Tuesday, October 21, 2014

महाभारत - ७


धृतराष्ट्र फिर भी अपना ध्येय नहीं बदलता। वह प्रतिप्रश्न करता है - मेरी राजसभा भीष्म, द्रोण, कृप आदि वीर पुरुषों और ज्ञानियों से अलंकृत है। वे सभी महासमर में मेरा ही साथ देंगें। फिर मैं अपनी विजय के प्रति आश्वस्त क्यों नहीं होऊं। विदुरजी धृतराष्ट्र की राजसभा की पोल खोलते हुए कहते हैं -
न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धा न ते वृद्धा ये न वदन्ति धर्मं ।
नासौ धर्मो यत्र न सत्यमस्ति न तत्सत्यं यच्छलेनानुविद्धम ॥
(उद्योग पर्व ३५;४९)
जहां वृद्ध न हों, वह सभा नहीं है, जो धर्म का उद्घोष न करें वे वृद्ध नहीं हैं, जिसमें सत्य नहीं है, वह धर्म नहीं है और जिसमें छल हो, वह सत्य नहीं है।
धृतराष्ट्र की सभा में वृद्ध हैं, पर वे धर्म का उद्घोष करने में डरते हैं, नहीं तो द्रौपदी चीर-हरण के समय वे चुप क्यों रहते? आदमी उम्र से वृद्ध हो जाय, तो भी वह वृद्ध नहीं होता। वह धर्म का उद्घोष करे तभी वृद्ध की श्रेणी में आ सकता है। वृद्ध का अर्थ होता है - ज्ञान प्राप्त, अभ्युदय प्राप्त। धर्म किसी भी परिस्थिति में सत्य से वंचित हो ही नहीं सकता और जहां शकुनि का छल चलता हो, वहां सत्य कैसे टिक सकता है? वे आगे कहते हैं - जैसे शुष्क सरोवर का चक्कर काटकर हंस उड़ जाते हैं, उसमें प्रवेश नहीं करते, उसी प्रकार ऐश्वर्य जिनका चित्त चंचल है, जो अज्ञानी हैं और इन्द्रियों के गुलाम हैं, उनका त्याग करता है।
धृतराष्ट्र सब सुनकर भी प्रश्न करता है - क्या मैं पाण्डवों के हित के लिए अपने पुत्रों का त्याग कर दूं? पाण्डु-पुत्रों को इन्द्रप्रस्थ वापस देने का सीधा परिणाम होगा - या तो दुर्योधन मुझे त्याग देगा या मुझे दुर्योधन को त्यागना पड़ेगा। दोनों में से एक भी विकल्प मुझे स्वीकार नहीं है। मैं दुर्योधन के बिना जी नहीं पाऊंगा। वह पुनः पाण्डवों को उनका अधिकार देने से इन्कार करता है। धृतराष्ट्र के मंत्रियों में एकमात्र विदुरजी ही ऐसे मंत्री थे जो हमेशा धर्म, सत्य और न्याय के पक्षधर रहे। कई अवसरों पर दुर्योधन और उसकी खल-मंडली ने सार्वजनिक रूप से उन्हें अपमानित किया लेकिन वे न तो तनिक डरे और न ही अपने पथ से विचलित हुए। अपने मधुर स्वर में उन्होंने हमेशा सत्य का ही गान किया। अपने कथन का समापन भी वे नीति-वचन से करते हैं -
महाराज! कुल की रक्षा के लिए पुरुष का, ग्राम की रक्षा के लिए कुल का, देश की रक्षा के लिये गांव का और आत्मा के कल्याण के लिए सारी पृथ्वी का त्याग कर देना चाहिए।
         ॥इति॥

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