Friday, June 20, 2014

किराये का मकान और केजरीवाल

       आदमी अपने कर्मों के कारण कितनी जल्दी अर्श से फ़र्श पर आता है, इसका ताज़ातरीन उदाहरण हैं आप के नेता अरविन्द केजरीवाल। जो आदमी कुछ ही दिन पहले दिल्ली की जनता का हीरो था, आज ज़ीरो है। उसको शरण देने के लिये दिल्ली में कोई तैयार नहीं हो रहा है। समाचार है कि दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल को किराये का मकान नहीं मिल रहा है। काफी ना-नुकुर के बाद केजरीवाल ने मुख्यमन्त्री के लिये आवंटित मकान को खाली किया। उस मकान पर कब्जा बनाये रखने के लिये उन्होंने वे सारे तिकड़म किये जो एक आम सरकारी अधिकारी या कर्मचारी करता है। कायदे से मुख्यमन्त्री का पद छोड़ने के बाद स्वतः उन्हें मुख्यमन्त्री का आवास खाली कर देना चाहिये था लेकिन उन्होंने प्रशासन को पत्र लिख कर मकान में रहने की अनुमति मांगी। तर्क यह दिया कि उनकी बेटी हाई स्कूल की परीक्षा दे रही है अतः वे मकान खाली नहीं कर सकते। आश्चर्य होता है कि मुख्यमन्त्री बनने के पहले वे गाज़ियाबाद में रहते थे। उनकी बेटी उनके साथ ही रहकर पढ़ती थी। ४९ दिनों तक मुख्यमन्त्री रहने के बाद ऐसा कौन सा बदलाव आ गया कि उनकी बेटी गाज़ियाबाद में रहकर परीक्षा नहीं दे सकती थी? दरअसल ४९ दिनों में कुछ नहीं बदला, केजरीवाल जरुर बदल गये। उन्हें मुख्यमन्त्री के रूप में प्राप्त सर-सुविधायें रास आने लगी। मुख्यमन्त्री बनने के पूर्व सरकारी मकान, सरकारी वाहन और सरकारी सुविधाओं को न लेने की सार्वजनिक घोषणा करने के बाद भी उन्होंने सबका भोग किया और ४९ दिनों में ही उनके आदी हो गए। वाराणसी से बुरी तरह चुनाव हारने के बाद दिल्ली के उपराज्यपाल से मिलकर केजरीवाल ने पुनः मुख्यमन्त्री बनने के लिये प्रस्ताव भी दिया जिसे स्वीकार नहीं किया गया। उनकी कथनी और करनी में फ़र्क को जनता ने अच्छी तरह समझ लिया। विश्वसनीयता के मामले में वे कांग्रेस से भी पीछे चल रहे हैं। उनके साथी भी एक-एक कर उनका साथ छोड़ते जा रहे हैं। एक बात स्पष्ट हो गई है कि अरविन्द केजरीवाल परम स्वार्थी और तानाशाही प्रवृत्ति के नेता हैं। वे अपनी महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये कुछ भी कर सकते हैं। उनकी स्वार्थी प्रवृत्ति का प्रमाण पिछला आम चुनाव था जिसमें उन्होंने भाजपा और कांग्रेस से भी ज्यादा प्रत्याशी मैदान में उतारे थे - लगभग ४३२। उन्होंने प्रत्याशी तो उतार दिये लेकिन न तो उन्हें धन मुहैया कराया और न उनका चुनाव प्रचार किया। स्वयं शुरु से लेकर अन्त तक वाराणसी में ही जमे रहे। अन्य प्रत्याशियों की कोई सुधि नहीं ली। वाराणसी में पैसा पानी की तरह बहाया गया, दूसरे प्रत्याशियों को पैंफलेट छापने के लिये भी पैसे नहीं दिए गए। चुनाव में खर्चों का केजरीवाल ने जो व्योरा दिया है, उसके अनुसार उन्होंने नरेन्द्र मोदी से भी ज्यादा पैसा खर्च किया है। यही कारण रहा कि शाज़िया इल्मी, योगेन्द्र यादव और कुमार विश्वास जैसे उनके स्टार प्रचारक और सहयोगी अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाये। अन्ना के जनान्दोलन से उपजे केजरीवाल मोदी की सुनामी में तिनके की भांति उड़ गये। रही सही कसर उनकी महत्वाकांक्षा और स्वार्थपरता ने पूरी कर दी। लोगबाग दिग्विजय सिंह से ज्यादा केजरीवाल पर अविश्वास करते हैं। आजकल वे जहां भी मकान के लिये जाते हैं, मकान मालिक ‘ना’ में सिर हिला देता है। जब सर्व सामर्थ्यशाली भारत सरकार भी पांच महीने तक उनसे मकान खाली करने में नाकाम रही तो साधारण मकान मालिक किस खेत की मूली है! वैसे यह भी केजरीवाल का एक ड्रामा ही है। उनकी पत्नी आयकर विभाग में कमिश्नर हैं और स्वयं केजरीवाल ने एनजीओ के माध्यम से कई सौ करोड़ रुपये बनाये हैं। वे एक मकान क्या पूरा अपार्टमेन्ट खरीद सकते हैं। लेकिन जिसको ड्रामा करने की आदत लग गई है, उसका क्या इलाज हो सकता है? 

Sunday, June 1, 2014

स्मृति ईरानी और लार्ड मेकाले की शिक्षा

          समरस समाज, प्रेरणादायक नेतृत्व और नागरिकों के उच्च चरित्र ही देश और समाज के सर्वंगीण विकास में सहायक होते हैं। फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथेमेटिक्स, इतिहास, भूगोल और अर्थशास्त्र की किस पुस्तक में लिखा है कि बड़ों का सम्मान करो, स्त्रियों को मां-बहन का सम्मान दो, माता-पिता-गुरु को पैर छूकर प्रणाम करो। राम, कृष्ण, गौतम, गांधी के चरित्र को हृदय से हृदयंगम किए बिना नैतिकता और चरित्र का विकास असंभव है। मैकाले की सेकुलर शिक्षा व्यवस्था ने नैतिकता और चरित्र को कालवाह्य बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
      फरवरी १८३५ में इंग्लैंड के हाउस आफ़ कामन्स में भारत की शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन हेतु अपनी दलील देते हुए लार्ड मेकाले ने कहा था -
      "I have travelled across the length and breadth of India and I have not seen one person who is beggar, who is a thief. Such wealth I have seen in this country, such high moral values, people of such calibre, that I do not think that we would ever conquer this country unless we break the very backbone of this nation, which is the cultural and the spiritual heritage, and thereof, I propose that we replace her old and ancient education system, her culture, for if the Indians think that all that is foreign and English is good and greater than their own, they will lose their self esteem, their native culture and they will become what we want them - a truly dominated nation." (बिना किसी संशोधन के एक-एक शब्द, कामा फ़ुलस्टाप के साथ मेकाले के लिखित वक्तव्य से उद्धृत)
      "मैंने पूरे भारत की यात्रा की और ऐसा व्यक्ति नहीं देखा जो भिखारी हो या चोर हो। इस तरह की संपत्ति मैंने इस देश में देखी है, इतने ऊंचे नैतिक मूल्य, लोगों की इतनी क्षमता, मुझे नहीं लगता कि कभी हम इस देश को जीत सकते हैं, जबतक कि इस देश की रीढ़ को नहीं तोड़ देते जो कि उसकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत है। इसलिए मैं प्रस्ताव करता हूं कि हमें इसकी पुरानी और प्राचीन शिक्षा-व्यवस्था, इसकी संस्कृति को बदलना होगा। इसके लिए यदि हम भारतीयों को यह सोचना सिखा दें कि जो भी विदेशी है और अंग्रेज है, यह उनके लिए अच्छा और बेहतर है, तो इस तरह से वे अपना आत्मसम्मान खो देंगे, अपनी संस्कृति खो देंगे और वे वही बन जायेंगे जैसा हम चाहते हैं - एक बिल्कुल गुलाम देश।"
    आज़ादी के बाद भी हमने अपनी शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार नहीं किया। हमने किसी भी व्यक्ति की योग्यता को लार्ड मेकाले के मापदंडों के आधार पर ही मापा। लेकिन मेकाले के अंध भक्तों ने देश को दिया क्या? सदियों पुराने देश का नाम बदलकर इंडिया रख दिया। मेकाले के सबसे बड़े भक्त जवाहर लाल नेहरू ने ५० हजार लाशों की नींव पर देश का बंटवारा करा दिया। सारी नैतिकता को ताक पर रखकर एडविना मौन्टबैटन से अनैतिक संबन्ध बनाए और कांग्रेस में वंशवाद के पुरोधा बने। इन्दिरा गांधी लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धति से कोई डिग्री तो नहीं ले पाईं लेकिन देश की प्रधान मंत्री अवश्य बन गईं। उन्हें भारत का इतिहास इमरजेन्सी के माध्यम से तानाशाही थोपने के लिये हमेशा याद करेगा। उनके पुत्र भी किसी विश्वविद्यालय से कोई डिग्री नहीं ले पाये। हां, हवाई जहाज उड़ाते-उड़ाते देश के पायलट जरुर बन गये। सोनिया जी लन्दन में मेकाले की शिक्षा पाने गईं अवश्य थीं लेकिन कोई डिग्री हाथ नहीं लगी। बार गर्ल की नौकरी के दौरान राजीव गांधी हाथ जरुर लग गये। उन्होंने १० वर्षों तक रिमोट कन्ट्रोल से भारत पर शासन किया। उनके सुपुत्र राहुल बबुआ भी डिग्री के लिये हिन्दुजा से डोनेशन दिलवाकर हार्वर्ड गये। पढ़ने के बदले कोलंबिया गर्ल से फ़्लर्ट करना ज्यादा मुनासिब समझा और खाली हाथ इंडिया लौट आए। यहां तो युवराज का पद आरक्षित पड़ा ही था। मेकाले के मापदंडों पर खरा उतरने वाले पिछली सरकार के रहनुमाओं में डा. मममोहन सिंह, चिदंबरम, ए. राजा, कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, दिग्विजय सिंह, शशि थरुर, नारायण दत्त तिवारी जैसे नेताओं के नाम स्वार्णाक्षरों में अंकित रहेंगे। लेकिन इन्होंने किया क्या? किसी ने परस्त्रीगमन किया, किसी ने रिश्वत लेकर देश बेचने का काम किया, तो किसी ने भारत की अर्थव्यवस्था को रसातल में पहुंचाने में अपना सर्वस्व झोंक दिया।
    भारत की जनता ने इनके कुकृत्यों के कारण गत माह में संपन्न हुए आम चुनाव में इन्हें बुरी तरह ठुकरा दिया। हताश मेकाले भक्तों को खांटी देसी प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी के मंत्रिमंडल में शिक्षा मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी दिखाई पड़ गईं। ये वही महिला हैं जिन्होंने अमीठी में शहज़ादे को लगभग धूल चटा दी थी। खुन्दक खाए चाटुकार दरबारी, स्मृति की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल उठाने लगे। इन चाटुकारों ने इसके पहले कभी भी इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, सन्जय गांधी, सोनिया गांधी और शहज़ादे राहुल गांधी की शैक्षणिक योग्यता पर सवाल नहीं उठाए। क्या यह सत्य नहीं है कि मेकाले को ईश्वर का दूत मानने के बावजूद नेहरू जी के बाद उनके खानदान में कोई स्नातक की डिग्री नहीं ले पाया?
    शिक्षा और संस्कार से दो चीजें प्राप्त होती है - १. ज्ञान २. जानकारी। मेकाले की शिक्षा से सिर्फ़ जानकारी मिलती है जिसका चरित्र और संस्कार से कोई तालमेल नहीं है। भारतीय शिक्षा पद्धति से ज्ञान प्राप्त होता है जिसमें चरित्र और संस्कार कूट-कूट कर भरे रहते हैं। बाल्मीकि, तुलसी, सूर, कालिदास, कबीर, विद्यापति, शिव पूजन सहाय, जय शंकर प्रसाद, मुंशी प्रेमचन्द, मैथिली शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, फणीश्वर नाथ रेणु, नागार्जुन बाबा, मौसम वैज्ञानिक घाघ और अनेक देसी रत्नों ने कहीं से पी.एचडी. नहीं की थी लेकिन उनपर और उनकी कृतियों पर हजारों लोग पी.एचडी कर चुके हैं। अकबर, छत्रपति शिवाजी, महारानी लक्ष्मी बाई, अहिल्या बाई होलकर के पास लार्ड मेकाले की कोई डिग्री नहीं थी लेकिन उनकी शासन व्यवस्था, प्रबन्धन और कुशल नेतृत्व को इतिहास क्या कभी भुला पाएगा? आज के युग में हजारों इंजीनियरों और प्रबंधकों को नौकरी प्रदान करने वाले रिलायंस ग्रूप के संस्थापक धीरु भाई अंबानी के पास कौन सी डिग्री थी? एक लोटा और १०० रुपए के एक नोट के साथ पिलानी से कलकत्ता पहुंचने वाले घनश्याम दास बिड़ला तो हाई स्कूल पास भी नहीं थे। उन्होंने जो औद्योगिक साम्राज्य खड़ा किया, उसमें मेकाले का क्या योगदान है? सिर्फ़ आलोचना-धर्म के निर्वाह और चाटुकारिता के लिये माकन, सिब्बल, दिग्गी जैसे चारण स्मृति की आलोचना कर रहे हैं। उन्हें राज्य सभा में स्मृति द्वारा दिये गए विद्वतापूर्ण भाषण, टीवी चैनलों पर दिये गए साक्षात्कार और क्रान्तिकारी भाषण कभी याद नहीं आयेंगे। मेकाले की डिग्री और योग्यता  से कोई संबंध नहीं है। स्मृति के पास दृष्टि है, कार्य करने की इच्छा शक्ति है, कर्मठता है, नेतृत्व क्षमता है और सबसे बढ़कर भारत माता के प्रति अटूट निष्ठा है। ये सारे दुर्लभ गुण उन्हें सफलता के नये-नये सोपन प्रदान करेंगे। चन्द्रगुप्त की प्रतिभा को चाणक्य ने पहचाना था, स्मृति की प्रतिभा को नरेन्द्र ने पहचाना है। शुभम भवेत।