Saturday, April 21, 2018

ओछी हरकत


ओछी हरकत
      इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के खिलाफ़ महाभियोग का प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने उप राष्ट्रपति को सौंपा है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर पद के दुरुपयोग समेत पाँच बेबुनियाद आरोप लगाए गए हैं। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी बहुत दिनों से महाभियोग प्रस्ताव लाने की ताक में थे। जस्टिस लोया की मृत्यु को जब सुप्रीम कोर्ट ने स्वाभाविक मृत्यु करार दिया और किसी तरह की अगली जाँच की संभावना को खारिज कर दिया तो पप्पू का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने एनसीपी, सपा, बसपा, माकपा, भाकपा और मुस्लिम लीग जैसी देशद्रोही पार्टियों से हाथ मिलाते हुए महाभियोग की नोटिस दे ही डाली। सबको यह तथ्य मालूम है कि कांग्रेस द्वारा लाया गया यह प्रस्ताव किसी भी सूरत में पास होनेवाला नहीं है। नियमानुसार प्रस्ताव लाने के लिए तो सिर्फ ५० संसद सदस्यों के हस्ताक्षर की आवश्यकता है लेकिन इसके बाद संबन्धित सदन के सभापति द्वारा तीन सदस्यीय समिति गठित करने का प्रावधान है। इस समिति के सदस्य होते हैं -- सुप्रीम कोर्ट के एक वर्तमान जज, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक कानून विशेषज्ञ। यह समिति उचित छानबीन कर अपनी रिपोर्ट लोकसभा के स्पीकर या राजसभा के अध्यक्ष को देती है। आरोप सही नहीं पाए जाते हैं तो प्रस्ताव वहीं समाप्त हो जाता है और महाभियोग की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ाई जाती। अगर आरोप सही पाए गए तो सदन में इसकी चर्चा कराई जाती है। इस दौरान आरोपी जज को अपने बचाव का पूरा मौका दिया जाता है। चर्चा के बाद मतदान कराया जाता है। प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए दोनों सदनों के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन अनिवार्य है। प्रस्ताव स्वीकृत होने पर अन्तिम आदेश के लिए इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।
            कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि उसके पास संख्या बल नहीं है। अगर संख्या बल होता तो राहुल गांधी प्रधान मन्त्री होते। महाभियोग प्रस्ताव का गिरना तय है। इसका उद्देश्य देश के सर्वोच्च न्यायालय और विशेष रूप से चीफ जस्टिस को बदनाम करना है। अगर महाभियोग प्रस्ताव लाना ही था तो सुप्रीम कोर्ट के उन चार जजों के खिलाफ़ लाना चाहिए था जिन्होंने पद, मर्यादा, गोपनीयता और संवैधानिक जिम्मेदारियों की धज्जियां उड़ाते हुए राज नेताओं की तरह प्रेस कान्फ़ेरेन्स करके सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा को तार-तार किया था। उस समय कांग्रेस और कम्युनिस्ट उन जजों की पीठ थपथपा रहे थे, लेकिन जैसे ही जस्टिस लोया के मामले में मनमाफिक फैसला नहीं आया, सब के सब महाभियोग का मिसाइल ले दौड़ पड़े। उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस मामले में दोषी करार दिए जायेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अत: कांग्रेस ने न्यायपालिका को धमकाने के लिए महाभियोग जैसी शक्ति का राजनीतिक हथियार के रूप में दुरुपयोग का निर्णय लिया। इस पूरे मामले को हल्के में लेना खतरानाक हो सकता है। यह मामला पूरी न्यायपालिका की आज़ादी के लिए गंभीर खतरा है। सभी राजनीतिक दलों को इसकी गंभीरता समझनी चाहिए। महाभियोग की शक्ति बेहद अहम है। इसके दुरुपयोग से संवैधानिक संस्थाओं पर प्रतिकूल असर होगा। कांग्रेस और राहुल गांधी ऐसा करके सार्वजनिक संस्थाओं को खत्म करने पर तुले हुए हैं। कई पूर्व न्यायाधीशों ने भी कांग्रेस के इस कदम पर गंभीर चिन्ता जाहिर की है। अगर इस कार्य को हतोत्साहित नहीं किया गया तो कोई भी पक्ष जो न्यायालय के निर्णय से संतुष्ट नहीं है क्या बार-बार महाभियोग का प्रस्ताव लाएगा? माना कि राहुल गांधी अपरिपक्व हैं, लेकिन अन्य विचारशील लोगों को उन्हें उचित सलाह देनी चाहिए थी। ऐसा प्रस्ताव लोकतन्त्र और संविधान दोनों के लिए खतरे की घंटी है। सत्ता के लिए बावले पप्पूजी उचित-अनुचित में भेद करने में अक्षम हैं। इसकी जितनी निन्दा की जाय, कम है।

Thursday, April 5, 2018

आन्दोलन या अराजकता

           भारत में लोकतन्त्र अराजकता का पर्याय बनता जा रहा है। संसद के हर सत्र में सत्ता न मिलने की कुंठा से ग्रस्त वंशवादी राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष ने जिस तरह अराजकता फैलाकर संसद का कामकाज ठप्प कर रखा है, उसका वीभत्स रूप पिछले २ अप्रिल को दलितों के आह्वान पर भारत बंद में देखने को मिला। पिछले कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि कोई भी आन्दोलन बिना हिन्सा के समाप्त नहीं हो रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में मुस्लिमों द्वारा मुंबई के आज़ाद पार्क में आयोजित धरना प्रदर्शन देखते ही देखते हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। बसें जलाई गईं और हिन्दुओं की दूकनें फूंक दी गईं। कई लोगों को मौत के घाट भी उतारा गया। आरक्षण के लिए जाट आन्दोलन, गुर्जरों का आन्दोलन, पाटीदारों का आन्दोलन भी हिंसक रूप ले चुका है। सरकारी बसों को जलाना, रेलवे लाइन पर धरना देकर ट्रेनों को रोकना, पुलिस पर हिंसक हमला और आगजनी आज के अन्दोलनों के आवश्यक अंग बन चुके हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र, आरक्षण और पानी के लिए लगभग सारे राजनीतिक दल आये दिन आन्दोलन करते रहते हैं, जो गहरी चिन्ता का विषय है। एक फिल्म के रिलिज को लेकर राजस्थान और अन्य प्रदेशों में राजपुतों के संगठन करणी सेना ने जो हास्यास्पद आन्दोलन किया उसका मतलब समझ में नहीं आया। बिना फिल्म देखे लोगों की भावनाओं को भड़काया गया और अपार सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। फिल्म रिलिज भी हुई और चली भी। आत्मदाह की धमकी देनेवाले करणी सेना के जवान और महिलाएं बिल में घुस गईं। समझ में नहीं आया कि वह आन्दोलन किसके इशारे पर चलाया गया। कभी-कभी संदेह होता है कि इसके पीछे फिल्म की पब्लिसिटी के लिए फिल्म के निर्माता का हाथ तो नहीं था! मैं अमूमन आजकल की फिल्में नहीं देखता, लेकिन आन्दोलन के कारण जिज्ञासा इतनी बढ़ी कि ३०० रुपए का टिकट लेकर मैंने फिल्म देखी और कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया।
पिछले २ अप्रिल को दलितों द्वारा किया गया हिंसक भारत बंद भी बेवज़ह था। निर्णय सुप्रीम कोर्ट का था और खामियाजा भुगता सरकारी संपत्ति और जनता ने। आन्दोलन के दौरान ९ निर्दोष लोगों की हत्या की गई और करोड़ों की सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। पूरा आन्दोलन प्रायोजित था। आन्दोलनकारी लाठी डंडा, तलवार, पेट्रोल और आग्नेयास्त्रों से लैस थे। उन्होंने मासूम बच्चों को ले जा रही स्कूल बसों को भी अपना निशाना बनाया। इस आन्दोलन ने सामाजिक समरसता को तार-तार कर दिया। अगर समाज के दो वर्ग इसी तरह आपस में भिड़ते रहे तो देश का क्या भविष्य होगा। श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधान मन्त्री बनने के बाद से ही वंशवादी जो दिल्ली की गद्दी को बपौती मान रहे थे, तरह-तरह के हथकंडे फैलाकर सरकार को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे हैं। कभी ये हैदराबाद यूनिवर्सिटी जाकर जातिवाद को हवा देते हैं, तो कभी जे.एन.यू. में जाकर भारत के टुकड़े करने का मंसूबा पाल रहे देशद्रोहियों के साथ धरने पर बैठते हैं, कभी गुप्त रूप से सपरिवार चीनी राजनयिकों से भेंट करके गुप्त योजनाएं बनाते हैं, कभी आतंकवादियों के पक्ष में गुहार लगाते हैं तो कभी पाकिस्तानी मदद के लिए अपने विश्वस्त को पाकिस्तान भेजते हैं। इनका एकमात्र एजेंडा है, दिल्ली की सत्ता पार काबिज़ होना। इसके लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। आश्चर्य तो तब हुआ जब २ अप्रिल को भारत बंद के दौरान हुई हिंसा की किसी विपक्षी पार्टी ने निन्दा नहीं की, उल्टे मौन समर्थन दिया। हमेशा उटपटांग बयान देनेवाले राहुल बाबा ने तो सारा दोष भाजपा पर मढ़ते हुए कहा कि SC/ST Act भंग कर दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि इस तरह का कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सरकार ने उसी दिन Review Petition भी फाईल कर दिया लेकिन कर्नाटक की जनसभाओं और ट्विट के माध्यम से राहुल बाबा ने दलितों को भड़काने का अभियान जारी रखा। उन्होंने दलित समाज की दयनीय स्थिति के लिए बीजेपी को जिम्मेदार ठहराया। झूठा और गैरजिम्मेदाराना बयान देने के कारण ही राहुल बाबा की विश्वसनीयता हमेशा संदेह के घेरे में रहती है। लेकिन देश तोड़ने के लिए उनकी गतिविधियों पर केन्द्र सरकार को पैनी दृष्टि रखनी चाहिए। यह कैसा लोकतन्त्र है जिसमें कन्हैया, ओवैसी, आज़म, फ़ारुख, माया, ममता, केजरीवाल और राहुल बाबा को कुछ भी कहने और करने का विशेषाधिकार प्राप्त है? लोकतन्त्र और देश की अखण्डता के लिए यह कही से भी शुभ संकेत नहीं है। राष्ट्रप्रेमियों को इसकी काट के लिए गंभीरता से विचार करना चाहिए।