Sunday, June 23, 2013

इलाहाबाद हाई कोर्ट में एक दिन

         दिनांक १९-६-१३, समय दिन के साढ़े बारह बजे। पावर कारपोरेशन के स्टैन्डिंग कौन्सिल का फोन आता है - दिनांक २१-६-१३ को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने जमुना कोल्ड स्टोरेज बनाम उत्तर प्रदेश पावर कारपोरेशन के मामले में अध्यक्ष सह प्रबन्ध निदेशक, उत्तर प्रदेश ट्रान्समिशन कारपोरेशन, प्रबन्ध निदेशक ट्रान्समिशन कारपोरेशन, प्रबन्ध निदेशक पूर्वान्चल एवं प्रबन्ध निदेशक पश्चिमान्चल विद्युत वितरण निगम लिमिटेड को व्यक्तिगत सुनवाई हेतु तलब किया है। रिट की कापी और कोर्ट का आदेश न वकील के पास उपलब्ध होता है और न हाई कोर्ट के वेब साइट पर। पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम, वाराणसी के मुख्यालय में अफ़रातफ़री मच जाती है। ला आफिसर और लीगल सेल के अधीक्षण अभियन्ता को तलब किया जाता है। उनके पास भी केस का कोई विवरण प्राप्त नहीं होता है। दोनों डांट खाकर आई.ए.एस. प्रबन्ध निदेशक के कमरे से बाहर आ जाते हैं। अन्तिम समाधान के लिए मुख्य अभियन्ता(प्रशासन) यानि मुझे बुलाया जाता है और आदेश दिया जाता है -
"आपके ला आफिसर और एस.ई. किसी काम के नहीं हैं। इन्हें केस की कोई जानकारी नहीं है। इनके कारण परसों मुझे हाई कोर्ट में पर्सनल अपियरेन्स के लिये हाज़िर होना पड़ेगा। कभी आप हाई कोर्ट में पर्सनल अपियरेन्स में गए हैं? नहीं न। वहां भीड़ के बीच दिन भर खड़े रहना पड़ता है। बैठने की जगह भी नहीं मिलती है। आपलोगों के कारण यह जलालत मुझे झेलनी है। जाइये, रिट की कापी, कोर्ट का आर्डर, सरकार की इण्डस्ट्रियल पालिसी, सप्लाई शिड्यूल, सप्लाई आवर्स और संबन्धित आदेशों के साथ एक घंटे के अन्दर उपस्थित होइये। पूरी फाइल मेरी मेज़ पर होनी चाहिए।"
ला आफिसर और लीगल सेल ने हाथ खड़े कर दिए। रिट की सूचना उन्हें कुछ ही मिनट पहले मिली थी। वाकई उनके पास कोई पेपर नहीं था। वकील से संपर्क स्थापित करने की कोशिश की गई। वे किसी अन्य केस के सिलसिले में बहस कर रहे थे। बात नहीं हो पाई। प्रबन्ध निदेशक की नाराज़गी बढ़ती जा रही थी। दो घंटे का समय गुजर गया। हाथ में एक भी पेपर नहीं था। मुख्य अभियन्ता, इलाहाबाद से संपर्क किया गया। उन्होंने अपने कोर्ट क्लर्क को वकील के पास भेजकर रिट की कापी मंगवाई। ई-मेल के माध्यम से उसे प्राप्त किया गया। संदर्भित आदेशों और इन्डस्ट्रियल पालिसी को वेब-साइट से डाउनलोड किया गया। पूरी फाईल दिन के पांच बजे तक तैयार हुई। न लन्च करने का मौका मिला, न चाय पीने का। हर आधे घंटे के बाद मिली डांट से ही पेट भरना पड़ा। ७० पेज का रिट और सौ पेज के अन्य आदेश। फाईल पुट अप करने के पहले अध्ययन भी करना पड़ा। एब्स्ट्रैक्ट भी बनाना पड़ा। प्रबन्ध निदेशक महोदय अन्दर से प्रसन्न हुए लेकिन बातों से ज़ाहिर नहीं होने दिया। एक आदेश जड़ दिया अलग से -
"कल आप इलाहाबाद जाकर वकील से मिलकर जवाब तैयार कराइये। अपना जवाब चीफ स्टैन्डिंग कौन्सिल से एप्रूव जरूर करा लीजिएगा। लखनऊ से निदेशक (वाणिज्य) भी वहां रहेंगे। एस.ई, गाज़ीपुर और एक्झिक्युटीव इन्जीनियर को भी अपने साथ ले जाइयेगा। ला सेल के किसी भी आदमी को अपने साथ मत ले जाइयेगा। मुझे सिर्फ आप पर भरोसा है। कोशिश कीजियेगा कि इसके बाद मुझे कोर्ट में दुबारा पर्सनल अपियरेन्स न देनी पड़े।"
अपने नाजुक स्वास्थ्य के बावजूद मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। नीली बत्ती वाली एम्बैसडर कार से यात्रा पूरी की गई। नीली बत्ती वाली कार में बैठने वाले अधिकारी से ज्यादा रोब में ड्राइवर रहता है। अधिकारी ओवर स्पीड से परहेज़ करने की हिदायत देता है लेकिन ड्राइवर को यह कत्तई मंजूर नहीं होता है कि कोई गाड़ी उसके आगे चले। बनारस से इलाहाबाद के पूरे रास्ते में ड्राइवर हूटर बजाता रहा। वकील, चीफ स्टैन्डिंग कौन्सिल और निदेशक से मुलाकात हुई। जवाब तैयार कराया गया। पर्सनल अपियरेन्स से एक्जम्प्सन के लिए अप्लिकेशन भी बन गया। रात के बारह बजे फुर्सत मिली।
दिनांक २१-६-१३। दिन के नौ बजे एम.डी. पूर्वांचल के स्टाफ आफिसर का फोन आता है - "साहब इलाहाबाद के लिए निकल चुके हैं। साढ़े दस बजे सर्किट हाउस पहुंच जायेंगे। आपकी तैयारी पूरी रहनी चाहिये।"
मैंने यह संदेश इलाहाबाद जोन के मुख्य अभियन्ता को पास आन कर दिया। यहां से सभी सूत्र उन्होंने अपने हाथ में ले लि्ये। अपने पूरे अमले के साथ वे सर्किट हाउस पहुंच गए। अब मैं मेहमान बन गया। मेरी देख-रेख और चाय, नाश्ता, भोजन पानी के लिए एक अधीक्षण अभियन्ता की ड्युटी लगा दी गई। सर्किट हाउस के कावेरी सूट को खोलवा कर मुझे सुपूर्द कर दिया गया। मैंने राहत की सांस ली। उन्होंने हम सभी के लिए हाई कोर्ट में एन्ट्री के लिए गेट पास भी बनवा दिए। हमलोगों का केस कोर्ट नंबर-३४ में था। दिन के ग्यारह बजे सीएमडी ट्रान्समीशन, एमडी, ट्रान्समीशन, एमडी,पूर्वांचल, एमडी,पश्चिमांचल, डाइरेक्टर(वाणिज्य), चीफ स्टैन्डिंग कौन्सिल, एडवोकेट, उनके कनिष्ठ वकील, मुंशी, दो चीफ इन्जीनियर, पांच सुपरिन्टेन्डिंग इन्जीनियर और एक दर्ज़न अन्य इंजीनियर तथा कोर्ट क्लर्कों के काफ़िले के साथ हम हाइ कोर्ट पहुंच ही गए। गेट पास बनवाने के लिए की गई मिहनत बेकार गई। मेन गेट एवं कोर्ट नंबर-३४ के गेट पर कोई सन्तरी नहीं था। हमारा गेट पास किसी ने चेक नहीं किया। कोर्ट नंबर-३४ में तिल धरने की जगह भी नहीं थी। आई.ए.एस.प्रबन्ध निदेशकों के चेहरे मायूस हो गए। उन्हें धोती-कुर्ता वाली आम जनता और हम जैसे मातहतों के साथ भीषण गर्मी को झेलते हुए बरामदे में ही खड़ा होना पड़ा। उन्हें यह देखकर राहत मिली कि लाबी में डी.एम. जालौन और डी.एम. वाराणसी भी अपनी पेशी के लिए खड़े-खड़े इन्तज़ार कर रहे थे। यहां दो टीमें बन गईं। आई.ए.एस. अधिकारी एक साथ गप्प मारने लगे और इन्जीनियर अधिकारी एक साथ। समय बिताने के लिए इसके अलावा और कोई चारा भी नहीं था। इन्तज़ार करते-करते दिन के दो बज गए। न चाय, न पानी। एक लड़का चाय की केटली और समोसे के पैकेट लेकर आवाज़ लगाते हुए घूम तो रहा था, लेकिन आई.ए.एस.आफिसर बरामदे मे खड़े होकर भीड़ के साथ चाय-समोसा कैसे खा सकते थे? हम भी प्रोटोकाल से बंधे थे। चाय-समोसा लेकर आवाज़ लगाते लड़के को दूर से सिर्फ देखते रहे। वकील ने सूचना दी - "जज साहब लंच पर चले गए। अब दो बजे आयेंगे। आप लोग भी लंच करके दो बजे आ जाइये।"
हम लोगों ने सर्किट हाउस जाकर जल्दी-जल्दी लंच लिया। जज का डर इस कदर हावी था कि हमलोग पौने दो बजे ही कोर्ट नंबर-३४ के सामने उपस्थित हो गए। जज साहब तीन बजे आए। हाई कोर्ट में सिर्फ जज ही राजा होता है, बाकी सब प्रजा। जज ही क्या, सभी सरकारी अधिकारी अपने-अपने कार्यालयों में राजा की तरह ही तो व्यवहार करते हैं। हमलोग अपनी बारी का इन्तज़ार कर रहे थे कि हमारा वकील मेरे कान में फुसफुसाया - एम.डी, पश्चिमांचल टाई नहीं लगाए हैं। यह हाई कोर्ट के ड्रेस कोड के खिलाफ है। जज इन्हें कोर्ट से बाहर निकाल देगा। उनके लिए टाई की व्यवस्था कराइये। हम लोगों का केस १७ नंबर पर सूचीबद्ध था। उस समय १४ नंबर की सुनवाई चल रही थी। समय था। मार्केट से काले रंग की टाई मंगाई गई। एक बला टली। वकील ने बताया कि हाई कोर्ट में आई.ए.एस. आफीसर के लिए ड्रेस कोड है। उन्हें जाड़े में काले रंग के बन्द गले वाले कोट में तथा गर्मी में पैन्ट, फुल स्लीव की शर्ट तथा टाइ में पेश होना पड़ता है। अन्य अधिकारियों के लिए फुल स्लीव शर्ट और पैन्ट की ही वाध्यता है। सैंडल या चप्पल पहन कर आने की मनाही है। चमड़े का जूता पहनना अनिवार्य है। यह ड्रेस कोड अंग्रेजों का बनाया हुआ था जो लोकतांत्रिक भारत में आज भी लागू है। कौन कहता है कि हम आज़ाद हुए हैं? मानसिक गुलामी ज्यों की त्यों है। पौने पांच बजे हमलोगों का नंबर आया। तबतक हम सभी पसीने से नहा चुके थे। गिरते-पड़ते, लोगों की देह से देह रगड़ते हम किसी तरह कोर्ट नंबर-३४ में दाखिल हो ही गए। कक्ष में ६ एसी चल रहे थे। किसी भी एसी का साईज़ २ टन से कम का नहीं था; फिर भी गर्मी के मारे बुरा हाल था। कक्ष का टेम्परेचर ३५ डिग्री से कम नहीं था। जज की दाहिनी ओर वरिष्ठता के क्रम में सीएमडी और सभी एमडी हाथ में फाइल लिए हुए अपराधी की भांति नज़रें झुकाए खड़े थे। जज ने तिरछी नज़र से सबको देखा। कार्यवाही आरंभ हुई। पहला प्रश्न जज ने ही पूछा -
"हां तो चीफ स्टैन्डिंग कौन्सिल साहब! ये बताइये कि आप कोल्ड स्टोरेज को सिर्फ चार घंटे की ही सप्लाई क्यों दे रहे हैं?
"नहीं मी लार्ड! कोल्ड स्टोरेज को हम औसत १२ घंटे की सप्लाई दे रहे हैं। आपके सादर सूचनार्थ यह बताना है कि यमुना कोल्ड स्टोरेज गाज़ीपुर को दिनांक २०-६-१३ से २४ घंटे की सप्लाई दी जा रही है।" अपने कथन के समर्थन में अभिलेख पेश करते हुए हमारे वकील ने अपना तर्क दिया।"
"बहुत अच्छा! १९ तारीख को हमने पर्सनल अपियरेन्स के लिए आपके एम.डी. को बुलाया और २० तारीख से आपने २४ घंटे की सप्लाई देना शुरु कर दिया। क्या बिना डांट खाए आप कोई काम नहीं करते हैं। सरकार से डांट खाकर इटावा, कन्नौज, रामपुर, मैनपुरी, झिंझक जैसे इलाकों में आप २४ घंटे बिजली देते है और इलाहाबाद, वाराणसी, कानपुर जैसे महानगरों में अन्धाधुंध कटौती करते हैं। यूपी के सभी जिलों के गावों को आप आठ घंटे की सप्लाई देते हैं और कुछ चुनिन्दा जिलों के गावों को २४ घंटे की निर्बाध विद्युत आपूर्ति। ऐसा क्यों? संविधान की किस धारा और इंडियन इलेक्ट्रिसीटी एक्ट के किस नियम के तहत आप इटावा, कनौज, मैनपुरी, रामपुर आदि जिलों को २४ घंटे की विद्युत आपूर्ति करते हैं?"
"मी लार्ड। वे वी.वी.आई.पी लोगों के क्षेत्र हैं। इसलिए उन्हें २४ घंटे की सप्लाई दी जाती है।"
"व्हाट डू यू मीन बाई वीवीआईपी? गीव मी डेफिनेशन आफ वीवीआईपी।"
" .......सरकारी वकील का लंबा मौन........." जनता का जोरदार ठहाका।
      " आल एमडी साहेबान। हैव यू एनी रिप्लाई टू माई क्वेश्चन।"
      ".............लंबा सन्नाटा.............." सभी अधिकारियों ने गर्दन थोड़ी और झुका ली। जज से नज़रें मिलाने का साहस किसी में नहीं था।
"वकील साहब। मैं आपको जवाब के लिए एक महीने का समय देता हूं। दिस रिट इस नाउ कन्वर्टेड इन टू पी.आई.एल.। दि कोर्ट इज एडजर्न्ड टू डे।"
हम सभी एक दूसरे से बिना कोई बात किए कोर्ट रूम से बाहर आ गए। मंत्रियों का आदेश लिखित में नहीं होता है। अधिकारियों का आदेश लिखित होता है। मंत्री कभी नहीं फसेंगे। हमारी पेशी तो अनिश्चित काल तक होती रहेगी। रिटायरमेन्ट के बाद भी। हाई कोर्ट में भी अंग्रेजियत, शासन में भी अंग्रेजियत। जायें तो जायें कहां?

Sunday, June 16, 2013

भीष्म पितामह और लाल कृष्ण आडवानी

       अपने देश में पितामह शब्द ही भीष्म का पर्यायवाची मान लिया गया है। भीष्म विख्यात कुरुवंशी हस्तिनापुर के राजा शान्तनु के पुत्र और कौरव-पाण्डवों के पितामह थे। वे गंगा-पुत्र थे - पतित पावनी गंगा और महाराज शान्तनु की सन्तान। हस्तिनापुर के एक महावीर, महापराक्रमी, यशस्वी और सुदर्शन युवराज के रूप में उनकी ख्याति दिग्दिगन्त तक फैली थी। प्रजा में भी उनकी लोकप्रियता चरम पर थी। निर्विवाद रूप से वे राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे। भीष्म का नाम उनके माता-पिता ने देवव्रत रखा था। अपने पिता शान्तनु की केवट कन्या सत्यवती से विवाह के लिए आई अड़चन को दूर करने के लिए युवा देवव्रत ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन और सिंहासन के परित्याग की भीष्म प्रतिज्ञा की थी। इसी भीष्म प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा और जनता उनके पुराने और मूल नाम को भूल गई। महाभारत युद्ध के नायक और पृथ्वी के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर अर्जुन के दादा होने के कारण वे वृद्धावस्था में भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुए। कालान्तर में पितामह शब्द ही भीष्म का पर्याय बन गया। पिता की इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने हस्तिनापुर के राजसिंहासन का एक तिनके की तरह त्याग कर दिया था। अपने इस त्याग के कारण वे इतिहास पुरुष बने और पूरे विश्व में अति सम्माननीय पात्र बने। महाराज शान्तनु को वृद्धावस्था में सत्यवती से दो पुत्र हुए - चित्रांगद और विचित्रवीर्य। चित्रांगद बड़े थे और पिता की मृत्यु के बाद भीष्म के संरक्षण में हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर उनका अभिषेक किया गया। वे बहुत कम समय तक जीवित रहे। मायावी गन्धर्वराज से तीन वर्ष तक चले एक युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हो गए और सिंहासन एक बार फिर असमय ही रिक्त हो गया। बालक विचित्रवीर्य को राजा बनाया गया परन्तु शासन के सूत्र भीष्म के पास ही रहे। विचित्रवीर्य बचपन से ही रोगग्रस्त थे। अतः युवावस्था की प्राप्ति के बाद भी उनसे विवाह लिए कोई राजकुमारी अपनी सम्मति नहीं दे रही थी। उनके विवाह के लिए स्वयं भीष्म काशीनरेश की कन्याओं के स्वयंवर में उपस्थित हुए और एक विचित्रवीर के लिए काशीनरेश की तीन कन्याओं का अपहरण किया। हस्तिनापुर का दुर्भाग्य यही से आरंभ हुआ। तीनों कन्याओं में सबसे बड़ी अंबा ने विचित्रवीर्य से विवाह करने से इन्कार कर दिया। कालान्तर में भीष्म ने उसे मुक्त भी कर दिया। लेकिन यही कन्या शिखण्डी के रूप में पुरुष बनकर द्रुपद के घर पैदा हुई और भीष्म की मृत्यु का कारण बनी। इस घटना के  पूर्व भीष्म अविवादित रहे। काशीराज की शेष दो कन्याओं ने भयवश विचित्रवीर्य को अपना पति मान लिया। दुर्बल विचित्रवीर्य क्षय रोग का शिकार बन बिना सन्तान उत्पन्न किए अकाल मृत्यु के ग्रास बन गए। राज सिंहासन फिर खाली हो गया। माता सत्यवती ने पुत्र भीष्म को वंश चलाने के लिए विवाह करने की आज्ञा दी, परन्तु भीष्म ने माता की आज्ञा का पालन नहीं किया और सार्वजनिक रूप से पुनः प्रतिज्ञा की -
‘मैं त्रिलोकी का राज्य, ब्रह्मा का पद और इन दोनों से अधिक मोक्ष का भी परित्याग कर दूंगा। परन्तु सत्य नहीं छोड़ूंगा। भूमि गंध छोड़ दे, वायु स्पर्श छोड़ दे, सूर्य प्रकाश छोड़ दे, अग्नि उष्णता छोड़ दे, आकाश शब्द छोड़ दे, चन्द्रमा शीतलता छोड़ दे और इन्द्र भी अपना बल-विक्रम त्याग दे; और तो क्या, स्वयं धर्मराज अपना धर्म छोड़ दें; परन्तु मैं अपनी सत्य प्रतिज्ञा छोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता।’
उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा के लिए राज्य छोड़ा, सिंहासन छोड़ा, नारी का मोह छोड़ा और आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया।
भाजपा के बुजुर्ग नेता लाल कृष्ण आडवानी ने अपने पिछले ब्लाग में अपनी तुलना भीष्म पितामह से की है। मीडिया भी उन्हें भाजपा का पितामह कह के संबोधित कर रही है। भीष्म पितामह ने सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा कर रखी थी; आडवानी जी ने चाहे जैसे भी हो, सिंहासन पर बैठने की प्रतिज्ञा कर रखी है। एक त्याग के आदर्श थे, दूसरे स्वार्थ की प्रतिमूर्ति। दोनों की प्रतिज्ञा में यहां विरोधाभास दिखाई पड़ रहा है। परन्तु एक साम्य नज़र आ रहा है - भीष्म की प्रतिज्ञा के कारण ही महाभारत का भीषण संग्राम हुआ। आडवानी की प्रतिज्ञा के कारण ही राजग में महाभारत हो रहा है। तब दुर्योधन और दुशासन  राज दरबार में ही भीष्म की उपस्थिति में द्रौपदी का चीरहरण करते थे और आज भी पितामह के नेतृत्व में ही नीतीश और शरद यादव भाजपा के चीरहरण के लिए कटिबद्ध हैं। 
          शेष कथा फिर कभी।

Monday, June 10, 2013

राजा ययाति और लाल कृष्ण आडवानी


          वैदिक युग में आर्यावर्त्त में एक अति पराक्रमी राजा हुआ करते थे। नाम था ययाति। वे सूर्यपुत्र मनु  के वंशज और इन्द्रासन के अधिपति रहे महान राजा नहुष के पुत्र थे। यश, पराक्रम और कुशल प्रजापालन में वे कही से भी अपने पिता नहुष से उन्नीस नहीं थे। एक बार आखेट करते समय उनकी भेंट दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य की कन्या देवयानी से हुई। अपूर्व सुन्दरी देवयानी ने अपने पति के रूप में उनका चुनाव कर लिया। शुक्राचार्य की सहमति से दोनों का विवाह भी संपन्न हो गया। अपने दास-दासियों के साथ देवयानी राजधानी आकर सुखपूर्वक महाराज ययाति के साथ दांपत्य जीवन का आनन्द लेने लगी। एक दिन अपनी अशोक वाटिका में भ्रमण के दौरान ययाति ने अतुलनीय रूप-लावण्य से संपन्न एक युवती को जल-विहार करते देखा। ऐसा सौन्दर्य उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। युवती के पास जाकर उन्होंने उसका परिचय पूछा। उन्हें ज्ञात हुआ कि वह युवती और कोई नहीं बल्कि दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा थी। शुक्राचार्य इसी वृषपर्वा के राजगुरु थे। शर्मिष्ठा और देवयानी घनिष्ठ सहेलियां थीं। एक को अपने पिता के प्रतापी राजा होने का घमंड था, तो दूसरी को अपने पिता के तप का। एक दिन दोनों के अहंकार टकरा ही गए और दोनों में जमकर लड़ाई हुई। आहत देवयानी ने शर्मिष्ठा को नीचा दिखाने के लिए  उसे अपनी दासी बनाने की ठान ली। शुक्राचार्य ने अपनी पुत्री के अहंकार का पोषण किया और दैत्यराज वृषपर्वा को अपनी पुत्री को दासी के रूप में देवयानी की सेवा में नियुक्त करने का निर्देश दिया। वृषपर्वा ने इन्कार कर दिया। रुष्ट शुक्राचार्य ने राजगुरु का पद त्यागकर अन्यत्र जाने की तैयारी कर ली। दैत्यराज चिन्ता से घिर गए। शुक्राचार्य के बिना दैत्य अधूरे थे। उनकी अनुपस्थिति में देवराज इन्द्र का सामना करना उनके वश में नहीं था। वृषपर्वा के पास एक तरफ शुक्राचार्य का हठ था तो दूसरी ओर अपने राज्य का कल्याण। वे रुग्ण रहने लगे। शर्मिष्ठा से अपने पिता की यह दशा देखी नहीं गई। आसन्न संकट को टालने के लिए उसने स्वेच्छा से देवयानी की दासी बनना स्वीकार कर लिया। राजा ने भारी हृदय से इसकी सहमति दे दी। इस तरह राजपुत्री शर्मिष्ठा अपने पिता के राजगुरु शुक्राचार्य की लाडली देवयानी की दासी बन गई। महाराज ययाति को शर्मिष्ठा से स्वाभाविक सहानुभूति उत्पन्न हुई और साथ में अनुराग भी उत्पन्न हुआ। शर्मिष्ठा के रूप-लावण्य पर ययाति पहले से ही मुग्ध थे। उनके प्रणय-निवेदन पर शर्मिष्ठा मे भी हामी भार दी। देवयानी से बदला लेने का यह सुनहरा अवसर वह हाथ से जाने देना नहीं चाहती थी। दोनों ने गुप्त रीति से गंधर्व विवाह कर लिया। दोनों से तीन पुत्र पैदा हुए। कुरु इन दोनों का सबसे छोटा पुत्र था। ययाति एक साथ दो सुन्दरियों - देवयानी और शर्मिष्ठा के रूप-यौवन का भोग वर्षों तक करते रहे। देवयानी से भी उनके दो पुत्र हुए। कालान्तर में शर्मिष्ठा और ययाति के प्रेम-प्रसंग की जानकारी देवयानी को हो गई। क्रुद्ध देवयानी ने राजा का परित्याग कर पितृगृह की शरण ली। शुक्राचार्य के कोप का सामना करना ययाति के औकात के बाहर की बात थी। उन्होंने शुक्राचार्य के पास जाकर क्षमा-याचना की और देवयानी को पुनः भेजने का निवेदन भी किया। क्रोध से भरे शुक्राचार्य ने देवयानी को साथ भेजने की स्वीकृति तो दे दी लेकिन एक भयंकर शाप भी साथ ही साथ दे दिया। जिस जवानी के जोश में ययाति ने उनकी पुत्री देवयानी से बेवफ़ाई की थी, उसी जवानी को शुक्राचार्य ने दयनीय बुढ़ापे में परिवर्तित कर दिया। वृद्ध ययाति अपनी युवा पत्नी के साथ राजधानी लौट आए। अपने बुढ़ापे से दुखी राजा का मन अब किसी काम में नहीं लगता था। चाहकर भी न तो वे देवयानी और न ही शर्मिष्ठा के रूप-यौवन का भोग कर सकते थे। चिन्ता और दुख ने उन्हें अशक्त कर दिया था। देवयानी से अपने पति की यह दशा देखी नहीं गई। उसने अपने पिता से अपना शाप वापस लेने का अनुरोध किया। पुत्री के बार-बार के आग्रह के बाद शुक्राचार्य ने एक युक्ति बताई कि अगर राजा का कोई औरस पुत्र उनको अपनी जवानी देकर उनका बुढापा ले ले, तो ययाति पुनः यौवनावस्था को प्राप्त कर सकते हैं। भोग-लिप्सा के आकांक्षी ययाति ने अपने पांचों पुत्रों से अपनी जवानी देने का अनुरोध किया लेकिन सबसे कनिष्ठ कुरु को छोड़कर किसी ने अपनी सहमति नहीं दी। राजा को अपने अल्पवय पुत्र पर तनिक भी दया नहीं आई और उसकी जवानी लेने में उन्होंने तनिक भी विलंब नहीं किया। ययाति जवान होकर पुनः रूप यौवन का भोग करने लगे और किशोर कुरु को असमय ही जर्जर वृद्धावस्था झेलने के लिए मज़बूर होना पड़ा। लेकिन भोग से भी कभी कोई तृप्त हुआ है क्या? कुछ ही वर्षों में भोग की निरर्थकता ययाति की समझ में आ गई। शुक्राचार्य की सहायता से उन्होंने अपनी ओढ़ी हुई जवानी अपने पुत्र को लौटा दी और स्वयं बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। कुरू का उन्होंने राजा के रूप में अभिषेक किया और स्वयं संन्यास ग्रहण कर लिया।
उपरोक्त पौराणिक कहानी को भाजपा के शलाका पुरूष लाल कृष्ण आडवानी के साथ संदर्भित करने की क्या आवश्यकता आ पड़ी? पाठकों के मन में एक स्वाभाविक प्रश्न का उठना अनापेक्षित नहीं है। लेकिन अपनी सत्ता लिप्सा को ८५ साल की उम्र में भी दबा न पाने के कारण नरेन्द्र मोदी की राह में रोड़े अटकाने का आडवानी जी का कार्य कही से भी ययाति की भोगलिप्सा से कमतर नहीं है। कहते हैं कि हिन्दू वृद्धों की बुद्धि बुढापे में सठिया जाती है। यहां प्रत्यक्ष दिखाई पड़ रहा है। आडवानी जी ने इसका पहला प्रमाण पाकिस्तान यात्रा के दौरान जिन्ना की तारीफ़ों के पुल बांध कर दिया था, दूसरा प्रमाण युवा नेतृत्व को हतोत्साहित करके दिया था और तीसरा प्रमाण गोवा में अभी अभी संपन्न भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अपनी सप्रयास अनुपस्थिति दर्ज़ कराके दिया है। ८५ साल की उम्र में भी सत्ता पाने की महत्वाकांक्षा उनके ज़ेहन में ययाति की भोगलिप्सा की तरह आज भी जवान है। लेकिन तब द्वापर था। ययाति को कम से कम एक पुरु तो मिल गया था। आज कलियुग है। भारत का युवा अपना नैसर्गिक अधिकार छोड़ने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। नरेन्द्र मोदी युवा पीढ़ी की उम्मीद बनकर उभर रहे हैं। आडवानी जी को जितनी जल्दी यह बात समझ में आ जाय, उतना ही अच्छा। वरना समय किसका इन्तजार करता है। महाराज ययाति राजर्षि के रूप में विख्यात थे, लेकिन आज कोई भी उन्हें राजर्षि के रूप में नहीं याद करता। अपने सबसे छोटे पुत्र कुरु की जवानी उधार लेकर भोग में लिप्त भारतवर्ष के एक स्वार्थी राजा के रूप में ही भारत के इतिहास में उनका उल्लेख आता है।

Sunday, June 2, 2013

मैच फ़िक्सिंग और अरुण जेटली

             अरुण जेटली को मैं तब से जानता हूं, जब वे छात्र राजनीति कर रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष के रूप में वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के चुनाव-प्रचार के दौरान धनराजगिरि छात्रावास के मेरे कमरे पर भी आए थे। मेरे साथ उन्होंने चाय भी पी थी। मेरी उनसे लंबी बात हुई थी। उनके विचार और व्यवहार से मैं काफी प्रभावित हुआ था। मुझे लगा था कि निकट भविष्य में देश को एक जुझारू, क्रान्तिकारी और दूरद्रष्टा नेता मिलने वाला है। भाजपा में अपने राजनीतिक कैरियर के शुरुआती दौर में जेटली ने इस तरह का आभास भी दिया था। लेकिन समय जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया और भाजपा में उनकी कुर्सी पुख्ता होती गई वे एक वातानुकूलित नेता के रूप में अपनी पहचान बनाते गए। जननेता बनने के बदले उन्होंने गणेश परिक्रमा को ही प्राथमिकता दी और लोक सभा के बदले राज्य सभा के माध्यम से सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का हर संभव प्रयास किया और करते रहते हैं। जनता से जुड़े नेताओं को पार्टी का बाहर का रास्ता दिखाने में इनकी अग्रणी भूमिका रही है। नरेन्द्र मोदी इनके अगले निशाने पर हैं। देखना है कि कौन किसे बोल्ड करता है। इतने दिनों तक भाजपा की राजनीति करते हुए वे यह समझ नहीं पाए कि भारत की जनता को भाजपा से क्या अपेक्षा है। हिन्दुस्तान की जनता कांग्रेस में सैकड़ों येदुरप्पओं को बर्दाश्त कर सकती है लेकिन भाजपा में एक भी येदुरप्पा उसे मन्जूर नहीं। कर्नाटक के चुनाव में यह प्रमाणित भी हो गया। चरित्र, सत्यनिष्ठा और देशभक्ति के मामलों में इस देश की जनता को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर अगाध श्रद्धा और विश्वास है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व चूंकि आर.एस.एस से आए नेताओं द्वारा ही संचालित होता है, इस नाते भाजपा की विश्वसनीयता असंदिग्ध रही। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, वाजपेयी, अडवानी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक, सबने संघ के आदर्शों के अनुरूप कार्य किये और अविवादित रहे। भाजपा के नेताओं पर हिन्दूवादी और सांप्रदायिक होने का आरोप तो छद्म धर्मनिरपेक्षवादी हमेशा से लगाते रहे और भारत की जनता अपना मत देकर इस आरोप को खारिज़ करती रही। परन्तु भाजपा के धुर विरोधी भी इसके शीर्ष नेतृत्व पर कभी आर्थिक घोटाले या भ्रष्टाचार का अनर्गल आरोप लगाने की हिम्मत नहीं करते थे। लेकिन बंगारू लक्ष्मण और येदुरप्पा प्रकरण ने जनता को अपनी धारणा बदलने पर मज़बूर कर दिया। भाजपा को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी। अभी भी भाजपा में अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में स्वच्छता, पारदर्शिता और आन्तरिक लोकतंत्र बहुत ज्यादा है। अरूण जेटली जैसे नेता बस इतने से ही संतुष्ट और खुश हैं। उन्हें यह नहीं पता कि कि हिन्दुस्तान की जनता भाजपा के शुभ्र-श्वेत परिधान पर एक भी धब्बा देखना पसंद नहीं करती है। निष्कलंक चरित्र ही भाजपा की पूंजी है।
श्रीमान अरुण जेटली कांग्रेसियों की राह पर चल पड़े हैं। माधव राव सिन्धिया केन्द्रीय मंत्री थे, लेकिन बीसीसीआई का अध्यक्ष पद उन्हे ललचाता रहता था। येन-केन-प्राकारेण वे इसके अध्य्क्ष भी बने। पुराने कांग्रेसी शरद पवार भी केद्रीय मंत्री होने के बावजूद  बीसीसीआई के अध्यक्ष पद के लिए लार टपकाते रहे और चुनाव भी लड़े। पहली बार में अपमानजनक पराजय के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और दूसरी कोशिश में जोड़-जुगाड़ से सफल भी रहे। राजीव शुक्ला अच्छे पत्रकार थे, अच्छे लेखक भी थे। कांग्रेस ने उन्हें मंत्री बनाकर अपना हित तो साध लिया लेकिन वे पत्रकारिता से दूर होते चले गए। उन्हें अब आईपीएल और चीयर गर्ल्स का ग्लैमर ज्यादा भाने लगा है। आईपीएल के अध्यक्ष वही हैं। उन्हीं के कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट की मैच फिक्सिंग की सबसे शर्मनाक घटना हुई है। यह नशा उनपर इतना छाया है कि वे भारत सरकार के संसदीय मंत्री के रूप में संसद के प्रबंधन से ज्यादा मैच फिक्सिंग के प्रबंधन में  रुचि लेने लगे हैं। अरुण जेटली को भी क्रिकेट का ग्लैमर कुछ ज्यादा ही भा रहा है। इस समय वे दिल्ली क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष के अतिरिक्त बीसीसीआई के उपाध्यक्ष पद का भी दायित्व संभाले हुए हैं और बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पाने के लिए जीतोड़ जुगाड़बाजी कर रहे हैं। वे राज्य सभा में विपक्ष के नेता हैं, कुशल वक्ता हैं। इस नाते प्रधान मंत्री की दावेदारी भी कर सकते हैं, परन्तु उनकी महत्वाकांक्षा सबसे पहले बीसीसीआई का अध्यक्ष बनने की है। उन्हें आईपीएल की मैच फिक्सिंग और बीसीसीआई के अध्यक्ष श्रीनिवासन की दामाद के माध्यम से इसमें संलिप्तता दिखाई नहीं पड़ती है। वे इस विषय पर कुछ भी बोलने से परहेज़ करते है। बहुत कुरेदने पर कुछ बोलते भी हैं, तो सरकार के भ्रष्ट मंत्रियों की तरह - जांच के बाद तथ्य सामने आने पर दोषियों पर नियमानुसार कार्यवाही होगी। ये वही जेटली हैं जो सिर्फ आरोपों के आधार पर प्रधान मंत्री तक का इस्तीफ़ा मांगते हैं और महीनों संसद की कार्यवाही ठप्प करा देते हैं। श्रीमान जेटली राज्य स्तर या राष्ट्रीय स्तर पर कभी क्रिकेट के खिलाड़ी नहीं रहे। क्लब स्तर पर भले ही उन्होंने कभी क्रिकेट खेली हो; (पोते के साथ तो मैं आज भी क्रिकेट खेलता हूं।) फिर क्या कारण है कि वे बीसीसीआई का अध्यक्ष पद पाने के लिए इतने आतुर हैं कि भ्रष्ट लोगों का समर्थन करने में उनको शर्मिन्दगी नहीं आ रही है। कभी वे राजीव शुक्ला के साथ गलबहियां डालकर आईपीएल की पार्टियों में लुत्फ़ उठाते देखे जाते हैं, तो कभी सिने अभिनेत्रियों के साथ मैच देखते हुए। यह काम कांग्रेसियों को शोभा देता है, अरुण जेटली और भाजपा को नहीं। आखिर बीसीसीआई के अध्यक्ष की कितनी कमाई है कि डालमिया जैसा उद्योगपति, श्रीनिवासन जैसा अरबपति सिमेन्ट व्यवसायी, शरद पवार जैसा केन्द्रीय मंत्री और अरुण जेटली जैसा नेता भी अपना लोभ संवरण नहीं कर पाते हैं। इसकी सीबीआई द्वारा जांच होनी चाहिए।  अगर जेटली उपाध्यक्ष के रूप में  बीसीसीआई में अपनी प्रभावी उपस्थिति से कोई सुधार नहीं ला सकते, तो  वहां बने रहने या अगली पदोन्नति के लिए काम करने का क्या औचित्य है? क्रिकेट खिलाड़ी जेल चले जाते हैं, अध्यक्ष का दामाद फिक्सिंग में सलाखों के पीछे चला जाता है। दारा सिंह के यश और प्रतिष्ठा को कलंकित करते हुए बिन्दू सिंह जेल की चक्की पीस सकता है, भारत की क्रिकेट टीम के कप्तान की पत्नी मैच फिक्सरों के साथ बैठकर आनन्द ले सकती है, धोनी भी संदेह के घेरे में हैं, लेकिन राज्य सभा में विपक्ष के नेता और बीसीसीआई के उपाध्यक्ष अरुण जेटली अपना मुंह नहीं खोल सकते हैं। क्रिकेट टीम के पूर्व कतान एवं महान मैच फिक्सर अज़हरुद्दीन को कांग्रेस अपना सांसद बना सकती है, जनता पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ता है, लेकिन जेटली साहब! श्रीसन्त, श्रीनिवासन, श्रीमती धोनी, राजीव शुक्ला और बिन्दू सिंह के साथ आपकी जुगलबन्दी भाजपा को बहुत महंगी पड़ने वाली है। अब भी वक्त है, संभल जाइए। ग्लैमर के पीछे भागने की आपकी उम्र भी नहीं रही।