Friday, March 22, 2013

एक पाती सोनिया भौजी के नाम


होली के अवसर पर विशेष -
आदरणीय भौजी,
सादर परनाम!
आगे समाचार है कि महिला सुरक्षा बिल के दोनों सदनों में पास हो जाने पर पूरे मुलुक की औरतें खुश हैं और मर्द छाती पीट रहे हैं; औरतें आपकी शुक्रगुजार हो गई हैं और मर्द हाय-हाय कर रहे हैं। औरतों को देखना और ताक-झांक करना अब संगीन जुर्म बन गया है। पीछा करना तो गैर जमानती हो गया है। आप इसका इस्तेमाल करके नरेन्दर मोदी को काहे नहीं आरेस्ट करा देती है? बहुत बहकी-बहकी बातें करता है। आपकी तरफ से  एक एफ़.आई.आर. दर्ज़ होते ही औकात ठिकाने आ जाएगी। जेल तो जायेंगे ही, कही मुंह दिखाने के काबिल भी नहीं रह जाएंगे। न रहेगा बांस न बजेगी बंसुरी। उनके बिना भाजपा बिना दुल्हे की बारात है। अगर वह पट्ठा तिहाड़ जेल में बंद हो गया तो २०१४ के चुनाव में राहुल बबुआ को चुनौती देने वाला कोई बचेगा ही नहीं। पूरा मैदान साफ। वह कुंआरा भी है। सेक्स संबन्धी आरोप उसपर फेविकोल के माफिक चिपक जाएगा। यह कानून बहुते बढ़िया है। सारी खुराफ़ात तो मर्द ही करते हैं। अब आएगा मज़ा। अब घूमें ज़रा आज़ादी से बाज़ार मे। आगे भी औरत, पीछे भी औरत। पहली बार पीछा करने के ज़ुर्म में जैसे-तैसे बच भी गए लेकिन दूसरी बार में? सीधे जेल, ज़मानत भी नहीं होगी। पहले औरतें मर्दों के डर से बाहर नहीं निकलती थीं; अब बैठें मर्द घर के अंदर। जैसी करनी, वैसी भरनी। पुरानी फिल्म ‘नज़राना’ में एक युगल गीत है -
मेरे पीछे एक दीवाना, कुछ अलबेला मस्ताना .........
इस गाने को गाया था मुकेश और आशा भोंसले ने और पर्दे पर जीवन्त किया था राज कपूर तथा वैजन्ती माला ने। शुक्र है कि मुकेश और राज कपूर स्वर्ग सिधार चुके हैं, वरना निश्चित रूप से वे आज जेल में होते।
करुनानिधि का बेटा...... क्या नाम है उसका? स्टालिन। हां, स्टालिन ही नाम है। करुनानिधियो को कोई नाम नहीं मिला क्या? उसका नाम हिटलरे रख देता, तो क्या कोई हरज था? जैसा नाम, वैसा काम। समर्थन वापस लेने चले थे, बुढ़ऊ। सी.बी.आई से छापा डलवाकर अच्छा काम किया। मारे मेहरी, डरे पड़ोसी। मुलायम और मायावती के लिए भी यह बढ़िया संदेश है। समर्थन वापसी की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी।
एक काम आपने और अच्छा किया है। केरल के मछुआरे किसी को कुछ समझते ही नहीं। इटली के पानी के जहाज के पास चले गए। अंग्रेज इस देश से चले गए तो इसका इ मतलब तो नहीं है कि ऐरे-गैरे, भूरे-काले, नंगे-अधनंगे हिन्दुस्तानी गोरी चमड़ी का लिहाजे छोड़ दें। गई न दो की जान। अब देखिए न, गली-मुहल्ला, सड़क-चौराहा, चाय-पान की दूकान - सब जगह लोग कह रहे हैं कि आप ने ही हत्या के आरोपी उन उन दोनों को इटली भगा दिया। इसके पहले बोफ़ोर्स-दलाल क्वात्रोची को भी आपने भगा दिया था। परनिन्दा करना तो बहुते आसान है। जब अपने पर पड़ता है, तब समझ में आता है। इन मूर्खों को यह मालूम नहीं है क्या कि मायके का कुकुर भी प्यारा होता है। वैसे भी ससुराल में दामाद और बहिनउरा में भाई को तीन दिन से ज्यादा नहीं रहना चाहिए। वे हत्यारे नाविक भले ही जेल में थे, लेकिन थे तो बहिनउरा में ही। उनको इटली भेजकर आपने कवनो गलत काम नहीं किया। बेचारे अपने बाल-बच्चों से दूर पड़े थे। हिन्दुस्तानी जान की क्यों फिकर करें? १२५ करोड़ में से दो घट ही गए तो कवन तूफान खड़ा हो गया?
इ बेनी बाबू को ज़रा समझाइये। खामखाह मुलायम से उलझने से का फायदा। बेचारे को कभी आतंकवादी कह रहे हैं, तो कभी कमिशनखोर। अगर मुलयमा भड़क गया न, तो दिल्ली की सरकार को बचाना मुश्किल होगा। इ बेनी बाबू भले ही यू.पी. में मुलायम की काट हों, दिल्ली के लिए बोझ ही हैं। बना-बनाया खेल न बिगाड़ दे यह आदमी, अपने बड़बोलेपन से। वैसे मुलायम तो आपके लिए हमेशा मुलायमे रहते है, फिर भी होली में बुलाकर एक मुठ्ठी अबीर उनके गाल पर मल दीजिएगा। पहलवान जी खुश हो जायेंगे।
      पवन बंसल को एक बार और याद दिला दीजियेगा - उ एसी का आल इंडिया फ़्री पास अबतक मेरे पास नहीं पहुंचा है। आप ही बताइये, बाल बच्चों के साथ होली में आपको रंग-अबीर लगाने दिल्ली कैसे आयेंगे?
हम इहां राजी-खुशी है। आपका हालचाल तो रेडियो, टीवी से मिलता ही रहता है। बबुआ राहुल को आशीर्वाद कह दीजियेगा। यहां बाल-गोपाल आपको पयलग्गी कह रहे हैं।
थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना।
इति शुभ। 
आपका देवर
     जनता गांधी

Sunday, March 10, 2013

लाश पर राजनीति



गत ३ मार्च को आपसी रंजिश में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कुण्डा तहसील के बलीपुर गांव के प्रधान और उनके भाई की हत्या कर दी गई। उग्र भीड़ ने मौके पर पहुंचे डी.एस..पी. श्री जिआउल हक को भी पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना की जितनी भी निन्दा की जाय वह कम ही होगी। ड्यूटी पर तैनात पुलिसवाले भी अगर सुरक्षित नहीं है, तो फिर अन्य सरकारी कर्मचारियों और आम जनता की क्या बात की जाय? सरकार का न तो अपराधियों पर कोई नियंत्रण है और न आतंकवादियों पर। आतंकवादी जब चाहे जहां, जहां चाहे - हैदराबाद हो या मुंबई, पुणे हो या दिल्ली, विस्फोट कर सकते हैं, सैकड़ों मासूमों की जान ले सकते है और पकड़ से भी बाहर रह भी सकते हैं। जनता की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है। ऐसी हत्याओं के शिकार अधिकांश हिन्दू ही होते हैं, इसलिए हमारी सेकुलर सरकारें छोटी-मोटी रस्म अदायगी के बाद चुप्पी साध लेती हैं। लेकिन अगर ऐसी घटनाओं का शिकार कोई मुसलमान होता है, तो सरकारें फौरन अतिसक्रिय हो जाती हैं और सेकुलर पार्टियां वोट बटोरने के लिए सहानुभूति व्यक्त करने और सरकारी खज़ाना खोलने की होड़ लगा देती हैं।
कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की विधवा को सांत्वना देने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उनके पैतृक गांव में जाने की घटना तो समझ में आ सकती है, लेकिन दिल्ली के शाही इमाम की देवरिया यात्रा समझ के परे है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दिनांक ९ मार्च को दिवंगत डी.एस.पी के देवरिया जिले के पैतृक गांव जुआफर पहुंचे। उन्होंने शहीद पुलिस अधिकारी की विधवा परवीन आज़ाद को हर संभव सहायता देने का आश्वासन दिया और कब्र पर जाकर श्रद्धांजलि भी अर्पित की। क्या यही काम उन्होंने कभी किसी हिन्दू पुलिस अधिकारी या सेना के अधिकारी या जवान के मारे जाने पर किया है? क्या मुंबई में कसाब और उसके पाकिस्तानी साथियों की अन्धाधुंध गोलीबारी में शहीद हुए पुलिस कमिश्नर हेमन्त करकरे, और दिल्ली के बटाला हाउस में आतंकवादियों से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले श्री  शर्मा पुलिस अधिकारी नहीं थे। उनके घर जाकर उनके परिवार की सुधि लेने क्या कभी राहुल गांधी, सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह गए? हां, बटाला हाउस एन्काउंटर में मारे गए आतंकवादियों की मातमपुर्सी के लिए राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह उनके घर आज़मगढ़ जरुर गए। पाकिस्तानी सेना सीमा पर दो हिन्दुस्तानी सैनिकों के सिर काटकर ले जाती है, क्या कांग्रेस हाई कमान कभी उनके परिवारों की सुधि लेने उनके घर जाता है? युवराज और महारानी, जहां वोट बैंक होता है, वही जाते हैं। 
कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की नृशंस हत्या से सभी दुखी थे। सभी चाह रहे थे कि अपराधियों को उनके अपराधों के लिए कठोर-से कठोर द्ण्ड दिया जाय, लेकिन मौलाना बुखारी और युवराज की देवरिया यात्रा ने इस दुःखद घटना को भी सांप्रदायिक बना दिया। रही सही कसर शहीद पुलिस अधिकारी की पत्नी परवीन आज़ाद की मांगों की लंबी फ़ेहरिश्त ने पूरी कर दी। ऐसा लग रहा है कि जियाउल हक की मौत परवीन के लिए एक अवसर बनकर आयी है जिसका वह अधिकतम उपयोग करना चाहती हैं। पति के स्थान पर नौकरी पाने के लिए उन्होंने राज्य सरकार को जो फ़ेहरिश्त थमाई है उसमें उनके मायके और ससुराल वालों के ६ व्यक्तियों का नाम शामिल है। परवीन की बहन का भी नाम उसमें शामिल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समझ में नहीं आ रहा है कि किस सरकारी नियम के अनुसार मृतक कोटे से आधा दर्ज़न से अधिक आश्रितों को नौकरी दी जाय? सरकारी नियम के अनुसार सेवा-अवधि में सरकारी कर्मचारियों की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण के लिए उसके एक निकटम कानूनी वारिस को उसकी योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी देने का प्राविधान है। इसके अलावे पत्नी को फ़ैमिली पेन्शन भी दी जाती है। लेकिन जियाउल हक के मामले में उनके भाई और उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी देने की पेशकश की गई है। परवीन आज़ाद को आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी के पद के लिए नियुक्ति पत्र दिया गया है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं है। अपने पति की शहादत को वे पूरी तरह भूनाने के मूड में हैं। उन्हें डिप्टी एस.पी. से नीचे का पद स्वीकार्य नहीं है। वर्तमान नियम के अनुसार डी.एस.पी के पद पर नियुक्ति यू.पी लोकसेवा आयोग द्वारा लिखित परीक्षा, साक्षात्कार और फिजिकल फिटनेस में सफल होने के बाद पीपीएस के माध्यम से की जाती है। दूसरा तरीका है प्रोन्नति से पद पर नियुक्ति। इसके लिए सब इन्सपेक्टर के पद पर कुछ वर्षों की तैनाती आवश्यक है। इन दोनों अर्हताओं पर परवीन आज़ाद कही से भी फिट नहीं बैठती हैं, लेकिन उनके पास एक विशेषाधिकार है - एक मुस्लिम अधिकारी की पत्नी होने का। और इस विशेषाधिकार को संविधान और नियम से उपर जाकर राज्य सरकार भी मान्यता देती है; केन्द्र सरकार भी। आश्चर्य होता है कि जियाउल हक की विधवा पत्नी परवीन ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या पुलिस कमिश्नर के पद की मांग क्यों नहीं की? इस समय उन्हें कोई भी वरदान प्राप्त हो सकता है। सरकार ने उनके लिए धन के खज़ाने तो खोले ही हैं, पद के खज़ाने भी खोले जा सकते हैं। अखिलेश यादव ने दिवंगत पुलिस अधिकारी की पत्नी और पिता को अलग-अलग २५-२५ लाख रुपए के दो चेक दिए। एक ही परिवार के दो मृतक आश्रितों को अनुग्रह राशि के भुगतान का संभवतः यह पहला मामला है। नियमानुसार एक ही व्यक्ति को जो मृतक का निकटस्थ कानूनी वारिस हो, को अनुग्रह राशि, क्षतिपूर्ति या सेवा संबंधी देयों का भुगतान किया जाता है। लेकिन यह देश सेकुलर है। यहां हिन्दुओं ले लिए अलग कानून है, मुसलमानों के लिए अलग। फिर अगले वर्ष लोकसभा का चुनाव भी तो है। अभीतक तो जियाउल हक के लिए राज्य सरकार ने ही अपना पिटारा खोला है, केन्द्र सरकार का पिटारा खुलना तो बाकी ही है। जियाउल हक एक कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की ड्युटी निभाते हुए शहीद हो गए, उन्हें बार-बार सलाम। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी लाश पर उनके परिजनों और राजनेताओं द्वारा स्वार्थ की ऐसी राजनीति की जाएगी।