Friday, December 31, 2010

वी.वी.एस.लक्ष्मण - टीम इंडिया के संकटमोचक

वी.वी.एस.लक्ष्मण को ऐसे ही वेरी वेरी स्पेशल लक्ष्मण नहीं कहा जाता है, वे इस नाम के पूरी तरह हकदार भी हैं. जब टीम इंडिया के सारे दिग्गज तेज गेंदबाजों की गति और स्विंग तथा फिरकी गेंदबाजों की स्पिन पर डांस करते हुए पेवेलियन की राह पकड़ते हैं, तब यह अद्भुत बल्लेबाज़ गज़ब की एकाग्रता और इच्छाशक्ति के साथ तबतक क्रीज पर टिका रहता है, जबतक टीम की जीत सुनिश्चित नहीं हो जाती. वहीं पिच, वही गेंद, वही उछाल, लेकिन जब लक्ष्मण क्रीज पर हों, तो दुनिया के सारे गेंदबाज़ बेबस नज़र आते हैं. हिन्दुस्तान के दूसरे बल्लेबाज़ भी खेलते हैं -- मैच बचाने के लिए, हार के अंतर को कम करने के लिए, लेकिन लक्ष्मण खेलते हैं, सिर्फ़ जीत के लिए. संकट के समय उनका खेल विशेष रूप से निखर जाता है. वे जिस विश्वास और परफेक्शन के साथ खेलते हैं, वह दर्शनीय होता है. भारतीय क्रिकेट के इतिहास में ऐसा खिलाड़ी इसके पूर्व कभी नहीं देखा गया. असंभव को संभव कर दिखाने का नाम है, वी.वी.एस.लक्ष्मण.
गत २९ दिसंबर को भारत ने दक्षिण अफ़्रीका के विरुद्ध जो असंभव सी जीत दर्ज़ की, उसके नायक लक्ष्मण ही थे. स्टेन की उछाल और स्विंग लेती कहर बरपाती गेंदों पर जब भारत के रिकार्डधारी बल्लेबाज़ बेबस नज़र आ रहे थे, तब लक्ष्मण ने कमान संभाली. दूसरी पारी में उनके द्वारा बनाए गए ९६ रनों ने भारत की जीत की इबारत लिख दी. वे शतक बनाने से सिर्फ़ ४ रनों से चूक गए, लेकिन उनके ९६ रन कई द्विशतकों से बड़े थे. लक्ष्मण ने ऐसा करनामा कोई पहली बार नहीं किया है. इसी वर्ष जुलाई के महीने में, लंका में लंका के विरुद्ध चौथी पारी में जब टीम इंडिया जीत के लिए २५७ रनों का पीछा करते हुए ६२ रन पर ४ विकेट गंवाकर लड़खड़ा चुकी थी, तब लक्ष्मण ने क्रीज़ पर कदम रखा. जिस गेंदबाज़ी के आगे भारत की बल्लेबाज़ी ताश के पत्तों की तरह ढह रही थी, वही लक्ष्मण के आगे नतमस्तक थी. लक्ष्मण ने न सिर्फ़ शतक लगाया, बल्कि टीम इंडिया को जीत भी दिलाई. इसी वर्ष सितंबर के महीने में मज़बूत आस्ट्रेलिया के विरुद्ध भी पुरानी कहानी दुहराई भरोसेमंद लक्ष्मण ने. चौथी पारी में भारत को जीत के लिए २१६ रनों की ज़रुरत थी और भारत का स्कोर था, ८ विकेट पर १२४ रन. संभावित हार सामने खड़ी थी, लेकिन कभी हार न माननेवाले लक्ष्मण क्रीज़ पर थे. वे पूरी तरह फिट भी नहीं थे. चोटिल लक्ष्मण पेन किलर, इंजेक्शन और रनर लेकर खेलते रहे. टेल एंडर ईशांत और ओझा के साथ उस पराक्रमी बल्लेबाज़ ने न केवल अपनी अद्भुत प्रतिभा प्रदर्शित की, बल्कि शतक लगाकर भारत को जीत का एक अविस्मरणीय तोहफ़ा दिया. वर्षों पूर्व, फ़ालोआन के बाद उतरी टीम इंडिया के लिए नंबर एक आस्ट्रेलिया के खिलाफ़ कलकत्ता के इडेन गार्डेन में उनके द्वारा बनाए गए २८४ रनों की ऐतिहासिक पारी को कौन भूल सकता है! लक्ष्मण की बड़ी पारी ने हमेशा भारत को जीत से नवाज़ा है. उन्होंने हमेशा लगभग हारी हुई लड़ाई को जीत में तब्दील किया है. उन्हें क्या कहा जाय -- अद्वितीय, महान! प्रतिभावान, धैर्यवान!! सारे विशेषण उनके लिए छोटे पड़ेगें. उन्हें सिर्फ़ सलाम किया जा सकता है.

Monday, December 27, 2010

मालवीय राग

महामना मालवीय जयन्ती (पौष कृष्ण ८, संवत २०६७, तदनुसार २८.१२.२०१०) के अवसर पर
पौष कृष्ण, ८, संवत २०६७ तदनुसार २८.१२.२०१० को पूरा देश महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की १४९वीं जयन्ती मना रहा है. महामना की १५०वीं जयन्ती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने और महामना के व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों से राष्ट्र को परिचित कराने के लिए भारत सरकार ने सन २०११ को महामना जन्म शताब्दी वर्ष घोषित किया है तथा इस अवसर पर विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने का निर्णय भी लिया है. इसके लिए प्रधान मंत्री की अध्यक्षता में एक कमिटी का गठन भी किया जा चुका है.
विलक्षण प्रतिभा के धनी पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म २५ दिसम्बर १८६१ को हुआ था. अपने जीवन काल में ही किंवदन्ती बन चुके महामना मालवीय चार बार कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए. स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अतुलनीय था. चौरी चौरा कांड के बाद जब कांग्रेस ने क्रान्तिकारियों की भर्त्सना करते हुए अपना आन्दोलन वापस ले लिया, तब महामना ने सार्वजनिक रूप से क्रान्तिकारियों का समर्थन किया. वर्षों पूर्व वकालत के पेशे को स्वतन्त्रता आन्दोलन की वेदी पर अर्पित कर देने के बाद महामना ने चौरी चौरा कांड के अभियुक्तों को बचाने के लिए फिर से काला कोट पहना और अपने जोरदार तर्कों से १५० से ज्यादा निरपराधियों को फाँसी के फ़न्दे से बचा लिया. उनका पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित था. छूआछूत और अन्य सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए उन्होंने कई सफल आन्दोलन चलाए. महात्मा गांधी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते थे. भारत और विश्व को उनका सबसे बड़ा योगदान है, सन १९१६ में उनके द्वारा स्थापित एसिया का सबसे बड़ा आवासीय विश्वविद्यालय -- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, जिसे आज भी भारत के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है. इंडिया टूडे ने अपने ताजा सर्वे में सबसे अधिक मौलिक शोधों एवं शिक्षा की गुणवत्ता के आधार पर भारत के दस सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची प्रकाशित की है. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय उसमें नंबर एक पर विद्यमान है. इसी विश्वविद्यालय की एक प्रतिभाशाली संगीत शिक्षिका ने इस वर्ष एक अनोखा कार्य किया है. डा. ॠचा कुमार, जो संगीत विभाग में रीडर के पद पर कार्यरत हैं, ने ‘मालवीय राग’ के नाम से एक विशेष राग की रचना की है. शास्त्रीय संगीत विशारद डा. ॠचा कुमार हिन्दू विश्वविद्यालय के साथ-साथ महामना मालवीय मिशन और संसकृति शोध एवम प्रकाशन ट्रस्ट, वाराणसी से भी जुड़ी हैं. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कला इतिहास एवं पर्यटन प्रबंधन के पूर्व विभागाध्यक्ष तथा महामना मालवीय मिशन, वाराणसी के अध्यक्ष प्रोफेसर दीनबन्धु पांडेय से प्रेरणा और प्रोत्साहन पाकर डा. ॠचा कुमार ने मालवीय राग की रचना की जिसे उन्होंने पहली बार दिनांक २५.१२.२०१० को महामना की १४९वीं जयन्ती के अवसर पर महामना मालवीय मिशन द्वारा आयोजित मालवीय जयन्ती कार्यक्रम में समारोहपूर्वक प्रस्तुत किया. स्थान था - नई दिल्ली में दीन दयाल मार्ग पर स्थित नवनिर्मित महामना मालवीय स्मृति भवन. कर्यक्रम के मुख्य अतिथि थे भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री कृष्णमूर्ति और अध्यक्ष थे पूर्व केंद्रीय मंत्री श्री भीष्म नारायण सिंह.
‘मालवीय राग’, शुद्ध धैवत विभास और अहीर भैरव को आधार मानकर रचा गया है. यह महामना के धीर, गंभीर, उदात्त और तेजोमय व्यक्तित्व को ध्यान में रखकर बनाया गया है. राग का पूर्वांग शान्त, धीर, गंभीर और उत्तरांग उदात्त एवं तेजोमय स्वरूप का सहज, सुन्दर, कर्णप्रिय और प्रभावी प्रस्तुतीकरण है. संगीत के मर्मवेत्ताओं ने इस राग की भूरि-भूरि प्रशंसा की है. महामना मालवीय के जन्म-शताब्दी वर्ष में इस अद्भुत राग की रचना हिन्दुस्तानी संगीत को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की ओर से एक महान भेंट है.
डा. ॠचा कुमार, रीडर, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, प्रोफेसर दीनबन्धु पांडेय एवं महामना मालवीय मिशन, वाराणसी को इस अविस्मरणीय कार्य के लिए ढ़ेरों बधाइयां!

Friday, December 17, 2010

भारत सरकार या कठपुतली का खेल

पेट्रोल तीन रुपये महंगा हुआ. एयर लाइन्स ने किराया सात गुणा बढ़ाया. प्याज ५० रुपए किलो. दाल १०० रुपए किलो. चावल ५० रुपए किलो. नीरा राडिया ने मंत्रियों को विभाग बांटा. सोनिया गांधी ने जेपीसी की मांग खारिज़ की. बनारस में बम ब्लास्ट. दिल्ली में लड़की के साथ गैंग रेप. अमेरिका में भारतीय राजदूत के साथ अभद्रता. सेना भी घोटालों में. जम्मू और कश्मीर नहीं है भारत का अभिन्न अंग. चीन नहीं मानता अरुणाचल को भारत का हिस्सा. चीनी प्रधान मंत्री बेन जियाबाओ का दिल्ली में शानदार स्वागत.
भारत में सरकार है भी क्या? जमाखोर-पूंजीपति जब चाहें आवश्यक वस्तुओं की कीमत बढ़ाकर आम आदमी का जीना दूभर कर दें, माफ़िया-अपराधी जब चाहें, जहां चाहें किसी का भी शीलभंग कर दें, महंगाई चाहे आकाश छू ले, सरकार के कान पर अब जूं नहीं रेंगती. मनरेगा के सौ रुपयों से दस सदस्यों वाले परिवार का एक मुखिया क्या-क्या खरीद सकता है? चावल खरीदे, गेहूं खरीदे, दाल खरीदे, प्याज खरीदे, बच्चों की किताबें खरीदे, पत्नी की फटी साड़ी बदले या खांसती अम्मा के लिए च्यवनप्राश लाए. इस देश में किसकी सरकार चलती है - मनमोहन सिंह की या कारपोरेट घराने की? इंडिया शाइनिंग! मेरा भारत महान!
पौने दो लाख करोड़ रुपयों का २-जी स्पेक्ट्रम घोटाला. राजा खुलेआम घूम रहे हैं. आय से कई गुणा संपत्ति रखने वाले मुख्य मंत्री बने हुए हैं. अरबों रुपयों की हेराफेरी करने वाली सज़ायाफ़्ता पूर्व मुख्य सचिव तीन दिनों में ज़मानत पा जाती हैं. लाखों बेगुनाह, जिनके विरुद्ध अभीतक अभियोग पत्र भी अदालत में दाखिल नही किए गए हैं, वर्षों से जेलों में सड़ रहे हैं. न्याय अंधा होता है! समरथ के नहीं दोष गुसाईं.
पूर्व केन्द्रीय संचार मंत्री ए. राजा द्वारा मद्रास हाई कोर्ट के जज को प्रभावित करने से जुड़े विवाद के संदर्भ में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालकृष्णन की टिप्पणी - मद्रास हाई कोर्ट के तात्काकीन चीफ जस्टिस गोखले के पत्र में किसी केन्द्रीय मंत्री का ज़िक्र नहीं था.
सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान न्यायाधीश एवं तात्कालीन मुख्य न्यायाधीश, मद्रास हाई कोर्ट, जस्टिस गोखले का उत्तर -
सच नहीं बोल रहे हैं पूर्व चीफ जस्टिस. चीफ जस्टिस के.जी.बालकृष्णन को भेजे गए पत्र के दूसरे पैरे में राजा का उल्लेख था.
जस्टिस रघुपति, मद्रास हाई कोर्ट - सच सामने आ गया है.
एक अन्य मामले में जस्टिस काटजू, न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी - इलाहाबाद हाई कोर्ट में भ्रष्टाचार. अधिकांश जज भाई-भतीजावाद में लिप्त. अन्तरपरीक्षण आवश्यक.
शीशे के घरों में रहने वाले, दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते.
धृतराष्ट्र पांडु-पुत्रों को भी अपने पुत्रों की ही भांति प्यार करते थे, लेकिन विवश थे. पांडवों को लाक्षा गृह में जलने के लिए भेज दिया गया. भरी सभा में कुलवधू का चीरहरण किया गया. पांडवों को वनवास दे दिया गया. धृतराष्ट्र देखते रहे. नहीं, उन्होंने कुछ भी नहीं देखा. वे अंधे जो थे. महाभारत हो गया, सबकुछ नष्ट हो गया. हस्तिनापुर की गद्दी उन्होंने फिर भी नहीं छोड़ी. वे हस्तिनापुर की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध जो थे.
श्री मनमोहन सिंह भले आदमी हैं. सीधे सच्चे इन्सान हैं. ईमानदार भी हैं. अच्छे प्रधान मंत्री हैं. मंत्रियों के विभागों के बंटवारे के बवाल में नहीं पड़ते. इस मामले में नीरा राडिया उनकी मदद करती हैं. उन्हें भ्रष्टाचार पसंद नहीं, लेकिन ए. राजा अच्छे लगते हैं. मैदानी इलाकों में इस्लामी आतंकवाद और पहाड़ी इलाकों में लाल सलाम का राज है. गृह मंत्री को पूरी आज़ादी है. उन्हें कुछ कह नहीं सकते. दिग्विजय को शहीद करकरे का सारा रहस्य मालूम है, प्रधान मंत्री अनजान. महंगाई रोकना वित्त-मंत्री का काम, सीमा विवाद विदेश मंत्रालय के नाम. प्रधान मंत्री का मुख्य काम - बराक ओबामा और वेन जियाबाओ को स्वागत पैगाम. १०, जनपथ में सारे लगाम. लोकतंत्र (राजतंत्र?) तुझे सलाम! संसदीय प्रणाली (परिवारवाद?) तुझे प्रणाम!!

Monday, November 29, 2010

राजमाता का राज जमाता

पिछले ३ नवंबर को दीपावली मनाने के लिए बच्चों के पास बंगलोर जा रहा था. वाराणसी के लाल बहादुर शास्त्री एयर्पोर्ट से इंडियन एयर लाइंस की फ़्लाइट पकड़नी थी. समय से दो घंटे पहले ही पहुंचकर चेक इन की सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद, एक खाली कुर्सी देख बैठ गया. तभी उदघोषणा हुई कि इंडियन एयर लाइंस के पैसेंजर सुरक्षा जांच के लिए प्रस्थान करें. वाराणसी के पुराने एयरपोर्ट में सुरक्षा जांच के लिए मात्र एक ही मार्ग है, अतः देखते ही देखते लंबी लाईन लग गई. मैं ५५ पार कर चुका हूं. लगातार खड़े होने पर पैर और कमर में दर्द शुरू हो जाता है. अतः अपनी कुर्सी पर ही बैठा रहा. इंतज़ार कर रहा था कि लाइन ज़रा छोटी हो जाय तो मैं भी सुरक्षा जांच के लिए प्रस्थान करूं. लेकिन यह क्या? लाइन छोटी होने के बदले और बड़ी होने लगी. मज़बूरी में मुझे उठना ही पड़ा - लाइन में लग गया. चींटी की चाल से लाइन सरकने लगी. एक घंटे के बाद मैं जांच कर्मियों के सामने पहुंचा. पैर दर्द कर रहे थे और प्यास भी लग रही थी. तभी मेरी दृष्टि दाहिनी ओर लगे एक सूचना-पट्ट की ओर गई. उसपर भारत के उन अति विशिष्ट व्यक्तियों की सूची थी, जिन्हें सुरक्षा जांच से मुक्त रखा गया था. सुरक्षा जांच की पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरने के कारण स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर यह जानने की उत्सुकता पैदा हो गई कि आखिर वे कौन-कौन से अति भाग्यशाली व्यक्ति हैं, जिन्हें घंटों लाइन में खड़ा होकर पसीना बहाने से हमेशा के लिए मुक्ति दे दी गई है. लगभग ढाई दर्ज़न अति विशिष्ट व्यक्तियों का लिस्ट में उल्लेख था -- राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री, लोक सभा अध्यक्ष..............................................श्री राबर्ट बढेरा. लिस्ट में किसी का नाम नहीं लिखा था, पद ही लिखा था. सिर्फ़ एक आदमी का नाम लिखा था -- श्री राबर्ट बढेरा. बुढ़ापे में स्मरण शक्ति कुछ कमज़ोर हो जाती है, हालांकि मैं समाचार-पत्र नित्य पढ़ता हूं. मुझे याद ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये मिस्टर बढ़ेरा हैं कौन? मैं अपने अज्ञान और अपनी उलझनों में खोया था कि सुरक्षा कर्मी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा -- कहां खोए हैं मिस्टर? सुरक्षा जांच के लिए आगे बढ़िए. मैंने आगे बढ़ने के पहले उससे प्रश्न किया - क्या आप बताने का कष्ट करेंगे कि ये मिस्टर राबर्ट बढेरा कौन हैं, जिन्हें सुरक्षा जांच से परमानेंट मुक्ति मिली हुई है. वह मेरी अज्ञानता पर हंसा. फिर हिकारत से मुझे देखते हुए बोला - विचित्र आदमी हैं आप! देखने से तो पढ़े-लिखे मालूम पड़ते हैं. आपको इतना भी नहीं मालूम है कि बढेराजी, माननीया सोनिया गांधीजी के एकमात्र दामाद हैं? मुझे अपनी अज्ञानता पर अफ़सोस हुआ. खैर, मेरा नंबर आ चुका था. सुरक्षा जांच मुकम्मिल हुई. कोई आपत्तिजनक सामान नहीं मिला. मुझे अंदर जाने की इज़ाज़त मिल गई.
बात आई और गई, इसपर सोचने-समझने की कोई विशेष आवश्यकता तो थी नहीं, लेकिन क्या करूं, मेरा दिमाग फ़ालतू की बातों में कुछ ज्यादा ही उलझ जाता है. सोचने लगा - सुरक्षा जांच से मुक्त किए गए अति विशिष्ट व्यक्तियों के पदों का ही उल्लेख था सूची में. सिर्फ़ एक ही व्यक्ति का नाम लिखा था, आगे पीछे कोई पद नहीं लिखा था. यह नाम - राबर्ट बढेरा, राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के साथ लिखा जाना कुछ अटपटा सा लग रहा था. अचानक मेरे ज्ञान-चक्षु खुले. वैसे भी काशी में ज्ञान-प्राप्ति तो होती ही है. भगवान बुद्ध की तरह मुझे भी ज्ञान प्राप्त हो गया. मुझे अपनी सभ्यता-संस्कृति की याद आई. यद्यपि सब मन ही मन यह मानते हैं - जमाता दशमो ग्रह, लेकिन प्रत्यक्ष उसकी देवता की भांति पूजा करते हैं. श्री राबर्ट बढेरा वर्तमान सरकार की राजमाता श्रीमती सोनिया गांधी के एकमात्र राज जमाता हैं. उन्हें सुरक्षा जांच से छूट नहीं मिलेगी, तो तुम्हें मिलेगी मिस्टर बी. के. सिन्हा, बूढ़े खूसट! मेरी सारी उलझनें समाप्त हो गईं. विमान पकड़ने के लिए फिर लाइन में लग गया.

Friday, November 26, 2010

बिहारःराष्ट्रीय राजनीति की प्रयोगशाला

वैदिक काल से लेकर आजतक, बिहार राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करता रहा है. कहा जाता है कि जबतक बिहार पिछड़ा रहेगा, भारत तरक्की नहीं कर सकता; जबतक बिहार नहीं सुधरेगा, हिन्दुस्तान नहीं सुधर सकता. इतिहास भी इसकी पुष्टि करता है. देश ही नहीं विश्व को लोकतंत्र की दिशा दिखलाने वाला विश्व का पहला गणतंत्र बिहार में ही था - वैशाली का लिच्छवी गणतंत्र. जिस काल को भारत का स्वर्ण-युग कहा जाता है, वह बिहार के सर्वोच्च विकास का ही युग था. चाणक्य-चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक के काल में भारत को सोने की चि्ड़िया कहकर संबोधित किया जाता था. शिक्षा में जहां नालन्दा विश्वविद्यालय ने विदेशियों को भी अभिभूत किया था, वही राजनीति और अर्थशास्त्र में चाणक्य द्वारा स्थापित ऊंचे मापदंड आज भी मार्गदर्शन प्रदान करते हैं. अफ़गानिस्तान से लेकर जापान, चीन से लेकर वियतनाम, लंका से लेकर म्यामार, थाईलैंड से लेकर कोरिया, कंबोडिया से लेकर इंडोनेशिया - एशिया के इतने बड़े भूभाग पर शताब्दियों तक बिना एक भी सैनिक को भेजे भारत ने अपनी सांस्कृतिक पताका फहराई है, इसका श्रेय बिहार को ही जाता है. अपने अहिंसा के सिद्धांत से विश्व और मानवता की सेवा करने वाले महात्मा बुद्ध को ज्ञान बिहार में ही मिला था. विश्व-विजेता सिकन्दर के पूर्ण विश्व-विजय का सपना मगध (बिहार) ने ही चूर-चूर किया था. उसे पंजाब से ही वापस लौट जाने के लिए मगध की विशाल सैन्य-शक्ति और चाणक्य-नीति ने ही विवश किया था. उसके सेनापति सेल्यूकस ने राजा बनने के बाद सिकन्दर के अधूरे सपने को पूरा करने का निर्णय लिया. भारत में पहुंचने के बाद उसे भी समर्पण करना पड़ा. अपनी पुत्री हेलेन को चन्द्रगुप्त से ब्याहकर उसे ऐतिहासिक अनाक्रमण संधि करने के लिए वाध्य होना पड़ा. विदेशियों के लगातार आक्रमण और स्वदेशी राजाओं के क्षुद्र स्वार्थ ने भारत के संघीय स्वरूप को बहुत चोट पहुंचाई. राजा रजवा्ड़ों और रियासतों में बिखरा भारत विदेशियों का चरागाह बन गया. हजार वर्ष की वह अवधि, बिहार ही नही, भारत के भाल पर भी कलंक था. लेकिन बिहार ने हार नहीं मानी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में बिहार ने अंग्रेजों से लोहा लिया. नीलहों (अंग्रेज) के खिलाफ़ महात्मा गांधी के चंपारन सत्याग्रह को कौन भूल सकता है? दक्षिण अफ़्रिका से लौटने के बाद महात्मा गांधी ने पहला आंदोलन चंपारण में ही शुरू किया था, जिसे अभूतपूर्व सफलता मिली. असहयोग आंदोलन की पहली प्रयोगशाला बिहार ही था. आज़ादी के बाद कांग्रेसी कुशासन से मुक्ति के लिए जब पूरा देश छटपटा रहा था, तो बिहार ने ही दिशा दी. लोकनायक जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का बिगुल बिहार से ही फूंका गया. १९४७ के बाद सबसे बड़े आंदोलन का केन्द्र बिहार ही बना. अभूतपूर्व जनांदोलन को कुचलने के लिए श्रीमती इन्दिरा गांधी को १९७५ में आपातकाल थोपना पड़ा. अंग्रेजी हुकूमत को भी लज्जित करनेवाली यातनाएं कांग्रेसी सरकार ने विरोधियों को दी. जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लाल कृष्ण आडवानी, जार्ज फर्नांडिस आदि राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को भी नहीं बक्शा गया. लाखों बेकसुरों को जेल में ठूंस दिया गया. लेकिन बिहार ने समर्पण नहीं किया. संपूर्ण क्रान्ति की मशाल जलाए रखी. नीतीश कुमार और सुशील मोदी उसी आंदोलन की देन हैं. लालू यादव की राजनीतिक यात्रा भी उसी आंदोलन से शुरू हुई थी, लेकिन सत्ता की मलाई के लिए वे उसी कांग्रेस की गोद में बैठ गए, जिसने उनकी पीठ पर कई बार लाठियां बरसाई थी. वक्त आने पर बिहार ने कांग्रेस का सफाया ही कर दिया. कांग्रेसी सूर्य भी अस्ताचल को जा सकता है, इसका एहसास देशवासियों को बिहार ने ही १९७७ में कराया था.
दुर्भाग्य से कुछ बीमारियां भी बिहार में पनपीं और देशव्यापी बन गईं. इनमें जातिवाद और भ्रष्टाचार की उत्त्पत्ति का स्रोत बिहार को माना जा सकता है. कांग्रेसी राज और लालू राज ने इसे भरपूर खाद पानी दिया. अतुलित खनिज सम्पदा, उपजाऊ जमीन और मेधावी बिहार (जिसमें झारखंड भी शामिल है) विकास की दौड़ में पिछड़ता गया, पिछड़ता गया. स्वार्थी राजनेताओं ने अपने परिवारवाद, वंशवाद और तुच्छ लाभ के लिए बिहार को माफ़ियाओं, भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और दुराचारियों का अभयारण्य बना दिया. लेकिन ५ साल पहले बिहार ने स्वयं सारी गन्दगी साफ़ करने का निर्णय लिया और एन.डी.ए. को विधान सभा चुनाओं में स्पष्ट बहुमत दिया. नीतीश के नेतृत्व में जनता दल (यू) और भाजपा की सरकार ने पहली बार ईमानदारी से अपने सीमित संसाधनों का उपयोग करते हुए विकास को प्राथमिकता दी. परिणामस्वरूप जनता ने इस चुनाव में दिल खोलकर एन.डी.ए. को समर्थन दिया. इतनी सीटें तो इमर्जेंसी के बाद जनता पार्टी को भी नहीं मिली थीं - तीन चौथाई बहुमत! है न आश्चर्य की बात. जातिवादी लालू २२ सीट पाकर मुंह छुपाए घर में बैठे हैं. उनकी पत्नी और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी दोनों यादव बहुल क्षेत्रों - राघोपुर और सोनपुर से बुरी तरह पराजित हो चुकी हैं. अवसरवादी पासवान ३ सीटें पाकर बौखलहाट में चुनाव में धांधली का आरोप लगा रहे हैं. युवराज राहुल गांधी की कांग्रेस ४ पर सिमट गई है. कभी मुख्य विपक्षी रही कम्यूनिस्ट पार्टी १ सीट लेकर हाशिए पर पहुंच चुकी है. मायावती का दलित कार्ड पूरी तरह बेअसर रहा. नीतीश और मोदी की जोड़ी ने २४३ में से २०६ सीटें (जनता दल यू-११०, भाजपा-९१) जीतकर सारी राजनीतिक भविष्यवाणियों को ध्वस्त कर दिया. बिहार की जनता ने जातिवाद, भ्रष्टाचार, गुंडाराज, वंशवाद, परिवारवाद और आतंकवाद को पूरी तरह नकारते हुए पूरे देश को एक महान संदेश दिया है. वैसे भी बिहार से उठी आवाज़ देर-सवेर पूरे मुल्क की आवाज़ बनती ही है. राष्ट्रहित में संकीर्णताओं को त्यागने का यही सही समय है. बुद्ध ने विवेकानन्द से सहमति जता दी है --
उठो, जागो और तबतक मत रुको, जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाय.


Tuesday, November 16, 2010

जय-जय हे राजा ! जय भ्रष्टाचार !!


लगता है कि हम हिन्दुस्तानियों के रक्त में भ्रष्टाचार का समावेश पूरी तरह हो चुका है. अब न तो भ्रष्टाचार करने वाले शर्म से मुंह छुपाते हैं और ना ही बड़े-बड़े घोटालों की खबरें सुनकर जनता ही उद्वेलित होती है. भ्रष्टाचार में लिप्त होना उतना खतरनाक रोग नहीं है, जितना इसे सामाजिक स्वीकृति मिलना. हमारे डाक्टरों को किसी ऐसी पद्धति के आविष्कार करने की आवश्यकता है जिससे खून में हिमोग्लोबिन, व्हाइट ब्लड सेल, रेड ब्लड सेल, प्लेटलेट कांउट और सुगर की तरह भ्रष्टाचार के भी न्यूनतम और अधिकतम स्तर की जांच हो सके. सरकार यह घोषित करे कि आम जनता, सरकारी कर्मचारी, विधायक, सांसद और मंत्रियों में इसकी मिनिमम और मैक्सीमम वैल्यू कितनी हो. सेवा में आने के पहले इसकी जांच अनिवार्य कर दी जाय. रिपोर्ट में भ्रष्टाचार, वैल्यू रेंज में आने पर ही नियुक्ति पत्र दिया जाय. आज़ादी के बाद भारतवासियों के जिस एक गुण में बेतहाशा वृद्धि हुई है, वह है भ्रष्टाचार. ऐसा नहीं है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे देश के कर्णधार इस रोग से अनजान हों. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में विपक्ष के नेता के एक प्रश्न कि पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्यवन में काफ़ी भ्रष्टाचार हो रहा है; के उत्तर में कहा था - जहां धन खर्च होता है, वहां थोड़ी-बहुत हेराफेरी की संभावना से इंकार नही किया जा सकता, लेकिन सिर्फ़ इसके कारण हम अपनी विकास योजनाओं को नहीं रोक सकते. पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी की यह स्वीकारोक्ति -- Corruption is a world wide phenomenon - अभी भी पुरानी पीढ़ी के स्मृति पटल पर है. कांग्रेस को भ्रष्टाचार की जननी कहा जा सकता है; लेकिन आश्चर्य तब होता है कि उसका विरोध करके जो विपक्ष सत्ता में आया, वह कांग्रेसी नेताओं से भी दो कदम आगे बढ़ गया. उन्होंने भ्रष्टाचार के इतने ऊंचे और नियमित मापदंड स्थापित किए कि जनता में इसकी प्रतिक्रिया ही समाप्त हो गई. लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन ..............कितनों का नाम गिनाया जाय, सभी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे होने के बाद भी जननेता बने हुए हैं. इस कड़ी में सबसे ताज़ा नाम पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री ए. राजा का है. उन्होंने भ्रष्टाचार का वह सर्वोच्च रिकार्ड स्थापित किया है जिसे तोड़ना किसी दूसरे के लिए असंभव तो नहीं, अत्यन्त कठिन अवश्य होगा.
तात्कालीन दूर संचार मंत्री श्री ए. राजा ने मनमाने तरीके से अपनी पसंदीदा कंपनियों को टू जी स्पेक्ट्रम की रेवड़ी बांटी. इस मामले में भारत सरकार की जांच एजेंसी "कैग" के अनुसार जनवरी २००८ में सरकार ने नौ कंपनियों को टू जी स्पेक्ट्रम आवंटित किए. इनसे सरकार को कुल १०७७२.६८ करोड़ रुपए मिले. आवंटन के बाद युनिटेक ने अपनी ६०% और स्वान टेलिकाम ने ४५% हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचकर ९५०० करोड़ रुपए प्राप्त किए, जबकि युनिटेक ने १६५१ करोड़ और स्वान ने १५३७ करोड़ रुपए लाइसेंस फीस के नाम पर सरकार को दिए थे. घोटाले से सरकार को १.७६ लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ है. श्री राजा को कितने हजार करोड़ रुपयों का फ़ायदा हुआ है, सिर्फ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. शायद कोर्ट कुछ पता लगा सके !
मान्यवर ए. राजा ने काफ़ी नौटंकी के बाद अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. पानी सिर के काफ़ी उपर चला गया था. अतः बेमन से उनका त्यागपत्र स्वीकार करना प्रधानमंत्री की मज़बूरी बन गई. प्रश्न यह उठता है कि क्या इस्तीफ़ा ले लेना ही पर्याप्त है? श्री राजा ने देश को १.७६ लाख करोड़ के राजस्व का नुकसान पहुंचाया है. इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी? अगर श्री राजा चीन में मंत्री होते, तो वहां की सरकार उनके साथ क्या सुलूक करती? वहां भ्रष्टाचार की सज़ा मौत है. लेकिन हमारे लोकतांत्रिक भारत में उन्हें सलाखों के पीछे भी नहीं रखा जा सकता. उनकी पार्टी के अध्यक्ष श्री करुणानिधि अभी भी उनकी पीठ ठोक रहे हैं. घोटाले के हजारों करोड़ रुपयों में से कुछ हजार करोड़ उनके कोष में भी गए ही होंगे.
राष्ट्रमंडल घोटाला, आदर्श कदाचार;
जय-जय हे राजा! जय भ्रष्टाचार!!

Saturday, November 13, 2010

सोनिया पर सुदर्शन चक्र

गत १० नवंबर को भोपाल में श्रीमती सोनिया गांधी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर संघचालक श्री सुदर्शन की टिप्पणी पर बवाल मचा हुआ है. कांग्रेसी तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़कर संघ के कार्यालयों पर विरोध प्रदर्शन के साथ तोड़फोड़ भी कर रहे हैं. ऐसे में संघ द्वारा अपनाया गया संयम सराहनीय है. अभी भी संघ के पास समर्पित कार्यकर्त्ताओं का पूरे देश में एक ऐसा मज़बूत नेटवर्क है जो कांग्रेसियों को उन्हीं की भाषा और शैली में करारा जवाब देने का दमखम रखता है. संघ नेतृत्व के एक इशारे पर वे कांग्रेसियों के दफ़्तर के भी शीशे तोड़ सकते हैं. पर वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि वे एक अति अनुशासित संगठन के सदस्य हैं और संघ हिंसा या ऐसे अलोकतांत्रिक गतिविधियों में विश्वास नहीं करता.
श्री सुदर्शन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख रहे हैं. संघ का कोई भी अधिकारी उलूल-जुलूल बातें नहीं करता है. उनके वक्तव्य को यूं ही हवा में उड़ा देने के बदले गंभीरता से विचार करना चाहिए. क्या यह सत्य नहीं है कि श्रीमती सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला हैं और आज की तारीख में भी भारत के साथ-साथ उनके पास इटली की भी नागरिकता है. भारत सरकार की मास्टर कुंजी उनके पास होने के कारण यह सत्य असत्य में परिवर्तित नहीं हो सकता है. श्री सुदर्शन ने उन्हें विदेशी महिला कहकर क्या गलत कहा? कांगेस की यह दुखती रग है. जब भी कोई इसे दबाता है, तो वे बौखला जाते हैं और चाय की प्याली में तूफ़ान मचा देते हैं. वंशवाद के पोषक तत्त्व यह चाहते हैं कि पूरा हिन्दुस्तान यह भूल जाय कि श्रीमती सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला हैं. कांग्रेसी अपने स्वार्थ के कारण यह मानें या न मानें, लेकिन यह भी सच है की सोनिया गांधी की भारत के प्रति निष्ठा हमेशा संदेह के घेरे में रही है. कांग्रेस के दुबारा सत्ता में आने के बाद भारत ने जिस तेजी से अपने राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए अमेरिका की गोद में बैठने की जल्दीबाजी की है, वह किसी से छुपा नहीं है. किसी भी देश को इतना एहसानफ़रामोश नहीं होना चाहिए जितना भारत हो रहा है. रूस ने हमेशा गाढ़े वक्त में भारत की मदद की है. कश्मीर के मुद्दे पर सुरक्षा परिषद में उसने कितनी बार भारत के हित में ’वीटो’ का इस्तेमाल किया है, इसकी गिनती नहीं की जा सकती. वह हमारा अत्यन्त विश्वसनीय सामरिक सहयोगी रहा है, लेकिन आज हमारी विदेश नीति में उसका स्थान कहां है? जितना महत्त्व हम अमेरिका को दे रहे हैं, उसका आधा भी अगर रूस को देते, तो हम अधिक फ़ायदे में रहते. दक्षिणपंथी विचारधारा की भाजपा सरकार के समय भी रूस से हमारे संबंध सर्वाधिक मधुर थे. अमेरिका इस कदर हम पर हावी नहीं था. क्या बिना श्रीमती सोनिया गांधी की सहमति या इशारे के श्री मनमोहन सिंह इतना आगे बढ़ सकते थे कि अपनी सरकार को दांव पर लगाकर अमेरिका से परमाणु समझौता कर लेते? परमाणु समझौता हुए दो साल से ज्यादा हो गए, लेकिन अमेरिकी सहयोग से क्या एक भी परमाणु विद्युत घर की स्थापना हो सकी है? यह समझौता कागजी है और भारत की जनता की आंखों में धूल झोंकनेवाला है. अमेरिका एक बनिया देश है. वह सबसे पहले अपना व्यापारिक हित देखता है. उसके लिए भारत एक मित्र-देश नहीं, बल्कि एक उम्दा बाज़ार है. इसके उलट रूस हमें एक सहज मित्र-राष्ट्र के रूप में मान्यता देता है. वह हमारी आणविक, सामरिक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बिना किसी अतिरिक्त शर्तों के आगे आ सकता है. लेकिन हम उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने से कतराने लगे हैं. श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर हमारी विदेश नीति पूरी तरह पश्चिम परस्त हो गई है, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है.

Wednesday, November 10, 2010

ओबामा के बदलते चेहरे

भारत-यात्रा के दौरान ओबामा को देखकर मुझे बरबस स्व. इन्दिरा गाँधी की याद आ गई. चुनाव के दौरान वे जहां जाती थीं, अपना वेश, शैली और कथन भी उसी के अनुसार ढाल लेती थीं. जब वे बिहार में जनसभा को संबोधित करती थीं, तो सिर पर पल्लू रखना नहीं भूलती थीं और जब बंगाल में जाती थीं, तो, तो उल्टा पल्लू ले लेती थीं. आदिवासी इलाकों के दौरों के समय वे आदिवासियों के साथ नृत्य भी कर लेती थीं. जनप्रिय नारों, जैसे - गरीबी हटाओ - के माध्यम से उन्होंने एक लंबी अवधि तक भारत पर शासन किया. आज़ादी के ६३ वर्षों के बाद भी देश से गरीबी कितनी हटी, यह सभी को मालूम है, लेकिन इस लोकलुभावन नारे ने कांग्रेस को कई बार संजीवनी अवश्य प्रदान की. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी भारत के दौरे पर इसी शैली को अपनाते हुए नज़र आए. मुंबई में वे राष्ट्रपति के रूप में कम व्यापारी के रूप में अधिक दिखे. पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के उद्योगपतियों के आगे अपनी झोली फैलाई. स्पाइस जेट ने अमेरिकी विमान खरीदने के लिए उन्हें आश्वस्त किया, तो रिलायंस ने पावर प्रोजेक्ट के लिए कल-पूर्जे खरीदने का वादा किया. टाटा समूह ने पूंजी निवेश का आश्वासन दिया, तो साफ़्टवेयर कंपनियों ने अमेरिकियों को अधिक रोज़गार देने का वचन दिया. मुंबई में वे अपनी पत्नी के साथ बच्चों के बीच थिरके भी. आतंकवादियों द्वारा आंशिक रूप से नष्ट किए गए होटल में रुककर उन्होंने यह संदेश देने का प्रयास किया कि वे आतंकवाद के विरोधी हैं, लेकिन जिस पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद ने सैकड़ों निर्दोषों की बलि ली थी, उसके नाम तक का भी उच्चारण करने से कतरा गए. उनके लिए अमेरिका में आतंकवादी हमला ही आतंकवाद की श्रेणी में आता है. उन्होंने मुम्बई में अमेरिकी निजी घराने के उद्योगपतियों के ब्रांड एम्बैसडर के रूप में ही स्वयं को पेश किया. वे कितना सफल रहे, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन किसी राष्ट्राध्यक्ष के लिए व्यवसाइयों और उद्योगपतियों के हित में दूसरे देश में जाकर झोली फैलाकर मांगना कही से भी गरिमामय नहीं लगा. हम भारतीय इस बात पर अवश्य गर्व कर सकते हैं कि हमने अपनी स्थिति कम से कम इतनी तो अवश्य सुधार ली है कि विश्व की एकमात्र महाशक्ति को भी हमारे सामने झोली फैलाने के लिए विवश होना पड़ा. पहले यह आदत हमारी थी.
अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मिस्टर ओबामा बिल्कुल बदले नज़र आए. यहां वे एक चतुर राजनेता और कुशल वक्ता की भूमिका में थे. संसद के केन्द्रीय कक्ष में भारत के सांसदों को संबोधित करते हुए अपने ३५ मिनट के संबोधन में उन्होंने ३६ बार तालियां बजवाईं. लालकृष्ण आडवानी भी ताली बजा रहे थे और सीताराम येचूरी भी. कांग्रेसी तो सिर्फ़ ताली बजाने के लिए ही बुलाए गए थे. अपने संबोधन में भी उन्होंने कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया. आतंकवाद पर उनका वक्तव्य औपचरिक था, तो सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के विषय में उन्होंने सिर्फ़ विचार व्यक्त किया कि इस महान राष्ट्र को स्थाई सदस्यता मिलनी चाहिए. इसके लिए अपनी ओर से पहल करने के लिए उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. उन्होंने यह तो इच्छा व्यक्त की कि भारत की साफ़्टवेयर कंपनियां अधिक से अधिक अमेरिकियों को रोज़गार दें, लेकिन अपने देश के कई प्रान्तों द्वारा भारत से आउटसोर्सिंग पर लगाए गए प्रतिबंध पर उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साध ली. वे ५० हजार अमेरिकियों को रोज़गार दिलाने का लक्ष्य लेकर भारत आए थे, लेकिन एक भी भारतीय को रोज़गार दिलाने का झूठा वादा भी नहीं किया.
प्रिन्ट मीडिया, सरकारी मीडिया और टीवी चैनलों ने मिस्टर बराक ओबामा को परमात्मा का दर्जा देने के लिए अपने को समर्पित कर दिया. राहुल गाँधी का उनके साथ डिनर लेना मुख्य समाचार बन गया. ऐसा लग रहा था कि उनके साथ डिनर लेने से सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी. ओबामा और मिशेल की हर अदा पर मीडिया फ़िदा था. पता नहीं हम भारतवासियों का स्वाभिमान कब जागृत होगा?
ओबामा अपनी नाटकबाज़ी के लिए ही जाने जाते हैं. इसी के बल पर वे राष्ट्रपति भी बने. भारत में भी उनकी नाटकबाज़ी हिट रही. यह बात दूसरी है कि स्वयं उनके देश में अब उनका असली चेहरा सामने आने लगा है. तभी तो कुछ सप्ताह पूर्व हुए मध्यावधि चुनाव में उनकी पार्टी को करारी शिकश्त मिली है.

Monday, November 1, 2010

मार्क्सवादियों को सपने में भी क्यों आता है संघ


राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ निस्संदेह एक हिन्दू संगठन है. लेकिन उसके अनुसार हिन्दुस्तान में रहनेवाला हर व्यक्ति जिसकी निष्ठा भारत में है - हिन्दू है. कई मुसलमान भी इस संगठन से जुड़े हुए हैं. भारत के पूर्व रेल मंत्री श्री जाफ़र शरीफ़ ने लोकसभा में स्वीकार किया था कि वे कांग्रेस में आने के पहले संघ की शाखाओं में जाते थे. संघ का मूल उद्देश्य है -- हिन्दू समाज की विकृतियों यथा - जातिवाद और छूआछूत को मिटाकर हिन्दू समाज में एकता स्थापित करना. इसके स्वयंसेवक एक दूसरे को जातिवाचक संबोधनों से नहीं पुकारते. वे एक दूसरे को प्रथम नाम से ही बुलाते हैं. श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सभी वाजपेयीजी कहकर बुलाते हैं लेकिन संघ के छोटे-बड़े सभी स्वयंसेवक उन्हें अटलजी ही कहते हैं. स्वयंसेवक एक दूसरे से कभी उसकी जाति नहीं पूछते. यह किसी भी दूसरे संप्रदाय या धर्म का विरोध नहीं करता. यह चरित्रवान, देशभक्त नागरिकों का निर्माण करता है. संघ का सपना है -- भारत को पुनः विश्वगुरु के आसन पर स्थापित करना, इसे पुनः सोने की चिड़िया के रूप में संसार में मान्यता दिलवाना. संघ की राष्ट्रीयता से प्रभावित होकर ही सन १९६३ के गणतंत्र दिवस के परेड में शामिल होने के लिए पं. जवाहर लाल नेहरू ने संघ को आमंत्रित किया था और संघ के स्वयंसेवकों ने उसमें भाग भी लिया था. १९६५ के भारत-पाक युद्ध के दौरान प्रधान मंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री के आग्रह पर संघ ने कई महत्त्वपूर्ण सरकारी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सफलता पूर्वक संभाली थी. देश के किसी भाग में भूकंप हो, बाढ़ आई हो, सुनामी घटित हुई हो, संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचकर राहत कार्य आरंभ कर देते हैं. संघ की यही राष्ट्रीयता कम्युनिस्टों को खटकती है. उन्हें यह डर हमेशा सताता रहता है कि अगर संघ इस देश में सफल हो गया तो उनकी दूकान बंद हो जाएगी.
पूर्व जनसंघ और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी को आम जनता संघ का राजनीतिक धड़ा मानती हैं. संघवाले इससे इंकार करते हैं और भाजपा वाले भी स्वीकार नहीं करते, लेकिन यह सत्य है कि भाजपा संघ की एक राजनीतिक इकाई है. विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सेवा समर्पण संस्थान, वनवासी कल्याण आश्रम, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती आदि दर्जनों संगठन संघ के आनुषांगिक घटकों के रूप में देश के कोने-कोने में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं. बी.बी.सी. के सर्वे के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है. महात्मा गांधी के रामराज्य का सपना ही संघ का सपना है. दुनिया के हर देश के कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी होते हैं. लेनिन और स्टालिन ने राष्ट्रवाद से प्रेरित हो सोवियत संघ का जो विस्तार किया था, वह किसी से छुपा नहीं है. चीन के ५६ प्रान्तों के एकीकरण में माओ की भूमिका सर्वोपरि थी. रूस और चीन के अंध राष्ट्रवाद ने कालान्तर में विस्तारवाद का रूप ले लिया. चीन ने तिब्बत को हड़पा तो रूस ने उज़्बेकिस्तान, कज़ाकिस्तान आदि एशिया के देशों को. कुछ दशक पूर्व दोनों कम्युनिस्ट देश थे लेकिन रूस के अधिकार में रहे "चेन माओ" द्वीप पर चीन के दावे ने दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया. न रूस ने राष्ट्रवाद से समझौता किया न चीन ने. चीन आज भी अपनी विस्तारवादी नीति से बाज़ नहीं आ रहा. भारत के अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख को आज भी वह अपने नक्शे में दिखाता है. भारत और चीन से सामान्य संबंधों के बीच चीन का विस्तारवाद ही रोड़ा बन हर बार सामने आ जाता है. संघ का राष्ट्रवाद विस्तारवाद का समर्थन नहीं करता. आश्चर्य तब होता है जब अंधराष्ट्रवादी लेनिन, स्टालिन और माओ को अपना आदर्श मानने वाले भारत के कम्युनिस्ट यहां राष्ट्रवाद का मुखर विरोध करते हैं. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इन्होंने अंग्रेजों का समर्थन किया, १९६२ में भारत पर चीन के आक्रमण के समय चीन का समर्थन किया और अब भारत की एकता और अखंडता को तार-तार करने के लिए प्रतिबद्ध नक्सलवाद और इस्लामिक आतंकवाद का कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष समर्थन करते हैं. अरुन्धती राय, मेधा पाटकर, मकबूल फ़िदा हुसेन जैसे फ़िरकापरस्तों को अपने लेखों, पत्र-पत्रिकओं के माध्यम से महिमामंडित कर राष्ट्रवाद पर खुले हमले के लिए प्रोत्साहित करते हैं.
जबतक जनसंघ या भाजपा का जनाधार कमजोर था, तबतक भारत के कम्युनिस्टों को इनके साथ मोर्चा बनाने तथा सरकार में शामिल होने में तनिक भी एतराज़ नहीं था. नई पीढ़ी को भले ही यह पता न हो लेकिन जिनकी उम्र ५० के उपर है, उन्हें अवश्य याद होगा कि बिहार में १९६७ में स्व. महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गठित पहली गैरकांग्रेसी सरकार में, कम्युनिस्ट और जनसंघ, दोनों के मंत्री शामिल थे. इमर्जेन्सी का जनसंघ के साथ सीपीएम ने भी विरोध किया था. यह बात और है कि मौकापरस्त कम्युनिस्टों (सीपीआई) का एक धड़ा इन्दिरा गांधी की गोद में बैठकर सत्ता-सुख भोगता रहा. इमर्जेन्सी के दौरान मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था. कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र विंग (स्टूडेंट फ़ेडेरेशन आफ इंडिया) के कार्यकर्त्ता विद्यार्थी परिषद, संघ और समाजवादी छात्रों की गिरफ़्तारी के लिए खुलेआम कांग्रेसी कुलपति की मुखबिरी कर रहे थे. उन्हीं की अनुशंसा पर रात में छात्रावासों पर छापा मारकर पुलिस ने सैकड़ों छात्रों को गिरफ़्तार कर मीसा और डी.आई.आर के तहत जेल की हवा खिलाई. १९७७ में केन्द्र में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो सी.पी.एम. ने अपना खुला और बिना शर्त समर्थन दिया. याद रहे, उस सरकार में सबसे बड़ा घटक जनसंघ ही था. १९८९ में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में केन्द्र में जब दूसरी गैरकांग्रेसी सरकार बनी, तो भाजपा और सीपीएम एकसाथ बाहर से समर्थन दे रहे थे. उस समय कम्युनिस्टों को न भाजपा सांप्रदायिक लग रही थी न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और अंधविरोध तब शुरू हुआ जब कम्युनिस्टों को यह एहसास हुआ कि भारतीय राजनीति में भाजपा कांग्रेस की सब्सिटीट्युट बनकर उभर रही है. अब उन्हें कांग्रेस से परहेज़ नहीं है क्योंकि यह एक छद्म राष्ट्रवादी दल है.जिस कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान सीपीएम कार्यकर्ताओं पर दिल दहला देनेवाले अमानवीय अत्याचार किए थे, उसी कांग्रेस की पालकी सीताराम येचूरी, प्रकाश कारंत और सोमनाथ चटर्जी पांच साल तक ढोते रहे. कामरेड सोमनाथ ने तो पद के लिए पार्टी ही छोड़ दी. कम्युनिस्ट पार्टी को मुस्लिम लीग धर्मनिरपेक्ष दिखाई देती है और भाजपा सांप्रदायिक.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निष्काम राष्ट्रभक्ति कभी न कभी रंग अवश्य लाएगी. रावण पर राम और कंस पर कृष्ण की विजय की तरह ही राष्ट्रवादियों के हाथों दे्शद्रोहियों की पराजय निश्चित है. जैसे-जैसे भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ रही है, कम्युनिस्टों का क्षेत्र सीमित होता जा रहा है. राष्ट्रवाद का उदय कम्युनिस्टों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है. यही कारण है कि उनके सपनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भूत हमेशा आता है और वे मुसलमानों से भी ज्यादा संघ का अंधविरोध करते हैं.

--ई-पत्रिका हस्तक्षेप में दिनांक २९.१०.२०१० को प्रकाशित

Tuesday, October 26, 2010

दो कैन्सर रोगियों की आपबीती

वे जुलाई १९९५ के दिन थे. मेरी पत्नी - गीतू, जिसकी उम्र मात्र ३५ वर्ष थी, कैन्सर की शिकार हुई. बिना नहाए-धोए और पूजा किए वह अन्न का एक दाना भी ग्रहण नहीं करती थी. पान, तंबाकू, मदिरा इत्यादि से उसका दूर-दूर तक रिश्ता नहीं था. उसकी बाईं ब्रेस्ट में एक गांठ उभरी. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल में उसे दिखाया गया. तरह-तरह के टेस्ट कराए गए. डक्टरों ने इसे कैन्सर घोषित किया और केस टाटा मेओरियल हास्पिटल, मुम्बई को रेफर कर दिया.
जीवन के सबसे कठिन क्षण थे वो. कैन्सर का नाम सुनते ही दिल बैठ गया, मस्तिष्क चक्कर खाने लगा. जीवन की सबसे प्रिय निधि - लगा - जल्दी ही खोनेवाला हूं. मैं उसे दिलासा दिलाता था - "जल्दी ही ठीक हो जाओगी." वह कम बोलने लगी थी. बात काटती नहीं थी, लेकिन उसकी आंखें मेरी बातों पर अविश्वास करने लगी थीं. मैं प्रत्यक्ष देख सकता था. उसे दिलासा देते हुए कभी-कभी मैं भी रो पड़ता था. कबतक अभिनय करता? मेरा निर्माण भी हाड़ मांस से ही हुआ था. मेरे अंदर भी भावनाएं उठती थीं.
"मुझे कैन्सर हुआ है न?" वह पूछती.
"नहीं ऐसा नहीं है," मैं उत्तर देता.
"आपको झूठ बोलना भी नहीं आता. आप होठों से प्रयास तो करते हैं लेकिन चेहरा सारा भेद खोल देता है. मैं अच्छी तरह जानती हूं - टाटा मेमोरियल में और किस रोग की चिकित्सा होती है?"
उसे अंधेरे में रखना संभव नहीं था लेकिन इस रोग के नाम का उच्चारण करने में रूह कांप जाती थी. हम साथ रोए थे - कई बार - गले लगकर. बिछड़ना ध्रुव सत्य लग रहा था. फिर भी प्रयास तो करना ही था. महासमर में उतरना ही था. हम लोग मुंबई के लिए चल पड़े. हास्पिटल के पास ही ’हरिओम’ होटल में ठहरे हमलोग. डा. पी.बी.देसाई की ओ.पी.डी. में पंजीयन कराया गया. चेक अप के बाद ढेर सारे टेस्ट लिख दिए उन्होंने. एक हफ़्ते तक टेस्ट ही कराते रहे हमलोग. एफ़.एन.ए.सी. टेस्ट से बहुत घबराती थी वह. दो बार यह टेस्ट हो चुका था. रिपोर्ट दिखाई गई, लेकिन टाटा मेमोरियल सिर्फ़ अपनी जांच पर ही भरोसा करता था. एफ़.एन.ए.सी. टेस्ट के लिए जाते समय वह बिलख-बिलख कर रोई थी. मैं उसकी कोई सहयता नहीं कर सका. ढाढ़स बंधाने की भी हिम्मत नहीं रह गई थी मुझमें. वह अंदर गई. आधे घंटे के बाद आंसू पोछते हुए वह टेस्ट लैब से बाहर निकली. मैंने बांहों का सहारा दिया. धीरे-धीरे टैक्सी तक ले आया. होटल पहुंचकर हम दोनों चुप थे. पंखा फुल स्पीड पर चल रहा था. हवा की सांय-सांय की आवाज़ आ रही थी.
एक हफ़्ते के बाद आपरेशन की डेट मिली. नियत तिथि पर आपरेशन हुआ. डा. देसाई ने बधाई दी. आपरेशन सफल था. मैंने डक्टर के पांव छू लिए उन्होंने गीतू को नई ज़िन्दगी दी थी. टांके सूखने में १५ दिन क समय लगा. फिर फाइनल चेक अप किया गया. कीमोथिरेपी के छः कोर्स पूरा करने की सलाह मिली. अगला पड़ाव बनारस था. हिन्दू विश्वविद्यालय के अस्पताल में यह चिकित्सा शुरू हुई. भयानक आफ्टर इफेक्ट होता है इस थेरेपी का. ड्रिप के सहारे धीरे-धीरे कैन्सर से प्रभावित सेलों को नष्ट करने के लिये दवा चढ़ाई जाती है. दो कीमो में इक्कीस दिनों का गैप होता था. कीमोथिरेपी से कैन्सर से प्रभावित कितने सेल नष्ट होते थे, यह तो नहीं मालूम लेकिन पर्याप्त मात्रा में स्वस्थ सेल अवश्य नष्ट हो जाते थे. हर कीमो के बाद गीतू एक ज़िन्दा लाश बन जाती थी. अपने पैरों पर खड़ी होने के लिये उसे हफ़्तों इंतज़ार करना पड़ता. किसी तरह कीमो के छः कोर्स पूरे हुए. फिर चेक अप के लिए मुंबई जाना पड़ा. सब ठीक था, लेकिन डाक्टर ने प्रत्येक छः महीनों के बाद मुंबई आकर नियमित चेक अप की सलाह दी. मेरे पूछने पर कि जब वह ठीक हो गई है तो बार-बार चेक अप की क्या आवश्यकता है, डाक्टर ने मुझे अलग ले जाकर बताया - मि. सिन्हा, रोग का फैलाव ज्यादा हो चुका है, इट इस इन एडवांस स्टेज. यू मस्ट रिमेन केयरफुल आल द टाइम. मेरे पैर के नीचे से जमीन खिसकने लगी. मैंने सोचा था कि चक्रव्यूह तोड़ दिया लेकिन ऐसा नहीं था. पहले आपरेशन के अभी सात साल भी नहीं बीते थे कि आपरेशन वाली जगह पर एक गांठ फिर से उभर आई. विपत्ति का पहाड़ पुनः टूट पड़ा. "कितनी और यातना दोगे, कितनी और परीक्षा लोगे", भगवान से बार-बार पूछा मैंने. लेकिन पत्थर भी कभी बोलता है क्या? गीतू जीवन से निराश हो चुकी थी. बड़ी मुश्किल से उसे पुनः मुंबई चलने के लिए राज़ी किया. टाटा मेमोरियल में ही दूसरा आपरेशन हुआ. रेडियोथेरेपी के तीस कोर्स भी कराने पड़े.
समय तो कभी रुकता नहीं, आगे बढ़ता ही जाता है. मुंबई प्रवास के ढाई महीने भी गुज़र ही गए. कैसे गुज़रे, याद नहीं करना चाहता. बनारस लौटने के बाद हम फिर अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गए लेकिन हमलोग हंसना भूल गए. कैन्सर ने उसके बदन में बसेरा बना लिया था. हमेशा आशंका बनी रहती थी. डर के साए में हम दिन गुजार रहे थे. मैं तनावग्रस्त रहने लगा. रात में नींद नहीं आती थी. अक्सर गोली लेनी पड़ती थी. वज़न भी धीरे-धीरे कम होने लगा. शरीर में मधुमेह ने स्थाई बसेरा बना लिया. २००३ की जनवरी के आते-आते स्टूल के साथ खून का निकलना आरंभ हुआ. हिन्दू विश्वविद्यालय अस्पताल में तरह-तरह की जांच हुई. रेक्टम में एक ट्यूमर डायग्नोस हुआ. केस एस.जी.पी.जी.आई. लखनऊ के लिए रेफर कर दिया गया.
डाक्टरों ने सफलता पूर्वक मेरा आप्रेशन किया. डेढ़ महीने तक हास्पिटल में भर्ती रहा. वार्ड ब्वाय की गलती के कारण पहले आपरेशन के पांच दिन बाद ही एक इमर्जेंसी आपरेशन और करना पड़ा - इलियास्टमी की गई. पेट की दाईं ओर एक बैग लगा दिया गया. छोटी आंत को बड़ी आंत से अलग कर दिया गया. स्टूल बड़ी आंत में नहीं आता था - बैग में इकठ्ठा होता था. हमने इस स्थिति की कल्पना नहीं की थी. एक सदमा सा लगा. गीतू ने संभाला मुझे, बोली -
"आप तनिक भी चिन्ता न करें. मैंने नर्स से ट्रेनिंग ले ली है. बैग निकालना, बदलना, लगाना और साफ करना, मैंने सीख लिया है. आपको ज़रा भी तकलीफ़ नहीं होगी. मैं हूं न."
मैं राज कपूर की तरह मुस्कुराया. वह मुकेश के ट्रेजडी गाने गाते समय भी हल्के से मुस्कुराता था.
ट्यूमर की बायप्सी रिपोर्ट तो आ गई थी लेकिन डाक्टर ने उसे डिस्क्लोज नहीं किया था. डिस्चार्ज वाले दिन उसने बताया --
"ट्यूमर मैलिग्नैंट था, आपको रेडियोथिरेपी और कीमोथिरेपी भी करानी पड़ेगी - यहां भी हो सकती है, बनारस में भी हो सकती है. आपको जहां भी सुविधा हो, दोनों थिरेपी करा लीजिएगा. पूरी रिपोर्ट डिस्चार्ज सर्टिफ़िकेट के साथ मिल जाएगी. विश यू आल द बेस्ट."
मैं जड़वत हो गया. दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता. डिस्चार्ज होने की खुशी समाप्त हो चुकी थी. कमरे में सन्नाटा छा गया. सिर्फ गीतू के फूट-फूटकर रोने की आवाज़ आ रही थी -
"मैंने क्या बिगाड़ा था भगवान आपका? क्या आपको यह रोग मुझे देकर संतुष्टि नहीं हुई? कोई जरूरी था कि इन्हें भी यह घातक रोग लग जाय? मुझे आपने बचा ही क्यों लिया? मर जाती तो यह बुरी खबर सुनने को तो नहीं मिलती. यह अन्याय है भगवन, सरासर अन्याय है."
विह्वल कर देने वाला था उसका करुण क्रन्दन. उपस्थित सभी लोगों की आंखें गीली हो गईं. सबने पलकों पर तिर आए आसुओं को पोंछा. हमलोग बनारस लौट आए. डाक्टर की सलाह के अनुसार भयावह रेडियोथिरेपी और कीमोथिरेपी कराई गई.
कैन्सर से भयावह इसकी चिकित्सा होती है. पैसा पानी की तरह बहाना पड़ता है. रोगी कई बार मरता है, कई बार जीता है. अवसाद हमेशा हावी रहता है. मृत्यु के आने तक कौन नहीं जीना चाहता है? पर कैन्सर का रोगी जी पाता है क्या? वन-उपवन, तरुवर-लता, कलियां-प्रसून, पपीहा कोयल, शुक-सारिका, मैना-गौरैया, बादल-बिजली, सावन-रिमझिम, सागर-झील, झरनें-नदियां, ताल-तलैया - सबको देखना चाहता है - पर देख पाता है क्या? क्षतिग्रस्त लिपिड, सेल-वेसेल वाल, असन्तुलित न्यूक्लियस, डीएनए, प्रोटीन, रेडियो, कीमो मेडिकेशन, पंचक्रिया, शल्यक्रिया - सबके बावजूद रोगी - हाथ, पांव, मस्तिष्क और दिल, सबका इस्तेमाल करना चाहता है - कर पाता है क्या? मैं अक्सर सोते समय भगवान से प्रार्थना करता था -
"हे भगवन! अगर मैंने जीवन में कुछ भी पुण्य अर्जित किया हो, तो मुझे कल का सवेरा मत दिखाना. यह जर्जर शरीर अब ढोया नहीं जाता. जीने की आकांक्षा अब शेष नहीं रह गई है. मुझे मुक्ति दे दो, मुझे मुक्ति दे दो."


उपर से मैं सामान्य दिखाई देता था लेकिन अंदर से शरीर जर्जर हो चुका था. आंतें सिकुड़ गईं थी. कब्ज़ ने स्थाई रूप धारण कर लिया. दिन में दस-बारह बार शौच जाना पड़ता था लेकिन पेट साफ नहीं होता था. भांति-भांति की दवाएं दी गईं लेकिन सब बेअसर. डाक्टरों ने हार मान ली. मुझे सलाह दी गई - अब ऐसे ही जीना सीखिए. मेरी दक्षता और क्षमता आधी से भी कम हो गई. घर और आफ़िस, यहीं दुनिया थी मेरी. वह मुझे ढाढ़स बंधाती थी और मैं उसे. एक दूसरे की् पीड़ा, एक दूसरे से अधिक कौन समझ सकता था. फिर भी कष्ट बांट हम खुश रहने की कोशिश करते. वह भगवान से एक ही प्रार्थना करती थी कि वे उसे सुहागिन की मृत्यु दें?
सन २००५ का नवंबर महीना चल रहा था. दिवाली के बाद गीतू को एक दिन तेज खांसी आई. कफ़ में खून के छींटे दिखाई पड़े. बी.एच.यू. में डाक्टर को फौरान दिखाया गया. ढेर सारे टेस्ट कराए गए - सीटी स्कैन, एफ़.एन.ए.सी, एक्सरे, सोनोग्राफी, इत्यादि, इत्यादि. धड़कते दिल से रिपोर्ट ले आता. लैब में जाने से पूर्व संकट मोचन मंदिर में जाकर बजरंग बली के दर्शन करता, रो-रोकर याचना करता - रिपोर्ट सही करना भगवान. लेकिन सब बेकार. सारी रिपोर्टें दिल तोड़ने वाली थीं. रोग का फैलाव दोनों फेफड़ों, राइट ब्रेस्ट और गले में हो चुका था. सर्जरी नहीं की जा सकती थी. कीमोथिरेपी की दारुण यंत्रणा से फिर गुजरना पड़ा. हमदोनों का एकमात्र पुत्र साफ्ट्वेयर इंजीनियर है. बंगलोर में नौकरी कर रहा था. उसकी अंतिम इच्छा थी कि उसकी आंखों के सामने बेटे की शादी हो जाय. इधर कीमो चल रही थी, उधर सुयोग्य बहू की तलाश. कुछ ही दिनों में तलाश पूरी हो गई. दिसम्बर २००६ में बेटे की शादी संपन्न हो गई. अपार इच्छा शक्ति का परिचय देते हुए उसने शादी की सारी रस्में पूरे उत्साह से निभाई. शादी के बाद एक दिन पूजा के दौरान वह बोली - "हे भगवान! मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गईं. अब जब चाहो, मुझे अपने पास बुला सकते हो."
जीवन! क्या होता है जीवन? चैतन्य की एक ओंकार ध्वनि ही तो है यह - पीढ़ी दर पीढ़ी की दीर्घ साधना की संस्कारशील यात्रा से प्राप्त. मनुष्य अपने बुद्धि कौशल से सबकुछ निर्माण कर सकता है लेकिन नहीं जोड़ सकता है एक पल भी अपनी इच्छा से. परन्तु संघर्ष करता है जीवन भर. उसे प्रतीत होता है - कुछ पल तो जोड़ ही सकता है अपने अथक प्रयासों से अपने और अपने प्रियजन के जीवन में. अद्भुत है यह मृग-मरीचिका. ज्ञानी भी अज्ञानी की भांति आचरण करता है.
गीतू धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही थी. चेहरे पर उभर आई सूजन अब साफ़ देखी जा सकती थी. उसके दाएं हाथ और दाहिने पैर ने अचानक काम करना बंद कर दिया. फिर तरह-तरह के टेस्ट हुए - सीटी स्कैन, बेरियम टेस्ट, सोनोग्राफी..........मस्तिष्क के दक्षिणी भाग में भी रोग की पहुंच हो गई थी. भोजन की नली लगभग बंद हो चुकी थी. हाथ-पांव को क्रियाशील बनाने के लिए रेडियोथिरेपी और भोजन की नली खोलने के लिए डाइलेटेशन का निर्णय लिया गया. मैंने डाक्टर से पूछा -
"इस ट्रीटमेंट के बाद क्या वह ठीक हो जाएगी?"
"अब हमलोगों का प्रयास है कि वे जबतक जीएं, कंफर्टेबली जीएं. आप "कहो कौन्तेय" के रचनाकार हैं, महाभारत और गीता के मर्मज्ञ हैं. धैर्य रखिए, हिम्मत रखिए और हर परिस्थिति के लिए तैयार रहिए."
डाक्टर ने संकेत में सब समझा दिया.
गीतू के शरीर से नियति को इतनी ईर्ष्या क्यों? सुबह होती, रंग फीका-फीका लगता तथापि जीवित रहती - बातचीत करती - पुस्तक पढ़ती - मृत्यु का अनादर करते हुए हंसती - भोर के चांद की तरह. यातना के साथ सूर्योदय होता - सूर्यास्त होता बेचैनी के साथ - रात गुजरती एक-एक निःशब्द, भयंकर, निश्चित प्रतीक्षा में - मृत्यु की. मृत्यु की याचना, मृत्यु का भय, गीतू के सामने बार-बार पराजित होते. दिन रात बेटे-बहू उसके पास बैठे रहते, थके मांदे मेरे साले दीवान के किनारे कुछ पलों के लिए आराम कुर्सी पर निढ़ाल हो जाते, फिर चौंक कर उठ बैठते. मैं लाबी में अस्थिर हो टहलता रहता. सेवम बरामदे में खंभे की टेक लगाए मृत्यु के पथ को रोककर बैठा रहता. सेविका उसकी देखभाल करती. उसके बचे-खुचे बालों को संवारती - मध्य में लाल सिन्दूर की एक रेखा बनाती - ललाट के बीचोबीच एक छोटी सी बिन्दी सजाती. साधारण प्रसाधनों से ही उसका चेहरा मणि की तरह दमक उठता.
दिनांक ८ मार्च २००७. रात में खाना खाते समय सबने लक्ष्य किया - वह प्रसन्न थी. खाना खिलाकर दवा दी गई. जल्दी ही सो गई. हमेशा की तरह नाक भी बजने लगी. ढाई बजे रात को नींद खुली. बाथ-रूम जाना था उसे. मैं सहारा देकर ले गया. लौटते समय बेड-रुम के दरवाजे तक पहुंची ही थी कि जोर की एक हिचकी आई और मेरी बाहों में झूल गई वह.
मेरी दुनिया उजड़ चुकी थी. जीवन के उन्तीस अविस्मर्णीय वर्ष साथ-साथ व्यतीत करने के बाद अकेला छोड़ ही दिया उसने. मेरा करुण क्रन्दन भी रोक नहीं पाया उसे.
शव-यात्रा के पहले उसका शृंगार किया गया. नहला-धुलाकर शादी वाला जोड़ा पहनाया गया. होठों पर लिप्स्टिक लगाई गई. शृंगार पूरा होने के बाद मुझे बुलाया गया. मुझे उसकी मांग में सिन्दूर भरना था. अब मेरा साहस जवाब देने लगा. मेरे पैर कांपने लगे, लड़खड़ाया, लगा कि गिर जाऊंगा. तभी किसी ने थामा. चौहान भाभी थीं वो. आदेशात्मक स्वर में बोलीं -
"विपिनजी! बहुत सौभाग्यशालिनी थीं आपकी गीतू. मुझसे कहती थीं - मैं सुहागिन मरना चाहती हूं. भगवान ने उनकी इच्छा पूरी की. हर हिन्दू औरत की यह प्रबल इच्छा होती है कि वह सुहागिन मरे. लेकिन कितनों को यह नसीब हो पाता है? वह पतिव्रता थीं, महान थीं. लीजिए यह सिंधोरा और भर दीजिए सिन्दूर से उनकी मांग, पूरी कर दीजिए उनकी अंतिम इच्छा. रोने के लिए तो पूरी ज़िन्दगी पड़ी है."
मैने आंसू पोंछ लिए. पहली बार उसकी मांग में सिन्दूर भर अपने घर ले आया था. उस दिन अंतिम बार मांग में सिन्दूर भर अपने ही घर से विदा कर रहा था - हमेशा के लिए. कैसी विडंबना है? भोले शिशु को खिलौना देना, अगले क्षण छीन लेना, फिर रुलाना. क्यों रचा यह नाटक? जो हाथ पसारकर मांगता है, उसके साथ खेलो. पर जो मांगता ही नहीं, उसके साथ खेल क्यों? मेरे पास अब बचा ही क्या था - टूटी हुई आशा, नष्ट हुआ भविष्य, बुझी हुई अग्निशिखा, दहकती दिशाएं.
मेरी छोटी सी दुनिया से वह मुक्त हो गई. वह उस विशाल आकाश का अंग बन गई, जहां ’मैं’ की संकीर्ण सत्ता का कोई अर्थ नहीं होता. अपने जीवन की सारी सार्थकता और अपने छोटे से ’मैं’ की संकीर्णता को वह मेरे छोटे स घर में छोड़कर विशाल परिसर की ओर उड़ गई. वह फिर भी, मेरे मन के आकाश में तितली की तरह काफी हल्के मन से मंडराती रहेगी, आकाश से भरी वर्षा की बूंद की तरह मेरे छोटे से आंगन में उतर आयेगी. वह तो भूल जाएगी कि कभी उसका एक शरीर था, मैं कैसे भूल पाऊंगा? उसके साथ दुख, शोक, कामना, वासना का लेशमात्र अंश भी नहीं रहेगा. उसके साथ रहेगी केवल सौन्दर्य की एक उदार, विस्तृत अनुभूति. वह लोक अत्यन्त सुन्दर होगा क्योंकि वहां नहीं होगा उसका जर्जर शरीर और नहीं होगी उससे उत्पन्न व्यथा एवं वेदना. शून्यता के बाग में आत्मा का एक फूल धीरे-धीरे खिलता रहेगा और उससे झरता रहेगा प्रेम का एक मधु-स्रोत - सारे संसार के लिए - मनुष्य के लिए - पशु-पक्षी और मेरे लिए भी.

Sunday, October 24, 2010

हमारी न्याय पद्धति

आज़ादी के बाद भी हमने अपनी न्याय-प्रणाली तनिक भी नहीं बदली. दीवानी और फ़ौज़दारी के जो कानून अंग्रेजों के जमाने में थे, वे ही आज भी विद्यमान हैं. वकीलों और जजों के काम करने का तरीका भी वही है. क्यों नहीं बदली यह व्यवस्था? आम जनता पर राज करने का यह एक आसान तरीका है, जो नेता, पूंजीपति और माफ़िया के हित में है.
कुछ निचली अदालतों को छोड़ दें तो भारत के सारे उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय की भाषा आज भी अंग्रेजी है. यह कैसी विडंबना है कि वादी या प्रतिवादी अपनी बात सीधे जज से नहीं कह सकता. उसे अनिवार्य रूप से बिचौलिये की आवश्यकता होती है, जिसे वकील कहते हैं. सारे वकील दलाली करते हैं. पीड़ित के लिये न्याय की फ़रियाद काला कोट पहने एक दूसरा व्यक्ति जज से करता है, जिसकी भाषा भी पीड़ित समझ नहीं पाता है. न्यायालय में सत्य या न्याय की जीत नहीं होती है, बल्कि वकील के दांव-पेंच और वक्तृत्व कला की जीत होती है. अपने फ़ायदे के लिये वकील तारीख पर तारीख लिये जाता है, जज दिए जाता है - भारत की गरीब जनता पिसती जाती है. देश की ९५% जनता की औकात ही नहीं है कि वह हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जाए. गरीबों को मुकदमे में फँसाकर उनका शोषण करना अमीरों का शौक बन गया है. वर्तमान न्याय-प्रणाली बाहुबलियों, पूंजीपतियों और रा्जनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बन गई है.
हमारे न्यायालयों मे सफ़ेद रंग की एक सुन्दर स्त्री की मूर्ति बनी रहती है, जिसके हाथ में तराजू रहता है और आंखों पर पट्टी बंधी रहती है. मूर्ति संदेश देती है - कानून अंधा होता है. अगर कानून की आंखों पर पट्टी बंधी है, तो वह तराजू को कैसे बैलेन्स कर सकता है? इसपर किसी ने कभी ध्यान ही नहीं दिया, बस नकल कर ली. कानून याने जज अंधा होता है, अंधा ही नहीं बहरा भी होता है. कोर्ट में वकील चिल्ला-चिल्ला कर अपनी बात सुनाते हैं और दस्तावेज़ दिखाते हैं. वकीलरूपी दलाल ही जज के आंख-कान हैं. कानून को जनता की चीखें सुनाई नहीं पड़तीं, भोपाल गैस त्रासदी के मृतकों की लाशें दिखाई नहीं पड़तीं. हाई कोर्ट से मौत की सज़ा पानेवाला मुज़रिम सुप्रीम कोर्ट से बाइज्जत बरी हो जाता है. अगर उसके पास पैसे नहीं होते तो? वह फ़ांसी पर झूल जाता. मुजरिम को हाई कोर्ट के जिस जज ने मौत की सज़ा दी और सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया - क्या उस जज पर हत्या के प्रयास का मुकदमा नहीं चलाया जाना चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अंधे राजा (धृतराष्ट्र) और आंख पर पट्टी बांधी महारानी (गांधारी) की उपस्थिति में उनके ही बेटे कुलवधू का चीरहरण करते हैं.
हमारी निचली अदालतें पूरी तरह रिश्वतखोरी में लिप्त हैं. हाई कोर्ट में ६०% भ्रष्टाचार है तो सुप्रीम कोर्ट में ३०%. कर्नाटक के भ्रष्ट चीफ जस्टिस दिनकरन का केस हल नहीं हो पा रहा है क्योंकि अमेरिका और इंगलैंड से उधार लिये गये संविधान में कार्यवाही करने का जो तरीका दर्ज़ है, वह अड़ंगा लगाने और बच निकलने के लिये काफ़ी है. भ्रष्टाचार के प्रमाणित आरोपों के बाद भी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश चो रामास्वामी का कोई बाल बांका भी हो कर सका. लोकसभा में महाभियोग लाया गया, लेकिन दो-तिहाई बहुमत का समर्थन नहीं मिल सका. श्री शशिभूषण, भूतपूर्व कानून मन्त्री, भारत सरकार ने एक इंटरव्यू में सुप्रीम कोर्ट के अबतक के १६ मुख्य न्यायाधिशों में से ८ को रिश्वतखोर बताया है. श्री रंगनाथ मिश्र - कांग्रेस के प्यारे न्यायाधीश और यूनियन कार्बाइड को सस्ते में छोड़वाने वाले जज न्यायमूर्ति अहमदी भी इसमें शामिल हैं.
भारतीय न्याय-पद्धति पंच परमेश्वर की न्याय पद्धति थी. सबके सामने दूध का दूध और पानी का पानी. बिना दलाल के जो न्याय मिलता है, वही सच्चा न्याय होता है. जज, वादी-प्रतिवादी से सीधी वार्त्ता क्यों नहीं कर सकता? उनसे अपने दावों के समर्थन में साक्ष्य क्यों नहीं ले सकता? आवश्यकता पड़ने पर स्थलीय निरीक्षण क्यों नहीं कर सकता? स्वयं जाकर आस-पास के लोगों से गोपनीय पूछ्ताछ क्यों नहीं कर सकता? वह सब कर सकता है, लेकिन करता नहीं, क्योंकि आज भी उसकी मानसिकता वही है, जो १९४७ के पहले थी. आज भी उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है. उसके पेशे के सहयोगी, तथाकथित कानून विशेषज्ञ वकीलों की रोजी-रोटी जाने का खतरा भी है. जनता न्याय के चक्रव्यूह में पिसती रहे - क्या फ़र्क पड़ता है! न्यायालय के जज, कर्मचारी और वकील की जेब तो भर रही है न.

Tuesday, October 12, 2010

भ्रष्टाचार -- एक अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार के दलदल में फंसे सरकारी विभागों को फ़टकार लगाते हुए दिनांक ९.१०.२०१० को टिप्पणी की -- "इससे बेहतर होता कि सरकार भ्रष्टाचार को वैध कर देती. कम से कम आम आदमी को पता रहेगा कि उसे रिश्वत में कितने पैसे देने हैं." तीन विभागों - आयकर. विक्रीकर और आबकारी का विशेष उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा कि इन महकमों में बिना पैसे दिये कोई काम नहीं होता. जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने एक अलग मामले में एक शातिर अपराधी की तरफ़ से पेश वकील, वेणु गोपाल पर निशाना साधते हुए कहा कि मिस्टर वेणुगोपाल, हम आपके स्तर के वकील से इस तरह के लोगों के लिए केस लड़ने की अपेक्षा नहीं करते. महात्मा गांधी भी वकील थे लेकिन इस तरह के लोगों के लिए कभी नहीं लड़े. वेणु गोपाल ने अपनी सफ़ाई में कहा कि महात्मा गांधी की तरह मामलों के चुनाव, अगर वे करने लगे, तो उनके ज्यादातर मुवक्किल हाथ से निकल जाएंगे, फ़ाकाकशी की नौबत आ सकती है. वेणु गोपाल ने कोई झूठ नहीं कहा. दूसरों से सदाचार की अपेक्षा करने वाले न्यायधीशों का दामन क्या पाकसाफ़ है? भारत के सभी न्यायालयों में जज की आंखों के सामने उनका पेशकार मात्र अगली डेट बताने के लिए पैसे लेता है. वे इसे दस्तूर कहते हैं, जो अंग्रेजों के समय से चला आ रहा है. ट्रान्सपेरेन्सी इन्टरनेशनल इंडिया द्वारा जारी भ्रष्टतम विभागों की सूची में न्याय व्यवस्था को गौरवशाली दूसरा स्थान (रजत पदक) प्राप्त है. पुलिस और राजनेता संयुक्त रूप से प्रथम स्थान (स्वर्ण पदक) पर विद्यमान हैं. भारत के टाप टेन भ्रष्ट विभागों की सूची निम्नवत है. ५ के पूर्णांक में उनके द्वारा अर्जित अंकों को भी दिखाया गया है --
१. पुलिस ४.७
राजनेता ४.७
२. न्याय ४.३
३. रजिस्ट्री ४.०
४. शिक्षा ३.८
कर ३.८
५. आधारभूत सेवाएं ३.७
६. संसद ३.४
७. वाणिज्य एवं निजी क्षेत्र ३.३
८. मीडिया २.७
९. रक्षा २.१
१०. जनता २.०
भ्रष्टाचार, कम या अधिक सभी जगहों पर हमेशा रहा है. इस समय सबसे बड़ी चिन्ता की बात यह है कि अब इसे सामाजिक मान्यता भी मिलने लगी है. पहले भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे नेताओं को जनता अगले चुनाव में ही धूल चटा देती थी -- अब चर्चा भी नहीं करती. आय से अधिक संपत्ति के मामलों में कितने मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों पर सुप्रीम कोर्ट एवं हाई कोर्ट में मुकदमें विचाराधीन हैं, क्या आप गणना कर सकते हैं? स्व. राजीव गांधी ने अपने प्रधानमंत्रित्व-काल में घोषित किया था कि एक रुपए का मात्र २० पैसा ही विकास पर खर्च होता है, शेष भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है. उनके सुपुत्र और भारत के युवराज राहुल गांधी ने अपने बुंदेलखंड के दौरे पर बयान दिया कि १०० पैसों में से मात्र ५ पैसे ही विकास पर व्यय हो पा रहे हैं. देश के वित्त मंत्री के रूप में काम करते हुए श्री चिदंबरम ने कहा था कि १ रूपया विकास पर खर्च करने के लिए सरकार को लगभग ३.५ रुपए का व्यय करना पडता है. मतलब साफ है -- सरकार को भी सारी चीजें पता है और उसके द्वारा इसे मान्यता भी प्राप्त है. सरकार कांग्रेस की है और उसके नेता भ्रष्टाचार की बात स्वीकार करते हैं, लेकिन दूर करने का कोई उपाय नहीं करते. क्या यह सत्य नहीं है कि कांग्रेस के शासन-काल में भ्रष्टाचार चरम पर रहता है. सभी इसमें आकंठ डूबे हैं, समाधान कौन निकलेगा? यह उजागर हो गया है कि राज नेताओं, पूंजीपतियों और भ्रष्ट नौकरशाहों के लाखों करोड़ रुपए स्विस बैंकों में जमा हैं. इस अकूत काले धन को वापस लायेगा कौन?
इन्टरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इन्स्टीट्यूट के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान दुनिया के भूखे देशों की श्रेणी में ९४ वाँ है. हमसे आगे ९० पर नेपाल, ८८ पर पाकिस्तान, ६९ पर श्रीलंका व ६६ पर म्यामार हैं. अपने देश में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का ८०% कर्ज़ से है, जो दुनिया में सबसे अधिक है. भ्रष्ट देशों की सूची में हमारा स्थान ७२वाँ है. हमसे बेहतर कई अफ़्रीकी देश हैं. आर्थिक आज़ादी की सूची में भारत १०४वें स्थान पर है. विश्व बैंक ने अपने देश को व्यापार करने की दृष्टि से १२०वें स्थान पर, १७८ देशों की सूची में रखा है, जो दक्षिण एशिया में न्यूनतम है.
अपने गुनाहों को छिपाने के लिए सरकार जो तरक्की की तस्वीर पेड मीडिया और सरकारी आंकड़ों द्वारा प्रस्तुत कर रही है, वह धोखा है. चमकता भारत, उभरता भारत, प्रगतिशील भारत, महाशक्ति भारत का दावा मात्र छलावा है. भ्रष्टाचार के राहु ने हमारी सारी योजनाओं पर पूर्ण ग्रहण लगा रखा है. चांद और सूरज तो ग्रहण से मुक्त हो जाते हैं, क्या भारत हो पायेगा? यह एक अनुत्तरित यक्ष-प्रश्न है.

Friday, October 1, 2010

शांतिपूर्ण सह अस्तित्व


श्रीराम जन्मभूमि-बाबरी मस्ज़िद विवाद पर आखीरकार हाई कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुना ही दिया. काश! यह फ़ैसला २० वर्ष पहले आया होता. लेकिन विलंब से आया फ़ैसला भी ऐतिहासिक है. कोई पक्ष पूर्ण जीत या हार का दावा नहीं कर सकता. हाई कोर्ट ने देश के विभाजन के बाद हिन्दू और मुसलमान, दोनों समुदायों को एक दूसरे की भावनाओं को समझने, आपसी भाईचारा और सौहार्द्र स्थापित करने का एक सुनहरा अवसर प्रदान किया है. किसी भी पक्ष को इस फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में नहीं जाना चाहिए. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख श्री मोहन भागवत औए ज़ामा मस्ज़िद के इमाम के वक्तव्य को इसी परिप्रेक्ष्य में देश की जनता को ध्यान से सुनना और पढ़ना चाहिए. हिन्दू-मुसलमान लड़ेंगे तो देश कमजोर होगा. दोनों व्यक्तियों ने इसे पहली बार एकसाथ महसूस किया है. यह देश का सौभाग्य है.

कुछ कट्टरपन्थी हिन्दू यह मानते हैं कि पाकिस्तान बन जाने के बाद मुसलमानों को हिन्दुस्तान में रहने का हक नहीं है. उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए. इसी तरह कुछ कट्टरपन्थी मुसलमानों ने हिन्दुस्तान को दारुल इस्लाम बनाने की ज़ेहाद छेड़ रखी है. वे भारत मे मुगलकलीन इस्लामिक आधिपत्य का सपना देखते हैं. धरातलीय सत्य यह है कि दोनों ही बातें आज की तारीख में असंभव हैं. ना तो आप २० करोड़ मुसलमानों को देश निकाला देकर इसे हिन्दू राष्ट्र बना सकते हैं और न ही बना सकते हैं धर्मनिरपेक्ष भारत को इस्लामिक राष्ट्र. यह देश मुसलमानों की भी जन्मभूमि और मातृभूमि है, उतनी ही जितनी हिन्दुओं की. दोनों की चमड़ी का रंग एक है, खून एक है, बोलचाल की भाषा एक है, रहन-सहन का ढंग एक है, पहिरावा एक है, आदतें एक हैं. पूजा-पद्धति को छो्ड़ दिया जाय, तो सभ्यता और संस्कृति भी एक है. कार्यालय, स्कूल और कालेज में देखकर क्या आप बता सकते हैं कि अमुक लड़का हिन्दू है और अमुक लड़का मुसलमान? कोई नहीं बता सकता जबतक नाम न पूछा जाय. हिन्दू और मुसलमान में भारत की जनता का वर्गीकरण कृत्रिम है. सच्चाई यह है कि दोनों एक हैं. कट्टरवादी दोनों समुदायों में विभिन्नता की दलील देकर अबतक दोनों समुदायों को अलग रखने के अपने प्रयासों में कमोबेस सफल रहे हैं. लेकिन अब समय आ गया है कि हम दोनों समुदायों में व्याप्त समानता की चर्चा करें. फूट डालो और राज करो, यह विदेशियों की कूट्नीति थी, जिसने हमें लंबी अवधि की दासता के अलावे कुछ नहीं दिया. क्या हम एक दूसरे की भावनाओं और पूजा-पद्धति का सम्मान नहीं कर सकते? अवश्य कर सकते हैं.

हिन्दुओं के पुरखों ने नारा दिया था - वसुधैव कुतुंबकम. सर्वे भवन्तु सुखिना. महाकवि इकबाल ने तराना गाया था - मज़हब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना. हम आदिम या मध्यकालीन युग में नहीं हैं. इक्कीसवीं सदी की आवश्यकता है - शांतिपूर्ण सह अस्तित्व. इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ का फ़ैसला इस दिशा में मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है.

Monday, September 27, 2010

क्या यही लोकतन्त्र है

आज़ादी के बाद हर चुनाव के बाद यह घोषणा की गई कि दिल्ली और राज्यों में जनप्रिय और बहुमत की सरकार बनी है. इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है? सच तो यह है कि आज तक भारत के किसी कोने में बहुमत की सरकार नहीं बनी. किसी सरकार या पार्टी ने कभी भी कुल मतों का ५०% नहीं प्राप्त किया. पिछले लोकसभा चुनाव में कुल मतों के मात्र ४०% वोट पड़े. देश के ६०% मतदाताओं ने अपने को मतदान से अलग रखा. दिल्ली में बैठे सत्ताधीशों की पार्टी ने डाले गये मतों का आधा भी नहीं प्राप्त किया.कुल मतों का १०% पाकर वे बहुमत का खोखला दावा करते हैं और भारत की संपूर्ण जनता के भाग्यविधाता बन जाते हैं.
सत्ता के लिये चुनाव के बाद गठबंधन बनाकर सरकार बना लेना लोकतन्त्र का सबसे बड़ा मज़ाक और जनता के साथ धोखा है. विभिन्न पार्टियां आम चुनाव में एक दूसरे के खिलाफ़ विष-वमन करती हैं, ताल ठोकती हैं और चुनाव के बाद बंद कमरों में समझौता कर सत्ता का बंदरबांट करती हैं. धुर विरोधी पार्टियां भी सत्ता के लिये जनता की आंखों में धूल झोंककर चुनाव के बाद एक हुई हैं. सन २००४ के आम चुनाव में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल और केरल में एक दूसरे के खिलाफ़ चुनाव लड़ा. कई स्थानों पर खूनी संघर्ष हुए. दोनों पक्षों के कई कार्यकर्त्ता मारे भी गये. लेकिन चुनाव बाद? दोनों पार्टियों ने दिल्ली में समझौता कर लिया. सत्ता की मलाई दोनों ने खाई. कांग्रेस के मनमोहन सिंह प्रधान मन्त्री बने, तो मार्क्सवादी सोमनाथ चटर्जी लोकसभा अध्यक्ष. राज्यों में दोनों पार्टियों ने एक दूसरे का विरोध करना जारी रखा. भोली-भाली जनता ठगी सी सारा खेल देखती रही.
भारत के उधारी संविधान द्वारा स्थापित फ़र्ज़ी लोकतन्त्र अब वंशवाद के कारण राजतन्त्र का रूप लेता जा रहा है. जिस लोकतन्त्र की तारीफ़ करते राजनेता और मीडिया थकते नहीं, वह मात्र मृगमरीचिका है. लोकतन्त्र के नाम पर जिस प्रकार की राजशाही चल रही है, उसके लिये किसी नये उदाहरण की जरूरत नहीं. जिस तरह बेखौफ़ अंदाज़ में बिहार में चल रही कांटे की चुनाव मुहिम के बीच राजद सुप्रीमो लालू यादव ने अपने २० वर्षीय बेटे तेजस्वी की ताज़पोशी की है, यह किस्सा भारतीय राजनीति में निर्लज्जता के जो कई अध्याय हैं, उनमें सुनहरे अक्षरों में अपनी जगह अवश्य बनाएगा. राजशाही की यह बीमारी किसी एक राज्य या दल में थमने वाली नहीं है.जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु, महाराष्ट्र से लेकर उड़ीसा-बिहार तक सभी राज्यों और केन्द्र में भी एक ही हाल है. नेहरू-इन्दिरा-राजीव-सोनिया-राहुल, पवार, अब्दुल्ला, लालू, मुलायम, बादल, बंसी लाल, देवी लाल, चरण सिंह, गौड़ा, मारन, करुणानिधी, नायडु, रेड्डी, ठाकरे, शिबू सोरेन.........................आप लिखते रहिए भारतीय राजनीति में वर्चस्व जमाए परिवारवाद की सूची, भारतीय लोकतन्त्र और राजशाही के पोषक नेताओं के कानों पर जूं भी नहीं रेंगने वाली. वंशवाद में आकंठ डूबे देश में सैकड़ों राजनीतिक परिवार ऐसे हैं, जिन्होंने भारतीय लोकतंत्र को जैसे अगवा कर अपने परिवार का बंधक बना रखा है. दुनिया के तथाकथित सबसे बड़े लोकतन्त्र की यह सबसे बड़ी त्रासदी है. हमारे नेताओं ने इस देश की जनता और हमारे लोकतन्त्र को अपनी व्यक्तिगत जागीर समझ ली है. अपना सबकुछ अपने परिवार के नाम ये नेता लिखकर चले जाना चाहते हैं............यह देश, लोकतन्त्र, हम और आप जाएं भाड़ में.

Thursday, February 25, 2010

SACHIN

सचिन (एक दिवसीय मैचों में प्रथम द्विशतक लगाने के उपलक्ष्य में)

रनों का अम्बार या हिमालय पहाड़,
न भूतो भविष्यति, न आर है न पार.

हजारों हजार रन तिरान्बे सेंचुरी,
फिर भी हम प्यासे, इच्छाएं अधूरी.
तुमसे अपेक्षित शतकों का पूर्ण शतक,
खेलते ही जाओ, रुको नहीं अन्त तक.

खेलों के रत्न हो, रिकार्डों के कीर्तिमान,
आँखों के तारे हो, भारत की शान.

करोड़ों हों हर्षित, ऐसा तुम्हारा काम,
सचिन तेन्दुलकर -- सूरज सा तेरा नाम.

नचाता खिलाड़ियों को, शेन वार्न फिरकी पर,
सपने में रोता था, देख तुझे खिड़की पर.

गुगली पर उसकी लगाया जब छक्का,
थाम दिल बैठ गया, लगा ऐसा धक्का.

मुरली की मुरली, तुमने बजाई है,
दूसरे पर गेंद को सीमा दिखाई है.

थर्ड मैन के ऊपर से, अख्तर की बंपर को,
दर्शकों में भेजी है, छुआ जैसे कंकड़ को.

मैक्ग्रा की बाल पर, दर्शनीय कवर ड्राइव,
ओवर में चॊके - टू, थ्री, फोर, फाइव.

मुंबई में वे भी हैं - राज-बाल ठाकर,
मुंबई में ये भी हैं - सचिन-गावास्कर.

राजनीति तोड़ती है, उत्तर को दक्खिन से,
क्रिकेट है जोड़ती, पूरब को पश्चिम से.

भारत के रत्न हो, घोषणा ही शेष है,
रिणी तुम्हारा यह, भारतवर्ष देश है.

बी. के. सिन्हा, वाराणसी,
फोन नं. ०९४१५२८५५७५

Thursday, January 28, 2010

लोकतन्त्र

लोकतन्त्र

१९४७ के पहले --
अपने देश में,
अंग्रेजों का राज था,
उन्हीं के नियम थे,
उन्हीं के कानून थे,
विक्टोरिया साम्राज्य था.

सत्ता उन्हीं की,
मर्जी उन्हीं की,
कार्यपालिका उन्हीं की,
न्यायपालिका उन्हीं की.

तब लोकतन्त्र नहीं था,
लेकिन हमारे पास थे --
मंगल पांडेय और लक्ष्मी बाई,
वीर कुँवर, बहादुर भाई,
अशफ़ाक उल्ला खाँ,
तात्या और नाना,
जोशे जिगर, केसरिया बाना.
महामाना मालवीय, महात्मा गाँधी,
तिलक, पटेल, सुभाष की आँधी.
बिस्मिल, सावरकर, भगत, आजाद,
जय प्रकाश नारायण, राजेन्द्र प्रसाद.

आज हमारे पास,
अपना कनून है,
अपना संविधान है,
पर किसी प्रश्न का,
क्या कोई समाधान है?

दुनिया का सबसे बड़ा,
हमारा लोकतन्त्र है,
महँगा भी सबसे बड़ा,
अपना जनतन्त्र है.
करोड़पतियों की संसद है,
नेताओं का अम्बार है,
गोली, धमाकों से,
देश गुलजार है.

वाह रे लोकतन्त्र !
प्रवाह को ही मोड़ा है,
माफ़िया-राजनीति का,
बेमिसाल जोड़ा है.

उत्तर सुखराम हैं,
दक्षिण में गोड़ा हैं,
पश्चिम में ठाकरे,
तो पूरब में कोड़ा हैं.