Tuesday, June 26, 2012

इमर्जेन्सी की ३७वीं बरसी पर विशेष आपात्काल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और स्मृतियां - भाग-३




थानेदार नागेन्द्र सिंह चारों से बस एक ही सवाल बार-बार पूछता -
"बता सालो, नानाजी देशमुख कहां है?"
इतनी यातना के बाद भी होमेश्वर हंसता रहा। उसने थानेदार से ही प्रश्न पूछा -
"आप कहां तक पढ़े हैं?"
"मैं इन्टर पास हूं।"
"आपको पता है, जिन्हें आप इतनी यातना दे रहे हैं, वे कौन हैं?"
"कौन हैं, तू ही बता," थानेदार ने रोब गांठते हुए कहा।
होमेश्वर ने परिचय कराते हुए कहा -
"ये हैं डा. प्रदीप, जिन्हें आप महीनों से तलाश रहे थे, लेकिन पकड़ नहीं पाए। आज इन्होंने स्वेच्छा से गिरफ़्तारी दी है। मैं और ये लंबू इन्द्रजीत इंजीनियरिंग के छात्र हैं और ये बलिष्ठ सज्जन,  अरुणजी इनका नाम है, वकील हैं। क्या आप जानना चाहेंगे कि आपलोग नानाजी को क्यों नहीं गिरफ़्तार कर पाए हैं?"
"बताओ, बताओ, क्या कारण है?" थानेदार ने अपनी कुर्सी होमेश्वर के पास खिसका ली।
"आप देख रहे हैं - आपके सामने दो इंजीनियर, एक डाक्टर और एक वकील बैठे हैं। हमारी योजनाएं ऐसे ही समझदार, जिम्मेदार और तेज लोगों द्वारा बनाई जाती हैं जिसकी भनक तक आप नहीं पा सकते हैं। इसके उलट आपकी योजनाएं आप जैसे हाई स्कूल-इन्टर पास मूढ़ चमचे और लाठी की भाषा में बात करने वाले मूर्खों द्वारा बनाई जाती हैं। आप क्या, आपके सात पुरखे भी नानाजी को नहीं पकड़ सकते।"
इधर होमेश्वर की बात समाप्त हुई, उधर थानेदार नागेन्द्र सिंह ने चारों पर तड़ातड़ बेंत बरसाने शुरु कर दिए। और कर भी क्या सकता था? प्रदीप की उंगली टूटी, होमेश्वर का सिर, अरुण जी का हाथ और इन्द्रजीत का ललाट लहुलुहान हुआ। रात भर उन्हें लाकअप में रखा गया जिसमें पेशाब और पाखाने की दुर्गंध फैली थी। लाल चींटे (माटा) बदन पर चढ़ रहे थे। उन्हें न तो खाना दिया गया, न पीने का पानी। अगले दिन चारों मीसा के अन्तर्गत चालान कर दिए गए - अज्ञात जेल में, अनिश्चित काल के लिए।
हमलोग इस भ्रम में थे कि दिन में गिरफ़्तारियां नहीं होती। अतः दिन में हमलोग भोजन, अपने हास्टल के मेस में ही करते थे। शनिवार का दिन था। भोजन करने के बाद शरद ने पिक्चर देखने की योजना बनाई। चित्रा सिनेमा में फिल्म "जय संतोषी माता" धूम मचा रही थी। हम तीनो मित्र - शरद, विष्णु और मैं, रिक्शा पकड़ने के लिए विश्वनाथ मन्दिर के पीछे वाली हास्टल रोड पर जा रहे थे। अचानक दो मोटर सायकिल हमलोगों के पास रुकी। उसपर तीन सवार थे। तीनों सामान्य वेश-भूसा में थे। एक आदमी ने सामने आकर विष्णु से पूछा -
"आपका नाम विष्णु गुप्ता है?"
"जी हां," विष्णु के मुख से इतना ही निकला था कि उस बलिष्ठ आदमी ने विष्णु को उठाकर मोटर सायकिल पर बैठा लिया। मैं और शरद चिल्लाते हुए पीछे-पीछे दौड़ते रहे लेकिन कुछ ही पलों में मोटर सायकिल आंखों से ओझल हो गई। विष्णु के अपहरण की सूचना हमने अपने वार्डेन को दी। वे हंसे और बोले -
"विष्णु का अपहरण नहीं हुआ है, उसे पुलिस ले गई है।"
वार्डेन को सब पता था। विष्णु के चाचा विश्वविद्यालय में ही भाषा विज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर थे। हमने उन्हें सूचना दी। कैंपस के बाहर कबीर नगर में रहते थे। एक योग्य वकील की सेवाएं ली गईं। विष्णु पर डी.आई.आर. तामील किया गया था, जिसमें ज़मानत हो सकती थी। दूसरे दिन विष्णु को कोर्ट में पेश किया गया। उसपर आरोप था कि उसने लंका चौराहे पर राष्ट्रविरोधी भाषण दिया और ‘इन्दिरा गांधी मुर्दाबाद’ का नारा लगाया।
जज मुस्कुराया, पूछा -
"गवाह हैं?"
"जी हां हुजूर। ये वे तीन गवाह हैं, जो मौका-ए-वारदात पर हाज़िर थे।" सरकारी वकील ने तैयार जवाब दिया।
"उन्हें पेश किया जाय।"
गवाह पेश किए गए। उन्हें देखते ही जज साहब उखड़ गए। बोले -
"वाराणसी में जहां भी सरकार विरोधी भाषण दिए जाते हैं, या मुर्दाबाद का नारा लगाया जाता है, ये तीनों हर जगह मौजूद रहते हैं। ये एक ही समय लंका में होते हैं, अस्सी में होते हैं, गोदौलिया में होते हैं, चौक में होते हैं, बेनिया बाग में होते हैं, लहुराबीर में होते हैं, कैन्ट में होते हैं और कचहरी में भी होते हैं। ये पुलिस के भाड़े के झूठे गवाह हैं। डी.आई.आर. के सभी मामलों में बतौर गवाह यही तीनों पेश किए जाते हैं। देखते-देखते मैं इनके चेहरे पहचान गया हूं। इनके नाम भी मुझे याद हैं। झूठी गवाही के जुर्म में इन्हें तत्काल हिरासत में ले लिया जाय और मुकदमा चलाया जाय। No further hearing. Bail granted to Mr. Vishnu Gupta."
जज का न्याय सुन हम दंग रह गए। खुशी-खुशी हास्टल में आए। लेकिन विष्णु के कमरे पर विश्वविद्यालय का ताला लगा था। वार्डेन के हाथ में वी.सी. का परवाना था। विष्णु को हास्टल से निकाल दिया गया था। वह अपने सामान के साथ अपने चाचा के यहां चला गया। कोर्ट ने जिसे निर्दोष माना था, वी.सी. ने उसे अवांछित करार दिया। पन्द्रह दिन बाद एक समाचार मिला - विष्णु को ज़मानत देनेवाले जज का तबादला पिथौरागढ़ कर दिया गया।
दिन बीत रहे थे। इमर्जेन्सी की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं। जिस भी छात्र का नाम स्टूडेन्ट फ़ेडेरेशन आफ़ इण्डिया (SFI)  के कार्यकर्ता प्राक्टर आफ़िस में नोट करा देते, रात में वह गिरफ़्तार हो जाता। कांग्रेसियों से ज्यादा कम्युनिस्ट वी.सी. कि मुखबिरी कर रहे थे। व्यक्तिगत दुश्मनी भी खूब निकाली गई। महीनों कालू लाल श्रीमाली का आतंक चलता रहा। अब गिरफ़्तारियां दिन में भी शुरु हो गईं थीं। फ़र्मास्यूटिकल इन्जीनियरिंग के विद्वान प्रोफ़ेसर, डा. शंकर विनायक तत्त्ववादी को दिन में ही उनके विभाग से पुलिस ने उठा लिया। शिक्षक भी गिरफ़्तार होने लगे थे। हमें पहले से अधिक चौकन्ना होना पड़ा। एक कुलपति अपने ही छात्रों और शिक्षकों पर इतने निम्न स्तर पर आकर इतना घटिया प्रतिशोधात्मक और घृणित कर्यवाही कर सकता है, कालू लाल श्रीमाली उसके ज्वलन्त उदाहरण थे। सैकड़ों निर्दोष सिर्फ़ शंका में जेल भेजे गए, सैकड़ों का कैरियर बर्बाद हुआ।
इमरजेन्सी के कुछ महीने बाद ही बांग्ला देश के राष्ट्रपति मुजीबुर्रहमान की हत्या कर दी गई। इन्दिरा गांधी के बेड रूम में एक पर्चा मिला। उसमें लिखा था - मुज़ीब ने आपकी ही सलाह पर आपके नक्शे कदम पर चलते हुए अपने देश में इमर्जेन्सी लगाई थी। उनका हश्र सारी दुनिया ने देखा। आपके बेड रूम में यह पर्चा पहुंच चुका है। आप जान गई होंगी कि हम भी जब चाहें आपके पास पहुंच सकते हैं। आपका भी वही हश्र हो सकता है जो मुज़ीब का हुआ। लेकिन सक्षम होते हुए भी हम ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि हम अहिंसा में अटूट विश्वास करते हैं। हमारा धैर्य टूट जाय इसके पहले हिंसक प्रतिशोध बन्द कर दें।
इस घटना के बाद इन्दिराजी के मन में भय व्याप्त हो गया। अचानक ज्यादतियां बन्द हो गईं, गिरफ़्तारियां थम गईं। हमें ही नहीं पूरे हिन्दुस्तान को संघ द्वारा छापे जा रहे पत्रकों और बुलेटिनों के द्वारा सही समाचार मिल रहा था। रणभेरी के बाद ‘कुरुक्षेत्र’ प्रकाशित हुआ जो बाद में ‘लोकमित्र’ में परिवर्तित हो गया। प्रत्येक छः महीने के बाद पत्र का नाम बदल दिया जाता था। वे लोग, जो हमलोगों से बात करने में डरते थे, अब पत्रकों की मांग करने लगे। वैसे हमलोगों ने इमर्जेन्सी के तुरन्त बाद पत्रकों के वितरण की अच्छी व्यवस्था कर रखी थी। कोई पढ़े या न पढ़े, हास्टल के प्रत्येक कमरे में पत्रक सही समय पर पहुंच ही जाता था। कालू लाल श्रीमाली की खुफ़िया एजेन्सी अन्त तक इस इसे बन्द नहीं करा सकी। धीरे-धीरे जेलों में बन्द छात्रों को ज़मानत भी मिलने लगी। यू.पी. के खूंखार मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा के स्थान पर नरम मिज़ाज़ वाले नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री का ताज़ सौंपा गया। उनके आने के बाद हमलोगों ने काफी राहत महसूस की। एक दिन क्लास समाप्त होने पर मेरे वार्डेन ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा - You can come to hostel. There is no fear as such. उन्हीं वार्डेन ने मुझे एक बार सलाह दी थी कि मैं अपने कमरे में इन्दिरा गांधी का एक बड़ा सा पोस्टर लगा लूं; वे मुझे गिरफ़्तारी से बचा लेंगे। मेरा उत्तर था -
" इन्दिरा गांधी ने लोकतंत्र की हत्या की है। मैं उससे घृणा करता हूं। गिरफ़्तार होना और फ़ांसी पर चढ़ जाना भी पसन्द करूंगा लेकिन जीते जी कमरे में उस तानाशाह की तस्वीर नहीं लगा सकता।"
मैं हास्टल में आ गया। पढ़ाई को काफी नुकसान हुआ था। मैंने दिनरात मिहनत की। १९७६ में सम्मान सहित इन्जीनियरिंग की डिग्री ली। मैंने  एम.टेक. में एडमिशन ले लिया। मुझपर कोई पुलिस केस नहीं था। इमर्जेन्सी के खात्मे तक मैं बी.एच.यू. में ही रहा। इस समय अधीक्षण अभियन्ता (Superintending Engineer) हूं। जिस भी कार्यालय में कार्यभार ग्रहण करता हूं, सबसे पहले इन्दिरा गांधी का फोटो हटवा देता हूं। लोगों ने चमचागिरि में फोटो टांग दिए थे। वैसे स्पष्ट राजकीय आदेश है कि सरकारी कार्यालयों मे महात्मा गांधी को छोड़ किसी भी राजनेता की तस्वीर न लगाई जाय।
लोकतंत्र के वे काले दिन कभी विस्मृत नहीं होंगे। ईश्वर न करे, हिन्दुस्तान को दुबारा इमर्जेन्सी के दिन देखने पड़े।
                    ॥इति॥

इमर्जेन्सी की ३७वीं बरसी पर विशेष आपात्काल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और स्मृतियां - भाग-२




मैंने उसी दिन से रात में हास्टल में रहना छोड़ दिया। क्लास खत्म होने के बाद अलग-अलग रास्ते से विश्वविद्यालय से बाहर निकलता और दूर के रिश्ते के अपने मामाजी के यहां रात गुजारता। पढ़ाई बुरी तरह बाधित हो रही थी। इस लुकाछिपी से तो जेल जाना ही अच्छा लग रहा था। संगठन में मुझसे वरिष्ठ कोई छात्र रह नहीं गया था। आन्दोलन को गतिमान रखने के लिए संघ द्वारा मुझे गिरफ़्तारी से बचने की सलाह दी जा रही थी। वैसे मैं तो कब का गिरफ़्तार हो गया होता यदि दिन में कालेज से गिरफ़्तारी होती। उपकुलपति कालू लाल लाल श्रीमाली दिन के उजाले से बहुत डरता था। इमर्जेन्सी के प्रारंभिक दिनों में वह दिन में कोई कार्यवाही नहीं करता था।
हमने छात्रों का मनोबल बनाए रखने के लिए सक्रिय छात्रों की एक नई टीम बनाई। डा. प्रदीप सिंह, होमेश्वर वशिष्ठ, विष्णु गुप्ता, इन्द्रजीत सिंह, शरद सक्सेना, अरुण प्रताप सिंह और मैं, कोर ग्रूप के सदस्य थे। इन छः क्रान्तिकारियों का परिचय दिए बिना यह लेख अधूरा रहेगा।
१. डा. प्रदीप सिंह - बिहार के सासाराम जिले का रहने वाला यह क्रान्तिकारी अत्यन्त जोशीला था। कठिन से कठिन कार्य करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहता था। रज्जू भैया से उसने सशस्त्र क्रान्ति की अनुमति मांगी। बहुत समझाने-बुझाने के बाद वह अहिंसक आन्दोलन के लिए सहमत हुआ था। मेडिकल कालेज में वह तृतीय वर्ष का छात्र था, रुइया छात्रावास में रहता था। इस समय अपने गृह नगर में कार्यरत है।
२. होमेश्वर वशिष्ठ - धौलपुर, राजस्थान का रहने वाला यह क्रान्तिकारी मूल रूप से कवि था। बड़ी सारगर्भित कविताओं की रचना करता था लेकिन सिद्दान्तों और आदर्शों के लिए मर-मिटने के लिए प्रतिबद्ध था। माइनिंग इन्जीनियरिंग का अन्तिम वर्ष का छात्र होमेश्वर सी.वी. रमन हास्टल में रहता था। इस समय धौलपुर में एरिया मैनेजर।
३. इन्द्रजीत सिंह - बलिया का निवासी मेटलरजिकल इन्जीनियरिंग के तृतीय वर्ष का छात्र था, मौर्वी हास्टल में रहता था। लंबाई साढ़े छः फीट की थी। भीड़ में भी अपनी लंबाई के कारण दूर से पहचाना जाता था। अत्यन्त मृदुभाषी लेकिन कुशाग्र बुद्धि का यह स्वयंसेवक किसी भी परिस्थिति में झुकता नहीं था। डिग्री हासिल करने के बाद इसने स्वयं का उद्योग लगाया। इसकी कंपनी राजपूत इन्जीनियरिंग में निर्मित थर्मोकपुल भारत मे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
४. अरुण प्रताप सिंह - ला अन्तिम वर्ष के छात्र, भगवान दास हास्टल में रहते थे। उम्र में हमलोगों से काफी बड़े थे। स्वाभाविक नेतृत्व क्षमता के धनी अरुण जी इमर्जेन्सी में हमलोगों के अभिभावक थे। मन-मस्तिष्क और शरीर से बलिष्ठ यह क्रान्तिकारी सोनभद्र का रहने वाला था। इस समय राबर्ट्सगंज के बड़े वकीलों में उनकी गणना होती है।
५. विष्णु गुप्ता - मौन तपस्वी, मेधावी, अल्पभाषी, दृढ़प्रतिज्ञ और विचारों पर अडिग। संघ को समर्पित निष्ठावान कार्यकर्त्ता। मेकेनिकल इन्जीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का यह छात्र मेरा प्रिय मित्र और सहपाठी रहा है। हमदोनों धनराजगिरि छात्रावास में रहते थे। विष्णु बदायूं का रहनेवाला है। इस समय हिन्दुस्तान एरोनटिक्स लिमिटेड, लखनऊ मे महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत है।
६ शरद सक्सेना - अत्यन्त मृदुभाषी यह क्रान्तिकारी लखनऊ का रहने वाला था। मेरा सहपाठी और अभिन्न मित्र शरद मेकेनिकल इन्जीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र था और विश्वकर्मा हास्टल में रहता था। उसे हम अजातशत्रु कहते थे। उसके विचारों और कार्यों में गज़ब की दृढ़ता थी। जो सोच लेता था, करके ही दम लेता था। अपने दोस्तों की हरसंभव सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर रहा करता था। इस समय नौ सेना के मझगांव डाक, मुंबई में महाप्रबंधक।
एक दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) ने सिद्धगिरि बाग के एक गुप्त स्थान पर स्वय़ंसेवकों की बैठक ली। उस बैठक तक पहुंचना भी किसी जासूसी फिल्म के दृश्य से कम रोमांचक नहीं था।
मुझे यह सूचना मिली कि मुझे अपने पांच विश्वस्त सहयोगियों के साथ लंका स्थित पुषालकर जी के दवाखाने (ऊषा फ़ार्मेसी) में दिन के ठीक बारह बजे पहुंचना है - बिना किसी सवारी के पैदल। वहां छः सायकिल सवार पहले से उपस्थित थे। उन्होंने हमें अपनी-अपनी सायकिलों पर बैठाया और कमच्छा में एक स्वयंसेवक दिवाकर के घर के सामने छोड़ दिया। वहां दो आदमी पहले से तैनात थे। हममें से तीन को एक के पीछे जाना था और शेष तीन को दूसरे के पीछे। हम दो ग्रूपों में विभक्त हो चुके थे। दोनों ग्रूपों ने अलग-अलग गलियों में प्रवेश किया। पता नहीं किस रास्ते हम रमापुरा पहुंचे। रिले रेस की तरह हमलोग अलग-अलग स्वयंसेवकों के मार्गदर्शन में गोदौलिया, लक्सा, गुरुबाग होते हुए सिद्धगिरि बाग पहुंचे। वहां पहले से ही लगभाग ५० स्वयंसेवक एक हाल में उपस्थित थे। सर्वत्र शान्ति थी; कोई किसी से न परिचय पूछ रहा था, न बात कर रहा था। दिन के ठीक तीन बजे रज्जू भैया कक्ष में प्रकट हुए। मैंने पूर्व में उन्हें कई बार देखा था, लेकिन उस दिन उन्हें पहचान नहीं पाया। उनके चेहरे से उनकी मूंछे गायब थीं। सदा धोती-कुर्ते में रहनेवाले उस दिन पैंट-शर्ट पहने थे। उन्होंने हंसते हुए स्वयं अपना परिचय दिया -
"मेरे नए हुलिए को देख आप शंकित न हों। मैं आपका रज्जू भैया ही हूं।"
उनकी आवाज़ सुन मैं आश्वस्त हुआ कि वे रज्जू भैया ही थे। फिर भी मैं अपनी जिज्ञासा रोक नहीं पाया, पूछ ही लिया -
"रज्जू भैया, आपने यह वेश क्यों धारण कर रखा है? आपकी मूंछे कहां चली गईं?"
रज्जू भैया किसी भी गंभीर विषय को क्षण भर में ही सहज बना देते थे। हंसते हुए बोले -
"मूंछें तो अपनी खेती हैं, जब चाहा उगा लिया, जब चाहा काट लिया। रही बात वेश-भूसा की, तो मैंने सोचा कि क्यों नहीं कालेज के दिनों को याद कर लिया जाय। इन्दिरा गांधी की खुफ़िया पुलिस मुझे इस रूप में देखने की आदी नहीं है।"
हाल में एक ठहाका लगा और सभी तनावरहित हो गए।
रज्जू भैया ने बताया - आर.एस.एस, जनसंघ, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मज़दूर संघ, विद्यार्थी परिषद, सेवा समर्पण संस्थान, विद्या भारती आदि आनुषांगिक संगठन, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, स्वतंत्र पार्टी, लोकदल, समाजवादी पार्टी इत्यादि सभी गैर कांग्रेसी पार्टियों का शीर्ष नेतृत्व जेल में है। पूज्य सरसंघचालक बाला साहब देवरस को भी गिरफ़्तार किया जा चुका है। सिर्फ़ वे और नानाजी देशमुख ही बाहर हैं। पूरे देश में लाखों स्वयंसेवको की गिरफ़्तारी हो चुकी है। देश के सभी जेलों में क्षमता से अधिक राजनैतिक बन्दी हैं। इसलिए अब और गिरफ़्तारी देने की आवश्यकता नहीं है। प्रचार तंत्रों पर सरकार ने पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया है। आकाशवाणी को इन्दिरा वाणी की उपाधि मिल चुकी है। पूरा देश सही समाचारों के लिए बी.बी.सी. पर आश्रित है। लेकिन सभी लोग बी.बी.सी. नहीं सुन पाते हैं। हमें अपने ढंग से अपने नेटवर्क के माध्यम से जनता तक सही बात पहुंचानी है। हमें लोकसंपर्क के माध्यम से अलख जगाने का काम करना है। इसके लिए अबतक गिरफ़्तारी से बचे कार्यकर्त्ताओं को गिरफ़्तारी से बचते हुए भूमिगत होकर कार्य करना है। समय-समय पर आपलोगों को आवश्यक निर्देश, पत्रक और साहित्य स्वयमेव उपलब्ध हो जाएगा। उसके सुरक्षित वितरण की जिम्मेदारी आपलोगों पर है। हमारा यह नेटवर्क पूरे देश में कार्य कर रहा है। शीघ्र ही इमर्जेन्सी कि यह काली रात समाप्त हो जाएगी। विजय ही विजय है।
मात्र एक घंटे में बैठक समाप्त हो गई। कार्यकर्त्ता अपूर्व उत्साह से भर उठे। हम जैसे गए थे, वैसे ही वापस भी आए। मैं किन रास्तों से बैठक स्थल पर गया था, मुझे आज भी याद नहीं है। वैसे भी बनारस की गलियां किसी भूल-भुलैया से कम नहीं हैं।
डा. प्रदीप ने पता नहीं कहां से एक हिन्दी टाइप राइटर और एक साइक्लोस्टाइल मशीन पा ली। केन्द्र से छपी सामग्री मिलने के पूर्व वह चार पृष्ठ का एक स्थानीय पत्र निकालना चाह रहा था। मुझे संपादन का दायित्व दिया। टाइप करने और छापने का काम उसने स्वयं लिया, वितरण के लिए नेटवर्क तो था ही। ‘रणभेरी’ नाम दिया गया उस पाक्षिक का। अभी चार ही अंक छपे थे कि एक रात पुलिस का छापा पड़ा और सारी सामग्री पुलिस उठा ले गई। उस रात प्रदीप हास्टल में नहीं था। किसी ने मुखबिरी की थी, लेकिन वह बच गया। विश्वविद्यालय प्रशासन ने उसके इस अपराध को बेहद संगीन माना। उसे हास्टल और विश्वविद्यालय से निकाल दिया। पुलिस ने उसपर मीसा तामील की लेकिन अपने लाख प्रयासों के बावज़ूद भी उसे गिरफ़्तार करने में सफल नहीं हो सकी। उसके घर कुर्की-ज़ब्ती की नोटिस भेजी गई। परिवार वालों को आसन्न संकट से बचाने के लिए कोर कमिटी ने प्रदर्शन के साथ प्रदीप को गिरफ़्तारी देने की सलाह दी। होमेश्वर वशिष्ठ, विष्णु और अरुण जी उसे अकेले भेजने के पक्ष में नहीं थे। एक दिन कृषि विद्यालय की प्रत्येक कक्षा में प्रदीप, अरुण जी और होमेश्वर ने घुसकर लंबा भाषण दिया। हमलोग पर्चे बांट रहे थे। यह कार्यक्रम लंच के पहले किया गया, लेकिन पुलिस नहीं आई। गिरफ़्तारी नहीं हो पाई। वहीं पर यह घोषणा की गई कि अपराह्न में यही क्रान्तिकारी आर्ट्स कालेज और साइंस कालेज के बीच खाली मैदान में भाषण देंगे।
हमलोग वापस चले आए। दोपहर के बाद भोजनोपरान्त हमलोग साइंस कालेज पहुंचे। वहां पुलिस तैनात थी। छात्रों के क्लास में जाने के पूर्व प्रदीप, होमेश्वर, इन्द्रजीत और अरुण जी ने चारों दिशाओं में खड़े होकर छात्रों को संबोधित करना आरंभ कर दिया। आर्ट्स और साइंस कालेज के अधिकांश छात्र शीघ्र ही उपस्थित हो गए।  १००-५० की भीड़ अचानक जनसमूह में परिवर्तित हो गई। पुलिस अग्रिम कार्यवाही के लिए जबतक उच्चाधिकारियों और वी.सी. से निर्देश लेती, तबतक सभी पत्रक बंट चुके थे, क्रान्तिकारी भाषण जारी थे, जनसमूह के "इन्दिरा गांधी- मुर्दाबाद" के नारे से आकाश गूंज रहा था। नारेबाजी और तालियों की गड़गड़ाहट की आवाज़ संस्कृत संकाय और मिन-मेट तक पहुंच रही थी। आधे घंटे के बाद पुलिस ने कार्यवाही की, खूब लाठियां भांजी। भीड़ तितर-बितर हो गई, सैकड़ों घायल हुए। मुझे भी इमर्जेन्सी का प्रसाद मिला। दो-तीन लाठियां मेरे शरीर पर भी पड़ीं। लेकिन प्रदीप, होमेश्वर, इन्द्रजीत और अरुण जी डटे रहे। इन्द्रजीत कुछ ज्यादा ही जोश में था। योजनानुसार उसे गिरफ़्तारी नहीं देनी थी। उसे सिर्फ़ पत्रक बांटने थे। लेकिन वह भी भाषण में शामिल हो गया और अन्त तक डटा रहा। छात्रों के सामने पुलिस ने उनपर कोई प्रहार नहीं किया, सिर्फ़ गिरफ़्तार किया। चारो वीर योद्धा नारे लगाते रहे। चारों को भेलूपुर थाने में ले जाया गया। वहां पुलिस ने अपना गुस्सा उतारा। मेज़ पर उनकी हथेलियां ज़बर्दस्ती रखकर बेंतों की वर्षा की गई। लात-घूंसों और थप्पड़ों से जमकर पिटाई की गई। मां-बहन की गालियां दी गईं अलग से।
क्रमशः

Monday, June 25, 2012

आपात्काल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और स्मृतियां - भाग-१


इमर्जेन्सी की ३७वीं बरसी पर विशेष --


उस समय महानगरों को छोड़ दूरदर्शन की सुविधा कहीं थी नहीं। समाचारों के लिए आकाशवाणी और अखबारों पर ही निर्भरता थी। २५ जून, १९७५ की काली रात! आकाशवाणी ने रात के अपने समाचार बुलेटिन में यह समाचार प्रसारित किया कि अनियंत्रित आन्तरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपात्काल (Emergency) की घोषणा कर दी है। इस दौरान जनता के मौलिक अधिकार स्थगित रहेंगे और सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। समाचार पत्र विशेष आचार संहिता का पालन करेंगे जिसके तहत प्रकाशन के पूर्व सभी समाचारों और लेखों को सरकारी सेन्सर से गुजरना होगा। मुझे याद है - जनसत्ता के प्रथम पृष्ठ पर कोई समाचार नहीं छपा। पूरा पृष्ठ ही काली स्याही से पुता था।
सचमुच लोकतंत्र और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए काला दिन ही था २५, जून १९७५। इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा श्रीमती इन्दिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनाव को अवैध ठहराने तथा उन्हें छः साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगाने के बाद किसी अनहोनी की अपेक्षा तो सभी कर रहे थे, लेकिन ऐसा अधिनायकवादी कदम वे इतना शीघ्र उठा लेंगी, इसकी उम्मीद नहीं थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय के बाद, नैतिकता के आधार पर इन्दिरा गांधी के इस्तीफ़े की उम्मीद थी, लेकिन सत्ता लोलुपता आड़े आ गई। उन्होंने इस्तीफ़ा देने के बदले लोकतंत्र का गला घोंटना ही उचित समझा। लोकबंधु जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन अपने चरम पर था। कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार से तंग आकर जनता ने भूराजस्व भी देना बंद कर दिया था। बिहार में प्रत्येक कस्बे, तहसील, जिला और राजधानी में भी जनता सरकारों का गठन हो चुका था। जनता ने अवैध सरकार के आदेशों कि अवहेलना शुरु कर दी थी। जनता सरकार के प्रतिनिधियों की बात मानने के लिए ज़िला प्रशासन भी विवश था। पूरे देश में इन्दिरा सरकार इतनी अलोकप्रिय हो चुकी थी कि चारो ओर से बस एक ही आवाज़ आ रही थी - इन्दिरा गद्दी छोड़ो। लेकिन इन्दिरा जी भला गद्दी क्योंकर छोड़तीं। उन्होंने सत्ता छोड़ने के बदले देश को तानाशाही की अंधी गलियों में धकेल दिया। ऐसा करने की सलाह उन्हें क्रेमलिन (सोवियत रूस) से प्राप्त हुई थी। रात में इमर्जेन्सी की घोषणा हुई और पौ फटने के पूर्व सभी विरोधी दलों (सी.पी.आई.को छोड़कर) के नेता जेलों में ठूंस दिए गए। न उम्र का लिहाज़ रखा गया न स्वास्थ्य का। लोकबंधु जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, लाल कृष्ण अडवानी, जार्ज फर्नाण्डिस, पीलू मोदी आदि राष्ट्रीय स्तर के नेता आतंकवादियों की तरह रात के अंधेरे में घर से उठा लिए गए और मीसा (Maintenance of Internal Security Act)   के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर किए गए। मीसा वह काला कानून था जिसके तहत बन्दी को कोर्ट में पेश करना आवश्यक नहीं था। इसमें ज़मानत का भी प्राविधान नहीं था। सरकार ने जिनपर थोड़ी रियायत की उन्हें डी.आई.आर. (Defence of India Rule)  के तहत गिरफ़्तार किया गया। यह थोड़ा नरम कानून था। इसके तहत गिरफ़्तार व्यक्ति को कोर्ट में पेश किया जाता था।
मैं उनदिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग के अन्तिम वर्ष का छात्र था। विद्यार्थी परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सक्रिय कार्यकर्त्ता भी था। बी.एच.यू. के छात्र संघ पर विद्यार्थी परिषद का कब्जा था। अध्यक्ष पद पर मेरे ही कालेज के श्री दुर्ग सिंह चौहान (इस समय उत्तराखंड टेक्निकल युनिवर्सिटी के कुलपति), उपाध्यक्ष पद पर केदार नाथ सिंह ( संप्रति वाराणसी ग्रेजुएट कन्स्टीच्येन्सी से भाजपा के एम.एल.सी) और महासचिव के पद पर आद्या प्रसाद त्रिपाठी (वर्तमान में हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर) निर्वाचित हुए थे। तीनों विश्वविद्यालय परिसर के छात्रावास में ही रहते थे। एक झटके में तीनों को गिरफ़्तार कर लिया गया और मीसा के तहत अज्ञात जेल में भेज दिया गया। जेल में पहुंचते ही दुर्ग सिंह चौहान को तनहाई में डाल दिया गया। ज्ञात हो कि तनहाई एक सेल होता है जिसमें अत्यन्त गंभीर अपराध के अपराधी और खूंखार कैदी को रखा जाता है। सेल के कैदी को किसी से बात करने की इज़ाज़त नहीं होती। अधिक दिनों तक सेल में रखने पर कैदी के पागल हो जाने की संभावना होती है। कुलपति कालू लाल श्रीमाली चौहान जी से व्यक्तिगत खुन्नस रखते थे। उन्हें तनहाई में रखने का आदेश डी.एम. ने कुलपति की सलाह पर दी थी। छात्र संघ का अध्यक्ष, प्रथम श्रेणी में आनर्स के साथ एलेक्ट्रिकल इन्जीनियरिंग मे बी.टेक. डिग्रीधारी इन्जीनियर एक ही रात में कुलपति, कालू लाल श्रीमाली की निगाह में खूंखार अपराधी बन गया था। उस समय चौहान जी एम.टेक. के विद्यार्थी थे। पहली रात को मेरे दो घनिष्ठ मित्रों, सिविल इन्जीनियरिंग के ओम प्रकाश पूर्वे और एलेक्ट्रानिक्स के प्रदीप तत्त्ववादी को पुलिस ने हास्टल से उठा लिया। पूर्वे मुज़फ़्फ़रपुर (बिहार) का रहने वाला था और तत्त्ववादी नासिक का। पूर्वे का अपराध था कि उसने पिछले छात्र संघ के चुनाव में विद्यार्थी परिषद का जमकर प्रचार किया था और प्रदीप तत्त्ववादी का सबसे बड़ा अपराध था कि उसके चाचा, प्रोफ़ेसर शंकर विनायक तत्त्ववादी संघ के प्रान्त बैद्धिक प्रमुख और इन्जीनियरिंग कालेज में प्रोफ़ेसर थे।
  हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने आर.एस.एस. को ला कालेज के परिसर में दो कमरों का एक भवन कार्यालय के लिए दिया था। कालू लाल श्रीमाली ने उसे एक ही रात में बुलडोज़र लगा कर ध्वस्त कर दिया और कबाड़ को विश्वनाथ मन्दिर से साइंस कालेज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे डाल दिया। इस सड़क के दोनों किनारे पर जो फ़ूटपाथ बाद में बने, उसकी नींव में संघ कार्यालय की ही ईंटें हैं। मुझे इस बात का संतोष आज भी रहता है, और मैं कालू लाल श्रीमाली का आभार व्यक्त करता हूं कि उन ईंटों का इस्तेमाल उसने शौचालय के फ़र्श के निर्माण में नहीं किया। बाबर और औरंगज़ेब के कृत्यों से कम घृणित यह कृत्य नहीं था। सत्ता प्राप्त होने के बाद याद दिलाने के बावज़ूद भी न जनता पार्टी की सरकार ने कुछ किया और न भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने। महामना द्वारा प्रदत्त हमारा संघ कार्यालय इमर्जेन्सी में मिट्टी में मिला दिया गया, यह हूक आजीवन रहेगी।
छात्रों में भयंकर असंतोष भड़का। गुप्त बैठकें हुईं। यह तय किया गया कि अगले दिन रात के आठ बजे सभी छात्रावासों से मशाल जुलूस निकाला जाएगा और प्रत्येक समीपवर्ती चौराहे पए इन्दिरा गांधी का पुतला फूंका जाएगा। अगले दिन नियत समय पर यह कार्यक्रम संपन्न किया गया। इंजीनियरिंग कालेज के छात्रों ने राजपुताना चौराहे पर इन्दिरा गांधी का पुतला फूंका। मशाल जुलूस का निकलना तथा पुतला फूंका जाना उपकुलपति कालू लाल श्रीमाली के मुंह पर एक करारा तमाचा था जिसने पूरे विश्वविद्यालय को एक सैनिक छावनी में बदल दिया। कुछ ही मिनटों में सिंहद्वार से छात्रावास वाली सड़क पर पी.ए.सी. की गाड़ियां दौड़ने लगीं। हमलोगों ने अनजाने चेहरों को हास्टल लौट जाने का निर्देश दिया तथा सक्रिय कार्यकर्ताओं को नूतन विश्वनाथ मन्दिर के सामने फैकल्टी रोड पर खड़े पेड़ों पर चढ़कर छुप जाने का निर्देश दिया। रात अंधेरी थी बूंदाबांदी भी शुरु हो गई। मैं अपने साथियों के साथ मन्दिर से थोड़ा आगे एक पेड़ पर छुप के बैठ गया। विश्वविद्यालय से बाहर जाना असंभव था। सिंहद्वार समेत सारे निकास द्वार बंद कर दिए गए। हास्टल में कांबिंग आपरेशन चलाया गया। जिस भी छात्र के कमरे में सरकार विरोधी या आर.एस.एस./विद्यार्थी परिषद/समाजवादी युवजन सभा का कोई पत्रक या साहित्य बरामद हुआ, उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। जिनके कमरे बंद मिले, उन छात्रों पर विशेष नज़र रखने की हिदायत वार्डेन को दी गई। मैं और मेरे साथी रात भर पेड़ पर टंगे रहे। नीचे पुलिस की पेट्रोलिंग होती रही। सवेरा होने पर पेट्रोलिंग बंद हुई और हमलोग अपने-अपने हास्टल गए। हास्टल में पुलिस द्वारा मचाए गए ताण्डव की सूचना विस्तार से मित्रों ने दी। छात्रों का पक्ष ले रहे वार्डेन को भी उन्होंने गालियां दीं। मेरे कमरे पर पुलिस बार-बार जा रही थी लेकिन ताला बंद देख लौट आ रही थी। पुलिस के वांछितों की सूची में संभवतः मेरा नाम काफी ऊपर था। सैकड़ों छात्र गिरफ़्तार किए गए उस काली रात को।
      क्रमशः

Monday, June 11, 2012

संस्मरण - ३ मानवता अभी मरी नहीं है





अबतक आशा काफी सहज हो चुकी थी। मैंने उससे उसके गांव का नाम पूछा। उसने बताया कि वह अपने गांव नहीं जाएगी। वहां उसका कोई नहीं है। वह शहरी महिला भी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वहां पहुंच सकती है। उसने अपनी बुआ के पास जाने की इच्छा प्रकट की, जो हाज़ीपुर से मात्र एक किलोमीटर दूर ‘खोदा’ गांव में रहती थी। उसने अपने फ़ूफ़ा का नाम अर्जुन पासवान बताया। सामने की बर्थ पर एक युवक बड़े ध्यान से आशा, हुसेन और मेरी बातें सुन रहा था। अपना नाम उसने अशोक बताया। उसने मुझे संबोधित किया -
:"अंकलजी। आप परेशान न हों। मैं इस लड़की को इसकी बुआ के पास पहुंचा दूंगा। मैं भी हाज़ीपुर ही जा रहा हूं। खोद गांव के पास ही मेरा भी गांव है। मुझे खोदा होकर ही अपने गांव जाना पड़ता है।  इसकी बुआ के घर छोड़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।"
"हम आपका पूरा परिचय जानना चाहते हैं। अज़नबी पर विश्वास करने की बहुत बड़ी सज़ा भुगत चुकी है यह लड़की," मैंने अपनी शंका स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की।
"मेरा नाम अशोक सिंह है। मैं दिल्ली में रहता हूं और रेलवे में काम करता हूं। होली मनाने मैं घर जा रहा हूं। मेरी छोटी बहन इस लड़की की उम्र की है। इसकी आपबीती सुन मुझसे रहा नहीं गया। इसलिए मैंने इसके घर पहुंचाने में आपलोगों की मदद की पेशकश की है। अशोक ने अपना परिचय-पत्र भी मुझे दिखाया। पास बैठे टिकट परीक्षक ने उसका परिचय-पत्र ध्यान से देखा और यह प्रमाणित किया कि वह सही परिचय पत्र था। मैंने परीक्षक महोदय से आग्रह किया कि उन्हें हाज़ीपुर तक तो वैसे ही जाना है, अशोक के साथ वे भी आशा की बुआ के पास जाने का कष्ट करें। उसे उसकी बुआ को सौंपकर ही वे अपने घर जाएं। मेरे इस आग्रह को टिकट निरीक्षक ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मैंने आशा का पूर्ण विवरण एक कागज पर लिखकर उसके थैले में रख दिया। मुहम्मद हुसेन ने आशा को सकुशल घर पहुंचाने के लिए पांच सौ रुपए का एक नोट अशोक की ज़ेब में रख दिया। अशोक ने वह नोट वापस करते हुए कहा -
"हुसेन जी! आपको यह लड़की अपनी बेटी लगती है और मुझे अपनी बहन। ईश्वर की दया से मैं रेलवे में नौकरी करता हूं। मेरे पास पर्याप्त पैसे हैं। मुझे इसे इसके घर तक पहुंचाने में न तो कोई अतिरिक्त यात्रा करनी होगी और न कोई अतिरिक्त पैसा ही खर्च करना होगा। मेरा मोबाईल नंबर आपलोग नोट कर लें और मुझे भी अपना नंबर दे दें। मैं इसे इसकी बुआ को सौंपकर आप दोनों से इसकी बात कराऊंगा। यह ट्रेन चार बजे हाज़ीपुर पहुंचेगी। मैं पांच बजे इसके गांव पहुंचूंगा।"
मुहम्मद हुसेन ने अपना नोट वापस ले लिया। अपना पर्स खोला और उसमें से पांच सौ का एक और नोट निकाला। दोनों नोटों को एकसाथ हाथ में लेकर बराबर किया, फिर आशा के हाथ में सौंपते हुए बोला -
"बेटी! कुछ ही देर में यह ट्रेन भाटपार रानी पहुंच जाएगी। मैं तुमसे रुखसत हो जाऊंगा। मेरा आशीर्वाद समझ कर ये पैसे रख लो। वक्त-जरुरत पर काम आएंगे।"
आशा पैसे नहीं ले रही थी। मेरे समझाने पर उसने पैसे लिए और अपने थैले में रख लिए।
ट्रेन अपनी पूरी गति से चल रही थी। कई स्टेशनों को पार कर वह भाटपार रानी पहुंच ही गई। मुहम्मद हुसेन ने आशा के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए और आंसू पोछते हुए ट्रेन से उतर गया। वह बार-बार कातर नेत्रों से मेरी ओर देख रहा था। मैंने आंखों ही आंखों में उसे विश्वास दिलाया कि ईश्वर की दया से लड़की अपने घर सुरक्षित पहुंच जाएगी। दो मिनट के बाद ट्रेन चल दी। हुसेन गीली आंखों से ट्रेन को निहारता रहा। एक घंटे के बाद ट्रेन मेरे स्टेशन दुरौन्धा पहुंची। आशा को अशोक और टिकट परीक्षक को सौंपकर मैं भी ट्रेन से उतर गया। आशा का प्यारा चेहरा आंखों से हटने का नाम नहीं ले रहा था। पता नहीं, उसमें कौन सा आकर्षण था कि कूपे के सभी यात्री उससे बंध से गए थे। शायद यह मानवता का दृढ़ बन्धन था जो उचित महौल मिलने पर और मज़बूत हो गया था।
दिनांक ७, मार्च, २०१२। समय शाम पांच बजे। मेरे मोबाईल की घंटी बजती है। उसपर अशोक का नाम उभरता है। मैं इसी की प्रतीक्षा कर रहा था। लपककर मोबाईल उठाता हूं। उधर से अशोक की आवाज़ आती है - "आशा सुरक्षित अपनी बुआ के पास पहुंच गई है। अपनी बुआ से मिलकर काफी खुश है। लीजिए उसीसे बात कीजिए।"
आशा ने बात की। उसने अशोक के कथन की पुष्टि की। टिकट परीक्षक महोदय ने भी आशा के उसके घर पहुंचने पर अपनी खुशी प्रकट की। आशा की बुआ ने भी मुझसे बात की। मेरे सिर से टनों बोझ एक क्षण में उतर गया। दिल से एक आवाज़ आई -
                   मानवता अभी मरी नहीं है।

संस्मरण-२ मानवता अभी मरी नहीं है




एक दिन बाद जिला प्रशासन सक्रिय हुआ। कुछ राहत सामग्री उन्हें दी गई। बचे लोगों को गांव के स्कूल में रखा गया। एक सप्ताह भी नहीं बीता होगा, इस घटना के, कि शहर से एक पढ़ी-लिखी महिला पीड़ितों से मिलने आई। उसकी दृष्टि आशा पर पड़ी। उसने बड़े प्रेम से उसे चाकलेट दिया, बिस्कुट खिलाया और वात्सल्य की वर्षा की। गांव के मुखिया से आशा को उसे देने का आग्रह किया। स्वयं को समाज-सेविका बता रही थी वह। उसने आशा को अपने घर में रखने, पढ़ाने-लिखाने और समय आने पर शादी करने की जिम्मेदारी उठाने के लिए स्वयं को प्रस्तुत किया। पिता की मृत्यु के बाद वह अनाथ हो गई थी। मुखिया के साथ समाज-सेविका के साथ रहने की उसने भी हामी भर दी। समाज सेविका उसे लेकर शहर चली गई। एक सप्ताह तक उसने बड़े प्यार से उसे रखा - अच्छे-अच्छे कपड़े पहनाए, अच्छा भोजन दिया और प्यार भरी बातों से उसका दिल जीत लिया। उसने बताया कि इस उम्र में छोटे बच्चों के साथ स्कूल में बैठकर क,ख,ग,घ... सीखना उसके लिए कठिन होगा। अतः उसे डान्स का प्रशिक्षण लेना चाहिए। आशा ने भी हामी भर दी। अगले ही दिन उसके लंबे बाल काट दिए गए और उसे एक ‘माडर्न लूक’ दिया गया। फिल्म के चलताऊ सेक्सी गानों पर उसका प्रशिक्षण शुरु हुआ जो तीन महीने में पूरा भी हो गया। अब वह शहर के बाहर विभिन्न आर्केस्ट्रा पार्टियों में डान्स के लिए भेजी जाने लगी। आशा ने सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा काम भी करने के लिए मज़बूर होना पड़ेगा। उसने मुक्ति पाने की ठान ली। एक दिन कार्यक्रम समाप्त होने के बाद किसी तरह वह आर्केस्ट्रा पार्टी के चंगुल से भाग निकली। पैदल ही दौड़ते हुए, रात के अन्तिम प्रहर वह हाज़ीपुर रेलवे स्टेशन पहुंची। सामने एक ट्रेन खड़ी थी। बिना कुछ सोचे-विचारे वह ट्रेन में बैठ गई। इस तरह वह कानपुर पहुंची। 
मुहम्मद हुसेन बड़े ध्यान से आशा की बातें सुन रहा था। उसने जैसे ही अपनी बात समाप्त की, हुसेन की आंखें जल बरसाने लगीं। वह लगातार रोए जा रहा था। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे चुप कराया। रुमाल से उसने अपनी आंखें पोंछी। पांच मिनट बाद वह सामान्य हो पाया, फिर मेरे सामने बैठ उसने कहना शुरु किया - 
"मेरे नाम से आपको पता लग ही गया होगा कि मैं मुसलमान हूं। जी, हां, मैं मुसलमान ही हूं जिसे पूरी दुनिया में आतंकावाद फैलाने के लिए आजकल जिम्मेदार ठहराया जाता है। मुसलमान शब्द से गैरमुस्लिमों में आम धारणा है कि मुसलमान संगदिल, कट्टर, असहिष्णु और हिंसक होता है। आप भी सोच रहे होंगे कि यह मुसलमान इस हिन्दू लड़की के लिए क्यों रो रहा है? मैं भी सबके सामने इस तरह आंसू बहाना नहीं चाह रहा हूं। लेकिन अपनी आंखों और दिल का मैं क्या इलाज़ करूं? इस लड़की में मुझे अपनी लड़की की सूरत नज़र आ रही है। एक बाप न हिन्दू होता है, न मुसलमान। बेटी भी न हिन्दू होती है, न मुसलमान। एक मुसलमान बाप भी शादी के बाद अपनी बेटी को रुखसत करते समय उसी तरह बिलख-बिलखकर रोता है, जैसे एक हिन्दू बाप अपनी बेटी की विदाई पर। आपको पता है, दुबई में हिन्दुस्तानी मुसलमानों को वहां के मुसलमान क्या कहते हैं? ‘हिन्दवी’। वहां मस्ज़िद में हमें नमाज़ पढ़ने की मनाही तो नहीं है, लेकिन बैठाया अलग जाता है - हिंदवी होने के कारण। शायद वे हमें अशुद्ध मुसलमान मानते हैं। मैं बहुत ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं। मौका भी नहीं मिला, कोशिश भी नहीं की। जाति का जुलाहा हूं। वही जुलाहा हूं जो पढ़-लिख जाने पर अंसारी बन जाता है। घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी, इसलिए हाई स्कूल के बाद कपड़ा बुनने के काम में करघे पर बाप का साथ देने लगा। लेकिन ज़नाब, आजकल मिल के कपड़ों के आगे हैन्डलूम के कपड़ों को पूछता ही कौन है? रेमण्ड, विमल, सियाराम, दिग्जाम से गांव के जुलाहे कब तक मुकाबला कर सकते हैं। घर में भुखमरी की स्थिति आने लगी। कुछ नया करने और सीखने के लिए मैंने कलकत्ता की ट्रेन पकड़ी। वहां एल फ़ैक्ट्री में मेरे गांव के कुछ लोग काम करते थे। वहां मुझे ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। एक फीटर के सहायक की नौकरी मिल गई। मैंने मन लगाकर फीटर का काम सीखा। पांच साल तक मैंने वहां काम किया। कलकत्ता आने के पहले मुझे एक बेटी हुई थी। जिस समय मैं कलकत्ता के लिए रवाना हुआ, उस समय वह तीन साल की थी। हमेशा मेरे पास ही रहती थी। मैं उसे अपने हाथों से खाना खिलाता था। उसे कंधे पर बिठाकर पूरे गांव का चक्कर लगाता था। जब भी माल बेचने शहर जाता था, उसके लिए केला, सन्तरा और चाकलेट लाता था। मेरे और मेरी बीवी के बीच में वह सोती थी, लेकिन मुझसे ही चिपक कर। अपनी मां की ओर हमेशा उसकी पीठ ही रहती थी। लेकिन उसके बचपन का आनन्द मैं सिर्फ़ तीन साल तक ही ले सका। रोटी की तलाश में पहले कलकत्ता पहुंचा, फ़िर दुबई। आज घर जा रहा हूं। कुछ ही घंटे बाद आज मैं उससे मिलूंगा। जानते हैं ज़नाब, मैं अपनी बेटी से कितनी मुहब्बत करता हूं? उतनी ही जितनी राजा जनक अपनी बेटी सीता से और राजा द्रुपद अपनी बेटी द्रौपदी से करते थे।
मुझे घोर आश्चर्य हुआ। पांचो वक्त का एक नमाज़ी मुसलमान राजा जनक, सीता, द्रुपद और द्रौपदी का उदाहरण दे रहा था। मैंने उससे पूछा - 
"आप राजा जनक, सीता, द्रौपदी की कहानी जानते हैं?"
" जी हां। मैं अच्छी तरह जानता हूं। मैंने कुरान भी पढ़ी है, रामायण भी पढ़ी है, महाभारत भी पढ़ी है।"
" लेकिन आप तो मुसलमान हैं, फिर ये हिन्दू धर्म-ग्रन्थ कैसे पढ़े?"
" जी हां। मैं एक मुसलमान हूं, हिन्दवी मुसलमान। मेरे पुरखे मंगोलिया या अरब से नहीं आए थे। यहीं के थे। इसी धरती के थे। बहुत से पढ़े-लिखे मुसलमानों ने अपने खानदान का इतिहास अपने पास रखा है। सबके परदादा के परदादा हिन्दू ही थे। मैं गरीब जुलाहा परिवार का हूं। मेरे पास अपने खानदान का कोई इतिहास नहीं है। मुझे अपने परदादा का नाम भी मालूम नहीं है। लेकिन इतना मैं विश्वास के साथ कहता हूं कि मेरे परदादा के परदादा का नाम निश्चित रूप से राम सेवक या राम टहल रहा होगा। हमारे आपके रगों में एक ही पूर्वज का खून दौड़ रहा है। जिस दिन मुझे इस सच्चाई का पता लगा, मैंने रामायण पढ़ना शुरु किया, फिर महाभारत पढ़ी। मेरे मन में इस्लाम और हिन्दू धर्म, दोनों के लिए समान आदर का भाव है। मैं आजकल नियमित रूप से टीवी पर ‘द्वारिकाधीश’ सिरियल देखता हूं। उसके एक-एक शब्द की कीमत करोड़ों रुपए है। ज़नाब, दुबई में रहकर मैंने बहुत पैसे कमाए हैं। गांव में अब मकान भी पक्का हो गया है। लेकिन गंवाया भी बहुत कुछ है। मैं आज घर लौट रहा हूं। भाटपार रानी के पास ही मेरा गांव है। बारह बजे तक मैं अपने घर पहुंच जाऊंगा। लेकिन मेरी बेटी क्या दौड़कर मेरे गले लग पाएगी? वह दूर से ही सलाम करेगी। क्या वह मेर कंधों पर बैठकर गांव के चक्कर लगा पाएगी, मेरे साथ मेरे गले में बांहें डालकर क्या वह सो पाएगी? बचपन में मैं अपने हाथ से सन्तरे की फांकों से बीज निकालकर उसे खिलाता था। क्या मैं अब ऐसा कर पाऊंगा। धन कमाने की मज़बूरी ने मुझसे और मेरी बेटी से वो दिन छीन लिए जो कभी वापस नहीं आ सकते। वे सुख छीन लिए जो अब कभी नहीं मिल सकता। कोई भी दौलत इसकी भरपाई नहीं कर सकती। इस लड़की को देखकर मेरी आंखों से आंसू इसीलिए गिरे थे। खैर छोड़िए ज़नाब, अब मैं अपनी रामकहानी और नहीं सुनाऊंगा। आधे घंटे के बाद भटनी आएगी और उसके आधे घंटे के बाद भाटपार रानी। फिर मैं आपलोगों से ज़ुदा हो जाऊंगा। उसके पहले मैं चाहता हूं कि इस लड़की के इसके घर सुरक्षित पहुंचाने का पुख्ता बन्दोबस्त हो जाय।"

Saturday, June 9, 2012

संस्मरण-१ मानवता अभी मरी नहीं है




 ७, मार्च, २०१२ का दिन था। सुबह के सात बजे थे। १४००६ डाउन लिच्छवी एक्स्प्रेस वाराणसी के प्लेटफार्म नंबर-एक पर खड़ी हुई। मुझे इसी ट्रेन से अपने गांव के निकततम स्टेशन दुरौन्धा जाना था। यह स्टेशन सिवान और छपरा के बीच में स्थित है। मेरे पास द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित शयन यान का टिकट था। मैं गाड़ी में सवार हो गया। अपने बर्थ के पास पहुंचा, तो देखा, उसपर एक लड़की सो रही थी। सहयात्रियों से मैंने कहा कि यह लोवर बर्थ मेरा है। जिसकी भी यह लड़की हो, वे कृपया इसे जगा दें और बैठने के लिए कहें। किसी सज्जन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। साइड बर्थ पर बैठे एक सज्जन ने बताया कि कोच में बैठे किसी भी व्यक्ति का उस लड़की से कोई संबंध नहीं है। इसका अता-पता भी किसी को ज्ञात नहीं है। यह स्वयं अपने बारे में भी कुछ बता नहीं पा रही है। कानपुर में एक टीटीई ने इसे लाकर इस बर्थ पर लेटा दिया। यह लड़की तब से सो ही रही है। मैंने उस लड़की को जगाने के लिए आवाज़ दी लेकिन वह दीवार की ओर मुंह किए लेटी ही रही। इतने में काला कोट पहने टीटीई महोदय आए। मैंने उनसे बर्थ दिलाने की गुजारिश की। उन्होंने लड़की को कंधा पकड़कर जगाया। वह जग गई और सहमकर खिड़की के पास सिकुड़कर बैठ गई। मैं अपने बर्थ पर बैठ गया। टिकट-परीक्षक भी मेरे पास ही बैठ गए। उन्होंने बताया कि अपनों से बिछुड़ी यह लड़की उन्हें कानपुर स्टेशन पर मिली। इसे अपने साथ ले जाने के लिए दो आदमी आपस में झगड़ा कर रहे थे। दोनों नशे में चूर थे। समझने में देर नहीं लगी - दोनों ही असामाजिक तत्त्व थे और लड़की पर कब्जा पाने के लिए लड़ रहे थे। एक पुलिस वाले की मदद से उन्होंने लड़की को मुक्त कराया और सकुशल उसे घर पहुंचाने के लिए रेलवे पुलिस को सौंप दिया। पुलिस को सौंप वे निश्चिन्त हो गए। ट्रेन आधा घंटा लेट थी। वे अपने मित्रों के साथ कहीं विश्राम के लिए चले गए। लिच्छवी जब कानपुर पहुंची, तो एक व्यक्ति उस लड़की के साथ द्वितीय श्रेणी के वातानुकूलित कोच के प्रवेश द्वार पर खड़ा था। टिकट परीक्षक उस लड़की को पहचान गए। उन्होंने उस आदमी से पूछा - 
       "यह लड़की आपके पास कैसे पहुंच गई? मैंने तो इसे पुलिस को सौंपा था।"
"जी हां, महोदय! आपने इसे जिस पुलिस कांसटेबुल को सौंपा था, वह व्यभिचारी था। प्लेटफ़ार्म के अन्तिम छोर पर इसे ले जाकर उसने इसके साथ छेड़-छाड़ शुरु की। यह चिल्लाती हुई वहां से भागी और मेरे पैरों में लिपटकर रोने लगी। दहशत से यह कांप रही थी और मुंह से कोई स्पष्ट आवाज़ भी नहीं निकल रही थी। मेरे बार-बार पूछने पर सिर्फ़ हाज़ीपुर-हाज़ीपुर ही कह रही थी। न नाम बता रही थी, न पता। यह ट्रेन हाज़ीपुर को जाती है, इसलिए इसे लेकर मैं यहां खड़ा हूं। एसी २ टायर में शरीफ़ लोग यात्रा करते हैं। मुझे उम्मीद है कि आपके सहयोग से इसे इसके घर पहुंचाया जा सकता है। मुझे चेन्नई जाना है, इसलिए मैं इसे अपने साथ नहीं ले जा सकता। कृपा कर इसे पुलिस को मत सौंपिएगा।"
टिकट परीक्षक सहृदय था। उसने लड़की को शरण दी और मेरे खाली बर्थ पर बैठा दिया। उसकी ड्युटी भी हाज़ीपुर में समाप्त हो रही थी। उसने लड़की को हाज़ीपुर पहुंचाने का दायित्व लिया। उसने मुझसे आग्रह किया कि लड़की को अपने बर्थ पर बैठने दें और उसका खयाल रखें। दिन की यात्रा थी। मैंने कोई आपत्ति नहीं की। टिकट परीक्षक महोदय ज्यादा देर तक बैठ नहीं सकते थे। वे अपनी ड्युटी निभाने दूसरे कोच में चले गए।
मैंने लड़की को ध्यान से देखा। वह बेहद चमकीला कुर्ता और इसी से मिलता-जुलता सलवार पहने थी। उम्र रही होगी ग्यारह-बारह साल। मैंने उसे इस आश्वासन के साथ कि सुरक्षित उसे घर पहुंचा दिया जाएगा, बात आरंभ की। लेकिन उसने मेरे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। उसका मुंह सूख रहा था और होंठ चटचटा रहे थे। कई बार उसने बोलने की कोशिश की लेकिन बोल नहीं पाई। मुझे समझने में देर नहीं लगी - वह कई दिनों से भूखी-प्यासी थी। मैंने उससे पूछा -
"भूख लगी है?"
उसने स्वीकृति में सिर हिलाया। मैं बाहर का खाना नहीं खाता। यात्रा में अपने साथ चार पराठें और भुजिया लेकर चलता हूं। अपने झोले से मैंने पराठे निकाले और उसके सामने रख दिया। स्नेह के साथ मैंने कहा - 
"बेटा! तुम कई दिनों की भूखी लग रही हो। कुछ खा लो। चिन्ता बिल्कुल न करो। हमलोग तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचाएंगे"
लड़की ने पराठों को छूआ तक नहीं। समीप बैठे सभी यात्रियों ने उससे पराठें खाने का अनुरोध किया लेकिन वह पत्थर की मूर्ति बनी बैठी रही। सभी परेशान थे लेकिन वह न तो खा रही थी और न कुछ बोल रही थी। बस दहशत के कारण कुछ समय के अन्तराल पर लगातार कांप रही थी। अन्त में साइड बर्थ पर बैठे एक यात्री, जिसने अपना नाम मुहम्मद हुसेन बताया, लड़की के पास आकर बैठ गया। वह दुबई से आ रहा था। उम्र ५०-५५ की रही होगी। उसने अत्यन्त स्नेह के साथ उसके सिर पर हाथ फेरा। उसकी आंखों में आंखें डालकर बड़े प्रेम से बोला -
"बेटी! मैं तीन साल के बाद दुबई से अपने घर को लौट रहा हूं। मेरी एक बेटी है। तब वह आठ साल की थी, जब मैं नौकरी की तलाश में दुबई जा रहा था। अब बड़ी हो गई होगी। बिल्कुल तुम्हारी तरह ही है। तुम्हें देखकर पता नहीं क्यों, मुझे ऐसा लग रहा है, जैसे तुम मेरी अपनी बेटी हो। तुम ये पराठें खा लो और पानी पी लो, फिर तुम्हारी कहानी भी सुनेंगे, अपनी भी सुनाएंगे।"
मुहम्मद हुसेन की बातों का लड़की पर जादुई प्रभाव पड़ा। वह धीरे-धीरे पराठें खाने लगी। हुसेन उठकर अपने बर्थ पर चला गया। सारे पराठें खाने के बाद मैंने उसे अपना पानी वाला बोतल दिया। उसके गले से गटगट कि आवाज़ आई और पूरा बोतल खाली हो गया। एक सहयात्री ने उसे दो सन्तरे दिए। उसने लेने से मना कर दिया। मैंने सन्तरा लेने और खाने के लिए उसे आग्रह किया। इस बार वह आग्रह टाल नहीं सकी। दोनों सन्तरे उसने प्रेम पूर्वक खाए। उसके चेहरे पर विश्वास और सन्तुष्टि के भाव मैंने स्पष्ट देखे। मैंने उसके पूर्णतः सामान्य होने की प्रतीक्षा की। १०-१५ मिनट के बाद वह बर्थ के नीचे पैर लटकाकर आराम से बैठ गई। एक दृष्टि उसने सहयात्रियों पर डाली। दो व्यक्तियों को उसने सिर से पांव तक देखा - मुहम्मद हुसेन और मुझे। हुसेन अपनी बर्थ से उठकर एक बार फिर मेरी बर्थ पर आया। उसने उससे कुछ प्रश्न पू्छे -
"कहां से आ रही हो, कानपुर कैसे पहुंची? तुम्हारे मां-बाप कौन हैं?":
अब वह कुछ बोल रही थी, पर बहुत धीरे-धीरे। हुसेन उसकी भाषा नहीं समझ पा रहा था। वह निराश होकर पुनः अपनी बर्थ पर चला गया।
मैंने एक प्रयास और किया। उसका नाम पूछा। ‘आशा’ उसने अपना नाम बताया। उसे उसके घर पहुंचाने के लिए उसके गांव का नाम, थाना या पोस्ट आफिस, पिता का नाम पता करना आवश्यक था। मैंने उससे ये समस्त विवरण बताने का आग्रह किया। उसने मैथिली में बात शुरु की।
‘आशा,’ नाम था उसका। वह एक अनाथ लड़की थी। हाज़ीपुर के पास उसका पैतृक निवास है। जब वह बहुत छोटी थी, उसकी मां का देहान्त हो गया। पिता मज़दूरी करके अपना और उसका पेट पालता था। रहने के लिए एक झोंपड़ी थी। जाति की पासी थी। एक रात पता नहीं, कैसे घर में आग लग गई। उस समय पिता-पुत्री, दोनों घर में सो रहे थे। जबतक कुछ समझ पाते, आग घर के अन्दर पहुंच चुकी थी। पिता ने जो पहला काम किया, वह यह कि आशा को गोद में उठाकर झोंपड़ी के बाहर फेंक दिया। स्वयं झोंपड़ी में रखे कुछ सामान समेटने लगा। यह करना उसे बहुत महंगा पड़ा। अत्यधिक गर्मी और हवा की कमी से वह बेहोश होकर गिर पड़ा। गांव वाले जबतक आकर आग बुझाते, वह दम तोड़ चुका था। उसके पड़ोसियों की झोंपड़ियां भी आग की भेंट चढ़ चुकी थीं। लगभग दस आदमी अग्नि देवता के शिकार हो चुके थे। वह रोते हुए अपने पिता को पुकार रही थी लेकिन आग बुझाने के बाद, उसकी झोंपड़ी से जो शव बरामद हुआ, उसकी ओर देखने का साहस भी बहुत कम लोग जुटा पा रहे थे। लेकिन आशा ने उस शव को देखा। एक दारुण चीख के साथ वह बेहोश हो गई। 

देसी ब्रेन ड्रेन





कुछ वर्ष पूर्व भारत के इंजीनियरों, डाक्टरों और वैज्ञानिकों के अमेरिका तथा यूरोपीय देशों में जीविका के लिए पलायन को ‘ब्रेन ड्रेन’ बताकर मीडिया और नेताओं ने काफी हाय-तौबा मचाई थी। दे्श की गरीब जनता पर कर का बोझ डालकर प्राप्त होनेवाले राजस्व से इंजीनियर-डाक्टर बनाने में सरकार के करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं और इसका उपयोग बिना एक पैसा खर्च किए पश्चिमी देश करते हैं। आई.टी. उद्योग के फलने-फूलने से यह ब्रेन ड्रेन थोड़ा रुका तो है, परन्तु बन्द नहीं हुआ है। लेकिन इस समय अपने देश में ‘देसी ब्रेन ड्रेन’ एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में, सुरसा की तरह विकराल मुंह फैलाए खड़ा है। इस ओर किसी ने गंभीर चिन्ता प्रकट नहीं की है।

अपने देश में एम्स(AIIMS) के एक छात्र को चिकित्सा स्नातक (MBBS) बनाने में सरकार का एक करोड़ सत्तर लाख रुपया खर्च होता है तथा आईआईटी(IIT) से एक छात्र को इंजीनियरिंग स्नातक(B.Tech.) बनाने में राजकोष के ७० लाख रुपए का व्यय होता होता है। कमोबेस इतनी ही राशि राज्य सरकारें भी अपने कालेजों के डाक्टर और इंजीनियरों पर खर्च करती हैं। यह सारा धन गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का है। देश के कर्णधारों ने कभी यह सोचा भी है कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों से डिग्री लेकर ये मेधावी छात्र करते क्या हैं? इन मेधावी छात्रों के सपने और कार्य पसन्द के क्रम में निम्नवत हैं -

१. आई.ए.एस/आई.पी.एस./आई.आर.एस. बनना।

२. आईआईएम(IIM) में दाखिला लेकर एम.बी.ए.(M.B.A.) करना।

३. अमेरिका जाकर नौकरी करना।

४. साफ्टवेयर की बड़ी कंपनियों में नौकरी करना।

पन्द्रह-बीस वर्ष पूर्व, इंजीनियर या डाक्टर आई.ए.एस. बनना पसन्द नहीं करते थे लेकिन समाज में बढ़ती सामन्तवादी प्रवृति तथा शीर्ष नौकरशाही को अंग्रेजी राज के समान प्राप्त राजसी सुख-सुविधा, भ्रष्टाचार से प्राप्त होने वाले अकूत धन और विशेषाधिकार ने इंजीनियरों और डाक्टरों को इस ओर आकृष्ट किया है। परिणाम सामने हैं - अब अधिक से अधिक प्रशासनिक अधिकारी इन्हीं दो वर्गों से आ रहे हैं। आई.ए.एस. प्रवेश परीक्षा के परिणाम पर दृष्टि डालें, तो पता लगेगा कि सर्वोच्च १० स्थानों में ८ स्थान इंजीनियरों और डाक्टरों का होता है। प्रशासनिक सेवाओं में तकनिकी ज्ञान का उपयोग बिल्कुल नहीं है। एक डाक्टर कलक्टर बनने के बाद कौन सी डाक्टरी कर पाएगा और एक इंजीनियर सचिव बनने के बाद कौन सी इंजीनियरिंग? इंजीनियरों, डाक्टरों, कृषि वैज्ञानिकों का आई.ए.एस./आई.पी.एस/आई.आर.एस. में जाना तकनिकी मेधा का दुर्भाग्यपूर्ण प्रथम ब्रेन ड्रेन है तथा जनता की गाढ़ी कमाई का दुरुपयोग है। साथ ही यह हमारी वर्त्तमान शिक्षा पद्धति का विद्रूप उपहास है।

दूसरा ब्रेन ड्रेन है - तकनिकी छात्रों द्वारा मैनेजमेन्ट संस्थानों में प्रवेश। आई.आई.टी. का एक छात्र बी.टेक. की डिग्री लेकर आई.आई.एम. ज्वायन करता है। वहां से वह एम.बी.ए. की डिग्री लेता है। लाखों-करोड़ों का पैकेज वह जरुर पा लेता है, लेकिन करता क्या है? सिटी बैंक में वह बाबूगिरी ही करता है। उसके तकनिकी ज्ञान का तनिक भी उपयोग उसकी नौकरी में नहीं होता। इसी तरह विदेश चले जाने और सभी ब्रान्च के इंजीनियरों का साफ्ट वेयर कंपनी ज्वायन करना भी ब्रेन ड्रेन का ही प्रारूप है।

यही कारण है कि भारत में तकनिकी क्षेत्र में अनुसंधान कार्य (Research & Development) की प्रगति अत्यन्त निराशाजनक है। आई.आई.टी. में योग्य शिक्षकों का अभाव है। पद रिक्त पड़े हैं। योग्य प्रत्याशी नहीं मिल रहे। कुकुरमुत्ते कई तरह उग आए प्राइवेट कालेजों के इंजीनियरिंग स्नातक, जिन्हें कहीं नौकरी नहीं मिलती, शिक्षण के क्षेत्र में आ रहे हैं। भारत में तकनिकी शिक्षा की गुणवत्ता और भविष्य का अन्दाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।

श्री कपिल सिब्बल सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील हैं, सोनिया गांधी के वफ़ादार हैं, लेकिन शिक्षाविद नहीं हैं। भारत की शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करना ही उनका उद्देश्य है। वे आज़ाद भारत के लार्ड मैकाले हैं। उन्हें प्रतियोगिता और परीक्षाओं से बेहद चिढ़ है। हाई स्कूल की परीक्षा समाप्त करने के बाद इंजीनियरिंग की प्रवेश परीक्षाओं की प्रतिष्ठा का बंटाढ़ार करने के लिए कटिबद्ध हैं। उनके दिमाग में तकनिकी स्नातकों के ब्रेन ड्रेन की बात शायद ही समा सके, लेकिन आम जनता के विचारार्थ और परिचर्या हेतु इस समस्या के समाधान की दिशा में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत हैं -

१. इंजीनियरिंग, मेडिकल, एग्रीकलचर और ला की तरह ही आई.ए.एस/आई.पी.एस. के लिए भी अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा बारहवीं के बाद ही ली जाय। आई.आई.टी./आई.आई.एम. की तरह ही पूरे देश में ४-५ Indian Institute of Administration खोले जांय। चार वर्षीय डिग्री कोर्स के बाद इन्हीं स्नातकों को IAS/IPS/IRS/IFS की सेवाओं में तैनात किया जाय।

२. आई.आई.एम. और अन्य प्रबंध संस्थानों में भी प्रवेश बारहवीं के बाद अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा के माध्यम से लिए जांय। यह कोर्स भी दो वर्ष का न होकर चार वर्ष का डिग्री कोर्स होना चाहिए।

३. इंजीनियरिंग, मेडिकल और एग्रीकलचर में भी पूर्व की भांति प्रवेश बारहवीं के बाद अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा के माध्यम से लिए जांय।

४. शिक्षा में प्रवेश और नियुक्ति में आरक्षण को समाप्त किया जाय।

५. जो व्यक्ति जिस विषय में स्नातक करता है, उसी क्षेत्र में उससे काम लिया जाय। सरकार उतनी ही सीटों पर प्रवेश ले जितनों को वह रोज़गार दे सकती है।

उपरोक्त व्यवस्था लागू करने से देश को विशेषज्ञों की सेवाएं प्राप्त हो सकेंगी। अगर हमें विकसित देशों और चीन से प्रतिस्पर्धा में बने रहना है, तो देसी ब्रेन ड्रेन को रोकना ही होगा। उक्त व्यवस्था को अपनाने से किसी को यह शिकायत करने का मौका नहीं मिलेगा कि उसे आई.ए.एस. बनने से जबर्दस्ती रोक दिया गया। बारहवीं के बाद भारत के प्रत्येक छात्र के पास अवसर होगा कि वह अपनी रुचि के अनुसार अपने कैरियर का चुनाव करे। इधर-उधर की बंदर-कूद रुक जाएगी और तकनिकी शिक्षा पर हो रहे गरीब जनता की गाढ़ी कमाई का सदुपयोग भी हो पाएगा।

Saturday, June 2, 2012

कम्युनिज्म की असहिष्णुता




कार्ल मार्क्स ने कहा था कि जब दो संस्कृतियां एक ही भूभाग पर एक साथ उपस्थित हो जाती हैं, तो वह संस्कृति जिसके पास श्रेष्ठ दर्शन होता है, दूसरे को निगल लेती है। मार्क्स का यह कथन भारत के बारे में सर्वथा सत्य है। इस प्राचीन देश की मूल आर्य संस्कृति को नष्ट करने के लिए सिकन्दर से लेकर बाबर, नादिरशाह से लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी  आदि कितनी सभ्यताओं ने आक्रमण किए, गणना करना कठिन है। इन सबके बावजूद भारतवर्ष, हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति आज भी अक्षुण्य है, जबकि चीन, रोम, मिस्र आदि की प्राचीन संस्कृति और धर्म कब के इतिहास की वस्तु बन चुके हैं। इसका मुख्य कारण है - हिन्दू धर्म का विराट दर्शन और व्यवहारिक लचीलापन। दुनिया में कोई धर्म या दर्शन नहीं जिसके मौलिक सूत्र, वेद, वेदान्त, पुराण, उपनिषद, महाभारत या गीता में उपलब्ध न हों। जर्मनी के प्रख्यात दार्शनिक, शोपेनआवर ने जीवन भर संसार की समस्याओं के समाधान के लिए विश्व के सभी धर्मों का साहित्य, अतीत से लेकर अद्यतन दर्शन - सभी का गहन अध्ययन किया था। उसे तृप्ति नहीं मिल रही थी। अचानक एक दिन उसे श्रीमद्भागवद्गीता की एक प्रति प्राप्त हो गई। उसने इसे पढ़ा और सिर पर रखकर नाचने लगा। जब वह शान्त हुआ तो शिष्यों से बोला - आज मैं संतुष्ट हुआ। इस अद्भुत ग्रंथ ने मेरी समस्त शंकाओं का समाधान कर दिया। यह पृथ्वी अगर कई बार भी नष्ट हो जाय और सिर्फ एक ग्रंथ, श्रीमद्भागवद्गीता बचा रहे, तो इसके सहारे हम पुनः विश्व को सर्वोत्तम सभ्यता प्रदान कर सकते हैं। यही कारण है कि एक हिन्दू कभी धर्मभ्रष्ट नहीं होता। वह चर्च में जाकर प्रार्थना कर सकता है, अज़मेर शरीफ़ में जाकर चादर चढ़ा सकता है और इसके बावजूद भी वह हिन्दू ही रहेगा। वह जब चाहे मन्दिर में जाकर आराधना और पूजा भी कर सकता है। एक मुसलमान मन्दिर या चर्च में जाते ही कफ़िर हो जाता है। इसाई धर्म प्रचारक राम कथा के प्रसिद्ध विद्वान फादर कामिल बुल्के राम भक्त होने के कारण धर्मभ्रष्ट हो जाते हैं, लेकिन एक हिन्दू जबतक अपना धर्म परिवर्तन नहीं करता, हिन्दू ही रहता है। उसे अपने धर्म और अपने उच्च दर्शन पर इतना गहरा विश्वास है कि ये छोटी-मोटी बातें उसे तनिक भी प्रभावित नहीं करतीं।
डरते वो लोग हैं, जिन्हें स्वयं पर विश्वास नहीं होता। इसी डर के कारण ईसाइयत और इस्लाम का जहां भी विस्तार हुआ, उन्होंने  वहां के मूल निवासियों और उनके मौलिक धर्म को बलात नष्ट कर दिया। अमेरिका, आस्ट्रेलिया के ९८% मूल निवासी मार दिए गए, जो बचे हैं वे जंगलों में रहते हैं। सैलानी टिकट खरीदकर उन्हें देखने जाते हैं। पारसी धर्म का उदगम स्थल इरान और विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक मिस्र का कोई भी नागरिक क्या उस देश में रहते हुए अपने प्राचीन धर्म को याद करने की भी हिम्मत कर सकता है? जिनका दर्शन कमजोर होता है, वे असहिष्णु हो जाते हैं और कालान्तर में सत्ता प्राप्त होने पर यह असहिष्णुता हिंसा और तानाशाही का रूप ले लेती है। कम्युनिज्म भी इस्लाम और इसाइयत की तरह दुर्बल दर्शन वाला एक मज़हब ही है। कम्युनिस्टों ने बाइबिल या कुरान की जगह दास कैपिटल (Dass Capital) को एकमात्र पवित्र पुस्तक माना, मार्क्स को आखिरी पैगंबर तथा द्व्न्द्वात्मक भौतिकवाद (Materialistic Dialecticism) को अल्लाह माना है। कम्युनिस्टों का दर्शन अपने अस्तित्व में आने के ६० वर्षॊं तक भी संसार में टिक नहीं पाया। भारत के कम्युनिस्ट इस तथ्य को भलीभांति जानते हैं। वे स्वभाव से असहिष्णु होते हैं। इसमें उनका कोई दोष नहीं। यह कम्युनिस्ट होने के कारण है।
सन २००० में स्यालदह (पश्चिम बंगाल) के मेडिकल कालेज में मेरे भतीजे ने एड्मिशन लिया। उसके साथ वाराणसी के उसके एक मित्र ने भी एडमिशन लिया। दोनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बी.एस-सी. पार्ट-१ के छात्र थे और अखिल भारतीय प्रवेश परीक्षा में सफल होने के बाद स्यालदह मेडिकल कालेज में पहुंचे। रैगिंग के दौरान सीनियर छात्रों को जब यह पता लगा कि वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र रह चुके हैं, तो इस आशंका में कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य रह चुके होंगे, दोनों की जम कर पिटाई की गई। वाराणसी के लड़के की रीढ़ की हड्डी टूट गई और वह बिना डाक्टर बने ही घर लौट आया। मेरा भतीजा अपने पिता के पास बोकारो लौट गया। कालेज के प्रिन्सिपल से शिकायत की गई लेकिन उन्होंने दोषी ल्ड़कों पर किसी तरह की कार्यवाही करने में अपनी असमर्थता जताई क्योंकि वे सारे लड़के मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय कैडर थे। यह तो एक छोटी घटना है। बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौरान वैचारिक विरोधियों की हजारों हत्याएं की गई हैं। केरल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं पर हिंसक हमले करके हजारों स्वयंसेवकों की हत्याएं की गईं। कम्युनिस्ट तर्क-वितर्क, विचार-विनिमय या शास्त्रार्थ से भयभीत रहते हैं और घबराते हैं, इसलिए दूसरों को अछूत घोषित कर उनसे दूरी बनाए रखते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चूकि हिन्दू दर्शन में गहरी आस्था रखता है, इसलिए उन्होंने इसे अछूत बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। प्रख्यात कम्युनिस्ट और ब्लिज़ पत्रिका के संपादक श्री आर.के.करंजिया जीवज भर पानी पी-पीकर संघ को गाली देते रहे। रिटायर होने के बाद वे संघ के संपर्क में आए। बुढ़ापे में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। उन्होंने मुंबई के एक सार्वजनिक समारोह में इसके लिए माफी मांगी। सी.पी.आई. के पूर्व महासचिव श्रीपाद अमृत डांगे को भी बुढ़ापे में ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने हिन्दू जीवन दर्शन को न सिर्फ़ अपनाया बल्कि सार्वजनिक रूप से कई लेख लिखकर इसकी वकालत भी की। कम्युनिस्ट इसीलिए संघ के संपर्क में आने से डरते हैं। जहां वे सत्ता में रहे, वहां बलपूर्वक और जहां सत्ता में नहीं रहे, वहां दुष्प्रचार का सहारा लेकर संघ का पूरी शक्ति से विरोध किया। यह बात दूसरी है कि इसका प्रभाव भारतीय जनता पर ‘न’ के बराबर पड़ा और संघ का निरन्तर व्यापक विकास होता रहा। संघ के एक निष्ठावान कार्यकर्त्ता और प्रचारक अटल बिहारी वाजपेयी ने छः वर्ष तक देश का नेतृत्व कर देश को एक नई दिशा दी। यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है।
मैंने इसी सप्ताह के अपने तीन लेखों में कम्युनिज्म के अन्तर्द्वन्द्व. विरोधाभास और विफलता की विस्तार से चर्चा की है। कोई भी कम्युनिस्ट अपनी पार्टी के अंदर भी वैचारिक विरोध को बर्दाश्त नहीं करता। साइबेरिया के जेल, वैचारिक विरोधियों से सोवियत रूस में कम्युनिज्म के पतन तक भरे रहे। नोबेल पुरस्कार विजेता विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार साल्झेनित्सिन को अपने जीवन के स्वर्णिम दिन साइबेरिया के जेल में ही बिताने पड़े। उनका साहित्य कम्युनिस्टों की असहिष्णुता, क्रूर मानसिकता और हिंसक दमन का स्थापित दस्तावेज़ है। स्टालिन की पत्नी जो स्वेतलाना की मां थीं, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलिट ब्यूरो की सदस्य थीं। स्टालिन उन्हें बहुत प्यार करते थे लेकिन एक रात बाथ रूम में स्वयं अपने हाथों से उनका गला घोंट दिया। स्वेतलाना की मां का अपराध मात्र इतना था कि पोलिट ब्यूरो की बैठक में उन्होंने ट्राटस्की के विचारों का समर्थन किया था। इस घटना का विस्तार से वर्णन स्वयं स्वेतलाना ने अपनी आत्मकथा में किया है। ट्राटस्की की हत्या के लिए स्टलिन ने कई प्रयास किए। अन्त में ट्राटस्की को अमेरिका की शरण लेनी पड़ी।
यह सही है कि मज़दूरों और किसानों को झूठे स्वर्णिम सपने दिखाकर कम्युनिस्टों ने रूस इत्यादि कई यूरोपीय देशों और चीन, वियतनाम, कोरिया आदि एशिया के देशों में बड़ी क्रान्ति कर सत्ता प्राप्त की। लेकिन कम्युनिज्म इससे इन्कार नहीं कर सकता कि विश्व के सर्वाधिक खूंखार और अपनी ही जनता का भीषण नरसंहार करने वाले स्टालिन, माओ, चाउसेस्कू, फ़िडेल कास्त्रो, मार्शल टीटो जैसे तानाशाह भी कम्युनिज्म की ही उपज थे। दुनिया के मज़दूरों को शोषण मुक्त समाज का सब्ज बाग दिखाने वाले इन सपनों के सौदागरों ने सर्वाधिक शोषण अपने ही देश के मज़दूरों, किसानों और छात्रों का किया। किसी भी कम्युनिस्ट देश में मज़दूर यूनियन नहीं होते। चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति और थ्येन-आन-मान चौराहे पर टैंक द्वारा अपने ही देश के अनगिनत छात्रों को मौत के घाट उतार देने की घटनाएं अभी पुरानी नहीं हुई हैं। रूस की बोल्शेविक क्रान्ति के दौरान लाखों किसानों और यहुदियों की सामूहिक हत्याओं के किस्से आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज़ हैं। कम्युनिज्म का रक्त रंजित इतिहास विश्व क्या कभी विस्मृत कर पाएगा? शायद कभी नहीं। विश्व पटल से कम्युनिज्म की विदाई का सबसे प्रमुख कारण उनका असहिष्णु और हिंसक होना है। ये बुद्धिजीवियों और विचारकों के सबसे बड़े शत्रु होते हैं। एक मनुष्य के नैसर्गिक अधिकार और प्रकृत्ति प्रदत्त स्वतंत्रता पर ये सबसे पहले कुठाराघात करते हैं। इनके शासन में कोई मानवाधिकार की बात करना तो दूर, सोच भी नहीं सकता है। शेष दुनिया के कम्युनिस्टों ने तो इतिहास से सबक लेकर अपने में काफी सुधार किया है लेकिन भारत के कम्युनिस्ट अभी भी लकीर के फ़कीर हैं। जनता द्वारा ठुकराए जाने के बाद अब उनकी आशा के एकमात्र केन्द्र नक्सली हैं। नक्सलवाद (मार्क्सवाद) और नक्सली ही कम्युनिस्टों के असली चेहरे हैं। संसदीय प्रणाली में दिखावटी विश्वास करने वाले कम्युनिस्टों के लिए तिकड़म और सत्तारुढ़ पार्टी की चापलूसी ही हमेशा से उनका धर्म रहा है। इसके सहारे उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय हासिल किया, प्रचार-प्रसार के सरकारी तंत्रों पर छद्म रूप से कब्जा किया, साहित्य अकादमी पर वर्चस्व स्थापित कर भारतीय भाषाओं, विशेष रूप से हिन्दी की दुर्गत कर दी। बदले में एकाध नामवर सिंह पैदा किया। प्रेमचन्द, जय शंकर प्रसाद, निराला, पन्त, दिनकर या मैथिलीशरण गुप्त पैदा करने की बात तो वे स्वप्न में भी नहीं सोच सकते। हिन्दी को वे हिन्दू से संबद्ध मानते हैं। इसलिए हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान और इनका समग्र चिन्तन करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से इनका छ्त्तीस का आंकड़ा हमेशा से रहा है। यह अच्छा है कि भगवान गंजे को नाखून नहीं देता वरना अगर ये दिल्ली की सत्ता पर एक दिन के लिए भी आते तो इनका पहला काम होता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिन्द महासागर में भारी से भारी पत्थर बांधकर डूबो देना।