Tuesday, April 19, 2011

नैतिकता और कानून



दुनिया में ऐसा कोई यंत्र नहीं बना है जिसके माध्यम से हम दूसरों के मन की बातों को जान सकें. अन्ना हजारे दूसरे गांधी बनना चाहते हैं, मीडिया में प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचना चाहते हैं या सचमुच भ्रष्टाचार का पूर्ण उन्मूलन चाहते हैं, यह तो वही जानें, लेकिन प्रस्तावित लोकपाल बिल, जिसके लिए उन्होंने ढाई दिन का अनशन किया था, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण स्थापित करने में कितना सफल हो पाएगा, यह पूर्ण संदेह के घेरे में है. यह बिल आने के पहले ही विवादों से घिर गया है. सरकारी पक्ष से जो मंत्री ड्राफ़्ट कमिटी में नामित किए गए हैं, प्रणव दादा को छोड़ सभी विवादित हैं. कोई २-जी स्कैम को घोटाला मानने के लिए ही तैयार नहीं है, तो कोई सी.वी.सी. की नियुक्ति में अपना दामन दागदार कर चुका है. अन्ना हजारे द्वारा नामित पिता-पुत्र भूषण द्वय भी गंभीर आरोपों के घेरे में हैं. शान्ति भूषण ने पिछले वर्ष अपने एक लेख में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय के अबतक के मुख्य न्यायाधिशों में आधे भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायाधीशों को भ्रष्ट बनाने में वकीलों की भूमिका सर्वाधिक होती है. लोवर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अधिकांश वकील दलाली ही करते हैं. शान्तिभूषण और मुलायम सिंह के बीच हुई बतचीत की विवादास्पद सीडी में यदि तनिक भी सच्चाई है, तो मुलायम सिंह के लिए दो करोड़ रुपयों में सुप्रीम कोर्ट के जज को खरीदने का शान्तिभूषण द्वारा दिया गया आश्वासन दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, निन्दनीय भी है. भारत में पुलिस के बाद सर्वाधिक भ्रष्ट पेशा वकिलों का ही है. महात्मा गांधी और डा. राजेन्द्र प्रसाद का युग कब का समाप्त हो चुका है. ये लोग गलत आदमी का मुकदमा हाथ में लेते ही नहीं थे. अब तो पैसे के लिए कोई वकील किसी का भी मुकदमा लड़ सकता है. राम जेठमलानी ने इन्दिरा गांधी के हत्यारे का मुकदमा जी जान से लड़ा था. मुंहमांगी रकम मिलने पर ये लोग दाउद इब्राहीम, कसाब और अफ़ज़ल गुरु के भी वकील बने हैं और आगे भी बन सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश वकील किसी न किसी सामाजिक संगठन से जुड़े हैं. मानवाधिकार के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए दर्ज़नों एनजीओ माओवादियों, आतंकवादियों, भ्रष्टाचारियों और देशद्रोहियों को संरक्षण देते हैं. इनमें धन की भूमिका सर्वाधिक है. वकील जितनी फ़ीस लेते हैं, उसका एक चौथाई भी अपनी घोषित आय में नहीं दिखाते हैं. अगर आप आयकर दाता हैं और अपना रिटर्न वकील के माध्यम से दाखिल करते हैं, तो आपको पता होगा कि आयकर बचाने के कितने अवैध नुस्खे इन वकीलों के पास होते हैं. ये लोग आम जनता को भी कानून में व्याप्त छिद्रों का सहारा लेकर भ्रष्टाचार सिखाते हैं. उत्तर प्रदेश के दो कुख्यात पूर्व मुख्य सचिव अखंड प्रताप सिंह और नीरा यादव भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के तहत गिरफ़्तार किए गए, कुछ दिन इन्होंने जेल में बिताए भी, लेकिन काबिल वकीलों ने इन्हें ज़मानत पर छुड़ा लिया. इनकी अवैध संपत्ति भी ज़ब्त नहीं की गई. ये दोनों अमृतपान करके तो आए नहीं हैं. शेष जीवन ये कदाचार से अर्जित धन के सहारे अपने बन्धु-बान्धवों और बाल-बच्चों के साथ ऐश से बिताएंगें. मरने के बाद सारे मुकदमें अपने आप समाप्त हो जाएंगें.
भारतीय समाज सिर्फ़ सरकारी कानून के अनुसार नहीं चलता है. देश में यह कानून है कि कोई भी व्यक्ति एक पत्नी के जीवित रहते या बिना तलाक लिए दूसरी शादी नहीं कर सकता. इस कानून की धज्जियां उड़ाते हुए करुणानिधि एक मृत और दो जीवित पत्नियों के पति होने के साथ-साथ तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद पर विराजमान हैं. पूर्व केन्द्रीय मंत्री राम विलास पासवान की पहली बिहारी पत्नी अभी जीवित हैं, उनसे पासवान जी का तलाक भी नहीं हुआ है, लेकिन दिल्ली में वे एक और पत्नी रखे हुए हैं. फ़िल्म अभिनेता धर्मेन्द्र ने मज़हब बदलकर हेमा मालिनी से दूसरी शादी की. नैतिकता का दंभ भरनेवाली भाजपा ने दोनों को सांसद बना दिया. औरतों के अधिकारों के लिए झंडा उठाने वाली शबाना आज़मी ने पहली पत्नी के रहते हुए जावेद अख्तर से दूसरी शादी की. प्रगतिशील मंचों ने उन्हें नेता बना दिया. आज भी हमारा समाज अपनी स्थापित मान्यताओं, परंपराओं और सामाजिक व्यवस्थाओं के आधार पर चलता है. अपने देश के आयातित कानून यहां की परिस्थितियों, संस्कृति और मान्यताओं के अनुकूल नहीं हैं, इसीलिए बेअसर हैं. सख्त से सख्त कानून बनाकर भी किसी को चरित्रवान नहीं बनाया जा सकता, नैतिकता अन्तःप्रेरणा से आती है. जिस गीता और कुरान को हिन्दू और मुसलमान पवित्रतम ग्रन्थ मानते हैं, हमारी न्याय प्रणाली ने उसको छूकर आम नागरिकों को झूठ बोलना सिखा दिया है. पहले पाठ्य पुस्तकों में राम, कृष्ण, गौतम, महावीर की कहानियां अवश्य रहा करती थीं, अब धर्मनिरपेक्षता के फ़ैशन ने इन्हें पाठ्य पुस्तकों से अलग कर दिया है. नैतिक शिक्षा के नाम पर छात्रों को ट्रैफ़िक के नियम पढ़ाए जाते हैं. क्या कोई बता सकता है कि कोर्ट में गीता, कुरान और बाइबिल का प्रयोग धर्मनिरपेक्षता की परिधि में आता है, लेकिन इन पवित्र ग्रन्थों में वर्णित नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल कर भारत के भावी नागरिकों को चरित्रवान बनाना, साम्प्रदायिकता की श्रेणी में क्यों आता है? माता-पिता के चरण-स्पर्श करना, बड़ों को सम्मान देना, कर्म को ही पूजा मानना (निष्काम कर्मयोग), सभी के लिए समभाव रखना, अर्थोपार्जन में ईमानदारी, ब्रह्मचर्य और चरित्रबल क्या हिस्ट्री, ज्योग्राफ़ी, फिजिक्स, केमीस्ट्री, इंजीनियरिंग, मेडिकल या प्रबंधन की पुस्तकों से सीखा जा सकता है? धर्म मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाता है. भारत को धर्मनिरपेक्षता की नहीं सर्वधर्म समभाव की आवश्यकता है. हमें इस्लाम की समानता, ईसाइयों का सेवा-भाव, हिन्दुओं की निष्काम कर्मयोग सहित सहिष्णुता और बौद्धों की अहिंसा की एक साथ आवश्यकता है. महात्मा गांधी ने नैतिकता का मूल्य गहराई से समझा था. उनके व्यक्तित्व में जो भी अच्छाइयां थीं, उनका श्रेय वे गीता और रामायण को ही देते थे. रामराज्य उनका अभीष्ट था. उनकी कांग्रेस में अनैतिक व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था. उनके आश्रम की पूरी दिनचर्या कार्यकर्ताओं को सुसंस्कार और धर्म से जोड़ती थी. वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यकर्ताओं में चरित्र-निर्माण का सफल प्रयास कर रहा है. चरित्रवान नागरिक ही भ्रष्टाचारमुक्त सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं. यह सीधा, सरल सूत्र हमारे अन्ना हजारे जी की समझ में जितनी जल्दी आ जाय, उतना ही अच्छा. शुभस्य शीघ्रम.

Tuesday, April 12, 2011

खोदा पहाड़, निकली चुहिया

कपिल सिब्बल और दिग्विजय सिंह, कांग्रेस के ये दो नेता अनर्गल प्रलाप के लिए ही ज्यादा जाने जाते हैं. आम जनता इनकी बातों को गंभीरता से कम ही ग्रहण करती है. लेकिन लोकपाल बिल के संबंध में कपिल सिब्बल का यह कथन कि अगर कोई गरीब बच्चा साधन के अभाव में स्कूल जाने से वंचित रह जाता है, एक गरीब आदमी धन के अभाव में उचित चिकित्सा न मिलने के कारण दम तोड़ देता है, तो ऐसे में लोकपाल बिल क्या उसके किसी काम आ सकता है, अत्यन्त विचारणीय है. अन्ना हज़ारे की इच्छाओं के अनुरूप यदि लोकपाल बिल पास हो जाता है, लागू भी हो जाता है, तो क्या भ्रष्टाचार रुक जाएगा? इस देश में दहेज विरोधी कानून, बलात्कार विरोधी कानून, हत्या विरोधी कानून वर्षों से अस्तित्व में हैं. क्या किसी भी घटना में कोई कमी आई है? अन्ना हजारे को मालूम हो या न हो, लेकिन सभी सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम होगा कि भ्रष्टाचार, कदाचार और वित्तीय अनियमितताओं की जांच के लिए प्रत्येक प्रान्त में महालेखाकार (एकाउन्टेन्ट जेनेरल) की अधिकार प्राप्त आडिट टीमें प्रत्येक विभाग की सभी इकाइयों में हर साल आडिट करती हैं. इन अधिकार प्राप्त टीमों की रिपोर्ट पर सीधी कर्यवाही करना अनिवार्य होता है. लेकिन ये टीमें किस तरह आडिट करती हैं, सबको ज्ञात है. आने के पूर्व ही उनकी आवभगत शुरु हो जाती है. उन्हें स्टेशन से लेना, अच्छे होटल में ठहराना, उनके नाश्ते-खाने-पीने की सर्वोत्तम व्यवस्था करना और आडिट के समय कार्यालय में ड्राई फ्रुट्स, वेट फ्रुट्स, मिठाई, नमकीन और शीतल-उष्ण पेयों की हर पंद्रह मिनट के बाद व्यवस्था करना आडिट कराने वाली इकाई की जिम्मेदारी होती है. आडिट पार्टी रस्मादायगी के लिए कुछ रफ़ नोट्स भी बनाती हैं जिसे डिसकशन के बाद ड्राप भी कर दिया जाता है. चलते चलाते आडिट पार्टी को दक्षिणा के रूप में वापसी के वातानुकूलित क्लास के टिकट के साथ इच्छित धनराशि भेंट में दी जाती है. ये सारे खर्चे किसी अधिकारी या कर्मचारी की ज़ेब से नहीं होते. ये सभी खर्च उस इकाई को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवंटित मद के ओ ऐंड एम (आपरेशन ऐंड मेन्टेनैन्स) के सरकारी पैसे से ही किए जाते हैं. इस तरह हर वर्ष एकाउंटेन्ट जनरल द्वारा आडिट किए जाने की रस्म अदायगी भ्रष्टाचार में एक और नगीना जोड़कर पूरी की जाती है.
जब लेनेवाले और देनेवाले में सहर्ष आपसी सहमति बन जाती है, तो भ्रष्टाचार, सदाचार बन जाता है, परंपरा बन जाती है. कोर्ट-कचहरी, नगरपालिका, अस्पताल, स्कूल, बिजली, जलकल, पुलिस, ब्लाक, जिला मुख्यालय, सचिवालय.............ऐसी कौन सी जगह है जहां अवैध लेन-देन ने दस्तूर का रूप नहीं ले लिया है. टेंडर, ठेकेदारी और सुविधा शुल्क ने कहां पैर नहीं फैलाया है? रेल, खेल, सेल, भेल.................कितने विभागों का नाम गिनाया जाय. किस परीक्षा का प्रश्न-पत्र गोपनीय रह गया है? फ़र्जी पायलट हवाई जहाज उड़ा रहे हैं. मनरेगा ने ग्राम प्रधानों को राजा बना दिया और और सांसद-विधायक निधियों ने जन प्रतिनिधियों को महाराजा. अन्ना हजारे सहब! लोकपाल बिल की ड्राफ़्ट कमिटी में अपने चमचे शान्ति भूषण और उनके बेटे प्रशान्त भूषण को नामित करा देने भर से नेताओं और नौकरशाहों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश लग पाएगा, इसमें संदेह ही संदेह है. देश में दावानल की तरह फैल रही गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा, शोषण, जनसंख्या विस्फोट और कदाचार को दूर करने में यह बिल कितना सार्थक हो पाएगा, क्या इसका उत्तर किसी के पास है?
अन्ना साहब को न भारत की जानकारी है, न भारत की मूल समस्याओं की. इंडिया शाइनिंग के कुछ ग्लैमर पसंद कार्यकर्त्ता, कारपोरेट घरानों से नियंत्रित मीडिया और सरकार की सहयता से चलाया गया आन्दोलन कभी प्रभावकारी नहीं हो सकता. हिन्दुस्तान की असली समस्या यहां पर लागू आयातित संविधान है. हमारी न्याय प्रणाली और इंडियन पेनल कोड आज भी वही है जो अंग्रेजों ने बनाया था. ब्यूरोक्रेसी में आई.सी.एस का नाम बदलकर आई.ए,एस. कर दिया गया, लेकिन मानसिकता और कार्यप्रणाली में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया. शिक्षा के क्षेत्र में हम पहले से ज्यादा गुलाम नज़र आते हैं. अंग्रेजी ने हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं को लील लिया है. अपने देश की संसद की कर्यवाही देखकर ऐसा लगता है जैसे हम इंगलैंड के हाउस आफ़ कामन्स में बैठे हों. जिनको अंग्रेजी नहीं आती है, वे सांसद हाथ उठाने के अलावा पूरे पांच साल तक सदन में एक शब्द भी नहीं बोलते.यह वही संसद है जहां लालू और मुलायम की हिन्दी का अक्सर मज़ाक उड़ाया जाता है. जबतक भारत की बहुसंख्यक जनता की अभिलाषाओं के अनुसार शुद्ध भारतीय संविधान नहीं बनाया जाता, कोई भी बिल निरर्थक सिद्ध होगा. अन्ना साहब! हिम्मत हो तो इस दिशा में कार्य कीजिए. आपका आन्दोलन सरकार के साथ नूरा कुश्ती थी. पूंजीवादी प्रचार तंत्र ने इसे दूसरी आज़ादी का आन्दोलन कहा. ड्राफ़्ट कमिटी में अपने आदमियों को रखवाने की मांग बहुत साफ़्ट डिमांड थी. इसे मान लेने में सरकार को क्या कठिनाई हो सकती थी. आपसे जनता की अपेक्षाएं अचानक बढ़ गई थीं. लेकिन हुआ क्या? खोदा पहाड़, निकली चुहिया. गांधीजी ने सीना ठोककर आज़ादी के बाद स्वदेशी के रास्ते रामराज्य की स्थापना की घोषणा की थी. यह बात दूसरी है कि उनकी असामयिक मृत्यु के बाद उनके मानस पुत्रों ने ही उनके सिद्धान्तों, आदर्शों और व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ा दी. गोड्से ने गांधी के शरीर की हत्या की थी, नेहरू-इन्दिरा परिवार ने उनकी आत्मा की हत्या की है. क्या बिना स्वदेशी और समाजवाद के भारत के उत्थान की कल्पना की जा सकती है, रामराज्य का सपना देखा जा सकता है? खादी के झकझक सफ़ेद कपड़े, और टोपी पहनकर ढाई दिन के अनशन के बाद कोई गांधी या जयप्रकाश नहीं बन सकता, सरकारी सन्त जरुर बन सकता है.

Wednesday, April 6, 2011

हम विश्वव-विजेता हैं

वर्षों बाद एक परिणाम जिसने सभी भारतीयों को एक साथ एक बहुत बड़ी खुशी का तोहफ़ा दिया, वह था क्रिकेट का वर्ल्ड कप. चाहे कितने भी राजनीतिक मतभेद रहे हों, कितनी भी क्षेत्रीयता रही हो, कितनी भी भाषाएं रही हों, आपस में कितनी भी प्रतिद्वंद्विता रही हो, सारे भारतवासी विगत शनिवार, दो, अप्रिल की रात में नींद को त्याग झूम रहे थे - एक साथ, एक ही समय, एक ही मस्ती में. कभी-कभी शक होने लगता है कि विविधताओं का यह देश वाकई एक राष्ट्र है भी क्या? क्रिकेट को देखकर विश्वास दृढ़ हो जाता है कि यह एक अति प्राचीन राष्ट्र है और रहेगा भी. क्रिकेट है तो फ़िरंगियों का खेल, जिन्होंने हमारी राष्ट्रीयता को खंडित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें सपने में भी यह आभास नहीं रहा होगा कि अंग्रेजियत का ध्वजवाहक यह खेल ही भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में सबसे सहायक सिद्ध होगा. आज यह खेल भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक बन चुका है.
भारत में क्रिकेट ने एक लंबी यात्रा तय की है. शुरु में यह राजे-रजवाड़ों और अंग्रेजीपरस्त अमीरज़ादों का ही खेल था. आम जनता न इसे खेलती थी, न देखती थी और न सुनती ही थी. १९६९ तक इसकी कमेन्ट्री सिर्फ़ अंग्रेजी में की जाती थी. नवाब पटौदी (जूनियर) तक यह खेल उच्च वर्ग के भी सर्वोच्च वर्ग तक ही सीमित था. टीम में शामिल खिलाड़ी सिर्फ़ टेस्ट मैच में ही मिलते थे, पांच दिनों के लिए. फिर अलग हो जाते थे. टेस्ट मैच भी हर वर्ष नहीं हुआ करते थे. कप्तान खिलाड़ियों के साथ रहना पसंद नहीं करता था. नवाब पटौदी अपनी कप्तानी के दौरान टास के कुछ घंटे पूर्व विशेष विमान से आते थे, शेष खिलाड़ी ट्रेन से. वे अन्य खिलाड़ियों से अलग किसी पंचसितारा होटल में रुकते थे. सभी खिलाड़ी अपना-अपना खेल खेलते थे. चयन में क्षेत्रीयता और पूर्वाग्रह का बोलबाला था. बिहार और यू.पी. का खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने के विषय में सोच भी नहीं सकता था. बिहार की ओर से ढेरों रण्जी ट्राफ़ी के मैच खेलने वाले, कई राष्ट्रीय रिकार्ड अपने नाम करने वाले अद्वितीय प्रतिभाशाली बल्लेबाज़ रमेश सक्सेना को मात्र एक टेस्ट मैच में अवसर दिया गया. रण्जी ट्राफ़ी में में वे लगातार डबल सेन्चुरी और ट्रीपल सेण्चुरी बनाते रहे लेकिन उन्हें दूध की मक्खी की तरह हमेशा की तरह राष्ट्रीय टीम से बाहर कर दिया गया. विख्यात लेग स्पिनर और गुगली विशेषज्ञ आनन्द शुक्ला राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने के लिए जीवन भर तरसते ही रहे. अनगिनत हिन्दी भाषी खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट के दरवाज़े पर दस्तक देते-देते बूढ़े हो गए लेकिन बंबई के एकाधिकार वाला क्रिकेट बोर्ड उनकी पुकार अनसुनी करता रहा. १९७० में सामन्तवादी दीवारें कमजोर पड़ीं. वाडेकर के नेतृत्व में गावास्कर के उदय ने भारत को जीत का स्वाद चखाया. हरियाणा के अनगढ़ देहाती जाट कपिल ने जिसे अच्छी तरह अंग्रेजी बोलना भी नहीं आता था, १९८३ में जब सात समुन्दर पार लंदन के लार्ड्स स्टेडियम में विश्व-विजेता वेस्ट इंडीज को हराकर क्रिकेट का विश्व कप भारत के नाम किया, तब भारतियों को पहली बार यह एहसास हुआ कि वे भी क्रिकेट खेल सकते हैं. गांव के बढ़ई से बल्ला बनवाकर, रबर की गेंद से गांव के किशोर आम के बगीचे में क्रिकेट खेलने लगे. क्रिकेट आम जनता का खेल बन गया. अगर यह राजे-रजवाड़ों और अंग्रेजियत में सीमित रहता, तो विश्व कप हमारे लिए सपना ही होता. क्या रांची के हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन के पंप आपरेटर पान सिंह का बेटा महेन्द्र सिंह धोनी टीम इंडिया का कप्तान बनने का सपना देख सकता था? क्या एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का छोटा किशोर सचिन तेन्दूलकर विश्व क्रिकेट का सिरमौर बन सकता था?
क्रिकेट आज आम जनता का सबसे लोकप्रिय खेल बन चुका है. परिणाम समने है - भारत संसार में नंबर एक है. टेस्ट क्रिकेट, एक दिवसीय और टी-२० - सबकी चैंपियनशीप हमारे पास है. हम विश्व विजेता हैं. भारत के सभी प्रान्तों, सभी संप्रदाय, सभी भाषाओं और सभी नागरिकों को इसने एक सूत्र में पिरो दिया है. धोनी और तेन्दूलकर सबके प्यारे हैं, चाहे वे कांग्रेसी हों, भाजपाई हों, मार्क्सवादी हों, ममताई हों. बड़े धैर्य के साथ यह सीमा के पार भी शान्ति और भाईचारे का प्रभावी संदेश प्रेषित कर रहा है. पत्थर पिघलने लगे हैं.
राजनीति तोड़ती है, पूरब को पच्छिम से,
क्रिकेट है जोड़ती, उत्तर को दक्खिन से.