Sunday, August 23, 2015

अतुलनीय मुकेश - न भूतो न भविष्यति

अतुलनीय मुकेश - न भूतो न भविष्यति
(पुण्य-तिथि २५-२६ अगस्त पर विशेष)
      अमर गायक मुकेश उन सौभाग्यशाली कुछ गायकों में एक हैं, जिन्हें फिल्म-जगत में सफलता प्राप्त करने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। शहद मिश्रित स्वर के बेताज बादशाह मुकेश को जब संगीतकार अनिल विश्वास ने पहली बार सुना, तो आश्चर्य से उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई नवागन्तुक, कुंदन लाल सहगल के गाने इतनी सहजता से और स्वर में उसी माधुर्य के साथ गा सकता है! वह ज़माना के.एल.सहगल का था जिनके सामने पंकज मल्लिक और सी.एच.आत्मा जैसे नैसर्गिक प्रतिभा के धनी गायक भी पानी भरते थे। अनिल विश्वास ने मुकेश पर अप्रतिम विश्वास जताते हुए अपने संगीत निर्देशन में बन रही फिल्म ‘पहली नज़र’ में गाने का अवसर दिया। मुकेश ने अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल दी उस गाने में। कौन भूल सकता है स्वर-सम्राट मुकेश का वह पहला गीत - “दिल जलता है तो जलने दे, आँसू ने बहा फ़रियाद न कर......!" गाना सुपरहिट हुआ। एक बार सहगल जी ने इस गाने को सुना, तो वे भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सके। अपने सेक्रेटरी से उन्होंने पूछा - “यह गाना मैंने कब गाया?" सेक्रेटरी का उत्तर था -“यह गाना आपने नहीं, नवागन्तुक गायक मुकेश ने गाया है।" सहगल ने मुकेश से मिलने की इच्छा जताई। जैसे ही मुकेश को यह समाचार मिला, वे अपने आदर्श कुंदन लाल सहगल से मिलने उनके आवास पर पहुँच गए। सहगल ने उन्हें बार-बार सुना और स्नेह से मुकेश के कंधे पर हाथ रखकर कहा - “अब मैं चैन से मर पाऊँगा। मुझे मेरा उत्तराधिकारी मिल गया। मेरी विरासत सुरक्षित रहेगी।" उन्होंने अपना वह हारमोनियम, जिसपर स्वयं अभ्यास करते थे, मुकेश को सौंप दिया। मुकेश जीवन भर उसी हारमोनियम पर अभ्यास करते रहे। लता मंगेशकर भी सहगल जी की अनन्य प्रशंसिका हैं। वे मुकेश को भी उतना ही पसंद करती हैं। उनका कहना है कि मुकेश जी की आवाज में मुझे के.एल.सहगल की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है। जब मुकेश अपने कैरियर के उठान पर थे, सहगल जी का देहावसान हो गया। मुकेश ने सहगल की कमी खलने नहीं दी। वे सभी संगीतकारों के पसंदीदा गायक थे। फिल्म जगत के वे ऐसे एकमात्र गायक/गायिका थे, जिनके गाए लगभग सभी गाने जनता कि जुबान अविलंब पर चढ़ जाते थे।
      समय किसी को भी नहीं बक्शता है। मुकेश को भी ५० के दशक में काफी दिक्कतें आईं। १९४७ में देश के बंटवारे के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के बीच पनपी असुरक्षा की भावना ने फिल्म जगत में भी अपना असर दिखाना शुरु कर दिया। नौशाद, शकील बदायूंनी, दिलीप कुमार (युसुफ़ खान), महबूब इत्यादि नामी-गिरामी हस्तियों ने अपना एक कैंप स्थापित कर दिया जिसे दिलीप कैंप कहा जाने लगा। उस समय फिल्म-जगत में इन लोगों का बोलबाला था। दिलीप कुमार ट्रेजेडी किंग थे और मुकेश थे दर्द भरे गीतों के शहंशाह। मुकेश ने दिलीप कुमार के लिए जितने भी गाने गाए, वे सुपर हिट ही नहीं हुए बल्कि मील के पत्थर साबित हुए। दिलीप कुमार पर मुकेश की आवज़ बहुत फबती थी। फिल्म अन्दाज़ के गाने – तू कहे अगर जीवन भर तुझे गीत सुनाता जाऊँ......., झूम-झूम के नाचो..., मेला का – गाए जा गीत मिलन के....,धरती को आकाश पुकारे....., मेरा दिल तोड़ने वाले.....,यहूदी का - ये मेरा दीवानापन है....., मधुमती का - सुहाना सफ़र और ये मौसम हंसी........, दिल तड़प-तड़प के दे रहा है ये सदा.... इत्यादि को कौन भूल सकता सकता है जो मुकेश की आवाज़ में दिलीप पर फिल्माए गए थे। दिलीप कैंप के उदय के बाद दिलीप कुमार ने मो. रफ़ी का पार्श्वगायन लेना आरंभ कर दिया, लेकिन दिलीप के लिए रफ़ी द्वारा गाए गीत मुकेश द्वारा गाए गीतों की ऊँचाई नहीं प्राप्त कर सके। कारण स्पष्ट था – दिलीप की ट्रेजेडी एक्टिंग में मुकेश का दर्द भरा सहज स्वर एक अद्भुत प्रभाव का सृजन करता था। कैंपबाजी का सर्वाधिक नुकसान हिन्दी फिल्मी संगीत को हुआ। गायिकाओं में भी इस कैंप ने लता के विकल्प के रूप में शमशाद बेगम को प्रोत्साहित किया; लेकिन लता का विकल्प कोई बन सकता है क्या? लता और मुकेश का विकल्प न कभी था और न आगे होगा भी। मुकेश गुमनामी के अंधेरे में गुम होने के कगार पर आ गए थे। भला हो महान कला पारखी राज कपूर का जिसने मुकेश की प्रतिभा को सही ढंग से पहचाना और ‘आग’ से जो सफ़र इन दोनों ने साथ-साथ शुरु किया वह ‘मेरा नाम जोकर’ तक निर्बाध गति से चलता रहा। मुकेश राज कपूर की आवाज़ बन गए। फिल्म आवारा में राज पर फिल्माया गया, शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देश्न में मुकेश की आवाज़ में कालजयी गीत ‘आवारा हूँ, आसमान का तारा हूँ, की लोकप्रियता ने देश में ही नहीं विदेश में भी लोकप्रियता के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। तात्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू जब राजकीय यात्रा पर रूस गए, तो सारे प्रोटोकाल तोड़कर वहाँ की जनता ने “आवारा हूँ, आसमान का तारा हूँ...... समवेत स्वर में गाकर नेहरू जी का स्वागत किया था।

      वैसे तो मुकेश ने सभी संगीतकारों के निर्देश्न में पार्श्वगायन किया था, लेकिन उनकी मधुर आवाज़ का सबसे सुन्दर उपयोग करने में शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनन्दजी, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, खैयाम, रोशन, उषा खन्ना, सरदार मलिक और दान सिंह का नाम सबसे ऊपर है। मुकेश हमेशा चुनिन्दा गाने ही गाते थे, इसलिए समकालीन गायकों की तुलना में उनके द्वारा गाए गीतों की संख्या बहुत कम है, लेकिन गुणवत्ता और लोकप्रियता बेमिसाल है। कहते हैं कि किशोर कुमार होंठों से गाते थे, मो. रफ़ी कंठ और होंठ - दोनों से गाते थे; लेकिन मुकेश, कंठ और होंठ के साथ दिल से गाते थे। उस अमर गायक मुकेश को उनकी ३९वीं पुण्य-तिथि पर शत-शत नमन।

Friday, August 21, 2015

श्रीकृष्ण-जन्मभूमि

              पुण्य नगरी मथुरा में  चार दिवसीय प्रवास के बाद मैं कल ही बनारस लौटा. प्रवास अत्यन्त आनन्दायक था. मेरी प्रबल इच्छा थी कि अपने नवीनतम पौराणिक उपन्यास ‘यशोदानन्दन’ की पाण्डुलिपि श्रीकृष्ण-जन्मभूमि में जाकर उनके श्रीचरणों में अर्पित करने के बाद ही प्रकाशक को भेजूं। मैं अपने अभियान में सफल रहा। मैं वहां अपने परम मित्र प्रो. दुर्ग सिंह चौहान जी, कुलपति जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा का अतिथि था। आदरणीया भाभीजी श्रीमती ज्योत्सना चौहान और अग्रज दुर्ग सिंह जी ने मेरे अभियान को सफल बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। मैंने जो भी पुण्य अर्जित किया, उसके ५०% के वे स्वाभाविक अधिकारी हैं।
      जन्मभूमि और श्रीकृष्ण-राधा के विग्रह के दर्शन से मन आनन्द से ओतप्रोत हो उठा, लेकिन उससे सटे मस्ज़िद को देखकर मन में एक टीस-सी उठी। मस्ज़िद या चर्च के प्रति मेरे मन में कभी भी असम्मान की भावना नहीं रही है, परन्तु श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर निर्मित मस्ज़िद का इतिहास याद कर मन वितृष्णा से अनायास ही भर उठता है। करोड़ों दर्शनार्थी काशी, मथुरा और अयोध्या में अपने आराध्यों के दर्शनार्थ आते हैं और मेरे समान ही अनुभव लेकर वापस जाते हैं तथा अपने मित्रों, करीबियों तथा ग्रामवासियों को अपने हृदय की पीड़ा बताते हैं। निश्चय ही मुसलमानों ने इस देश के एक बड़े भूभाग पर लगभग ६०० वर्षों तक राज किया लेकिन वे हिन्दुओं के हृदय पर एक पल भी राज नहीं कर सके। जबतक काशी और मथुरा के पवित्र मन्दिरों के समीप पुराने मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई मस्ज़िदें वे देखते रहेंगे, तबतक हर हिन्दू के हृदय में एक स्वाभाविक टीस बनी ही रहेगी। मुसलमानों को हिन्दुओं की इस भावना को समझना चाहिए और स्वेच्छा से सुधारात्मक प्रयास करना चाहिए। तभी वे हिन्दुओं का विश्वास जीत पायेंगे और देश में नए सिरे से स्थायी सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थापना हो पाएगी।

Tuesday, August 4, 2015

डिब्बाबंद पेय पदार्थों का सच

               डिब्बाबन्द पेय पदार्थों में स्वाद तो होता है, परन्तु पौष्टिकता नहीं होती। अपने उत्पादन स्थल से फुटकर दुकानों तक पहुँचने में यह लंबा समय लेता है। दूकान से उपभोक्ता के पास पहुँचने में यह और लंबा समय लेता है। कायदे से इनका भंडारण रेफ़्रीजेरेटर में किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। पूरे देश में कुछ महानगरों को छोड़कर अंधाधुंध बिजली-कटौती होती है। फुटकर विक्रेता चाहकर भी रेफ़्रीजेरेटर नहीं चला सकते हैं। कस्बों और गाँवों के दूकानदारों के पास रेफ़्रीजेरेटर होता भी नहीं है, लेकिन सभी फ्रूटी, माज़ा, गोल्ड क्वायन आदि आदि पेय तरल रखते हैं और धड़ल्ले से बेचते भी हैं। डिब्बाबन्द पेय पदार्थों का उत्पादन स्थल से डीलर तक  ट्रान्स्पोर्टेशन भी वातानुकूलित कन्टेनर में किया जाना चाहिए, लेकिन लाभ कमाने के शगल में पागल कंपनियां किसी भी नियम का पालन नहीं करतीं। नतीजा यह होता है कि उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते ये डिब्बाबंद पेय पदार्थ  फंगस लगने के कारण जहर में परिवर्तित हो जाते हैं। आज से ३० साल पहले जब मैं ओबरा ताप विद्युत गृह में तैनात था, तो उसी पावर हाउस में कार्यरत मेरे मित्र रिज़वान अहमद की मृत्यु फ़्रूटी पीने के कारण हो गई। धूंआ, गर्द, दूषित जल, प्रदूषित हवा और रासायनिक खादों की सहायता से उत्पादित अन्न-जल खाते-पीते भारत के लोगों के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता विकसित देशों की जनता से ज्यादा होती है। लेकिन इसी में जिन लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, वे डिब्बाबन्द पेयों के सेवन से स्वर्ग सिधार जाते हैं। इनमें बच्चों की संख्या अधिक होती है।
आज (अगस्त,५,२०१५) को ‘अमर उजाला’ के प्रथम पृष्ठ पर एक समाचार पढ़ा, जो मैं ज्यों का त्यों, नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं --
                                          “फ्रूटी में निकली मरी छिपकली"
“बहराइच (ब्यूरो)। छह साल की मासूम पोती को खुश करने के लिए दादा ने जो फ्रूटी खरीदकर दी , उसमें मरी हुई छिपकली निकली। उसे जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां इलाज़ के बाद घर भेज दिया गया। खाद्य सुरक्षा अधिकारी ने दुकान पर छापा मारकर फ्रूटी का पैकेट सीज़ कर सैम्पुल परीक्षण के लिए गोरखपुर प्रयोगशाला भेजा है। इसी के साथ दुकान से मिली संबंधित बैच की तीन पेटी फ्रूटी सीज़ कर पाँच सैम्पुल परीक्षण के लिए भेजे गए हैं।”
मैगी पर इतना बवाल हुआ; क्या फ्रूटी पर भी होगा? मेरी समझ से नहीं। इस समस्या का समाधान हम-आपको मिलकर करना होगा। इसका एक ही समाधान है - डिब्बाबंद पेय पदार्थों का बहिष्कार।