Monday, December 26, 2016

बेनकाब मायावती

        ८ नवंबर की रात के बाद मोदी द्वारा नोटबन्दी किए जाने के बाद लगभग सभी विपक्षी दल विक्षिप्त हो गए। अब उन्होंने खुद ही प्रमाण देना शुरु कर दिया है कि उनकी यह दशा क्यों हुई। कल दिनांक २६ दिसंबर को प्रवर्तन निर्देशालय द्वारा जारी की गई सूचना में यह खुलासा हुआ है कि बसपा सुप्रिमो मैडम मायावती ने दिल्ली के करोल बाग स्थित यूनियन बैंक के अपनी पार्टी के खाते में ८ दिसंबर के बाद १०४.३६ करोड़ रुपए के पुराने ५०० और हज़ार रुपए के नोट जमा कराए। विवरण निम्नवत है --
दिनांक             राशि
१०.११.१६          ३६ लाख
२.१२.१६ १५.० करोड़
३.१२.१६ १५.८ करोड़
५.१२.१६ १७.० करोड़
६.१२.१६ १५.० करोड़
७.१२.१६ १८.० करोड़
८.१२.१६ १८.० करोड़
९.१२.१६ ५.२ करोड़
कुल १०४.३६ करोड़
इनमें से १०२ करोड़ रुपए पुराने १००० रुपए तथा शेष २.३६ करोड़ रुपए ५०० रुपए के नोट थे। यही नहीं उनके भाई आनन्द कुमार के उसी बैंक के खाते में भी इसी अवधि में १.४३ करोड़ के पुराने नोट जमा कराए गए। मायावती हमेशा की तरह यही कहेंगी कि ये रुपए गरीब पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा दिए गए चन्दे थे। मायावती कुछ भी बहाने बनाएं लेकिन यह सत्य है कि इतनी बड़ी धनराशि घर में रखने के पीछे पार्टी का भला कम और अपनी धनलिप्सा की प्रवृत्ति ज्यादा थी। मायावती से ममता तनिक भी कम विक्षिप्त नहीं हैं। जो नेता जितना विक्षिप्त है, मोदी को उसी अनुपात में गालियां दे रहा है। सूत्र बताते हैं कि स्वास्थ्य लाभ करने के बाद जय ललिता को नोटबन्दी की जब जानकारी हुई, तो वे सदमा नहीं झेल पाईं। राहुल गांधी भी विक्षिप्तता की सीमा पार कर गए हैं। अगर उनके, उनकी माताजी और बहन-बहनोई के यहां छापे डाले जांय, तो मायावती के काले धन से कई गुणा ज्यादा काला धन प्राप्त होगा। लेकिन मोदी के हाथ बंधे हुए हैं। उनके घर पर छापा डालने से यह प्रचार किया जाएगा कि मोदी ने राजनीतिक बदला लेने के लिए छापा डलवाया था।
           हिन्दुस्तान में सबसे भ्रष्ट प्रजाति नेताओं की है। इन्होंने अपने स्वार्थ के लिए समाज के हर तबके, व्यापारियों और नौकरशाहों को भ्रष्ट बना रखा है। सोनिया गांधी ने अगस्ता हेलिकाप्टर घोटाले में पूर्व वायु सेनाध्यक्ष को भी लपेट लिया। विश्वास नहीं होता कि कोई सेनाध्यक्ष बिना किसी बड़े दबाव के नियमों में फेरबदल करके सोनिया जी की पसन्दीदा फ़र्म को क्रयादेश दिला सकता है। लेकिन वे मायावती की तरह मूर्ख भी नहीं हैं कि काला धन बैंक में जमा करके बदनामी मोल लें। उनके और अन्य नेताओं के तहखाने से काला धन निकालने के लिए मोदी और जेटली को नई युक्ति सोचनी पड़ेगी। विदेशी खातों की पूर्ण और पुष्ट जानकारी प्राप्त होने के बाद ही इनपर शिकंजा कसना संभव हो पाएगा। नोटबन्दी के बाद विदेशी कालाधन को शीघ्र देश में लाए जाने की अब अपेक्षा की जा रही है। मोदी अगर इसमें सफल हो गए तो इतिहास पुरुष बन जायेंगे। मुलायम, ममता, लालू, करुणानिधि, शरद पवार और अन्य धंधेबाज नेता मायावती की तरह बैंक में भले ही कालाधन जमा न करें, परन्तु चार दिनों के बाद अपने नोटों को रद्दी में बदलने से नहीं रोक सकते।
प्रधान मन्त्री जी से अनुरोध है कि वे विपक्ष के भौंकने से विचलित हुए बिना इनके परिसर पर छापा डलवाएं। लोढ़ा और भुजियावाले के यहां इनके धन का बहुत छोटा हिस्सा था। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, मुलायम, मायावती, जय ललिता, करुणानिधि, राजा और पवार जैसे नेताओं ने भी देश को खूब लूटा है। इन्हें भी बेनकाब करने का अब समय आ गया है।

Sunday, November 27, 2016

हम नहीं सुधरेंगे

      भारत की पुलिस और भारत की रेलवे ने यह कसम खा रखी है कि “हम नहीं सुधरेंगे"। रेल मन्त्री सुरेश प्रभु के बारे में सुना था कि वे एक कर्मठ और संवेदनशील नेता हैं। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने उनके इन्हीं गुणों को ध्यान में रखकर उन्हें रेल मन्त्री बनाया था, लेकिन पिछले ढाई सालों में रेलवे की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ, उल्टे व्यवस्था बिगड़ती ही गई। पिछले रविवार को कानपुर के पास हुई रेल दुर्घटना ने दिल को झिंझोड़कर रख दिया। रेलवे द्वारा ट्रैकों के समुचित रखरखाव की कलई खुल गई। प्रधान मन्त्री तेज रफ़्तार ट्रेनों और बुलेट ट्रेन की बात करते हैं। क्या ऐसी ट्रेनें चलाना भारतीय रेल के लिए संभव है? कहावत है - Speed gives thrill but invites danger. रेलवे एक सफेद हाथी बन चुका है, जिसमें किसी सुधार की संभावना नहीं दिखाई दे रही। ट्रेनों की रफ्तार जिस गति से बढ़ेगी यात्रियों की मौत भी उसी रफ्तार से होगी। एक बहुत साधारण सा काम है - ट्रेनों का सही समय से परिचालन। लेकिन रेलवे को भारत की जनता के कीमती समय की कोई परवाह नहीं है। सुरेश प्रभु जी को मैंने फ़ेसबुक और ट्विटर के माध्यम से ट्रेनों के सही समय पर परिचालन के लिए कई बार लिखा, लेकिन आज तक न कोई सुधार हुआ और न ही उन्होंने कोई उत्तर देने की ज़हमत उठाई। इतने संवेदनशील हैं हमारे रेल मन्त्री। मेरे घर को एक ट्रेन जाती है - लिच्छवी एक्सप्रेस -- १४००५/१४००६। पिछले हफ्ते अप और डाउन दोनों ट्रेनें लगभग १२ घंटे विलंब से चलीं। आज भी यह उतने ही विलंब से चल रही है। यह ट्रेन कभी भी सही समय से नहीं चलती। मैंने इसे समय से चलाने के लिए रेल मन्त्री से कई बार आग्रह किया, लेकिन हर बार ढाक के तीन पात का ही परिणाम रहा।
ट्रेनों में आदमी पिज्जा और बर्गर खाने के लिए सफर नहीं करता। यात्री की एक ही अपेक्षा रहती है -- समय पर सुरक्षित अपने गंतव्य तक पहुंच जाना। रेलवे इस उद्देश्य में पूरी तरह नाकाम साबित हुआ है। भ्रष्टाचार भी चरम पर है। प्रतीक्षा सूची के यात्री ताकते रह जाते हैं और टीटीई पैसा लेकर दूसरों को बर्थ आवंटित कर देते हैं। पता नही सायबर कैफ़े वालों के पास कौन सा कोटा होता है कि वे किसी भी ट्रेन में किसी भी दिन का कन्फर्म टिकट निकाल लेते हैं। प्रधान मन्त्री के स्वच्छता अभियान को रेलवे ठेंगा दिखा रहा है। छोटे-छोटे रेलवे स्टेशन के शौचालय के पास से आपको नाक दबाकर निकलना पड़ेगा। जेनरल बोगी में सफर करने वालों को तो सरकार जानवर से भी बदतर मानती है। किसी भी लंबी दूरी के ट्रेन में जेनरल बोगी में बोरों की तरह भरे यात्रियों को किसी भी दिन देखा जा सकता है। लोग शौचालयों में अखबार बिछाकर बैठे मिलते हैं। यात्रियों को मल-मूत्र त्यागने की भी सुविधा नहीं मिलती। स्टेशनों पर जिसमें दिल्ली और मुंबई भी शामिल हैं, प्रतीक्षा कर रहे यात्रियों को बैठने के लिए पर्याप्त संख्या में बेन्च भी नहीं हैं। लोग फ़र्श पर ही बैठे देखे जा सकते हैं। 
इन्दिरा गांधी ने इमरजेन्सी में ढेर सारे अत्याचार किए थे, लेकिन इमर्जेन्सी को ट्रेनों के सही समय पर चलने के लिए आज भी याद किया जाता है। आखिर क्या कारण है कि मोदी राज में अधिकांश ट्रेनें लेट चल रही हैं? क्या यह समस्या नियंत्रण के बाहर है? यदि हां, तो रेल मन्त्री इसे स्वीकार करते हुए इस्तीफ़ा दें। अकेले मोदी क्या-क्या कर लेंगे। अगर उनके मन्त्रिमंडल में ऐसे नक्कारा मन्त्री हों तो अच्छे दिनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

Thursday, November 17, 2016

एक पाती प्रधान मन्त्री के नाम


 प्रिय मोदी बाबू,
            भगवान तोके हमेशा स्वस्थ और प्रसन्न रखें!
      आगे समाचार ई हौ कि आजकल लोग भगवान को कम और तोके जियादा याद कर रहे हैं। पान की दूकान से लेकर स्टेट बैंक तक लोग केवल तुम्हरे नाम की माला जप रहे हैं। अइसा स्ट्राइक काहे किए कि गरीब से अमीर तक की जुबान पर न राम हैं, न कृष्ण हैं, न मोहम्मद हैं, न ईसा हैं। धनतरिणी को पार करने के लिए सब तुम्हारा ही नाम जप रहे हैं। बचपन में सुनते रहे कि भगवान एक घड़ी में राई को पहाड़ और पहाड़ को राई बना सकते हैं। बस सुना ही था, कभी देखा नहीं था। तुमने दिखा भी दिया। एक ही रात में मायावती का मोटा-तगड़ा हाथी करिया बकरी बन गया , अखिलेश की सयकिल पंक्चर हो गई. राहुल का हाथ अपने ही गाल पर तमाचा लगाने लगा, केजरीवाल का फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन डालर रखकर भी कंगाल हो गया, अतंकवादी दिवालिया हो गए और नक्सलवादी फेनु Have not हो गए। नेपाल और बांगला देश से आनेवाले पाकिस्तानी नोटों के सहारे सत्ता हासिल करनेवाली ममता की तो भगई ही ढीली हो गई। गनीमत है कि जयललिता अभी पूरी तरह स्वस्थ नहीं है, वरना वह तो डेलीगेशन लेकर डोनाल्ड ट्रम्प के पास जाती। बड़ा गड़बड़ काम किया मोदी बाबू तुमने। शिवसेना की हफ़्ता वसूली बंद करा दी और दाउद के नोटों को कागज का टुकड़ा बना दिया। कोई नोट गंगा में बहा रहा है, तो कोई जला रहा है, तो कोई कूड़े में फेंक रहा है। वाह भाई तूने तो कमाल कर दिया। २-जी, ३-जी, कोयला घोटाला, हेलिकोप्टर घोटाला के नायक-नायिका के हृदय के टुकड़े युवराज पप्पू को महज ४००० रुपए के लिए लाईन में लगवा दिया। दो करोड़ की गाड़ी लाईन में खड़ी तो हो नहीं सकती, इसलिए बेचारे को पसीना बहाना ही पड़ा। अब तो लालू चारा काटने वाली मशीन में 500 और हजार के नोटों को काटकर अपनी गायों को खिलायेंगे। भैया मोदी! तुमने तो अमर सिंह को सिंगापुर में इलाज कराने के लायक भी नहीं छोड़ा। शिवपाल और मुलायम कैसे चुनाव लड़ेंगे? एक ठे बात समझ में नहीं आ रही है। ई नितिशवा तोहरे समर्थन में कैसे आ गया। लालू की उंगली पकड़ कर चलने वाला खुलकर नोटबन्दी का समर्थन कर रहा है। पर्दे के पीछे कोई डिलिंग हो गई है क्या? वैसे उहो लालू के अत्याचार से छटपटाइये रहा है। पाला बदलने का  वह पुराना खिलाड़ी है। कबहूं कुछ हो सकता है।
      सुप्रीम कोर्ट के टी.एस. ठाकुर से जरा होशिया रहना बचवा। ई मत समझना कि व्यापरियों, उद्योगपतियों, दाउदों, आतंकवादियों, नेताओं और नौकरशाहों के पास ही १०००-५०० का जखीरा है। जज भी कुछ कम नहीं हैं। एक सिरफिरे ने सुप्रीम कोर्ट में तोहरे निर्णय के खिलाफ जनहित याचिका दायर कर रखी है। हालांकि बंबई और चेन्नई हाई कोर्ट ने ऐसी याचिका खारिज कर दी है, लेकिन ठाकुर का कोई भरोसा नहीं है। उसका बाप कांग्रेस के कोटे से कश्मीर में मन्त्री रह चुका है। उसकी काट सोचकर रखना बचवा। वैसे हमको भी एक दिन बैंक से पैसा निकालने मे तीन घंटे तक लाईन में खड़ा रहना पड़ा, लेकिन हमको कोई शिकायत नहीं है। देश के लिए सेना के जवान जान कुर्बान कर रहे हैं, तुम जान कुर्बान करने पर आमादा हो। ऐसे में हमारे २-३ घंटे अगर कुर्बान हो जाते हैं तो कैसा गिला और कैसी शिकायत। बचवा, इसी तरह छप्पन इन्च के सीने के साथ काम करते रहो। हाथी चलता है, तो कुकुर सारे भूंकते ही है।
     थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना। हम इहाँ राजी-खुशी हैं। तुम बुलन्द रहना।

     इति। तुम्हारा -- चाचा बनारसी

Monday, October 24, 2016

एक पाती अखिलेश बचवा के नाम

प्रिय बबुआ अखिलेश,
राजी खुशी रहो।
आगे समाचार ई है कि टीवी चैनल और अखबार वाले तोके तरह-तरह की सलाह दे रहे हैं। कुछ लोग तो तोके हीरो बनाए हुए हैं और कुछ लोग नालायक बेटा। हम भी सोचे कि इस संकट की घड़ी में चाचा होने के नाते तुमको कुछ सलाह देइये दें। बचवा ई बात का खयाल रखना कि हम शिवपाल चाचा या अमर अंकल नहीं हैं, हम बनारसी चाचा हैं। आजकल तुम जैसी फाइट दे रहे हो, उसको देखकर हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद की याद आ रही है है। तोहरे बाबूजी तोके मुख्यमंत्री तो बना दिए, लेकिन तुमसे वे कभी खुश नहीं रहे। पहले भी सार्वानिक रूप से तुम्हारे काम-काज पर विरोधी दल की तरह टिप्पणी करते रहे। आज तुम्हारी माँ जिन्दा रहती तो तुमको ये दिन नहीं देखने पड़ते। कहते हैं कि जब सौतेली माँ घर में आती है तो सबसे पहले बाप ही सौतेला हो जाता है। तुम्हारे बाप का व्यवहार देखकर अब इस बात पर यकीन न करने का कवनो सवाले नहीं उठता है। बेटा तुममें एक छोड़कर कवनो कमी नहीं है। तुम आदमी पहचानने में थोड़ा ज्यादा टैम लेते हो। तुम्हारे पिता के केन्द्र में जाने के बाद तुम्हारा चाचा, अरे वही शिवपलवा, अपने को ही मुख्यमंत्री की कुर्सी का असली अधिकारी मानता था। वह बन भी जाता कि बीच में तुम टपक पड़े। उस समय मुलायम भी तुमको एक आज्ञाकारी पुत्र के रूप में जानते थे। लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि शिवपलवा पहले ही दिन से तुमपर घात लगाए था। उसने और आज़म खाँ ने तुम्हें पप्पू बनाने का कोई भी अवसर हाथ से जाने नहीं दिया। वे शायद भूल गए कि उनका पाला आस्ट्रेलिया में पढ़े एक इंजीनियर से पड़ा था। तुम समय-समय पर उन्हें २५० वोल्ट का झटका देते रहे, वे फिर भी नहीं संभले। मुज़फ़्फ़र नगर में दंगा कराकर और बुलंद शहर में सार्वजनिक बलात्कार कराकर तुम्हें कुर्सी से बेदखल करने की बहुते कोशिश हुई, लेकिन तब तुम अपने पिताश्री का विश्वास जीतने में कामयाब रहे। लेकिन अब जब तुमने सब के पेट पर लात मारने की कोशिश की है, तो सब एकजूट हो गए। बचवा, राजनीति में हो तो इतना तो जानते ही होगे कि चुनाव में बेतहाशा खर्च होता है। तुम्हारे जैसे साफ-सुथरा मनई सैकड़ों करोड़ का इन्तज़ाम कैसे करता? ऐन मौके पर चाचा को हटा दिए और गायत्री प्रजापति का इस्तीफ़ा लेकर अपनी कैकयी माता को भी नाराज़ कर दिए। बाबर सिर्फ १२,००० सेना लेकर हिन्दुस्तान में आया था। उसका साथ अगर यहां के राजा नहीं देते तो वह दिल्ली तक नहीं पहुंच पाता। तुमने यह तो साबित कर दिया है कि तुम एक काबिल मुख्यमंत्री हो, जो भ्रष्टाचार और जुगाड़ में विश्वास नहीं करता। लेकिन तुम्हारा यह गुण आज़मों, अमरों और शिवपालों का कैसे बर्दाश्त होगा? अब तो तुम्हें आर-पार की लड़ाई लड़नी है। जब टिकट के बँटवारे में तुम्हारी कवनो पूछे नहीं है, तो चुनाव के बाद तुम्हें मुख्यमंत्री कौन बनायेगा। इसलिए बचवा, अपनी लड़ाई आप लड़ो। महाभारत में अर्जुन के सामने उनके दादा, मामा, चचेरे भाई, रिश्तेदार और मित्र खड़े थे, लेकिन उन्होंने धर्मयुद्ध में किसी को नहीं बक्शा। तुम भी हथियार लेकर युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। समय बहुत कम है। लंबी तैयारी करनी है। यदुवंशी श्रीकृष्ण तुम्हारा साथ दें, यही प्रार्थना है।
    थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना। हम इहां ठिकेठाक हैं। तुम अपना ख्याल रखना।
इति शुभ। 
      तुम्हारा
 चाचा बनारसी

Friday, September 2, 2016

कश्मीर की समस्या

      कश्मीर की समस्या ऐसी समस्या है जिसके मूल में जाने का कोई प्रयास ही नहीं करता है। वैसे भी हम कश्मीर घाटी के मुट्ठी भर सुन्नी मुसलमानों के असंतोष को पूरे कश्मीर की समस्या मान बैठे हैं। जम्मू और कश्मीर के अधिकांश क्षेत्रों में कोई समस्या नहीं है। लद्दाख और जम्मू में तो बिल्कुल ही नहीं है। भारत के मुसलमानों की जिस मानसिकता के कारण  पाकिस्तान का निर्माण हुआ वही मानसिकता घाटी के सुन्नी मुसलमानों में आज भी कायम है। वे भारत में रहना ही नहीं चाहते हैं। वे कश्मीर का पाकिस्तान में विलय चाहते हैं। वे दूसरे विकल्प के रूप में एक स्वतंत्र देश के रूप में अपना अस्तित्व देखना चाहते हैं। इसमें से कोई भी विकल्प भारत को मन्जूर नहीं हो सकता। भारत अपने अन्य राज्यों की  तुलना में कश्मीर पर सबसे ज्यादा खर्च करता है। केन्द्र सरकार हमेशा इस मुगालते में रही है कि कश्मीर का विकास करके वे कश्मीरियों का दिल जीत लेंगे। लेकिन यह मृग मरीचिका ही सिद्ध हुई है। अगर कश्मीर की सीमाएं पाकिस्तान से नहीं मिलतीं, तो कश्मीर में कोई समस्या ही नहीं होती। अगर हैदराबाद की सीमा पाकिस्तान से मिलती, तो हैदराबाद देश का दूसरा कश्मीर होता। जो मुसलमान पाकिस्तान के कट्टर समर्थक थे, वे देश के बंटवारे के साथ ही पाकिस्तान चले गए। जो मुसलमान भारत में रह गए, उनमें से अधिकांश का शरीर ही भारत में रहता है, आत्मा पाकिस्तान में बसती है। संभवत: भारत के एक और विभाजन की आशा में वे हिन्दुस्तान में रह गए। इसी सपने की पूर्ति के लिए यहां आतंकवादी हमले किए जाते हैं और सामान्य नागरिक संहिता लागू नहीं करने दी जाती। निम्नलिखित तरीके से कश्मीर समस्या का समाधान किया जा सकता है --
१. पाकिस्तान का अस्तित्व समाप्त कर दिया जाय। इसे बलूचिस्तान, सिन्ध, पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में बांट दिया जाय। सैन्य कार्यवाही करके गुलाम कश्मीर को भारत में मिला लिया जाय।
२. धारा ३७० खत्म करके भारतीयों को कश्मीर में बसने और उद्योग लगाने की अनुमति प्रदान की जाय। कश्मीरी पंडितों की वापसी हो और सेवानिवृत्त सैनिकों को विशेष सुविधा के साथ उस क्षेत्र में बसाया जाय। जनसंख्या का संतुलन हिन्दुओं के पक्ष में किए बिना वहां स्थाई शान्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। इतिहास गवाह है कि देश के जिस भाग में हिन्दू अल्पसंख्यक हुआ वह हिस्सा देश से कट गया या कटने की तैयारी में है।
३. देश में समान नागरिक संहिता लागू की जाय
४. अगर उपर बताए गए विकल्पों को लागू करने में समय लगने या किसी अन्य प्रकार की दिक्कत हो तो लंका से सीख लेते हुए जाफ़ना मे तमिल समस्या के निराकरण का उपाय अपनाना चाहिए। कश्मीरियों के पास तो सिर्फ पत्थर है, जाफ़ना के तमिल उग्रवादियों के पास तो वायु सेना और जल सेना भी थी। वहां सैनिक अभियान चलाकर देशद्रोहियों का इस तरह सफ़या कर देना चाहिए ताकि कोई पाकिस्तान की ओर मुंह करके नमाज़ पढ़ने का भी साहस न कर सके।
सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने से कुछ नहीं होनेवाला। एक दृढ़प्रतिज्ञ केन्द्र सरकार ही कड़े कदम उठाकर घाटी की समस्या का समाधान कर सकती है। कश्मीर में अलगाववाद का रोग इतना क्रोनिक है कि होमियोपैथी की मीठी गोलियों से निदान असंभव है। आपरेशन करना ही पड़ेगा। संयोग से नरेन्द्र मोदी के रूप में देश ने एक दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रधान मंत्री पाया है। उनसे देशवासियों को काफी उम्मीदें हैं।

Wednesday, August 31, 2016

केजरीवाल के नगीने

      महाभारत के अन्त में जब अर्जुन को यह ज्ञात हुआ कि कर्ण उनका सहोदर भ्राता था, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछा कि यह जानते हुए भी कि पाण्डव उसके सगे भाई हैं, कर्ण ने द्रौपदी के चीरहरण के लिए दुःशासन को क्यों प्रेरित किया, दुर्योधन के सारे षडयंत्रों में क्यों मुख्य भूमिका निभाई? श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि यह संगत का परिणाम था। तुम्हें मेरी संगत मिली और कर्ण को दुर्योधन की। बस इसी मूल अन्तर ने सारा अनर्थ करा दिया। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के महिला एवं बाल कल्याण मन्त्री सन्दीप कुमार की सेक्स सीडी सामने आने के बाद यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि सन्दीप कुमार केजरीवाल की संगत में बिगड़े या केजरीवाल सन्दीप कुमार की संगत में? आदमी की दोस्ती सामान्य और स्वाभाविक रूप से अपने समान विचार वालों से पहले होती है। केजरीवाल के छः मन्त्रियों में से तीन की जालसाजी, रिश्वतखोरी और सेक्स स्कैन्डल में बर्खास्तगी क्या साबित करती है? साथी भ्रष्ट और नेता दूध का धुला हुआ?
दिल्ली को और कौन-कौन-सा तमाशा दिखायेंगे केजरीवाल? केजरीवाल के मित्र मन्त्री जितेन्द्र तोमर जून, २०१५ में फ़र्जी डिग्री के मामले में जेल की हवा खाने के बाद बर्खास्त किए गए। उनके दूसरे विश्वस्त मन्त्री असीम अहमद खान रिश्वतखोरी में पकड़े जाने पर अक्टूबर, २०१५ में बर्खास्त किए गए और कल यानी ३१ अगस्त, २०१६ को उनके महिला और बाल कल्याण मन्त्री सन्दीप कुमार अपने कल्याण के साथ कई महिलाओं का कल्याण करने की सीडी के सार्वजनिक होने के बाद बर्खास्त किए गए। केजरीवाल के पास ६७ विधायक हैं जिनमें से १३ विधायक भ्रष्टाचार के मामलों में गिरफ़्तार होकर जेल की हवा खा चुके हैं। कुछ दिन और इन्तज़ार कीजिए, तिहाड़ जेल के जेलर महोदय यह दावा करेंगे कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाय क्योंकि उनके पास केजरीवाल से ज्यादा विधायक हैं। तोमर के फ़र्जीवाड़े और असीम अहमद की रिश्वतखोरी के बाद केजरीवाल ने देश के प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगाया था कि वे उनके मन्त्रियों और विधायकों को झूठे मामलों में फंसाकर जेल भिजवा रहे हैं। वे कजरीवाल को काम नहीं करने दे रहे हैं। घोर आश्चर्य है कि सन्दीप कुमार के सेक्स स्कैंडल पर मोदी को दोषी ठहराते हुए केजरीवाल का कोई बयान अभी तक नहीं आया है। हमें तो अपेक्षा थी कि वे कहेंगे कि सन्दीप कुमार वास्तव में महिला कल्याण ही तो कर रहे थे और मोदी ने वह भी नहीं करने दिया।
केजरीवाल को सन्दीप कुमार की सेक्स सीडी १५ दिन पहले ही मिल गई थी, लेकिन उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की। वे इसको दबाना चाहते थे। लेकिन जब उन्हें मालूम हुआ कि सीडी एल.जी. और मिडिया तक भी पहुँच गई है, तो उन्होंने सन्दीप को बर्खास्त किया। इस मामले में झूठ बोलकर मनीष सिसोदिया ने देश और दिल्ली की जनता को धोखा दिया है। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। केजरीवाल के एक विधायक पर बलात्कार का आरोप है। पीड़ित लड़की, जो आप की वर्कर थी, ने केजरीवाल से शिकायत की और न्याय की मांग की। केजरीवाल का जवाब था कि मामले को तूल मत दो और विधायक से कम्प्रोमाइज कर लो। बलात्कारी से कम्प्रोमाइज? ऐसा सिर्फ केजरीवाल ही सोच सकते हैं। पीड़ित, बेबस लड़की ने कहीं से न्याय न पाने के कारण आत्महत्या कर ली। केजरीवाल का विश्वस्त पूर्व मन्त्री सोमनाथ भारती अपनी पत्नी की रोज पिटाई करता था और कुत्ते से कटवाता था।केजरी ने उसका भी बचाव किया था। केजरीवाल के साथी कैसे निकले, यह जनता के सामने है। सत्संगी को सत्संगी मिलता है और व्यभिचारी को व्यभिचारी - यह प्रकृति का नियम है। सारा आरोप एल.जी., मोदी और अपने दागी मन्त्रियों तथा विधायकों पर थोपकर केजरीवाल अपने को साफ-सुथरा साबित नहीं कर सकते। आजतक केजरीवाल ने अपने दागी मन्त्रियों और विधायकों में से एक को भी पार्टी से  नहीं निकाला है। केजरी फैसला लेने में बहुत कमजोर हैं। वे लगातार जनता के भरोसे का कत्ल कर रहे हैं। जो आदमी अपने आधा दर्ज़न मन्त्रियों को कन्ट्रोल नहीं कर सकता है, वह दिल्ली को क्या कन्ट्रोल करेगा। खोखली नैतिकता के स्वामी केजरीवाल में अगर तनिक भी शर्म बाकी हो तो बिना विलंब किए मुख्यमन्त्री के पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए और जनता को अपना कालिख पुता चेहरा फिर न दिखाने की कसम भी खा लेनी चाहिए।

Sunday, August 21, 2016

बलूचिस्तान की जंगे आज़ादी

      बलूचिस्तान वर्तमान में पाकिस्तान का पश्चिमी प्रान्त है। पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा प्रान्त है। यहां तेल और प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार है। यह सोना समेत अनेक खनिज संपदा भी अपने गर्भ में छिपाए हुए है। ईसा पूर्व बलूचिस्तान का कुछ हिस्सा ईरान (सिस्तान व बलूचिस्तान प्रान्त) तथा अफ़गानिस्तान में भी पड़ता था। सबसे बड़ा क्षेत्र पाकिस्तान में पड़ता है, लेकिन इसकी आज़ादी की मांग से ईरान भी भयभीत रहता है। इसकी राजधानी क्वेटा है तथा भाषा बलूच है।
            १९४७ के पहले इसे कलात के रियासत के रूप में जाना जाता था। इसका दर्ज़ा हिन्दुस्तान के अन्य रियासतों की ही तरह था। १९४४ में अंग्रेज इसे पूर्ण स्वतंत्रता देना चाहते थे लेकिन जिन्ना और मुस्लिम लीग के विरोध के कारण यह १४ अगस्त १९४७ को एक स्वतंत्र रियासत के रूप में आज़ाद हुआ। पाकिस्तान के आज़ाद होने के एक दिन बाद ही कलात रियासत (वर्तमान बलूचिस्तान) ने अपने शासक ज़नाब खान साहब के नेतृत्व में एक मुल्क के रूप में अपनी आज़ादी की घोषणा कर दी। कलात के स्वतंत्र अस्तित्व की पुष्टि मुस्लिम लीग ने की और कलात की नेशनल एसेम्बली  ने भी की। लेकिन १ एप्रिल १९४८ में पाकिस्तानी सेना ने कलात में मार्च किया और कलात के शासक ज़नाब खान साहब को गिरफ़्तार कर लिया। उनसे जबर्दस्ती विलय के समझौते पर दस्तखत करा लिया गया। लेकिन खान के भाई अब्दुल करीम ने तत्काल विद्रोह की घोषणा कर दी और कलात को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करते हुए बलोच नेशनल एसेम्बली के लिए एक घोषणा पत्र भी जारी किया जिसमें पाकिस्तान के साथ विलय को अस्वीकृत किया गया था। प्रिन्स को अफ़गानिस्तान से समर्थन की अपेक्षा थी क्योंकि अफ़गानिस्तान बलूच और पख्तून क्षेत्रों के पाकिस्तान में विलय का विरोधी था। अफ़गानिस्तान का भी इरादा नेक नहीं था। वह इस क्षेत्र का अफ़गानिस्तान में विलय चाहता था।
            बलूचिस्तान में आज़ादी के लिए संघर्ष कोई आज की घटना नहीं है, बल्कि १९४८ में ही इसके पाकिस्तान में जबर्दस्ती विलय के समय से ही शुरुआत हो चुकी थी। पाकिस्तान के खिलाफ़ बलूचियों ने १९४८-५२, १९५८-६०, १९६२-६९ और २००४-०५ में खुली बगावत की जिसका एक ही मकसद था – पाकिस्तान से आज़ादी।
            प्रिन्स अब्दुल करीम ने १९५० के मई के अन्त में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ़ झालवान जिले में गुरिल्ला युद्ध आरंभ करके खुली बगावत का एलान किया। इसपर पाकिस्तान की सेना के  अधिकारियों ने यह चेतावनी दी कि अगर बगावत जारी रही तो गिरफ़्तार शासक खान साहब की दुर्गति कर देंगे। पाकिस्तान की सेना के अधिकारियों और अब्दुल करीम खां के प्रतिनिधियों के बीच कुरान की शपथ लेते हुए एक समझौता हुआ  जिसमें सभी बागियों को माफ़ी देने तथा उनकी सुरक्षा के साथ-साथ अच्छे व्यवहार की गारंटी दी गई थी। लेकिन सेना ने छल किया और प्रिन्स तथा उनके १०२ सथियों को कलात जाने के रास्ते में ही गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन इस विद्रोह से दुनिया के सामने दो चीजें स्पष्ट हो गईं ---
१.       बलूच और पख्तून बलूचिस्तान के पाकिस्तान में विलय को स्वीकार नहीं करते।
२.      बलूचियों में यह विश्वास घर कर गया कि पाकिस्तान ने उनके साथ धोखा किया है और समझौता तोड़कर विश्वासघात किया है।
करीम और उनके साथियों को लंबी अवधि की जेल की सज़ा हुई, परन्तु वे बलूचिस्तान की आज़ादी के प्रतीक बन गए।
    अब्दुल करीम १९५५ में जेल से छूटकर आए और फिर आज़ादी के दीवानों को संगठित करना शुरु कर दिया। उन्होंने पाकिस्तान की सेना के मुकाबले के लिए एक समानान्तर सेना का गठन किया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने ६ अक्टूबर, १९५८ को इस विद्रोह को दबाने के लिए सेना को कलात में कूच करने का आदेश दिया और एक दिन बाद मार्शल ला भी लगा दिया। सेना ने खान बन्धुओं को फिर से गिरफ़्तार कर लिया और देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया। खान बन्धुओं की गिरफ़्तारी का भयंकर प्रतिरोध हुआ और पूरे बलूचिस्तान में हिंसा भड़क उठी। सेना ने गुरिल्लाओं के संभावित ठिकानों के सन्देह में कई गाँवों पर बमबारी भी की। झालवान के जेहरी जनजातीय प्रमुख नौरोज खान ने मीरघाट की पहाड़ियों में पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ा दिए। लेकिन अन्त में सेना ने कुरान की कसम दिलाते हुए एक समझौता करने में सफलता पा ली। नौरोज ने अच्छे व्यवहार की आशा में हथियार डाल दिए, लेकिन सेना ने फिर विश्वासघात किया तथा उन्हें और उनके पुत्रों को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। जुलाई १९६० में नौरोज के बेटों को हैदराबाद और सुकुर में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गम से टूटे नौरोज  भी १९६२ में कोहलू के जेल में स्वर्गवासी हो गए।
               १९५८ में सेना ने बलूचिस्तान के अन्दर के इलाकों में बेस कैंप बनाना शुरु किया तो  एक बार फिर विद्रोह भड़क उठा। इस विद्रोह का नेतृत्व शेर मुहम्मद मर्री ने किया। वे एक दूरदर्शी नेता थे। उन्होंने एक व्यापक गुरिल्ला युद्ध की तैयारी की। इसके लिए उन्होंने झालवान के आदिवासी क्षेत्रों, मर्री और उत्तर के बुग्ती क्षेत्रों में अपना प्रभावी नेटवर्क स्थापित किया। आज़ादी  के दीवाने गुरिल्लाओं को सैन्य प्रशिक्षण और बम बनाने तथा चलाने की ट्रेनिंग दी गई। सेना ने इसका जबर्दस्त विरोध किया और शेर मुहम्मद मर्री तथा उनके रिश्तेदारों के १३,००० एकड़ में फैले बादाम के बगीचों को बुलडोज़र चला कर ध्वस्त कर दिया। लड़ाई १९६९ तक जारी रही। अन्त में याह्या खान ने सीमित स्वायत्तता प्रदान करते हुए अपनी सेना की एक यूनिट को वापस बुला लिया। क्षेत्र में एक अस्थाई शान्ति कायम हुई।
            सन १९७० में राष्ट्रवादी बलूचियों ने उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेश (NWFP) के पख्तूनों से संपर्क किया और नेशनल अवामी पार्टी के नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई। १९७१ के आम चुनाव में इस पार्टी ने बलूचिस्तान और NWFP में जीत भी हासिल की। इस बीच क्वेटा और मस्तुंग में पंजाबियों के खिलाफ़ बलूचियों के आक्रामक रवैये तथा ईरानी दूतावास में भारी मात्रा में संहारक हथियारों की बरामदगी से पाकिस्तानी शासकों को यह विश्वास हो गया कि बलूचिस्तान में विद्रोही फिर से सक्रिय हो गए हैं। पाकिस्तान के प्रधान मन्त्री भुट्टो ने राज्य सरकार को तुरन्त बर्खास्त कर दिया। बर्खास्तगी से नाराज बलूच गुरिल्ले फिर से सक्रिय हो गए। बांग्ला देश की घटना से विक्षिप्त भुट्टो ने बलूचिस्तान को फिर सेना के हवाले कर दिया तथा बलूचिस्तान के तीन बुजुर्ग सम्मानित नेता – गौस बक्स बिजेन्जो, अयातुल्ला खान मेंगल और कबीर मर्री को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया। लेकिन बलूचिस्तान में आन्दोलन थमा नहीं और अगले चार साल तक जारी रहा। यह युद्ध जब चरम पर था, तो पाकिस्तान को अपने ८०,००० फौजियों को वहाँ तैनात करना पड़ा। यह अबतक का सबसे बड़ा विद्रोह था। रेल और रोड लिंक ध्वस्त हो गए थे। बलूचिस्तान लंबे समय तक पाकिस्तान से कटा रहा। ईरान के शाह को यह डर सताने लगा कि उसके नियंत्रण वाले बलूचिस्तान के क्षेत्र में भी कहीं बगावत न हो जाय, उसने ३० अमेरिकी कोबरा हेलिकाप्टर अपने पायलट के साथ पाकिस्तान की मदद के लिए भेजा। १९७४ की सर्दियों में पाकिस्तानी सेना ने हवाई और जमीनी आक्रमण से हजारों बलूच आदिवासियों की हत्या की। बलूच गुरिल्ले, जिन्हें किसी बाहरी शक्ति का समर्थन प्राप्त नहीं था, लंबे समय तक पाकिस्तानी सेना का सामना नहीं कर सके और बलूच स्वतंत्रता के अधिकांश नेता पाकिस्तान के बाहर ब्रिटेन और अफ़गानिस्तान जैसे देशों में चले गए। इसके बाद भी बलूच स्टूडेन्ट‘स यूनियन और अन्य स्वतंत्रता प्रेमी बलूच समूहों ने फिर लड़ाई की शुरुआत की जो आजतक जारी है।

            बलूचों के संघर्ष की दास्तान से सारी दुनिया लगभग अनजान थी। वहाँ आज़ादी की मांग बहुत पुरानी है। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इसे स्वर प्रदान किया है। आज़ादी के लिए हथियारबंद अलगाववादी समूह आज भी सक्रिय हैं। इनमें प्रमुख हैं – बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और लश्कर-ए-बलूचिस्तान। पाकिस्तानी सरकार लगातार बलूच आन्दोलन को योजनाबद्ध से कुचलने और बलूचियों की मांग को दरकिनार करने का प्रयास करती रही है। पाकिस्तान ने हजारों बलूचों को नज़रबंद किया, हजारों युवकों का अपहरण कर उन्हें गायब कर दिया, सेना और सरकारी नौकरियों में बलूचियों के प्रवेश पर रोक लगाई, लोकतांत्रिक बलूच नेताओं की हत्या कराई। पुरुषों का कत्ल और महिलाओं से रेप पाकिस्तानी सेना के लिए आम बात है।बलूचिस्तान के इतिहास में पहली बार किसी अन्तर्राष्ट्रीय नेता ने बलूचिस्तान की आज़ादी का समर्थन करने का संकेत दिया है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को थोड़ा आगे बढ़कर बलूचिस्तान को सैन्य सहायता प्रदान करने पर भी विचार करना चाहिए। कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्राय़ोजित आतंकवाद का यह सबसे सटीक उत्तर होगा। अगर बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग हो जाता है तो पाकिस्तान की कमर टूट जाएगी और वह कंगाल हो जाएगा।

Wednesday, August 17, 2016

भारत के मुख्य न्यायाधीश की खीझ


            स्वतन्त्रता दिवस के पावन अवसर पर लाल किले की प्राचीर से प्रधान मन्त्री ने अपने संबोधन में जजों के रिक्त पदों के भरने के विषय में कुछ नहीं कहा; भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी.एस. ठाकुर इससे बहुत नाराज हैं। उन्होंने उसी दिन कानून मन्त्री और प्रधान मन्त्री पर कटाक्ष भी किया। अपनी बात कहने का यह कोई उपयुक्त अवसर नहीं था। इसमें उनकी कुण्ठा साफ झलक रही थी। न्यायपालिका में उपर से नीचे तक भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है। पैसे वालों और पहुंच वालों के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से मनमाफिक फैसले लेना अब आम बात हो गई है। आतंकी याकूब मेनन के लिए सुप्रीम कोर्ट आधी रात को खुल सकता है लेकिन बुलन्द शहर के रेप विक्टिम का संज्ञान भी नहीं ले सकता। लालू यादव, जय ललिता, कन्हैया और सलमान खान उंगलियों पर न्यायालय को नचा सकते हैं, लेकिन साध्वी प्रज्ञा को जांच एजेन्सी की अनुशंसा के बाद भी ज़मानत नहीं मिल सकती। अब तो सुप्रीम कोर्ट कानून भी बनाने लगा है। भारत का क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड एक स्वायत्तशासी संस्था है जो स्थापित नियम कानूनों के हिसाब से बनी है। सुप्रीम कोर्ट ने एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश से उसकी कार्य पद्धति की जांच करवाई और उसके संचालन के लिए खुद ही नियम भी बना दिए। यह काम विधायिका यानी संसद का था। लेकिन मुख्य न्यायाधीश के अहंकार ने सुप्रीम कोर्ट को विधायिका का रूप दे दिया। BCCI ने सुप्रीम कोर्ट में उसके पूर्व निर्णय के खिलाफ अपील की है जिसमें यह आग्रह किया गया है कि चूंकि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ठाकुर BCCI के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं, इसलिए उन्हें सुनवाई करने वाली पीठ में न रखा जाय। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी जब वादी ने अपने प्रतिवेदन में मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता पर साफ-साफ उंगली उठाई हो।
            जब मैं पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम का मुख्य अभियन्ता (प्रशासन) था, तो एक केस के सिलसिले में इलाहाबाद हाई कोर्ट में गया था। उसमें मेरे सिवा, मेरे एम.डी, पश्चिमांचल के एम.डी, उत्पादन निगम के अध्यक्ष और पारेषण के एम.डी. भी तलब किए गए थे। हमलोग पूरी तैयारी से दिन के पौने दस बजे ही कोर्ट में पहुंच गए थे, लेकिन न्यायाधीश महोदय दिन के साढ़े ग्यारह बजे कोर्ट में पहुंचे। मई का महीना था। गर्मी के कारण बुरा हाल था। उनके कोर्ट में बैठने की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। हमलोग खड़े होकर अपनी बारी का इन्तज़ार कर रहे थे कि अपराह्न के डेढ़ बज गए। जज साहब लंच के लिए उठ गए। हमलोग गर्मी में ही मरते रहे। फिर जज साहब शाम के चार बजे प्रकट हुए और हमलोगों के केस की सुनवाई पांच बजे तक हुई, फिर अगली तारीख पड़ गई। कोर्ट का काम करने का समय खत्म हो चुका था, अतः जज साहब उठे और अपने घर चले गए। जिन मामलों की सुनवाई नहीं हो पाई थी, उन्हें अगली तारीख मिल गई। न्यायालयों में पेन्डिंग मामलों का एक कारण जजों की कमी तो है, लेकिन यह प्रमुख कारण नहीं है। कोर्ट में गर्मी की छुट्टियों से लेकर न जाने कितनी छुट्टियां होती हैं, हिसाब लगाना मुश्किल है। फिर जजों के काम करने की अवधि औसतन दो से तीन घंटे है। इसपर किसी का नियंत्रण नहीं है। मोदी जी भी कुछ नहीं कर सकते। इस लेख को लिखने के कारण मुझे भी अवमानना के मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है।
            मोदी सरकार ने आते ही जजों की नियुक्ति के लिए गठित वर्तमान कालेजियम की त्रुटियों पर ध्यान दिया और संसद से एक बिल पास कराया जिसमें नए कालेजियम की व्यवस्था थी जिसमें जजों की नियुक्ति के लिए केन्द्रीय विधि मन्त्री और विपक्ष के नेता की भी सहभागिता और सहमति आवश्यक थी। बिल पर राष्ट्रपति के भी दस्तखत हो गए थे। नियमानुसार बिल कानून का रूप ले चुका था, परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर इसे रद्द कर दिया। एक प्रश्न चिह्न खड़ा हो गया कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट? सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान कालेजियम को पुराने स्वरूप में बनाए रखने का निर्णय सुना दिया। इस तरह सुप्रीम कोर्ट देश के राष्ट्रपति और जनता द्वारा चुनी गई संसद से भी बड़ा हो गया। दरअसल वर्तमान कालेजियम सिस्टम में जजों की नियुक्ति के संबन्ध में मुख्य न्यायाधीश को अपार अधिकार मिला हुआ है। कालेजियम में जजों के अतिरिक्त कोई दूसरा सदस्य नहीं हो सकता और कालेजियम सदस्य के रूप में जजों के चुनाव में मुख्य न्यायाधीश की ही चलती है। हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति के लिए न कोई टेस्ट होता है और न कोई इन्टर्व्यू। परिवारवाद, जान-पहचान और अन्य साधनों से कालेजियम के सदस्यों को प्रभावित करके उनका समर्थन हासिल करना ही एकमात्र अर्हता है। नियुक्ति में पारदर्शिता का सर्वथा अभाव रहता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के संबन्ध में एक सूचना प्रस्तुत है। श्री टी.एस. ठाकुर, मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के पिताजी श्री देवी दास ठाकुर जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट के जज थे। हमारे मुख्य न्यायाधीश के छोटे भाई श्री धीरज सिंह ठाकुर इस समय जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं। ऐसा वंशवाद या परिवारवाद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, कांग्रेस या समाजवादी पार्टी में ही देखने को मिल सकता है। यह सब  जजों की नियुक्ति के लिए मौजूद वर्तमान कालेजियम की देन है। जो एक दिन के लिए भी सेसन कोर्ट या लोवर कोर्ट में जज नहीं रहा, वह सीधे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बन सकता है। जस्टिस ठाकुर को यह डर है कि मोदी जी वर्तमान कालेजियम सिस्टम को भंग करने का कोई न कोई तरीका निकाल लेंगे इसीलिए वे प्रधान मन्त्री और विधि मन्त्री से खिझे रहते हैं। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में केन्द्रीय सरकार के विरोध में आया निर्णय तो एक बानगी है; आगे-आगे देखिए होता है क्या?

   हमें तो इतना ही कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद उच्च संवैधानिक पद है, इसकी गरिमा का ध्यान मुख्य न्यायाधीश को रखना चाहिए। उन्हें केजरीवाल की तरह बयान देने से बचना चाहिए।

Monday, August 1, 2016

बुलन्दशहर की दर्दनाक घटना और बिहार


लालू यादव के कारण बिहार को जो कुख्याति मिली, उसके कारण पूरे देश में बिहार का मज़ाक उड़ाया जाने लगा। लालू यादव के मसखरेपन के कारण बिहार के बाहर लगभग हर बिहारी उपहास का पात्र बन गया। अगर किसी बिहारी से काम करते समय कोई गलती हो गई, तो बास झट से कह देता कि तुम बिहारियों को काम करने नहीं आता और अगर बिहारी ने कोई उल्लेखनीय कार्य कर दिया तो बास का यह कथन होता कि यार तुम तो कहीं से भी बिहारी नहीं लग रहे हो। मैंने लगभग ३७ साल की अपनी पूरी नौकरी यूपी में की है और इस दंश से कई बार रू-बरू हुआ हूँ। कल्पना कीजिए कि बुलन्दशहर वाली गैंग रेप की घटना अगर बिहार में हुई होती, तो देश में बिहारियों की स्थिति कितनी शर्मनाक हुई होती। लेकिन यूपी वाले अब भी मूंछ पर ताव देते हुए घूम रहे हैं। लगता है पीड़ित परिवार न तो दलित वर्ग से है और ना ही अल्पसंख्यक वर्ग से।यह घटना अगर किसी भाजपा शासित राज्य में हुई रहती, तो नरेन्द्र मोदी से इस्तीफा मांगनेवालों की लाईन लग गई होती, संसद ठप्प हो गई होती। 
मैंने यूपी में गुजारे गए ज़िन्दगी के अधिकांश हिस्से में यह महसूस किया है कि यूपी में नैतिकता पर जोर कम दिया जाता है। बिहार में तो ले-देकर एक लालू यादव ही हैं जो परोक्ष रूप से चोरी-डकैती, छिनैती और फिरौती का समर्थन करते हैं, परन्तु यूपी में तो लगभग हर पार्टी के नेता ऐसे अनैतिक कामों में लिप्त रहते हैं। विशेष रूप से समाजवादी पार्टी के आते ही गुंडों और असामाजिक कार्य में लिप्त मुस्लिमों का आतंक भयंकर ढंग से बढ़ जाता है। इन लोगों के लिए कानून-व्यवस्था पाकेट की चीज होती है। गुजरात में गोधरा के बाद एक भी सांप्रदायिक घटना नहीं हुई, लेकिन यूपी में ऐसा कोई महीना नहीं बीतता जब ऐसी घटनायें न हों। अब तो पश्चिमी यूपी के कई जिलों से कश्मीर की तरह हिन्दुओं का पलायन भी शुरु हो गया है। इस प्रदेश को संभालना अखिलेश या मुलायम के वश में नहीं है। समाजवादी पार्टी इस प्रदेश के शान्ति चाहने वाले नगरिकों के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभर चुकी है। समाजवादी पार्टी लगातार दूसरी बार कभी सत्ता में नहीं आई है। अगले चुनाव में इसका जाना तय है। लेकिन तबतक पता नहीं इस प्रदेश में कितने कैराना, कितने मुज़फ़्फ़रनगर और कितने बुलन्दशहर की घटनायें होंगी। नागरिकों और विशेषरूप से महिलाओं से आग्रह है कि सिर्फ सूर्य के प्रकाश में ही घर से बाहर निकलें। बिहार में गुंडों का शिकार पुरुष वर्ग होता है, यूपी में शिकारी कुत्ते औरतों की तलाश में ज्यादा रहते हैं।

Friday, July 1, 2016

रवि शास्त्री की असहिष्णुता


भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व डाइरेक्टर और क्रिकेटर रवि शास्त्री अपने खेल के लिए कम और सुनील गावास्कर के चमचे के रूप में अधिक जाने जाते हैं। लगभग १८ महीनों तक भारतीय टीम का डाइरेक्टर रहने के बाद उन्होंने मान लिया था कि टीम के कोच के रूप में उन्हीं का चयन किया जाएगा। इसीलिए साक्षात्कार के दिन थाइलैन्ड में छुट्टियाँ मनाना मुनासिब समझा और वीडियो कन्फ़्रेन्सिंग के माध्यम से इन्टरव्यू दिया। अनुभवी अनिल कुंबले इस दौड़ में बाजी मार ले गए। इसके बाद शास्त्री केजरीवाल की भूमिका में उतर आए। टीम का कोच न बन पाने के लिए उन्होंने सौरभ गांगुली को जिम्मेदार ठहराया। कोच के लिए चयन समिति में अगर सुनील गावास्कर रहते, तो निश्चित रूप से शास्त्री ही कोच होते, लेकिन शास्त्री के दुर्भाग्य से चयन समिति में सचिन तेंदुलकर, वी.वी.एस. लक्ष्मण और सौरभ गांगुली जैसे उच्च निष्ठा के क्रिकेटर थे जिनका योगदान भारतीय क्रिकेट के विकास में अतुलनीय रहा है। रवि शास्त्री जिस सौरभ गांगुली के विरोध में अनाप-शनाप बोल रहे हैं, उनका योगदान भारत की टीम के नव निर्माण में अतुलनीय रहा है। दुर्भाग्य से वे विदेशी कोच ग्रेग चैपेल के शिकार बन गए, नहीं तो  भारतीय टीम के कप्तान के रूप में उनकी सेवायें कुछ वर्ष और प्राप्त होती। जो काम ग्रेग ने गांगुली के साथ किया, वही काम शास्त्री ने धोनी के साथ किया। पिछले इंगलैंड के दौरे में शास्त्री ने टीम को दो फाड़ कर दिया था। विराट कोहली को कप्तान बनने की जल्दी थी। इसका फायदा उठाते हुए शास्त्री अपनी गोटी बैठाने में कामयाब हो गए। टीम बिखर गई और भारी मन से धोनी को टेस्ट क्रिकेट की कप्तानी से सिरिज के बीच में ही त्यागपत्र देना पड़ा।
शास्त्री शुरु से ही एक स्वार्थी खिलाड़ी रहे हैं। धीमी गति से बल्लेबाजी करने के कारण कई बार उन्होंने भारतीय टीम को हरवाने में मुख्य भूमिका निभाई है। शास्त्री सिर्फ अपने रिकार्ड के लिए खेलते थे और उन्हें सुनील गावास्कर का पूर्ण संरक्षण प्राप्त था। भारत का कौन क्रिकेट प्रेमी चेन्नई में संपन्न हुए भारत और आस्ट्रेलिया के बीच दूसरे टेस्ट मैच को भूल सकता है। दिनांक २२-९-१९८६ को मैच का अखिरी दिन था। मैच में भारत जीत की ओर बढ़ रहा था। उसे अन्तिम ओवर में चार रन की जरूरत थी और क्रीज पर आखिरी जोड़ी के रूप में रवि शास्त्री और मनिन्दर सिंह खड़े थे। प्रथम श्रेणी के मैच में तिलकराज के एक ओवर में छः छक्के लगाने वाले शास्त्री के लिए मैथ्यू जैसे बोलर के खिलाफ सिर्फ चार रन बनाना कहीं से भी मुश्किल नहीं था। स्ट्राइक पर शास्त्री ही थे। मैथ्यू की पहली गेंद पर कोई रन नहीं बना। दूसरी गेंद पर शास्त्री ने दो रन लिए। अब जीत के लिए सिर्फ दो रनों की दरकार थी। मैं सांस रोककर टीवी के सामने बैठा था। तीसरी गेंद पर शास्त्री ने एक रन लेकर स्ट्राइक मनिन्दर को थमा दी। वे आउट होने से भयभीत थे, भले ही टीम इंडिया भाड़ में जाय। दोनों टीमों का स्कोर बराबर हो चुका था। भारत को जीत के लिए सिर्फ एक रन और चाहिए था। मैथ्यू की चौथी गेंद किसी तरह मनिन्दर ने खेली। कोई रन नहीं बना। पाँचवी गेंद पर मनिन्दर एलबीडब्ल्यू आउट हो गए। एक जीता हुआ मैच टाई हो गया। इसके लिए मात्र और मात्र रवि शास्त्री का स्वार्थी स्वभाव ही जिम्मेदार था। वे नाट आऊट रहना चाह रहे थे। टीम को जिताना उनकी प्राथमिकता नहीं थी। जो काम ग्रेग चैपेल ने कोच के रूप में किया था वही काम शास्त्री ने डाइरेक्टर के रूप में किया था। तब गांगुली को हटना पड़ा था और अब धोनी की बारी थी। भला हो धोनी की सूझबूझ की कि उन्होंने टेस्ट टीम की कप्तानी छोड़कर मामले को रफा दफा कर दिया। कोहली की महत्वाकांक्षा की पूर्ति हुई और शास्त्री के अहंकार की तुष्टि भी हुई। भारतीय क्रिकेट को कोई बहुत ज्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ा। एक बार कपिल के जोड़ीदार रह चुके मनोज प्रभाकर ने स्टिंग आपरेशन के दौरान रवि शास्त्री का बहुत चर्चित इन्टव्यू लिया था। उसमें उन्होंने कपिल जैसे महान खिलाड़ी पर कई गंभीर आरोप लगाए थे। उन्हें मैच फिक्सर तक कहा था। ऐसा ओछा आदमी कोच के लिए कहीं से भी उपयुक्त नहीं था।
शास्त्री की कुंबले के प्रति असहिष्णुता और नफ़रत इस कदर बढ़ गई है कि उन्होंने आईसीसी की उस कमिटी से भी त्यागपत्र दे दिया है जिसके अध्यक्ष अनिल कुंबले हैं। कुंबले के गंभीर, शान्त व्यक्तित्व और क्रिकेट में उनके अतुलनीय योगदान के सामने शास्त्री कहीं नहीं ठहरते, फिर भी उनका यह सनकी व्यवहार दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की याद दिला देता है। उन्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि अनिल कुंबले भारत के लिए अबतक के सर्वश्रेष्ठ कोच साबित होंगे।

Tuesday, June 28, 2016

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दलितों और पिछड़ों के अधिकारों का हनन

         अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय है जिसे केन्द्र सरकार से भारी अनुदान मिलता है। वह कोई सीया या सुन्नी वक्फ़ बोर्ड द्वारा संचालित मदरसा नहीं है जिसमें सरकार के कानून लागू नहीं होते। देश के सभी केन्द्रीय और राज्य सरकारों के शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में आरक्षण की व्यवस्था लागू है, अलीगढ़ इसका अपवाद क्यों है? आश्चर्य है कि दलितों और पिछड़ों के तथाकथित मसीहा लालू, मुलायम और मायावती इस विषय पर बिल्कुल खामोश हैं। मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए इन नेताओं ने देश बंटवाया, समाज में विभाजन कराया और अब उसी के लिए दलितों और पिछड़ों के संवैधनिक अधिकारों को भी कुचले जाते हुए अपनी आंखों से देखकर भी चुप हैं। कल्पना कीजिए अगर ऐसी घटना काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में घटी होती तो मीडिया और इन नेताओं की क्या प्रतिक्रिया होती!
एक सोची-समझी योजना के तहत दलितों और पिछड़ों को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आरक्षण से वंचित किया जा रहा है। अभीतक की वर्तमान  प्रवेश-नीति के अनुसार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में गैर मुस्लिमों की संख्या ४०% से अधिक हो ही नहीं सकती। इसके कारण वे हमेशा दबे रहते हैं। अपने त्योहार और कार्यक्रम भी खुलकर या बिना भय के नहीं मना सकते हैं। इस विश्वविद्यालय में अल्पसंख्यक हिन्दुओं की वही स्थिति है जो स्थिति बांग्ला देश या पाकिस्तान में हिन्दुओं की है। ध्यान रहे कि देश के बंटवारे की योजना करांची या लाहौर में नहीं बनी थी, बल्कि यह योजना अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में ही बनी थी। अधिकांश दलित और पिछड़े बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय से आते हैं। अतः इनके लिए प्रवेश में आरक्षण लागू होते ही वहां की सांख्यिकी बदल जाएगी। इसीलिए अल्पसंख्यक संस्थान की आड़ में यह विश्वविद्यालय दलितों और पिछड़ों के संवैधानिक अधिकारों को नकार रहा है। भारतीय मुसलमानों की यह मानसिकता है कि जहां उन्हें लाभ मिलता है, वहां उन्हें भारतीय संविधान को मानने में कोई परहेज़ नहीं होता है लेकिन जहां उन्हें तनिक भी नुकसान कि आशंका होती है, वहां शरीयत, कुरान और मुस्लिम पर्सनल ला की दुहाई देने लगते हैं। अगर वे शरीयत के इतने ही भक्त होते, तो आपराधिक जुर्म में Indian Penal code की जगह सउदी अरब में लागू उन मुस्लिम कानूनों को लागू करने कि मांग क्यों नहीं करते, जहां चोरी करने की सज़ा दोनों हाथ काटकर दी जाती है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को UGC एवं केन्द्र सरकार से भारी मात्रा में धन और अनेकों सुविधाएं प्राप्त होती हैं, फिर वह अल्पसंख्यक संस्थान कैसे रहा? इस विश्वविद्यालय में एक और आरक्षण है जिसकी जानकारी बहुत कम लोगों को है। यहां विश्वविद्यालय के पूर्व छात्रों के बच्चों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है, जो किसी केन्द्रीय विश्वविद्यालय में नहीं है।
  अतः देशहित एवं दलितों तथा पिछड़ों के व्यापक हित में है कि इन समुदायों के लिए अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अविलंब आरक्षण की व्यवस्था लागू की जाय। एक ही देश में दो तरह की व्यवस्था नहीं चल सकती। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कोई कश्मीर नहीं है, जहां धारा ३७० लागू है।

Wednesday, May 18, 2016

हर युग में महाभारत


महाभारत के समय भी दो वर्ग थे -- एक निपट भौतिकवादी, जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था और जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने, न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी का अर्थ था भोग और लूट, खसोट। उसी वर्ग के खिलाफ कृष्ण को युद्ध करवाना पड़ा। जरुरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। आज फिर करीब-करीब हालत वैसी ही हो गई है।
शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है। वह लड़ने (संघर्ष) से हटना चाहता है - पलायनवादी होता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का अर्थ ही होता है -- अ+रिजु, मतलब सीदा-सादा, तनिक भी आड़ा-तिरछा नही। सीदा-सादा आदमी कहता है कि झगड़ा मत करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है। और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जमकर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं और न भागने देते हैं। वह निर्णयात्मक क्षण फिर आ गया है। लड़ना तो पड़ेगा ही। गांधी, बिनोवा, बुद्ध, महावीर काम नहीं आयेंगे। एक अर्थ में ये सभी अर्जुन हैं। वे कहेंगे -- हट जाओ, मर जाओ, भीक्षाटन कर लो, पर लड़ो नहीं।
कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में रखने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न पाए, लड़ाई इसलिए है।

Saturday, May 14, 2016

काश! यह इतना आसान होता


गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ऐसा नहीं है कि यह गीता रहस्य मैं तुम्हें पहली बार बता रहा हूँ। सृष्टि के आरंभ में मैंने यह रहस्य सूर्य को बताया था, सूर्य ने इसे मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को। कालान्तर में यह ज्ञान लुप्त हो गया। इसीलिए मैं आज तुम्हें फिर से वह ज्ञान दे रहा हूँ। भगवान के इस कथन पर अर्जुन का चौंकना स्वाभाविक था। उसने प्रश्न किया -
“आप तो मेरे समकालीन हैं। इसी युग में पैदा हुए हैं, फिर यह ज्ञान सूर्य को कैसे दिया?"
भगवान मे मुस्कुराते हुए कहा कहा कि मैं आज भी हूँ और सृष्टि के आरंभ में भी था। तुम भी पहले भी थे और आज भी हो। फर्क इतना ही है कि मुझे सब याद है और तुम सब विस्मृत कर चुके हो।
मनुष्य अपने आप को पहचान ले तो स्मृतियां स्वयं आ जाती हैं। जिस दिन वह अपनी आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह है अत्यन्त कठिन और असंभव-सा। अर्जुन को इसकी अनुभूति कराने के लिए भगवान को स्वयं अपने श्रीमुख से गीता के १८ अध्याय कहने पड़े, तब अर्जुन ने स्वीकार किया कि उसने अपनी स्मृति को पा लिया है। पश्चात उसने स्वयं को भगवान को समर्पित करते हुए कहा कि उसके समस्त संदेह मिट गए हैं और वह अब वैसा ही करेगा जैसा भगवान कहेंगे।
अर्जुन भाग्यशाली था और परम भक्त भी था। सबकुछ समर्पण करने के बाद उसने वह पा लिया जिसके लिए तपस्वी ऋषि-मुनि जन्म-जन्म तक तरसते हैं। हमलोगों के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम एक क्षण परमात्मा पर विश्वास करते हैं, तो दूसरे ही क्षण शंका उठा देते हैं। आधुनिक विज्ञान ने इसमें और योगदान दिया है। जिस दिन हम अपना सुख-दुःख, यश-अपयश, जय-पराजय, हानि-लाभ को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करते हुए उसे सौंप देंगे उसी दिन समस्त कष्टों से मुक्ति पा जायेंगे। काश! यह इतना आसान होता।

Sunday, May 8, 2016

भोजन के लिए दुर्योधन का श्रीकृष्ण को आमंत्रण

महाभारत का युद्ध टालने और दुर्योधन को समझाने के लिए अन्तिम प्रयास के रूप में श्रीकॄष्ण को हस्तिनापुर की राजसभा में युधिष्ठिर के दूत के रूप में भेजने का निर्णय लिया गया। श्रीकृष्ण ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया। हस्तिनापुर के मुख्य द्वार पर श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया गया। सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का मन टटोलने के लिए राजकीय अतिथि गृह के बदले दुर्योधन के महल में ही जाने का निर्णय लिया।
दुर्योधन के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि श्रीकृष्ण सीधे उसके महल में आयेंगे। वह तो उनके राजसभा में पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा कर रहा था। पूर्व व्यवस्था भी यही थी। लेकिन श्रीकृष्ण औरों की दी हुई व्यवस्था में कब बंधने वाले थे। उनका प्रत्येक कार्य सदैव एक नई व्यवस्था की रचना करता था। 
श्रीकृष्ण को अपने महल में देख दुर्योधन थोड़ा हड़बड़ाया अवश्य, परन्तु शीघ्र ही स्वयं को संयत करते हुए श्रीकृष्ण का उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान किया, फिर भोजन के लिए प्रार्थना की। केशव द्र्योधन के घर भोजन कैसे करते? उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर गंभीर वाणी में साफ-साफ उत्तर दिया -
“राजन! अपना उद्देश्य पूर्ण होने के बाद ही दूत द्वारा भोजनादि ग्रहण करने का विधान है। जब मेरा कार्य पूर्ण हो जाय, तब मेरा और मेरे सहयोगियों का उचित सत्कार करना। मैं शल्य नहीं हूँ, अतः काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम-भाव नहीं है और मैं किसी आपत्ति में भी नहीं हूँ। यह अन्न भी तुम्हारा नहीं है। इसपर पाण्डवों का स्वाभाविक अधिकार है। इसे तुमने अधर्म और अन्याय से दस्यु की भांति प्राप्त किया है। अतः धर्म-पथ पर चलने वाले पुरुष के लिए अखाद्य है। पूरे हस्तिनापुर में सिर्फ विदुरजी का ही अन्न खाने योग्य है। मैं उन्हीं के घर भोजन करूंगा।"
दुर्योधन निरुत्तर था। श्रीकृष्ण ने विदुरजी का आतिथ्य स्वीकार किया। भोजनोपरान्त रात्रि विश्राम भी वहीं किया।

Friday, May 6, 2016

द्रौपदी की हँसी


महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। हस्तिनापुर के सिंहासन पर युधिष्ठिर का अभिषेक भी संपन्न हो चुका था। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शर-शैया पर यातना सहते हुए लेटे हुए थे। उस युग में श्रीकृष्ण और विदुर के बाद भीष्म पितामह ही राजनीति, धर्म और शास्त्र के सबसे बड़े ज्ञाता थे। श्रीकृष्ण की सलाह पर एक दिन सभी पाण्डव उनसे ज्ञान का संचित भंडार प्राप्त करने के लिए उनके समीप बैठे। श्रीकृष्ण के आग्रह पर पितामह ने अपने ज्ञान का कोष पाण्डवों के समक्ष खोल दिया। उस समय पाण्डवों के साथ द्रौपदी भी वहाँ उपस्थित थीं। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्रों में वर्णित समस्त ज्ञान से छोटी-छोटी रोचक कहानियों के माध्यम से पितामह ने पाण्डवों को प्रवीण किया। श्रीकृष्ण भी बड़े ध्यान से पितामह का प्रवचन सुन रहे थे। सर्वत्र शान्ति थी। एकाएक द्रौपदी खिलखिलाकर हँसीं। सभी लोग आश्चर्य से द्रौपदी का मुंह देखने लगे। द्रौपदी को अपनी गलती का एहसास हुआ और शीघ्र ही चुप हो गईं। लेकिन पितामह द्रौपदी की हँसी का रहस्य जानने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने द्रौपदी से प्रश्न किया -
" प्रिय द्रौपदी। इतने गंभीर विचार-विमर्श के दौरान तुम्हारी हँसी का कारण क्या है। तुम इस पृथ्वी की सबसे बड़ी विदुषी महिला हो। तुम अकारण हँस नहीं सकती। मृत्यु के पूर्व तुम्हारी हँसी का कारण जानना चाहता हूँ।"
  द्रौपदी ने कोई कारण न बताते हुए कहा कि उसे अनायास हँसी आ गई थी। इसके पीछे कोई कारण नहीं था। परन्तु भीष्म कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि द्रौपदी जैसी विदुषी और नीति की ज्ञाता महिला कभी भी अकारण नहीं हँस सकती, और वह भी अपने श्रेष्ठ जनों के सामने। श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी से अपनी हँसी का रहस्य उद्घाटित करने का आग्रह किया। कोई चारा न पाकर द्रौपदी ने अपने मन की बात कह ही दी --
“पूज्य पितामह! आपके श्रीमुख से हमने ज्ञान की वे बातें श्रवण और मनन की जो अभी तक हमें ज्ञात नहीं था। आपने महाराज युधिष्ठिर को धर्म, सत्य और न्याय का पाठ पढ़ाया। मुझे इस बात पर हँसी आई कि सबकुछ जानते हुए भी आपने कुरुओं की भरी सभा में मेरे अपमानजनक चीरहरण का विरोध क्यों नहीं किया। मुझे आपकी कथनी और करनी में जब स्पष्ट अन्तर दीख पड़ा तो अनायास ही मेरे मुँह से हँसी फूट पड़ी। मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें।"
भीष्म पितामह मुस्कुराए और बोले -
“पुत्री! मनुष्य जिस प्रकार का भोजन करता है, उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। उस समय मैं अन्याय और अधर्म से प्राप्त धृतराष्ट्र और दुर्योधन द्वारा प्रदत्त भोजन करता था, जिसके कारण मेरा रक्त अशुद्ध हो गया था और बुद्धि भी न्याय-अन्याय का विचार करने में असमर्थ हो गई थी और मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रति हो रहे अन्याह का विरोध नहीं कर सका। मेरा मन पाण्डवों के साथ था और शरीर दुर्योधन के साथ। मैं चाहकर भी उस महा अन्याय को रोक नहीं पाया। पुत्री! यह पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का भी दास नहीं। इसी अर्थ से कौरवों ने मुझे बाँध रखा था और मैं नपुंसकों जैसी बातें करने लगा था। अब महाधनुर्धर अर्जुन के बाणों से बींधकर मेरा दूषित रक्त शरीर से बाहर आ चुका है और मेरी आत्मा शुद्ध हो गई है। इसीलिए अब मैं धर्म, सत्य   और न्याय की भाषा बोल रहा हूँ। पुत्री मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कर देना।"
द्रौपदी ने पितामह के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपने आँसुओं से उन्हें प्रच्छालित कर दिया। द्रौपदी के मन का सन्देह सदा के लिए मिट गया था।

Friday, March 18, 2016

एक पाती शत्रुघ्न सिन्हा के नाम


प्रिय शत्रु बचवा तक चच्चा के प्यार-दुलार पहुंचे।
आगे यह बताना है कि भगवान के किरिपा से हम इहां राजी-खुशी हैं, और तोहरी राजी खुशी के वास्ते भगवान से आरजू-मिन्नत करते रहते हैं। बचवा, कई बार हम तोसे भेंट करे वास्ते पटना गए, तो मालूम भया कि तुम दिल्ली गए हो - संसद के काम-काज में भाग लेने वास्ते। काम जरुरी था, इसलिए हम दिलियो गए। उहां भी तोसे मुलाकात नहीं हो पाई। मालूम हुआ कि संसद की कार्यवाही छोड़कर बिटिया की फिलम की शूटिंग के लिए तुम बंबई गए हो। ठीके किए। आजकल दिन-जमाना खराब है। जवान बेटी को रात-बिरात अकेले नहीं छोड़ना चाहिए और उहो बंबई में। खैर, हम दिल कड़ा करके एटीएम से पैसा निकाले और राजधानी पकड़के पहुंचिए गए बंबई। उहां तोहर दरवान बताया कि साहब तो बिटिया के साथ शूटिंग बदे स्विट्ज़रलैंड गए हैं। ससुरा एक गिलास पनियो नहीं पिलाया। एगो गैस कनेक्शन लेना था; एही वास्ते एतना चक्कर काटे। टेंट से पइसवो खरच हुआ और सरवा कमवो नहीं हुआ। चलो, हमको जो दिक्कत-तकलीफ़ हुई सो हुई। तुम अपना पोरोगराम टीवी चैनल और अखबार में काहे नहीं दे देते हो। आजकल तो तुम छींकते हो, वह भी समाचार बन जाता है। कम से कम दूसरे मनई को हमरी तरह परेशानी न हो।
बचवा, आज अखबार में तोहरी बाबत एक ठो खबर छपी थी, एकदम पहिलका पेजवा पर। तुम अमिताभ बच्चन को राष्ट्रपति बनाना चाहते हो। तोहार ई पैंतरा एकदम सटीक है। मोदी ने उनको गुजरात का ब्रांड एंबैसेडर बनाया था। रह-रह कर सीधे या तिरछे, बच्चू मोदी का समर्थन करते रहते हैं। अब आयेगा ऊंट पहाड़ के नीचे। अमिताभो बच्चन बहुत दही-दही कर रहे थे। अब समझ में आयेगा। अपने बेटवा की शादी में तुमको नेवता तक नहीं भेजा था। शादी के बाद तुम्हरे घर मिठाई का डब्बा भेजा था। अच्छा किया तुमने लौटा दिया। पहले बेइज्जत करो और बाद में मुंह मीठा कराओ, इ कवनो बात है? मोदी तो बच्चन बबुआ को राष्ट्रपति का टिकट देंगे नहीं, मेहरारू पहिलहीं से समाजवादी पार्टी में है, अब उनके पास भी मुलायम की चेलवाही मंजूर करने के अलावा कौनो चारा नहीं बचेगा। बिहार की तरह यूपी में भी भाजपा धड़ाम ! वाह बचवा वाह! जियत रह!
एक बात का दुख हमको हमेशा रहता है। तुम्हारे जैसे काबिल आदमी को मोदी ने मन्त्री नहीं बनाया। तुम्हारा लोहा तो अटल बिहारी वाजपेइयो मानते थे। भले ही तुम स्वास्थ्य मन्त्रालय में कभी बैठते नहीं थे, लेकिन बुढ़वा तुमको ढोते रहा। तुम लालू, राहुल, केजरीवाल और दिग्विजय से कवना माने में कम हो। अभी भी तुम्हारा डायलग सुनने के लिए खूबे पब्लिक आती है। जे.एन.यू के कन्हईवा को सपोर्ट करके भी तुमने बड़ा नींक काम किया। सारी दुनिया अपना बुरा-भला पहले देखती है। फिलिम में तो अब इस बुढ़ापे में कवनो स्कोप नहिए है। अब राजनीतिए न बची है। बिहार के चुनाव के पहिले और बाद के तुम्हरे बयान, नीतिश से गलबहियां और लालू से दांत काटी रोटी के कारण तुम पहिलहीं अमित शहवा के आंख के किरकिरी बन गए हो। अगले चुनाव में वह पट्ठा तोके टिकट तो देगा नहीं। लालू तो अपने बेटा-बेटी में ही अझुराए हैं, नीतिश तोहरे वास्ते गद्दी छोड़ेंगे नहीं। उ तो कुर्सी खातिर गदहवो को बाप बना सकता है। ऐसी संकट की घड़ी में कन्हइवा काम आ सकता है। सीताराम येचुरी से कहकर तुमको राज्य सभा में तो भिजवा ही सकता है। अगला छ: साल भी सुरक्षित। राष्ट्रभक्ति जब कैबिनेट में एक बर्थ पक्का नहीं कर सकती, तो पाकिस्तान ज़िन्दाबाद ही सही। अपने हाथ का दो पैसा हमेशा अच्छा होता है। बेटी की कमाई पर कोई कबतक ऐश करेगा। बेटे तो किसी काम के निकले नहीं।
बचवा, थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना। बहुरिया और बाल-बच्चों को हमार चुम्मा-आशीर्वाद कहना।
                                                                  तोहार
                                                                    चच्चा बनारसी

Thursday, March 3, 2016

सत्ता का ऐसा दुरुपयोग !

       इशरत जहाँ मामले में सत्ता के दुरुपयोग के जो प्रमाण आ रहे हैं, वे अत्यन्त गंभीर और चिन्ताजनक हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए क्या राष्ट्रीय सुरक्षा से भी समझौता किया जा सकता है? भारत की सुरक्षा और लोकतंत्र का भविष्य सवाल के घेरे में है। देश का गृह मंत्री अपने हाथों से फ़र्ज़ी हलफ़नामा तैयार करे और वह भी अपने विदेशी आका के इशारे पर ! विश्वास नहीं होता है कि ऐसा हुआ होगा, लेकिन हेडली के खुलासे और सीबीआई तथा रा के अधिकारियों के वक्तव्यों के बाद कोई संदेह नहीं रह जाता।
इशरत जहाँ मुंबई के गुरुनानक खालसा कालेज में विज्ञान संकाय की छात्रा थी। वह मध्यम श्रेणी के परिवार से ताल्लुक रखती थी उसकी माँ मुंबई में ही वाशी की एक दवा-दूकान में काम करती थी। १५ जून, २००४ को अहमदाबाद में उसका और उसके तीन साथियों का एनकाउन्टर किया गया। सुपुष्ट खुफ़िया रिपोर्ट के अनुसार इशरत जहाँ और उसके तीन पुरुष साथी - ज़ावेद, अज़मद अली राणा और ज़ीशान जौहर लश्करे तोइबा के खुंखार आतंकवादी थे। वे गुजरात के तात्कालीन मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या के लिए अहमदाबाद आए थे। गुजरात पुलिस को यह पुख्ता सूचना केन्द्र सरकार की गुप्तचर संस्था रा ने दी थी। गुजरात पुलिस ने उस सूचना के आधार पर ही कार्यवाही की थी। इस मामले में फाइल पर दर्ज़ नोटिंग के अनुसार पहला हलफ़नामा महाराष्ट्र और गुजरात पुलिस के अलावा केन्द्रीय गुप्तचर विभाग से मिले इनपुट के आधार पर दाखिल किया गया था। उस समय शिवराज पाटिल केन्द्रीय गृह मंत्री थे। इस हलफ़नामे में मुंबई बाहरी की रहनेवाली इशरत जहाँ को आतंकवादी बताया गया था तथा उसका संबन्ध लश्करे तोइबा से होना कहा गया था। बाद में नरेन्द्र मोदी की देश भर में बढ़ती लोकप्रियता से परेशान कांग्रेस नेतृत्व को यह एन्काउन्टर एक राजनीतिक उपकरण नज़र आने लगा। कुछ मानवाधिकार संगठन इसे फ़र्ज़ी एन्काउन्टर घोषित कर चुके थे। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ऐसा लगा कि इस मामले में मोदी को लपेटकर  चुनावों में वांछित लाभ प्राप्त किया जा सकता है। मोदी के राजनीतिक जीवन के खात्मे के लिए बाकायदा योजना बनाई गई और अग्रिम कार्यवाही की जिम्मेदारी तात्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम को सौंपी गई, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने दूसरा हलफ़नामा स्वयं अपने हाथ से तैयार किया जिसमें पहले की सभी रिपोर्टों को दरकिनार कर दिया गया। यही नहीं, यह प्रमाण पत्र भी दिया गया कि इशरत जहाँ आतंकवादी नहीं थी। हलफ़नामा बदलने के दौरान चिदंबरम ने अपने किसी अधिकारी को भी भरोसे में नहीं लिया। चूंकि वे सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं, इसलिए हलफ़नामा तैयार करने में उन्हें कोई दिक्कत भी नहीं हुई।  लश्करे तोइबा की वेबसाइट, अभी-अभी डेविड हेडली के बयान और गुजरात हाई कोर्ट में दाखिल केन्द्र सरकार के पहले हलफ़नामे से यह स्पष्ट हो गया है कि इशरत जहाँ खुंखार आतंकवादी थी। पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लै ने यह सनसनीखेज खुलासा किया है कि चिदंबरम द्वारा हलफ़नामे में बदलाव का फ़ैसला राजनीतिक स्तर पर लिया गया था। इसमें गृह मंत्री, प्रधान मंत्री और यू.पीए. की अध्यक्षा प्रमुख रूप से शामिल थीं।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी.एन. खरे ने इस पूरी घटना पर अपनी चिन्ता ज़ाहिर की है। उन्होंने वक्तव्य दिया है कि एक संयुक्त सचिव के अनुसार इशरत जहाँ मामले में हलफ़नामा बदले जाने के क्रम में मंत्रालय के स्तर पर हुए घालमेल की सरकार जांच करा सकती है। अलग से जांच-आयोग का भी गठन किया जा सकता है और बदले गए हलफ़नामे की स्थिति के बारे में भी प्रार्थना पत्र दे सकती है। दूसरा विकल्प यह है कि मामला अदालत में विचाराधीन है और इसपर सरकार अदालत में यह जानकारी रखकर आगे का दिशा निर्देश प्राप्त कर सकती है।
केन्द्र सरकार कोई जांच कराएगी या न्यायालय के फ़ैसले का इंतज़ार करेगी, यह भविष्य के गर्भ में है। परन्तु तात्कालीन केन्द्र सरकार, जो देश की सुरक्षा के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है, द्वारा सिर्फ़ एक राजनीतिक विरोधी के राजनीतिक सफ़र को खत्म करने के लिए सुरक्षा एजेन्सियों और गृह मंत्रालय का दुरुपयोग गंभीर चिन्ता का विषय है। हाल में प्रकाश में आईं जे.एन.यू. में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से कम खतरनाक नहीं हैं तात्कालीन पीएम, एचएम और यूपीए अध्यक्ष की गतिविधियां। जांच भी होनी चाहिए और सज़ा भी मिलनी चाहिए।

Sunday, February 14, 2016

नेताओं का देशद्रोही आचरण

दिल्ली के जामिया नगर में स्थित बटाला हाउस में दिनांक १९, सितंबर, २००८ को आतंकवादी संगठन इंडियन मुज़ाहिदीन के आतंकवादियों के खिलाफ़ एक एनकाउन्टर किया गया था। इस अभियान का नेतृत्व दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहन चन्द शर्मा ने किया था। इसमें दो आतंकवादी, आतिफ़ अमीन और मोहम्मद साज़िद मारे गए, दो अपराधी मोहम्मद सैफ़ और जीशान गिरफ़्तार किए गए और एक आतंकवादी आरिज़ खान भागने में सफल रहा। इस अभियान में बहादुर पुलिस आफिसर मोहन चन्द शर्मा शहीद हुए। इन आतंकवादियों ने दिल्ली में छः दिन पहले ही, दिनांक १३, सितंबर, २००८ को सिरियल बम ब्लास्ट किया था, जिसमें ३० नागरिक मारे गए थे तथा १०० घायल हुए थे। आतिफ़ अमीन इंडियन मुज़ाहिदीन का चीफ़ बंबर था। उसने २००७ से लेकर २००९ तक दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर, सूरत और फ़ैज़ाबाद में हुए बम धमाकों की न सिर्फ योजना ही बनाई थी बल्कि अन्जाम भी दिया था। वह मोस्ट वान्टेड अपराधियों की सूची में शामिल था।
            देश में हो रहे सिरियल  बम  विस्फोटों से मरनेवालों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने के बदले कुछ मानवाधिकार संगठन, जामा मिलिया विश्वविद्यालय के शिक्षक-छात्र और वोट के सौदागर नेतागणों ने बटाला हाउस के एनकाउन्टर को फ़र्ज़ी घोषित किया और शहीद मोहन चन्द शर्मा को ही अपराधी घोषित कर दिया। भांड मीडिया ने भी भी खूब बवाल मचाया। आपनी ही पार्टी के कार्यकाल में घटित इस घटना के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने माफ़ी मांगी और आतंकवादियों के घर जाकर आंसू भी बहाए। घटना को इतना तूल दिया गया कि दिल्ली हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इस घटना की जांच कर दो महीने में अपनी रिपोर्ट देने का आदेश पारित किया। मानवाधिकार आयोग ने सघन जांच के उपरान्त दिनांक २२, जुलाई, २००९ को अपनी रिपोर्ट पेश की। आयोग ने एन्काउन्टर को सही बताया तथा दिल्ली पुलिस को क्लीन चिट भी दी। बाद में स्व. मोहन चन्द शर्मा को मरणोपरान्त उनके अद्भुत शौर्य के लिए राष्ट्रपति द्वारा अशोक चक्र भी प्रदान किया गया। राहुल, सोनिया, मुलायम, मायावती, येचुरी और ओवैसी तब भी आतिफ़ अमीन के लिए आंसू बहाते रहे।
            ऐसी ही एक घटना दिनांक १५, जून, २००४ को अहमदाबाद के बाहरी क्षेत्र में हुई। अभी-अभी, अदालत को दी गई अपनी गवाही में कुख्यात आतंकवादी डेविड हेडली ने यह स्वीकार किया है कि कि उस मुठभेड़ में मारी गई महिला इशरत जहां लश्करे तोयेबा की आत्मघाती हमलावर थी। वह और उसके तीन साथी, ज़ावेद शेख, ज़िशान जौहर और अमज़द अली राणा तात्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की हत्या की योजना और उद्देश्य से अहमदाबाद आए थे। सब के सब पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारे गए। अमेरिका से वीडियो कांफ्रेंसिंग के द्वारा मुंबई कोर्ट को दी गई हेडली की गवाही के बाद कहने को कुछ भी नहीं रह जाता। लेकिन देशद्रोह की इस घटना को भी नरेन्द्र मोदी को बदनाम करने के लिए बुरी तरह उपयोग में लाया गया। पूरे देश में हाय-तोबा मचाई गई। कांग्रेस के नेता, विशेष रूप से सोनिया और राहुल इसमें सबसे आगे थे। बिहार के मुख्य मंत्री ने तो इशरत जहाँ को बिहार की बेटी घोषित किया | केन्द्रीय जांच एजेन्सियों का जबर्दस्त दुरुपयोग किया गया। गृह मंत्रालय के जिम्मेदार अधिकारियों के विरोध के बावजूद सन्‌ २०१३ में सीबीआई की जांच बिठाई गई। मोदी और अमित शाह को फंसाने के लिए जमीन-आसमान एक किए गए। कई कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारियों को मुअत्तल किया गया और उन्हें जेल की हवा भी खिलाई गई। हेडली के खुलासे के बाद केन्द्र सरकार की विश्वसनीय गुप्तचर एजेन्सी आई.बी. के पूर्व निदेशक राजेन्द्र कुमार ने दिनांक १३, फरवरी, २०१६ को यह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया है कि सोनिया गांधी के निर्देश पर उनके राजनीतिक सचिव अहमद पटेल ने आईबी को निर्देश दिया था कि चाहे जैसे हो नरेन्द्र मोदी को इस मामले में फंसाओ। इसके लिए अगर तथ्यों की अवहेलना करनी पड़े, तो वो भी किया जाये। जिन कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारियों ने गलत काम करने से मना किया उन्हें सीबीआई द्वारा फ़र्ज़ी मामलों में फंसाया गया। राजेन्द्र कुमार भी इसके शिकार रहे। एक ईमानदार पुलिस अधिकारी बंजारा आठ साल जेल में रहने के बाद हाल ही में बाहर आए हैं। हेडली की गवाही के बाद श्री कुमार ने सीबीआई के उन अधिकारियों और कांग्रेस के उन नेताओं को अदालत में घसीटने की घोषणा की है जिन्होंने उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फंसाने की कोशिश की।

            तीसरी आंख खोलनेवाली घटना कुछ ही दिन पूर्व जे.एन.यू. में घटी। वैसे तो यह विश्वविद्यालय अपनी स्थापना के समय से ही राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केन्द्र रहा है, लेकिन हाल की घटना ने तो सारी हदें पार कर दी। विद्यार्थियों, छात्रसंघ के अध्यक्ष और शिक्षकों की उपस्थिति में कुख्यात आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई गई, उसे शहीद घोषित किया गया, कश्मीर की आज़ादी के लिए नारे लगाए गए, भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया गया, पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए गए और राष्ट्रवाद को जी भरकर गालियां दी गईं। समझ में नहीं आ रहा था कि इसका नाम जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (JNU) है या जेहादी नक्सल यूनिवर्सिटी? देशव्यापी विरोधों से सचेत हुई केन्द्र सरकार अचानक नींद से जागी और विश्वविद्यालय से कुछ देशद्रोही छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया। मार्क्सवादियों और कांग्रेसियों को रोटी सेंकने का अच्छा मौका मिल गया। सीताराम येचूरी और राहुल गांधी तत्काल अराजक और देशद्रोही छात्रों की हौसल अफ़जाई के लिए परिसर में पहुंच गए। ये राजनेता मोदी के सत्ता में आने के कारण इतना बौखला गए हैं कि राष्ट्रविरोधी शक्तियों का समर्थन करने और उनका साथ देने में  इन्हें तनिक भीशर्म नहीं आती। वैसे भारत का इतिहास देखने के बाद कोई विशेष आश्चर्य नहीं होता है। अंग्रेजों के शासन-काल में भी एक वर्ग ऐसा था जो आंख बंदकर उनका समर्थन करता था। उन्हें राय बहादुर, खान बहादुर और सर की उपाधि से नवाज़ा जाता था। आज भी यह कहने वाले मिल जायेंगे कि अंग्रेजों का राज्य आज़ादी से अच्छा था।

Friday, February 12, 2016

बेलगाम राष्ट्रद्रोह


            कभी-कभी लगता है कि हम विचार-अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के काबिल नहीं है। जब भी यह अधिकार बिना रोकटोक के हमें प्राप्त हुआ है, हमने इसका जमकर दुरुपयोग किया है। सन्‌ १९७५ में इन्दिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपात्‌काल में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पूरी तरह छीन ली गई थी। कुलदीप नय्यर को छोड़ अधिकांश पत्रकारों ने इन्दिरा गांधी की प्रशंसा में ताजमहल खड़े कर दिए थे। चाटुकारिता की सारी सीमाओं को तोड़ते हुए खुशवन्त सिंह ने तो संजय गांधी को Illustrated weekly पत्रिका का Man of the year भी चुना था। यह बात दूसरी है कि खुशवन्त सिंह के ही पाठकों ने उन्हें बाद में Chamacha of the year घोषित किया। आज भी आपात्‌काल के प्रशंसक मिल जायेंगे। अभीतक कांग्रेस, सोनिया या राहुल ने आपात्‌काल में किए गए अत्याचारों के लिए देशवासियों से माफ़ी नहीं मांगी है।
            इसके विपरीत भाजपा जब भी सत्ता में आती है, इमरजेन्सी को याद करते हुए देशवासियों को कुछ जरुरत से ज्यादा ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दे देती है। जनसंघ से लेकर भाजपा तक की यात्रा में इस पार्टी पर सांप्रदायिकता के आरोप को चस्पा करने के लिए सभी दल अथक प्रयास करते रहे। वामपंथी बुद्धिजीवियों और विदेशी पत्रों के लिए पत्रकारिता करनेवाले पत्रकारों की इसमें अहम्‌ भूमिका रही। जो लोग पानी पी-पीकर जनसंघ को सांप्रदायिक कहते थे, मौका मिलने पर उसी के साथ सरकार भी बनाई। मुझे १९६७ के वो दिन भी याद हैं, जब बिहार में महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और जनसंघ तथा कम्युनिस्ट, दोनों ही सरकार में शामिल थे। आज की तारीख में भाजपा के धुर विरोधी लालू यादव भाजपा/जनसंघ के ही समर्थन से पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। नीतीश, ममता, नवीन पटनायक, शरद पवार, शरद यादव, मुलायम, मायावती, जयललिता, करुणानिधि, चन्द्रबाबू नायडू का इतिहास बहुत पुराना नहीं हैं। इन नेताओं को जब भाजपा को साथ लेकर सत्ता की मलाई चखनी होती है, तो भाजपा धर्म निरपेक्ष हो जाती है, बाकी समय सांप्रदायिक रहती है। बार-बार सांप्रदायिकता का आरोप लगाने से इन नेताओं ने एक सफलता तो प्राप्त कर ही ली, और वह है - स्वयं भाजपा के मन में सांप्रदायिकता की ग्रंथि का निर्माण। भाजपा ने इस ग्रंथि से मुक्त होने के लिए क्या नहीं किया? राम मंदिर के निर्माण से प्रत्यक्ष किनारा किया, धारा ३७० को दरकिनार करके कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन किया, समान नागरिक संहिता को ठंढे बस्ते में डाल दिया, भारत की जगह इंडिया को अपनाया ......... आदि, आदि। लेकिन विरोधियों के स्वर कभी भी मद्धिम नहीं पड़े। अटल बिहारी वाजपेयी तो सांप्रदायिकता से इस कदर आक्रान्त थे कि जब  कांग्रेसी और वामपंथी उनके लिए कहते थे - A right man in wrong party, तो उन्हें  बड़ी खुशी होती थी | अपने को असांप्रदायिक सिद्ध करने के लिए उन्होंने जनसंघ का सिद्धांत ही बदल दिया। भाजपा को उन्होंने गांधीवादी समाजवाद का पोषक घोषित किया। इसके बावजूद भी उन्हें लोकसभा में मात्र २ सीटों पर संतोष करना पड़ा। जनता भाजपा को कांग्रेस या समाजवादी पार्टियों की कार्बन कापी के रूप में नहीं देखना चाहती थी। भला हो विश्व हिन्दू परिषद के अध्यक्ष स्व. अशोक सिंहल का, जिन्होंने राम मन्दिर आन्दोलन चलाकर भाजपा में नई जान फूंकी। इस आंदोलन का ही परिणाम था कि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधान मंत्री बने। उन्होंने फसल जरूर काटी, लेकिन आन्दोलन में उनका योगदान कुछ विशेष नहीं था। उनको प्रधान मंत्री बनाने के पीछे भी भाजपा की हीन ग्रंथि ‘सांप्रदायिकता’ ही काम कर रही थी।
            भाजपा के इतिहास मे नरेन्द्र मोदी पहले ऐसे नेता हुए जिन्होंने सांप्रदायिकता के आरोप को ही  अपना अस्त्र  बना लिया। गुजरात में तीन-तीन आम चुनावों में उनकी शानदार जीत ने उनका मनोबल तो बढ़ाया ही देशवासियों के मन में भी उम्मीद की नई किरण भर दी। २०१४ के लोकसभा के आम चुनाव राष्ट्रवाद के उदय की एक अलग कहानी कह रहे थे। विरोधी मोदी पर सांप्रदायिकता का आरोप जितने जोरशोर से लगाते, जनता में उतना ही ध्रुवीकरण होता। विरोधियों का यह हथियार अपना पैनापन खो चुका था। मोदी के विकास के एजेंडे ने इसकी धार कुंद कर दी। वे मोदी को सत्ता में आने से तो नहीं रोक सके, लेकिन काम करने से तो रोक ही सकते थे। उन्होंने एक काल्पनिक अस्त्र का आविष्कार किया - असहिष्णुता। बिहार के चुनाव में इस अमोघ अस्त्र का जमकर प्रयोग किया गया। पुरस्कार वापसी से लेकर धरना-प्रदर्शन तक के असंख्य नाटक किए गए। दुर्भाग्य से बिहार चुनाव के परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं गए। ‘असहिष्णुता’ के अस्त्र को नई धार मिल गई और मोदी जैसा योद्धा भी बैकफ़ुट पर आ गया। परिणाम यह हुआ कि विचार अभिव्यक्ति के नाम पर संविधान की धज्जियां उड़ाना और देशद्रोह की बातें सार्वजनिक रूप से करना आम बात हो गई। बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं का मज़ाक उड़ाते हुए चौराहे और पार्कों में बीफ़ पार्टी के आयोजन को भारत का संविधान क्या अनुमति देता है? भारत सरकार खामोश रही। अकबर ओवैसी और आज़म खान जनसभाओं में हिन्दुओं के कत्लेआम की बात करते हैं, कानून कुछ नहीं करता। जे.एन.यू. में न्यायालय द्वारा घोषित आतंकवादी अफ़ज़ल गुरु की बरसी मनाई जाती है और लाउड स्पीकर से भारत को बर्बाद करने का संकल्प लिया जाता है, भारत सरकार चुपचाप देखती भर रह जाती है। देशद्रोहियों की ये गतिविधियां संभावित थीं। इसीलिए विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐसे कार्यक्रम की अनुमति प्रदान नहीं की थी। समझ में नहीं आता कि जे.एन.यू.  दिल्ली में है या श्रीनगर में? जे.एन.यू.  भिंडरावाले का अकाल तख़्त बनता जा रहा है| अभीतक ये देशद्रोही सलाखों के पीछे क्यों नहीं पहुंचाए गए?

            ‘सांप्रदायिकता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त भाजपा की पिछली सरकारों की तरह मोदी सरकार भी ‘असहिष्णुता’ की हीन ग्रन्थि से ग्रस्त प्रतीत होती है। सरकार डरी हुई लग रही है कि कार्यवाही करने से पुरस्कार वापसी का ड्रामा फिर से न शुरु हो जाय। लेकिन अति सर्वत्र वर्जयेत। सरकार की अति सहिष्णुता अन्ततः असहिष्णुता को ही बढ़ावा देनेवाली सिद्ध होगी। इसका फायदा देशद्रोही और असामाजिक शक्तियां ही उठायेंगी क्योंकि हम अत्यधिक विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के आदी नहीं हैं। हम अपने अधिकारों की बात तो करते हैं, परन्तु कर्त्तव्यों के प्रति सदा से उदासीन रहे हैं। सरकार की सहिष्णुता बेलगाम राष्ट्रद्रोह को प्रोत्साहित कर रही है।

Wednesday, January 27, 2016

सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और मोदी




  भाजपा और जनसंघ पर इनके जन्म के साथ ही सांप्रदायिकता का आरोप लगाने का जो सिलसिला आरंभ हुआ था, वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अचानक ठप्प हो गया। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के पहले इस व्यक्ति को सांप्रदायिक सिद्ध करने के देश और विदेश में जितने प्रयास किए गए, उतने आजतक नहीं किए गए थे। किसी ने उन्हें सांप्रदायिक कहा तो किसी ने तानाशाह। एक बड़ी नेता ने तो उन्हें मौत का सौदागर तक कहा। तात्कालीन केन्द्र सरकार ने उनका राजनैतिक भविष्य समाप्त करने के लिए सिट बैठाया, आयोग बैठाया और सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों की झड़ी लगा दी। सेकुलरिस्टों ने अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्र भी लिखा कि ऐसे व्यक्ति को वीज़ा न दिया जाय, नहीं तो वह वहाँ पहुँचकर अमेरिका की पवित्र धरती को भी अपवित्र कर देगा। विगत लोकसभा के चुनाव में देसी-विदेशी, तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर सेकुलरिस्टों ने मोदी की आँधी रोकने की कोशिश की। लेकिन उनके तमाम आरोपों को भारत की जनता ने खारिज़ कर दिया और पूर्ण बहुमत देकर  उनके गाल पर करारा तमाचा जड़ दिया। विभिन्न न्यायालयों ने भी उन्हें बेदाग घोषित किया।
            पिछले डेढ़ सालों से केन्द्र सरकार के लोकहित और लोकप्रिय कार्यक्रमों ने सेकुलरिस्टों की आँखों की नींद उड़ा दी है। देश और विदेश, दोनों में मोदी के नाम का डंका बज रहा है। न कोई २-जी हो रहा है, न ४-जी; न कोयला जी हो रहा है, न कामनवेल्थ जी। मोदी जी के सफाई-कार्यक्रम से खानदानी रईस और उनके दरबारी बौखला-से गए हैं। उन्हें अपनी सफाई का डर इस कदर सताने लगा है कि आका के इशारे पर बड़ी मिहनत और कुशल चाटुकारिता से अर्जित पुरस्कार तक लौटाने का निर्णय  ले डाला। बात तब भी नहीं बनी। न ओबामा ने वीज़ा रोकने का निर्णय लिया, न पुतिन ने निमंत्रण वापस लिया। और तो और जापान और फ्रांस के राष्ट्रपति बनारस और दिल्ली आकर पीठ भी ठोक गए। चारों तरफ से निराश इन कथित सेकुलरिस्टों ने एक पुराने हथियार को नया रूप दिया, सान चढ़ाया और मैदान में पुनः डट गए। बहुत सोच समझकर इसे "असहिष्णुता” का नाम दिया गया। यह सांप्रदायिकता का ही दूसरा नाम है। ये लोग यह भूल गए की इमरजेन्सी को प्रत्यक्ष झेलने वाली पीढ़ी अभी जिन्दा है। कोई कैसे भूल सकता है कि आपात्काल में जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवानी जैसे सैकड़ों नेता, लाखों कार्यकर्ताओं के साथ बेवज़ह जेल में डाल दिए गए थे। इनपर मीसा (Maintenance of Interanal Security Act) और डीआईआर (Defence of India Rule) की खतरानाक धारायें लगाई गईं ताकि उन्हें ज़मानत न मिल सके। मीसा में तो आरोप-पत्र भी दाखिल करना आवश्यक नहीं था। बंदी को उसके परिवार को बिना सूचना दिए अज्ञात स्थान पर बिना किसी समय सीमा के बंदी बनाकर रखा जा सकता था। जय प्रकाश नारायण जैसे नेता को जेल में इतनी यातना दी गई कि रिहाई के कुछ ही समय के बाद वे स्वर्ग सिधार गए। मेरे कई मित्रों का कैरियर तबाह हो गया। मुसलमानों की ज़बर्दस्ती नसबंदी की गई। सारे समाचार पत्रों पर बेरहमी से सेंशरशीप लागू की गई। जिन पत्रकारों या संपादकों ने बेअदबी करने की गुस्ताखी की, जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिए गए। मुझे घोर आश्चर्य होता है कि जिस जय प्रकाश नारायण से देश की सुरक्षा को इतना खतरा था, उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने और मीसा में जेल में बंद मोररजी भाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधान मंत्री बना दिया गया। देश फिर भी नहीं टूटा। इन्दिरा गाँधी की आत्मा कितनी दुखी हो रही होगी! आज वही लोग  असहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं।
            असहिष्णुता का हथियार लेकर मैदान में उतरने वाले जड़ से कटे इन नेताओं को फिर मुँह की खानी होगी, क्योंकि असहिष्णुता (Intolerance) का अर्थ न भारत की जनता को मालूम है, और न मालूम करना चाहती है। जहां तक मेरी बात है, मैं तो आपात्काल की सहिष्णुता का मुरीद हूँ।