Thursday, November 13, 2014

नेहरुजी को श्रद्धांजलि


आज भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहर लाल नेहरू की १२५वीं जयन्ती है। भारत सरकार अधिकृत रूप से इसे आज मना रही है और नेहरूजी की विरासत पर अपना एकाधिकार माननेवाली सोनिया कांग्रेस ने इसे एक दिन पहले ही मना लिया। लोक-परंपरा का निर्वाह करते हुए मैं भी सोच रहा हूं कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री को उनकी सेवाओं के लिये आज विशेष रूप से याद करूं और अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करूं। मस्तिष्क पर जब बहुत जोर दिया, तो उनसे संबन्धित निम्न घटनायें स्मृति-पटल पर साकार हो उठीं --
१. कमला नेहरू की मृत्यु के बाद नेहरूजी अकेले हो गये थे। उनकी देखरेख के लिये पद्मजा नायडू जो भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की पुत्री थीं, आगे आईं। उन्होंने अपनी सेवा से नेहरूजी का दिल जीत लिया। दोनों के संबन्ध अन्तरंग से भी कुछ अधिक हो गए। दोनों विवाह करना चाहते थे, लेकिन गांधीजी ने इसकी इज़ाज़त नहीं दी। वे चाहते थे कि वे दोनों शादी करें, लेकिन आज़ादी मिलने के बाद क्योंकि पहले ही ऐसा काम करने से कांग्रेस और स्वयं जवाहर लाल नेहरू की छवि खराब होने की प्रबल संभावना थी। नेहरूजी मान गये और पद्मा को वचन भी दिया कि आज़ादी मिलने के बाद वे विधिवत ब्याह रचा लेंगे। पद्मा भी मान गईं और दोनों पहले की तरह पति-पत्नी की भांति रहने लगे।
२. भारत आज़ाद हो गया। नेहरूजी तीन मूर्ति भवन में रहने लगे। पद्मजा भी नेहरूजी के साथ ही तीन मूर्ति भवन में ही रहने लगीं। तभी नेहरूजी की ज़िन्दगी में हिन्दुस्तान के तात्कालिक गवर्नर जेनरल लार्ड माउन्ट्बैटन की सुन्दर पत्नी एडविना माउन्ट्बैटन का प्रवेश हुआ। नेहरूजी के दिलो-दिमाग पर वह महिला इस कदर छा गई कि भारत विभाजन में उसकी छद्म भूमिका को भी वे पहचान नहीं सके। अल्प समय में ही यह प्यार परवान चढ़ गया। पद्मजा ने सारी गतिविधियां अपनी आंखों से देखी, अपना प्रबल विरोध भी दर्ज़ कराया लेकिन नेहरूजी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रोती-बिलखती पद्मजा ने १९४८ में त्रिमूर्ति भवन छोड़ दिया। वे आजन्म कुंवारी रहीं। नेहरूजी ने उनकी कोई सुधि नहीं ली।
३. भारत-विभाजन के लिए एडविना ने ही नेहरूजी को तैयार किया। फिर क्या था - एडविना की मुहब्बत में गिरफ़्तार नेहरू लार्ड माउन्ट्बैटन के इशारे पर खेलने लगे और पाकिस्तान के निर्माण के लिये सहमति दे दी। गांधीजी ने घोषणा की थी कि देश का विभाजन उनकी लाश पर होगा। वे जीवित भी रहे और अपनी आंखों से देखते भी रहे। नेहरू की ज़िद के आगे उन्हें समर्पण करना पड़ा। १४ अगस्त, १९४७ को देश बंट गया। लाखों लोग सांप्रदायिक हिंसा की भेंट चढ़ गये, करोड़ों शरणार्थी बन गये, गांधीजी ने किसी भी स्वतन्त्रता-समारोह में शामिल होने से इन्कार कर दिया लेकिन उसी समय नेहरु २१ तोपों की सलामी के बीच लाल किले पर अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे। उनके जीवन की सबसे बड़ी ख्वाहिश की पूर्ति का दिन था १५, अगस्त, १९४७ जिसकी बुनियाद में भारत का विभाजन और लाखों निर्दोषों की लाशें हैं। (सन्दर्भ - Freedom at midnight by Abul Kalam Azad)
४. इतिहास के किसी कालखंड में भारत और चीन की सीमायें एक दूसरे से कहीं नहीं मिलती थीं। संप्रभु देश तिब्बत दोनों के बीच बफ़र स्टेट की भूमिका सदियों से निभा रहा था। चीन तिब्बत पर माओ के उद्भव के साथ ही गृद्ध-दृष्टि रखने लगा। सरदार पटेल, जनरल करियप्पा आदि दू्रदृष्टि रखनेवाले कई राष्ट्रभक्तों ने चीन की नीयत से नेहरू को सावधान भी किया लेकिन वे हिन्दी-चीनी भाई-भाई की खुमारी में मस्त थे। चीन ने तिब्बत को हड़प लिया और भारत तिब्बत पर चीन के अधिकार को मान्यता देनेवाला पहला देश बना। चीन यहीं तक नहीं रुका। उसने १९६२ में भारत पर भी आक्रमण किया और हमारी पवित्र मातृभूमि के ६० हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर जबरन कब्ज़ा भी कर लिया। आज भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख के पूरे भूभाग पर अपना दावा पेश करने से बाज़ नहीं आता। 
५.पाकिस्तान ने कबायलियों के रूप में १९४८ में कश्मीर पर आक्रमण किया। कबायली श्रीनगर तक पहुंच गये। नेहरू शान्ति-वार्त्ता में मगन थे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तात्कालीन सर संघचालक माधव राव सदाशिव गोलवलकर और सरदार पटेल के प्रयासों के परिणामस्वरूप कश्मीर के राजा हरी सिंह ने कश्मीर के भारत में विलय के समझौते पर दस्तखत किया। सरदार पटेल ने कश्मीर की मुक्ति के लिए भारत की फ़ौज़ को कश्मीर भेजा। सेना ने दो-तिहाई कश्मीर को मुक्त भी करा लिया था, तभी सरदार के विरोध के बावजूद नेहरू ने इस मुद्दे का अन्तर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसे संयुक्त राष्ट्र संघ को समर्पित कर दिया और उसके निर्देश पर सीज फायर लागू कर दिया। कश्मीर एक नासूर बन गया, आतंकवाद पूरे हिन्दुस्तान में छा गया और अपने ही देश में मुसलमानों की राष्ट्रनिष्ठा सन्दिग्ध हो गई। 
आज १४ नवंबर को पंडित जवाहरलाल नेहरू के जन्मदिवस के अवसर पर राष्ट्र पर उनके द्वारा किये गये उपरोक्त एहसानों को क्या याद नहीं करना चाहिये? जरूर करना चाहिये। उन्हें ही नहीं, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, संजय गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और राबर्ट वाड्रा गांधी को भी इस शुभ दिन पर हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर नमस्कार करना चाहिए।

Monday, November 3, 2014

कांग्रेस के क्या लगते हैं राबर्ट वाड्रा

     सत्ता चली गई लेकिन नशा नहीं गया। राबर्ट वाड्रा ने एक सवाल के जवाब में पत्रकार के साथ बदसलूकी की, उसका कैमरा फेंक दिया। जो भी हुआ, उसपर माफ़ी मांगने की नैतिक जिम्मेदारी स्वयं वाड्रा की थी। उसके बाद यह जिम्मेदारी क्रमवार प्रियंका, सोनिया और राहुल की बनती है क्योंकि वाड्रा उनके परिवार के अंग हैं। लेकिन राजपरिवार ने इस घटना पर चुप्पी साधना ही बेहतर समझा। एक अदने पत्रकार से राजपरिवार के सदस्य ने एक छोटी-सी बदसलूकी कर ही दी, तो कोई पहाड़ तो नहीं टूट गया? यह तो उस परिवार का विशेषाधिकार है। अप्रिय सवालों के जवाब में स्व. नेहरू तो पत्रकारों पर हाथ भी उठा देते थे। इन्दिराजी मीडिया, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और निष्पक्ष पत्रकारिता के प्रति सर्वाधिक असहिष्णु थी। आपात्काल लगाकर लोकतन्त्र का गला घोंटने के अतिरिक्त उन्होंने जो प्रेस सेंसरशीप लागू की वह भारत के लोकतंत्र के इतिहास में एक काला अध्याय था जिसने स्वतंत्र लेखन के अपराध में अंग्रेजों द्वारा स्व. बाल गंगाधर तिलक को देश निकाले और अंडमान की जेल में भेजने की घटना की याद सहज ही दिला दी थी। आपात्काल में देश के प्रमुख विपक्षी नेताओं के साथ बड़ी संख्या में पत्रकार भी जेल में ठूंस दिए गए थे। पत्रकार इन्दिरा गांधी की नीयत से शुरु में पूरी तरह वाकिफ़ नहीं थे। प्रेस सेन्सरशीप और इमर्जेन्सी के विरोध में कुछ अखबारों ने २६ जून, १९७५ को प्रकाशित अपने संस्करण के पहले पेज पर कोई समाचार नहीं छापा। पूरे पेज को काले रंग से लीप दिया। उन्हें अपनी गलती का एहसास तब हुआ जब उसी दिन संपादक/प्रकाशक जेल भेज दिये गये। बाद में पत्रकारों ने अपनी गलती सुधारी और बढ़-चढ़कर इमर्जेन्सी के समर्थन में कसीदाकारी की। जिस पत्र ने जितने ज्यादा कसीदे काढ़े, उसे उतना ही ज्यादा सरकारी विज्ञापन मिले। सोनिया तो मीडिया से मिलने में वैसे ही परहेज़ करती हैं, राहुल बाहें चढ़ाकर कई बार वाड्रा जैसी हरकतें कर चुके हैं। इसलिये मुझे वाड्रा की बदसलूकी पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। बेचारा वैसे ही लैंड-डील के खुलासे से मानसिक रूप से परेशान है। अब न तो दिल्ली में और ना ही हरियाणा-राजस्थान में उसकी सास की सरकारें हैं। ऐसे में असहज करनेवाले पत्रकारों के सवाल! बेचारा आपा खो बैठा, तो क्या गलती की?
आश्चर्य तब होता है, जब कांग्रेस के राजपरिवार के दामाद के इस कृत्य पर पार्टी के नेताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगी जाती है। सुन्दर युवती अमृता राय के अवैध पति उम्रदराज़ महामहिम दिग्विजय सिंह ने सबसे पहले दामादजी की बदसलूकी के लिए माफ़ी मांगी। फिर तो माफ़ी मांगनेवालों में होड़ मच गई। ताज़ा नाम कांग्रेस के संगठन सचिव दुर्गा दास कामत का है। उन्होंने गोवा में दामादजी की बदसलूकी के लिये कांग्रेस की ओर से माफ़ी मांगी है। समझ में नहीं आता है कि राबर्ट वाड्रा कांग्रेस के क्या हैं - अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव-महासचिव या कोई अन्य आफ़िस बियरर? फिर पार्टी की ओर से माफ़ी मांगने का क्या औचित्य है? वंशवाद के चमचों की चाटुकारिता का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही मिले!