Wednesday, June 26, 2019

आपात्काल : स्वतन्त्र भारत का काला इतिहास


जो देश अपने इतिहास को भूल जाता है, उसका भूगोल भी बदल जाता है। हमारे देश का भूगोल बार-बार इसलिए बदला कि हम अपने इतिहास से कोई सबक नहीं ले पाए, बल्कि उसे भूल भी गए। कांग्रेसियों और वामपन्थियों ने हमारी पाठ्य पुस्तकों और इतिहास में सप्रयास इतनी झूठी बातें लिखीं और फैलाई कि नई पीढ़ी में हमेशा के लिए एक हीन भावना जागृत हो गई। पिछले पांच वर्षों में नई पीढ़ी महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी, रानी लक्ष्मी बाई का नाम तो जान गई है लेकिन उसे यह नहीं पता कि वे कब और कैसे अपने ही लोगों के षडयंत्र के शिकार हुए। मान सिंह, महाराणा प्रताप के रिश्तेदार थे, लेकिन निजी स्वार्थों के कारण पहले उन्होंने अपनी बहन की शादी अकबर से कराकर, अकबर का विश्वास अर्जित किया फिर चित्तौड़ पर चढ़ाई करके महाराणा प्रताप को बेघर किया। वामपन्थियों ने मान सिंह को तथाकथित गंगा-जमुनी संस्कृति का सबसे बड़ा पोषक करार दिया है और इस घटना को सदियों पहले भारत में धर्म निरपेक्षता का प्रमाण बताया है। वीर शिवाजी को धोखे से दिल्ली बुलाकर उन्हें औरंगज़ेब द्वारा गिरफ़्तार कर कारागार में डालने के सूत्रधार और कोई नहीं मिर्ज़ा राजा जयसिंह थे। अंग्रेजों के दांत खट्टे कर देने वाली अद्भुत वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई ने झांसी छोड़ ग्वालियर की ओर कूच करने के पूर्व सिन्धिया परिवार के ग्वालियर के तात्कालीन राजा को पत्र लिखकर स्वतन्त्रता संग्राम में सहायता देने का आग्रह किया था। महारानी झांसी की हस्तलिपि में लिखा वह पत्र आज भी ग्वालियर के राज महल के संग्रहालय में सुरक्षित है। उस ऐतिहासिक पत्र के उत्तर में ग्वालियर के राजा ने रानी लक्ष्मीबाई के ग्वालियर पहुंचने पर गिरफ़्तार करके अंग्रेजों को तोहफ़े में देने की योजना बनाई। लेकिन उन्हीं की सेना ने इस निर्णय के खिलाफ़ बगावत कर दी और झांसी की रानी का पक्ष लेते हुए अंग्रेजों से युद्ध किया। महारानी ने अपने जीवन का अन्तिम युद्ध ग्वालियर में ही लड़ा था। हमारी भुलक्कड़ जनता ने सबकुछ भुला दिया और आज़ाद हिन्दुस्तान में उनके वंशजों को केन्द्र और राज्यों में मन्त्री पद से नवाजा। कौन नहीं जानता कि पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आधा कश्मीर पाकिस्तान को देने में पंडित नेहरू की कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। तिब्बत को चीन को थाली में सजाकर देने में उन्होंने नायक की भूमिका निभाई और चीन को अपना पड़ोसी बना लिया। हमारी सीमा चीन से कहीं नहीं मिलती थी। उसे पड़ोसी बनाने की कीमत १९६२ में चीन को अपनी ६०००० वर्ग कि.मी. देकर देश को चुकानी पड़ी। ऐसे देशद्रोही नेता के वंशजों को हमने ५५ साल तक देश की बागडोर सौंपी और अपना ही सत्यानाश कराया। आज भी उस वंश के एक पप्पू  द्वारा रुठने-मनाने का खेल जारी है और हजारों चाटुकार उससे पद पर बने रहने के लिए धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं।
आज़ाद हिन्दुस्तान में अपनी सत्ता बचाने के लिए नेहरू जी की पुत्री और तात्कालीन प्रधान मन्त्री इन्दिरा गांधी ने लोकतन्त्र का गला घोंटते हुए जिस तरह पूरे देश में आपात्काल लगाकर असंख्य लोगों को जेल में डाला और यातनाएं दी, वैसा अत्याचार गुलाम भारत में अंडमान निकोबार द्वीप में कालापानी की सज़ा पा रहे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के साथ अंग्रेजों ने भी नहीं किया था। हां, ऐसे अत्याचार मुगल काल में अवश्य हुए थे। आपात्काल में अस्वस्थ लोकनायक जय प्रकाश नारायण के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया गया, परिणामस्वरूप उनकी किडनी बुरी तरह खराब हो गई। बाद में उनकी मृत्यु किडनी खराब होने से ही हुई। दक्षिण भारत की प्रख्यात लोकप्रिय अभिनेत्री श्रीमती स्नेहलता रेड्डी को अकारण उनके घर से गिरफ़्तार करके बंगलोर के जेल में रखा गया। उनका अपराध यही था कि वे एक कुशल कलाकार होने के साथ-साथ एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्त्ता भी थीं। समाजवाद में उनका विश्वास था और जार्ज फ़र्नाण्डीस के द्वारा किए गए आन्दोलनों में उन्होंने सक्रिय साझेदारी की थी। जार्ज फ़र्नाण्डिस पर उस समय बड़ौदा डायनामाईट काण्ड गढ़कर देशद्रोह का कल्पित और झूठा मुकदमा चलाया जा रहा था। जार्ज पुलिस की गिरफ़्त से बाहर थे। बेचारी स्नेहलता से जार्ज का पता पूछा जाता। उन्हें पता होता, तब तो वे बतातीं। उन्हें असंख्य असह्य यातनाएं दी गईं। उनके नारीत्व के साथ खिलवाड़ किया गया। यातनाओं को सहते-सहते अन्त में जनवरी १९७७ में वे मृत्यु को प्राप्त हुईं। ऐसी यातनाओं की हजारों घटनाएं घटीं। कुछ प्रकाश में आईं, कुछ दबी रह गईं। मैं उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इंजीनियरिंग का छात्र था। मेरे कई मित्रों को हास्टल से, सड़क पर चलते हुए और कालेज परिसर से अकारण गिरफ़्तार किया गया और जेल में डाल दिया गया। मैं अपने उन मित्रों -- सर्वश्री विष्णु गुप्ता, इन्द्रजीत सिंह, होमेश्वर वशिष्ठ, राज कुमार पूर्वे, प्रदीप तत्त्ववादी, अरुण प्रताप सिंह, श्रीहर्ष सिंह जैसे क्रान्तिकारियों का नाम बड़ी श्रद्धा और सम्मान के साथ लेता हूं। इन्हें गिरफ़्तार करके भेलुपुर थाने के सीलन भरे कमरे में जिसमें मल-मूत्र की दुर्गंध लगातार आती थी, कई रातों तक रखा गया और नानाजी देशमुख का पता पूछा जाता रहा। वे नानाजी का पता बताने में असमर्थ थे। नानाजी भूमिगत थे। उनका पता किसे मालूम था? नहीं बताने पर उन्हें बेंतों से पीटा गया। किसी की हड्डी टूटी, तो किसी का सिर फटा। कुछ पर मीसा तामिल किया गया तो कुछपर डी.आई.आर.। डीआईआर वाले कुछ दिनों के बाद जमानत पर छूट गए लेकिन उपकुलपति ने उन्हें हास्टल में रहने की अनुमति नहीं दी। ये लोग रवीन्द्रपुरी में एक किराये का मकान लेकर रहे और येन-केन-प्रकारेण अपनी पढ़ाई पूरी की। श्री दुर्ग सिंह चौहान छात्र संघ के अध्यक्ष थे और आर.एस.एस. के वरिष्ठ कार्यकर्त्ता थे। उन्हें गिरफ़्तार करने के लिए इतना कारण पर्याप्त था। वे एम.टेक. के विद्यार्थी थे। जमानत पर रिहा होने के बाद भी बी.एच.यू. के वी.सी. कालू लाल श्रीमाली ने उन्हें निष्कासित कर दिया। वे एम.टेक. पूरा नहीं कर पाए। बाद में दक्षिण भारत के किसी इंजीनियरिंग कालेज से उन्होंने एम.टेक पूरा किया और आई.आई.टी. दिल्ली से पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त की। लेकिन इस प्रक्रिया में उनके कई बहुमूल्य वर्ष बर्बाद हो गए। हमारे इंजीनियरिंग कालेज के फार्मास्युटिकल इंजीनियरिंग के प्रोफ़ेसर डा. शंकर विनायक तत्त्ववादी को उनके विभाग से गिरफ़्तार किया गया। गिरफ़्तारी के बाद सबको यातनाएं देना पुलिसिया प्रक्रिया का एक आवश्यक अंग बन गया था। दिल्ली में गिरफ़्तार स्वयंसेवकों के नाखून उखाड़े गए, उनके नंगे बदन को सिगरेट की जलती बटों से दागा गया। वहां अत्याचार चरम पर था क्योंकि वहां संजय गांधी और उनकी चहेती रुखसाना सुल्ताना के अत्याचारों का खुला ताण्डव चल रहा था। इलाहाबाद से कानपुर जा रही एक बारात को रास्ते में रोककर दुल्हा समेत सभी बारातियों की जबर्दस्ती नसबन्दी की गई। कहां तक गिनाएं। अत्याचारों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है जिनमें से कुछ का जिक्र प्रख्यात पत्रकार कुलदीप नैय्यर ने अपनी पुस्तक ‘दी जजमेन्ट’ में भी किया है। नेहरू-गांधी परिवार के वंशज आज भी विभिन्न अपराधों में लिप्त होने के के बावजूद न्यायपालिका की कृपा से जमानत पर होने के बावजूद भी खुलेआम घूम रहे हैं और प्रधान मन्त्री मोदी जी के कार्यकाल की तुलना इमर्जेन्सी से कर रहे हैं। बेशर्मी की हद है!
मैं यह लेख इसलिए लिख रहा हूं कि नई पीढ़ी आपात्काल के अत्याचारों से परिचित हो और इतिहास से सबक ले। आज भारत में लोकतंत्र कायम है, इसका श्रेय आर.एस.एस. के लाखों यातनाभोगी स्वयंसेवकों को है जिन्होंने अपने कैरियर और जीवन की परवाह न करते हुए संघर्ष जारी रखा, जिसके कारण हम स्वतन्त्र जीवन जी रहे हैं। उन योद्धाओं को शत कोटि नमन!

Thursday, June 20, 2019

केन्द्रीय सरकार का भावी एजेंडा

      हर आम चुनाव के बाद गठित सरकार के भावी एजेंडे को संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर महामहिम राष्ट्रपति के अभिभाषण के माध्यम से जनता तक पहुंचाने की परंपरा रही है। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए कल दिनांक २० जून को महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित किया। उन्होंने देश की आज़ादी की ७५वीं वर्षगांठ यानी २०२२ तक हर गरीब को चिकित्सा सुविधा और आवास देने का वादा किया। राष्ट्रपति महोदय ने आगामी ५ वर्षों के लिए मोदी सरकार की योजना और प्राथमिकताएं साझा की। उन्होंने सरकार को गरीबों, किसानों और जवानों के लिए समर्पित बताते हुए कहा कि आज़ादी के ७५ वर्ष पूरे होने तक विकास के नए मानकों को हासिल करेंगे। उन्होंने ‘निकाह-हलाला’ और तीन तलाक जैसी कुप्रथाओं के उन्मूलन को अत्यन्त आवश्यक बताया। संक्षेप में उन्होंने देश के सभी नागरिकों के सिर पर छत, सभी को इलाज और सन २०२२ तक अन्तरिक्ष में तिरंगा लहराने की सरकार की प्रतिबद्धता से संसद को अवगत कराया। राष्ट्रपति महोदय का अभिभाषण सामान्य रूप से प्रशंसा के योग्य था, लेकिन कुछ मुद्दों पर निराशाजनक भी था। भाजपा के चुनावी घोषणा पत्र में किए गए कुछ महत्त्वपूर्ण वादों का अभिभाषण यानी सरकार की भावी नीतियों में उल्लेख तक नहीं था। कश्मीर की विवादित धारा ३७० और ३५ए को हटाने और राम मन्दिर निर्माण के संबन्ध में एक शब्द भी नहीं कहा गया जिसके कारण भाजपा के करोड़ों-करोड़ों कार्यकर्त्ता और समर्थकों की भावना आहत हुई। ध्यान रहे कि इन्हीं कार्यकर्ताओं और समर्थकों के दिन-रात के प्रयास के कारण ही भाजपा प्रचण्ड बहुमत के साथ पुनः सत्ता में आई है।
यह देश का दुर्भाग्य है कि अबतक जितने भी प्रधान मन्त्री हुए हैं, सबके सब नेहरू बनने की दौड़ में शामिल रहे हैं। देश के प्रथम गैर कांग्रेसी प्रधान मन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी भी इस दौड़ से अछूते नहीं रहे। अपने दूसरे कार्यकाल में प्रधान मन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी भी इस दौड़ में शामिल होने को तत्पर दिखाई देते हैं। सबका विश्वास जीतने की उनकी अव्यवहारिक मंशा कही बहुत भारी न पड़े, इसके पहले संगठन और सरकार को चेत जाना चाहिए। संसद के नए सत्र की शुरुआत में सरकार द्वारा आयोजित रात्रिभोज में आमंत्रित करने के बावजूद राहुल और सोनिया ने बहिष्कार किया। अभी-अभी मोदीजी ने राहुल के जन्मदिन पर उन्हें बधाई भी दी थी। लेकिन सब बेकार गया। ‘एक देश एक चुनाव’ के मुद्दे पर कांग्रेस का विरोध नीतिगत नहीं है। यह विरोध मोदी का अन्ध विरोध है। क्या किसी ने अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस (२१-६-२०१९) पर राहुल और सोनिया को योग करते हुए देखा है? क्या आप ओवैसी और आज़म खान से वन्दे मातरम या भारत माता की जय बुलवा सकते हैं? सबका विश्वास अर्जित करने की बात पूरी तरह सैद्धान्तिक है। भगवान श्रीकृष्ण भी लाख प्रयास के बाद भी सबका विश्वास अर्जित नहीं कर सके। इसके लिए मोदीजी से आग्रह है कि जिनके विश्वास के बल पर वे पुनः सत्ता में आए हैं उनका ही विश्वास और दृढ़ करने का प्रयास करें, वरना अगले चुनाव में भारी मन से कही ये न कहना पड़े --- माया मिली न राम।
भाजपा सत्ता पाते ही अपने कोर वोटर्स की उपेक्षा करना शुरु कर देती है। गुजरात के मुख्यमन्त्री रहते हुए मोदी जी की पूरे देश में जो छवि बनी, वह थी एक अडिग और भरोसेमंद हिन्दू-रक्षक नेता की। उन्हें घोर सांप्रदायिक, अतिवादी और मौत का सौदागर भी कहा गया। देश-विदेश में उनका प्रबल विरोध किया गया। लेकिन दशकों से कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति और हिन्दुओं की उपेक्षा ने मोदी जी को अचानक हिन्दू-हृदय सम्राट बना दिया। जनता ने उनकी हिन्दुत्व-छवि को स्वीकार किया और जाति-पांति की दीवार तोड़कर उन्हें बहुमत दिया। कोई इस मुगालते में नहीं रहे कि २०१९ का चुनाव ‘सबका साथ, सबका विकास’ के कारण जीता गया। यह जीत भी मोदीजी के प्रखर राष्ट्रवाद की जीत थी। लगभग सभी जनसभाओं में अमित शाह जी ने कश्मीर से धारा ३७० और ३५ए को हटाने की बात कही थी। प्रधान मन्त्री और अमित शाह, दोनों ने राम मन्दिर के निर्माण के लिए अपनी प्रतिबद्धता जोरदार शब्दों में कई बार दुहराई थी। लेकिन सरकार के भावी एजेन्डे में ये प्रतिबद्धताएं नेपथ्य में चली गईं। नई सरकार बनते ही यह घोषणा की गई कि सभी मुस्लिम लड़कियों को हर स्तर की शिक्षा के लिए सरकारी छात्रवृत्ति दी जाएगी। क्या यह ‘सबका विकास’ कार्यक्रम का अंग प्रतीत होता है? क्या गरीब हिन्दू लड़कियों के लिए छात्रवृत्ति आवश्यक नहीं है? इसे तुष्टीकरण नहीं कहा जाय तो और क्या नाम दिया जाय?
प्रधान मन्त्री मोदीजी, अध्यक्ष अमित शाह्जी और भाजपा संगठन से यह आग्रह है कि वे पहले अपने वर्तमान समर्थकों, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के विश्वास को और सुदृढ़ करने का प्रयास करें, फिर अन्यों का विश्वास अर्जित करने की कोशिश करें। एक बहुचर्चित श्लोक है ---
यः ध्रुवाणि परितज्य अध्रुवेण निशेवते।
ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति अध्रुवं नश्यमेव हि ॥
जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित की तरफ भागता है, उसका अनिश्चित तो अनिश्चित ही रहता है, निश्चित अवश्य नष्ट हो जाता है।

Thursday, June 13, 2019

क्या सचमुच न्याय अन्धा होता है

      सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रन्जन गोगोई द्वारा पिछले वर्ष १०-११ अक्टुबर को अपने आवासीय कार्यालय में अपनी ही ३५ वर्षीया महिला जूनियर कोर्ट सहायक से कथित यौन उत्पीड़न का मामला चुनावी शोरगुल में दब गया था। लेकिन अब जब देश को एक स्थाई सरकार मिल चुकी है और चुनाव का माहौल खत्म हो चुका है तो इस पर सरकार, महिला आयोग, संसद, नेता और जनता को यह विचार करना चाहिए कि क्या यौन उत्पीड़न की शिकार महिला को न्याय मिल गया? अपने ही मित्र जजों की अनौपचारिक समिति द्वारा एकतरफा सुनवाई कराकर क्लीन चिट प्राप्त कर क्या माननीय चीफ जस्टिस ने न्याय का उपहास नहीं किया है? घटना और घटना की पूर्व स्थितियों का विवरण निम्नवत है ---
     १. दिनांक ९ अक्टूबर, २०१८ को पीड़ित महिला की सिफारिश पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रंजन गोगोई महिला के देवर/बहनोई (Brother-in-law) को आदेश संख्या F-3/2018-SCA(1) New Delhi dated Oct 9, 2018 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के अपने विशेषाधिकार का उपयोग करते हुए अस्थाई कनिष्ठ कोर्ट अटेन्डेन्ट के पद पर नियुक्त करते हैं और १०-११ अक्टूबर को अपने आवासीय कार्यालय में महिला के यौन उत्पीड़न का प्रयास करते है। पीड़ित महिला ने अपने एफ़डेविट में यह स्पष्ट किया है। इससे तो यह साफ है कि चीफ़ जस्टिस महोदय महिला को अच्छी तरह से जानते थे और उसके प्रति कही न कही मृदु भाव रखते थे, तभी उसकी सिफारिश पर उसके निकट के संबन्धी को नौकरी देने का कार्य किया। उन्हें यह उम्मीद थी कि महिला उनके एहसान तले दब जाएगी और उनकी इच्छा की पूर्ति करेगी। यौन उत्पीड़न की घटना इसी का परिणाम थी। 
२. इस घटना की दबी जुबान चर्चा सुप्रीम कोर्ट के गलियारे में शुरु हो गई थी। पीड़ित महिला को इसका परिणाम भुगतना ही था। उसे दिनांक २१-१२-१८ को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया। आरोप भी हास्यास्पद ही था -- महिला ने बिना पूर्व अनुमति के एक दिन का आकस्मिक अवकाश लिया था। क्या इतना छोटा आरोप Dissmisal का कारण बन सकता है। उत्पीड़न यही तक नहीं रुका। ९ अक्टूबर को नौकरी पाए उसके देवर/ बहनोई को भी सेवामुक्त कर दिया गया।
३. एक पुराने अप्रमाणित रिश्वत लेने के मामले में दिल्ली पुलिस पर दबाव डालकर महिला और उसके पति को राजस्थान स्थित उसकी ससुराल से गिरफ़्तार करके दिल्ली लाया गया और हिरासत में रखकर यंत्रणा दी गई।
४. पीड़ित महिला के पति और देवर जो दिल्ली पुलिस में हेड कांस्टेबुल थे, निलंबित कर दिया गए।
५. महिला को पुलिस द्वारा अपने घर बुलाकर चीफ़ जस्टिस की पत्नी के चरणों में नाक रगड़कर माफ़ी मांगने के लिए वाध्य किया गया।
६. महिला को तरह-तरह की धमकियां मिलती रही। आज़िज़ आकर महिला ने न्याय की गुहार लगाते हुए पूरी घटना का विवरण अप्रिल, २०१९ में शपथ-पत्र के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट के सभी जजों को भेजा। इस शपथ पत्र के सोसल मीडिया पर आ जाने के बाद पूरे देश में हड़कंप मच गया। चुनाव सिर पर होने के कारण राजनेता चुप रहे।
७. भयभीत मुख्य न्यायाधीश महोदय ने आनन-फानन में तीन जजों की एक पीठ गठित की जिसकी अध्यक्षता उन्होंने स्वयं की। इसकी सूचना न पीड़िता को दी गई और ना ही उसका पक्ष सुना गया। न्यायमूर्ति गोगोई ने स्वयं महिला पर कई गंभीर आरोप लगाए और इस घटना को लोकतन्त्र और न्यायपालिका पर एक गंभीर हमला बताया।
८. सुप्रींम कोर्ट की इस अनोखी कार्यवाही पर मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया हुई। पीड़िता तो क्या, कोई भी पढ़ालिखा आदमी कोर्ट के इस फैसले से सन्तुष्ट नहीं था।
९. चीफ़ जस्टिस द्वारा Eye-wash करने का एक और प्रयास किया गया। उन्होंने घटना की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की एक समिति गठित कर दी जो न संवैधानिक थी, न वैधानिक थी और न किसी अधिकार से संपन्न थी। यह पूर्ण रूप से एक अनौपचारिक समिति थी। इस  समिति में उन्होंने जस्टिस रमन्ना को रखा जो उनके परम मित्र ही नहीं, परिवार के सदस्य की तरह हैं। पीड़िता द्वारा आपत्ति दर्ज़ कराने के बाद उनके स्थान पर जस्टिस बोगडे को रखा गया।
१०. समिति ने पीड़िता को अपनी बात रखने के लिए २६ अप्रिल को बुलाया। इस बीच भयंकर आर्थिक संकट और मानसिक तनाव के कारण महिला की श्रवण-शक्ति बाधित हो गई। वह दाहिने कान से पूर्ण रुप से और बाएं कान से आंशिक रूप से बधिर हो गई।
११. अवसाद की शिकार महिला फिर भी २६ अप्रिल को समिति के सामने उपस्थित हुई। अपनी शारीरिक और मानसिक अवस्था का हवाला देते हुए उसने वकील के माध्यम से अपनी बात कहने का अनुरोध किया। उसने कार्यवाही की विडियो/आडियो रिकार्डिंग की भी मांग की। अकेले इतने वरिष्ठ जजों के सामने उनके प्रश्नों को सुन वह नर्वस भी हो रही थी।  उस दिन की सुनवाई पूरी होने के बाद महिला ने अपने बयान की एक प्रति मांगी। उसकी किसी भी बात को समिति ने नहीं माना।
१२. महिला फिर भी दिनांक २९ अप्रील को समिति के सामने उपस्थित हुई और जांच को Enquiry in Accordance with Sexual Harassment Act 2013 के प्रावधानों के तहत करने की मांग की जिसे ठुकराते हुए समिति ने बताया कि वह समिति अनौपचारिक है, उसे कोई वैधानिक दर्ज़ा प्राप्त नहीं है और ना ही वह किसी मुकदमे का अंग है। फिर महिला ने आगे की कार्यवाही में शामिल होने से इंकार कर दिया
१३. अन्त में सुप्रीम कोर्ट की अधिकारविहीन समिति ने मुख्य न्यायाधीश महोदय को क्लीन चिट देते हुए अपनी रिपोर्ट लगा दी कि महिला द्वारा लगाए गए सभी आरोप तथ्यहीन हैं।
क्या इसी को न्याय कहते हैं? सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस संविधान, कानून और लोक मर्यादा से ऊपर हैं?
समिति के रिपोर्ट के खिलाफ दर्जनों वकीलों और महिला अधिकार के लिए समर्पित संगठन के कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रदर्शन किया। सभी को गिरफ़्तार करके मन्दिर मार्ग थाने में भेज दिया गया।
पीड़ित महिला को न्याय दिलाने के लिए २६ अप्रिल को Women in Criminal Law Association ने Sexual Harassment Act 2013 के प्रावधानों और धाराओं के अनुसार विधिसम्मत जांच कराकर दोषी को सज़ा देने की मांग की है। संगठन ने सुप्रीम कोर्ट के सभी पूर्व जजों को तत्संबन्धी पत्र भी भेजा है। सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जज और दूसरे पूर्व जजों ने भी जस्टिस गोगोई द्वारा इस यौन उत्पीड़न की घटना की सुनवाई की पूरी प्रक्रिया को विधि विरुद्ध और अनैतिक करार दिया है।
देखते हैं पीड़ित महिला को न्याय मिलता भी है या नहीं? वैसे कानून की आंखों पर फिलहाल तो काली पट्टी बंधी है।