यदि ज्ञान से धृतराष्ट्र का हृदय परिवर्तन संभव होता, तो विदुर के वचनों से कभी का हो गया होता। विदुरजी को यह तथ्य ज्ञात है फिर
भी वे बार-बार सत्परामर्श देने से चुकते नहीं हैं। उस रात्रि में धृतराष्ट्र की उद्विग्नता
कम होने का नाम ही नहीं लेती। उसे ज्ञान नहीं, सान्त्वना की आवश्यकता
थी और सान्त्वना भी ऐसी जिसमें उसके और दुर्योधन के विगत कर्मों और आगे की योजना के
लिए समर्थन हो। लेकिन उस रात उसने पात्र का गलत चयन कर लिया। विदुरजी के स्थान पर उसने
कर्ण या शकुनि को सान्त्वना के लिये बुलाया होता, तो संभवतः उसे
शान्ति प्राप्त हो जाती। लेकिन विदुर तो जैसे उसके जले पर नमक छिड़कने के लिए कृतसंकल्प
थे। वे कहते हैं -
एको
धर्मः परं श्रेयः क्षमैका शान्तिरुत्तमा ।
विद्येका
परमा दृष्टिरहिंसैका सुखावहा ॥
(उद्योग
पर्व ३३;४८)
केवल धर्म ही श्रेयस्कर है, शान्ति का सर्वोत्तम
उपाय क्षमा, विद्या ही परमदृष्टि है और अहिंसा ही परम सुख है।
अपने उपरोक्त कथन में विदुरजी क्या नहीं कह जाते हैं। धर्म का पारंपरिक
अर्थ है; समाज को धारण करनेवाला तत्त्व - धारयति इति धर्मः,
ऐसा धर्म ही कल्याणकारी होता है। शान्ति सिद्ध करनी हो, तो क्षमा ही श्रेष्ठ उपाय है। क्षमाशील लोगों पर एक ही आरोप लगता है,
वह है असमर्थता का। क्षमाशील मानव को प्रायः लोग निर्बल मान लेते हैं।
परन्तु इस तथाकथित दोष को भी सहकर क्षमाशील बने रहें, तभी शान्ति
संपन्न होती है। लोग इस संसार को चर्मचक्षु के माध्यम से देखते हैं, पर परम दृष्टि विद्या की होती है और अहिंसा में ही परम सुख निहित है। धृतराष्ट्र
यदि विदुर के अनेक वचनों में से केवल उपरोक्त वचन पर अमल का प्रयास करे तो,
शान्ति दूर नहीं है। पर उसपर विदुरजी के वचन निष्प्रभावी रहे। विदुरजी
भी अपना धैर्य कहां खोनेवाले थे। वे कहते हैं -
य
ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्ये कुलान्वये ।
सुखे
सौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिरनन्तकः ॥
(उद्योग
पर्व ३४;४०)
जो दूसरे के धन की, रूप की,
पराक्रम की, कुलीनता की, सुख की, सौभाग्य की या सत्कार की ईर्ष्या करते हैं,
उनकी यह व्याधि असाध्य है। उनके रोग का कोई इलाज नहीं। दुर्योधन को पाण्डवों
के धन, पराक्रम, सुख, सौभाग्य, उनको प्राप्त होते आदर-सम्मान -- इन सबसे ईर्ष्या
है जो असाध्य रोग बन चुका है।
अगले अंक में - विदुरजी की अन्तिम सलाह
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