Tuesday, October 24, 2017

टीपू सुल्तान -- इंसान या हैवान

        पता नहीं कर्नाटक के कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया को शान्त कर्नाटक में अशान्ति उत्पन्न करने और अलगाववाद को हवा देने में कौन सा आनन्द आता है। कभी वे हिन्दी के विरोध में वक्तव्य देते हैं तो कभी कर्नाटक के लिए जम्मू कश्मीर की तर्ज़ पर अलग झंडे की मांग करते हैं। आजकल उन्हें टीपू सुल्तान को राष्ट्रीय नायक और स्वतन्त्रता सेनानी घोषित करने की धुन सवार है। वे राजकीय स्तर पर १० नवंबर को टीपू सुल्तान की जयन्ती मनाने की घोषणा कर चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि टीपू सुल्तान ने इस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ़ युद्ध लड़ा था जिसमें वह मारा गया था। वह युद्ध उसने अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ा था न कि भारत की स्वतन्त्रता के लिए। उस समय भारत एक राजनीतिक इकाई था ही नहीं। मात्र इतने से वह राष्ट्रीय नायक नहीं बन जाता। उसने अपने शासन काल में अपनी प्रजा, विशेष रूप से हिन्दुओं पर जो बर्बर अत्याचार किए थे, उन्हें नहीं भुलाया जा सकता। उसके कार्य बाबर, औरंगज़ेब, तैमूर लंग और मोहम्मद गज़नी से तनिक भी कम नहीं थे।
      कर्नाटक का कूर्ग जिला दुर्गम पहाड़ियों से घिरा हुआ एक सुंदर और रमणीय पर्यटन स्थल है। इसी जिले के तल कावेरी से पवित्र कावेरी नदी का उद्गम होता है। इस जिले में हजारों मन्दिर थे। कई रमणीय जलप्रपात इसे दर्शनीय बना देते हैं। यहां के निवासी अत्यन्त धार्मिक और संपन्न थे। यहां के निवासियों को कोडवा कहा जाता है। कर्नाटक सरकार द्वारा टीपू सुल्तान की जयन्ती मनाने का यहां सर्वाधिक विरोध होता है क्योंकि टीपू सुल्तान ने वहां के निवासियों के साथ जो बर्बर अत्याचार किए थे, उसके घाव अभी भी नहीं सूखे हैं। टीपू का पिता हैदर अली था जिसने धोखे से मैसूर की सत्ता हड़प ली थी। उसने कूर्ग के हिन्दुओं का सामूहिक नरसंहार किया था। ब्रिटिश इतिहासकार लेविन बावरिंग लिखते हैं – हैदर ने कुर्ग के एक कोडवा के सिर के लिए पांच रुपए का ईनाम घोषित किया था जिसके तुरन्त बाद उसके सामने सात सौ निर्दोष कोडवा हिन्दुओं के सिर प्रस्तुत किए गए। हैदर अली बहुत दिनों तक कूर्ग को अपने नियंत्रण में नहीं रख सका। १७८० में कूर्ग फिर आज़ाद हो गया। लेकिन १७८८ में टीपू सुल्तान ने इसे श्मशान बना दिया। नवाब कुर्नूल रनमस्त खान को लिखे अपने एक पत्र में टीपू ने यह स्वीकार किया है कि कूर्ग के विद्रोहियों को पूरी तरह कुचल दिया गया है। हमने विद्रोह की खबर सुनते ही तेजी से वहां के लिए प्रस्थान किया और ४०,००० कोडवाओं को बंदी बना लिया। कुछ कोडवा हमारे डर से जंगलों में भाग गए जिनका पता लगाना चिड़ियों के वश में भी नहीं है। हमने वहां के मन्दिर तोड़ डाले और सभी ४०,००० बंदियों को वहां से दूर लाकर पवित्र इस्लाम में दीक्षित कर दिया। उन्हें अपनी अहमदी सेना में भर्ती भी कर लिया। अब वे अपनों के खिलाफ़ हमारे लिए लड़ेंगे। टीपू सुल्तान ने कूर्ग के लगभग सभी गांवों और शहरों को जला दिया, मन्दिरों को तोड़ दिया और हाथ आए कोडवाओं को इस्लाम में धर्मान्तरित कर लिया। इतना ही नहीं, उसने बाहर से लाकर ७००० मुस्लिम परिवारों को कूर्ग में बसाया ताकि हमेशा के लिए जनसंख्या संतुलन मुसलमानों के पक्ष में रहे। वहां के हिन्दू आज भी टीपू सुल्तान से इतनी घृणा करते हैं कि गली के आवारा कुत्तों को ‘टीपू’ कहकर पुकारते हैं।
      १९७०-८० में सेकुलरिस्टों ने टीपू सुल्तान को सेकुलर और सहिष्णु घोषित करने का काम किया। इस तरह इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा गया। उसके पहले कोई मुसलमान भी अपने बच्चे का नाम ‘टीपू’ नहीं रखता था।
      टीपू सुल्तान ने अपने १७ वर्ष के शासन-काल में हिन्दुओं पर असंख्य अत्याचार किए। हिन्दुओं को वह काफ़िर मानता था, जिनकी हत्या करना और इस्लाम में लाना, उसके लिए पवित्र धार्मिक कृत्य था जिसे वह ज़िहाद कहता था। कर्नाटक के कूर्ग जिले और केरल के मालाबार क्षेत्र में उसने हिन्दुओं के साथ जो बर्बरता की वह ऐतिहासिक तथ्य है, जिसके लिए किसी नए प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उसने कालिकट शहर को जो मसालों के निर्यात के लिए विश्व-प्रसिद्ध था जलाकर राख कर दिया और उसे भूतहा बना दिया। लगभग ४० वर्षों तक कालिकट गरीबी और भूखमरी से जूझता रहा क्योंकि टीपू सुल्तान ने वहां की कृषि और मसाला उद्योग को बुरी तरह बर्बाद कर दिया था। टीपू सुल्तान ने अपने मातहत अब्दुल दुलाई को एक पत्र के माध्यम से स्वयं अवगत कराया था कि अल्लाह और पैगंबर मोहम्मद की कृपा से कालिकट के सभी हिन्दू इस्लाम में धर्मान्तरित किए जा चुके हैं। कोचिन राज्य की सीमा पर कुछ हिन्दू धर्मान्तरित नहीं हो पाए हैं, लेकिन मैं शीघ्र ही उन्हें इस्लाम धर्म कबूल कराऊंगा, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है। अपने इस उद्देश्य को मैं ज़िहाद मानता हूं। टीपू सुल्तान ने जहां-जहां हिन्दुओं को हराया वहां के प्रमुख शहरों के नामों का भी इस्लामीकरण कर दिया। जैसे –
ब्रह्मपुरी – सुल्तानपेट, कालिकट – फ़रुखाबाद, चित्रदुर्गा – फ़ारुख-यब-हिस्सार, कूर्ग – ज़फ़राबाद, देवनहल्ली – युसुफ़ाबाद, दिनिगुल – खलीलाबाद,  गुट्टी – फ़ैज़ हिस्सार, कृष्णगिरि – फ़ल्किल आज़म और मैसूर – नज़राबाद। टीपू सुल्तान की मौत के बाद स्थानीय निवासियों ने शहरों के नए नाम खारिज़ कर दिए और पुराने नाम बहाल कर दिए। टीपू सुल्तान ने प्रशासन में भी लोकप्रिय स्थानीय भाषा कन्नड़ को हटाकर फरसी को सरकारी भाषा बना दिया। सरकारी नौकरी में भी उसने केवल मुसलमानों की भर्ती की, चाहे वे अयोग्य ही क्यों न हों।
      दक्षिण भारत में हिन्दुओं पर टीपू सुल्तान ने अनगिनत अत्याचार किए। उसने लगभग पांच लाख हिन्दुओं का कत्लेआम कराया, हजारों औरतों को बलात्कार का शिकार बनाया और जनता में स्थाई रूप से भय पैदा करने के लिए हजारों निहत्थे हिन्दुओं को हाथी के पैरों तले रौंदवा कर मार डाला। उसने करीब ८००० हिन्दू मन्दिरों को तोड़ा। उसके शासन-काल में मंदिरों में धार्मिक क्रिया-कलाप अपराध था। हिन्दुओं पर उसने जाजिया की तरह भांति-भांति के टैक्स लगाए।

      प्रसिद्ध इतिहासकार संदीप बालकृष्ण ने अपनी पुस्तक – Tipu Sultan : The Tyrant of Mysore में स्पष्ट लिखा है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि टीपू सुल्तान दक्षिण का औरंगज़ेब था। जिस तरह औरंगज़ेब ने १८वीं शताब्दी की शुरुआत में दिल्ली और उत्तर भारत में हिन्दुओं पर अमानुषिक अत्याचार किए, उनके हजारों मंदिर गिराए, उसी तरह १८वीं सदी के अन्त में टीपू सुल्तान ने दक्षिण में औरंगज़ेब के कार्यों की पुनरावृत्ति की। जो काम औरंगज़ेब ने अपने ५० साल के लंबे शासन-काल में किया, वही काम टीपू सुल्तान ने धार्मिक कट्टरता और हिन्दू-द्वेष से प्रेरित होकर अपने १७ साल की छोटी अवधि में कर दिखाया। यह बड़े अफसोस और दुःख की बात है कि कर्नाटक की कांग्रेसी सरकार ने तमाम विरोधों के बावजूद टीपू सुल्तान जैसे घोर सांप्रदायिक और निर्दयी शासक की जयन्ती मनाने का निर्णय किया है। इसकी जितनी भी निन्दा की जाय, कम होगी।

Saturday, October 21, 2017

हिन्दू-मुस्लिम समस्या

    १९८० के दशक तक मेरे गांव में हिन्दुओं और मुसलमानों में जो आपसी सौहार्द्र था वह अनुकरणीय ही नहीं आदर्श भी था। मेरे गांव के मुसलमान ताज़िया बनाते थे। पिताजी के पास बांस के चार कोठ थे। इसलिए मुसलमान पिताजी से ताज़िया बनाने के लिए बांस भी ले जाते थे, साथ ही सहयोग राशि भी ले जाते थे। पिताजी उन लोगों को अपनी बंसवारी से बांस उसी प्रसन्नता से देते थे जिस तरह किसी हिन्दू लड़की के विवाह के लिए मण्डप निर्माण के लिए बांस देते थे। मुस्लिम भी मुहर्रम के दिन जब ताज़िया का जुलूस निकालते थे तो मेरे घर पर जरुर आते थे। दरवाजे के सामने ताज़िया रखकर तरह-तरह के करतब दिखाते थे। मेरे घर की महिलाएं बाहर निकलकर ताज़िए का पूजन करती थीं। जुलूस में ज्यादा संख्या में हिन्दू ही लाठी-भाला लेकर मुसलमानों के साथ ताज़िए के साथ चलते थे। हमलोग उसदिन पटाखे छोड़ते थे। लगता ही नहीं था कि मुहर्रम हमारा त्योहार नहीं है। मुसलमान भी हिन्दुओं के त्योहार मनाते थे। मेरे गांव की कई मुस्लिम औरतें छठ का व्रत रखती थीं और पूरे विधि-विधान से अर्घ्य देती थीं। मेरे गांव में वसी अहमद एक प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे और उनका परिवार हिन्दुओं के साथ होली खेलता था। होली की मंडली के स्वागत के लिए पूरा परिवार पूरी व्यवस्था रखता था। वे शिया संप्रदाय के थे। उन्हें और उनके पड़ोसियों को रंग-अबीर से कोई परहेज़ नहीं था। शादी-ब्याह, व्रत-त्योहार में परस्पर बहुत सहयोग था। लेकिन १९८० के बाद माहौल में बदलाव आना शुरु हो गया। कुछ मौलाना तहरीर के लिए गांव में आने लगे। उनकी तहरीर रात भर चलती थी। उनकी तहरीर सिर्फ मुसलमान ही नहीं सुनते थे बल्कि हिन्दुओं को भी लाउड स्पीकर के माध्यम से जबर्दस्ती सुनाया जाता था। परिणाम यह हुआ कि दोनों समुदायों में सदियों पुराना पारस्परिक सहयोग घटते-घटते बंद हो गया। अब ताज़िए के जुलूस में हिन्दू शामिल नहीं होते। इन सबके बावजूद भी शिया मुसलमानों के संबन्ध आज भी हिन्दुओं के साथ सौहार्द्रपूर्ण हैं। मेरे गांव के शिया मुसलमान सुन्नियों के साथ कम और सवर्ण हिन्दुओं के साथ उठना-बैठना ज्यादा पसंद करते हैं। जहां सुन्नी मुसलमान अलग बस्ती में रहते हैं, वहीं शिया मुसलमान बिना किसी भय के हिन्दुओं से घिरी बस्ती में सदियों से रहते आ रहे हैं। न कोई वैमनस्य, न कोई झगड़ा। क्या भारत के सुन्नी मुसलमान शियाओं की तरह उदार नहीं हो सकते? जब हमें साथ-साथ ही रहना है तो क्यों नहीं उदारता, सहिष्णुता और एक दूसरे के धर्मों के प्रति सम्मान के साथ रहा जाय?

      कुछ हिन्दूवादी संगठन मुसलमानों की घर वापसी के पक्षधर हैं। मेरा उनसे एक ही सवाल है कि अगर कोई मुसलमान घर वापसी करता है तो उसे किस जाति में रखा जायेगा? सैकड़ों जातियों में बंटा जो हिन्दू समुदाय आज तक एक हो  नहीं सका वह मुसलमानों को कहां स्थान देगा? यह विचार अव्यवहारिक है। मुसलमानों में भी जो पढ़े-लिखे हैं और इतिहास का ज्ञान रखते हैं, उनका मानना है कि अखंड भारत के ९९% मुसलमान परिस्थितिवश हिन्दू से ही मुसलमान बने हैं। हमारे पूर्वज एक ही हैं और हमारा डीएनए भी एक ही है। भारत के मुसलमानों का डीएनए अरब के मुसलमानों से नहीं मिलता। जिस दिन भारत का मुसलमान इस सत्य को स्वीकार कर लेगा, उसी दिन हिन्दू-मुस्लिम समस्या का सदा के लिए अन्त हो जाएगा। इसके लिए हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के प्रबुद्ध वर्ग को सामने आकर यह जिम्मेदारी उठानी पड़ेगी। अलग रहने की हमने बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। अब साथ रहकर हम विश्व को नई दिशा दिखा सकते हैं। हिन्दुओं ने जैसे बौद्धों, जैनियों, सिक्खों को अपने से अभिन्न स्वीकार किया है, उसी तरह अलग पूजा पद्धति को मान्यता प्रदान करते हुए मुसलमानों का भी मुहम्मदपंथी हिन्दू के रूप में दिल खोलकर स्वागत करेंगे। फिर हमलोग ईद-बकरीद, दिवाली-दशहरा और होली साथ-साथ मनायेंगे। न कोई राग होगा, न कोई द्वेष, न लड़ाई न झगड़ा। 

Saturday, October 14, 2017

बनारस और प्रधानमन्त्री मोदी


मैं बनारस में रहता हूं। मेरी शिक्षा-दीक्षा भी यहीं हुई है और अपनी नौकरी के उत्तरार्ध के १८ वर्ष मैंने यहीं व्यतीत किए हैं। एक लंबे समय से मैं बनारस से जुड़ा हूं। मेरे छात्र जीवन में बनारस जैसा था आज भी लगभग वैसा ही है; बस एक परिवर्तन को छोड़कर। पहले सड़क पर हम किसी भी वाहन से या पैदल चल सकते थे। यहां टांगा भी चला करते थे लेकिन अब पैदल चलना भी दुश्वार है। लंका की सड़कें सबसे चौड़ी हैं, फूटपाथ भी है लेकिन बी.एच.यू. के सिंहद्वार से लेकर रविदास गेट तक दिन भर जाम लगा रहता है। आप कार से गोदौलिया जाने की सोच भी नहीं सकते हैं। बढ़ती जनसंख्या, गाड़ियों की संख्या और आवारा साढ़ों तथा गायों की संख्या ने यातायात को दयनीय बना दिया है। सीवर और ड्रेनेज की समस्या ज्यों की त्यों है। मुख्य मार्गों पर भी सीवर का पानी बहते हुए देखा जा सकता है। मोदी जी के यहां से सांसद और प्रधान मन्त्री बनने के बाद बनारसियों की उम्मीदें आसमान छूने लगीं। वे भी जापान के प्रधानमन्त्री के साथ यहां आए और बनारस को क्योटो बनाने की घोषणा की। जबतक अखिलेश यादव मुख्यमन्त्री थे, तब यही कहा जाता था कि केन्द्र सरकार दिल्ली से पैसे तो भेज रही है लेकिन राज्य सरकार न योजना बना रही है और ना ही पैसे का सदुपयोग कर रही है। कुल मिलाकर जनता में यह भाव भरा गया कि राज्य सरकार के असहयोग के कारण बनारस का विकास नहीं हो पा रहा है। लेकिन अब तो दिल्ली में मोदी हैं, लखनऊ में योगी हैं, जिले के सभी सांसद और विधायक भाजपा के हैं तथा नगर निगम भी भाजपा के कब्जे में है। दुःख के साथ लिखना पड़ता है कि कोई भी सांसद या विधायक कभी भी जनता से संपर्क नहीं करते हैं और ना ही अपने क्षेत्रों का सघन दौरा करते हैं। यहां के ब्यूरोक्रैट्स मोदी जी के बनारस आगमन के समय उन सड़कों को चमका देते हैं, जहां से मोदी जी को गुजरना होता है। उसके बाद उनके कर्त्तव्य की इतिश्री हो जाती है। कुछ परियोजनाओं के विवरण निम्नवत हैं जो वर्षों से पूर्णता की प्रतीक्षा कर रही हैं --
१. केन्द्र सरकार ने अपने पहले बजट में ही बनारस के लिए एक अलग AIMS की स्थापना की घोषणा की थी जिसे योगी जी गोरखपुर के लिए ले उड़े। मैंने स्वयं और बनारस के हजारों लोगों ने बनारस में ही AIMS खोलने के लिए सरकार को अडिग रहने के लिए पत्र लिखे लेकिन कोई जवाब नहीं आया। मोदी से योगी भारी पड़ गए।
२. मंडुआडीह में रेलवे क्रोसिंग के उपर एक फ़्लाईओवर का निर्माण वर्षों से हो रहा है जो अभी भी अधूरा है। फ़्लाईओवर बनने के पहले दोनों तरफ सर्विस रोड बनाई जाती है। बनारस में इसका पालन नहीं किया जाता है।
३. कैन्ट रेलवे स्टेशन के सामने अन्धरा पुल और लहरतारा के फ़्लाईओवर को एक नए फ़्लाईओवर से जोड़ने का काम भी वर्षों से चल रहा है। सन २०१९ तक भी इसके पूरा होने की संभावना नहीं है क्योंकि उसपर कोई काम होता हुआ दिखाई ही नहीं पड़ता। सर्विस रोड की हालत अत्यन्त दयनीय है जिसके कारण २४ घंटे जाम लगा रहता है। रोज ही किसी की ट्रेन छूटती है तो किसी की फ़्लाइट। 
४. मोदी जी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद बनारस के एयरपोर्ट बाबतपुर से शिवपुर तक शहर को जोड़ने के लिए एक लंबे फ़्लाईओवर पर काम शुरु हुआ जो आज भी अधूरा है। बनारस की परंपरा के अनुसार ही सर्विस रोड की हालत दयनीय है। पता नहीं वह शुभ दिन कब आएगा जब यह फ़्लाई ओवर पूरा होगा। इतना तो निश्चित है कि वह शुभ दिन २०१९ के पहले नहीं आएगा।
       मैं मोदीजी का आलोचक या विरोधी नहीं हूं बल्कि उनका प्रबल समर्थक हूं। लेकिन अपने दिल का दर्द दिल में नहीं रखता। बनारस अगर कूड़े का ढेर भी बन जाएगा तो भी वोट मैं मोदीजी को ही दूंगा क्योंकि मुझे यह अटूट विश्वास है कि यह देश उनके नेतृत्व में ही सुरक्षित है। स्थानीय हित को देशहित के लिए कुर्बान करने के लिए मैं तैयार हूं लेकिन सभी बनारसी मेरा अनुकरण करेंगे, इसमें संदेह है। वादे सुनते-सुनते बनारसियों के कान पक गए हैं।