Wednesday, August 31, 2016

केजरीवाल के नगीने

      महाभारत के अन्त में जब अर्जुन को यह ज्ञात हुआ कि कर्ण उनका सहोदर भ्राता था, तो उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रश्न पूछा कि यह जानते हुए भी कि पाण्डव उसके सगे भाई हैं, कर्ण ने द्रौपदी के चीरहरण के लिए दुःशासन को क्यों प्रेरित किया, दुर्योधन के सारे षडयंत्रों में क्यों मुख्य भूमिका निभाई? श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि यह संगत का परिणाम था। तुम्हें मेरी संगत मिली और कर्ण को दुर्योधन की। बस इसी मूल अन्तर ने सारा अनर्थ करा दिया। दिल्ली के मुख्यमन्त्री अरविन्द केजरीवाल के महिला एवं बाल कल्याण मन्त्री सन्दीप कुमार की सेक्स सीडी सामने आने के बाद यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि सन्दीप कुमार केजरीवाल की संगत में बिगड़े या केजरीवाल सन्दीप कुमार की संगत में? आदमी की दोस्ती सामान्य और स्वाभाविक रूप से अपने समान विचार वालों से पहले होती है। केजरीवाल के छः मन्त्रियों में से तीन की जालसाजी, रिश्वतखोरी और सेक्स स्कैन्डल में बर्खास्तगी क्या साबित करती है? साथी भ्रष्ट और नेता दूध का धुला हुआ?
दिल्ली को और कौन-कौन-सा तमाशा दिखायेंगे केजरीवाल? केजरीवाल के मित्र मन्त्री जितेन्द्र तोमर जून, २०१५ में फ़र्जी डिग्री के मामले में जेल की हवा खाने के बाद बर्खास्त किए गए। उनके दूसरे विश्वस्त मन्त्री असीम अहमद खान रिश्वतखोरी में पकड़े जाने पर अक्टूबर, २०१५ में बर्खास्त किए गए और कल यानी ३१ अगस्त, २०१६ को उनके महिला और बाल कल्याण मन्त्री सन्दीप कुमार अपने कल्याण के साथ कई महिलाओं का कल्याण करने की सीडी के सार्वजनिक होने के बाद बर्खास्त किए गए। केजरीवाल के पास ६७ विधायक हैं जिनमें से १३ विधायक भ्रष्टाचार के मामलों में गिरफ़्तार होकर जेल की हवा खा चुके हैं। कुछ दिन और इन्तज़ार कीजिए, तिहाड़ जेल के जेलर महोदय यह दावा करेंगे कि उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाय क्योंकि उनके पास केजरीवाल से ज्यादा विधायक हैं। तोमर के फ़र्जीवाड़े और असीम अहमद की रिश्वतखोरी के बाद केजरीवाल ने देश के प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी पर आरोप लगाया था कि वे उनके मन्त्रियों और विधायकों को झूठे मामलों में फंसाकर जेल भिजवा रहे हैं। वे कजरीवाल को काम नहीं करने दे रहे हैं। घोर आश्चर्य है कि सन्दीप कुमार के सेक्स स्कैंडल पर मोदी को दोषी ठहराते हुए केजरीवाल का कोई बयान अभी तक नहीं आया है। हमें तो अपेक्षा थी कि वे कहेंगे कि सन्दीप कुमार वास्तव में महिला कल्याण ही तो कर रहे थे और मोदी ने वह भी नहीं करने दिया।
केजरीवाल को सन्दीप कुमार की सेक्स सीडी १५ दिन पहले ही मिल गई थी, लेकिन उन्होंने कोई कार्यवाही नहीं की। वे इसको दबाना चाहते थे। लेकिन जब उन्हें मालूम हुआ कि सीडी एल.जी. और मिडिया तक भी पहुँच गई है, तो उन्होंने सन्दीप को बर्खास्त किया। इस मामले में झूठ बोलकर मनीष सिसोदिया ने देश और दिल्ली की जनता को धोखा दिया है। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। केजरीवाल के एक विधायक पर बलात्कार का आरोप है। पीड़ित लड़की, जो आप की वर्कर थी, ने केजरीवाल से शिकायत की और न्याय की मांग की। केजरीवाल का जवाब था कि मामले को तूल मत दो और विधायक से कम्प्रोमाइज कर लो। बलात्कारी से कम्प्रोमाइज? ऐसा सिर्फ केजरीवाल ही सोच सकते हैं। पीड़ित, बेबस लड़की ने कहीं से न्याय न पाने के कारण आत्महत्या कर ली। केजरीवाल का विश्वस्त पूर्व मन्त्री सोमनाथ भारती अपनी पत्नी की रोज पिटाई करता था और कुत्ते से कटवाता था।केजरी ने उसका भी बचाव किया था। केजरीवाल के साथी कैसे निकले, यह जनता के सामने है। सत्संगी को सत्संगी मिलता है और व्यभिचारी को व्यभिचारी - यह प्रकृति का नियम है। सारा आरोप एल.जी., मोदी और अपने दागी मन्त्रियों तथा विधायकों पर थोपकर केजरीवाल अपने को साफ-सुथरा साबित नहीं कर सकते। आजतक केजरीवाल ने अपने दागी मन्त्रियों और विधायकों में से एक को भी पार्टी से  नहीं निकाला है। केजरी फैसला लेने में बहुत कमजोर हैं। वे लगातार जनता के भरोसे का कत्ल कर रहे हैं। जो आदमी अपने आधा दर्ज़न मन्त्रियों को कन्ट्रोल नहीं कर सकता है, वह दिल्ली को क्या कन्ट्रोल करेगा। खोखली नैतिकता के स्वामी केजरीवाल में अगर तनिक भी शर्म बाकी हो तो बिना विलंब किए मुख्यमन्त्री के पद से त्यागपत्र दे देना चाहिए और जनता को अपना कालिख पुता चेहरा फिर न दिखाने की कसम भी खा लेनी चाहिए।

Sunday, August 21, 2016

बलूचिस्तान की जंगे आज़ादी

      बलूचिस्तान वर्तमान में पाकिस्तान का पश्चिमी प्रान्त है। पाकिस्तान का यह सबसे बड़ा प्रान्त है। यहां तेल और प्राकृतिक गैस का विशाल भंडार है। यह सोना समेत अनेक खनिज संपदा भी अपने गर्भ में छिपाए हुए है। ईसा पूर्व बलूचिस्तान का कुछ हिस्सा ईरान (सिस्तान व बलूचिस्तान प्रान्त) तथा अफ़गानिस्तान में भी पड़ता था। सबसे बड़ा क्षेत्र पाकिस्तान में पड़ता है, लेकिन इसकी आज़ादी की मांग से ईरान भी भयभीत रहता है। इसकी राजधानी क्वेटा है तथा भाषा बलूच है।
            १९४७ के पहले इसे कलात के रियासत के रूप में जाना जाता था। इसका दर्ज़ा हिन्दुस्तान के अन्य रियासतों की ही तरह था। १९४४ में अंग्रेज इसे पूर्ण स्वतंत्रता देना चाहते थे लेकिन जिन्ना और मुस्लिम लीग के विरोध के कारण यह १४ अगस्त १९४७ को एक स्वतंत्र रियासत के रूप में आज़ाद हुआ। पाकिस्तान के आज़ाद होने के एक दिन बाद ही कलात रियासत (वर्तमान बलूचिस्तान) ने अपने शासक ज़नाब खान साहब के नेतृत्व में एक मुल्क के रूप में अपनी आज़ादी की घोषणा कर दी। कलात के स्वतंत्र अस्तित्व की पुष्टि मुस्लिम लीग ने की और कलात की नेशनल एसेम्बली  ने भी की। लेकिन १ एप्रिल १९४८ में पाकिस्तानी सेना ने कलात में मार्च किया और कलात के शासक ज़नाब खान साहब को गिरफ़्तार कर लिया। उनसे जबर्दस्ती विलय के समझौते पर दस्तखत करा लिया गया। लेकिन खान के भाई अब्दुल करीम ने तत्काल विद्रोह की घोषणा कर दी और कलात को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित करते हुए बलोच नेशनल एसेम्बली के लिए एक घोषणा पत्र भी जारी किया जिसमें पाकिस्तान के साथ विलय को अस्वीकृत किया गया था। प्रिन्स को अफ़गानिस्तान से समर्थन की अपेक्षा थी क्योंकि अफ़गानिस्तान बलूच और पख्तून क्षेत्रों के पाकिस्तान में विलय का विरोधी था। अफ़गानिस्तान का भी इरादा नेक नहीं था। वह इस क्षेत्र का अफ़गानिस्तान में विलय चाहता था।
            बलूचिस्तान में आज़ादी के लिए संघर्ष कोई आज की घटना नहीं है, बल्कि १९४८ में ही इसके पाकिस्तान में जबर्दस्ती विलय के समय से ही शुरुआत हो चुकी थी। पाकिस्तान के खिलाफ़ बलूचियों ने १९४८-५२, १९५८-६०, १९६२-६९ और २००४-०५ में खुली बगावत की जिसका एक ही मकसद था – पाकिस्तान से आज़ादी।
            प्रिन्स अब्दुल करीम ने १९५० के मई के अन्त में पाकिस्तानी सेना के खिलाफ़ झालवान जिले में गुरिल्ला युद्ध आरंभ करके खुली बगावत का एलान किया। इसपर पाकिस्तान की सेना के  अधिकारियों ने यह चेतावनी दी कि अगर बगावत जारी रही तो गिरफ़्तार शासक खान साहब की दुर्गति कर देंगे। पाकिस्तान की सेना के अधिकारियों और अब्दुल करीम खां के प्रतिनिधियों के बीच कुरान की शपथ लेते हुए एक समझौता हुआ  जिसमें सभी बागियों को माफ़ी देने तथा उनकी सुरक्षा के साथ-साथ अच्छे व्यवहार की गारंटी दी गई थी। लेकिन सेना ने छल किया और प्रिन्स तथा उनके १०२ सथियों को कलात जाने के रास्ते में ही गिरफ़्तार कर लिया। लेकिन इस विद्रोह से दुनिया के सामने दो चीजें स्पष्ट हो गईं ---
१.       बलूच और पख्तून बलूचिस्तान के पाकिस्तान में विलय को स्वीकार नहीं करते।
२.      बलूचियों में यह विश्वास घर कर गया कि पाकिस्तान ने उनके साथ धोखा किया है और समझौता तोड़कर विश्वासघात किया है।
करीम और उनके साथियों को लंबी अवधि की जेल की सज़ा हुई, परन्तु वे बलूचिस्तान की आज़ादी के प्रतीक बन गए।
    अब्दुल करीम १९५५ में जेल से छूटकर आए और फिर आज़ादी के दीवानों को संगठित करना शुरु कर दिया। उन्होंने पाकिस्तान की सेना के मुकाबले के लिए एक समानान्तर सेना का गठन किया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने ६ अक्टूबर, १९५८ को इस विद्रोह को दबाने के लिए सेना को कलात में कूच करने का आदेश दिया और एक दिन बाद मार्शल ला भी लगा दिया। सेना ने खान बन्धुओं को फिर से गिरफ़्तार कर लिया और देशद्रोह का मुकदमा ठोक दिया। खान बन्धुओं की गिरफ़्तारी का भयंकर प्रतिरोध हुआ और पूरे बलूचिस्तान में हिंसा भड़क उठी। सेना ने गुरिल्लाओं के संभावित ठिकानों के सन्देह में कई गाँवों पर बमबारी भी की। झालवान के जेहरी जनजातीय प्रमुख नौरोज खान ने मीरघाट की पहाड़ियों में पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ा दिए। लेकिन अन्त में सेना ने कुरान की कसम दिलाते हुए एक समझौता करने में सफलता पा ली। नौरोज ने अच्छे व्यवहार की आशा में हथियार डाल दिए, लेकिन सेना ने फिर विश्वासघात किया तथा उन्हें और उनके पुत्रों को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया। जुलाई १९६० में नौरोज के बेटों को हैदराबाद और सुकुर में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। गम से टूटे नौरोज  भी १९६२ में कोहलू के जेल में स्वर्गवासी हो गए।
               १९५८ में सेना ने बलूचिस्तान के अन्दर के इलाकों में बेस कैंप बनाना शुरु किया तो  एक बार फिर विद्रोह भड़क उठा। इस विद्रोह का नेतृत्व शेर मुहम्मद मर्री ने किया। वे एक दूरदर्शी नेता थे। उन्होंने एक व्यापक गुरिल्ला युद्ध की तैयारी की। इसके लिए उन्होंने झालवान के आदिवासी क्षेत्रों, मर्री और उत्तर के बुग्ती क्षेत्रों में अपना प्रभावी नेटवर्क स्थापित किया। आज़ादी  के दीवाने गुरिल्लाओं को सैन्य प्रशिक्षण और बम बनाने तथा चलाने की ट्रेनिंग दी गई। सेना ने इसका जबर्दस्त विरोध किया और शेर मुहम्मद मर्री तथा उनके रिश्तेदारों के १३,००० एकड़ में फैले बादाम के बगीचों को बुलडोज़र चला कर ध्वस्त कर दिया। लड़ाई १९६९ तक जारी रही। अन्त में याह्या खान ने सीमित स्वायत्तता प्रदान करते हुए अपनी सेना की एक यूनिट को वापस बुला लिया। क्षेत्र में एक अस्थाई शान्ति कायम हुई।
            सन १९७० में राष्ट्रवादी बलूचियों ने उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रदेश (NWFP) के पख्तूनों से संपर्क किया और नेशनल अवामी पार्टी के नाम से एक राजनीतिक पार्टी बनाई। १९७१ के आम चुनाव में इस पार्टी ने बलूचिस्तान और NWFP में जीत भी हासिल की। इस बीच क्वेटा और मस्तुंग में पंजाबियों के खिलाफ़ बलूचियों के आक्रामक रवैये तथा ईरानी दूतावास में भारी मात्रा में संहारक हथियारों की बरामदगी से पाकिस्तानी शासकों को यह विश्वास हो गया कि बलूचिस्तान में विद्रोही फिर से सक्रिय हो गए हैं। पाकिस्तान के प्रधान मन्त्री भुट्टो ने राज्य सरकार को तुरन्त बर्खास्त कर दिया। बर्खास्तगी से नाराज बलूच गुरिल्ले फिर से सक्रिय हो गए। बांग्ला देश की घटना से विक्षिप्त भुट्टो ने बलूचिस्तान को फिर सेना के हवाले कर दिया तथा बलूचिस्तान के तीन बुजुर्ग सम्मानित नेता – गौस बक्स बिजेन्जो, अयातुल्ला खान मेंगल और कबीर मर्री को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया। लेकिन बलूचिस्तान में आन्दोलन थमा नहीं और अगले चार साल तक जारी रहा। यह युद्ध जब चरम पर था, तो पाकिस्तान को अपने ८०,००० फौजियों को वहाँ तैनात करना पड़ा। यह अबतक का सबसे बड़ा विद्रोह था। रेल और रोड लिंक ध्वस्त हो गए थे। बलूचिस्तान लंबे समय तक पाकिस्तान से कटा रहा। ईरान के शाह को यह डर सताने लगा कि उसके नियंत्रण वाले बलूचिस्तान के क्षेत्र में भी कहीं बगावत न हो जाय, उसने ३० अमेरिकी कोबरा हेलिकाप्टर अपने पायलट के साथ पाकिस्तान की मदद के लिए भेजा। १९७४ की सर्दियों में पाकिस्तानी सेना ने हवाई और जमीनी आक्रमण से हजारों बलूच आदिवासियों की हत्या की। बलूच गुरिल्ले, जिन्हें किसी बाहरी शक्ति का समर्थन प्राप्त नहीं था, लंबे समय तक पाकिस्तानी सेना का सामना नहीं कर सके और बलूच स्वतंत्रता के अधिकांश नेता पाकिस्तान के बाहर ब्रिटेन और अफ़गानिस्तान जैसे देशों में चले गए। इसके बाद भी बलूच स्टूडेन्ट‘स यूनियन और अन्य स्वतंत्रता प्रेमी बलूच समूहों ने फिर लड़ाई की शुरुआत की जो आजतक जारी है।

            बलूचों के संघर्ष की दास्तान से सारी दुनिया लगभग अनजान थी। वहाँ आज़ादी की मांग बहुत पुरानी है। प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इसे स्वर प्रदान किया है। आज़ादी के लिए हथियारबंद अलगाववादी समूह आज भी सक्रिय हैं। इनमें प्रमुख हैं – बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी और लश्कर-ए-बलूचिस्तान। पाकिस्तानी सरकार लगातार बलूच आन्दोलन को योजनाबद्ध से कुचलने और बलूचियों की मांग को दरकिनार करने का प्रयास करती रही है। पाकिस्तान ने हजारों बलूचों को नज़रबंद किया, हजारों युवकों का अपहरण कर उन्हें गायब कर दिया, सेना और सरकारी नौकरियों में बलूचियों के प्रवेश पर रोक लगाई, लोकतांत्रिक बलूच नेताओं की हत्या कराई। पुरुषों का कत्ल और महिलाओं से रेप पाकिस्तानी सेना के लिए आम बात है।बलूचिस्तान के इतिहास में पहली बार किसी अन्तर्राष्ट्रीय नेता ने बलूचिस्तान की आज़ादी का समर्थन करने का संकेत दिया है। प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी को थोड़ा आगे बढ़कर बलूचिस्तान को सैन्य सहायता प्रदान करने पर भी विचार करना चाहिए। कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्राय़ोजित आतंकवाद का यह सबसे सटीक उत्तर होगा। अगर बलूचिस्तान पाकिस्तान से अलग हो जाता है तो पाकिस्तान की कमर टूट जाएगी और वह कंगाल हो जाएगा।

Wednesday, August 17, 2016

भारत के मुख्य न्यायाधीश की खीझ


            स्वतन्त्रता दिवस के पावन अवसर पर लाल किले की प्राचीर से प्रधान मन्त्री ने अपने संबोधन में जजों के रिक्त पदों के भरने के विषय में कुछ नहीं कहा; भारत के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टी.एस. ठाकुर इससे बहुत नाराज हैं। उन्होंने उसी दिन कानून मन्त्री और प्रधान मन्त्री पर कटाक्ष भी किया। अपनी बात कहने का यह कोई उपयुक्त अवसर नहीं था। इसमें उनकी कुण्ठा साफ झलक रही थी। न्यायपालिका में उपर से नीचे तक भयंकर भ्रष्टाचार व्याप्त है। पैसे वालों और पहुंच वालों के लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से मनमाफिक फैसले लेना अब आम बात हो गई है। आतंकी याकूब मेनन के लिए सुप्रीम कोर्ट आधी रात को खुल सकता है लेकिन बुलन्द शहर के रेप विक्टिम का संज्ञान भी नहीं ले सकता। लालू यादव, जय ललिता, कन्हैया और सलमान खान उंगलियों पर न्यायालय को नचा सकते हैं, लेकिन साध्वी प्रज्ञा को जांच एजेन्सी की अनुशंसा के बाद भी ज़मानत नहीं मिल सकती। अब तो सुप्रीम कोर्ट कानून भी बनाने लगा है। भारत का क्रिकेट कन्ट्रोल बोर्ड एक स्वायत्तशासी संस्था है जो स्थापित नियम कानूनों के हिसाब से बनी है। सुप्रीम कोर्ट ने एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश से उसकी कार्य पद्धति की जांच करवाई और उसके संचालन के लिए खुद ही नियम भी बना दिए। यह काम विधायिका यानी संसद का था। लेकिन मुख्य न्यायाधीश के अहंकार ने सुप्रीम कोर्ट को विधायिका का रूप दे दिया। BCCI ने सुप्रीम कोर्ट में उसके पूर्व निर्णय के खिलाफ अपील की है जिसमें यह आग्रह किया गया है कि चूंकि मुख्य न्यायाधीश जस्टिस ठाकुर BCCI के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं, इसलिए उन्हें सुनवाई करने वाली पीठ में न रखा जाय। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी जब वादी ने अपने प्रतिवेदन में मुख्य न्यायाधीश की निष्पक्षता पर साफ-साफ उंगली उठाई हो।
            जब मैं पूर्वांचल विद्युत वितरण निगम का मुख्य अभियन्ता (प्रशासन) था, तो एक केस के सिलसिले में इलाहाबाद हाई कोर्ट में गया था। उसमें मेरे सिवा, मेरे एम.डी, पश्चिमांचल के एम.डी, उत्पादन निगम के अध्यक्ष और पारेषण के एम.डी. भी तलब किए गए थे। हमलोग पूरी तैयारी से दिन के पौने दस बजे ही कोर्ट में पहुंच गए थे, लेकिन न्यायाधीश महोदय दिन के साढ़े ग्यारह बजे कोर्ट में पहुंचे। मई का महीना था। गर्मी के कारण बुरा हाल था। उनके कोर्ट में बैठने की भी पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। हमलोग खड़े होकर अपनी बारी का इन्तज़ार कर रहे थे कि अपराह्न के डेढ़ बज गए। जज साहब लंच के लिए उठ गए। हमलोग गर्मी में ही मरते रहे। फिर जज साहब शाम के चार बजे प्रकट हुए और हमलोगों के केस की सुनवाई पांच बजे तक हुई, फिर अगली तारीख पड़ गई। कोर्ट का काम करने का समय खत्म हो चुका था, अतः जज साहब उठे और अपने घर चले गए। जिन मामलों की सुनवाई नहीं हो पाई थी, उन्हें अगली तारीख मिल गई। न्यायालयों में पेन्डिंग मामलों का एक कारण जजों की कमी तो है, लेकिन यह प्रमुख कारण नहीं है। कोर्ट में गर्मी की छुट्टियों से लेकर न जाने कितनी छुट्टियां होती हैं, हिसाब लगाना मुश्किल है। फिर जजों के काम करने की अवधि औसतन दो से तीन घंटे है। इसपर किसी का नियंत्रण नहीं है। मोदी जी भी कुछ नहीं कर सकते। इस लेख को लिखने के कारण मुझे भी अवमानना के मुकदमे का सामना करना पड़ सकता है।
            मोदी सरकार ने आते ही जजों की नियुक्ति के लिए गठित वर्तमान कालेजियम की त्रुटियों पर ध्यान दिया और संसद से एक बिल पास कराया जिसमें नए कालेजियम की व्यवस्था थी जिसमें जजों की नियुक्ति के लिए केन्द्रीय विधि मन्त्री और विपक्ष के नेता की भी सहभागिता और सहमति आवश्यक थी। बिल पर राष्ट्रपति के भी दस्तखत हो गए थे। नियमानुसार बिल कानून का रूप ले चुका था, परन्तु सुप्रीम कोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर इसे रद्द कर दिया। एक प्रश्न चिह्न खड़ा हो गया कि संसद बड़ी है या सुप्रीम कोर्ट? सुप्रीम कोर्ट ने वर्तमान कालेजियम को पुराने स्वरूप में बनाए रखने का निर्णय सुना दिया। इस तरह सुप्रीम कोर्ट देश के राष्ट्रपति और जनता द्वारा चुनी गई संसद से भी बड़ा हो गया। दरअसल वर्तमान कालेजियम सिस्टम में जजों की नियुक्ति के संबन्ध में मुख्य न्यायाधीश को अपार अधिकार मिला हुआ है। कालेजियम में जजों के अतिरिक्त कोई दूसरा सदस्य नहीं हो सकता और कालेजियम सदस्य के रूप में जजों के चुनाव में मुख्य न्यायाधीश की ही चलती है। हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति के लिए न कोई टेस्ट होता है और न कोई इन्टर्व्यू। परिवारवाद, जान-पहचान और अन्य साधनों से कालेजियम के सदस्यों को प्रभावित करके उनका समर्थन हासिल करना ही एकमात्र अर्हता है। नियुक्ति में पारदर्शिता का सर्वथा अभाव रहता है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के संबन्ध में एक सूचना प्रस्तुत है। श्री टी.एस. ठाकुर, मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के पिताजी श्री देवी दास ठाकुर जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट के जज थे। हमारे मुख्य न्यायाधीश के छोटे भाई श्री धीरज सिंह ठाकुर इस समय जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं। ऐसा वंशवाद या परिवारवाद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट, कांग्रेस या समाजवादी पार्टी में ही देखने को मिल सकता है। यह सब  जजों की नियुक्ति के लिए मौजूद वर्तमान कालेजियम की देन है। जो एक दिन के लिए भी सेसन कोर्ट या लोवर कोर्ट में जज नहीं रहा, वह सीधे हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का जज बन सकता है। जस्टिस ठाकुर को यह डर है कि मोदी जी वर्तमान कालेजियम सिस्टम को भंग करने का कोई न कोई तरीका निकाल लेंगे इसीलिए वे प्रधान मन्त्री और विधि मन्त्री से खिझे रहते हैं। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड में केन्द्रीय सरकार के विरोध में आया निर्णय तो एक बानगी है; आगे-आगे देखिए होता है क्या?

   हमें तो इतना ही कहना है कि सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद उच्च संवैधानिक पद है, इसकी गरिमा का ध्यान मुख्य न्यायाधीश को रखना चाहिए। उन्हें केजरीवाल की तरह बयान देने से बचना चाहिए।

Monday, August 1, 2016

बुलन्दशहर की दर्दनाक घटना और बिहार


लालू यादव के कारण बिहार को जो कुख्याति मिली, उसके कारण पूरे देश में बिहार का मज़ाक उड़ाया जाने लगा। लालू यादव के मसखरेपन के कारण बिहार के बाहर लगभग हर बिहारी उपहास का पात्र बन गया। अगर किसी बिहारी से काम करते समय कोई गलती हो गई, तो बास झट से कह देता कि तुम बिहारियों को काम करने नहीं आता और अगर बिहारी ने कोई उल्लेखनीय कार्य कर दिया तो बास का यह कथन होता कि यार तुम तो कहीं से भी बिहारी नहीं लग रहे हो। मैंने लगभग ३७ साल की अपनी पूरी नौकरी यूपी में की है और इस दंश से कई बार रू-बरू हुआ हूँ। कल्पना कीजिए कि बुलन्दशहर वाली गैंग रेप की घटना अगर बिहार में हुई होती, तो देश में बिहारियों की स्थिति कितनी शर्मनाक हुई होती। लेकिन यूपी वाले अब भी मूंछ पर ताव देते हुए घूम रहे हैं। लगता है पीड़ित परिवार न तो दलित वर्ग से है और ना ही अल्पसंख्यक वर्ग से।यह घटना अगर किसी भाजपा शासित राज्य में हुई रहती, तो नरेन्द्र मोदी से इस्तीफा मांगनेवालों की लाईन लग गई होती, संसद ठप्प हो गई होती। 
मैंने यूपी में गुजारे गए ज़िन्दगी के अधिकांश हिस्से में यह महसूस किया है कि यूपी में नैतिकता पर जोर कम दिया जाता है। बिहार में तो ले-देकर एक लालू यादव ही हैं जो परोक्ष रूप से चोरी-डकैती, छिनैती और फिरौती का समर्थन करते हैं, परन्तु यूपी में तो लगभग हर पार्टी के नेता ऐसे अनैतिक कामों में लिप्त रहते हैं। विशेष रूप से समाजवादी पार्टी के आते ही गुंडों और असामाजिक कार्य में लिप्त मुस्लिमों का आतंक भयंकर ढंग से बढ़ जाता है। इन लोगों के लिए कानून-व्यवस्था पाकेट की चीज होती है। गुजरात में गोधरा के बाद एक भी सांप्रदायिक घटना नहीं हुई, लेकिन यूपी में ऐसा कोई महीना नहीं बीतता जब ऐसी घटनायें न हों। अब तो पश्चिमी यूपी के कई जिलों से कश्मीर की तरह हिन्दुओं का पलायन भी शुरु हो गया है। इस प्रदेश को संभालना अखिलेश या मुलायम के वश में नहीं है। समाजवादी पार्टी इस प्रदेश के शान्ति चाहने वाले नगरिकों के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में उभर चुकी है। समाजवादी पार्टी लगातार दूसरी बार कभी सत्ता में नहीं आई है। अगले चुनाव में इसका जाना तय है। लेकिन तबतक पता नहीं इस प्रदेश में कितने कैराना, कितने मुज़फ़्फ़रनगर और कितने बुलन्दशहर की घटनायें होंगी। नागरिकों और विशेषरूप से महिलाओं से आग्रह है कि सिर्फ सूर्य के प्रकाश में ही घर से बाहर निकलें। बिहार में गुंडों का शिकार पुरुष वर्ग होता है, यूपी में शिकारी कुत्ते औरतों की तलाश में ज्यादा रहते हैं।