Wednesday, October 30, 2013

अगर यह ब्लास्ट अहमदाबाद में होता

  कल्पना कीजिये कि दिनांक २७-१०-१३ को नरेन्द्र मोदी की पटना रैली के दौरान गांधी मैदान और पटना रेलवे स्टेशन पर हुए सिरियल बम ब्लास्ट जैसे बम ब्लास्ट राहुल गांधी की अहमदाबाद की रैली में हुए होते? देश-विदेश, सरकार, मीडिया, स्वघोषित सेकुलर, जातिवादी और वंशवादी पार्टियों की क्या प्रतिक्रिया होती? क्या नरेन्द्र मोदी वैसे विस्फोट के बाद एक दिन भी सत्ता में रह पाते? इन छद्म सेकुलरिस्टों ने बवाल मचा कर उन्हें कब का पदच्युत कर दिया होता। याद कीजिये - राम-मन्दिर - बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा था उत्तर प्रदेश में और कांग्रेसियों ने बर्खास्त की थीं राजस्थान, मध्यप्रदेश और हिमाचल की भाजपा की सरकारें। ऐसा लोकतंत्र और ऐसी संसदीय प्रणाली सिर्फ भारत में संभव है।
      देश की सबसे बड़ी और चुस्त सुरक्षा व्यवस्था का उपयोग करने वाले राजवंशी परिवार के राहुल गांधी कहते हैं कि इन लोगों ने मेरी दादी को मार डाला, मेरे पिता को मार डाला और अब मेरी जान के पीछे पड़े हैं। अपनी जान को खतरे में बताकर वे जनता से सहानुभूति की उम्मीद रखते हैं। अगले चुनाव में कांग्रेस के पास जनता से कहने के लिये है ही क्या? इस पार्टी ने सदा जनता की भावनाओं का दोहन किया है और दी है देश विभाजन की त्रासदी, कश्मीर की समस्या, चीन के हाथों शर्मनाक पराजय, विभाजन और उसके बाद के दंगों में लक्ष-लक्ष जनता कत्लेआम, १९८४ में सिक्खों का सामूहिक नरसंहार, गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी और समाज का विभाजन। आज जब नरेन्द्र मोदी कांग्रेस के कुकृत्यों का जवाब मांग रहे हैं, तो बौखलाए राजनेता षडयंत्र पर उतर आये हैं।
      नरेन्द्र मोदी की पटना की रैली के दौरान हुए बम-विस्फोट सुनियोजित थे। यहश विस्फोट नीतीश और कांग्रेस की युगलबन्दी का सीधा परिणाम था। नरेन्द्र मोदी को हमेशा के लिये मिटा देने की साज़िश थी। देश की राजनीति को इन छद्म सेकुलरिस्टों ने उस अंधेरी गली में ढकेल दिया है जहां सहिष्णुता का स्थान व्यक्तिगत घृणा ने ले लिया है। इन फ़ासिस्ट ताकतों को हिन्दुस्तान से कोई प्यार नहीं। इन्हें सिर्फ़ सत्ता चाहिये, चाहे वह नरेन्द्र मोदी की हत्या के मार्फ़त आये, आई.एस.आई. से हाथ मिलाकर आये, नक्सलवाद से आये, जातिवाद फैलाकर आये या जनता के भावनात्मक शोषण से आये।

      पटना में बम-विस्फोट होता है और देश का गृह-मंत्री मुम्बई में फिल्मी शो करता है। राहुल, सोनिया और प्रधानमंत्री संवेदना के दो बोल नहीं बोलते हैं। ओसमा बिन लादेन की मौत पर भी आंसू बहाने वाली मीडिया सलाह दे रही है कि मोदी को ब्लास्ट के बाद रैली नहीं करनी चाहिए थी। नीतीश ने तो कृतघ्नता की हद कर दी। अगर भाजपा का सहयोग नहीं मिला होता तो वे कभी भी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। लेकिन नरेन्द्र मोदी से व्यक्तिगत द्वेष उन्हें नीचता की इस हद तक ले जा सकता है, इसकी कल्पना नहीं थी। मोदी की अत्यन्त सफल रैलियों से आक्रान्त कोई आईएसआई और कांग्रेस से इतना घृणित समझौता कैसे कर सकता है? लालू ने आडवानी को सम्मान जनक ढंग से सिर्फ़ गिरफ़्तार किया था, जान से मारने की साज़िश नहीं रची थी। नीतीश लालू से कई योजन आगे निकल गये। केन्द्र और खुफ़िया एजेन्सियों की हिदायतों के बाद भी इरादतन लापरवाही बरती गई। बिहार सरकार का यह अपराध अक्षम्य है। इसका फ़ैसला जनता की अदालत में ही हो सकता है और वह दिन भी अब ज्यादा दूर नहीं। पटना में विस्फोट कराकर केन्द्र सरकार यू.पी और अन्य राज्यों की छद्म सेकुलरिस्ट सरकारों को यह संदेश भी देना चाहती है कि सुरक्षा, दंगों और शान्ति-व्यवस्था के नाम पर नरेन्द्र मोदी की होनेवाली रैलियां रोक दी जांय। कुछ भी कर सकती हैं ये स्वार्थी सरकारें, लेकिन जनता का मन नहीं बदल सकतीं। लोकनायक जय प्रकाश नारायण के बाद हिन्दुस्तान ने पहली बार नरेन्द्र मोदी के रूप में एक जन-नायक पाया है। उसे कई जयचन्द, कई मिरज़ाफ़र और कई पप्पू भी एक साथ मिलकर नहीं रोक सकते।

Friday, October 25, 2013

एक थे मन्ना डे

      कौन कहता है कि मन्ना डे अब नहीं रहे? उनकी सुरीली आवाज़ फ़िजाओं में अनन्त काल तक तैरती रहेगी। बेशक उन्हें उनके समकालीन गायक मुकेश, मो. रफ़ी और किशोर की तरह लोकप्रियता नहीं मिल पाई, लेकिन उनका क्लास और उनकी गायकी हर दृष्टि से अपने समकालीनों से बेहतर थी। मन्ना डे मुकेश, रफ़ी, किशोर या महेन्द्र कपूर के सारे गाने उतनी ही दक्षता से गा सकते थे, लेकिन कोई भी गायक मन्ना डे की तरह नहीं गा सकता था। मो. रफ़ी ने अपने जीवन-काल में ही अपने प्रशंसकों से कहा था - आप लोग मुझे सुनते हैं लेकिन मैं सिर्फ़ मन्ना डे को सुनता हूं। १९५० से १९७० के बीच की अवधि को संगीत की दृष्टि से हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण-युग कहा जाता है। इस कालखंड में मुकेश, रफ़ी, महेन्द्र कपूर और मन्ना डे की चार ‘एम’ की चौकड़ी ने अपनी-अपनी विधाओं से हिन्दी गीतों को हिमालय जैसी ऊंचाई प्रदान की। आज की तिथि में चारों ‘एम’ खामोश हैं, परन्तु उनकी सुरीली आवाज़ें सदियों-सदियों तक संगीत प्रेमियों को चरम आनन्द प्रदान करती रहेंगी।
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं ऐसे लोग इस ज़माने में,
लगेंगी सदियां हमें आपको भुलाने में। 
मन्ना डे एक उच्चस्तरीय गायक थे। उनकी प्रतिभा को बहुत कम संगीतकारों ने पहचाना। श्रोता वर्ग भी उन्हें चरित्र नायकों, बुढ़े फ़कीर या कामेडियनों के गायक मानते थे। इस भ्रम को राज कपूर ने फ़िल्म श्री ४२० के माध्यम से तोड़ा। उन्होंने मन्ना दा का स्वर लिया और अविस्मरणीय़ गीत गवाया - प्यार हुआ इकरार हुआ .... दिल का हाल सुने दिलवाला। ये गाने मुकेश द्वारा गाये गये गीत, मेरा जूता है जापानी....से कम लोकप्रिय नहीं हुए। राजकपूर ने अपनी फिल्म ‘चोरी-चोरी’ के सारे गीत मन्ना डे से ही गवाए और सारे गीत मील के पत्थर बन गये। ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम.......जहां भी जाती हूं वही चले आते हो - लता के साथ गाये इन युगल गीतों को कौन संगीत प्रेमी भूल सकता है? राज कपूर को प्रतिभा की सही पहचान थी। अगर उनका साथ नहीं मिला होता तो शायद मुकेश भी फिल्मी भेंड़चाल के शिकार हो गये होते। राजकपूर को मन्ना डे और मुकेश पर बहुत भरोसा था। नायक के रूप में अपनी अन्तिम फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में उन्होंने मन्ना डे की आवाज़ में जो गीत - ऐ भाई ज़रा देख के चलो........गाया था, वह अविस्मरणीय बन गया।
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछ्ड़े चमन...सुर ना सजे क्या गाऊं मैं.........कसमें वादे प्यार वफ़ा सब........यारी है ईमान मेरा.......लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे.... मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा.....चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया................नदिया बहे, बहे रे धारा......ज़िन्दगी कैसी है पहेली.............कितने गानों का मुखड़ा लिखें इस लेख में? मन्ना डे ने ३५०० से अधिक गाने गाये और सबके सब बेमिसाल।
मन्ना डे का जन्म १ मई १९१९ को कोलकाता में हुआ था। उस समय के प्रख्यात गायक के.सी.डे उनके चाचा थे। उन्हीं की प्रेरणा से मन्ना डे हिन्दी फिल्म जगत में आये। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उन्हे भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ और पद्मभूषण’ से सम्मानित किया उन्हें फिल्म जगत में अपने अद्वितीय योगदान के लिए सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया। देर से ही सही मन्ना डे के साथ न्याय हुआ। उनके गायन में सागर सी गहराई थी।
प्यार के एक सागर में जब ज़िन्दगी किसी को एक पहेली लगती हो, तो दूर से आती है एक आवाज़ - आंधी कभी, तूफान कभी, कभी मजधार! जीत है उसी की, जिसने मानी नहीं हार। तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम। वह आवाज़ खामोश हो गई है। मन्ना डे नहीं रहे। विश्वास नहीं होता। संगीत का एक सफर अपनी सदी को छूने से पहले ठहर सा गया। फिर भी दुनिया भर में संगीत के करोड़ों प्रेमी उन्हें उनके गाये गीतों के जरिए अपने करीब महसूस करते रहेंगे। हिन्दी सिनेमा में मुश्किल गीतों की जब भी बारी आयेगी, मन्ना डे याद आयेंगे।

Sunday, October 20, 2013

प्रवक्ता.काम, एक हिन्दी पोर्टल ही नहीं, आन्दोलन है

        असफलताओं से निराश न होना, यह एक अद्भुत स्वभाव है जो विरले लोगों को ही प्राप्त होता है। यह भी सत्य है कि संघर्ष ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान करता है, लेकिन पूर्णता प्राप्त करने के पूर्व ही अधिकांश टूट भी जाते हैं। ऐसे अनगिनत साहित्यकार हैं जो आजकल के सुविधाभोगी साहित्यकारों की मठाधीशी के शिकार होकर गुमनामी के अन्धेरे में सदा के किए गुम हो गए। इन गुम होनेवाले लेखकों में मेरा भी नाम जुड़ने ही वाला था कि प्रवक्ता.काम का न्यू मिडिया में आविर्भाव हुआ। मैं बच गया। प्रवक्ता और संजीव सिन्हा को इस कार्य के लिए हार्दिक धन्यवाद।
      मैंने अबतक जितनी रचनाएं लिखी हैं उनमें से दो को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति मानता हूं। पहली कृति है - ‘दिदिया’। मेरे गांव में वे पैदा हुई थीं और रिश्ते में मेरी चचेरी बहन लगती थीं। वे एक महान स्वतंत्रता सेनानी थीं। आज़ादी के लिए कई बार जेल गई थीं। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रमुख नेता थीं जिसे  महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डा. राजेन्द्र प्रसाद और जय प्रकाश नारायण जैसी विभूतियां न सिर्फ जानती थीं, बल्कि सम्मान भी करती थीं। देश के बंटवारे के बाद उन्होंने व्यथित होकर कांग्रेस छोड़ दी और जय प्रकाश नारायण की प्रजा पार्टी में शामिल हो गईं। महाराज गंज संसदीय क्षेत्र से १९५२ का चुनाव भी लड़ा उन्होंने। उस समय प्रत्येक उम्मीदवार की पेटी अलग-अलग हुआ करती थी। मतदाता अपनी पसन्द के उम्मीदवार की पेटी में अपना मत डालता था। वे हर जगह से लीड कर रही थीं। सरकार और कांग्रेसियों को यह स्वीकार नहीं था। गणना के समय उनकी मतपेटी के मत निकालकर कांग्रेसी उम्मीदवार की मतपेटी में डाल दिए गए। वे मात्र तीन हजार मतों के अन्तर से चुनाव हार गईं। चुनाव आयोग से शिकायत भी की गई, लेकिन असफलता ही हाथ लगी। बिहार के तात्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ़ जाने की हिम्मत किसमें थी? चुनाव के बाद जय प्रकाश नारायण ने राजनीति से संन्यास ले लिया। साथ में दिदिया जिनका असली नाम श्रीमती तारा रानी श्रीवास्तव था, ने भी संन्यास ग्रहण कर लिया। उनका शेष जीवन हिन्दी साहित्य और स्त्री-शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बीता। उनके पति श्री फुलेना प्रसाद भी बिहार कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेता थे। १६ अगस्त, १९४२ को ‘करो या मरो’ आन्दोलन के दौरान महाराज गंज के थाने पर कब्जा करके तिरंगा फहराते हुए अंग्रेजों की बर्बरता के शिकार हुए। उन्हें सामने से गोली मारी गई और वे आठ गोली खाने के बाद थाना परिसर में ही शहीद हो गए। आज भी बिहार के महाराज गंज तहसील के मुख्य बाज़ार में प्रवेश करते ही लाल रंग का एक स्तंभ दिखाई पड़ता है। यह अमर शहीद फुलेना प्रसाद का ही स्मारक है। मैंने अपनी रचना में दिदिया के जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया था। जिसने भी पढ़ा, प्रशंसा की। मैंने उसे प्रकाशन के लिए हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कादम्बिनी’ में पंजीकृत डाक से भेजा। संपादक का उत्तर विलक्षण था। उन्होंने रचना वापस करते हुए टिप्पणी दी थी “आपकी रचना उत्कृष्ट है, लेकिन लंबी है। कहां छापूं?” कई वर्षों के बाद यह रचना मेरे कहानी संग्रह - ‘फ़ैसला’ में छपी।
      कई वर्षों के शोध के बाद मैंने एक और रचना लिखी - ‘राम ने सीता का परित्याग कभी किया ही नहीं’। इस रचना को भी छापने के लिए कोई पत्रिका तैयार नहीं हुई। मैंने अपने खर्च पर इसे एक पुस्तक के रूप में छपवाया और निःशुल्क बांटा। इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। मुझे प्रसन्नता है कि इस रचना को काशी के विद्वानों के अलावे देश भर के राम-भक्तों का प्रोत्साहन मिला। आधुनिक तुलसी श्रद्धेय मुरारी बापू ने इसे अपने प्रवचन में भी शामिल कर लिया। परन्तु प्रिन्ट मिडिया के मठाधीशों ने इसे छापकर मुझे कभी उपकृत नहीं किया।
      प्रवक्ता.काम के उदय के बाद मैंने प्रिन्ट मिडिया की ओर झांकना भी बन्द कर दिया। इस हिन्दी पोर्टल से मेरा परिचय महाभारत पर आधारित मेरे प्रथम उपन्यास ‘कहो कौन्तेय’ के माध्यम से हुआ। संजीव सिन्हा ने लगातार ९० दिनों तक लगभग प्रत्येक दिन इसका प्रकाशन किया। ९० अंकों में यह रचना प्रकाशित हुई। मुझे अब कुछ लोग जानने लगे थे। लेकिन प्रवक्ता पुरस्कार की कल्पना तो मैंने कभी की ही नहीं थी। मैं पुरस्कार की आशा से कभी लिखता भी नहीं। प्रवक्ता.काम और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने देश-विदेश के १६ श्रेष्ठ लेखकों को न्यू मिडिया में लेखन के लिए दिनांक १८ अक्टूबर को दिल्ली में सम्मानित किया। सूची में मेरा नाम भी था और मैंने स्वयं यह सम्मान ग्रहण किया। मेरे लिए यह सम्मान भारत-रत्न से कम नहीं है।
      कार्यक्रम में कन्स्टीचुशन क्लब का स्पीकर हाल पूरी तरह भरा था। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि कार्यक्रम में किसी राजनेता को नहीं बुलाया गया था। साहित्य मर्मज्ञ और शिखर के पत्रकारों की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।
      इस अत्यन्त सफल आयोजन के लिए प्रवक्ता.काम के संपादक संजीव सिन्हा और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति एवं निदेशक बधाई के पात्र हैं। प्रवक्ता.काम मात्र एक पोर्टल नहीं है बल्कि न्यू मिडिया द्वारा इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मिडिया की मठाधीशी को तोड़ने के लिए प्रभावशाली आन्दोलन है। यह एक शुरुआत है। आगे दूर, बहुत दूर तक जाना है। मैं अपनी समस्त शुभकामनाएं अर्पित करता हूं।


Thursday, October 10, 2013

एक पाती - लालू भाई के नाम


      आदरणीय लालू भाई,
            जै राम जी की।
            हम इहां राजी-खुशी से हैं। उम्मीद करते हैं कि आप भी रांची जेल में ठीकेठाक होंगें। ई सी.बी.आई का जजवा बउरा गया था क्या? ई बात उसका दिमाग में काहे नहीं घुसा कि आदमी जानवर का चारा कैसे खा सकता है? जानवर आदमी का चारा हज़म कर सकता है। गऊ माता को रोटी खिलाओ, वह खा लेगी, दाल पिलाओ - दूध बढ़ा देगी, लेकिन आदमी कैसे भूसा और पुआल खा सकता है? जब हमारे जैसा आर्डिनरी आदमी भी यह बात जानता है, तो जज के समझ में ई बतिया काहे नहीं आई? आप सोनिया भौजी को रंग-अबीर लगाते रह गए, वह मौका पाते ही ऐसा दाव मारी की आप परुआ बैल की तरह चारो खाने चित्त हो गए। देखिए जिसको बचाना था, उसको साफ बचा लिया। तनिको रेप नहीं आया। मायावती बहिन और मुलायम चाचा ने का कम पैसा कमाया था? इधर सीबीआई का जज आपको फंसा रहा था आ उधर वही सीबीआई बहिनजी और चाचा को क्लीन चिट दे रहा था। ई सब काम नीतिश भाई का है। वह आजकल दिल्ली दरबार का बहुत चक्कर लगा रहा है। उसका भी वही होगा जो आपका हुआ। काम निकल जाने के बाद ई जमाना में कवन किसको पूछता है!
      एक बात आपको बताना हम उचित समझते हैं। आप भी कहीं कहने मत लगिएगा कि जान न पहचान, एतना लंबा चिठ्ठी कौन लिख दिया? सो, परिचय बताना जरुरी है। हमारा आपका जन्म एके जिला में हुआ है। हम दोनों गंजी हैं - आप गो्पालगंजी हैं हम महराजगंजी हैं। जब आप पटना यूनिवरसिटी की राजनीति कर रहे थे, तो हम बीएचयू की छात्र राजनीति में सक्रिय थे। उस समय हिन्दुस्तान के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में आरएसएस वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और समाजवादी युवजन सभा में छात्र संघ को कब्जा करने के लिये गलाकाट मुकाबला हुआ करता था। बीएचयू में तो दोनों युवा संगठनों के नेता और कार्यकर्त्ता एक दूसरे के खिलाफ़ साल भर बाहें चढ़ाए रहते थे। आपस में समझौते की कभी गुंजायश ही नहीं रहती थी। लेकिन आपने गज़ब का काम किया। पटना यूनि्वर्सिटी का अध्यक्ष बनने के लिए आपने एसवाईएस का आरएसएस से समझौता करा दिया। विद्यार्थी परिषद वाले तैयारे नहीं हो रहे थे। आपने नानाजी देशमुख और गोविन्दाचार्य से उन्हें खूब डांट खिलवाई। अन्त में समझौता हुआ। आप अध्यक्ष पद के संयुक्त उम्मीदवार बने, सुशील मोदी महासचिव और रवि शंकर प्रसाद सह-सचिव के उम्मीदवार बने। कांग्रेस और कम्युनिस्ट गठबंधन के खिलाफ़ आप लोगों ने शानदार जीत हासिल की थी। जेपी आन्दोलन में भी आप तीनों कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे।  तब आप मेरे भी हीरो थे। लेकिन बुरा हो इस वोटतंत्र का! अल्पसंख्यक वोट के लिए आपने क्या नहीं किया! टोपी पहने, नमाज़ पढ़े, ज़कात दिये, रोज़ा इफ़्तार किये और आडवानी बाबा को गिरफ़्तार भी किए। लेकिन सोनिया भौजी की तरह यह कौम भी आपके साथ बेवफ़ाई कर गई। नीतिशवा का ज़ालीदार टोपी पहनना ढेर कारगर रहा। वह आपसे तेज निकला। आपका सब वोट-बैंक हड़प गया। पिछड़ों में अति पिछड़ा बनाया, दलितों में अति दलित तो मुसलमानों में पश्मान्दा मुसलमान बना डाला। दो  चुनावों में तो आपको चित्त कर ही दिया। अगर आपको भी  लोक सभा की २५ सीट मिली होती, तो किस सीबीआई की मजाल थी कि आपसे पूछताछ भी कर सके।
      ये पत्रकार भी बेपेंदी के लोटे होते हैं। हमेशा उगते सूरज  को ही प्रनामापाती करते हैं। कभी ये सब आपको मैनेजमेन्ट गुरु कहते थे, किंग मेकर कहते थे, धरती का बेटा कहते थे। आप थे भी। अनपढ़ रबड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया, देवगोड़ा को प्रधानमंत्री बना दिया, गुजराल तो गुज़रे ज़माने की बात बन चुके थे। मनमोहन की तरह उन्होंने कभी सपने में भी सोचा था क्या कि वे पीएम बन जायेंगे? आप ने बना दिया। लेकिन आजकल के पत्रकार और कार्टूनिस्ट बहुत मज़ा ले रहे हैं। आपका फोटो मुंह में चारा दबाये और चक्की पीसते हुए छाप रहे हैं। मुकेशजी ठीके गा गये हैं - है मतलब की दुनिया सारी, यहां कोई किसी का यार नहीं, किसी को सच्चा प्यार नहीं।
      तेजस्वी को  आपने काजू-किशमिश-बादाम-अखरोट खाने वाली गायों का दूध पिला-पिलाकर बड़ा तो कर दिया है, लेकिन वह पार्टी संभाल पायेगा, कहना मुश्किल है। मीसा यह काम कर सकती है लेकिन रबड़ी उससे डरती हैं। वह आयेगी तो तेजस्वी का तेज डाउन हो जायेगा। सोनिया भौजी की तरह उसको भी पुत्र-मोह है। आरे बाडी लैंगवेज भी कवनो चीज होता है कि नहीं। प्रियंका में इन्दिरा जी का लूक है लेकिन भौजी को पप्पू ही पसंद है - भले ही वह कागज़ फाड़े या संविधान फाड़े। इधर सुनने में आया कि साधु यादव फिर से आपके घर का चक्कर लगा रहा है। आंख में तो वह तभी खटक गया था जब वह आपके बच्चों और भाइयों के साथ मिलकर आपकी इच्छा के विरुद्ध अपनी बहन को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था। आप तो कान्ति सिंह को डमी सीएम बनाना चाहते थे। सुन्दरी कान्ति कान्तिहीन रह गई। रबड़ी को सीएम बनाना आपकी मज़बूरी बन गई। नहीं बनाते तो सधुइया उसको लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग तक जाता, आसाराम बापू के माफ़िक मुकदमा दर्ज़ कराता और जेल की चक्की जरुर पिसवा देता। आपने उसे बाहर का रास्ता दिखाया तो कांग्रेस में चला गया, फिर  नमो से मिलने अहमदाबाद गया। अब फिर बहिना-बहिना कहके रबड़ी के आगे-पीछे घूम रहा है। अब का बतायें - युगों-युगों से हर मेहरारू का अपने भाई और नैहर से प्रेम अपने शौहर से ज्यादा रहा है। कहावत भी है कि मैके का कुत्ता भी प्यारा होता है। द्वापर के युग में शकुनि गांधार से आकर हस्तिनापुर में बैठ गया। धृतराष्ट्र तो जन्मजात अंधे थे, गांधारी की आंख पर भी पट्टी बंधवा दिया। युधिष्ठिर को जुआ खिलाया, द्रौपदी का चीरहरण करवाया, महाभारत का युद्ध कराया; अपने तो मरा ही, सौ भांजों को भी ले डूबा। गांधारी को तब भी चेत नहीं आया। उनकी नज़र में श्रीकृष्ण ही अपराधी थे। उन्हीं को शाप दे डाला। यह परंपरा तब से चली आ रही है। भाई के लिए हिन्दुस्तान की हर औरत गांधारी बन जाती है।
      ढेर बतकही है लिखने के लिए, लेकिन केतना लिखें? कुछ बात अगली चिठियो में भी रहना चाहिये। इहां सब मज़े है। आप तो हरफनमौला हैं। जेलवो में समय बढ़िया से काट लेते होंगे। हां, सुना है कि वहां कैदियों को आप राजनीति पढ़ा रहे हैं। भगवान के वास्ते और बिहार के वास्ते ऐसा काम मत कीजिएगा। जब ये सारे कैदी आपसे राजनीति की शिक्षा पाकर सज़ा पूरी करने के बाद बाहर निकलेंगे, तो बिहार में क्या बचेगा? आपके राज में तो किडनैपिंग के डर से हम गांव आना भी छोड़ दिये थे। नीतिश भाई के आने के बाद बड़ी मुश्किल से गांव से संबन्ध बना पाए हैं - वह भी खटाई में पड़ जायेगा। हम तो मरद आदमी हैं, कोई ठिकाना ढूंढ़ ही लेंगे, लेकिन गाय गोरू का क्या होगा। बिहार में हरी घास का एक तिनका भी बच पाएगा क्या? गाय-गोरू या तो यूपी-बंगाल की राह पकड़ेंगे या फिर बांग्ला देश के कसाईखानों की। अब सीताराम-सीताराम जपने का समय आ गया है। आप वहां यही जपें, अगले जनम में तो कम से कम कल्याण हो ही जाएगा।  भैया, अब चिट्ठी बंद कर रहे हैं। थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना।
                                                                                                                                                आपका ही
                                                    विनोद बिहारी

      

Thursday, October 3, 2013

नीड़

तिनके, पत्ते थे साथ चुने
धागे थे अरमानों के बुने
हल्का झोंका भी सह न सका
सूखे पत्तों सा बिखर गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

हमने, तुमने मिलकर जिसकी
रचना की थी अपने खूं से
सपना ही कहें तो अच्छा है
जब आंख खुली तो सिहर गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

गलती मेरी या हवा की थी
मौसम की थी या ज़माने की
क्या भूलूं किसको याद करूं
किस गली-मोड़ से गुज़र गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

सोचा था उसका साथ है जब
कुदरत की है छाया मुझपर
अब थके पैर हैं दिशाहीन
न आये समझ मैं किधर गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

कोई एक कदम चलकर भागा
कोई दो पग चलकर रूठ गया
तेरे जाने के बाद प्रिये
अपना भी हमसे बिछड़ गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।