारों का सहारा लेकर इन्हें भी मज़ा चखाने का अभियान आरंभ कर दिया गया है।
अगर सरकार यह समझती है कि वह अपने इरादों में कामयाब हो जाएगी और जनता चुपचाप देखती रह जाएगी, तो यह उसका भ्रम है। बाबा रामदेव से पुलिसिया ताकत के बल पर रामलीला मैदान खाली कराने के बाद सरकार के दंभ में आवश्यकता से अधिक वृद्धि हो गई। अन्ना हजारे की १६ अगस्त को गिरफ़्तारी इसी दंभ के कारण की गई। बाबा रामदेव की पैठ तो समाज के निचले तबके तक थी, लेकिन अन्ना को सरकार सिर्फ उच्चवर्ग और मीडिया प्रायोजित नेता मानती थी। सरकार का आकलन सरकार के पास ही धरा रह गया। अन्ना की गिरफ़्तारी के बाद जिस तरह पूरा हिन्दुस्तान सड़क पर उतर आया, वह सरकार के दर्प-दलन के लिए पर्याप्त था। अगर सरकार ने बाबा रामदेव के आन्दोलन को इतने अमाननवीय ढंग से कुचला नहीं होता तो अन्ना को इतना बड़ा जन समर्थन प्राप्त नहीं होता। उच्च दबाव पर गैस टंकी में भरी थी, सेफ़्टी वाल्व आपरेट कर गया।
अगर अरविन्द केजरीवाल ने आयकर चुकाने में हेराफेरी की है, तो आयकर विभाग अबतक आंखें क्यों बंद किए था? बाबा रामदेव ने अगर फ़ेरा का उल्लंघन किया था, तो सरकार उनके आन्दोलन के पहले क्यों चुप थी? बालकृष्ण ने अगर प्रमाण पत्रों में धांधली की थी, तो उनका पासपोर्ट कैसे बन गया? क्या जनता इतनी मूर्ख है कि समान्य कानूनी प्रक्रिया और बदला लेने की प्रक्रिया में अन्तर नहीं समझ सकती? सरकार खुशफ़हमी पाले रहे कि वह इनलोगों को मुकदमों में फंसाकर झुका लेगी। उसे फिर थूककर चाटना पड़ेगा।
किरण बेदी, प्रशान्त भूषण और केजरीवाल पर संसद की अवमानना का ब्रह्मास्त्र चलाया गया है। यह ठीक उसी तरह का मामला है - ककड़ी के चोर को कटारी से काटना। अव्वल तो इन तीनों में से किसी ने संसद की अवमानना नहीं की है, हाँ, सांसदों पर करारा व्यंग्य अवश्य किया था। पीड़ित पक्ष सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के तहत अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर कर सकता था जहां पहली सुनवाई में ही इसे खारिज हो जाने की प्रबल संभावना थी। अतः संसद का सहारा लिया गया है। लेकिन सरकार और कांग्रेस यह गांठ बांध ले कि सौमित्र सेन और अन्ना में जमीन आसमान का अन्तर है।
संसद सर्वोच्च है, लेकिन सांसद? देश की जनता की याद्दास्त इतनी भी कमजोर नहीं कि वह भूल जाय कि शिबू सोरेन ने करोड़ों रुपए का लेनदेन करके नरसिंहा राव की सरकार को कैसे बचाया था, कैसे जुलाई, २००८ में करोड़ों रुपयों के बंडल विश्वास मत के दौरान लोकसभा में लहराए थे, अमर सिंह एंड कंपनी ने कैसे मनमोहन सरकार को बचाया था। विभिन्न कंपनियों/ फर्मों/व्यक्तियों से धन लेकर संसद में प्रश्न पूछने के संगीन अपराध के लिए इसी संसद को अपने आधे दर्ज़न से अधिक सदस्यों की सदस्यता समाप्त करने पर मज़बूर होना पड़ा था। संसद हमें वाध्य नहीं कर सकती कि विभिन्न घोटालों और भ्रष्टाचार में सिर से पांव तक डूबे राजाओं, लालुओं, मारनों, शिबुओं, चिदंबरमों, सिब्बलों, अमर सिंहों.........................को विशेषाधिकार समिति के भय से हम जबरन सम्मान दें। टीम अन्ना ने ऐसे सदस्यों पर ही तो टिप्पणी की थी। यूपी का एक पूर्व मन्त्री, आज़म खां भारत माँ को डायन कह सकता है, अरुन्धती राय कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बता सकती हैं, करुणानिधि-जयललिता भारत के राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना करते हुए राजीव गांधी की प्राण-रक्षा के लिए विधान सभा में प्रस्ताव पारित कर सकते हैं, केन्द्र सरकार द्वारा नियुक कश्मीर के वार्ताकार दिलीप पडगांवकर और राधा कुमार पाकिस्तान की कुख्यात खुफ़िया एजेन्सी आईएसआई के एजेण्ट गुलाम नबी फ़ई के आमंत्रण पर वाशिंगटन के सेमिनार में आईएसआई के खर्चे से जाकर पाकिस्तान के पक्ष में खुलकर विचार व्यक्त कर सकते हैं, राष्ट्रविरोधी वक्तव्य दे सकते हैं (सज़ा देने के बदले सरकार ने उन्हें अब भी वार्ताकारों की टीम में बरकरार रखा है) नीरा राडिया स्वतंत्र घूम सकती है, उमर अब्दुल्ला देश के खिलाफ़ ट्विटर पर कुछ भी लिख सकते हैं, कश्मीर के आतंकवादी सरकारी संरक्षण में सरकार की नाक के नीचे, दिल्ली में पाकिस्तान की विदेश मंत्री से मंत्रणा कर सकते हैं, सोनिया के इशारे पर बड़बोले दिग्विजय सिंह किसी का चरित्र-हनन कर सकते हैं, लेकिन भारत की जनता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के द्वारा बताई गई अहिंसक विधि से भी इनके विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलन्द नहीं कर सकती। यक्ष प्रश्न है - क्या ऐसी सरकार को आनेवाले तीन वर्षों तक सत्ता में रहने का अधिकार प्राप्त है?
सत्ता के मद में अंधी सरकार अपने विरुद्ध चल रहे जन आन्दोलन को कुचलने के लिए चाहे जो भी दमनकारी कार्यवाही कर ले, अब यह तूफ़ान थमने वाला नहीं है। एक अच्छी शुरुआत हो चुकी है। भारत की युवा पीढ़ी व्यवस्था में परिवर्तन चाहती है। ज़िन्दा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करतीं।