Wednesday, January 27, 2016

सांप्रदायिकता, असहिष्णुता और मोदी




  भाजपा और जनसंघ पर इनके जन्म के साथ ही सांप्रदायिकता का आरोप लगाने का जो सिलसिला आरंभ हुआ था, वह नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अचानक ठप्प हो गया। लेकिन प्रधानमंत्री बनने के पहले इस व्यक्ति को सांप्रदायिक सिद्ध करने के देश और विदेश में जितने प्रयास किए गए, उतने आजतक नहीं किए गए थे। किसी ने उन्हें सांप्रदायिक कहा तो किसी ने तानाशाह। एक बड़ी नेता ने तो उन्हें मौत का सौदागर तक कहा। तात्कालीन केन्द्र सरकार ने उनका राजनैतिक भविष्य समाप्त करने के लिए सिट बैठाया, आयोग बैठाया और सेशन कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों की झड़ी लगा दी। सेकुलरिस्टों ने अमेरिकी राष्ट्रपति को पत्र भी लिखा कि ऐसे व्यक्ति को वीज़ा न दिया जाय, नहीं तो वह वहाँ पहुँचकर अमेरिका की पवित्र धरती को भी अपवित्र कर देगा। विगत लोकसभा के चुनाव में देसी-विदेशी, तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर सेकुलरिस्टों ने मोदी की आँधी रोकने की कोशिश की। लेकिन उनके तमाम आरोपों को भारत की जनता ने खारिज़ कर दिया और पूर्ण बहुमत देकर  उनके गाल पर करारा तमाचा जड़ दिया। विभिन्न न्यायालयों ने भी उन्हें बेदाग घोषित किया।
            पिछले डेढ़ सालों से केन्द्र सरकार के लोकहित और लोकप्रिय कार्यक्रमों ने सेकुलरिस्टों की आँखों की नींद उड़ा दी है। देश और विदेश, दोनों में मोदी के नाम का डंका बज रहा है। न कोई २-जी हो रहा है, न ४-जी; न कोयला जी हो रहा है, न कामनवेल्थ जी। मोदी जी के सफाई-कार्यक्रम से खानदानी रईस और उनके दरबारी बौखला-से गए हैं। उन्हें अपनी सफाई का डर इस कदर सताने लगा है कि आका के इशारे पर बड़ी मिहनत और कुशल चाटुकारिता से अर्जित पुरस्कार तक लौटाने का निर्णय  ले डाला। बात तब भी नहीं बनी। न ओबामा ने वीज़ा रोकने का निर्णय लिया, न पुतिन ने निमंत्रण वापस लिया। और तो और जापान और फ्रांस के राष्ट्रपति बनारस और दिल्ली आकर पीठ भी ठोक गए। चारों तरफ से निराश इन कथित सेकुलरिस्टों ने एक पुराने हथियार को नया रूप दिया, सान चढ़ाया और मैदान में पुनः डट गए। बहुत सोच समझकर इसे "असहिष्णुता” का नाम दिया गया। यह सांप्रदायिकता का ही दूसरा नाम है। ये लोग यह भूल गए की इमरजेन्सी को प्रत्यक्ष झेलने वाली पीढ़ी अभी जिन्दा है। कोई कैसे भूल सकता है कि आपात्काल में जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवानी जैसे सैकड़ों नेता, लाखों कार्यकर्ताओं के साथ बेवज़ह जेल में डाल दिए गए थे। इनपर मीसा (Maintenance of Interanal Security Act) और डीआईआर (Defence of India Rule) की खतरानाक धारायें लगाई गईं ताकि उन्हें ज़मानत न मिल सके। मीसा में तो आरोप-पत्र भी दाखिल करना आवश्यक नहीं था। बंदी को उसके परिवार को बिना सूचना दिए अज्ञात स्थान पर बिना किसी समय सीमा के बंदी बनाकर रखा जा सकता था। जय प्रकाश नारायण जैसे नेता को जेल में इतनी यातना दी गई कि रिहाई के कुछ ही समय के बाद वे स्वर्ग सिधार गए। मेरे कई मित्रों का कैरियर तबाह हो गया। मुसलमानों की ज़बर्दस्ती नसबंदी की गई। सारे समाचार पत्रों पर बेरहमी से सेंशरशीप लागू की गई। जिन पत्रकारों या संपादकों ने बेअदबी करने की गुस्ताखी की, जेल की सलाखों के पीछे पहुँचा दिए गए। मुझे घोर आश्चर्य होता है कि जिस जय प्रकाश नारायण से देश की सुरक्षा को इतना खतरा था, उन्हें भारतरत्न से सम्मानित किया गया और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बने और मीसा में जेल में बंद मोररजी भाई, चरण सिंह, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेन्द्र मोदी को देश का प्रधान मंत्री बना दिया गया। देश फिर भी नहीं टूटा। इन्दिरा गाँधी की आत्मा कितनी दुखी हो रही होगी! आज वही लोग  असहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे हैं।
            असहिष्णुता का हथियार लेकर मैदान में उतरने वाले जड़ से कटे इन नेताओं को फिर मुँह की खानी होगी, क्योंकि असहिष्णुता (Intolerance) का अर्थ न भारत की जनता को मालूम है, और न मालूम करना चाहती है। जहां तक मेरी बात है, मैं तो आपात्काल की सहिष्णुता का मुरीद हूँ।

Friday, January 22, 2016

आत्महत्या दलित की या पिछड़े की

     यह हमारा ही देश है, जहाँ अन्तिम संस्कार करने के पहले मृतक की जाति पता की जाती है। हैदराबाद में एक छात्र ने आत्महत्या क्या की, जाति की राजनीति पूरे देश में गरमा गई। इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मीडिया ने छात्र को दलित बताकर धर्मयुद्ध छेड़ दिया। सारे नेताओं को अपनी-अपनी राजनीति चमकाने का एक स्वर्णिम अवसर प्राप्त हो गया। देश की सहिष्णुता खतरे में पड़ गई। जो साहित्यकार धार्मिक असहिष्णुता के नाम पर अपना पुरस्कार वापस नहीं कर पाए थे, वे आगे आ गए। एक ने तो बिना थिसिस लिखे प्राप्त पीएच. डी. की डिग्री भी वापस कर दी। तभी मीडिया ने खबर दी कि आत्महत्या करने वाला छात्र दलित नहीं, पिछड़े वर्ग का था। कोई और यह खुलासा करता, तो उसे आर.एस.एस. या स्मृति इरानी का एजेन्ट करार दिया जाता, लेकिन सहिष्णुओं के दुर्भाग्य से यह रहस्योद्घाटन, आत्महत्या करने वाले छात्र रोहित वेमुला के सगे पिता वेमुला मणि कुमार ने किया है। रोहित के पिता ने कुछ ऐसे रहस्य बताए हैं जिसके आधार पर अगर रोहित ज़िन्दा होता, तो उसपर धोखाधड़ी का आपराधिक मुकदमा चल सकता था।
रोहित के पिता ने शुक्रवार, दिनांक २२, जनवरी, २०१६ को हैदराबाद में मीडिया के सामने यह खुलासा किया है कि रोहित दलित नहीं था, बल्कि पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का था। उनके पुत्र ने कैसे अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र हासिल कर लिया, उन्हें ज्ञात नहीं। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी जाति ‘वड्डेरा’ आन्ध्र प्रदेश सरकार द्वारा अधिसूचित BC-A के अन्तर्गत पिछड़ी जाति में सम्मिलित है। रोहित के पिता के अनुसार दसवीं कक्षा तक रोहित का नाम मल्लिक चक्रवर्ती पंजीकृत था। उन्हें पता नहीं कि कब और क्यों उसका नाम मल्लिक से बदलकर रोहित कर दिया गया। गुंटुर जिले के गुरजाला गाँव के निवासी रोहित के पिता ने यह भी बताया कि पिछले आठ महीनों से रोहित से उनकी कोई बात नहीं हुई।उन्हें इसकी भी जानकारी नहीं थी कि उसे विश्वविद्यालय से निष्कासित किया गया था। उसकी माँ राधिका उर्फ़ बेबी अपने छोटे बेटे राजा चैतन्य के साथ उप्पल में रहती है। राजा चैतन्य के पास जो जाति प्रमाण पत्र है उसमें यह प्रमाणित किया गया है कि वह ओबीसी की श्रेणी में ही आता है। रोहित के पिता ने अपनी जाति को अनुसूचित जाति की श्रेणी में शामिल करने के प्रति अपनी अनिच्छा जाहिर की।
रोहित के पिता के खुलासे के बाद रोहित की सत्यनिष्ठा पर ही उँगली उठने लगी है। फ़र्ज़ी जाति प्रमाण-पत्र बनवाना, उसके आधार पर हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करना तथा वज़ीफ़े हासिल करना, विशुद्ध धोखाधड़ी है। यह एक आपराधिक मामला है जिसपर मुकदमा चलाया जा सकता है। यह मालूम करना अत्यन्त आवश्यक है कि इस फ़र्जीवाड़े में कौन-कौन शामिल थे और कितने लोगों ने अनुसूचित जाति का फ़र्ज़ी प्रमाण पत्र बनवाकर वास्तविक दलितों के अधिकार पर डाका डाला है।
अपने देश में किसी की हत्या या आत्महत्या के विरोध या सहानुभूति में आँसू बहाने की मात्रा और विधान भी निर्धारित है। अगर मृतक मुसलमान है तो दोनों आँखों से सावन-भादों की मुसलाधार बारिश की तरह आँसू बहाना अनिवार्य है; खुद भी बहाएं और अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी से भी आँसू बहवाने का हर संभव प्रयास करें। छोटा-बड़ा पुरस्कार लौटाना भी रुदाली का ही अंग है। पुरस्कार की राशि लौटाना आवश्यक नहीं। मुवावज़ा कम से कम पचास लाख। अगर मृतक दलित है, तो शीतकालीन बारिश की तरह ही आँसू बहाना आवश्यक होगा। बिना थिसिस लिखे प्राप्त की गई पीएच.डी. की डिग्री वापस करना ऐच्छिक होगा। मुवावज़ा कम से कम पच्चीस लाख।  अगर वह पिछड़े वर्ग से संबन्धित है, तो आँखें गीली करके समाचार चैनलों पर चर्चा में भाग लेने से भी काम चल जाएगा। पुरस्कार वापसी के बारे में सोचना भी पाप होगा। मुवावज़ा कम से कम पचास हजार। मृतक अगर सवर्ण श्रेणी का है, तो उसकी मृत्यु का समाचार टीवी चैनलों और समाचार पत्रों में प्रकाशित करना असंवैधानिक माना जाएगा। उसका संबन्ध आर.एस.एस., बजरंग दल, एबीवीपी, भाजपा या शिव सेना से जोड़ने का अथक प्रयास, महानतम पुण्य माना जाएगा। हत्या करने वाले या आत्महत्या के लिए उकसाने वाले को पुरस्कृत किया जाएगा।
रोहित के पिता के खुलासे के बाद केजरीवाल, राहुल, नीतीश, ममता, ओवैसी आदि सहिष्णुओं ने अचानक चुप्पी साध ली है। अब तो वे चाहकर भी बहाए गए अतिरिक्त आँसुओं को वापस  नहीं ले सकते। उनको भी ग्लानि हो रही होगी कि उन्होंने अपने आँसू उस व्यक्ति के लिए बहाए जिसने आतंकी याकूब मेमन का खुलकर समर्थन किया था और नाम बदलकर तथा फ़र्ज़ी जाति प्रमाण-पत्र बनाकर दलितों के अधिकारों और सुविधाओं पर खुली डकैती डाली थी। देखना है सरकार मुवावज़े की धनराशि २५ लाख रखती है या ५० हजार।

Monday, January 18, 2016

लोकतंत्र - वरदान या अभिशाप

        लोकतंत्र, सारे तंत्रों में सर्वश्रेष्ठ तंत्र माना जाता है। विश्व में राजतंत्र सबसे प्राचीन तंत्र है। आज भी इस आधुनिकता की आंधी के बावजूद विश्व के कई देशों में राजतंत्र विद्यमान है। अधिनायक तंत्र राजतंत्र का ही दूसरा रूप है। कभी-कभी अधिनायकवाद भी लोकतंत्र की ऊंगली पकड़ कर आता है। जर्मनी में हिटलर और भारत में आपात्काल के समय इन्दिरा गांधी इसकी जीती-जागती मिसाल हैं। कई देशों में एक व्यक्ति की तानाशाही है, तो कई में एक पार्टी की।
            हमारा अपना देश जहाँ उच्छृंखल लोकतंत्र का सबसे बड़ा उदाहरण है, तो वही पड़ोसी चीन एक पार्टी की  तानाशाही का। लेकिन जहाँ तक देश के कल्याण और विकास की बात है, इसमें कोई दो राय नहीं कि देश के कल्याण के लिए समर्पित एक पार्टी की सीमित तानाशाही उच्छृंखल लोकतंत्र से बेहतर है।
            भारत में लोकतंत्र के तरह-तरह के प्रयोग किए गए। ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्रपति -- सबके सब जनता द्वारा ही प्रत्यक्ष या परोक्ष पद्धति से चुने जाते हैं। इसका परिणाम यह निकला है कि एक ही क्षेत्र में एक ही आदमी के कई प्रतिनिधि फल-फूल रहे हैं। एक ही क्षेत्र का, ग्राम प्रधान भी प्रतिनिधित्व करता है, ग्राम सभा का सदस्य भी, ब्लाक सभा, जिला पंचायत का सदस्य और अध्यक्ष भी। विधान सभा, विधान परिषद, लोकसभा और राज्य सभा के सदस्य भी अलग से प्रतिनिधित्व करते हैं। शहरों मे मेयर, नगरपालिका अध्यक्ष, वार्ड कमिश्नर आदि अलग से लोकतांत्रिक प्रतिनिधि हैं। जनता की गाढ़ी कमाई के पैसों से इन्हें सरकार की तरफ से कोष भी उपलब्ध कराए जाते हैं -- विकास के नाम पर। इन कोषों से क्षेत्र का विकास कितना होता है और प्रतिनिधि का कितना -- यह किसी से छुपा नहीं है। हमारे प्रतिनिधियों ने अपने लिए पेंशन की भी व्यवस्था कर रखी है। वर्तमान संरचना में सरकारी या प्राइवेट सेक्टर में अब पेंशन की कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन कोई भी एमएलए या एमपी यदि एक साल भी सदन का सदस्य रह गया तो मरते दम तक पेंशन का हकदार बन जाता है। संसद या विधान सभा का सजीव प्रसारण देखकर लगता है जैसे हम मछली बाज़ार का सीधा प्रसारण देख रहे हों। सुप्रीम कोर्ट ने जानवरों के मल्लयुद्ध पर तो रोक लगा दी है, लेकिन संसद और विधान सभाओं में नित्य हो रहे मल्लयुद्ध पर अंकुश लगाने में वह भी बेबस है। भारत में लोकतंत्र मखौल बनता जा रहा है। इस देश में कोई पाकिस्तानी झंडा लहरा सकता है, तो कोई चीनी, कोई देश से अलग होने की बात कर सकता है, तो कोई तोड़ने की। कोई चार शादी कर सकता है, तो कोई कुँवारा ही मरने के लिए मज़बूर है। हर नेता वोट हासिल करने के लिए तुष्टिकरण की कोई भी सीमा लांघने के लिए स्वतंत्र है। यहाँ लोकतंत्र का असली मकसद रह गया है, सरकारी याने जनता के पैसों की खुली लूट का लाईसेंस। अपने देश की दुर्गति और पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है - हमारा उच्छृंखल लोकतंत्र ।
            कल्पना कीजिए कि चीन जैसे विशाल देश में अपने देश की तरह ही उच्छृंखल लोकतंत्र होता! क्या वह विश्व शक्ति बन पाता? क्या वह दुनिया की सबसे बड़ी आबादी को इतना उन्नत जीवन-स्तर प्रदान कर पाता? शायद कभी नहीं। वहाँ एक पार्टी की तानाशाही अवश्य है, लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि वह पार्टी देश हित के लिए समर्पित कर्यकर्ताओं और नेताओं की समर्पित पार्टी है। एक-दो बार भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाने पर वहाँ की सरकार ने मंत्रियों को भी फाँसी देने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। हमारे यहाँ जेल जाने के बाद भी लालू, राजा, जय ललिता ऐश कर रहे हैं।

             ऐ उच्छृंखल लोकतंत्र! कभी-कभी मेरे दिल में खयाल आता है कि जैसे तुझको बनाया गया है हमें लूटने के लिए। तू अबसे पहले अमेरिका में बस रहा था कहीं, तुझे इंडिया में बुलाया गया है, हमें ठगने के लिए।

Thursday, January 14, 2016

कांग्रेस की सहिष्णुता


एक पत्रिका है -- ‘कांग्रेस दर्शन’।  यह कांग्रेस की अधिकृत पत्रिका है और सही अर्थों में कांग्रेस के दर्शन को प्रदर्शित करती है। इसके संपादक हैं, मुंबई कांग्रेस के बड़बोले अध्यक्ष श्री संजय निरुपम। विगत २८ दिसंबर को कांग्रेस की स्थापना दिवस के अवसर पर प्रकाशित इस पत्रिका के मुख्य लेख ने तहलका मचा दिया और संपादकीय विभाग के संपादक की बलि ले ली । पत्रिका के मुख्य लेख में एक सच्चाई को अनावृत किया गया था, जिसे सारा हिन्दुस्तान जानता है, लेकिन कांग्रेसी, विशेष रूप से नेहरू खानदान के भक्त सार्वजनिक रूप से स्वीकार नहीं करते हैं। पत्रिका में दो रहस्योद्घाटन किए गए थे --
१, आज़ादी के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री बनाना देशहित में नहीं था। कांग्रेस का विशाल बहुमत पटेल को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में था, लेकिन गांधीजी के हस्तक्षेप और नेहरू का खुला समर्थन करने के कारण पटेल ने अपना नाम वापस ले लिया और नेहरू प्रधानमंत्री बन गए। लेख में नेहरू की विदेश नीति की जमकर आलोचना की गई है तथा कश्मीर की समस्या और १९६२ में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया गया है। 
२.  दूसरा रहस्योद्घाटन यह है कि सोनिया गांधी के पिता एक ‘फ़ासीवादी सैनिक’ थे। यह सत्य है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय सोनिया के पिता इटली के तानाशाह मुसोलिनी की सेना में थे और उन्होंने मित्र राष्ट्रों के खिलाफ़ युद्ध किया था। हिटलर और मुसोलिनी के पतन के बाद रूसी सेनाओं द्वारा वे गिरफ़्तार किए गए और रुस के जेल में रखे गए। उनके जेल में रहने के दौरान ही सोनिया गांधी का जन्म हुआ। परिवार की माली हालत बहुत ही खस्ता थी जिसके कारण अल्प वय में ही सोनिया को इंग्लैंड जाना पड़ा और वहा बार-बाला की असम्मानजनक नौकरी करके परिवार का भरण-पोषण करना पड़ा।
‘कांग्रेस दर्शन’ पत्रिका में प्रकाशित उपरोक्त तथ्यों को सारी दुनिया जानती है, लेकिन अपनी ही पत्रिका का मुखर होना हाई कमान को कैसे बर्दाश्त होता? पहले संपादकीय विभाग के संपादक की छुट्टी की गई और अब संजय निरुपम पर गाज़ गिरने वाली है। अखिल भारतीय कांग्रेस की अनुशासन समिति के अध्यक्ष श्रीमान ए.के. एंटोनी ने सोनिया गांधी की टेढ़ी भृकुटि के मद्देनज़र श्री संजय निरुपम को कारण बताओ नोटिस जारी की है। निरुपम जी की अध्यक्ष पद से विदाई तय है । निरुपम जी ने पहले ही सफाई दे दी है कि यद्यपि वे पत्रिका के मुख्य संपादक हैं, लेकिन उन्हें ऐसे लेख के छपने की जानकारी नहीं थी। यह कांग्रेसी कल्चर है। मुख्य संपादक मक्खनबाज़ी के काम में इतने मशगूल रहते हैं कि संपादक होने के बावजूद छपने के पूर्व लेखों को नहीं देखते हैं। यह मनमोहिनी संस्कृति है जो सोनिया के अध्यक्ष बनने के बाद दिन दूनी रात चौगुनी की गति से फल-फूल रही है। असहिष्णुता के नाम पर अपने ३५ दरबारी सहित्यकारो द्वारा पुरस्कार वापसी का ड्रामा कराने वाली कांग्रेस की सहिष्णुता का जीता-जागता उदाहरण भी है -  श्री श्री संजय निरुपम को थमाई गई कारण बताओ नोटिस।