Sunday, December 27, 2015

अब तो शर्म करो केजरीवाल

            एक समय था, जब अरविन्द केजरीवाल अन्ना हजारे के प्रतिबिंब माने जाते थे। अन्ना आन्दोलन के दौरान आईआईटी, चेन्नई में उनका भाषण सुनकर मैं इतना प्रभावित हुआ कि उनका प्रबल प्रशंसक बन गया। अन्ना ने यद्यपि घोषित नहीं किया था, फिर भी भारतीय जन मानस उन्हें अन्ना के प्रवक्ता और उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता देने लगा था। उन्होंने तात्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के आरोप क्या लगाए, भाजपा समेत आरएसएस भी हिल गया। संघ के ही निर्देश पर गडकरी को भाजपा के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र भी देना पड़ा। गडकरी ने अदालत की शरण ली। केजरीवाल कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सके। उन्होंने गडकरी से माफ़ी मांगकर इस घटना का पटाक्षेप किया। गडकरी को उस समय निश्चित रूप से नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन केजरीवाल को ज्यादा क्षति हुई। उनकी स्थापित विश्वसनीयता का ग्राफ अब X-Axis पर लुढ़कने लगा।
      इस समय केजरीवाल लालू और दिग्विजय सिंह की श्रेणी में पहुंच गए हैं। मैं आरंभ से ही खेल संघों पर राजनीतिक हस्तियों के नियंत्रण के विरुद्ध रहा हूं। जेटली, शरद पवार, राजीव शुक्ला जैसे कद्दावर नेताओं को क्रिकेट-प्रबन्धन ज्यादा भाता है। मात्र इस कारण उनकी चरित्र हत्या नहीं की जा सकती। केजरीवाल ने अपने प्रधान सचिव के भ्रष्टाचार और उनके कार्यालय पर सीबीआई के छापे से जनता का ध्यान हटाने के लिए बदले की भावना से प्रेरित हो बिना किसी प्रमाण के अरुण जेटली की चरित्र-हत्या करने की अपनी ओर से पूरी कोशिश की। डीडीसीए में हुई कथित अनियमितता के लिए जेटली को दोषी ठहराकर उनसे इस्तीफ़े की मांग भी कर डाली। इसके पूर्व केजरी सरकार ने ही डीडीसीए में कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए अपने मनपसंद त्रिसदस्यीय जांच आयोग का गठन किया था जिसकी रिपोर्ट भी आ गई है। जांच आयोग ने अपनी रिपोर्ट में अरुण जेटली के नाम का उल्लेख भी नहीं किया है। ज्ञात हो कि इसके पूर्व  शीला दीक्षित की कांग्रेसी सरकार ने भी अरुण जेटली को घेरने का पूरा प्रयास किया था और डीडीसीए में कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए एक आयोग का गठान किया था। उसने भी जेटली को क्लीन चिट दी थी। मोदी और अन्य भाजपा नेता राजनीतिक असहिष्णुता के हमेशा से शिकार रहे हैं। पूर्व प्रधान मंत्री नरसिंहा राव ने आडवानी को हवाला काण्ड में लपेटने के लिए भरपूर प्रयास किया था, चार्ज शीट भी दाखिल की थी; लेकिन आडवानी बेदाग सिद्ध हुए। नरेन्द्र मोदी पर जिला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कांग्रेस ने एक दर्ज़न से अधिक मुकदमे दर्ज़ कराए। सिट से लेकर सीबीआई तक ने वर्षों तक गहन जांच की, लेकिन सत्य, सत्य ही रहा। मोदी पर एक भी आरोप सिद्ध नहीं हुआ। आज वे देश के प्रधान मंत्री हैं। देश ही नहीं विदेश भी उनके मुरीद हैं।

      केजरीवाल कोई आज़म खां, ओवैसी या लालू यादव नहीं हैं। उन्होंने आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है। आईआरएस में एक जिम्मेदार अधिकारी के पद की शोभा बढ़ाई है। किसी पर अनर्गल आरोप लगाना, कम से कम उन्हें शोभा नहीं देता है। राजनीति में आने के बाद केजरीवाल इतना नीचे गिर सकते हैं, किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी।

Wednesday, December 16, 2015

केजरीवाल का सच

         हिन्दुस्तान के स्वघोषित सबसे बड़े ईमानदार नेता अरविंद केजरीवाल इतनी जल्दी बेनकाब हो जायेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी। इतनी जल्दी तो लालू और ए. राजा के चेहरे से भी नकाब नहीं उतरा था। भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंककर जो व्यक्ति सत्ता में आया, वही भ्रष्टाचार का संरक्षक बन गया। पटना में नीतीश के शपथ ग्रहण समारोह में खिलखिलाते हुए लालू के गले लगना, कोई  आकस्मिक संयोग नहीं था। कहीं न कहीं दोनों की केमिस्ट्री मैच कर रही थी। 
अपनी हर कमजोरी के उजागर होने पर सारा दोष प्रधान मंत्री के सिर मढ़ देने की केजरीवाल की फितरत है। उनके मंत्री मिस्टर तोमर डिग्री के फर्जिवाड़े में पकड़े गए और गिरफ़्तार किए गए। इसे मोदी की साज़िश कहा गया। सोमनाथ भारती ने अपनी पत्नी को कुत्ते से कटवाया, बेल्ट से मारा, पत्नी ने एफ़.आई.आर. दर्ज़ कराकर न्याय की गुहार की। इसमें भी केजरीवाल को मोदी का षडयंत्र नज़र आया। शुरु में केजरीवाल उपराज्यपाल नज़ीब जंग से ही जंग करते नज़र आए, लेकिन शीघ्र ही उन्हें ज्ञात हो गया कि नज़ीब जंग बहुत बड़े पहलवान नहीं हैं। उनसे लड़ने में बहुत ज्यादा प्रसिद्धि नहीं मिल रही थी। अतः उन्होंने सबसे बड़े पहलवान का चुनाव किया और मोदी से ही जंग छेड़ दिया। ताज़ा घटना उनके प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार के घर और कार्यालय पर सीबीआई द्वारा डाले गए छापे की है। छापा डालने के पूर्व सीबीआई ने अदालत से अनुमति भी ली थी। एक भ्रष्ट अधिकारी के बचाव में उतरे केजरीवाल ने शालीनता की सारी सीमायें लांघते हुए प्रधान मंत्री को  कायर और मनोरोगी तक कह डाला। अगर ऐसा वक्तव्य लालू ने दिया होता, तो कोई आश्चर्य नहीं होता। उन्होंने तो अन्ना के खिलाफ बोलते हुए उनके ब्रह्मचर्य पर भी सवाल उठाए थे। लालू विदूषक ज्यादा हैं, नेता कम। लेकिन एक आई.आई.टी. का ग्रेजुएट गाली-गलौज की भाषा का प्रयोग करेगा और वह भी जनता द्वारा चुने गए भारत के लोकप्रिय प्रधान मंत्री के लिए, अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है। 
अब हम केजरीवाल जी के मित्र, उनके प्रधान सचिव, श्री श्री १०८ राजेन्द्र बाबा के बारे में जानकारी देना अपना फ़र्ज़ समझ रहे हैं।
*४८ वर्षीय राजेन्द्र कुमार सीएम केजरीवाल के प्रधान सचिव है।
* आईआईटी खड़गपुर से बी.टेक. करने वाले राजेन्द्र १९८९ बैच के आईएएस अधिकारी हैं।
* इसी साल फरवरी में दिल्ली के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव के रूप में नियुक्त हुए।
* शहरी विकास विभाग में सचिव रह चुके हैं। ऊर्जा-ट्रांसपोर्ट जैसे विभाग भी संभाल चुके हैं।
* राजेन्द्र, केजरीवाल के सबसे विश्वासपात्र अधिकारी हैं।
* केजरी ने एल.जी. की सलाह को अनदेखा करते हुए उन्हें अपना प्रधान सचिव बनाया।
* आईआईटी, खड़गपुर में पढ़ते समय ही दोनों एक-दूसरे के काफी करीब थे, लेकिन पढ़ने में वे केजरी से तेज थे इसीलिए उनका चुनाव आएएस में हुआ और केजरी का एलाएंस सर्विसेज में।
* केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेन्द्र कुमार चर्चित घोटालेबाज रहे हैं।
* उनके खिलाफ़ भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) में २०१२ तक सात शिकायतें दर्ज़ थीं, उस समय मोदी पीएम नहीं थे। 
* पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कार्यकाल में हुए सीएनजी घोटाले में शामिल अभियुक्तों की सूची में उनका नाम शीर्ष पर है। 
* शिक्षा और आईटी विभाग में रहते हुए एक निजी कंपनी से रिश्वत लेकर लाभ पहुँचाने का भी उनपर आरोप है। 
* अलग-अलग विभाग में रहते हुए राजेन्द्र कुमार ने कई कंपनियों की स्थापना कराई; फिर बिना टेंडर के उन्हें काम दिया और जी भरकर सरकारी खजाने को लूटा।
राजेन्द्र कुमार के राजधानी और उत्तर प्रदेश के ठिकानों पर छापा मारकर सीबीआई ने अबतक १६ लाख की अवैध संपत्ति बरामद की है। इनमें से २ लाख रुपए नकद और ३ लाख की विदेशी मुद्रा शामिल है।
ऐसे भ्रष्ट अधिकारी के आवास और कार्यालय पर छापे को मुख्यमंत्री कार्यालय पर छापे के रूप में प्रचारित किया गया। छापे के तुरन्त बाद केजरी महाशय  प्रेस कान्फ़ेरेन्स करते हैं और गंवार लालू की तरह प्रधान मंत्री को गाली देते हैं। प्याज के छिलके की भाँति केजरी के चेहरे से एक-एक करके ईमानदारी की परतें उतरती जा रही हैं। मुझे और किसी की फ़िक्र नहीं है। फ़िक्र है तो बस अन्ना की। अपने प्रिय शिष्य की हरकतों के कारण उन्हें कही हृदयाघात न हो जाय!

Thursday, December 3, 2015

सहिष्णुता और द्रौपदी

         शान्ति का प्रस्ताव लेकर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर जाने के लिए तैयार हो गए थे। सिर्फ पाँच गाँवों के बदले शान्ति के लिए पाण्डवों ने स्वीकृति दे दी थी। द्रौपदी को यह स्वीकार नहीं था। १३ वर्षों से खुली केशराशि को हाथ में पकड़कर उसने श्रीकृष्ण को दिखाया। नेत्रों में जल भरकर वह बोली --
“कमलनयन श्रीकृष्ण! मेरे पाँचों पतियों की तरह आप भी कौरवों से संधि की इच्छा रखते हैं। आप इसी कार्य हेतु हस्तिनापुर जाने वाले हैं। मेरा आपसे सादर आग्रह है कि अपने समस्त प्रयत्नों के बीच मेरी इस उलझी केशराशि का ध्यान रखें। दुष्ट दुःशासन के रक्त से सींचने के बाद ही मैं इन्हें कंघी का स्पर्श दूँगी। यदि महाबली भीम और महापराक्रमी अर्जुन मेरे अपमान और अपनी प्रतिज्ञा को विस्मृत कर, युद्ध की विभीषिका से डरकर कायरता को प्राप्त कर संधि की कामना करते हैं, तो करें। धर्मराज युधिष्ठिर की सहिष्णुता तो पूरी कौरव सभा ने देखी। मैं निर्वस्त्र की जा रही थी; वे शान्त बैठे रहे। आपने भी पाँच गाँवों के बदले शान्ति के प्रस्ताव पर अपनी सहमति दे दी है। अपमान की प्रचंड अग्नि में जलते हुए मैंने १३ वर्षों तक प्रतीक्षा की है। आज मेरे पाँचों पति कायरों की भांति संधि की बात करते हैं। वे सहिष्णुता की आड़ में नपुंसकता को प्राप्त हो रहे हैं। मेरे अपमान का बदला मेरे वृद्ध पिता, मेरा पराक्रमी भ्राता, मेरे पाँच वीर पुत्र और अभिमन्यु लेंगे। वे कौरवों से जुझेंगे और दुःशासन की दोनों सांवली भुजाएं तथा मस्तक को काट, उसके शरीर को मेरे समक्ष धूल-धूसरित कर मेरी छाती को शीतलता प्रदान करेंगे।"
---- ‘महाभारत’, विराट पर्व

Saturday, November 28, 2015

बच्चा पैदा करने वाली मशीन

         केरल के मशहूर सुन्नी मुस्लिम धर्मगुरु कांथापुरम एपी अबूबकर मुसलियार ने कल दिनांक २८, नवंबर, २०१५ को कोझिकोड में मुस्लिम स्टूडेंट फ़ेडेरेशन के एक कैंप को संबोधित करते हुए कहा कि महिलाएं कभी पुरुषों के बराबर नहीं हो सकतीं, क्योंकि वे केवल बच्चों को पैदा करने के लिए बनी हैं। उन्होंने कहा कि लैंगिक समानता की अवधारणा गैर इस्लामिक है। आल इंडिया सुन्नी जमीयत उल उलेमा के प्रमुख मुसलियार ने कहा कि महिलायें मानसिक तौर पर मज़बूत नहीं होती हैं और दुनिया को नियंत्रित करने की ताकत सिर्फ मर्दों में है। लैंगिक समानता कभी हकीकत नहीं बन सकता। यह इस्लाम और मानवता के खिलाफ होने के साथ ही बौद्धिक रूप से भी गलत है। 
इसके उलट सनातन धर्म की अवधारणा है कि “यत्र नारी पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।" जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं का वास होता है। अगर ऐसा बयान किसी हिन्दू धर्म गुरु ने दिया होता तो कल्पना कीजिए हिन्दुस्तान के न्यूज चैनल और धर्मनिरपेक्ष क्या कर रहे होते? टीवी पर कितने डिबेट चल रहे होते, कितने फिल्म सितारे भारत छोड़ने का बयान दे रहे होते और कितने प्रगतिशील गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाने के लिए सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे होते? यह गंगा-जमुनी कौन सी तहज़ीब है, मेरी समझ में आज तक नहीं आया। मेरी जो छोटी समझ है उसके अनुसार गंगा की पहचान देवाधिदेव महादेव से है और जमुना की पहचान योगीराज श्रीकृष्ण से है। भारत की पूरी संस्कृति ही गंगा और जमुना के किनारे विकसित हुई है और इस संस्कृति ने औरत को कभी हीन नहीं माना। गार्गी ने वेद की ऋचाएं रची, दुर्गा ने असुरों का संहार किया, सरस्वती ने विद्या दी और लक्ष्मी ने विश्व को धन-संपदा। आज के युग में भी अहिल्या बाई ने आदर्श राज्य-व्यवस्था की नींव रखी, तो लक्ष्मी बाई ने पराक्रम और शौर्य का नया इतिहास रचा। नारी का दर्ज़ा पुरुषों के बराबर नहीं, उनसे कहीं ऊँचा है।

भारत-पाक क्रिकेट शृंखला

              समझ में नहीं आता है कि पाकिस्तान के साथ क्रिकेट सीरीज न खेलने से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पेट में दर्द क्यों होने लगता है! दुनिया में बहुत-से क्रिकेट खेलने वाले देश हैं। हम उनके साथ नियमित रूप से क्रिकेट खेलते हैं। पाकिस्तान में कौन सुर्खाब के पंख लगे हैं कि हम कुछ ही समय के बाद उसके साथ क्रिकेट खेलने के लिए बेताब हो जाते हैं। खेल को राजनीति के साथ भले ही न जोड़ा जाए, लेकिन देश की सुरक्षा और स्वाभिमान की कीमत पर हम अपने दुश्मन देश को वह वरीयता नहीं दे सकते, जो एक मित्र देश को देते हैं। फिर, भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट कभी खेल भावना से खेला भी नहीं जाता है। मुझे याद है कि एक बार भारत की टीम पाकिस्तान गई थी। गावास्कर भी उस टीम में थे। भारत की टीम बुरी तरह हारी थी। शृंखला के अन्त में पाकिस्तान के कप्तान इमरान खान ने वक्तव्य दिया था कि कश्मीर के भाग्य का फ़ैसला क्यों नहीं हम क्रिकेट-सीरीज खेल कर तय कर लें। भारत चुप था, क्योंकि वह शृंखला हार चुका था। पाकिस्तान और कश्मीर सहित भारत के कुछ हिस्सों में लगातार कई दिनों तक जश्न मनाया जाता रहा। अभी एक सीरीज दक्षिण अफ्रीका के साथ चल रही है। भारत सीरीज जीत चुका है, लेकिन कहीं जश्न का माहौल नहीं है। अच्छा खेलने वाली टीम जीत रही है। जीतने वाली टीम खुश तो हो रही है, लेकिन प्रतिद्वंद्वी टीम के दिल को कोई बात छू जाय, ऐसा वक्तव्य कप्तान, कोच या कोई खिलाड़ी नहीं दे रहा है। विरोधी टीम भी बहुत नपा-तुला और समझदारी का बयान दे रही है। दोनों पक्ष के खिलाड़ियों में भी कोई कटुता नहीं है। परन्तु पाकिस्ता के साथ भी क्या क्रिकेट मैच इसी खेल भावना के साथ खेलना संभव है? कदापि नहीं। भारत और पाकिस्ता के बीच क्रिकेट का खेल युद्ध के रूप में लड़ा जाता है। भारत की जनता और खिलाड़ी भी हर मैच युद्ध की भावना से खेलते हैं। न चाहते हुए भी सबके मन-मस्तिष्क में कश्मीर, आतंकवाद, १९६५, १९७१ और कारगिल युद्ध घर कर जाता है। पाकिस्तान की जनता और खिलाड़ी भी इन घटनाओं को जेहन में रखकर ही खेलते हैं। कुछ पाकिस्तान परस्त लोग कहते हैं कि क्रिकेट से दोनों देशों के लोग करीब आते हैं। यह सरासर गलत है। हम लोग भारत और पाकिस्तान में दर्जनों सीरीज खेल चुके हैं। अगर ऐसा होता, तो कम से कम आतंकवाद तो समाप्त हो गया होता। सच्चाई यह है कि हर मैच के बाद दूरियां और बढ़ जाती है। पाकिस्तान के साथ उसके जन्म के बाद से लेकर आजतक कभी नज़दीकी रही नहीं। सबसे दुःख की बात यह है कि पाकिस्ता से मैच के बाद भारत की दो कौमों के बीच दूरी और बढ़ जाती है। पाकिस्तान की जीत के बाद जब हिन्दुस्तान में आतिशबाज़ी होने लगती है, तो बहुसंख्यकों के मन में एक वितृष्णा स्वभाविक रूप से घर कर जाती है। मैच के दौरान भी सारा हिन्दुस्तान उच्च रक्तचाप का मरीज नज़र आता है। ऐसी सीरीज खेलने से क्या लाभ?
अभी कुछ दिन पहले तुर्की ने रूस का एक विमान मार गिराया। तुर्की का बहिष्कार करने का सरकार ने कोई फ़रमान नहीं निकाला। लेकिन रूस की देशभक्त जनता ने स्वयं की प्रेरणा से तुर्की का बहिष्कार किया। बड़ी संख्या में रूसी पर्यटक तुर्की जाते हैं; रुसियों ने तुर्की के किए वीजा मांगना बंद कर दिया और तुर्की के सामान का बहिष्कार शुरु कर दिया। एक हम हैं कि पाकिस्तानी खिलाड़ियों और कलाकारों के लिए पलक-पावड़े बिछाने के लिए हमेशा प्रस्तुत रहते हैं। हम भूल जाते हैं कि यह पाकिस्तान ही है जिसने १९४७ से लेकर आजतक हमपर युद्ध थोपकर हमें बर्बाद करने की कोशिश की है। युद्ध में बार-बार मुंह की खाने के बाद आतंकवाद के माध्यम से हमारी शान्ति, हमारी सुरक्षा और हमारे भाईचारे को लगातार चुनौती देता रहा है। हमारे असंख्य जवान और जनता आतंकवाद की बलि चढ़ चुकी है। लेकिन बीसीसीआई को इससे क्या मतलब? उसे तो अपनी कमाई से मतलब है। पता नहीं यहां के क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष, पाकिस्तानी समकक्ष के साथ दुबई में क्या समझौता कर आए हैं कि श्रीलंका में सीरीज खेलने पर सहमति बन गई। सेक्युलरिस्टों के विरोध और बिहार में पराजय से डरी केन्द्र सरकार इस सीरीज के लिए अनुमति दे देगी, इसकी पूरी संभावना है। मोदी सरकार भी मन मारकर कांग्रेस की ही नीतियों पर चलने लगी है। लेकिन बिना सामान्य संबन्धों के पाकिस्तान के साथ कोई सीरीज खेलना देशहित में नहीं होगा। हम करोड़ों देशवासियों को उच्च रक्तचाप और हृदयाघात का मरीज बनाने का समर्थन नहीं कर सकते।

Saturday, November 21, 2015

नीतीश को ताज, लालू को राज (समापन किश्त)

४. नीतीश की छवि -- अभीतक नीतीश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे और ईमानदार प्रशासक की रही है। उनके द्वारा मनोनीत मुख्यमंत्री जीतन राम के बड़बोलेपन से बिहार का बुद्धिजीवी वर्ग प्रसन्न नहीं था। जीतन राम को हटाकर खुद मुख्यमंत्री बनने की घटना को बिहार के बाहर नीतीश की सत्तालोलुपता के रूप में देखा गया, लेकिन बिहार की जनता ने इस घटना को इस रूप में नहीं लिया। जनता ने नीतीश की वापसी पर राहत की साँस ली। अपने शासन-काल में नीतीश ने मुस्लिम लड़कियों और कमजोर वर्ग की लड़कियों के लिए हाई स्कूल के बाद १५००० रुपए की अनिवार्य छात्रवृत्ति लगातार दिलवाई, सूबे की सभी लड़कियों को सायकिल और यूनिफार्म मुफ़्त में मुहैय्या कराई तथा वृद्धा्वस्था पेंशन नियमित रूप से बंटवाई। इसका श्रेय लेने का भाजपा के सुशील मोदी ने भी प्रयास किया, परन्तु मुख्यमंत्री होने के कारण लोगों ने इसका श्रेय नीतीश को ही दिया। विकास के नाम पर कुछ विशेष तो नहीं हुआ, परन्तु बड़े पैमाने पर सड़कों का कायाकल्प अवश्य हुआ। आज की तिथि में बिहार की सड़कें उत्तर प्रदेश की तुलना में कई गुना अच्छी हैं। इन सबका श्रेय नीतीश ने अपने योजनाबद्ध प्रचार के कारण स्वयं लेने में सफलता प्राप्त की। लालू के भ्रष्टाचार की कहानी नीतीश के कारण ज्यादा चर्चा में नहीं आ सकी। 
५. दाल और प्याज - चुनाव में भाजपा की अलोकप्रियता के लिए रही-सही कसर दाल और प्याज ने पूरी कर दी। १५ साल पहले दिल्ली में प्याज ने भाजपा को खून के आँसू रुलाया था। उस समय भाजपा सत्ता से बेदखल क्या हुई, दिनानुदिन कमजोर होती चली गई और आज भी दिल्ली के भाजपाई मुख्यमंत्री की कुर्सी को हसरत से देखने के अलावे कुछ नहीं कर पा रहे। दाल और प्याज की महंगाई ने जन असंतोष की आग में घी का काम किया। हालांकि इस महंगाई के लिए राज्य सरकार भी कम जिम्मेदार नहीं थी, लेकिन नीतीश और विशेष रूप से लालू ने बिहार की जनता से ठेठ देहाती में सीधा संवाद स्थापित करके केन्द्र सरकार को मुज़रिम बना दिया। आश्चर्य है कि जो दाल ८ नवंबर के पहले जिस खुदरा दुकान में २१० रुपए प्रति किलो की दर से बिक रही थी,  उसी दुकान में ९ नवंबर को १६० रुपए प्रति किलो बिकी। मैंने खुद खरीदा। यह महंगाई प्रायोजित थी या स्वाभाविक - राम जाने। चुनाव के बाद पुरस्कार वापस करने वाले साहित्यकारों के तेवर की तरह प्याज का भाव भी शान्त हो गया। इसका भाव अचानक ८० से घटकर ३०-३५ रुपए पर आ गया।
६. सरकारी तंत्र का सदुपयोग -- चुनाव परिणाम अपनी मर्जी के अनुसार मैनेज करने में लालू सिद्धहस्त हैं। यह कला उन्होंने ज्योति बसु से सीखी थी। १५ सालों तक उन्होंने इसी के बल पर बिहार में एकछत्र राज किया। EVM आ जाने और राष्ट्रपति शासन में चुनाव होने के कारण १५ वर्षों के बाद बिहार में लालू की भयंकर  पराजय हुई थी। इस बार लालू की सलाह पर सरकारी तंत्र का सत्ता के लिए अच्छा उपयोग किया गया। चुनाव की अधिसूचना के पहले बिहार के सभी ३१ जिलों में मन पसंद जिलाधिकारी, उपजिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षकों की तैनाती की गई। मतगणना में तैनात कई सरकारी अधिकारियों से मैंने बात की। नाम न छापने की शर्त पर उन्होंने बताया कि मतगणना के समय कई EVM के कवर खुले और सील टूटी पाई गई। उन्होंने रिटर्निंग आफिसर (जिलाधिकारी) को दिखाया भी, परन्तु आर.ओ. ने वैसे EVM  में पड़े मतों की भी गणना जारी रखने का आदेश दिया। ज्ञात हो कि सिवान जिले के जिलाधिकारी और उपजिलाधिकारी - दोनों ही यदुवंशी हैं। अधिकांश बूथों पर प्रिजाइडिंग आफिसर से प्राप्त मतों के विवरण और EVM के द्वारा गिने गए मतों में भिन्नता पाई गई। ऐसे में मतगणना रोक दी जाती है, परन्तु वरिष्ठ मतगणना पर्यवेक्षक द्वारा ध्यान आकर्षित करने के बावजूद भी जिलाधिकारी के निर्देश पर मतगणना जारी रही। चुनाव आयोग के पर्यवेक्षक जिलाधिकारी द्वारा दी गई रात्रि-पार्टियों से अनुगृहित थे। प्रत्येक चरण की मतगणना के बाद यह तो बताया जा रहा था कि फलाँ प्रत्याशी आगे चल रहा है लेकिन विभिन्न प्रत्याशियों द्वारा प्राप्त मतों को बोर्ड पर प्रदर्शित नहीं किया जा रहा था। अब मुझे भी कुछ-कुछ समझ में आने लगा है कि ८ नवंबर को दिन के १०.१५ बजे दो तिहाई बहुमत की ओर अग्रसर भाजपा गठबंधन १०.२० पर अचानक पीछे क्यों हो गया। CNN और ETV को पहले ही मैनेज कर लिया गया था। प्रसिद्ध टीवी एंकर रवीश कुमार ने भी प्रसारण के दौरान ही १० मिनट के अंदर परिणामों में उलटफेर पर घोर आश्चर्य व्यक्त किया था। दिन के १०.२५ बजे महागठबंधन दो तिहाई बहुमत के पास था और भाजपा औंधे मुंह गिर चुकी थी। चुनाव आयोग ने चुनाव तो निष्पक्ष कराए पर मतगणना में निष्पक्षता बरकरार नहीं रख सका। EVM के खुले कवर और टूटी सीलें, चिप्स के हेरफेर की ओर संकेत तो करते ही हैं। कुछ भी हो, लालू अपना खोया साम्राज्य पाने में सफल तो हो ही गए। किसी ने सच ही कहा है - खुदा मेहरबान, तो गधा पहलवान। सेक्युलरिस्टों के २०% खुदा तो लालू के साथ हमेशा रहते हैं।
    (समाप्त)

नीतिश को ताज, लालू को राज (दो किश्तों में समाप्य)


                                                                      (१)
       दिवाली और छठ मनाने के लिए मैं करीब १२ दिन बिहार के सिवान जिले में स्थित अपने गांव, बाल बंगरा (महाराजगंज) में रहा। इस प्रवास का उपयोग मैंने बिहार-चुनाव के परिणामों के अध्ययन और समीक्षा के लिए किया। इस दौरान मैंने अलग-अलग तबकों के सैकड़ों लोगों और चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सरकारी अधिकारियों/कर्मचारियों से बातें की। नीतिश-लालू की शानदार जीत और भाजपा की निराशाजनक हार के पीछे जो कारण वहां के लोगों ने बताये, उन्हें लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूं।
१. मोहन भागवत का बयान - लालू यादव एक बहुत ही चतुर राजनेता हैं। उनपर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध हो चुके हैं और वे जेल भी जा चुके हैं। उनकी शुरु से ही रणनीति थी कि बिहार की जनता का ध्यान भ्रष्टाचार के मुद्दे से हटाकर जातिवाद पर केन्द्रित किया जाय। पिछड़ों को लामबंद करने के लिए ही उन्होंने नीतिश का जहर पीया और मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रुप में उनके नाम को स्वीकार किया। नीतिश और लालू -- दोनों के लिए यह चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न था। दोनों ने जमकर पिछड़ा कार्ड खेला। पिछले १० वर्षों से एक-दूसरे के काफी करीब आ चुके अगड़े और पिछड़ों के बीच एक चौड़ी और गहरी खाई खोदने के लिए लालू काफी कोशिशें कर रहे थे, लेकिन मोदी के राष्ट्रवाद के आगे कुछ अधिक सफल प्रतीत नहीं हो रहे थे। अचानक आर.एस.एस. प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण पर दिए गए बयान ने उन्हें संजीवनी प्रदान कर दी। मोहन भागवत ने वर्तमान आरक्षण-नीति की समीक्षा की बात कही थी। उनका उद्देश्य था कि इसकी समीक्षा इस तरह की जाय कि उसका लाभ उन वंचित लोगों को भी प्राप्त हो, जिन्हें अभीतक इसका कोई लाभ प्राप्त नहीं हुआ है। गलत समय पर दिया गया यह एक सही बयान था। लालू और नीतिश ने इसे लोक (Catch)  लिया। वे बिहार के पिछड़ों को यह समझाने में सफल रहे कि जिस तरह सोनिया का कहा कांग्रेस नहीं टाल सकती, उसी तरह आर.एस.एस. के चीफ़ की बात भाजपा और मोदी भी नहीं टाल सकते। मोहन भागवत के समीक्षा वाले बयान का इन्होंने आरक्षण खत्म करने के रूप में प्रचारित किया। मीडिया ने भी भरपूर साथ दिया। परिणाम यह रहा कि लालू-नीतिश की जोड़ी संपूर्ण आरक्षित वर्ग (पिछड़ा+दलित) के दिलो-दिमाग में यह भ्रम बैठाने में सफल रहे कि आर.एस.एस. द्वारा संचालित भाजपा के सत्ता में आते ही आरक्षण समाप्त कर दिया जायेगा। यह भ्रम या विश्वास जनता में इतनी गहराई तक पहुंच गया कि दलितों ने राम बिलास पासवान और जीतन राम मांझी पर भी विश्वास नहीं किया। मेरे गांव के समस्त दलित समुदाय ने महा गठबंधन को ही वोट दिया। मोदी और अमित शाह ने डैमेज-कंट्रोल का काफी प्रयास किया, लेकिन तबतक चुनाव सिर पर आ गया। कुछ बुद्धिजीवी पिछड़े, मोदी से भी जुड़े रहे। मेरे गांव में लगभग ४००० मतदाता हैं। इसमें ४०% प्रवासी हैं। कुल २००० वोट डाले गए। गांव में अगड़े मतदाताओं की कुल संख्या मात्र २०० है, लेकिन भाजपा को ८०० मत प्राप्त हुए। स्पष्ट है, भाजपा ने पिछड़ों का भी मत प्राप्त किया, लेकिन जीतने के लिए पर्याप्त संख्या में नहीं।
२. स्थानीय नेतृत्व का अभाव एवं उपेक्षा - भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद के लिए कोई प्रत्याशी ही नहीं था। चुनाव-प्रचार भी आयातित था। नीतिश ने इसे जमकर कैश किया। लोग यह कहते मिले, “मोदी दिल्ली से बिहार के चलइहें का? आम जनता में, चाहे चाहे वह सवर्ण हो या पिछड़ी, नीतिश कुमार की छवि एक साफ-सुथरे नेता और सुशासन बाबू की है। लालू की दागी छवि पर नीतिश की अच्छी छवि हावी रही। पूरे बिहार में दो ही नेताओं के कट-आउट, बैनर और संदेश लगे थे - नीतिश कुमार और नरेन्द्र मोदी के। जनता ने स्थानीय नेतृत्व पर भरोसा जताया। यह बीजेपी की रणनीतिक विफलता थी।
३. टिकट बंटवारे में गड़बड़ी - Party with a difference का नारा देने वाली पार्टी से यह बोधवाक्य पूरी तरह गायब था। सभी भाजपाई लोकसभा की तरह ही मोदी-लहर के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे। भाजपा का टिकट, मतलब जीत पक्की। जाहिर है, ऐसे में टिकट पाने के लिए भीड़ तो बढ़ेगी ही और गुणवत्ता भी प्रभावित होगी। टिकट-वितरण में भाजपा ने गुणवत्ता को तिलांजलि दे दी। जिताऊ प्रत्याशी के नाम पर तरह-तरह की धांधली की गई; कुबेरों, बाहुबलियों, दागियों और रिश्तेदारों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई। कुछ बानगी, अपने जिले से दे रहा हूं --
 (अ) दुरौन्धा विधान सभा  (जिला सिवान) क्षेत्र - यहां से भाजपा के प्रत्याशी थे -- जितेन्द्र सिंह। इनके पिता समीपवर्ती महाराजगंज क्षेत्र से राजद और जनता दल (यू) से कई बार विधायक और सांसद रह चुके हैं। वे एक प्रख्यात बाहुबली थे। उनके पुत्र जितेन्द्र जी उनसे कई कदम आगे हैं। उनपर हत्या और लूट के कई मामले चल रहे हैं। पिछले साल ही ६-७ साल की सज़ा भुगतने के बाद ज़मानत पर छूट कर आए हैं। आते ही चुनावी दंगल में कूद पड़े और कांग्रेस के टिकट पर महाराजगंज संसदीय क्षेत्र से भाग्य आजमाया। मोदी की लहर में ज़मानत ज़ब्त हो गई। इसबार उन्होंने दुरौन्धा विधान सभा क्षेत्र से (इसी क्षेत्र में मेरा भी गांव आता है) भाजपा का टिकट पाने के लिए पानी की तरह पैसा बहाया। दिल्ली में बैठे हिन्दुस्तान के ठाकुरों के तथाकथित स्वयंभू नेता भारत के गृहमंत्री ने ठाकुरों को टिकट दिलवाने में अपने प्रभाव का भरपूर इस्तेमाल किया। जितेन्द्र सिंह को टिकट मिल गया और ४० साल से भाजपा का झंडा ढो रहे जिला भाजपा अध्यक्ष योगेन्द्र सिंह का टिकट कट गया। योगेन्द्र सिंह राम जन्मभूमि आन्दोलन में जेल गए थे, श्रीनगर के लाल चौक में तात्कालीन भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी के आह्वान पर तिरंगा फहराने के लिए कश्मीर जाते समय जम्मू में गिरफ़्तार किए गए थे, एक महीना जेल में भी रहे थे। उनका संपर्क घर-घर में है। आर.एस.एस. भी उनको टिकट दिए जाने के पक्ष में था। वे एक साफ-सुथरी छवि वाले, कर्मठ और ईमानदार जन नेता के रूप में पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं लेकिन राजनाथ सिंह के आगे किसी की नहीं चली और एक दलबदलू दागी को भाजपा ने टिकट दे दिया। जितेन्द्र सिंह को स्थानीय जनता ‘जनमरुआ’ (हत्या करनेवाला) के नाम से जानती और पुकारती है। चुनावी दंगल में उन्हें मात मिली। इस टिकट ने पूरे जिले में भाजपा के उम्मीदवारों की चुनावी जीत की संभावना को प्रभावित किया।
(ब) महाराजगंज विधान सभा क्षेत्र - पहले मेरा घर इसी विधान सभा क्षेत्र में आता था। नए परिसीमन में दुरौन्धा में चला गया। महाराजगंज शहर से सटे पूरब में मेरा गांव है। यहां से देवरंजन सिंह भाजपा के प्रत्याशी थे। पेशे से वे डाक्टर हैं। जनसेवा करके वे आसानी से जनता में अपनी पैठ बना सकते हैं, लेकिन सामन्तवादी प्रवृत्ति के धनी देवरंजन जी अपनी बिरादरीवालों को छोड़, किसी और को प्रणाम भी नहीं करते हैं। उनकी एकमात्र योग्यता यह है कि वे पूर्व केन्द्रीय मंत्री और बिहार भाजपा के पूर्व अध्यक्ष सी.पी. ठाकुर के दामाद हैं। रिश्तेदारों को टिकट देने का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। जनता ने उन्हें ठुकरा दिया।
(स) रघुनाथपुर - इस क्षेत्र से भाजपा ने अपने निवर्तमान विधायक विक्रम कुँवर का टिकट काटकर बाहुबली और दागी छवि वाले मनोज सिंह को टिकट दिया। विक्रम कुँवर क्षेत्र के लोकप्रिय नेता हैं और कई बार विधायक रह चुके हैं, परन्तु वे भी राजनाथ सिंह की पसंद नहीं थे। भाजपा ने यह सीट भी गँवा दी।
बड़हरिया विधान सभा क्षेत्र में भी भाजपा ने एक दागी बाहुबली के भाई को टिकट दिया। परिणाम वही - ढाक के तीन पात।
विधान सभा चुनाव में बिहार की भाजपा “Party with a difference" की छवि खो चुकी थी। लोग इस नारे को दुहराकर हँस रहे थे।
     ----- शेष अगले अंक में


Sunday, November 1, 2015

पुरस्कार वापसी का सच

     प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय लेखिका तसलीमा नसरीन ने दिनांक २९.१०.१५ को अपने एक बयान में कहा है कि पहले मुझे लग रहा था कि सच में साहित्यकार पुरस्कार वापिस करके अपने दुख की अभिव्यक्ति कर रहे हैं, परन्तु अब भारत में जिस तरह से पुरस्कार वापिस किए जा रहे हैं और जो कारण दिया जा रहा है, सच में ये सब भारत सरकार के विरोधियों का एक षड्यंत्र है, ताकि भारत यूनाइटेड नेशन में स्थाई सदस्य न बन सके।
तसलीमा की बातों में गहराई और सच्चाई है। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों को देश के वातावरण में कथित सांप्रदायिकता और असहिष्णुता से बहुत तकलीफ है, मानो भारत ईरान, सऊदी अरब, पाकिस्तान या बांग्ला देश बन गया हो। पिछले सप्ताह ईरान में दो कवियों को ९९ कोड़े लगाए जाने की सज़ा सिर्फ इसलिए सुनाई गई कि इन कवियों ने गैर मर्द और गैर औरत से हाथ मिलाये थे। इन कवियों के नाम हैं - फ़ातिमे एखटेसरी और मेहंदी मूसावी। पिछले शनिवार को ढाका में हत्या के शिकार लेखक और ब्लागर अविजित राय के साथ काम करनेवाले एक प्रकाशक की कट्टरपंथियों ने गला काट कर हत्या कर दी। वहीं इससे कुछ घंटे पहले ही दो सेक्यूलर ब्लागरों और एक अन्य प्रकाशक पर जानलेवा हमला हुआ। दुनिया भर के अखबारों में घटना की चर्चा हुई, तस्वीरें भी छपीं, लेकिन भारत के इन बुद्धिजीवियों ने संवेदना या निंदा का एक शब्द भी उच्चारित किया। पुरस्कार वापस करने वाले तमाम बुद्धिजीवी बुजुर्ग हैं। इन सबने इमरजेन्सी देखी है। तब इन्दिरा गांधी ने सारे मौलिक अधिकार समाप्त कर दिए थे। उस समय न किसी को जुलूस निकालने का अधिकार था, न सभा करने का, न स्वतंत्र चिन्तन का, न बोलने का और न ही लिखने का। कुलदीप नय्यर की पुस्तक ‘The Judgement'  इन्दिरा गांधी, कांग्रेस और इन सत्तापोषित बुद्धिजीवियों का कच्चा चिट्ठा है। किस तरह संजय गांधी ने परिवार नियोजन के नाम पर नाबालिग बच्चों की भी नसबन्दी कराई थी, कम से कम चांदनी चौक, जामा मस्ज़िद और तुर्कमान गेट के वासिन्दे क्या अबतक भूल पाए हैं? ये बुद्धिजीवी उस समय इन्दिरा गांधी के सम्मान में कसीदे काढ़ रहे थे। १९८४ में हजारों सिक्खों को कांग्रेसियों ने मौत के घाट उतार दिया, बिहार के जहानाबाद में लालू के राज के दौरान दलितों का नरसंहार हुआ, भागलपुर में भयंकर दंगा हुआ, गोधरा में सन् २००२ में साबरमती एक्स्प्रेस की बोगियों में आग लगाकर सैकड़ों तीर्थयात्रियों को जिन्दा जला दिया गया, कश्मीर में हजारों हिन्दुओं की हत्या की गई, बहु-बेटियों से बलात्कार किया गया और अन्त में पूरी कश्मीर-घाटी के हिन्दुओं को भगाकर देश के दूसरे भागों में शरणार्थी बना दिया गया; इन बुद्धिजीवियों ने चूं तक नहीं की। देश का सांप्रदायिक माहौल खराब करने के लिए श्रीनगर, कलकत्ता, दिल्ली, चेन्नई, बंगलोर इत्यादि शहरों में विज्ञापित करके सड़क के बीचोबीच मीडिया के कैमरों के सामने ‘बीफ’ खाया और परोसा गया; इन बुद्धिजीवियों ने विरोध का एक स्वर भी नहीं निकाला।
सम्मान वापस करने वाले -- सब-के-सब चिर काल से राष्ट्रवादियों का विरोध करते आ रहे हैं। इन्हें सम्मान अच्छे लेखन के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्रवाद का विरोध और चाटुकारिता के लिए मिला है। ये सभी २००२ से ही नरेन्द्र मोदी का विरोध करते आए हैं। ये वही लेखक हैं, जिन्होंने अमेरीका को पत्र लिखा था कि नरेन्द्र मोदी को वीसा न दिया जाय। चीन, पाकिस्तान, सी.आई.ए. और नेहरू खानदान के लिए काम करने वाले इन (अ)साहित्यकारों ने मोदी को रोकने के लिए पश्चिमी जगत से भी हाथ मिलाया, ईसाई लाबी को भी सक्रिय किया। वाशिंगटन पोस्ट, टाइम्स आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं में गत आम चुनाव के पहले मोदी के विरोध में सैकड़ों लेख लिखवाए, लेकिन भारत की जनता ने दिग्भ्रमित हुए बिना मोदी को प्रधान मंत्री बना दिया। २०१४ के जनादेश को न इन  (अ)साहित्यकारों ने स्वीकारा और न इनके राजनीतिक आकाओं ने। ये सभी सियासी लड़ाई हारने के बाद प्रधान मंत्री के खिलाफ़ दुष्प्रचार के जरिए लड़ाई लड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं। दूसरों को असहिष्णु बताने वाले ये (अ)साहित्यकार मोदी के प्रति पूर्वाग्रह और असहिष्णुता के सबसे बड़े शिकार हैं। ये २०१४ के जनादेश को भी हजम नहीं कर पा रहे हैं। सब तरफ से निराश होने के बाद इनके आका राज्यसभा में अपने बहुमत के कारण किसी भी विकास के एजेन्डे का विरोध करने पर आमादा हैं, तो ये वो पुरस्कार, जिसके योग्य ये कभी थे ही नहीं, वापिस करके कम्युनिस्टों, कांग्रेसियों, आतंकवादियों, सांप्रदायिक तत्त्वों और सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता का विरोध करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय ताकतों का समर्थन कर रहे हैं। इन (अ)साहित्यकारों का न लोकतंत्र में विश्वास है, न सर्वधर्म समभाव, न शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व और ना ही धार्मिक और वैचारिक सहिष्णुता में तनिक भी आस्था है। अबतक सत्ता की मलाई चाट रहे ये (अ)साहित्यकार अपनी दूकान बंद होने की संभावना के कारण बौखलाहट में विक्षिप्त हो गए हैं।

बांगला देश में तीन ब्लागरों पर हमला, प्रकाशक की हत्या

          बांग्लादेश के दिवंगत लेखक और ब्लागर अविजित राय के साथ काम करनेवाले एक प्रकाशक की अज्ञात हमलावरों ने शनिवार को गला काटकर हत्या कर दी। वहीं इसके कुछ घंटे पहले ही दो सेक्यूलर ब्लागरों और राय के एक अन्य प्रकाशक पर हमला हुआ। ढाका के मध्य शाहबाग इलाके में फ़ैजल आर्फ़ीन दीपान(४३) पर तीसरी मंजिल स्थित उनके आफिस में ही हमला किया गया। यह स्थान उस इमारत के बिल्कुल पास है जहाँ कई महीने तक ज़मीयत-ए-इस्लामी नेताओं और १९७१ के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों से सांठगांठ करनेवाले कट्टरपंथियों की फांसी की सज़ा की मांग को लेकर प्रदर्शन हुए थे।
     -- अमर उजाला, ०१-११-२०१५
           इस समाचार को बिकाऊ टीवी मीडिया ने प्रसारित नहीं किया और न ही इसपर किसी तथाकथित सेक्यूलर बुद्धिजीवी ने अपनी छाती पीटी। कलकत्ता, बंगलोर, चेन्नई, दिल्ली और श्रीनगर में सड़कों पर ठेला लगाकर सार्वजनिक रूप से "बीफ" खानेवालों ने एक बूंद घड़ियाली आँसू भी नहीं बहाया। यही चरित्र और आचरण है इन तथाकथित सेक्यूलरिस्टों और पुरस्कार वापस करने वाले कांग्रेस पोषित  बुद्धिजीवियों का।

Tuesday, October 13, 2015

महात्मा गांधी, महामना मालवीय और डा. हेडगेवार


            गांधीजी न तो दयानन्द और अरविन्द के समान मेधावी पंडित एवं बहुपठित विद्वान्‌ थे, न उनमें विवेकानन्द की तेजस्विता थी। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह - ये, जो हिन्दू संस्कृति के सदियों से आधार-स्तंभ थे, उन्होंने अपने जीवन में साकार किया। वे जो कहते थे, वही करते थे। साधनापूर्वक उन्होंने सभी प्राचीन सत्यों को अपने जीवन में उतारकर संसार के सामने यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि जो उपदेश अनन्त काल से दिए जा रहे हैं, वे सचमुच ही जीवन में उतारे जाने योग्य हैं। उनके इन्हीं गुणों के कारण भारत का विशाल जनमानस उनका अनुयायी और परम भक्त बन गया, जिसका लाभ कांग्रेस और पूरे देश को आज़ादी प्राप्त करने में मिला। उन्होंने कई बार स्वयं को सनातनी हिन्दू घोषित किया था, पर उनका हिन्दुत्व किसी धर्म का विरोधी नहीं था। वे "ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान" में हृदय से विश्वास करते थे और हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक थे। इसके लिए कई बार हिन्दुओं को रुष्ट करके भी उन्होंने मुसलमानों का समर्थन किया था, खिलाफ़त आन्दोलन का समर्थन और देश के विभाजन को स्वीकार कर लेना, उनके उदाहरण हैं। उन्हें अन्त अन्त तक भी यह विश्वास था कि वे मुसलमानों का हृदय परिवर्तन करने में सफल  होंगे। लेकिन मुसलमानों ने जिन्ना के प्रचार पर अधिक विश्वास किया और कांग्रेस से अधिक मुस्लिम लीग का साथ दिया। गांधीजी राजनीति में भी शुचिता के प्रबल समर्थक थे लेकिन उनकी ही पार्टी कांग्रेस ने आज़ादी के बाद इससे किनारा कर लिया। आज की तिथि में विश्व गांधीवाद से ज्यादा प्रभावित है, भारत कम।
            महामना मालवीय गांधीजी के समकालीन थे। उनमें दयानन्द और अरविन्द का मेधावी पांडित्य तथा विवेकानन्द की तेजस्विता, एक साथ थी। वे एक बड़े ही ओजस्वी वक्ता थे। उनमें अद्भुत राजनीतिक सूझबूझ थी। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के वे चार बार अध्यक्ष रहे। वे भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे। शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ रहे पश्चिमी प्रभाव से वे आहत थे। भारतीय मूल्यों के आधार पर आधुनिक और परंपरागत शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने राजनीति छोड़कर भविष्य-निर्माण का संकल्प लिया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना करके उन्होंने इसे साकार भी किया। वे एक कट्टर हिन्दू थे, लेकिन, उनका हिन्दुत्व सर्वधर्म समभाव, धार्मिक सहिष्णुता और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व में विश्वास करता था। उन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय के माध्यम से हिन्दू जागरण का ऐसा केन्द्र खड़ा किया जो आनेवाली कई पीढ़ियों को नई दिशा प्रदान करता रहेगा।
            डा. केशव बलिराम हेडगेवार महात्मा गांधी और महामना मदन मोहन मालवीय के समकालीन थे। आरंभ में वे कांग्रेस के कार्यकर्ता थे। बाद में उन्होंने महसूस किया कि हिन्दू अपने दुश्मन आप हैं। वे जातिवाद, छूआछूत, भाषा, प्रान्त और ऊँच-नीच की सीमा में इस तरह विभाजित हैं कि सिर्फ शव की अन्तिम यात्रा में ही वे एक दिशा में चलते हैं। बाकी समय कई पंथों और संप्रदायों में बँटे हिन्दू अपनी-अपनी डफली अलग-अलग बजाते हैं। इनकी बुराइयों को दूर करके इन्हें एक मज़बूत संगठन की डोर से बांधने की आवश्यकता उन्हें महसूस हुई। देश की आज़ादी हो या भविष्य का निर्माण, इसके लिए जिस शक्तिशाली और चरित्रवान हिन्दू की कल्पना स्वामी विवेकानन्द ने की थी उसको मूर्त रूप देने के लिए डा. हेडगेवार ने सन्‌ १९२५ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। भारत में जितने भी गैर हिन्दू हैं, लगभग वे सभी (९८%) हिन्दू से ही धर्मान्तरित हैं। हिन्दुस्तान में रहनेवाले सभी लोगों के पुरखे एक ही थे और संस्कृति, सभ्यता भी एक ही थी। हालांकि इस तथ्य को गांधी, जिन्ना और इकबाल भी जानते थे, लेकिन सार्वजनिक रूप से इसे स्वीकार करने या उद्गोषणा करने से अपने को दूर रखते थे। डा. हेडगेवार ने साह्स और पूर्ण दृढ़ता से यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के माध्यम से देश और विश्व के सामने रखी। उनके अनुसार भारत में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिन्दू है, जो इस देश को अपनी मातृभूमि, भारत माता को अपनी माता को  मानता है तथा इस मातृभूमि को देवभूमि मानते हुए इसे परम वैभव के शिखर पर पहुंचाने के लिए तन, मन और धन से पूर्णरूपेण समर्पित हो। हिन्दुत्व में घुस आई जाति, छूआछूत, भाषावाद, प्रान्तवाद, संप्रदायवाद आदि बुराइयों को दूर करते हुए एक शक्तिशाली हिन्दू संगठन ही उनका अभीष्ट था। उन्होंने जो बिरवा १९२५ में लगाया था, आज वटवृक्ष बनकर विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन के रूप में खड़ा है। इस संगठन पर आज़ादी के पहले अंग्रेजों की और उसके बाद कांग्रेस की वक्रदृष्टि हमेशा रही। कांग्रेसी शासन ने तरह-तरह के भ्रामक आरोप लगाकर इसे तीन-तीन बार प्रतिबंधित किया, परन्तु, यह संगठन कुन्दन की भाँति पहले से ज्यादा निखरकर सामने आया। आज यह भारत ही नहीं विश्व के लगभग समस्त हिन्दुओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र बन गया है। देश को दो-दो  अतुलनीय प्रधान मंत्री प्रदान करने के कारण इसकी स्वीकार्यता विश्वव्यापी हो गई है।

  ----  विपिन किशोर सिन्हा, स्वतंत्र चिंतक एवं विचारक

Sunday, August 23, 2015

अतुलनीय मुकेश - न भूतो न भविष्यति

अतुलनीय मुकेश - न भूतो न भविष्यति
(पुण्य-तिथि २५-२६ अगस्त पर विशेष)
      अमर गायक मुकेश उन सौभाग्यशाली कुछ गायकों में एक हैं, जिन्हें फिल्म-जगत में सफलता प्राप्त करने के लिए कोई संघर्ष नहीं करना पड़ा। शहद मिश्रित स्वर के बेताज बादशाह मुकेश को जब संगीतकार अनिल विश्वास ने पहली बार सुना, तो आश्चर्य से उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कोई नवागन्तुक, कुंदन लाल सहगल के गाने इतनी सहजता से और स्वर में उसी माधुर्य के साथ गा सकता है! वह ज़माना के.एल.सहगल का था जिनके सामने पंकज मल्लिक और सी.एच.आत्मा जैसे नैसर्गिक प्रतिभा के धनी गायक भी पानी भरते थे। अनिल विश्वास ने मुकेश पर अप्रतिम विश्वास जताते हुए अपने संगीत निर्देशन में बन रही फिल्म ‘पहली नज़र’ में गाने का अवसर दिया। मुकेश ने अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल दी उस गाने में। कौन भूल सकता है स्वर-सम्राट मुकेश का वह पहला गीत - “दिल जलता है तो जलने दे, आँसू ने बहा फ़रियाद न कर......!" गाना सुपरहिट हुआ। एक बार सहगल जी ने इस गाने को सुना, तो वे भी आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सके। अपने सेक्रेटरी से उन्होंने पूछा - “यह गाना मैंने कब गाया?" सेक्रेटरी का उत्तर था -“यह गाना आपने नहीं, नवागन्तुक गायक मुकेश ने गाया है।" सहगल ने मुकेश से मिलने की इच्छा जताई। जैसे ही मुकेश को यह समाचार मिला, वे अपने आदर्श कुंदन लाल सहगल से मिलने उनके आवास पर पहुँच गए। सहगल ने उन्हें बार-बार सुना और स्नेह से मुकेश के कंधे पर हाथ रखकर कहा - “अब मैं चैन से मर पाऊँगा। मुझे मेरा उत्तराधिकारी मिल गया। मेरी विरासत सुरक्षित रहेगी।" उन्होंने अपना वह हारमोनियम, जिसपर स्वयं अभ्यास करते थे, मुकेश को सौंप दिया। मुकेश जीवन भर उसी हारमोनियम पर अभ्यास करते रहे। लता मंगेशकर भी सहगल जी की अनन्य प्रशंसिका हैं। वे मुकेश को भी उतना ही पसंद करती हैं। उनका कहना है कि मुकेश जी की आवाज में मुझे के.एल.सहगल की प्रतिछाया दिखाई पड़ती है। जब मुकेश अपने कैरियर के उठान पर थे, सहगल जी का देहावसान हो गया। मुकेश ने सहगल की कमी खलने नहीं दी। वे सभी संगीतकारों के पसंदीदा गायक थे। फिल्म जगत के वे ऐसे एकमात्र गायक/गायिका थे, जिनके गाए लगभग सभी गाने जनता कि जुबान अविलंब पर चढ़ जाते थे।
      समय किसी को भी नहीं बक्शता है। मुकेश को भी ५० के दशक में काफी दिक्कतें आईं। १९४७ में देश के बंटवारे के बाद अल्पसंख्यक समुदाय के बीच पनपी असुरक्षा की भावना ने फिल्म जगत में भी अपना असर दिखाना शुरु कर दिया। नौशाद, शकील बदायूंनी, दिलीप कुमार (युसुफ़ खान), महबूब इत्यादि नामी-गिरामी हस्तियों ने अपना एक कैंप स्थापित कर दिया जिसे दिलीप कैंप कहा जाने लगा। उस समय फिल्म-जगत में इन लोगों का बोलबाला था। दिलीप कुमार ट्रेजेडी किंग थे और मुकेश थे दर्द भरे गीतों के शहंशाह। मुकेश ने दिलीप कुमार के लिए जितने भी गाने गाए, वे सुपर हिट ही नहीं हुए बल्कि मील के पत्थर साबित हुए। दिलीप कुमार पर मुकेश की आवज़ बहुत फबती थी। फिल्म अन्दाज़ के गाने – तू कहे अगर जीवन भर तुझे गीत सुनाता जाऊँ......., झूम-झूम के नाचो..., मेला का – गाए जा गीत मिलन के....,धरती को आकाश पुकारे....., मेरा दिल तोड़ने वाले.....,यहूदी का - ये मेरा दीवानापन है....., मधुमती का - सुहाना सफ़र और ये मौसम हंसी........, दिल तड़प-तड़प के दे रहा है ये सदा.... इत्यादि को कौन भूल सकता सकता है जो मुकेश की आवाज़ में दिलीप पर फिल्माए गए थे। दिलीप कैंप के उदय के बाद दिलीप कुमार ने मो. रफ़ी का पार्श्वगायन लेना आरंभ कर दिया, लेकिन दिलीप के लिए रफ़ी द्वारा गाए गीत मुकेश द्वारा गाए गीतों की ऊँचाई नहीं प्राप्त कर सके। कारण स्पष्ट था – दिलीप की ट्रेजेडी एक्टिंग में मुकेश का दर्द भरा सहज स्वर एक अद्भुत प्रभाव का सृजन करता था। कैंपबाजी का सर्वाधिक नुकसान हिन्दी फिल्मी संगीत को हुआ। गायिकाओं में भी इस कैंप ने लता के विकल्प के रूप में शमशाद बेगम को प्रोत्साहित किया; लेकिन लता का विकल्प कोई बन सकता है क्या? लता और मुकेश का विकल्प न कभी था और न आगे होगा भी। मुकेश गुमनामी के अंधेरे में गुम होने के कगार पर आ गए थे। भला हो महान कला पारखी राज कपूर का जिसने मुकेश की प्रतिभा को सही ढंग से पहचाना और ‘आग’ से जो सफ़र इन दोनों ने साथ-साथ शुरु किया वह ‘मेरा नाम जोकर’ तक निर्बाध गति से चलता रहा। मुकेश राज कपूर की आवाज़ बन गए। फिल्म आवारा में राज पर फिल्माया गया, शंकर-जयकिशन के संगीत निर्देश्न में मुकेश की आवाज़ में कालजयी गीत ‘आवारा हूँ, आसमान का तारा हूँ, की लोकप्रियता ने देश में ही नहीं विदेश में भी लोकप्रियता के सारे रिकार्ड ध्वस्त कर दिए। तात्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू जब राजकीय यात्रा पर रूस गए, तो सारे प्रोटोकाल तोड़कर वहाँ की जनता ने “आवारा हूँ, आसमान का तारा हूँ...... समवेत स्वर में गाकर नेहरू जी का स्वागत किया था।

      वैसे तो मुकेश ने सभी संगीतकारों के निर्देश्न में पार्श्वगायन किया था, लेकिन उनकी मधुर आवाज़ का सबसे सुन्दर उपयोग करने में शंकर-जयकिशन, कल्याणजी-आनन्दजी, लक्ष्मीकान्त-प्यारेलाल, खैयाम, रोशन, उषा खन्ना, सरदार मलिक और दान सिंह का नाम सबसे ऊपर है। मुकेश हमेशा चुनिन्दा गाने ही गाते थे, इसलिए समकालीन गायकों की तुलना में उनके द्वारा गाए गीतों की संख्या बहुत कम है, लेकिन गुणवत्ता और लोकप्रियता बेमिसाल है। कहते हैं कि किशोर कुमार होंठों से गाते थे, मो. रफ़ी कंठ और होंठ - दोनों से गाते थे; लेकिन मुकेश, कंठ और होंठ के साथ दिल से गाते थे। उस अमर गायक मुकेश को उनकी ३९वीं पुण्य-तिथि पर शत-शत नमन।

Friday, August 21, 2015

श्रीकृष्ण-जन्मभूमि

              पुण्य नगरी मथुरा में  चार दिवसीय प्रवास के बाद मैं कल ही बनारस लौटा. प्रवास अत्यन्त आनन्दायक था. मेरी प्रबल इच्छा थी कि अपने नवीनतम पौराणिक उपन्यास ‘यशोदानन्दन’ की पाण्डुलिपि श्रीकृष्ण-जन्मभूमि में जाकर उनके श्रीचरणों में अर्पित करने के बाद ही प्रकाशक को भेजूं। मैं अपने अभियान में सफल रहा। मैं वहां अपने परम मित्र प्रो. दुर्ग सिंह चौहान जी, कुलपति जीएलए विश्वविद्यालय, मथुरा का अतिथि था। आदरणीया भाभीजी श्रीमती ज्योत्सना चौहान और अग्रज दुर्ग सिंह जी ने मेरे अभियान को सफल बनाने में अपना अमूल्य योगदान दिया। मैंने जो भी पुण्य अर्जित किया, उसके ५०% के वे स्वाभाविक अधिकारी हैं।
      जन्मभूमि और श्रीकृष्ण-राधा के विग्रह के दर्शन से मन आनन्द से ओतप्रोत हो उठा, लेकिन उससे सटे मस्ज़िद को देखकर मन में एक टीस-सी उठी। मस्ज़िद या चर्च के प्रति मेरे मन में कभी भी असम्मान की भावना नहीं रही है, परन्तु श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर निर्मित मस्ज़िद का इतिहास याद कर मन वितृष्णा से अनायास ही भर उठता है। करोड़ों दर्शनार्थी काशी, मथुरा और अयोध्या में अपने आराध्यों के दर्शनार्थ आते हैं और मेरे समान ही अनुभव लेकर वापस जाते हैं तथा अपने मित्रों, करीबियों तथा ग्रामवासियों को अपने हृदय की पीड़ा बताते हैं। निश्चय ही मुसलमानों ने इस देश के एक बड़े भूभाग पर लगभग ६०० वर्षों तक राज किया लेकिन वे हिन्दुओं के हृदय पर एक पल भी राज नहीं कर सके। जबतक काशी और मथुरा के पवित्र मन्दिरों के समीप पुराने मन्दिरों को तोड़कर बनाई गई मस्ज़िदें वे देखते रहेंगे, तबतक हर हिन्दू के हृदय में एक स्वाभाविक टीस बनी ही रहेगी। मुसलमानों को हिन्दुओं की इस भावना को समझना चाहिए और स्वेच्छा से सुधारात्मक प्रयास करना चाहिए। तभी वे हिन्दुओं का विश्वास जीत पायेंगे और देश में नए सिरे से स्थायी सांप्रदायिक सौहार्द्र की स्थापना हो पाएगी।

Tuesday, August 4, 2015

डिब्बाबंद पेय पदार्थों का सच

               डिब्बाबन्द पेय पदार्थों में स्वाद तो होता है, परन्तु पौष्टिकता नहीं होती। अपने उत्पादन स्थल से फुटकर दुकानों तक पहुँचने में यह लंबा समय लेता है। दूकान से उपभोक्ता के पास पहुँचने में यह और लंबा समय लेता है। कायदे से इनका भंडारण रेफ़्रीजेरेटर में किया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है। पूरे देश में कुछ महानगरों को छोड़कर अंधाधुंध बिजली-कटौती होती है। फुटकर विक्रेता चाहकर भी रेफ़्रीजेरेटर नहीं चला सकते हैं। कस्बों और गाँवों के दूकानदारों के पास रेफ़्रीजेरेटर होता भी नहीं है, लेकिन सभी फ्रूटी, माज़ा, गोल्ड क्वायन आदि आदि पेय तरल रखते हैं और धड़ल्ले से बेचते भी हैं। डिब्बाबन्द पेय पदार्थों का उत्पादन स्थल से डीलर तक  ट्रान्स्पोर्टेशन भी वातानुकूलित कन्टेनर में किया जाना चाहिए, लेकिन लाभ कमाने के शगल में पागल कंपनियां किसी भी नियम का पालन नहीं करतीं। नतीजा यह होता है कि उपभोक्ता तक पहुंचते-पहुंचते ये डिब्बाबंद पेय पदार्थ  फंगस लगने के कारण जहर में परिवर्तित हो जाते हैं। आज से ३० साल पहले जब मैं ओबरा ताप विद्युत गृह में तैनात था, तो उसी पावर हाउस में कार्यरत मेरे मित्र रिज़वान अहमद की मृत्यु फ़्रूटी पीने के कारण हो गई। धूंआ, गर्द, दूषित जल, प्रदूषित हवा और रासायनिक खादों की सहायता से उत्पादित अन्न-जल खाते-पीते भारत के लोगों के शरीर की प्रतिरोधक क्षमता विकसित देशों की जनता से ज्यादा होती है। लेकिन इसी में जिन लोगों की प्रतिरोधक क्षमता कम होती है, वे डिब्बाबन्द पेयों के सेवन से स्वर्ग सिधार जाते हैं। इनमें बच्चों की संख्या अधिक होती है।
आज (अगस्त,५,२०१५) को ‘अमर उजाला’ के प्रथम पृष्ठ पर एक समाचार पढ़ा, जो मैं ज्यों का त्यों, नीचे प्रस्तुत कर रहा हूं --
                                          “फ्रूटी में निकली मरी छिपकली"
“बहराइच (ब्यूरो)। छह साल की मासूम पोती को खुश करने के लिए दादा ने जो फ्रूटी खरीदकर दी , उसमें मरी हुई छिपकली निकली। उसे जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां इलाज़ के बाद घर भेज दिया गया। खाद्य सुरक्षा अधिकारी ने दुकान पर छापा मारकर फ्रूटी का पैकेट सीज़ कर सैम्पुल परीक्षण के लिए गोरखपुर प्रयोगशाला भेजा है। इसी के साथ दुकान से मिली संबंधित बैच की तीन पेटी फ्रूटी सीज़ कर पाँच सैम्पुल परीक्षण के लिए भेजे गए हैं।”
मैगी पर इतना बवाल हुआ; क्या फ्रूटी पर भी होगा? मेरी समझ से नहीं। इस समस्या का समाधान हम-आपको मिलकर करना होगा। इसका एक ही समाधान है - डिब्बाबंद पेय पदार्थों का बहिष्कार।

Wednesday, June 24, 2015

२५ जून -- लोकतंत्र का काला दिवस

       आज भारतीय लोकतंत्र का काला दिवस है। आज ही के दिन ४० साल पहले हिन्दुस्तान की मक्किका-ए-आज़म, निरंकुश तानाशाह इन्दिरा गांधी ने आपात्काल लगाकर लोकतंत्र का गला घोंटा था। भारत की सारी जनता (कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और चाटुकारों को छोड़कर) के मौलिक अधिकार रातोरात छीन लिए गए थे। लाखों नेता, जनता और छात्र जेल में ठूंस दिए गए थे। मैं तब बीएचयू का भुक्तभोगी छात्र था। ऐसी कोई रात नहीं होती थी जब छापा डालकर हास्टल से आर.एस.एस. विद्यार्थी परिषद और सयुस के कार्यकर्त्तओं को पकड़कर डीआईआर या मीसा में गिरफ़्तार करके जेल नहीं भेजा जाता हो। डा. प्रदीप, होमेश्वर वशिष्ठ, विष्णु गुप्ता, इन्द्रजीत सिंह, अरुण सिंह, दुर्ग सिंह चौहान, श्रीहर्ष सिंह, राज कुमार पूर्वे, गोविन्द अग्रवाल ............आदि आदि मेरे अनेक मित्र जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिए गए - बिना किसी अपराध के।किसी का कैरियर तबाह हुआ तो किसी की ज़िन्दगी। कोई नपुंसक बना तो कोई अपाहिज़। बड़ी दुःखद दास्तान है एमरजेन्सी की। उन दिनों को याद करके आज भी मन पीड़ा से भर जाता है। कोई दूसरा देश होता, तो निरंकुश तानाशाह इन्दिरा गांधी के साथ वही सुलुक करता जो इटली ने मुसोलिनी के साथ, जर्मनी ने हिटलर के साथ, मिस्र ने मोर्सी के साथ, चीन ने गैंग आफ़ फ़ोर्स और पाकिस्तान ने भुट्टो के साथ किया। लेकिन हाय रे गुलाम मानसिकता की हिन्दुस्तान की जनता। तानाशाह को फिर से प्रधान मंत्री बना दिया, एक अनाड़ी पायलट को देश की बागडोर दे दी, एक विदेशी को राजमाता बना दिया और एक पप्पू को शहज़ादा बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। फिर भी भारत के लोकतंत्र ने हार नहीं मानी, राष्ट्रवादियों ने घुटने नहीं टेके। देश विश्व-गुरु बनने की राह पर चल चुका है। इसे परम वैभव के शिखर पर पहुंचने से कोई भी वंशवादी, जातिवादी और विघटनकारी ताकत रोक नहीं सकती
                           तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें

Tuesday, June 23, 2015

हरिवंश बाबा (एक संस्मरण)


      हरिवंश बाबा मेरे अपने बाबा के परम मित्र थे। मेरे बाबा को मेरे बाबूजी के रूप में एक ही संतान थी; हरिवंश बाबा के कोई संतान नहीं थी। इसलिए वे मेरे बाबूजी को बहुत प्यार करते थे। मेरे बाबूजी जब इंटर में थे, तभी मेरे बाबा का देहान्त हो गया। मैंने अपने बाबा को देखा नहीं। हरिवंश बाबा को ही मैं अपना असली बाबा मानता रहा। उन्होंने भी मुझपर अपना स्नेह-प्यार, लाड़-दुलार लुटाने में कभी कोताही नहीं की। बड़ा होकर जब मैंने बी.एच.यू. के इंजीनियरिंग कालेज में एड्मिशन लिया तो एक दिन हरि बाबा ने मुझसे एक प्रश्न पूछा - बबुआ अब त तू काशी में पढ़ तार। उ भगवान शिव के नगरी ह। उहां बड़-बड़ विद्वान लोग रहेला। तहरा से जरुर भेंट भईल होई। इ बताव, भगवान के भोजन का ह? मैंने अपनी बुद्धि पर बहुत जोर दिया और उत्तर दिया - फल-मूल। उन्होंने कहा - नहीं। मैंने कहा - दूध, दही, मेवा, मलाई, मिठाई। "नहीं, नहीं, नहीं", उन्होंने साफ नकार दिया। मैं चुप हो गया। वे बोले - अगली छुट्टी में अईह तो जवाब बतईह। अपना गुरुजी से एकर उत्तर पूछ लीह। अगली छुट्टी में मैं घर गया। वे मृत्यु-शैया पर थे। मैं उनसे मिलने तुरन्त उनके घर गया। उन्होंने मुझे देखा, मंद-मंद मुस्कुराए और अपना पुराना प्रश्न दुहरा दिया। मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। आंखों में आंसू लिए मैं उन्हें देखता जा रहा था। उन्होंने कहा - रोअ मत बेटा! हम मर जाएब, त तहरा हमार सवाल के जवाब ना मिली। एसे हमहीं जवाब देत बानी। ई  जवाब के गांठ बांध लीह। भगवान के भोजन अहंकार ह।

      मैंने उनके चरणों में अपना शीश रख दिया। कुछ ही क्षणों के बाद उनका देहान्त हो गया। मेरे हरिवंश बाबा बहुत कम पढ़े-लिखे थे। जीवन भर वे केवल तुलसी दास के रामचरित मानस का ही पाठ करते रहे। दूसरा कोई ग्रन्थ उन्होंने पढ़ा ही नहीं। कहते थे - दोसर किताब पढ़ेब, त सब गड़बड़ हो जाई। दुनिया में एसे भी बढ़िया कौनो किताब बा का?

Wednesday, June 10, 2015

श्री श्री १०८ अरविन्दो बाबा

       श्री श्री सोमनाथ भारती ‘आप’ की ४९ दिनी सरकार में कानून मंत्री थे। इस समय दिल्ली के मालवीय नगर के विधायक हैं। नाइजीरियाई महिलाओं से कथित बससलूकी के कारण काफी चर्चित रहे हैं। महिला अधिकार पर लंबे-चौड़े भाषण देते हैं; लेकिन स्वयं अपनी पत्नी की पिटाई करते हैं। स्वयं को एक मल्टी नेशनल कंपनी का कथित मालिक बताकर लिपिका से शादी करते हैं। समाज सुधार के नाम पर दहेज भी लेते हैं। घूमने-फिरने के लिए कार भी लेते हैं - अपनी कमाई से नहीं ससुर जी से। पोल खुलने पर पत्नी को पीड़ित करते हैं। श्री श्री सोमनाथ की पत्नी लिपिका ने दिनांक १० जून को दिल्ली पुलिस और महिला आयोग में अपने पति  के खिलाफ़ शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न की लिखित शिकायत दर्ज़ कराई और न्याय की मांग की। प्रख्यात न्यायमूर्ति श्री श्री १०८ अरविन्दो बाबा ने अपनी बतीसी खोल जुबान चलाने की कोई आवश्यकता नहीं समझी। यह जुबान तो सिर्फ नज़ीम जंग और नरेन्द्र मोदी के खिलाफ़ चलती है।
श्री श्री जितेन्द्र सिंह तोमर - जितना बड़ा नाम उतना बड़ा काम - दिल्ली के कानून मंत्री (अब पूर्व मंत्री)। १९८५ से १९८८ तक दिल्ली के राजधानी कालेज के नियमित छात्र रहे। कालेज और दिल्ली विश्वविद्यालय के अभिलेख इसकी पुष्टि करते हैं। अचानक वे रातो-रात फ़ैज़ाबाद पहुंच जाते हैं और राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय से बी.एस-सी. की डिग्री हासिल कर लेते हैं। उनकी यात्रा का अगला पड़ाव भागलपुर (बिहार) होता है जहां से वे कानून की डिग्री (एल.एल.बी.) हासिल करके वापस दिल्ली लौट आते हैं और दिल्ली बार कौन्सिल में रजिस्ट्रेशन कराते हैं, फ़र्जी प्रमाण पत्रों के आधार पर। प्रैक्टिस तो वे क्या खाक करते, श्री श्री १०८  अरविन्दो बाबा के शिष्य अवश्य बन जाते हैं। दिल्ली की ऐतिहासिक भ्रष्टाचार मुक्त सरकार में कानून मंत्री भी बन जाते हैं। अवध विश्वविद्यालय  मंत्री जी के काले कारनामें की पुष्टि कर देती है। बोतल में बंद जिन्न बाहर आ जाता है। फिलहाल वे अंदर हैं। श्री श्री १०८ अरविन्दो बाबा अब मनमोहन बाबा के अनुयायी हो गए हैं - मौन व्रत पर हैं। हां, अपने चेलों को धरना-प्रदर्शन के लिए जरूर भेजा है।
वह दिन दूर नहीं जब सन्त फ़ोर्ड, साध्वी राजमाता और राष्ट्रीय संगठन सी.आई.ए. से प्राप्त धन और सहयोग का भी खुलासा हो जाएगा। तबतक चमत्कार से अपने हाथ से शहद टपकाते रहिए और कुर्सी से चिपके रहिए, अपने नटवर लालों के साथ - श्री श्री १०८ अरविन्दो बाबा।

Sunday, May 24, 2015

नाले में सरकारी धन

     बाल बंगरा, बिहार के सिवान जिले के महाराजगंज तहसील का भारत के लाखों गांवों की तरह एक गांव है। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में विशिष्ट योगदान के बावजूद भी प्रादेशिक या राष्ट्रीय समाचारों की सुर्खियों में नहीं आया कभी इसका नाम। १९४२ के १६ अगस्त को इस गांव के फुलेना प्रसाद ने महाराजगंज थाने पर एक विशाल जनसमूह के साथ कब्ज़ा कर लिया था और महाराजगंज को आज़ाद घोषित  किया था। थाने पर तिरंगा फहरा दिया गया और स्व. प्रसाद ने थानाध्यक्ष को गांधी टोपी पहनकर झंडे को सलामी देने पर बाध्य किया था। सूचना मिलते ही अंग्रेज पुलिस कप्तान वहां पहुंचा और सबके सामने फुलेना प्रसाद को गोली मार दी। सीने पर आठ गोली खाकर फुलेना प्रसाद अमर शहीद हो गए। उनकी पत्नी तारा रानी को गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें १९४६ में जेल से रिहा किया गया। आज भी महाराजगंज शहर के मध्य में लाल रंग का शहीद स्मारक अमर शहीद फुलेना प्रसाद की हिम्मत एवं वीरता की कहानी कहता है। उस समय यह गांव समाचार पत्रों में कई दिनों तक स्थान पाता रहा। एक बार फिर १९७१ के १५ अगस्त को इस गांव का नाम बिहार के समाचार पत्रों में छपा। अमर शहीद फुलेना प्रसाद की विधवा पत्नी तारा रानी श्रीवास्तव को बिहार की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में तात्कालीन प्रधान मंत्री ने लाल किले में एक विशेष समारोह में ताम्र-पत्र देकर सम्मानित किया। मेरा जन्म इसी बालबंगरा गांव में हुआ था। मेरा सौभाग्य रहा कि मार्च १९८७ तक मुझे स्व. तारा रानी श्रीवास्तव का आशीर्वाद प्राप्त होता रहा। उन्हें इलाके के सभी लोग -- बूढ़े, बच्चे, जवान -- दिदिया (दीदी) कहकर पुकारते थे।
बालबंगरा गांव के पूरब में एक बरसाती नदी बहती है। गांव का एक बड़ा हिस्सा बरसात में एक बड़े झील का रूप ले लेता है। उसमें धान की खेती होती है। सामान्य से थोड़ी भी अधिक वर्षा होने पर धान के खेत का पानी गांव के रिहायशी इलाकों घुस जाता है। अतिरिक्त पानी को निकालने के लिए ७०-८० साल पहले गांव वालों ने ही सामूहिक प्रयास से एक किलोमीटर लंबी एक छोटी नहर की खुदाई की। इस नहर के द्वारा बाढ़ का पानी गांव के निचले हिस्से से बरसाती नदी में पहुंचने लगा। फिर हमारे गांव में कभी बाढ़ नहीं आई और धान की फसल भी पानी के प्रवाह में कभी बही नहीं। गांव वाले स्वयं ही कभी-कभी छोटी नहर की सफाई कर लेते थे।
आज वहीं छोटी नहर मनरेगा के माध्यम से कमाई का स्रोत बनी है। साल में कम से कम छ: बार कागज पर उसकी खुदाई और सफाई होती है और लाखों रुपयों की बन्दरबांट हो जाती है। गांव के सभी इच्छुक पुरुषों और महिलाओं को जाब-कार्ड मिला हुआ है। बिना कोई काम किए ही प्रतिदिन ७० रुपए वे मनरेगा से पा जाते हैं। शेष ५५ रुपए जन-प्रतिनिधियों, अधिकारी और कर्मचारियों में बंट जाते हैं। कभी कार सेवा से बनी नहर अब नाले का रूप ले चुकी है जबकि मनरेगा की व्यय-राशि करोड़ों में पहुंच चुकी है।
मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा तो कई बार प्रधान मंत्री ने भी की है, लेकिन इसकी पुष्टि National Council of Applied Economic Research (NCAER), Natioanal Institute of Public Finance & Policy और Natioanal Institute of Financial Management ने वित्त मन्त्रालय भारत सरकार को २०१३ और २०१४ में प्रस्तुत रिपोर्ट में कर दी थी। कांग्रेस की सरकार ने इसे दबा दिया था। वर्तमान सरकार ने इसे सार्वजनिक कर दिया है। www.timesofindia.com पर पूरी रिपोर्ट उपलब्ध है। रिपोर्ट में मनरेगा के अतिरिक्त सार्वजनिक वितरण प्रणाली, इन्दिरा आवास योजना, सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम और ग्रामीण दलित बच्चों की छात्रवृत्ति में व्याप्त भ्राष्टाचार की विस्तार से चर्चा है। हर वर्ष हमारे राजकोष का ५०% भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।

Thursday, May 21, 2015

Anarchist केजरीवाल


केजरीवाल ने जब अपनी ही पार्टी के संस्थापक सदस्यों, योगेन्द्र यादव और प्रशान्त भूषण को पार्टी से निष्कासित किया, तो लोगों ने उन्हें डिक्टेटर कहा। जब केजरीवाल ने अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन में अग्रणी भूमिका निभाई, तो लोगों ने उन्हें रिवोल्युशनरी कहा। जब केजरीवाल ४९ दिनों तक सरकार चलाकर भाग खड़े हुए, तो लोगों ने उन्हें भगोड़ा कहा। जब उन्होंने वाराणसी संसदीय क्षेत्र से नरेन्द्र मोदी को ललकारा तो लोगों ने उन्हें फाइटर कहा। लेकिन वास्तव में उपरोक्त विशेषण में से कोई उनपर फिट नहीं बैठता है। सत्य यह है कि वे एक जन्मजात Anarchist हैं। उन्हें लड़ने के लिए हमेशा एक Target चाहिए। Good governance से उनका कोई लेना-देना नहीं।
दिल्ली में मुख्यमंत्री और उप राज्यपाल के बीच चल रही जंग के मूल में वर्तमान मुख्य सचिव शकुन्तला गैमलिन की अस्थाई नियुक्ति का मामला है। शकुन्तला दिल्ली की वरिष्ठतम आई.ए.एस. अधिकारी हैं और उनपर भ्रष्टाचार या अनियमितता की कोई जांच भी नहीं चल रही है; पूर्व में भी कोई जांच नहीं चली है। ऐसे में उनकी वरिष्ठता को नज़रअन्दाज़ करते हुए एक कनिष्ठ का नाम जिसपर राष्ट्रमंडल खेल घोटाले का आरोप है, मुख्य सचिव के लिए Recommend करना कही से भी उचित नहीं था। उप राज्यपाल ने शकुन्तला के साथ न्याय किया और उन्हें कार्यवाहक मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। सरकारी नियमों के अनुसार फ़ाईल पर अनुमोदन सक्षम अधिकारी देता है लेकिन औपचारिक आदेश प्रधान सचिव या नियुक्ति सचिव द्वारा जारी किया जाता है। उप राज्यपाल के अनुमोदन के पश्चात शकुन्तला की तदर्थ नियुक्ति का आदेश जारी करना Principal Secretary की वाध्यता थी। मज़ुमदार ने वह आदेश जारी कर दिया। नाराज़ केजरीवाल ने मज़ुमदार को Principal Secretary के पद से हटा दिया। उप राज्यपाल ने मुख्यमंत्री का आदेश निरस्त करते हुए मज़ुमदार को पुनः Principal Secretary नियुक्त कर दिया। केजरीवाल ने तमाम शिष्टाचार को तिलांजलि देते हुए मज़ुमदार के कमरे पर ताला जड़वा दिया। 
लगभग एक साल पहले गुजरात के प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा नरेन्द्र मोदी को दी गई विदाई का दृश्य मेरी आंखों के सामने घूम जाता है। विदाई समारोह में शामिल अधिकांश अधिकारियों की आंखें गीली थीं। कुछ तो फफक-फफक कर रो रहे थे। मोदी ने उन्हीं आई.ए.एस. अधिकारियों के साथ काम किया और गुजरात को विकास के शिखर पर पहुंचाया। Good governance का यह एक अनुपम उदाहरण है। केजरीवाल ने दिल्ली के उप राज्यपाल और केन्द्र सरकार के खिलाफ़ जंग छेड़ने के बाद अब आई.ए.एस. अधिकारियों के खिलाफ़ मोर्चा खोला है। अधिकारियों को नियम के अनुसार सार्वजनिक रूप से कुछ भी कहने का अधिकार नहीं होता लेकिन व्यवस्था के सर्वोच्च पद पर बैठे हुए मुख्यमंत्री को जनसभा में कुछ भी बोलने का अधिकार होता है। केजरीवाल ने इस अधिकार का दुरुपयोग करते हुए एक जनसभा में मुख्य सचिव शकुन्तला गैमलिन को भ्रष्ट बताते हुए जनता से प्रश्न पूछा - "क्या आप इस भ्रष्ट महिला को स्वीकार करेंगे?”
यह एक महिला और ब्युरोक्रेसी का अपमान है। केजरीवाल अपने चुनावी वादों को कभी भी पूरा नहीं कर सकते। मुफ़्तखोरी का सपना एक या दो बार दिखाया जा सकता है। वे इसे भलीभांति जानते हैं। वे उप राज्यपाल, केन्द्र सरकार और दिल्ली के अधिकारियों से जंग छेड़कर Anarchism का ऐसा माहौल उत्पन्न करना चाहते हैं कि केन्द्र सरकार उनकी सरकार को बर्खास्त कर दे और वे शहीद का दर्ज़ा पा जायें। उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। सुशासन दे पाना उनके वश में नहीं है। आगे जो भी घटनाक्रम सामने आये, नुकसान तो दिल्ली की जनता का ही होना है।

Monday, May 11, 2015

मीडिया की हकीकत


    मैं अरविन्द केजरीवाल का समर्थक नहीं हूं, बल्कि उनके घोर विरोधियों में से एक हूं। पाठकों को याद होगा - मैंने उनके खिलाफ कई  लेख लिखे हैं। लेकिन मीडिया के खिलाफ़ उनके द्वारा जारी किए गए सर्कुलर का मैं समर्थन करता हूं। कारण यह है कि भारत की मीडिया, विशेष रूप से इलेक्ट्रोनिक मीडिया मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ चुकी है। लोकतंत्र में विरोध का अपना एक विशेष स्थान होता है लेकिन अंध और पूर्वाग्रहयुक्त विरोध का प्रतिकार होना ही चाहिए। न्यूज चैनलों को भारत और भारतीयता से गहरी नफ़रत है।  अपनी इस मानसिकता के कारण वे हिन्दी, हिन्दुत्व, आर.एस.एस, शिवसेना, अकाली दल, बाबा रामदेव, हिन्दू धर्मगुरु, भारतीय परंपरायें और देसी नेताओं को नित्य ही अपने निशाने पर लेती हैं। बंगाल में एक नन के साथ दुर्भाग्यपूर्ण बलात्कार हुआ, मीडिया ने प्रमुखता से समाचार दिया, खुद ही मुकदमा चलाया और खुद ही फ़ैसला भी दे दिया। घटना के लिए मोदी सरकार और कट्टरवादी हिन्दू संगठनों को दोषी करार दिया। सरकार ने जांच की। पता लगा कि रेप करने वाले बांग्लादेशी मुसलमान थे। दिल्ली के एक चर्च में एक मामूली चोरी की घटना हुई। मीडिया ने इसके लिए मोदी एवं आर.एस.एस. को कटघरे में न सिर्फ़ खड़ा किया बल्कि मुज़रिम भी करार दिया। आगरा में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। बाल एक चर्च की खिड़की के शीशे से टकरा गई। शीशा टूट गया। मीडिया ने इसे क्रिश्चनिटी पर हमला बताया। जब से नरेन्द्र मोदी प्रधान मंत्री बने हैं, मीडिया ने एक वातावरण बनाया है कि भारत में धर्मनिरपेक्षता खतरे में है। नरेन्द्र मोदी का एक ही अपराध है कि वे आज़ाद भारत के पहले पूर्ण स्वदेशी प्रधान मंत्री हैं - चिन्तन में भी, व्यवहार में भी।
      मीडिया की चिन्ता का दूसरा केन्द्र अरविन्द केजरीवाल बन रहे हैं। दिल्ली में उनकी अप्रत्याशित सफलता से वही मीडिया जो उन्हें सिर-आंखों पर बैठाती थी, अब बौखलाई-सी दिखती है। कारण स्पष्ट है - अरविन्द केजरीवाल में ही मोदी का विकल्प बनने की क्षमता है। धीरे-धीरे क्षेत्रीय दल किनारे हो रहे हैं और कांग्रेस की राजमाता एवं शहज़ादे अपनी चमक खोते जा रहे हैं। केजरीवाल भी मीडिया को भा नहीं रहे हैं क्योंकि मोदी की तरह वे भी एक देसी नेता हैं जो अपने सीमित शक्तियों और साधनों के बावजूद आम जनता की भलाई सोचते हैं। मैंने बहुत सोचा कि आखिर मीडिया भारतीयता के पीछे क्यों हाथ धोकर पड़ी रहती है? मेरे प्रश्नों के उत्तर दिए मेरे एक मित्र श्री विन्देश्वरी सिंह ने जो जियोलोजिकल सर्वे आफ़ इन्डिया के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं। उनसे प्राप्त सूचना का सार निम्नवत है -
      सन २००५ में एक फ्रान्सिसी पत्रकार फ़्रैन्कोईस भारत के दौरे पर आया। उसने भारत में हिन्दुत्व पर हो रहे अत्याचारों का अध्ययन किया और बहुत हद तक इसके लिए मीडिया को जिम्मेदार ठहराया। उसने काफी शोध किए और पाया कि भारत में चलने वाले अधिकांश न्यूज चैनल और अखबार भारत के हैं ही नहीं। उसने पाया कि --
१. दि हिन्दू ... जोशुआ सोसायटी, बर्न स्विट्जरलैंड द्वारा संचालित है।
२. एनडीटीवी - गोस्पेल आफ़ चैरिटी, स्पेन, यूरोप द्वारा संचालित।
३. सीएनएन, आईबीएन-७, सीएनबीसी - साउदर्न बेप्टिस्ट चर्च यूरोप द्वारा संचालित
४. टाइम्स आफ़ इन्डिया ग्रूप - बेनेट एन्ड कोलमैन यूरोप द्वारा संचालित। इसके लिए ८०% फ़न्डिंग क्रिश्चियन कौन्सिल द्वारा तथा २०% फ़न्डिंग इटली के राबर्ट माइन्दो द्वारा की जाती है। राबर्ट माइन्दो कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी के निकट संबंधी हैं।
५. हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रूप - पहले यह बिरला ग्रूप का था। अब इसका भी स्वामित्व टाइम्स आफ़ इन्डिया के पास है।
६. दैनिक जागरण ग्रूप - इसके एक प्रबंधक समाजवादी पार्टी से राज्य सभा के सांसद हैं। सभी को ज्ञात है कि समाजवादी पार्टी मुस्लिम परस्त है।
७. दैनिक सहारा - जेल में बंद सुब्रतो राय इसके सर्वेसर्वा हैं जो मुलायम और दाउद के करीबी रहे हैं।
८. आन्ध्र ज्योति - हैदराबाद की घोर सांप्रदायिक पार्टी MIM ने इसे खरीद लिया है।
९. स्टार टीवी ग्रूप - सेन्ट पीटर पोंटिफ़िसियल चर्च, यूरोप द्वारा संचालित
१०. दि स्टेट्समैन - कम्युनिस्ट पार्टी आफ़ इन्डिया द्वारा संचालित।
......................................... यह लिस्ट बहुत लंबी है। किस-किस का उल्लेख करें?
जिस मीडिया की फ़न्डिंग विदेश से होती है वह भारत के बारे में कैसे सोच सकती है? यही कारण है कि यह मीडिया शुरु से ही इस धरती और धरती-पुत्रों को अपनी आलोचना के निशाने पर रखती है। देर-सबेर केन्द्र सरकार को भी इनपर लगाम लगानी ही पड़ेगी।


Friday, May 8, 2015

Convicted को बेल, Under trial को जेल


वाह रे न्यायपालिका! एक सुपर स्टार वी.आई.पी. के लिए सारे नियम ताक पर। परसों दिनांक ६-५-१५ को मुंबई की सेसन कोर्ट विभिन्न धाराओं में सलमान खान को दिन के १.३० बजे ५ साल की सज़ा सुनाती है और आधे घंटे के अंदर दिन के दो बजे मुंबई हाई कोर्ट उसे ज़मानत दे देती है। नशे में धुत होकर फुटपाथ पर सोए गरीब बेकरी-मज़दूरों पर गाड़ी चढ़ाकर एक को मौत की नींद सुलाने और चार को अपाहिज़ बनाने वाले अपराधी को एक मिनट के लिए भी जेल नहीं जाना पड़ा। आज उस अपराधी के पक्की बेल के लिए मुंबई हाई कोर्ट में सुनवाई हुई। जैसी उम्मीद थी, सलमान को पक्की ज़मानत मिल गई। उनकी सज़ा पर स्टे भी मिल गया है। उन्हें हाई कोर्ट का अन्तिम फ़ैसला आने तक गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता। मुंबई के पुलिस कमिश्नर सतपाल सिंह ने फ़ैसले पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा है कि अदालत के इस फ़ैसले से अपराधियों का मनोबल बढ़ेगा। कमिश्नर साहब को आश्चर्य हुआ है, मुझे बिल्कुल नहीं हुआ। उच्च न्यायालय वी.आई.पी. सुपर स्टार के मामले में आवश्यकता से अधिक फ़ास्ट और एक्टिव था। जब आधे घंटे में अन्तरिम ज़मानत मिल सकती थी तो पक्की ज़मानत पर आश्चर्य कैसा। कोई सांसद किसी महिला की तारीफ़ कर दे, लोगबाग टूट पड़ते हैं। उसे संसद में माफ़ी मांगनी पड़ती है। किसी की भावनाओं को चोट पहुंचाने वाली बात करने पर जेल जाने की नौबत आ जाती है। आज ही राहुल गांधी कोर्ट में पेश हुए हैं। कोई सरकारी कर्मचारी व्यवस्था के खिलाफ़ बोल ही नहीं सकता है। अगर १० रुपए की रिश्वत लेते हुए पकड़ा जाता है, तो नौकरी चली जाती है। लेकिन एक की हत्या करने और चार को अपाहिज़ बनाने वाले को उच्च न्यायालय एक मिनट के लिए भी जेल भेजने में  हिचकिचाता है। अदालत के खिलाफ़ बोलने या लिखने पर अवमानना का मुकदमा चल सकता है और जेल भी हो सकती है, लेकिन यह सब जानते हुए भी मैं चुप रहना, अन्याय करने के समान मानता हूं। मुझे यह कहने या लिखने में तनिक भी हिचक नहीं है कि आज और दिनांक ६ मई का मुंबई हाई कोर्ट का फ़ैसला प्रायोजित था।
      मुंबई के पुलिस कमिश्नर ने कहा है कि देश में एक लाख से ज्यादा व्यक्ति Under trial हैं और वर्षों से जेल में बंद हैं। अगर न्यायालय ने सलमान के केस की १०% तेजी भी उन दुर्भाग्यशाली गरीब विचाराधीन कैदियों के प्रति दिखाई होती, तो लाखों परिवारों का जीवन बर्बाद होने से बच सकता था। उनके द्वारा तथाकथित किए गए अपराध उतने बड़े नहीं होंगे, जितना बड़ा अपराध उनका गरीब और निरीह होना है। समझ में नहीं आता है  कि यह कैसा देश है, इसका कैसा कानून है और इसकी कैसी अदालतें हैं जो एक ही ज़ुर्म और एक ही कानून की व्याख्या अपनी धारणा, स्वविवेक और अपनी सुविधा के अनुसार करती हैं। इसके मापदंड वी.आई.पी के लिए अलग है, आम जनता के लिए अलग। एक ही जुर्म में लालू, जयललिता, ए.राजा आदि आदि को हाई कोर्ट सज़ा सुना देती है, वे जेल भी चले जाते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट उन्हें अनिश्चित काल के लिए ज़मानत दे देती है। अगर आपकी औकात हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाने की नहीं है तो ...............। जरा सोचिए आपका क्या हश्र होगा? सारा खेल पैसे का है रे बाबा !
  जय न्यायपालिका! जय न्यायाधीश!!

Wednesday, May 6, 2015

सलमान को सज़ा


सन २००२ में प्रसिद्ध अभिनेता सलमान खान ने नशे में धुत होकर तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाते हुए फूटपाथ पर सोए चार लोगों पर अपनी कार चढ़ा दी जिसके कारण एक व्यक्ति की मौके पर ही मौत हो गई और चार गंभीर रूप से घायल हो गए। मुकदमा दर्ज़ किया गया और केस की सुनवाई १३ साल तक चली। यह केस “हिट एन्ड रन” नाम से मशहूर हुआ। मुंबई सेसन कोर्ट को कोटिशः धन्यवाद कि उसने फ़ैसला मात्र १३ वर्षों में ही सुना दिया। न्यायपालिका की वर्तमान रफ़्तार को देखते हुए इसमें ६३ साल भी लग सकते थे, ७३ साल भी लग सकते थे। अदालत ने सलमान खान को मोटर विहिकल एक्ट और बाम्बे प्रोबेशन एक्ट की निम्न धाराओं के अनुसार दोषी पाया है -
१. धारा ३०४(२) - गैर इरादतन हत्या
२. धारा १८१ - नियमों का उल्लंघन कर गाड़ी चलाना
३. धारा २७९ - लापरवाही से गाड़ी चलाना
४. धारा १८५ - नशे में धुत होकर तेज रफ़्तार से गाड़ी चलाना
५. धारा ३७७, ३३८ - जान को जोखिम में डालना।
जिस समय सलमान खान गाड़ी चला रहे थे, उस समय उन्हें कानूनन गाड़ी चलाने का अधिकार ही नहीं था क्योंकि उनके पास ड्राइविंग लाइसेन्स नहीं था। इतनी गंभीर धाराओं के अनुसार वे दोषी पाए गए। इन अपराधों के लिए १० साल के बामशक्कत कैद का प्राविधान है लेकिन उन्हें सिर्फ ५ साल की सज़ा मिली है। यहां भी उनका स्टारडम काम आया। संजय दत्त को भी अपने स्टारडम और सुनील दत्त के बेटे होने का लाभ मिला और देशद्रोह का अभियोग साबित होने के बाद भी आजन्म कारावास की सज़ा नहीं मिली। वे सज़ा के दौरान भी पैरोल के बहाने अक्सर घर आकर ऐश करते हैं। सलमान भी वही करेंगे। यह अंग्रेजों द्वारा बनाए गए और आज तक असंशोधित इंडियन पेनल कोड, मोटर विहिकल एक्ट और बाम्बे प्रोबेशन एक्ट तथा सेलिब्रेटी के प्रति हमारी विशेष दृष्टि का ही परिणाम है कि बड़ी मछलियां आज़ादी से तैरती हैं और छोटी मछलियां कानून की शिकार बन जाती हैं।

Friday, May 1, 2015

आरक्षण


आई.आई.टी. में प्रवेश के लिए आयोजित संयुक्त प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित हो चुके हैं। आई.आई.टी. में ५०% सीटें विभिन्न वर्गों के लिए आरक्षित हैं। इस बार संयुक्त प्रवेश परीक्षा (JEE) की कट आफ़ मार्क की तालिका निम्नवत है -
      सामान्य वर्ग - १०५
      ओबीसी वर्ग - ७०
      एससी वर्ग - ५०
      एसटी वर्ग - ४४

देश के सबसे प्रतिष्ठित प्राद्यौगिक संस्थान में प्रवेश पाने वाले ५०% छात्रों का स्तर उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है। यही हाल मेडिकलविश्वविद्यालय, प्रबन्धन और प्रशासनिक सेवा के लिए आयोजित प्रवेश परीक्षाओं का भी है। भारत आनेवाले वर्षों में दुनिया का सुपर पावर बनने का सपना देख रहा है। क्या ऐसे इंजीनियर, डाक्टर, प्रबन्धक और प्रशसकों के साथ यह संभव है? यह एक यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर देश के समस्त बुद्धिजीवियों से अपेक्षित है।