Saturday, November 28, 2015

बच्चा पैदा करने वाली मशीन

         केरल के मशहूर सुन्नी मुस्लिम धर्मगुरु कांथापुरम एपी अबूबकर मुसलियार ने कल दिनांक २८, नवंबर, २०१५ को कोझिकोड में मुस्लिम स्टूडेंट फ़ेडेरेशन के एक कैंप को संबोधित करते हुए कहा कि महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे केवल बच्चों को पैदा करने के लिए बनी हैं। उन्होंने कहा कि लैंगिक समानता की अवधारणा गैर इस्लामिक है। आल इंडिया सुन्नी जमीयत उल उलेमा के प्रमुख मुसलियार ने कहा कि महिलायें मानसिक तौर पर मज़बूत नहीं होती हैं और दुनिया को नियंत्रित करने की ताकत सिर्फ मर्दों में है। लैंगिक समानता कभी हकीकत नहीं बन सकता। यह इस्लाम और मानवता के खिलाफ होने के साथ ही बौद्धिक रूप से भी गलत है। 
इसके उलट सनातन धर्म की अवधारणा है कि “यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।" जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है। अगर ऐसा बयान किसी हिन्दू धर्म गुरु ने दिया होता तो कल्पना कीजिए हिन्दुस्तान के न्यूज चैनल और धर्मनिरपेक्ष क्या कर रहे होते? टीवी पर कितने डिबेट चल रहे होते, कितने फिल्म सितारे भारत छोड़ने का बयान दे रहे होते और कितने प्रगतिशील गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाने के लिए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे होते? यह गंगा-जमुनी कौन सी तहज़ीब है, मेरी समझ में आज तक नहीं आया। मेरी जो छोटी समझ है उसके अनुसार गंगा की पहचान देवाधिदेव महादेव से है और जमुना की पहचान योगीराज श्रीकृष्ण से है। भारत की पूरी संस्कृति ही गंगा और जमुना के किनारे विकसित हुई है और इस संस्कृति ने औरत को कभी हीन नहीं माना। गार्गी ने वेद की ऋचाएं रची, दुर्गा ने असुरों का संहार किया, सरस्वती ने विद्या दी और लक्ष्मी ने विश्व को धन-संपदा। आज के युग में भी अहिल्या बाई ने आदर्श राज्य-व्यवस्था की नींव रखी, तो लक्ष्मी बाई ने पराक्रम और शौर्य का नया इतिहास रचा। नारी का दर्ज़ा पुरुषों के बराबर नहीं, उनसे कहीं ऊँचा है।

भारत-पाक क्रिकेट शृंखला

              समझ में नहीं आता है कि पाकिस्तान के साथ क्रिकेट सीरीज न खेलने से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पेट में दर्द क्यों होने लगता है! दुनिया में बहुत-से क्रिकेट खेलने वाले देश हैं। हम उनके साथ नियमित रूप से क्रिकेट खेलते हैं। पाकिस्तान में कौन सुर्खाब के पंख लगे हैं कि हम कुछ ही समय के बाद उसके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हो जाते हैं। खेल को राजनीति के साथ भले ही न जोड़ा जाए, लेकिन देश की सुरक्षा और स्वाभिमान की कीमत पर हम अपने दुश्मन देश को वह वरीयता नहीं दे सकते, जो एक मित्र देश को देते हैं। फिर, भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट कभी खेल भावना से खेला भी नहीं जाता है। मुझे याद है कि एक बार भारत की टीम पाकिस्तान गई थी। गावास्कर भी उस टीम में थे। भारत की टीम बुरी तरह हारी थी। शृंखला के अन्त में पाकिस्तान के कप्तान इमरान खान ने वक्तव्य दिया था कि कश्मीर के भाग्य का फ़ैसला क्यों नहीं हम क्रिकेट-सीरीज खेल कर तय कर लें। भारत चुप था, क्योंकि वह शृंखला हार चुका था। पाकिस्तान और कश्मीर सहित भारत के कुछ हिस्सों में लगातार कई दिनों तक जश्न मनाया जाता रहा। अभी एक सीरीज दक्षिण अफ्रीका के साथ चल रही है। भारत सीरीज जीत चुका है, लेकिन कहीं जश्न का माहौल नहीं है। अच्छा खेलने वाली टीम जीत रही है। जीतने वाली टीम खुश तो हो रही है, लेकिन प्रतिद्वंद्वी टीम के दिल को कोई बात छू जाय, ऐसा वक्तव्य कप्तान, कोच या कोई खिलाड़ी नहीं दे रहा है। विरोधी टीम भी बहुत नपा-तुला और समझदारी का बयान दे रही है। दोनों पक्ष के खिलाड़ियों में भी कोई कटुता नहीं है। परन्तु पाकिस्ता के साथ भी क्या क्रिकेट मैच इसी खेल भावना के साथ खेलना संभव है? कदापि नहीं। भारत और पाकिस्ता के बीच क्रिकेट का खेल युद्ध के रूप में लड़ा जाता है। भारत की जनता और खिलाड़ी भी हर मैच युद्ध की भावना से खेलते हैं। न चाहते हुए भी सबके मन-मस्तिष्क में कश्मीर, आतंकवाद, १९६५, १९७१ और कारगिल युद्ध घर कर जाता है। पाकिस्तान की जनता और खिलाड़ी भी इन घटनाओं को जेहन में रखकर ही खेलते हैं। कुछ पाकिस्तान परस्त लोग कहते हैं कि क्रिकेट से दोनों देशों के लोग करीब आते हैं। यह सरासर गलत है। हम लोग भारत और पाकिस्तान में दर्जनों सीरीज खेल चुके हैं। अगर ऐसा होता, तो कम से कम आतंकवाद तो समाप्त हो गया होता। सच्चाई यह है कि हर मैच के बाद दूरियां और बढ़ जाती है। पाकिस्तान के साथ उसके जन्म के बाद से लेकर आजतक कभी नज़दीकी रही नहीं। सबसे दुःख की बात यह है कि पाकिस्ता से मैच के बाद भारत की दो कौमों के बीच दूरी और बढ़ जाती है। पाकिस्तान की जीत के बाद जब हिन्दुस्तान में आतिशबाज़ी होने लगती है, तो बहुसंख्यकों के मन में एक वितृष्णा स्वभाविक रूप से घर कर जाती है। मैच के दौरान भी सारा हिन्दुस्तान उच्च रक्तचाप का मरीज नज़र आता है। ऐसी सीरीज खेलने से क्या लाभ?
अभी कुछ दिन पहले तुर्की ने रूस का एक विमान मार गिराया। तुर्की का बहिष्कार करने का सरकार ने कोई फ़रमान नहीं निकाला। लेकिन रूस की देशभक्त जनता ने स्वयं की प्रेरणा से तुर्की का बहिष्कार किया। बड़ी संख्या में रूसी पर्यटक तुर्की जाते हैं; रुसियों ने तुर्की के किए वीजा मांगना बंद कर दिया और तुर्की के सामान का बहिष्कार शुरु कर दिया। एक हम हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों और कलाकारों के लिए पलक-पावड़े बिछाने के लिए हमेशा प्रस्तुत रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि यह पाकिस्तान ही है जिसने १९४७ से लेकर आजतक हमपर युद्ध थोपकर हमें बर्बाद करने की कोशिश की है। युद्ध में बार-बार मुंह की खाने के बाद आतंकवाद के माध्यम से हमारी शान्ति, हमारी सुरक्षा और हमारे भाईचारे को लगातार चुनौती देता रहा है। हमारे असंख्य जवान और जनता आतंकवाद की बलि चढ़ चुकी है। लेकिन बीसीसीआई को इससे क्या मतलब? उसे तो अपनी कमाई से मतलब है। पता नहीं यहां के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष, पाकिस्तानी समकक्ष के साथ दुबई में क्या समझौता कर आए हैं कि श्रीलंका में सीरीज खेलने पर सहमति बन गई। सेक्युलरिस्टों के विरोध और बिहार में पराजय से डरी केन्द्र सरकार इस सीरीज के लिए अनुमति दे देगी, इसकी पूरी संभावना है। मोदी सरकार भी मन मारकर कांग्रेस की ही नीतियों पर चलने लगी है। लेकिन बिना सामान्य संबन्धों के पाकिस्तान के साथ कोई सीरीज खेलना देशहित में नहीं होगा। हम करोड़ों देशवासियों को उच्च रक्तचाप और हृदयाघात का मरीज बनाने का समर्थन नहीं कर सकते।

Saturday, November 21, 2015

नीतीश को ताज, लालू को राज (समापन किश्त)

४. नीतीश की छवि -- अभीतक नीतीश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे और ईमानदार प्रशासक की रही है। उनके द्वारा मनोनीत मुख्यमंत्री जीतन राम के बड़बोलेपन से बिहार का बुद्धिजीवी वर्ग प्रसन्न नहीं था। जीतन राम को हटाकर खुद मुख्यमंत्री बनने की घटना को बिहार के बाहर नीतीश की सत्तालोलुपता के रूप में देखा गया, लेकिन बिहार की जनता ने इस घटना को इस रूप में नहीं लिया। जनता ने नीतीश की वापसी पर राहत की साँस ली। अपने शासन-काल में नीतीश ने मुस्लिम लड़कियों और कमजोर वर्ग की लड़कियों के लिए हाई स्कूल के बाद १५००० रुपए की अनिवार्य छात्रवृत्ति लगातार दिलवाई, सूबे की सभी लड़कियों को सायकिल और यूनिफार्म मुफ़्त में मुहैय्या कराई तथा वृद्धा्वस्था पेंशन नियमित रूप से बंटवाई। इसका श्रेय लेने का भाजपा के सुशील मोदी ने भी प्रयास किया, परन्तु मुख्यमंत्री होने के कारण लोगों ने इसका श्रेय नीतीश को ही दिया। विकास के नाम पर कुछ विशेष तो नहीं हुआ, परन्तु बड़े पैमाने पर सड़कों का कायाकल्प अवश्य हुआ। आज की तिथि में बिहार की सड़कें उत्तर प्रदेश की तुलना में कई गुना अच्छी हैं। इन सबका श्रेय नीतीश ने अपने योजनाबद्ध प्रचार के कारण स्वयं लेने में सफलता प्राप्त की। लालू के भ्रष्टाचार की कहानी नीतीश के कारण ज्यादा चर्चा में नहीं आ सकी। 
५. दाल और प्याज - चुनाव में भाजपा की अलोकप्रियता के लिए रही-सही कसर दाल और प्याज ने पूरी कर दी। १५ साल पहले दिल्ली में प्याज ने भाजपा को खून के आँसू रुलाया था। उस समय भाजपा सत्ता से बेदखल क्या हुई, दिनानुदिन कमजोर होती चली गई और आज भी दिल्ली के भाजपाई मुख्यमंत्री की कुर्सी को हसरत से देखने के अलावे कुछ नहीं कर पा रहे। दाल और प्याज की महंगाई ने जन असंतोष की आग में घी का काम किया। हालांकि इस महंगाई के लिए राज्य सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं थी, लेकिन नीतीश और विशेष रूप से लालू ने बिहार की जनता से ठेठ देहाती में सीधा संवाद स्थापित करके केन्द्र सरकार को मुज़रिम बना दिया। आश्चर्य है कि जो दाल ८ नवंबर के पहले जिस खुदरा दुकान में २१० रुपए प्रति किलो की दर से बिक रही थी,  उसी दुकान में ९ नवंबर को १६० रुपए प्रति किलो बिकी। मैंने खुद खरीदा। यह महंगाई प्रायोजित थी या स्वाभाविक - राम जाने। चुनाव के बाद पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकारों के तेवर की तरह प्याज का भाव भी शान्त हो गया। इसका भाव अचानक ८० से घटकर ३०-३५ रुपए पर आ गया।
६. सरकारी तंत्र का सदुपयोग -- चुनाव परिणाम अपनी मर्जी के अनुसार मैनेज करने में लालू सिद्धहस्त हैं। यह कला उन्होंने ज्योति बसु से सीखी थी। १५ सालों तक उन्होंने इसी के बल पर बिहार में एकछत्र राज किया। EVM आ जाने और राष्ट्रपति शासन में चुनाव होने के कारण १५ वर्षों के बाद बिहार में लालू की भयंकर  पराजय हुई थी। इस बार लालू की सलाह पर सरकारी तंत्र का सत्ता के लिए अच्छा उपयोग किया गया। चुनाव की अधिसूचना के पहले बिहार के सभी ३१ जिलों में मन पसंद जिलाधिकारी, उपजिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षकों की तैनाती की गई। मतगणना में तैनात कई सरकारी अधिकारियों से मैंने बात की। नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि मतगणना के समय कई EVM के कवर खुले और सील टूटी पाई गई। उन्होंने रिटर्निंग आफिसर (जिलाधिकारी) को दिखाया भी, परन्तु आर.ओ. ने वैसे EVM  में पड़े मतों की भी गणना जारी रखने का आदेश दिया। ज्ञात हो कि सिवान जिले के जिलाधिकारी और उपजिलाधिकारी - दोनों ही यदुवंशी हैं। अधिकांश बूथों पर प्रिजाइडिंग आफिसर से प्राप्त मतों के विवरण और EVM के द्वारा गिने गए मतों में भिन्नता पाई गई। ऐसे में मतगणना रोक दी जाती है, परन्तु वरिष्ठ मतगणना पर्यवेक्षक द्वारा ध्यान आकर्षित करने के बावजूद भी जिलाधिकारी के निर्देश पर मतगणना जारी रही। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक जिलाधिकारी द्वारा दी गई रात्रि-पार्टियों से अनुगृहित थे। प्रत्येक चरण की मतगणना के बाद यह तो बताया जा रहा था कि फलाँ प्रत्याशी आगे चल रहा है लेकिन विभिन्न प्रत्याशियों द्वारा प्राप्त मतों को बोर्ड पर प्रदर्शित नहीं किया जा रहा था। अब मुझे भी कुछ-कुछ समझ में आने लगा है कि ८ नवंबर को दिन के १०.१५ बजे दो तिहाई बहुमत की ओर अग्रसर भाजपा गठबंधन १०.२० पर अचानक पीछे क्यों हो गया। CNN और ETV को पहले ही मैनेज कर लिया गया था। प्रसिद्ध टीवी एंकर रवीश कुमार ने भी प्रसारण के दौरान ही १० मिनट के अंदर परिणामों में उलटफेर पर घोर आश्चर्य व्यक्त किया था। दिन के १०.२५ बजे महागठबंधन दो तिहाई बहुमत के पास था और भाजपा औंधे मुंह गिर चुकी थी। चुनाव आयोग ने चुनाव तो निष्पक्ष कराए पर मतगणना में निष्पक्षता बरकरार नहीं रख सका। EVM के खुले कवर और टूटी सीलें, चिप्स के हेरफेर की ओर संकेत तो करते ही हैं। कुछ भी हो, लालू अपना खोया साम्राज्य पाने में सफल तो हो ही गए। किसी ने सच ही कहा है - खुदा मेहरबान, तो गधा पहलवान। सेक्युलरिस्टों के २०% खुदा तो लालू के साथ हमेशा रहते हैं।
    (समाप्त)

नीतिश को ताज, लालू को राज (दो किश्तों में समाप्य)


                                                                      (१)
       दिवाली और छठ मनाने के लिए मैं करीब १२ दिन बिहार के सिवान जिले में स्थित अपने गांव, बाल बंगरा (महाराजगंज) में रहा। इस प्रवास का उपयोग मैंने बिहार-चुनाव के परिणामों के अध्ययन और समीक्षा के लिए किया। इस दौरान मैंने अलग-अलग तबकों के सैकड़ों लोगों और चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों से बातें की। नीतिश-लालू की शानदार जीत और भाजपा की निराशाजनक हार के पीछे जो कारण वहां के लोगों ने बताये, उन्हें लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूं।
१. मोहन भागवत का बयान - लालू यादव एक बहुत ही चतुर राजनेता हैं। उनपर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध हो चुके हैं और वे जेल भी जा चुके हैं। उनकी शुरु से ही रणनीति थी कि बिहार की जनता का ध्यान भ्रष्टाचार के मुद्दे से हटाकर जातिवाद पर केन्द्रित किया जाय। पिछड़ों को लामबंद करने के लिए ही उन्होंने नीतिश का जहर पीया और मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रुप में उनके नाम को स्वीकार किया। नीतिश और लालू -- दोनों के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न था। दोनों ने जमकर पिछड़ा कार्ड खेला। पिछले १० वर्षों से एक-दूसरे के काफी करीब आ चुके अगड़े और पिछड़ों के बीच एक चौड़ी और गहरी खाई खोदने के लिए लालू काफी कोशिशें कर रहे थे, लेकिन मोदी के राष्ट्रवाद के आगे कुछ अधिक सफल प्रतीत नहीं हो रहे थे। अचानक आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए गए बयान ने उन्हें संजीवनी प्रदान कर दी। मोहन भागवत ने वर्तमान आरक्षण-नीति की समीक्षा की बात कही थी। उनका उद्देश्य था कि इसकी समीक्षा इस तरह की जाय कि उसका लाभ उन वंचित लोगों को भी प्राप्त हो, जिन्हें अभीतक इसका कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ है। गलत समय पर दिया गया यह एक सही बयान था। लालू और नीतिश ने इसे लोक (Catch)  लिया। वे बिहार के पिछड़ों को यह समझाने में सफल रहे कि जिस तरह सोनिया का कहा कांग्रेस नहीं टाल सकती, उसी तरह आर.एस.एस. के चीफ़ की बात भाजपा और मोदी भी नहीं टाल सकते। मोहन भागवत के समीक्षा वाले बयान का इन्होंने आरक्षण खत्म करने के रूप में प्रचारित किया। मीडिया ने भी भरपूर साथ दिया। परिणाम यह रहा कि लालू-नीतिश की जोड़ी संपूर्ण आरक्षित वर्ग (पिछड़ा+दलित) के दिलो-दिमाग में यह भ्रम बैठाने में सफल रहे कि आर.एस.एस. द्वारा संचालित भाजपा के सत्ता में आते ही आरक्षण समाप्त कर दिया जायेगा। यह भ्रम या विश्वास जनता में इतनी गहराई तक पहुंच गया कि दलितों ने राम बिलास पासवान और जीतन राम मांझी पर भी विश्वास नहीं किया। मेरे गांव के समस्त दलित समुदाय ने महा गठबंधन को ही वोट दिया। मोदी और अमित शाह ने डैमेज-कंट्रोल का काफी प्रयास किया, लेकिन तबतक चुनाव सिर पर आ गया। कुछ बुद्धिजीवी पिछड़े, मोदी से भी जुड़े रहे। मेरे गांव में लगभग ४००० मतदाता हैं। इसमें ४०% प्रवासी हैं। कुल २००० वोट डाले गए। गांव में अगड़े मतदाताओं की कुल संख्या मात्र २०० है, लेकिन भाजपा को ८०० मत प्राप्त हुए। स्पष्ट है, भाजपा ने पिछड़ों का भी मत प्राप्त किया, लेकिन जीतने के लिए पर्याप्त संख्या में नहीं।
२. स्थानीय नेतृत्व का अभाव एवं उपेक्षा - भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद के लिए कोई प्रत्याशी ही नहीं था। चुनाव-प्रचार भी आयातित था। नीतिश ने इसे जमकर कैश किया। लोग यह कहते मिले, “मोदी दिल्ली से बिहार के चलइहें का? आम जनता में, चाहे चाहे वह सवर्ण हो या पिछड़ी, नीतिश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे नेता और सुशासन बाबू की है। लालू की दागी छवि पर नीतिश की अच्छी छवि हावी रही। पूरे बिहार में दो ही नेताओं के कट-आउट, बैनर और संदेश लगे थे - नीतिश कुमार और नरेन्द्र मोदी के। जनता ने स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा जताया। यह बीजेपी की रणनीतिक विफलता थी।
३. टिकट बंटवारे में गड़बड़ी - Party with a difference का नारा देने वाली पार्टी से यह बोधवाक्य पूरी तरह गायब था। सभी भाजपाई लोकसभा की तरह ही मोदी-लहर के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे। भाजपा का टिकट, मतलब जीत पक्की। जाहिर है, ऐसे में टिकट पाने के लिए भीड़ तो बढ़ेगी ही और गुणवत्ता भी प्रभावित होगी। टिकट-वितरण में भाजपा ने गुणवत्ता को तिलांजलि दे दी। जिताऊ प्रत्याशी के नाम पर तरह-तरह की धांधली की गई; कुबेरों, बाहुबलियों, दागियों और रिश्तेदारों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। कुछ बानगी, अपने जिले से दे रहा हूं --
 (अ) दुरौन्धा विधान सभा  (जिला सिवान) क्षेत्र - यहां से भाजपा के प्रत्याशी थे -- जितेन्द्र सिंह। इनके पिता समीपवर्ती महाराजगंज क्षेत्र से राजद और जनता दल (यू) से कई बार विधायक और सांसद रह चुके हैं। वे एक प्रख्यात बाहुबली थे। उनके पुत्र जितेन्द्र जी उनसे कई कदम आगे हैं। उनपर हत्या और लूट के कई मामले चल रहे हैं। पिछले साल ही ६-७ साल की सज़ा भुगतने के बाद ज़मानत पर छूट कर आए हैं। आते ही चुनावी दंगल में कूद पड़े और कांग्रेस के टिकट पर महाराजगंज संसदीय क्षेत्र से भाग्य आजमाया। मोदी की लहर में ज़मानत ज़ब्त हो गई। इसबार उन्होंने दुरौन्धा विधान सभा क्षेत्र से (इसी क्षेत्र में मेरा भी गांव आता है) भाजपा का टिकट पाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया। दिल्ली में बैठे हिन्दुस्तान के ठाकुरों के तथाकथित स्वयंभू नेता भारत के गृहमंत्री ने ठाकुरों को टिकट दिलवाने में अपने प्रभाव का भरपूर इस्तेमाल किया। जितेन्द्र सिंह को टिकट मिल गया और ४० साल से भाजपा का झंडा ढो रहे जिला भाजपा अध्यक्ष योगेन्द्र सिंह का टिकट कट गया। योगेन्द्र सिंह राम जन्मभूमि आन्दोलन में जेल गए थे, श्रीनगर के लाल चौक में तात्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के आह्वान पर तिरंगा फहराने के लिए कश्मीर जाते समय जम्मू में गिरफ़्तार किए गए थे, एक महीना जेल में भी रहे थे। उनका संपर्क घर-घर में है। आर.एस.एस. भी उनको टिकट दिए जाने के पक्ष में था। वे एक साफ-सुथरी छवि वाले, कर्मठ और ईमानदार जन नेता के रूप में पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं लेकिन राजनाथ सिंह के आगे किसी की नहीं चली और एक दलबदलू दागी को भाजपा ने टिकट दे दिया। जितेन्द्र सिंह को स्थानीय जनता ‘जनमरुआ’ (हत्या करनेवाला) के नाम से जानती और पुकारती है। चुनावी दंगल में उन्हें मात मिली। इस टिकट ने पूरे जिले में भाजपा के उम्मीदवारों की चुनावी जीत की संभावना को प्रभावित किया।
(ब) महाराजगंज विधान सभा क्षेत्र - पहले मेरा घर इसी विधान सभा क्षेत्र में आता था। नए परिसीमन में दुरौन्धा में चला गया। महाराजगंज शहर से सटे पूरब में मेरा गांव है। यहां से देवरंजन सिंह भाजपा के प्रत्याशी थे। पेशे से वे डाक्टर हैं। जनसेवा करके वे आसानी से जनता में अपनी पैठ बना सकते हैं, लेकिन सामन्तवादी प्रवृत्ति के धनी देवरंजन जी अपनी बिरादरीवालों को छोड़, किसी और को प्रणाम भी नहीं करते हैं। उनकी एकमात्र योग्यता यह है कि वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री और बिहार भाजपा के पूर्व अध्यक्ष सी.पी. ठाकुर के दामाद हैं। रिश्तेदारों को टिकट देने का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। जनता ने उन्हें ठुकरा दिया।
(स) रघुनाथपुर - इस क्षेत्र से भाजपा ने अपने निवर्तमान विधायक विक्रम कुँवर का टिकट काटकर बाहुबली और दागी छवि वाले मनोज सिंह को टिकट दिया। विक्रम कुँवर क्षेत्र के लोकप्रिय नेता हैं और कई बार विधायक रह चुके हैं, परन्तु वे भी राजनाथ सिंह की पसंद नहीं थे। भाजपा ने यह सीट भी गँवा दी।
बड़हरिया विधान सभा क्षेत्र में भी भाजपा ने एक दागी बाहुबली के भाई को टिकट दिया। परिणाम वही - ढाक के तीन पात।
विधान सभा चुनाव में बिहार की भाजपा “Party with a difference" की छवि खो चुकी थी। लोग इस नारे को दुहराकर हँस रहे थे।
     ----- शेष अगले अंक में


Sunday, November 1, 2015

पुरस्कार वापसी का सच

     प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय लेखिका तसलीमा नसरीन ने दिनांक २९.१०.१५ को अपने एक बयान में कहा है कि पहले मुझे लग रहा था कि सच में साहित्यकार पुरस्कार वापिस करके अपने दुख की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, परन्तु अब भारत में जिस तरह से पुरस्कार वापिस किए जा रहे हैं और जो कारण दिया जा रहा है, सच में ये सब भारत सरकार के विरोधियों का एक षड्यंत्र है, ताकि भारत यूनाइटेड नेशन में स्थाई सदस्य न बन सके।
तसलीमा की बातों में गहराई और सच्चाई है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों को देश के वातावरण में कथित सांप्रदायिकता और असहिष्णुता से बहुत तकलीफ है, मानो भारत ईरान, सऊदी अरब, पाकिस्तान या बांग्ला देश बन गया हो। पिछले सप्ताह ईरान में दो कवियों को ९९ कोड़े लगाए जाने की सज़ा सिर्फ इसलिए सुनाई गई कि इन कवियों ने गैर मर्द और गैर औरत से हाथ मिलाये थे। इन कवियों के नाम हैं - फ़ातिमे एखटेसरी और मेहंदी मूसावी। पिछले शनिवार को ढाका में हत्या के शिकार लेखक और ब्लागर अविजित राय के साथ काम करनेवाले एक प्रकाशक की कट्टरपंथियों ने गला काट कर हत्या कर दी। वहीं इससे कुछ घंटे पहले ही दो सेक्यूलर ब्लागरों और एक अन्य प्रकाशक पर जानलेवा हमला हुआ। दुनिया भर के अखबारों में घटना की चर्चा हुई, तस्वीरें भी छपीं, लेकिन भारत के इन बुद्धिजीवियों ने संवेदना या निंदा का एक शब्द भी उच्चारित किया। पुरस्कार वापस करने वाले तमाम बुद्धिजीवी बुजुर्ग हैं। इन सबने इमरजेन्सी देखी है। तब इन्दिरा गांधी ने सारे मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए थे। उस समय न किसी को जुलूस निकालने का अधिकार था, न सभा करने का, न स्वतंत्र चिन्तन का, न बोलने का और न ही लिखने का। कुलदीप नय्यर की पुस्तक ‘The Judgement'  इन्दिरा गांधी, कांग्रेस और इन सत्तापोषित बुद्धिजीवियों का कच्चा चिट्ठा है। किस तरह संजय गांधी ने परिवार नियोजन के नाम पर नाबालिग बच्चों की भी नसबन्दी कराई थी, कम से कम चांदनी चौक, जामा मस्ज़िद और तुर्कमान गेट के वासिन्दे क्या अबतक भूल पाए हैं? ये बुद्धिजीवी उस समय इन्दिरा गांधी के सम्मान में कसीदे काढ़ रहे थे। १९८४ में हजारों सिक्खों को कांग्रेसियों ने मौत के घाट उतार दिया, बिहार के जहानाबाद में लालू के राज के दौरान दलितों का नरसंहार हुआ, भागलपुर में भयंकर दंगा हुआ, गोधरा में सन् २००२ में साबरमती एक्स्प्रेस की बोगियों में आग लगाकर सैकड़ों तीर्थयात्रियों को जिन्दा जला दिया गया, कश्मीर में हजारों हिन्दुओं की हत्या की गई, बहु-बेटियों से बलात्कार किया गया और अन्त में पूरी कश्मीर-घाटी के हिन्दुओं को भगाकर देश के दूसरे भागों में शरणार्थी बना दिया गया; इन बुद्धिजीवियों ने चूं तक नहीं की। देश का सांप्रदायिक माहौल खराब करने के लिए श्रीनगर, कलकत्ता, दिल्ली, चेन्नई, बंगलोर इत्यादि शहरों में विज्ञापित करके सड़क के बीचोबीच मीडिया के कैमरों के सामने ‘बीफ’ खाया और परोसा गया; इन बुद्धिजीवियों ने विरोध का एक स्वर भी नहीं निकाला।
सम्मान वापस करने वाले -- सब-के-सब चिर काल से राष्ट्रवादियों का विरोध करते आ रहे हैं। इन्हें सम्मान अच्छे लेखन के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद का विरोध और चाटुकारिता के लिए मिला है। ये सभी २००२ से ही नरेन्द्र मोदी का विरोध करते आए हैं। ये वही लेखक हैं, जिन्होंने अमेरीका को पत्र लिखा था कि नरेन्द्र मोदी को वीसा न दिया जाय। चीन, पाकिस्तान, सी.आई.ए. और नेहरू खानदान के लिए काम करने वाले इन (अ)साहित्यकारों ने मोदी को रोकने के लिए पश्चिमी जगत से भी हाथ मिलाया, ईसाई लाबी को भी सक्रिय किया। वाशिंगटन पोस्ट, टाइम्स आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में गत आम चुनाव के पहले मोदी के विरोध में सैकड़ों लेख लिखवाए, लेकिन भारत की जनता ने दिग्भ्रमित हुए बिना मोदी को प्रधान मंत्री बना दिया। २०१४ के जनादेश को न इन  (अ)साहित्यकारों ने स्वीकारा और न इनके राजनीतिक आकाओं ने। ये सभी सियासी लड़ाई हारने के बाद प्रधान मंत्री के खिलाफ़ दुष्प्रचार के जरिए लड़ाई लड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं। दूसरों को असहिष्णु बताने वाले ये (अ)साहित्यकार मोदी के प्रति पूर्वाग्रह और असहिष्णुता के सबसे बड़े शिकार हैं। ये २०१४ के जनादेश को भी हजम नहीं कर पा रहे हैं। सब तरफ से निराश होने के बाद इनके आका राज्यसभा में अपने बहुमत के कारण किसी भी विकास के एजेन्डे का विरोध करने पर आमादा हैं, तो ये वो पुरस्कार, जिसके योग्य ये कभी थे ही नहीं, वापिस करके कम्युनिस्टों, कांग्रेसियों, आतंकवादियों, सांप्रदायिक तत्त्वों और सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का विरोध करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों का समर्थन कर रहे हैं। इन (अ)साहित्यकारों का न लोकतंत्र में विश्वास है, न सर्वधर्म समभाव, न शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व और ना ही धार्मिक और वैचारिक सहिष्णुता में तनिक भी आस्था है। अबतक सत्ता की मलाई चाट रहे ये (अ)साहित्यकार अपनी दूकान बंद होने की संभावना के कारण बौखलाहट में विक्षिप्त हो गए हैं।

बांगला देश में तीन ब्लागरों पर हमला, प्रकाशक की हत्या

          बांग्लादेश के दिवंगत लेखक और ब्लागर अविजित राय के साथ काम करनेवाले एक प्रकाशक की अज्ञात हमलावरों ने शनिवार को गला काटकर हत्या कर दी। वहीं इसके कुछ घंटे पहले ही दो सेक्यूलर ब्लागरों और राय के एक अन्य प्रकाशक पर हमला हुआ। ढाका के मध्य शाहबाग इलाके में फ़ैजल आर्फ़ीन दीपान(४३) पर तीसरी मंजिल स्थित उनके आफिस में ही हमला किया गया। यह स्थान उस इमारत के बिल्कुल पास है जहाँ कई महीने तक ज़मीयत-ए-इस्लामी नेताओं और १९७१ के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों से सांठगांठ करनेवाले कट्टरपंथियों की फांसी की सज़ा की मांग को लेकर प्रदर्शन हुए थे।
     -- अमर उजाला, ०१-११-२०१५
           इस समाचार को बिकाऊ टीवी मीडिया ने प्रसारित नहीं किया और न ही इसपर किसी तथाकथित सेक्यूलर बुद्धिजीवी ने अपनी छाती पीटी। कलकत्ता, बंगलोर, चेन्नई, दिल्ली और श्रीनगर में सड़कों पर ठेला लगाकर सार्वजनिक रूप से "बीफ" खानेवालों ने एक बूंद घड़ियाली आँसू भी नहीं बहाया। यही चरित्र और आचरण है इन तथाकथित सेक्यूलरिस्टों और पुरस्कार वापस करने वाले कांग्रेस पोषित  बुद्धिजीवियों का।