Saturday, October 18, 2014

महाभारत-४

        श्रीकृष्ण आरंभ में युद्ध ही एकमात्र समाधान है, ऐसा नहीं मानते। सर्वशक्तिमान होने के बावजूद वे कभी अनायास शक्ति-प्रयोग की बात भी नहीं करते परन्तु उपमा-उपमेय के द्वारा शिष्ट भाषा में सबकुछ कह भी जाते हैं। संजय के माध्यम से वे धृतराष्ट्र को संदेश देते हैं -
वनं राजा धृतराष्ट्रः सपुत्रो व्याघ्रा वने संजय पांडवेयाः ।
मा वनं छिन्दि स व्याघ्रं मा व्याघ्रान्नीनशो वनात ॥
पुत्रों सहित धृतराष्ट्र एक वन हैं और पांडव उस वन के सिंह हैं। अतः न तो इस सिंहयुक्त वन को काटो, न वन के सिंहों का नाश करो।
निर्वनो वध्यते व्याघ्रो निर्व्याघ्रं छिद्यते वनं ।
तस्मात व्याघ्रो वतं रक्षेत वनं व्याघ्रं च पालयेत ॥
यदि वनरहित सिंह होते हैं, तो उनका वध होता है और सिंहविहीन वन को लकड़हारे बिना किसी भय के काट डालते हैं। इससे बेहतर यही है कि सिंह वन की रक्षा करें और वन सिंहों का पालन करे।
श्रीकृष्ण शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व की बात युद्ध के पहले तक अलग-अलग अवसरों पर बार-बार कहते हैं। वे धृतराष्ट्र के कुल का नाश नहीं चाहते थे। पाण्डवों का अधिकार दिलाने एवं धृतराष्ट्र के कुल का विनाश रोकने के लिये वे तरह-तरह की उपमायें देते हैं। वे कहते हैं -
पाण्डव शाल के वृक्ष के समान हैं और धृतराष्ट्र के पुत्र लता सदृश। कोई भी लता बड़े वृक्ष के आश्रय के बिना आगे नहीं बढ़ सकती। पाण्डव और कौरव प्रेमपूर्वक रहते हैं तो इस लोक का कोई भी शत्रु उन्हें बुरी नज़र से देखने का दुस्साहस कभी नहीं कर सकता। अन्त में वे एक कड़ा संदेश देने से भी नहीं चुकते -
धर्माचारी पाण्डव शान्ति के लिये तैयार हैं और युद्ध के लिये भी समर्थ हैं। वे अपना अधिकार लेकर ही रहेंगे, इसके लिये चाहे जो भी करना पड़े। हे संजय! तुझे धृतराष्ट्र से जो कहना है, वह कह देना। हमने दो विकल्प दिए हैं। चुनाव उन्हें ही करना है।
जाते-जाते युधिष्ठिर संजय को अन्तिम संदेश देते हैं - 
धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने पृथ्वी पर जिनकी समानता नहीं है, ऐसे अनेक योद्धा एकत्र किए होंगे। पर धर्म ही नित्य है। मेरे पास इन सब शत्रुओं को नष्ट कर सके, ऐसा महाबल है। वह है मेरा धर्म! 
ददस्व वा शक्रपुरं ममैव युद्दस्व वा भारतमुख्यवीर । 
मेरा इन्द्रप्रस्थ मुझे वापस लौटा दो अथवा भारत-वंश के प्रमुख वीर, तुम युद्ध करो।
                        अगले अंक में - धृतराष्ट्र को विदुर की सलाह

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