Friday, October 17, 2014

महाभारत-३


संजय भी जल्दी हार माननेवाला कहां था। वह ज्ञानी भले ही न हो, जानकार तो था ही। सामान्य जन ज्ञान और जानकारी को एक ही मानते हैं। सत्य और असत्य को पहचानना उतना कठिन नहीं है, जितना ज्ञान और जानकारी में अन्तर समझना। ज्ञान प्राप्त होने के बाद मनुष्य मौन हो जाता है। उसकी वाणी विवेक द्वारा संचालित होने लगती है, जबकि जानकार की जिह्वा द्वारा। वह सत्य के उद्घाटन हेतु प्रबुद्ध जनों के बीच ही अत्यन्त आवश्यकता पड़ने पर ज्ञान बांटता है और एतदर्थ बोलता है। इसके विपरीत जानकार अपने को ज्ञानी सिद्ध करने के लिये हमेशा बोलता ही रहता है। वह सुननेवाले कुपात्रों और सुपात्रों में भी भेद नहीं करता है। अल्पबुद्धि श्रोता जानकार को ही ज्ञानी समझने की भूल सदियों से करते आए हैं। संजय ने धृतराष्ट्र की स्वार्थसिद्धि के लिये बातों के अनगिनत जाल बिछाए। श्रीकृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने संजय को बीच में नहीं टोका। संजय ने अपनी बात पूरी करने के बाद आशा भरी निगाह से युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण को देखा। श्री कृष्ण ने बड़े नपे-तुले शब्दों में उत्तर दिया -
अविनाशं संजय पांडवानामिच्छाम्यहं भूमिमेषां प्रियं च।
तथा राज्ञो धृतराष्ट्रस्य सूत सदाशंसे बहुपुत्रस्य वृद्धिम॥
(उद्योग पर्व २९;१)
संजय! मैं पाण्डवों के लिए अविनाश चाहता हूं, उन्हें ऐश्वर्य मिले, उनका प्रिय हो, यह भी हृदय से चाहता हूं। इसके साथ ही, इसी प्रकार से, अनेक पुत्रोंवाले धृतराष्ट्र की भी वृद्धि अर्थात अभुदय चाहता हूं।
श्रीकृष्ण स्पष्टवक्ता हैं। उनकी यह विशेषता थी कि जो जिस भाषा में समझने के योग्य होता था, वे वही इस्तेमाल करते थे। युधिष्ठिर और संजय की वार्त्ता अन्तहीन वाद-विवाद में परिणत हो रही थी। इसे विराम देना आवश्यक था। श्रीकृष्ण ने अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए कहा -
संजय, मैं पाण्डवों का श्रेय चाहता हूं, पर कौरवों का अहित भी नहीं चाहता। किन्तु कौरवों ने एक महान अपराध किया है; वे परभूमि - पराई भूमि पचा जाना चाहते हैं। पराया धन प्रकट रूप से या चोरी-छिपे हरण करनेवाले चोर-लुटेरे और दुर्योधन के बीच कोई अन्तर है क्या?
श्रीकृष्ण का प्रश्न सुनकर संजय नज़रें झुका लेता है। श्रीकृष्ण की बातों में सत्य का बल है। कुतर्क सत्य के सामने बहुत देर तक कभी नहीं टिकता।
अगले अंक में - कौरवों को श्रीकृष्ण का संदेश

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