Wednesday, December 5, 2018

राम-जन्मभूमि मन्दिर अयोध्या की प्राचीनता


प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय अद्‍भुत प्रतिभा धनी के इतिहासकार हैं। वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला इतिहास एवं पर्यटन प्रबन्धन विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उनके शोध और कार्यक्षेत्र का और विस्तृत विकास हुआ। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि बिना पुष्ट प्रमाण के वे एक वाक्य भी नहीं लिखते हैं। संप्रति वे ‘स्थापत्यम’ (जर्नल आफ़ दि इन्डियन साइंस आफ़ आर्किटेक्चर एण्ड अलायेड सर्विसेस) के अतिथि संपादक हैं और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद तथा शोध परियोजना समिति, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद (मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार) के सदस्य हैं। उन्होंने अभी-अभी एक पुस्तक लिखी है जिसका नाम है -- ‘राम-जन्मभूमि मन्दिर अयोध्या की प्राचीनता’ जिसे एस्टैन्डर्ड पब्लिशर्स इण्डिया, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया है। रामजन्मभूमि की ऐतिहासिकता का ऐसा प्रमाणित विवरण विरले ही किसी अन्य पुस्तक में उपलब्ध हो। 
यह पुस्तक अयोध्या का प्राचीनतम संदर्भ पुर(नगर) के संकेत से अथर्व वेद में वर्णित विवरणों से आरंभ होती है। वैदिक नगर वास्तु-परम्परया कालिदास के रघुवंश में चतुर्मुखी तोरण-धारिणी ब्रह्मा के रूप में प्राप्त है। अयोध्या में रामजन्मभूमि का प्रसिद्ध परिसर हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र एवं सांस्कृतिक धरोहर है। ब्रिटिश और मुसलमानी अभिलेखों में भी इस स्थान का उल्लेख ‘रामजन्मभूमि’ या ‘जन्मभूमि’ या जन्मस्थान के रूप में है। इस स्थान के विवादित ढाँचे की ऐतिहासिकता मात्र १५२८ ई. तक जाती है जिसकी रचना पूर्वकालिक विष्णु-हरि मन्दिर के ध्वंसावशेष का प्रयोग करते हुए की गई। इसे बाबर के सेनापति मीरबाकी ने ध्वस्त किया था। उस समय आक्रमणकारी की जघन्य बर्बरता का उल्लेख सन्त तुलसीदास जी ने अपने ‘तुलसी दोहा शतक’ में किया है --
      तुलसी अवधहिं जड़ जवन अनरथ किए अनखानि।
राम जनम महि मन्दिरहिं तोरि मसीत बनाय॥
कवितावली में तुलसीदास जी ने हक जताते हुए लिखा है -- ‘माँगि के खैबो मसीत को सोइबो’। प्राचीन मन्दिर के अवशेष विवादित ढाँचे में प्रयुक्त थे, अलंकृत स्तंभ व प्रस्तर खण्डों पर हिन्दू प्रतीकों का अंकन था। ६ दिसंबर १९९२ को सन्दर्भित ढाँचे की दी्वार के मलबे से प्राप्त १२वीं शती का संस्कृत में लिखा अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें गाहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र के राज्यकाल (१११४-११५५) में साकेत के मण्डलपति मेघसुत द्वारा विष्णु-हरि के भव्य मन्दिर बनाए जाने का उल्लेख है -- साकेतमण्डलपति ... मेघसुत: श्रुताढ्य: ... टंकोत्खात विशाल शैल शिखर श्रेणी शिला संहति व्यूहैर्विष्णुहरेर्हिण्यकलश श्री सुन्दरं मन्दिरं...कृतं, जिसे आयुषचन्द्र ने पूरा कराया था। इसी मन्दिर को मीरबाकी ने ध्वस्त किया था। अभिलेख में मेघसुत के पूर्व के राजाओं द्वारा भी मन्दिर को रचे जाने और संवारे जाने का उल्लेख है... पूर्वैरर्प्यकृतं नृपतिर्भि:...। अति प्राचीन कालीन अयोध्या के उद्धार का श्रेय जनश्रुति में पौराणिक परम्परा के आधार पर ‘विक्रमादित्य’ को है। ‘विक्रमादित्य’ विरुद वाला सर्वाधिक प्रसिद्ध राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय हैं। २००३ के पुरातात्विक उत्खननों में गुप्तकालीन ईंटें, कलाकृतियाँ एवं चन्द्रगुप्त का सिक्का भी मिला है। रामजन्मभूमि स्थल पर प्राचीनतम मन्दिर का निर्माण चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय (लगभग ३७५-४१४ ई,) तक सिद्ध होता है। जयपुर के सवाई राजा जयसिंह ने मुगल पीढ़ी के छठे बादशाह फ़र्रुखशियर से रामजन्मभूमि स्थल की ९८३ इलाही वर्गगज भूमि प्राप्त कर राम मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया था। संबन्धित प्रपत्र जयपुर के संग्रहालय में आज भी सुरक्षित है। इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गौरवयुक्त धर्म-स्थली को बहस और मुकदमों से निजात मिलनी चाहिए। इतिहास के नजरिए से मुकम्मल न्याय यही होगा कि रामजन्मभूमि स्थल पर मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया जाय।
प्रो. दीनबन्धु पाण्डेय जी ने बड़े श्रम, लगन और शोध के साथ उपरोक्त पुस्तक की रचना की है जो पठनीय ही नहीं, संग्रहणीय भी है।

Thursday, October 11, 2018

मेनका -- Me too


      Me too अभियान की सफलता से प्रोत्साहित स्वर्ग की अप्सरा मेनका ने भी ब्रह्मर्षि विश्वमित्र के खिलाफ सीधे भारत के सुप्रीम कोर्ट में यौन उत्पीड़न का मामला दायर किया। चूंकि मामला हाई प्रोफ़ाइल था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इसे सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया। मेनका के समर्थन में प्रशान्त भूषण, इन्दिरा जयसिंह, कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंहवी ने आधी फ़ीस में ही मुकदमा लड़ने के लिए अपनी सहमति दे दी। सुप्रीम कोर्ट ने वकीलों की सलाह पर इस सुनवाई के लिए जस्टिस एक्स.जेड भरभूड़ को दायित्व दिया। विश्वमित्र ने पूरे भारत का भ्रमण किया, लेकिन उन्हें कोई योग्य वकील नहीं मिला। विश्वमित्र एक तो आर्यावर्त्त में पैदा हुए थे, दूसरे पुरुष जाति से संबन्ध रखते थे और तीसरे वे सवर्ण (क्षत्रिय समुदाय) थे, अतः भारत के संविधान  और कानून के अनुसार उनके अधिकार नगण्य थे। फिर भी उन्होंने प्रयास जारी रखा। राजस्थान की करणी सेना ने उनका साथ दिया और जिला स्तर के एक वकील को उनके साथ लगा दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सम्मन जारी किया जा चुका था। लिहाज़ा निर्धारित तारीख पर अपने झोला छाप वकील के साथ विश्वमित्र कोर्ट में पहुँचे। वहां वकीलों की भारी भरकम फौज के साथ मेनका पहले से ही उपस्थित थी। विश्वमित्र की ओर वह कुटिल मुस्कान फेंक रही थी। जस्टिस भरभूड़ निर्धारित समय से एक घंटे की देरी से अदालत पहुंचे। सबने खड़े होकर उनका स्वागत किया। उन्होंने एक विहंगम दृष्टि कोर्ट में उपस्थित लोगों पर डाली। मेनका के अलौकिक सौनदर्य, समयानुकूल अद्भुत मेकअप, और अन्तर्लोकीय perfume से वे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। अचानक उनकी दृष्टि लंगोट पहने ब्रह्मर्षि विश्वमित्र पर पड़ी। उन्होंने विश्वमित्र को कोर्ट से बाहर निकल जाने का आदेश दिया और शीघ्र ही कोर्ट के ड्रेस कोड के अनुसार कपड़े पहनकर आने की हिदायत दी। बिचारे विश्वमित्र बाहर आये। कुछ दयालू लोगों ने उनकी मदद की और वे एक पैंट, एक शर्ट और एक टाई खरीदने में सफल हो गए। जज साहब उन्हें ड्रेस कोड के अनुसार कपड़े पहने देखकर प्रसन्न हुए। विश्वमित्र अपराधी के कटघरे में खड़े हो गए। कोर्ट की कार्यवाही आरंभ हुई। मेनका ने जज साहब से यह जानना चाहा कि सुनवाई की Live telecast  की व्यवस्था है या नहीं? जज साहब ने बताया कि Live telecast की व्यवस्था के लिए आदेश कर दिए गए हैं, परन्तु अभी ठेकदार ने काम पूरा नहीं किया है। मेनका और उसके वकील तमतमा गए। मेनका ने कहा कि जबतक Live telecast की व्यवस्था नहीं होती, वह कार्यवाही में भाग नहीं ले सकती। जज साहब ने बताया कि एक सप्ताह में Live telecast की व्यवस्था हो जाएगी। सुनवाई अगले हफ़्ते के लिए टाल दी गई। मेनका ने अभिषेक मनु सिंघवी द्वारा बुक कराए गए एक पंच सितारा होटल में रहकर दिल्ली के प्रसिद्ध माल में खरीददारी की और बुद्धा गार्डेन में घूमकर अपना समय बिताया। इस बीच कई न्यूज चैनल के कई पत्रकारों ने उसका इन्टर्व्यू लिया, चैनल पर डिबेट किया और सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के पहले ही महर्षि विश्वमित्र के खिलाफ अपने-अपने निर्णय सुना दिए। उधर विश्वमित्र राजघाट, बिरला मन्दिर और लोटस टेंपल के चक्कर लगाते रहे। समय से वे शीशगंज गुरुद्वारे में पहुंच जाते और लंगर में भोजन करके भूख मिटाते। वे लोगों से बचकर रहते। टीवी चैनल वालों ने उनके खिलाफ ऐसा महौल बना दिया था कि कहीं भी उनके साथ माब लिंचिंग हो सकती थी।
      खैर जैसे-तैसे एक हफ़्ते का समय बीत गया। आरोपी और प्रत्यारोपी अपने-अपने वकीलों के साथ कोर्ट में पहुंचे। जज साहब हमेशा की तरह मात्र एक घंटे विलंब से आये। मेनका को देख उनका हृदय हर्षित हो उठा। उन्होंने आते ही बताया कि Live telecast की व्यवस्था हो गई है। हर्षित दर्शकों और मेनका ने तालियां बजाई। जज साहब ने मेज पर हथौड़ा ठोका और कहा -- silence, silence, please. सब शान्त हो गए। कार्यवाही आरंभ हो गई। जज साहब ने मेनका से अपने ऊपर हुए यौन उत्पीड़न को विस्तार से बताने का अनुरोध किया। मेनका ने कहना शुरु किया --
“मी लार्ड! यह विश्वमित्र एक नंबर का व्यभिचारी, झूठा और बेवफ़ा है। एक बार सत्ययुग के अन्त में या त्रेता युग के प्रारंभ में (ठीक समय याद नहीं है) मैं पृथ्वी पर विचरण कर रही थी। घूमते-घूमते मैं एक जंगल में गई जहां ये तथाकथित महर्षि तपस्या कर रहे थे। वहां के प्राकृतिक अति सुन्दर दृश्य को देखकर मैं नृत्य करने लगी, तभी इस महर्षि ने मुझे देखा। बड़ी देरतक घूरने के बाद ये सज्जन मेरे पास आये और बिना विलंब किए प्रणय निवेदन कर दिया। जंगल में उस समय मैं अकेली थी। मेरा कोई सहायक नही था, अतः मैंने मज़बूरी में इनका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इनके साथ मैं एक वर्ष तक रही, एक पुत्री की माँ भी बनी। जैसे ही इन्हें यह पता लगा कि मैं माँ बन गई हूँ और मैं इन्द्रलोक की अप्सरा हूं, ये आग बबूला हो गए और तत्काल मुझे पृथ्वी से ही निष्कासित कर दिया। यही नहीं इन्होंने मेरी नवजात कन्या को भी अपनाने से इंकार कर दिया। मुझे अपनी अबोध नवजात कन्या को महर्षि कण्व के आश्रम के पास अकेला बेसहारा छोड़कर स्वर्गलोक में इन्द्र के पास  जाना पड़ा। विश्वमित्र ने मेरा भयंकर यौन शोषण किया और घर से निष्कासित भी कर दिया। मैं आपसे न्याय की गुहार करती हूं।”
       मेनका के वकीलों ने मेनका का समर्थन करते हुए जज साहब को इंडियन पेनल कोड की विभिन्न धाराओं का ज्ञान देते हुए विश्वमित्र के लिए फांसी की सज़ा की मांग की।
     जज साहब ने विश्वमित्र को अपना पक्ष रखने का आदेश दिया। विश्वमित्र सिर झुकाए अपराधी की तरह कटघरे में खड़े थे। उनका वकील अंग्रेजी में बहस करने में अक्षम था, अतः विश्वमित्र ने स्वयं अपना पक्ष रखा --
“मी लार्ड! मेनका ने मेरे साथ गंधर्व विवाह किया था, इसलिए उसके साथ मैंने वही व्यवहार किया जो एक पति से अपेक्षित है। मैंने कोई यौन शोषण नहीं किया है। मैं महर्षि से ब्रह्मर्षि बनने के लिए घोर तपस्या में रत था। ईर्ष्यालू इन्द्र के निर्देश पर यह सुन्दरी मेरी तपस्या को भंग करने के लिए मेरे पास आई और तरह-तरह से मुझे अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी। मुझे यह पता नहीं लगा कि यह एक षडयंत्र के तहत मेरी तपस्या को भंग करने के लिए मेरे पास आई थी। अपने अभियान में यह सफल भी हो गई। लेकिन जब मुझे षडयंत्र का पूरा व्योरा पता लग गया कि मैं Honey trap में फंसाया गया हूं, तो मैंने इसका परित्याग कर दिया। मैंने कोई अपराध नहीं किया है बल्कि अपराध मेनका ने किया है। इसने मुझे धोखा दिया है और मेरी वर्षों की तपस्या भंग की है। श्रीमान जी मुझे न्याय मिलना चाहिए।”
       मेनका के वकीलों ने विश्वमित्र के कथन का जोरदार विरोध किया और घंटों अंग्रेजी में बहस करते रहे। अन्त में विद्वान जज ने अपना फैसला सुनाया ---
“वादी और प्रतिवादी के वक्तव्य और सम्मानित वकीलों के तर्कों को ध्यान से सुनने के बाद अदालत इस निष्कर्स पर पहुंचती है कि ब्रह्मर्षि विश्वमित्र यौन शोषण के अपराधी हैं। उन्होंने एक अबला सुन्दरी का अपनी इच्छा के अनुसार तबतक यौन शोषण किया, जबतक उनकी इच्छा थी। मन भरते ही इन्होंने एक नारी का उस अवस्था में परित्याग किया जब वह अभी-अभी माँ बनी थी। इनका यह कृत्य जघन्यतम अपराध की श्रेणी में आता है, अतः इन्हें प्राप्त राजर्षि, महर्षि और ब्रह्मर्षि आदि उपाधियों से इन्हें वंचित किया जाता है तथा इन्हें कलियुग में सात बार, सत्ययुग में छः बार, त्रेता में पांच बार और द्वापर में चार बार फांसी पर लटकाने की सज़ा सुनाई जाती है। इनकी बिरादरी के अन्य साधु-सन्तों को भी जो दाढ़ी बढ़ाकर गुरु बने बैठे हैं आजीवन कारावास की सजा दी जाती है तथा वकील और कांग्रेसी नेता अभिषेक मनु सिंघवी को छोड़कर संपूर्ण पुरुष जाति से औरतों की ओर देखने का अधिकार वापस लिया जाता है।”
        ब्रह्मर्षि विश्वमित्र चूंकि क्षत्रिय समाज से आते थे, इसलिए सभी क्षत्रियों ने करणी सेना के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ देशव्यापी बन्द का आह्वान किया जिसमें एक हजार बसें जलाई गईं, ५०० कि.मी. रेल लाईन उखाड़ी गई, लाखों दुकानों में आग लगाई गई, लक्ष-लक्ष लोगों की हत्या की गई और सारे हाई वे पर जाम लगाया गया।
करणी सेना ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की है और केन्द्र सरकार से अनुरोध किया है कि वह सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के लिए अध्यादेश लाये। अन्यथा की स्थिति में वे १९१९ के चुनाव में नोटा का बटन दबायेंगे या ब्रह्मचारी पप्पू की पार्टी को वोट देंगे।

Thursday, September 27, 2018

विकृति को बढ़ावा देनेवाले फैसले

         सुप्रीम कोर्ट देश का सर्वोच्च न्यायालय है। इसके फैसले कानून बन जाते हैं। अतः जिस फैसले से समाज का स्वस्थ तानाबाना तार-तार होता है, उसपर गंभीरता से विचार करने के बाद ही निर्णय अपेक्षित है। हाल में सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे फैसले आये हैं जिससे समाज में विकृति फैलने की पर्याप्त संभावनाएं हैं, भारत की सदियों पुरानी स्वस्थ परंपराएं जर्जर होने के कगार पर आ गई हैं।
*कुछ माह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि दो वयस्क स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ रहने (Living together) और परस्पर सहमति से यौन संबन्ध  स्थापित करने  में कोई कानूनी अड़चन नहीं है, यानि ऐसे संबन्ध कानूनन वैध हैं। यही नहीं, ऐसे संबन्धों से उत्पन्न सन्तान को पिता की संपत्ति में भी अधिकार होगा। दुनिया के सभी धर्मों ने विवाह संस्था को अनिवार्य माना है, इसीलिए इसे विश्वव्यापी मान्यता प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट का Living together वाला फैसला विवाह संस्था पर सीधा आक्रमण था, जिससे कई विकृतियां उत्पन्न हो सकती हैं।
*सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला कुछ ही दिन पहले समलैंगिकता पर आया। समलैंगिक विवाह और यौन संबन्ध को कोर्ट ने मान्यता प्रदान करते हुए इसे वैध घोषित किया। यह निर्णय पूर्ण रूप से प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी और प्राणी में समलैंगिकता नहीं पाई जाती है। पश्चिम में यौन-सुख की प्राप्ति के लिए नये-नये प्रयोगों ने इस विकृति को बढ़ावा दिया। हमारे सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम की इस विकृति को कानूनी जामा पहना दिया।
*कल सुप्रीम कोर्ट ने एक चौंका देनेवाला फैसला सुनाया जिसके अनुसार किसी महिला द्वारा विवाह के पश्चात भी अन्य पुरुषों से यौन-संबन्ध रखना वैध माना गया। इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। अब कोई महिला डंके की चोट पर कई पुरुषों से संबन्ध रख सकती है। उस महिला से जन्म लेनेवाले बालक/बालिका का वैध पिता तो उसका वैध पति ही माना जायेगा, परन्तु असली पिता/जैविक पिता की पहचान करना मुश्किल होगा। हमारे धर्म ग्रन्थों में पुरुषों के चार दुर्व्यसन बताए गए हैं --- १. मदिरापान, २. जूआ खेलना ३. अनावश्यक आखेट/हिंसा ४. परस्त्रीगमन। इनमें परस्त्रीगमन को सबसे बड़ा पाप बताया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपराधिक कृत्य न मानते हुए जायज ठहराया है। कुछ वर्षों के बाद किसी औरत को ‘पतिव्रता’ कहना गाली देने के समान हो जाएगा, ‘कुलटा’ कहलाना staus symbol हो जाएगा, जिस तरह आजकल Boy friend से वंचित लड़कियां स्वयं को हीन महसूस करती हैं। अधिक से अधिक पर पुरुषों से संबन्ध औरतों के सौन्दर्य और आकर्षक व्यक्तित्व का पर्याय बन जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं सोचा की इससे एड्स जैसी बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है।
समझ में नहीं आता कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। समाज पतन की ओर उन्मुख है और हम शुतुर्मूर्ग की तरह आँखें चुराए मौनी बाबा बने हुए हैं।

Sunday, September 16, 2018

लोकतन्त्र में विरोध का अधिकार


           इस समय विरोध के अधिकार पर बहस जारी है, जिसे पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज डी.वाई. चन्द्रचूड़ की इस टिप्पणी ने और हवा दी है कि लोकतन्त्र में विरोध सेफ़्टी वाल्व का काम करता है। अगर उसे इस्तेमाल नहीं करने दिया गया तो कूकर फट जाएगा। यह टिप्पणी हाल ही के सबसे चर्चित विवादित उन पांच शहरी नक्सलियों की गिरफ़्तारी के संबन्ध में है जिन्हें पुलिस ने देशद्रोहियों की मदद के आरोप में गिरफ़्तार किया। इस समय ये घर में नज़रबन्द हैं।
      हमारा संविधान जाति, नस्ल आदि के भेदभावों से ऊपर उठकर सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, परन्तु भारत में जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है, इस अधिकार का जितना दुरुपयोग होता है, शायद विश्व के किसी कोने में नहीं होता होगा। सुप्रीम कोर्ट भी अभिव्यक्ति की आज़ादी की वकालत तो करता है, लेकिन नागरिकों के कर्त्तव्य पर मौन साध लेता है। सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने आदेश से विरोध के रूप में किसी तरह के बन्द और सड़क जाम पर प्रतिबन्ध लगा रखा है, लेकिन उस आदेश की रोज ही धज्जियां उड़ाई जाती हैं और सुप्रीम कोर्ट कोई संज्ञान नहीं लेता। बन्द के दौरान की गई हिंसा और माब लिंचिंग में कोई अन्तर नहीं है। माब लिंचिंग पर तो सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान ले लेता है और निन्दा के अलावे कार्यवाही भी करता है, पर बन्द के लिए उन तत्त्वों और राजनीतिक पार्टियों पर न तो कोई कार्यवाही करता है और न निन्दा करता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले, नारे लगाने वालों और समाज को बांटने की कोशिश करनेवालों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। इस समय समाज को बांटने वाले और सामाजिक समरसता को तार-तार करनेवाले संगठन और नेता कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। जब भी सरकार इनके पर कतरने की कोशिश करती है, न्यायपालिका आड़े आ जाती है। क्या कश्मीर के आतंकवादियों और नक्सलवादियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर खुली छूट दी जा सकती है? क्या देश की एकता और अखंडता से समझौता किया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट और सत्ता गंवाने के बाद विक्षिप्त हुई पार्टियों और नेताओं को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
      देश की आज़ादी की लंबी लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने कभी बन्द का आह्वान नहीं किया। एक बार असहयोग आन्दोलन के दौरान भीड़ ने जब चौराचौरी थाने पर कब्जा करके कई पुलिस वालों को ज़िन्दा जला दिया था, तो गांधीजी ने आन्दोलन ही वापस ले लिया। क्या ऐसी नैतिकता कोई भी राजनीतिक पार्टी दिखा सकती है? भारत में बन्द कम्युनिस्ट पार्टी की देन है। यह विचारधारा तो पूरे विश्व में आज मृतप्राय है, लेकिन इसकी गलत आदत सबसे ज्यादा भारत की जनता को लग गई है। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की यह एकमात्र सफलता है जो नासूर का रूप धारण करता जा रहा है। अमेरिका में भी ट्रंप के विरोधी कम संख्या में नहीं हैं, लेकिन कभी किसी ने अमेरिका बन्द या विरोध के नाम पर उग्र हिंसा या तोड़फोड़ की खबरें नहीं पढ़ी होगी। कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्या अपना देश और अपनी जनता लोकतन्त्र का मतलब भी समझती है? छोटी-छोटी बातों के लिए आपस में उलझना और राष्ट्रीय संपत्ति को शत्रु की संपत्ति की तरह नष्ट कर देना अत्यधिक चिन्तनीय है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अराजकता का रूप लेती जा रही है जिसे न कानून मान्यता देता है और न हमारा संविधान। लोकतन्त्र का भीड़तन्त्र का रूप लेते जाना कही इस मुहावरे को चरितार्थ तो नहीं कर रहा है -- बन्दर के हाथ में उस्तरा।

Sunday, September 9, 2018

सर्वोच्च न्यायालय और तुष्टीकरण


ऐसा लगता है कि जब से कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ अवमानना की नोटिस दी थी, तब से सर्वोच्च न्यायालय दबाव में आ गया। कांग्रेस का यही उद्देश्य था और इसमें वह सफल रही। अवमानना की नोटिस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने लगातार ऐसे कार्य किए और ऐसे फैसले लिए जिन्हें तुष्टीकरण की श्रेणी में डाला जा सकता है। करुणानिधि के निधन के बाद उनको दफ़नाए जाने की जगह को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने रात भर सुनवाई की। कर्नाटक में नई सरकार के गठन और विश्वास प्रस्ताव के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही त्वरित सुनवाई की और हैरान करने वाला फैसला सुनाया। कल को पूरा मरीना बीच कब्रगाह बन जाय, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति का भी प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है। अबतक यही ज्ञात था कि भारत में संसद ही सर्वोच्च है और उसे ही कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारणा को निर्मूल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए वर्तमान विवादित कालेजियम सिस्टम के स्थान पर संसद ने एक बिल पारित किया था जिसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई थी। स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वह बिल कानून बन गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर दिया। उस कानून के लागू होने से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति में मनमानी और भाई-भतिजावाद पर रोक लगने का खतरा था। सारी सीमाओं को लांघते हुए संसद के दोनों सदनों से आम सहमति से पारित और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून को सु्प्रीम कोर्ट ने कैसे रद्द कर दिया, समझ के परे है। संसद और राष्ट्रपति - दोनों संवैधानिक संस्थाएं सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बौनी नजर आईं।
अभी-अभी शहरी नक्सलियों के प्रति अत्यधिक सहानुभूति दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने जिस तरह की टिप्पणी की है और आदेश पारित किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं एक पार्टी हो। राष्ट्रद्रोह में लिप्त होना और प्रधान मन्त्री की हत्या की साज़िश रचना सुप्रीम कोर्ट के लिए बहुत मामूली घटना लग रही है। सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीश सेवा में रहते हुए प्रेस कांफेरेन्स कर सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट उनपर कोई कार्यवाही नहीं कर सकता, लेकिन महाराष्ट्र का एक पुलिस अधिकारी अगर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए प्रेस कांफेरेन्स करता है तो वह अवमानना का विषय बन जाता है और कड़ी फटकार का पात्र बन जाता है। क्या यह दोहरी मानसिकता या दोहरा मापदण्ड नहीं है?
कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३७७ को लगभग रद्द कर दिया है। अति आधुनिक और पश्चिम के अनैतिक खुलेपन से होड़ लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए प्रकृति के नियमों को भी ध्यान में नहीं रखा। प्रकृति ने सभी प्राणियों को मर्यादा में बांध रखा है। मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी प्राणी प्रकृति प्रदत्त सीमा से बाहर जाकर यौनाचार करता दिखाई नहीं पड़ता। जंगल में रहने वाले स्वच्छन्द प्राणी भी प्राकृतिक क्रम में और सन्तानोत्त्पत्ति के लिए ही यौनाचार करता है। मनुष्यों के आदिवासी समाज में भी समलैंगिकता दूर-दूर तक प्रचलन में नहीं है। केवल तथाकथित सभ्य मानव ही अपने अहंकार की तुष्टि के लिए अमर्यादित चर्या की ओर आकृष्ट होता है। उससे भी आगे बढ़कर आज बहुशिक्षित समाज में विशेष रूप से पाश्चात्य समृद्ध देशों में व्यक्ति जिन कुंठाओं के बीच जीवन-यापन करता दिखाई देता है और जिस प्रकार के मादक पदार्थों के सेवन के बीच अपनी वासनाओं से संघर्ष करता है, वहाँ इस तरह की गतिविधियों का चलन तेजी से बढ़ा है। दूसरी बात यह भी है कि वहाँ हमारी तरह कोई समाज व्यवस्था नहीं है, जिसका अंकुश परोक्ष रूप से किसी व्यक्ति पर लगता हो। वहाँ की आबादी की इकाई व्यक्ति ही है और सारे कानून भी व्यक्ति को ध्यान में रखकर बने होते हैं। इसी का परिणाम यह रहा कि व्यक्ति स्वतंत्र रहने के बजाय स्वच्छन्द हो गया। सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकता के पक्ष में दिए गए फैसले से एक और विषम परिस्थिति देश और समाज के सामने आनेवाली है। जो लड़के या लड़की समलैंगिकता की ओर आकर्षित हो जाते हैं, वे शादी करने को कभी राजी नहीं होते। इस स्थिति में माँ-बाप को बिलखते हुए और समाज की दृष्टि में उपेक्षित होते हुए देखा जा सकता है। ऐसे लड़के-लड़कियों पर न किसी की सलाह का असर होता है और न ही विपरीत लिंगीय आकर्षण होता है। जीवन का एक तरह से यह एक बड़ा नैतिक विघटन और पतन है। स्वतंत्रता सबको चाहिए, किन्तु हमारे देश में समाज-व्यवस्था भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कानून। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो खाप पंचायतों का प्रचलन अपने आप बढ़ जाएगा।
हमारी परंपराएं कानून के समकक्ष मानी गई हैं। सभी तरह की सेवाओं पर भी इसका असर पड़ेगा। इस तरह के कानून तो समाज की मर्यादा के भीतर ही अपना अस्तित्व तय करें, उसी में देश और समाज का कल्याण शामिल है। अगर ऐसे ही फैसले आते रहें, तो एक काल के बाद हमें भी इस देश में सांस्कृतिक पवित्रता तार-तार होती दिखने लग जाएगी। चंद लोगों की मनमानी के कारण हमारे सनातन और पुराने ज्ञान की यही उच्छृंखल लोग सार्वजनिक स्थलों पर सरे आम होली जलाएंगे।

Thursday, September 6, 2018

माब लिंचिंग

     पूरे विश्व का मनुष्य तीन गुणों से युक्त है। वे हैं -- तमो गुण, रजो गुण और सत्व गुण। मनुष्य के रहन-सहन, खान-पान और व्यवहार में भी तीनों गुण परिलक्षित होते हैं। इन तीन गुणों की की व्यक्ति में उपस्थिति का अनुपात ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। कम या अधिक मात्रा में ये तीनों गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। इसीलिए गीता में भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तीनों गुणों से परे अर्थात गुणातीत होने का परामर्श दिया है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए गुणातीत होना अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु व्यवहारिक जीवन में गुणातीत होना असंभव तो नहीं लेकिन अत्यन्त दुष्कर अवश्य है। क्रोध और हिंसा रजो गुण के अंग हैं जो प्रत्येक मनुष्य की स्वभाविक प्रवृत्ति है। माब लिंचिंग या भीड़ की हिंसा इसी की देन है। मनोवैज्ञानिकों ने गहन शोध के बाद यह निश्कर्ष निकाला है कि हर व्यक्ति, चाहे वह बड़ा से बड़ा अपराधी क्यों न हो, उचित और अनुचित का भेद समझता है। उसके अन्तस्‌ में उचित के प्रति समर्थन और अनुचित के प्रति विरोध सदैव रहता है, भले ही वह सुप्तावस्था में ही क्यों न हो। जब कोई चोर चोरी करते हुए पकड़ा जाता है, तो पास से गुजरने वाले व्यक्ति के मन में चोरी के प्रति सुप्त विरोध प्रकट हो जाता है। अगर भीड़ ने चोर को पकड़ा है, तो आसपास के लोग भी विरोध से सम्मोहित हो जाते हैं और ऐसा काम कर बैठते हैं जिसे अकेले करने के लिए वे सोच भी नहीं सकते थे। भीड़तंत्र में सभी सम्मोहन की स्थिति में होते हैं, इसलिए एक या दो मुखर व्यक्ति जो निर्देश ऊँचे स्वर में देते हैं, भीड़ बिना परिणाम का विचार किए उसका पालन करने लगती है। जनमानस सार्वजनिक स्थलों पर चोरी, लूट, महिलाओं से अभद्र व्यवहार, हिंसा आदि के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होता है। वह ऐसे अपराधियों को सजा देने के लिए कानून या पुलिस की प्रतीक्षा नहीं करता। वह हाथ के हाथ सजा देकर मामले का निपटारा कर देता है। भीड़ की इस मानसिकता के कारण शंका के आधार पर भी निर्दोष की हत्या हो जाती है। लेकिन भीड़ के इसी डर के कारण दिन के उजाले में सार्वजनिक स्थानों पर अपराधी अपराध करने से डरते भी हैं। भीड़तंत्र के लाभ भी हैं और हानियां भी हैं। कभी तो यह कानून-व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक होता है और कभी कानून को ही अपने हाथ में ले लेता है। सिर्फ कानून बनाकर इसपर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता। मनुष्यों में नैतिकता की मात्रा बढ़ाकर अर्थात सतो गुण की वृद्धि करके इसपर काबू पाया जा सकता है। इसके लिए विद्यालयों में उचित नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है। सभी राजनीतिक दलों को दलीय स्वार्थ से ऊपर उठकर नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सर्वसम्मति से कार्य करना चाहिए। सभी धर्मों के नैतिक आदर्श से विद्यार्थियों को परिचित कराना चाहिए, तभी हम माब लिंचिंग पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं।

Tuesday, June 26, 2018

लोकतन्त्र का काला दिन

          आज से ४३ वर्ष पूर्व आज के ही दिन कांग्रेस की तथाकथित महानतम नेत्री इन्दिरा गाँधी द्वारा देश पर इमर्जेन्सी थोपकर लोकतन्त्र की हत्या की गई थी। वे राय बरेली से लोकसभा का चुनाव लड़ी थीं और विजयी भी हुई थीं लेकिन चुनाव में जमकर सरकारी साधनों और अधिकारियों का दुरुपयोग किया गया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट में यह आरोप प्रमाणित भी हो गया और इसके आधार पर हाई कोर्ट ने इन्दिरा गाँधी के चुनाव को अवैध घोषित करते हुए छ: साल तक उनके चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। उन दिनों लोक नायक जय प्रकाश नारायण का जन आन्दोलन चरम पर था। इन्दिरा गांधी की कुर्सी खतरे में पड़ गई थी। देश के हर कोने से उनके त्यागपत्र की मांग जोरों से उठने लगी थी। शालीनता से इस्तीफा देने के बदले इन्दिरा गांधी ने सत्ता और संविधान का दुरुपयोग करते हुए आपात्काल की घोषणा कर दी और जनता के सारे मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए। 
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर प्रहार -- इमर्जेन्सी की सबसे अधिक गाज पहले दिन से ही पत्रकारों और समाचार पत्रों पर गिरी। अभिव्यक्ति की आज़ादी पूरी तरह छीन ली गई। समाचार छापने के पूर्व सरकार द्वारा गठित समिति से छापने का अनुमोदन लेना अनिवार्य कर दिया गया। विरोध में कुछ समाचार पत्रों ने सारे पृष्ठ काली स्याही से रंग दिए और कोई समाचार छापा ही नहीं। परिणाम स्वरूप पत्रकार भी गिरफ़्तार हुए। इमर्जेन्सी के दौरान वही पत्रकार बाहर रहे जो इन्दिरा गांधी का गुणगान करते रहे। Illustrated Weekly के संपादक खुशवन्त सिंह ने युवराज संजय गांधी को Man of the year घोषित किया और वे मलाई खाते रहे। कुलदीप नायर ने विरोध किया और उन्हें प्रताड़ना झेलनी पड़ी।
विपक्षी दलों पर प्रहार-- सभी विपक्षी दल -- जनसंघ से लेकर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सारे छोटे-बड़े नेताओं को रातो-रात गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। स्व. जय प्रकाश नारायण, मोररजी देसाई, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवानी, चरण सिंह, पीलू मोदी जैसे राष्ट्रीय नेताओं को गिरफ़्तार करके अज्ञात जेलों में डाल दिया गया। RSS पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा इसके छोटे से छोटे कार्यकर्त्ता से लेकर सरसंघचालक तक को जेल में डाल दिया गया। इन्दिरा गांधी ने RSS से अपनी व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए स्वयंसेवकों को ठीक उसी तरह की यातनायें दीं जिस तरह कि यातनायें वीर सावरकर को अंडमान जेल में दी गई थीं। थाने में उनसे नानाजी देशमुख और रज्जू भैया के ठिकाने पूछे जाते और नहीं बताने पर नाखून उखाड़ लिए जाते। कई स्वयंसेवकों को अपना ही मूत्र पीने के लिए विवश किया गया। जय प्रकाश नारायण जैसे नेता को जेल में इतनी यातना दी गई कि उनके गुर्दे खराब हो गए। १९७७ में रिहाई के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हुए और कुछ ही समय के बाद परलोक सिधार गए। पश्चिम बंगाल में सैकड़ों CPM कार्यकर्ताओं को नक्सली बताकर गोली मार दी गई। बारातियों से भरी बस को रोककर सभी बारातियों की जबर्दस्ती नसबन्दी कराई गई। चूंकि सारे मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए गए थे अतः विरोध में लिखना या बोलना जेल जाने के लिए पर्याप्त से ज्यादा था। सिर्फ RSS के भूमिगत कार्यकर्ताओं के प्रयास से कुछ लघु समाचार पत्र सीमित संख्या में गुप्त रूप से जनता तक पहुँचते थे जिनमें सही  समाचारों का उल्लेख रहता था। इन पत्रों में ‘रणभेरी’, ‘कुरुक्षेत्र’ और ‘लोकसमाचार’ उल्लेखनीय थे। देश के हर कोने में वहां की भाषा में ऐसे लघु समाचार पत्र गुप्त रूप से निकलते रहते थे, जिनकी जनता बेसब्री से इन्तजार करती थी। आकाशवाणी इन्दिरा का भोंपू बन गया था और अखबार २० सूत्री कार्यक्रम के विज्ञापन। संजय गांधी और इन्दिरा गांधी के चित्रों से अखबार पटे रहते थे। BBC सुनना प्रतिबन्धित था। BBC सुनने की शिकायत पर जेल जाना तय था। अपने जमाने के बेहद लोकप्रिय नेता जार्ज फर्नांडिस पर फर्जी डायनामाइट केस कायम कर उन्हें देशद्रोह के अपराध में गिरफ़्तार किया गया। विरोधियों को प्रताड़ित करने में इन्दिरा गांधी ने अंग्रेजों को भी पीछे छोड़ दिया
संविधान पर हमला -- इमर्जेन्सी में विपक्ष के सारे नेता, सांसद और विधायक जेल में थे। इन्दिरा गांधी ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए संविधान में मनचाहे संशोधन किये। यहां तक कि संविधान की प्रस्तावना (Preamble) भी बदल दी गई।
न्यायपालिका पर हमला -- इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज श्री जग मोहन लाल ने इन्दिरा गांधी के खिलाफ फैसला दिया था। उन्हें तत्काल गुजरात हाई कोर्ट में स्थानान्तरित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों की वरिष्ठता को नज़र अन्दाज़ करते हुए श्री ए. के. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाया गया जिनके माध्यम से इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को पलटा गया और इन्दिरा गांधी के पक्ष में निर्णय कराया गया जिससे उनकी संसद में सदस्यता कायम रह सकी। MISA और DIR जैसे बदनाम कानून बनाए गए जिसके आधार पर किसी को कभी भी, कहीं से भी बिना कारण बताए गिरफ़्तार करके जेल भेजा जा सकता था। MISA में तो जमानत भी नहीं मिलती थी। भारत के तात्कालीन एटार्नी जेनेरल ने कहा था कि इमर्जेन्सी के दौरान किसी को भी संदेह के आधार पर गोली मारी जा सकती है। पूरा भारत कारागार में परिवर्तित हो गया था।
सेना प्रमुखों के साथ दुर्व्यवहार -- उस समय बंसी लाल देश के रक्षा मंत्री थे। मुंबई में तीनों सेना प्रमुखों की एक महत्त्वपूर्ण बैठक बुलाई गई थी जिसमें बंसी लाल जी को शामिल होना था। वे बैठक में संजय गांधी के साथ पहुंचे। संजय गांधी के पास कोई सरकारी जिम्मेदारी नहीं थी। प्रोटोकाल के अनुसार उस बैठक में सिर्फ रक्षा मंत्री शामिल हो सकते थे। सेना प्रमुखों ने संजय गांधी को बाहर जाकर प्रतीक्षा करने की सलाह दी। इसपर वे आग बबूला हो गए और सेना प्रमुखों के साथ अभद्र व्यवहार करते हुए गाली तक दे दी। बैठक रद्द कर दी गई और संजय गांधी को बन्सी लाल के साथ एक कमरे में बंद कर दिया गया। सेना प्रमुखों ने सभी मुख्यालयों को किसी भी अप्रिय घटना के लिए तैयार रहने के निर्देश भी जारी कर दिए। इतने में इन्दिराजी के किसी वफ़ादार ने उन्हें सूचना दे दी। वे एक विशेष विमान से मुंबई पहुंची और सेना प्रमुखों से मिलीं। उन्होंने संजय गांधी के कृत्यों के लिए स्वयं माफ़ी मांगी और किसी तरह अनहोनी को टाला। दिल्ली पहुंचकर उन्होंने बंसी लाल को पदमुक्त कर दिया। श्री कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक ‘The judgement' में इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है।
इन्दिरा गांधी के परिवार के DNA में तानाशाही है। जब यह परिवार सत्ता में रहता है, तो देश पर तानाशाही थोपता है और बाहर रहता है तो अपनी ही पार्टी पर तानाशाही थोपता है। वित्त मन्त्री अरुण जेटली ने इमर्जेन्सी देखी भी है और जेल में रहकर भोगी भी है। अत: उनका कथन कि इन्दिरा गांधी और हिटलर में कोई फर्क नहीं है, शत प्रतिशत सत्य है।

Saturday, April 21, 2018

ओछी हरकत


ओछी हरकत
      इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस के खिलाफ़ महाभियोग का प्रस्ताव कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने उप राष्ट्रपति को सौंपा है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा पर पद के दुरुपयोग समेत पाँच बेबुनियाद आरोप लगाए गए हैं। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी बहुत दिनों से महाभियोग प्रस्ताव लाने की ताक में थे। जस्टिस लोया की मृत्यु को जब सुप्रीम कोर्ट ने स्वाभाविक मृत्यु करार दिया और किसी तरह की अगली जाँच की संभावना को खारिज कर दिया तो पप्पू का धैर्य जवाब दे गया और उन्होंने एनसीपी, सपा, बसपा, माकपा, भाकपा और मुस्लिम लीग जैसी देशद्रोही पार्टियों से हाथ मिलाते हुए महाभियोग की नोटिस दे ही डाली। सबको यह तथ्य मालूम है कि कांग्रेस द्वारा लाया गया यह प्रस्ताव किसी भी सूरत में पास होनेवाला नहीं है। नियमानुसार प्रस्ताव लाने के लिए तो सिर्फ ५० संसद सदस्यों के हस्ताक्षर की आवश्यकता है लेकिन इसके बाद संबन्धित सदन के सभापति द्वारा तीन सदस्यीय समिति गठित करने का प्रावधान है। इस समिति के सदस्य होते हैं -- सुप्रीम कोर्ट के एक वर्तमान जज, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और एक कानून विशेषज्ञ। यह समिति उचित छानबीन कर अपनी रिपोर्ट लोकसभा के स्पीकर या राजसभा के अध्यक्ष को देती है। आरोप सही नहीं पाए जाते हैं तो प्रस्ताव वहीं समाप्त हो जाता है और महाभियोग की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ाई जाती। अगर आरोप सही पाए गए तो सदन में इसकी चर्चा कराई जाती है। इस दौरान आरोपी जज को अपने बचाव का पूरा मौका दिया जाता है। चर्चा के बाद मतदान कराया जाता है। प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए दोनों सदनों के दो तिहाई सदस्यों का समर्थन अनिवार्य है। प्रस्ताव स्वीकृत होने पर अन्तिम आदेश के लिए इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।
            कांग्रेस को अच्छी तरह पता है कि उसके पास संख्या बल नहीं है। अगर संख्या बल होता तो राहुल गांधी प्रधान मन्त्री होते। महाभियोग प्रस्ताव का गिरना तय है। इसका उद्देश्य देश के सर्वोच्च न्यायालय और विशेष रूप से चीफ जस्टिस को बदनाम करना है। अगर महाभियोग प्रस्ताव लाना ही था तो सुप्रीम कोर्ट के उन चार जजों के खिलाफ़ लाना चाहिए था जिन्होंने पद, मर्यादा, गोपनीयता और संवैधानिक जिम्मेदारियों की धज्जियां उड़ाते हुए राज नेताओं की तरह प्रेस कान्फ़ेरेन्स करके सुप्रीम कोर्ट की मर्यादा को तार-तार किया था। उस समय कांग्रेस और कम्युनिस्ट उन जजों की पीठ थपथपा रहे थे, लेकिन जैसे ही जस्टिस लोया के मामले में मनमाफिक फैसला नहीं आया, सब के सब महाभियोग का मिसाइल ले दौड़ पड़े। उन्हें उम्मीद थी कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस मामले में दोषी करार दिए जायेंगे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। अत: कांग्रेस ने न्यायपालिका को धमकाने के लिए महाभियोग जैसी शक्ति का राजनीतिक हथियार के रूप में दुरुपयोग का निर्णय लिया। इस पूरे मामले को हल्के में लेना खतरानाक हो सकता है। यह मामला पूरी न्यायपालिका की आज़ादी के लिए गंभीर खतरा है। सभी राजनीतिक दलों को इसकी गंभीरता समझनी चाहिए। महाभियोग की शक्ति बेहद अहम है। इसके दुरुपयोग से संवैधानिक संस्थाओं पर प्रतिकूल असर होगा। कांग्रेस और राहुल गांधी ऐसा करके सार्वजनिक संस्थाओं को खत्म करने पर तुले हुए हैं। कई पूर्व न्यायाधीशों ने भी कांग्रेस के इस कदम पर गंभीर चिन्ता जाहिर की है। अगर इस कार्य को हतोत्साहित नहीं किया गया तो कोई भी पक्ष जो न्यायालय के निर्णय से संतुष्ट नहीं है क्या बार-बार महाभियोग का प्रस्ताव लाएगा? माना कि राहुल गांधी अपरिपक्व हैं, लेकिन अन्य विचारशील लोगों को उन्हें उचित सलाह देनी चाहिए थी। ऐसा प्रस्ताव लोकतन्त्र और संविधान दोनों के लिए खतरे की घंटी है। सत्ता के लिए बावले पप्पूजी उचित-अनुचित में भेद करने में अक्षम हैं। इसकी जितनी निन्दा की जाय, कम है।

Thursday, April 5, 2018

आन्दोलन या अराजकता

           भारत में लोकतन्त्र अराजकता का पर्याय बनता जा रहा है। संसद के हर सत्र में सत्ता न मिलने की कुंठा से ग्रस्त वंशवादी राहुल गांधी के नेतृत्व में विपक्ष ने जिस तरह अराजकता फैलाकर संसद का कामकाज ठप्प कर रखा है, उसका वीभत्स रूप पिछले २ अप्रिल को दलितों के आह्वान पर भारत बंद में देखने को मिला। पिछले कई वर्षों से यह देखा जा रहा है कि कोई भी आन्दोलन बिना हिन्सा के समाप्त नहीं हो रहा है। रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में मुस्लिमों द्वारा मुंबई के आज़ाद पार्क में आयोजित धरना प्रदर्शन देखते ही देखते हिंसक आन्दोलन में परिवर्तित हो गया। बसें जलाई गईं और हिन्दुओं की दूकनें फूंक दी गईं। कई लोगों को मौत के घाट भी उतारा गया। आरक्षण के लिए जाट आन्दोलन, गुर्जरों का आन्दोलन, पाटीदारों का आन्दोलन भी हिंसक रूप ले चुका है। सरकारी बसों को जलाना, रेलवे लाइन पर धरना देकर ट्रेनों को रोकना, पुलिस पर हिंसक हमला और आगजनी आज के अन्दोलनों के आवश्यक अंग बन चुके हैं। जाति, धर्म, क्षेत्र, आरक्षण और पानी के लिए लगभग सारे राजनीतिक दल आये दिन आन्दोलन करते रहते हैं, जो गहरी चिन्ता का विषय है। एक फिल्म के रिलिज को लेकर राजस्थान और अन्य प्रदेशों में राजपुतों के संगठन करणी सेना ने जो हास्यास्पद आन्दोलन किया उसका मतलब समझ में नहीं आया। बिना फिल्म देखे लोगों की भावनाओं को भड़काया गया और अपार सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। फिल्म रिलिज भी हुई और चली भी। आत्मदाह की धमकी देनेवाले करणी सेना के जवान और महिलाएं बिल में घुस गईं। समझ में नहीं आया कि वह आन्दोलन किसके इशारे पर चलाया गया। कभी-कभी संदेह होता है कि इसके पीछे फिल्म की पब्लिसिटी के लिए फिल्म के निर्माता का हाथ तो नहीं था! मैं अमूमन आजकल की फिल्में नहीं देखता, लेकिन आन्दोलन के कारण जिज्ञासा इतनी बढ़ी कि ३०० रुपए का टिकट लेकर मैंने फिल्म देखी और कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया।
पिछले २ अप्रिल को दलितों द्वारा किया गया हिंसक भारत बंद भी बेवज़ह था। निर्णय सुप्रीम कोर्ट का था और खामियाजा भुगता सरकारी संपत्ति और जनता ने। आन्दोलन के दौरान ९ निर्दोष लोगों की हत्या की गई और करोड़ों की सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। पूरा आन्दोलन प्रायोजित था। आन्दोलनकारी लाठी डंडा, तलवार, पेट्रोल और आग्नेयास्त्रों से लैस थे। उन्होंने मासूम बच्चों को ले जा रही स्कूल बसों को भी अपना निशाना बनाया। इस आन्दोलन ने सामाजिक समरसता को तार-तार कर दिया। अगर समाज के दो वर्ग इसी तरह आपस में भिड़ते रहे तो देश का क्या भविष्य होगा। श्री नरेन्द्र मोदी के प्रधान मन्त्री बनने के बाद से ही वंशवादी जो दिल्ली की गद्दी को बपौती मान रहे थे, तरह-तरह के हथकंडे फैलाकर सरकार को अस्थिर करने का प्रयास करते रहे हैं। कभी ये हैदराबाद यूनिवर्सिटी जाकर जातिवाद को हवा देते हैं, तो कभी जे.एन.यू. में जाकर भारत के टुकड़े करने का मंसूबा पाल रहे देशद्रोहियों के साथ धरने पर बैठते हैं, कभी गुप्त रूप से सपरिवार चीनी राजनयिकों से भेंट करके गुप्त योजनाएं बनाते हैं, कभी आतंकवादियों के पक्ष में गुहार लगाते हैं तो कभी पाकिस्तानी मदद के लिए अपने विश्वस्त को पाकिस्तान भेजते हैं। इनका एकमात्र एजेंडा है, दिल्ली की सत्ता पार काबिज़ होना। इसके लिए ये कुछ भी कर सकते हैं। आश्चर्य तो तब हुआ जब २ अप्रिल को भारत बंद के दौरान हुई हिंसा की किसी विपक्षी पार्टी ने निन्दा नहीं की, उल्टे मौन समर्थन दिया। हमेशा उटपटांग बयान देनेवाले राहुल बाबा ने तो सारा दोष भाजपा पर मढ़ते हुए कहा कि SC/ST Act भंग कर दिया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि इस तरह का कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। सरकार ने उसी दिन Review Petition भी फाईल कर दिया लेकिन कर्नाटक की जनसभाओं और ट्विट के माध्यम से राहुल बाबा ने दलितों को भड़काने का अभियान जारी रखा। उन्होंने दलित समाज की दयनीय स्थिति के लिए बीजेपी को जिम्मेदार ठहराया। झूठा और गैरजिम्मेदाराना बयान देने के कारण ही राहुल बाबा की विश्वसनीयता हमेशा संदेह के घेरे में रहती है। लेकिन देश तोड़ने के लिए उनकी गतिविधियों पर केन्द्र सरकार को पैनी दृष्टि रखनी चाहिए। यह कैसा लोकतन्त्र है जिसमें कन्हैया, ओवैसी, आज़म, फ़ारुख, माया, ममता, केजरीवाल और राहुल बाबा को कुछ भी कहने और करने का विशेषाधिकार प्राप्त है? लोकतन्त्र और देश की अखण्डता के लिए यह कही से भी शुभ संकेत नहीं है। राष्ट्रप्रेमियों को इसकी काट के लिए गंभीरता से विचार करना चाहिए।

Thursday, March 29, 2018

बिजली विभाग का निजीकरण

          पता नहीं क्यों, बिजली विभाग पर भाजपा की कुदृष्टि हमेशा से ही क्यों रही है? जब-जब भाजपा की सरकार आई है, बिजली विभाग को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। जब भाजपा के स्व. राम प्रकाश गुप्त यू.पी. के मुख्यमन्त्री थे और नरेश अग्रवाल ऊर्जा मन्त्री थे तो बिजली विभाग को चार टुकड़ों में बांट दिया गया जिससे प्रशासनिक खर्च तो बढ़ गया, हासिल कुछ भी नहीं हुआ। सरकारी संगठनों का निजीकरण किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। ५० और ६० के दशक में विद्युत उत्पादन और वितरण स्थानीय स्तर पर था, जिसे मार्टिन बर्न जैसी कंपनियां संभालती थीं। तब बिजली सिर्फ बड़े शहरों को मिला करती थी। सरकार ने इसे सर्वसाधारण को सुलभ बनाने के लिए राष्ट्रीयकरण किया और प्रत्येक प्रान्त में राज्य विद्युत परिषद अस्तित्व में आए। निस्सन्देह इसका लाभ गरीबों और गांवों को भी मिला। फिर आरंभ हुआ लाभ और हानि की गणना का सिलसिला। लगभग सभी सरकारों ने बिजली विभाग को घाटे का संगठन घोषित किया और अपने स्तर से निजीकरण के प्रयास किए। वितरण के क्षेत्र में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग वितरण कंपनियां बनाई गईं। इससे प्रशासनिक खर्च बढ़ने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। इस बीच स्वयं बिजली विभाग ने उन बिन्दुओं और व्यवस्था  को चिह्नित किया जिसमें सुधार करके उपभोक्ताओं की कठिनाइयां कम की जा सकती थीं और इसे एक लाभ वाले संगठन में परिवर्तित किया जा सकता था। इसकी शुरुआत online billing से हुई। मैंने स्वयं कंप्यूटर बिलिंग सर्विस सेन्टर में अधिशासी अभियन्ता के रूप में कार्य करते हुए व्यवस्था का अध्ययन किया और बड़ी मिहनत से online billing के पक्ष में एक शोधपत्र तैयार किया जिसे मैंने लखनऊ, शक्ति भवन में एक उच्चस्तरीय कार्यशाला में तात्कालीन चेयरमैन को भेंट भी किया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे प्रयास की सराहना की और online billing के लिए सघन प्रयास करने का आश्वासन भी दिया। स्वाभाविक है, सारे अच्छे कामों के प्रयोग के लिए पहले शहरों को ही चुना जाता है। पूर्वांचल में इसके लिए वाराणसी को चुना गया और online billing की शुरुआत की गई। मैं आरंभ से अन्त तक इस योजना से जुड़ा रहा। मुझे परम संतुष्टि और खुशी मिली जब वाराणसी शहर में कुछ आरंभिक कठिनाइयों के बावजूद online billing सफलता पूर्वक काम करने लगी। अब बिल में हेराफेरी की संभावना नगण्य हो गई और राजस्व वसूली में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज़ की गई। वाराणसी में मिली सफलता के बाद पूरे प्रदेश में online billing की व्यवस्था लागू की गई, जो एक बहुत बड़ा सुधार था। फिर बिजली की चोरी रोकने और तारों का जाल कम से कम करने पर कार्य आरंभ हुआ। सरकार ने धन की व्यवस्था की और विद्युत कर्मियों ने एचटी लाइन को भूमिगत करने का काम हाथ में लिया। नंगे एलटी तारों की जगह एबीसी लगाने का कार्य युद्धस्तर पर किया गया जिससे कंटियामारी पर विराम लगा और लाइन लास कम हुआ। केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियों के अनुसार हजारों गांवों का विद्युतीकरण किया गया। अब जब उपरोक्त सुधारों के कारण मुख्य शहरों की विद्युत व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार हुआ और विभाग लाभ अर्जित करने की स्थिति में आया, तो सरकार इन्हीं चुने हुए शहरों को निजी हाथों में देने का निर्णय ले रही है, जो निन्दनीय है और जनविरोधी भी है। इससे सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा होता है। अगर सरकार सुधार के मामले में इतनी ही गंभीर है, तो क्यों नहीं ग्रामीण क्षेत्रों का वितरण निजी हाथों में देने का फैसला लेती है? क्या कोई भी निजी कंपनी बलिया, गाजीपुर या सोनभद्र के सुदूर गांवों की बिजली आपूर्ति और राजस्व वसूली का दायित्व ले सकती है? मैं दावे के साथ कह सकता हूं -- नहीं और कभी नहीं। बिजली विभाग जब बछिया को पाल-पोस कर दुधारु गाय बना देता है तो ये निजी कंपनियां गिद्ध की तरह मलाई खाने के लिए मंडराने लगती हैं। सरकार और जनता को यह बात समझ में आनी चाहिए।
     रेलवे में दस रुपए का टिकट नहीं कटाने पर रेलवे का मजिस्ट्रेट बेटिकट यात्री को जेल भेज देता है, जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है, लेकिन बिजली विभाग में जो जे.ई. या एस.डी.ओ. किसी उपभोक्ता को रंगे हाथ बिजली चोरी करते हुए पकड़ता है, उसे एफ.आई.आर. दायर करके लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अगर रेलवे के मजिस्ट्रेट की तरह बिजली विभाग के अधिकारियों को भी अधिकार मिल जाये, तो बिजली की चोरी पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। सबसे पहले जनता और सरकार के दिमाग में यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि बिजली विभाग कोई Commercial organisation नहीं है। यह चिकित्सा, शिक्षा, न्याय, सिंचाई आदि विभागों की तरह एक Wefare organisation है जिसमें जनता का हित सर्वोपरि है। गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के लिए लगभग मुफ़्त आपूर्ति, किसानों और ग्रामीणों के लिए लागत के एक चौथाई मूल्य पर, बुनकरों आदि समाज के कमजोर तबकों के लिए आधे मूल्य पर विद्युत आपूर्ति क्या कोई Commercial organisation कर सकता है? कदापि नहीं। क्या बिजली विभाग की यही नियति है कि पहले इसका निजीकरण से सरकारीकरण किया गया और अब फिर सरकारीकरण से निजीकरण किया जाय। अबतक का अनुभव तो यही रहा है कि निजी कंपनियां शोषण का प्रयाय रही हैं। कुछ वर्षों के बाद सरकार पुनः सरकारीकरण करने के लिए बाध्य होगी, लेकिन तबतक बहुत नुकसान हो चुका होगा। यह दिल्ली से दौलताबाद की दौड़ बन्द होनी चाहिए। जनहित में ईश्वर सरकार को सद्बुद्धि दे। बिजली कर्मचारियों से भी अपेक्षा है कि वे भी अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए जिस डाल पर बैठे हैं, उसे ही काटने का प्रयास बंद कर दें जो वे अबतक करते आये हैं। उपभोक्ता को अपनी आय का स्रोत न समझकर अपना मित्र समझें, तभी समाज का भी सहयोग संभव है।

Wednesday, March 14, 2018

आरक्षण

        मेरे गांव में एक दलित (चमार) है। लालजी राम उसका नाम है। उसकी पत्नी ने मेरी माँ की बहुत सेवा की थी। लालजी राम भी मेरे पिताजी के हर आदेश पर एक पैर पर खड़ा रहता था। वह लगभग रोज ही सवेरे मेरे घर आता था। आम के बगीचे की देखभाल उसी के जिम्मे थी। पिताजी तो अब नहीं रहे, लेकिन मेरे परिवार के सभी लोग उसे आज भी बहुत प्यार करते हैं। उसमें और उसकी पत्नी में एक ही बुरी आदत थी। वह यह कि दोनों अत्यधिक कच्ची शराब का सेवन करते थे। पसिया टोली मेरे घर के पास ही है जो आज भी नीतीश कुमार की शराबबंदी को ठेंगा दिखाते हुए देसी शराब का जिले में सबसे बड़ा केन्द्र बन चुका है। लालजी की पत्नी पाँच साल पहले कच्ची शराब के सेवन से इस लोक से चली गई। लालजी भी शराबियों के आपसी संघर्ष में एक बार बुरी तरह पिटा जिसके कारण रीढ़ की हड्डी में चोट आई, फलस्वरूप वह मुश्किल से चल-फिर सकता है, कोई काम नहीं कर सकता। वृद्धावस्था पेंशन और मेरे घर से प्राप्त आर्थिक सहायता ही उसका संबल है। उसके दो बच्चे हैं। बारी-बारी से दोनों उसे खिलाते हैं। बड़े बेटे वीरेन्द्र का पढ़ने में मन नहीं लगा। किसी तरह कक्षा आठ तक पढ़ा। उसके बाद वह जयपुर चला गया जहां मेरे गांव के अधिकांश युवक दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते हैं। छोटा बेटा प्रदीप पढ़ने में कुछ अच्छा था। उसे हमलोगों ने प्रोत्साहित किया, रुपए-पैसे, किताब-कापी की व्यस्था की। येन केन प्रकारेण उसने बी.ए. पास कर लिया। मुझे उम्मीद थी कि दलितों के आरक्षण कोटे के तहत उसे नौकरी मिल जाएगी। लेकिन वहां हर एक पद के लिए उसकी प्रतियोगिता दलित समाज के क्रीमी लेयर के उन लड़कों से थी जिनके पिता आरक्षण का लाभ लेकर सरकारी नौकरी पाने के बाद शहरों में बस गए थे। प्रदीप ने कई प्रयास किए लेकिन हर बार असफलता ही मिली। इस बीच उसकी शादी भी हो गई। अत्यधिक तनाव और आर्थिक तंगी के कारण उसके पेट में दर्द रहने लगा। डाक्टरों ने बताया कि उसके पेट में ट्यूमर है। सबने उसे टाटा मेमोरियल हास्पीटल, मुंबई जाने की सलाह दी। लेकिन वहां जाकर इलाज़ कराना उसके वश में नहीं था। गांव के ही कुछ युवक पिछली गर्मियों में घर आए थे। वे उसे लेकर जयपुर गए। वहां सवाई माधो सिंह अस्पताल में उसका इलाज हुआ। आपरेशन करके ट्यूमर बाहर निकाल दिया गया। गांव के जो युवक जयपुर में रह रहे थे, उन्होंने ही चन्दा लगाकर उसका इलाज कराया। इलाज में डेढ़ लाख रुपए खर्च हुए। जातीय भावना से ऊपर उठकर युवकों ने उसका इलाज़ कराया। अभी होली में प्रदीप से मेरी मुलाकात हुई थी। अब वह ठीक है। वह सरकारी नौकरी पाने की उम्र पार कर चुका है। एक कंपनी के घरेलू उत्पाद घूम-घूमकर बेचकर वह अपनी आजीविका चला रहा है।
बिहार के पिछले विधान सभा के चुनाव में लालू-नीतीश गठबन्धन को प्रचंड बहुमत मिला था। मैं जब भी घर जाता हूं, लालजी मुझसे मिलने अवश्य आता है। मैं जबतक रहता हूं, उसे खैनी खाने के लिए प्रतिदिन बीस रुपए देता हूं। मेरे चचेरे बड़े भाई स्थानीय राजनीति में सक्रिय रहते हैं। वे भाजपा के मंडल अध्यक्ष हैं। विधान सभा चुनाव के बाद मैं घर गया था। मैंने लालजी से पूछा - “चुनाव में तुमने किसे वोट दिया था?” उसने भैया को न बताने के आश्वासन के बाद बताया -- “ मैं सबसे झूठ बोल सकता हूं, लेकिन आपसे नहीं। आप मनोज भैया को मत बताइयेगा। उन्होंने मुझसे कमल पर वोट डालने के लिए कहा था, लेकिन मैंने तीर (नीतीश) को वोट दिया।” मैंने फिर प्रश्न किया -- “तीर में तुम्हें क्या अच्छाई दिखाई पड़ी?” “ बबुआ आप समझते नहीं। लालू भैया ने मीटिंग में कहा था कि कमल वाले पावर में आने पर दलितों का आरक्षण खत्म कर देंगे।” उसने तपाक से उत्तर दिया। मैंने उससे पूछा कि आरक्षण से तुम्हें कभी कोई फायदा हुआ है? तुम्हारा बी.ए. पास बेटा दर-दर की ठोकरें खाता रहा, लेकिन उसे चपरासी की भी नौकरी नहीं मिली। इसके बाद भी तुमने लालू की बातों पर विश्वास कर लिया। उसने कहा कि जाने दीजिए; बिरादरी के किसी न किसी को फायदा तो मिलता ही होगा।
मैं उसकी त्याग-भावना के आगे नतमस्तक था। मैं घर जाता हूं तो वह पहले की तरह ही आने का समाचार पाकर मिलने के लिए आता है और खैनी का पैसा लेता है। उसका बेटा प्रदीप सायकिल से अब भी घूम-घूमकर घरेलू उत्पाद बेचता है। प्रदीप की पत्नी मेरे ही घर में झाड़ू-पोंछा करती है। लालजी का परिवार साठ साल पहले जैसा था, आज भी वैसा ही है। उसे आरक्षण की आजतक कोई सुविधा नहीं मिली लेकिन वह आरक्षण नीति में किसी तरह के बदलाव का प्रबल विरोधी है।

Sunday, February 11, 2018

वर्णसंकर

महाराज शान्तनु भीष्म पितामह के पिता थे। वे हस्तिनापुर के सम्राट थे। उनकी पहली पत्नी गंगा से देवव्रत पैदा हुए जो अपनी भीष्म प्रतिज्ञा के लिए भीष्म नाम से प्रसिद्ध हुए। वे महान पराक्रमी, धर्मज्ञ और शास्त्रों के ज्ञाता थे। महाराज शान्तनु ने उन्हें हस्तिनापुर के युवराज के पद पर अभिषिक्त भी कर दिया था। अचानक बुढ़ापे के उस चरण में जिस समय पुत्र का ब्याह करके आदमी पुलकित होता है, शान्तनु को प्रेम-रोग हो गया। वे एक केवट-कन्या सत्यवती पर मोहित हो गए और उससे प्रणय-निवेदन कर बैठे, लेकिन सत्यवती के पिता ने शर्त रख दी कि सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा। देवव्रत पहले ही युवराज घोषित किए जा चुके थे। शान्तनु ने शर्त नहीं मानी और अपनी राजधानी लौट आए, लेकिन सत्यवती को न पाने का मलाल इतना अधिक था कि वे बीमार रहने लगे। शीघ्र ही देवव्रत ने कारण पता कर लिया और स्वयं अपने पिता के लिए सत्यवती का हाथ मांगने के लिए केवट के पास पहुंच गए। केवट ने अपनी शर्त फिर दुहराई। देवव्रत ने शर्त मानते हुए यह प्रतिज्ञा की कि वे आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करेंगे ताकि भविष्य में सिंहासन के लिए कोई संघर्ष न हो। इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत भीष्म कहलाए और इसी नाम से जगप्रसिद्ध हुए। शान्तनु को सत्यवती मिल गईं। भीष्म पितामह ज़िन्दगी भर कुंवारे रहे और सिंहासन की रक्षा करते रहे। सत्यवती से शान्तनु को दो पुत्र प्राप्त हुए -- विचित्रवीर्य और चित्रांगद। बुढ़ापे की सन्तान होने के कारण दोनों बचपन से ही कमजोर और अस्वस्थ थे। जब वे किशोरावस्था में पहुंचे, उसी समय महाराज शान्तनु की मृत्यु हो गई और चित्रांगद एक युद्ध में मारा गया। राजसिंहासन पर विचित्रवीर्य को बैठाया गया। सारी व्यवस्था भीष्म संभालते थे। वंश चलाने के लिए विवाह की आवश्यकता थी लेकिन विचित्रवीर्य के स्वास्थ्य को देखते हुए कोई राजा अपनी कन्या उन्हें देने के लिए तैयार नहीं हो रहा था। अन्त में भीष्म पितामह ने काशीराज के यहां चल रहे स्वयंवर से उनकी तीन कन्याओं -- अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका का अपहरण कर लिया। बाद में उन्होंने अम्बा को स्वतंत्र कर दिया तथा अम्बिका एवं अम्बालिका से विचित्रवीर्य का विवाह कर दिया। विचित्रवीर्य तो अस्वस्थ रहते ही थे, विवाह के बाद अतिशय भोग के कारण उन्हें क्षयरोग हो गया और वे बिना सन्तान उत्पन्न किए स्वर्गवासी हो गए। भीष्म अपनी प्रतिज्ञा से बंधे होने के कारण विवाह कर नहीं सकते थे, वंश आगे बढ़े तो कैसे। सत्यवती को यह चिन्ता खाए जा रही थी। ऐसे में उन्होंने कुंवारे में उत्पन्न अपने पुत्र व्यासजी को बुलवाया और उनसे अपनी अनुज-वधुओं से संपर्क कर सन्तान उत्पन्न करने का आग्रह किया। व्यासजी ने माता का आग्रह स्वीकार किया। यही से कुरुवंश के पतन की पटकथा लिख दी गई। अनुज-वधू पुत्री के समान होती है। त्रेता में श्रीराम ने अनुज-वधू को पत्नी बनाने के अपराध को इतना बड़ा माना था कि उन्होंने बाली का वध तक कर दिया। हस्तिनापुर में व्यासजी और अनुजवधूओं के संपर्क से दो पुत्र उत्पन्न हुए -- धृतराष्ट्र और पांडु। ये दोनों ही वर्णसंकर थे। महाभारत की आगे की कथा इन वर्णसंकरों के पुत्रों के आपसी विवाद और संघर्ष की है जिसका अन्तिम परिणाम महायुद्ध के रूप में सामने आया और विजयी पक्ष को दुःख, आंसू और सर्वनाश के अतिरिक्त कुछ भी हासिल नहीं हुआ।
आज भी महान भारत वर्णसंकर-संस्कृति से प्रभावित नज़र आ रहा है। जब राजा वर्णसंकर हो जाता है तो देश, धर्म और प्रजा का विनाश सुनिश्चित हो जाता है। राहुल गांधी की कांग्रेस-अध्यक्ष पद पर ताजपोशी पर जो लोग बहुत प्रसन्न हैं, उन्हें महाभारत की उपरोक्त कथा को एकबार अवश्य पढ़ना चाहिए। कांग्रेस में चरित्र-निर्माण कभी भी प्राथमिकता की सूची में नहीं रहा है। महात्मा गांधी निर्वस्त्र युवतियों के साथ सोते थे और अपने ब्रह्मचर्य की परीक्षा स्वयं लेते थे। बुढ़ापे मे लेडी माउण्टबैटन के प्रेम में पंडित नेहरू के पागल होने की कीमत देश को विभाजन और कश्मीर समस्या के रूप में चुकानी पड़ी। इन्दिरा गांधी ने फिरोज़ खां से शादी करके वर्णसंकर सन्तानें उत्पन्न की। उनके पुत्रों -- राजीव और संजय ने भी यह परंपरा कायम रखी। राहुल गांधी खानदानी वर्णसंकर हैं। अगर नरेन्द्र मोदी २०१९ का चुनाव हार गए तो दिल्ली के सिंहासन पर एक वर्णसंकर की ताजपोशी अवश्यंभावी है। लगता है इतिहास अपनी पुनरावृत्ति करके मानेगा। पर तब एक और महाभारत भी कोई रोक नहीं सकता है।

Sunday, January 7, 2018

एक पाती लालू भाई के नाम

प्रिय लालू भाई,
जय राम जी की।
आगे राम जी की कृपा से हम इस कड़कड़ाती ठंढ में भी ठीकठाक हैं और उम्मीद करते हैं कि आप भी हज़ारीबाग के ओपेन जेल में राजी-खुशी होंगे। अब तो बिहार और झारखंड का सभी जेलवा आपको घरे जैसा लगता होगा। इस बार आपकी पूरी मंडली आपके साथ होगी। आप चाहें तो कबड्डी भी खेल सकते हैं और क्रिकेट भी खेल सकते हैं। हम ई देख के बहुते खुश हुए कि जेल जाते समय भी आपके चेहरे पर मुस्कान पहले की तरह ही थी। मेरे शहर में एक बदनाम मुहल्ला है। उसमें नाचने-गाने वाली रहती हैं। शहर के रईस वहां रात में आनन्द लेते हैं। कभी-कभी उनके घरों पर पुलिस का छापा पड़ता है तो बिचारियां गिरफ़्तार हो जाती हैं लेकिन कुछ ही दिनों में ज़मानत पर छूटकर आ भी जाती हैं। फिर सारा कार्यक्रम पहले की तरह ही चालू हो जाता है। एक दिन एक सब्जीवाले के यहां उनमें से एक सब्जी खरीद रही थी। दोनों में पुरानी जान-पहचान थी। सब्जी वाले ने पूछा -- “बाई जी कब आईं वहां से?” “यही दो-तीन दिन हुआ,” बाई जी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया। “वहां कवनो दिक्कत-परेशानी तो नहीं हुई,” सब्जीवाले ने प्रश्न किया। “नहीं, तनिको नहीं। हर जगह हमलोगों को चाहने वाले मिल जाते हैं, वहां भी मिल गए। तबहियें तो इतना जल्दी वापस आ गए, बाईजी ने हँसते हुए जवाब दिया। सब्जीवाले ने भी हँसी में भरपूर साथ दिया और बाईजी की झोली सब्जी से भर दी। बाईजी ने जाने के पहले पूछा - “कितना हुआ रामलालजी?” “जो आपकी मर्ज़ी हो दे दीजिए। आपसे क्या भाव-ताव करना?” बाईजी ने मुस्कुराते हुए दस के कुछ नोट उसकी ओर बढ़ाए और सब्जीवाले ने स्पर्श-सुख के साथ उन्हें ग्रहण किया। उसके लिए तो बाईजी की मुस्कान ही काफी थी। बाईजी आसपास के लोगों पर अपनी नज़रों की बिजली गिराते हुए, इठलाते और मुस्कुराते हुए अपने गंतव्य पर चली गईं। लालू भाई! आपको जब-जब टीवी पर जेल जाते हुए और आते हुए देखता हूं तो मुझे अपने शहर की बाईजी की याद आती है। आप उसी की तरह मुस्कुराते हुए जेल जाते हैं और कुछ ही दिनों में मुस्कुराते हुए वापस भी आ जाते हैं। आपके चेहरे की चमक तनिको कम नहीं होती। कमाल है। लगता है देसी शुद्ध घी सिर्फ आप ही खाते हैं। आपको देखकर विश्वास हो जाता है -- चोर का मुंह चांद जैसा।
  लालू भाई! जब आपने अदालत को बताया कि आप सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में वकील हैं तो मालूम भया कि आप पढ़े-लिखे भी हैं; नहीं तो आपके मुखमंडल और बतकही से तो तनिको नहीं लगता है कि आप मैट्रिको पास किए होंगे। जरा नीतीश भैयवा को तो देखिए। खैनी तो वह भी खाता है लेकिन पढ़ा-लिखा लगता है। खैर जाने दीजिए ये सब। आप अखबार तो पढ़ते ही होंगे। समाचार आया था कि बिहार और झारखंड के नक्सली एरिया कमांडर जनता और ठेकेदारों से पैसा लूटते हैं, खुद जंगल में रहते हैं लेकिन अपने बच्चों को कलकत्ता और चेन्नई के डिलक्स स्कूल-कालेजों में पढ़ाते हैं। वे भी नहीं चाहते हैं कि उनके बच्चे उनकी तरह बनें। फिर आपने अपने बच्चों को क्यों अपनी राह पर ही चलना सिखाया? बिचारी मीसा भारती, आपकी बड़की बिटियवा भरी जवानी में हसबैंड के साथ कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा रही है। उ कवनो दिन गिरफ़्तार होकर जेल जा सकती है। दामादो को आपने अपना हुनर सिखा दिया। कम से कम ओकरा के तो बकश ही देते। डाईन को भी दामाद पियारा होता है। कवनो जरुरी है कि मीसा और उसके हसबैंड को एक ही जेल मिले। आपका तो एक पैर जेल में रहता है और एक बाहर रहता है। लेकिन भौजाई कैसे जेल में रह पायेंगी। रेलवे का होटल बेचना था तो अकेले ही बेचते, उनको अपना पार्टनर काहे को बना लिया। सुशील मोदिया बहुत बदमाश है। आपके साथ पटना यूनिवर्सिटी में महामंत्री था, सरकार में भी आपके ही मातहत मंत्री था, लेकिन भारी एहसान फरामोश आदमी निकला। आपने उसको ठीक से पहचाना नहीं था क्या। अब तो सारा पोलवा वही खोल रहा है। और आपको भी पटना में ही माल बनाने की क्या सूझी? दुबई में बनवाते, सिंगापुर में बनवाते, हांगकांग में बनवाते -- किसी को कानोकान खबर नहीं होती। सोनिया भौजी का इतना चक्कर लगाते हो, पपुआ से गठबंधन करते हो; अकूत धन को विदेश में सही ढंग से ठिकाने लगाने का फारमुला उनसे काहे नहीं सीख लिए। माल तो सीज हो ही गया, जवान लड़के को मिट्टी बेचने के जुर्म में फंसा दिया। पटना जू को मिट्टी बेचने की क्या जरुरत थी। गोपालगंज में गंडक पर बांध ही बनवा दिए होते।
लालू भाई। सरकारी पैसा हड़पने और सामाजिक न्याय में कवन सा संबन्ध है, आजतक हमारे दिमाग में नहीं आया। वैसे भी हमारे दिमाग में भूसा नहीं भरा है। सब भूसा तो आप ही खा गए। लेकिन आप और आपके चाहनेवाले यही कह रहे हैं। कहती है दुनिया, कहती रहे, क्या फर्क पड़ता है। आप तो वही करेंगे जिसमें दू पैसा की आमदनी हो। लेकिन भाई! बेटा, बेटी, दामाद और मेहरारू को फंसाना कवनो एंगिल से उचित नहीं है। नीतीश कुमार जी को कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए।
    जेलवा में जेलर से हाथ-पांव जोड़कर एक जोड़ी कंबल एक्स्टरा ले लीजिएगा। हज़ारीबाग में ठंढ कुछ बेसिये पड़ती है। चाह में आदी का रस मिलाके पीजिएगा, नहीं तो तबीयत खराब हो जाएगी। अपना खयाल रखियेगा, पटना में परिवार का खयाल रखने के लिए बहुते यादव है। थोड़ा लिखना जियादा समझना। इति।
        आपका अपना ही -- चाचा बनारसी

Friday, January 5, 2018

यह कैसी जुगलबन्दी

         जब-जब यह देश महानता की ओर बढ़ने की कोशिश करता है, कुछ आन्तरिक शक्तियां बौखला जाती हैं और इसे कमजोर करने की अत्यन्त निम्न स्तर की कार्यवाही आरंभ कर देती है। जाति और संप्रदाय इस देश के सबसे नाजुक मर्मस्थान हैं। इसे छूते ही आग भड़क उठती है। विगत सैकड़ों वर्षों का इतिहास रहा है कि भारतीय समाज की इस कमजोरी का लाभ उठाकर विदेशियों ने हमको गुलाम बनाया और हमपर राज किया। अंग्रेजों ने भारत की इस कमजोरी का सर्वाधिक दोहन किया। फूट डालो और राज करो की नीति उन्हीं की थी जिसे कांग्रेस ने अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए ज्यों का त्यों अपना लिया। महात्मा गांधी और महामना मालवीय जी ने विराट हिन्दू समाज की एकता और सामाजिक समरसता के लिए बहुत काम किया लेकिन उनके राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने सत्ता के लिए सारे ऊंचे आदर्श भुला दिए और एक समुदाय के तुष्टिकरण के लिए  देश का विभाजन तक करा दिया। द्विराष्ट्र के सिद्धान्त के अनुसार मुसलमानों को पाकिस्तान जाना था और हिन्दुओं को हिन्दुस्तान में रहना था। कांग्रेस के समर्थन से पाकिस्तान तो बन गया लेकिन अधिकांश मुसलमान हिन्दुस्तान में ही रह गए। जिस समस्या के समाधान के लिए देश का बंटवारा हुआ था, वह ज्यों की त्यों बनी रही। बंटवारे के ईनाम के रूप में हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने १९५२ के आम चुनाव में कांग्रेस को थोक में वोट दिया। कांग्रेस को राजनीतिक गणित समझने में देर नहीं लगी। नेहरूजी कहते थे -- By accident I am a Hindu. वही नेहरूजी अपने नाम के आगे पंडित लगाना नहीं भूलते थे। जब लोग उन्हें पंडितजी कहकर संबोधित करते थे तो वे अत्यन्त प्रसन्न होते थे। भोला-भाला ब्राह्मण समाज जो सदियों से सत्ता से बहुत दूर था, नेहरूजी के रूप में अपने को सत्ताधारी समझने लगा। नेहरू जी ने नाम के आगे पंडित लगाकर ब्राह्मणों का वोट साध लिया। जाति के आधार पर नौकरियों और जन प्रतिनिधियों के चुनाव का प्राविधान संविधान में डलवाकर उन्होंने दलितों को भी अपने पाले में कर लिया। भारतीय समाज के तीन बहुत बड़े वर्ग -- मुसलमान, दलित और ब्राह्मण कांग्रेस के वोट-बैंक बन गए जिसका लाभ सोनिया गांधी तक ने उठाया। लेकिन शीघ्र ही इन तीनों समुदायों को यह समझ में आ गया कि कांग्रेस ने धरातल पर इनके लिए कुछ किया ही नहीं। परिणाम यह निकला कि कांग्रेस का यह वोट बैंक तितर-बितर हो गया। दक्षिण में द्रविड पार्टियों ने इसका लाभ उठाया तो उत्तर में लालू, मुलायम और मायावती ने। लालू और मुलायम ने M-Y(मुस्लिम यादव) समीकरण बनाया तो मायावती ने DMF(दलित मुस्लिम फोरम)। कुछ वर्षों तक यह समीकरण काम करता रहा और सबने सत्ता की मलाई जी भरकर खाई। किसी ने चारा खाया तो किसी ने समाजवादी पेंशन। किसी ने टिकट के बदले अथाह धन कमाया तो किसी ने फिल्मी सितारे नचवाए। जनता ने सब देखा। मोहभंग स्वाभाविक था। इधर पश्चिम के क्षितिज गुजरात में पूरे देश ने विकास और राष्ट्र्वाद के सूरज को उगते हुए देखा। नरेन्द्र मोदी के रूप में देश ने एक महानायक का उदय देखा। पूरा हिन्दू समाज मतभेदों को भूलाकर एक हो गया और दिल्ली ही नहीं अधिकांश राज्यों में राष्ट्रवादी सत्ता के शीर्ष पर पहुंच गए। ये जतिवादी और भ्रष्ट नेता मोदी को जितनी ही गाली देते, उनकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती। सभी विरोधियों को बारी-बारी से मुंह की खानी पड़ी। फिर सबने अंग्रेजों और कांग्रेसियों की पुरानी नीति -- फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने का एकजूट प्रयास किया।
महाराष्ट्र के कोरेगांव की घटना मात्र एक संयोग नहीं है। समझ में नहीं आता कि भारतीयों पर अंग्रेजों के विजय को भी एक उत्सव के रूप में मनाया जाएगा? कोरेगांव में अंग्रेजों के विजयोत्सव की २००वीं वर्षगांठ मनाने के लिए गुजरात से तथाकथित दलित नेता जिग्नेश मेवाणी पहुंचते हैं तो जे.एन.यू. दिल्ली से उमर खालिद। अंबेडकर जी के पोते प्रकाश अंबेडकर भी कहां पीछे रहनेवाले थे। वे भी आग में घी डालने पहुंच ही गए। खुले मंच से जाति विशेष को गालियां दी गईं। दंगा भड़क उठा। इसे देशव्यापी करने की योजना है। उमर खालिद, जिग्नेश मेवाणी, हार्दिक पटेल और राहुल गांधी की जुगलबन्दी कोई आकस्मिक नहीं है। तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम पुरुष वर्ग तो पूरे देश में अराजकता फैलाने के लिए उचित समय का इन्तज़ार कर ही रहा है, खालिद, मेवाणी, पटेल और राहुल की जुगलबन्दी भी सत्ता सुख के लिए देश को अस्थिर करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। यह और कुछ नहीं, राष्ट्रवाद के उदय और तमाम तिकड़मों के बाद भी चुनावों में हो रही लगातार हारों से उपजी हताशा का परिणाम है। लेकिन यह देशहित में नहीं है। योजनाएं जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की राष्ट्रद्रोही धरती पर बनती हैं और क्रियान्यवन गुजरात, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की धरती पर किया जाता है। इसमें अच्छा खासा विदेशी धन खर्च किया जा रहा है। सरकार का यह कर्त्तव्य बनता है कि इन राष्ट्रद्रोही शक्तियों की आय का स्रोत, इन्हें समर्थन करनेवाली ताकतों और इनके असली लक्ष्य का पता लगाए और समय रहते इनपर कार्यवाही करे।