Thursday, March 17, 2011

एटमी करार और सांसदों की खरीद-फ़रोख्त

पिछले सात-आठ वर्षों के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि केन्द्रीय सरकार का सत्ता केन्द्र कहीं और है. मनमोहन सिंह मात्र कठपुतली हैं, डोर कहीं और से खींची जाती है. अगर इस डोर का स्रोत देश में ही कहीं होता, तो बात उतनी गंभीर नहीं थी, लेकिन विकिलीक्स के ताजे खुलासे ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता के संचालन का मुख्य केन्द्र अमेरिका में है. वहां से जारी निर्देशों का अनुपालन, वाया १०,जनपथ, हमारे बेबस प्रधानमंत्री करते हैं.
सन २००८ में, अमेरिका समर्थित एटमी बिल पास कराने के समय सरकार पर अविश्वास मत के दौरान आए संकट को टालने के लिए सांसदों की जमकर खरीद-फरोख्त की गई थी. उस समय पेशी में दिए गए लाखों रुपयों की गड्डियां संसद में लहराकर भाजपा सांसदों ने सनसनी फैला दी थी, लेकिन अमेरिका समर्थित मीडिया ने इसकी जमकर खिल्ली उड़ाई थी. ऐसा प्रचार किया जा रहा था, जैसे एटमी बिल पास होते ही, देश को अनन्त ऊर्जा मिलने लगेगी, आवश्यकता से अधिक बिजली पैदा होगी, देश विकास के सोपान पर चढ़ने लगेगा और पश्चिमी देशों की तरह समृद्धि उसके कदम चूमने लगेगी. जिसने भी उसका विरोध किया, उसे खलनायक बनाकर पेश किया गया. सोमनाथ चटर्जी और ए.पी.जे.कलाम भी इस कूट चाल को समझ नहीं पाए. ऐसा नहीं कि अमेरिकी धन का उपयोग सिर्फ़ सांसदों को खरीदने में किया गया, मीडिया पर भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए.
सोनिया गांधी के परम विश्वासपात्र कैप्टेन सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने सरकार द्वारा विश्वास मत प्राप्त करने के बाद अपने आका अमेरिकी राजदूत को इसकी सूचना देते हुए बताया कि इस प्रकरण में उस समय तक पचास करोड़ खर्च हो चुके थे. विकिलीक्स ने अपने ताज़े खुलासे में इसी सत्य की पुष्टि की है. अजीत सिंह समेत राष्ट्रीय लोकदल के सांसदों को खरीदने के लिए प्रति सांसद दस करोड़ रुपए दिए गए. हर पार्टी के बिकाऊ सांसदों को खरीदने का जिम्मा अमर सिंह ने अंबानियों की मदद से उठाया. अमर सिंह का नार्को टेस्ट कराया जाय, तो सच बिल्कुल सामने आ जाएगा. मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को संकट में डाला था. इसमें उनका कोई निजी हित रहा हो. ऐसा भी नहीं था. वैसे भी मनमोहन सिंह अपनी मर्जी से क्या करते हैं? वे बहुत अच्छे यस मैन हैं. अमेरिका और सोनिया गांधी की जो इच्छा थी, उन्होंने वही किया. लगा दी दांव पर अपनी सरकार. अगर यह जूआ वे नहीं खेलते तो एकदिन भी प्रधानमंत्री नहीं रहते. खेल लिया तो दूसरी पारी भी पा गए. उनका पूरा कार्यकाल ही सौदेबाज़ी का रहा है. बाज़ी बिछाई गई, १०, जनपथ के इशारे पर. पासा फेंकने के लिए सतीश शर्मा, नचिकेता कपूर, मुकेश अंबानी और अमर सिंह तो कमर कसके पहले से ही तैयार थे. अब भेद खुल गया है तो मनमोहन सिंह जम्मू की एक और यात्रा कर लेंगे, सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले लेंगे.
भ्रष्टाचार और कांग्रेस का बड़ा गहरा नाता है. इन्दिरा गांधी द्वारा रोपा गया यह नन्हा बिरवा खाद-पानी और उचित रखरखाव पाकर वटवृक्षों का विशाल वन बन चुका है. किसी भी कांग्रेसी को काले धन से परहेज़ नहीं. अपनी सरकार के खिलाफ़ जीत के लिए पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोरचे के सांसदों की संसद भवन में संपन्न खरीद-फ़रोख्त को कौन भूल सकता है? कांग्रेस ने भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहा दी है, जिसमें उसके धुर विरोधी भी मौका पाते ही डुबकी लगाने से नहीं चुकते. अब भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जनमानस भी उद्वेलित नहीं होता. इसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस सफल रही है. कांग्रेस और भ्रष्टाचार के सबसे बड़े शत्रु राम मनोहर लोहिया के शिष्य लालू-मुलायम इस दौड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में हैं. एटमी बिल के समर्थन में एकाएक खड़े हो जाने वाले सभी व्यक्तियों और दलों की भूमिका संदिग्ध है.
अमेरिका से एटमी करार के बाद भी हमें क्या मिला? कितने परमाणु बिजली घरों का निर्माण हुआ? आणविक ऊर्जा ने हमारे पावर ग्रिड में कितने मेगावाट का योगदान किया. प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करार के बाद अभी तक एक भी नया परमाणु बिजली घर अस्तित्व में नहीं आया. रुस के चेर्नोबिल और जापान के फुकुशिमा आणविक बिजली घरों में विस्फोट के बाद रिसाव के कारण फैल रहे विकिरण से विश्व समुदाय की आंखें खुल जानी चाहिए. न्यूक्लियर कंट्रोल ब्रीफ़केस अपनी कांख में दबाए अमेरिका के राष्ट्रपति विश्व-भ्रमण करते रहें. वे ट्रिगर दबाएं या न दबाएं, सुनामी ट्रिगर दबा ही देगी. परमाणु ऊर्जा, चाहे वह बिजली घर के रूप में हो या परमाणु बम के - सर्वथा त्याज्य है.

Saturday, March 5, 2011

ज़िन्दा कौमें पांच साल इन्तज़ार नहीं करतीं

आखिर दूसरे का पाप कबतक अपने सिर पर ढोते रहेंगे मनमोहन सिंह? क्या भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में इतनी भयंकर अनियमितताएं, इतने अधिक भ्रष्टाचार और इतनी ज़्यादा बेबसी का रिकार्ड रहा है? प्रधानमंत्री की आड़ में कौन शासन कर रहा है, कौन नैतिकता की मर्यादाओं को ताक पर रखकर अपने निर्णय लागू करवा रहा है? देश और जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है. पी.जे.थामस, जैसा नाम से ही स्पष्ट है, मनमोहन सिंह के रिश्तेदार नहीं हो सकते. वे उनकी जाति, पंथ या प्रांत के भी नहीं हैं. उनकी औकात नहीं कि मनमोहन सिंह को रिश्वत देकर खरीद सकें. फिर कौन सी मज़बूरी थी जिसने प्रधानमंत्री को विपक्ष की नेता की लिखित असहमति को दरकिनार कर पी.जे.थामस जैसे भ्रष्ट और दागी व्यक्ति को मुख्य सतर्कता आयुक्त के संवैधानिक पद पर नियुक्त करने के लिए विवश किया? क्या सोनिया गांधी से थामस की घनिष्ठता ही उनकी नियुक्ति के लिए पर्याप्त योग्यता नहीं मानी गई? क्या चिदंबरम कांग्रेस की राजमाता के निर्देशों पर चित्त नहीं हुए? क्या मनमोहन की बासुरी में फूंक १०, जनपथ से नहीं भरी गई? क्या प्रधानमंत्री में लेषमात्र भी स्वाभिमान शेष है? क्या देश ने ऐसा कठपुतली और बेबस प्रधानमंत्री अपने इतिहास में पहले कभी देखा था?
उच्चतम न्यायालय ने जैसी कठोर टिप्पणियों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पी.जे.थामस की नियुक्ति खारिज़ की है, उससे केन्द्रीय सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री के लिए मुंह छुपाना भी मुश्किल हो गया है. वास्तव में यह मनमोहन सिंह के गाल पर प्रत्यक्ष और सोनिया गांधी के गाल पर परोक्ष जोरदार तमाचा है. न्यायपालिका के इस प्रहार के साथ ही केन्द्र सरकार की बची-खुची प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल गई है.
१९७३ बैच के आई.ए.एस. अधिकारी, थामस को २००५-०६ में सी.वी.सी पद के लिए अयोग्य मानते हुए उनकी दावेदारी को निरस्त कर दिया गया था, लेकिन २००८ में फिर से उन्हें इस पद के दावेदारों में शामिल कर लिया गया और अन्ततः सितम्बर २०१० में उनके नाम पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता की असहमति को दरकिनार करते हुए अंतिम मुहर लगा दी. इस मामले से उनलोगों का भी मुखौटा उतरा है जो थामस को लगातार प्रोन्नति देते गए और जिनलोगों की कृपा से थामस एडीशनल सेक्रेटरी, चीफ सेक्रेटरी होते हुए सेक्रेटरी भारत सरकार और अन्त में सीवीसी के पद तक पहुंच गए. थामस की नियुक्ति के मामले में सबसे विचित्र बात रही है कि गलती का एहसास होने के बाद भी इसे स्वीकार नहीं किया गया. जो अनजाने में गलती करता है, वह क्षमा के योग्य हो सकता है, लेकिन जो जानबूझकर जीती मक्खी निगलता है, वह सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता. अच्छा होता, सर्वोच्च न्यायालय ने मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम के लिए उचित दंड की भी व्यवस्था की होती. सरकार ने ऐसा ही रवैया २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी अपनाया था. तरह-तरह के कुतर्क देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि २-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई गड़बड़ी नहीं हुई. सीएजी रिपोर्ट को ही कपिल सिब्बल ने खारिज़ कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में भी हस्तक्षेप करना पड़ा. सिब्बल को फटकार मिली, राजा को जेल जाना पड़ा और सरकार को विपक्ष की मांग के आगे घुटने टेकने पड़े. संसद के एक सत्र को बलि चढ़ाने के बाद संयुक्त संसदीय समिति का गठन करना ही पड़ा.
सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में तनिक भी गंभीर नहीं है. भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के बदले उनके कृत्यों पर लीपापोती करने का प्रयास इतनी नसीहतों के बाद भी पूर्ववत जारी है. काले धन के मामले में भी सरकार का रवैया गले उतरने वाला नहीं है. भारत के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी और टैक्स चोर हसन अली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी कि उसे अभी तक गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया? उससे गंभीरता से पूछताछ क्यों नहीं की गई? सरकार की लापरवाही और हसन की गिरफ़्तारी न होने के कारण वह अपने काले धन का करीब ३०-३५ हज़ार करोड़ रुपए स्विस बैंकों से निकालकर सुरक्षित ठिकानों मे पहुंचा चुका है. यदि हसन अली गिरफ़्तार होता तो उसे यह मौका नहीं मिलता और दूसरी तमाम जानकारियां भी सरकार को मिल सकती थीं, जिनके आधार पर काले धन को वापस लाया जा सकता था. हसन अली देश के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए अपने काले धन को सुरक्षित करने में जुटा है और सरकार सोई हुई है.
आज यह एक ज्वलन्त प्रश्न है कि सरकार आखिर किसकी है - भ्रष्टाचारियों की, काला बाज़ारियों की, रिश्वतखोरों, चापलूसों और कारपोरेट घरानों की या जनता की? लोहिया ने कहा था कि ज़िन्दा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं. पूर्णतया श्रीहीन हो चुकी इस कठपुतली सरकार को बदलने के लिए जनता को क्या पांच साल इंतज़ार करना चाहिए? यह एक यक्ष प्रश्न है जिसपर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.