Sunday, March 30, 2014

ज़िन्दगी की इमारत

मेरी ज़िन्दगी की इमारत -
पिलर पर नहीं, नींव पर बनी है।

बाबूजी बहुत डांटते थे
कभी-कभी थपड़ियाते भी थे।
दुखी हो जाता था
आंखों में आंसू भी आते थे
लेकिन आज सोचता हूं
उनकी डांट, झिड़कियां और चांटे
अनुशासन, शिक्षा और संस्कार की
नींव के पत्थर थे।

बड़का बाबूजी ने कभी डांटा नहीं
बाबूजी के हिस्से का प्यार
वही देते थे।
उन्होंने कभी एहसास होने नहीं दिया
कि बच्चे सिर्फ़ डांट के अधिकारी हैं।
नींव में उनके निर्मल प्यार का
सिमेन्ट-बालू आज भी है।

मां - मेरी प्यारी मां
क्या दुनिया में उससे अच्छी
कोई दूसरी मां हो सकती है?
शायद नहीं।
कभी कान भी उमेठा हो,
याद नहीं।
शरारतों का शहज़ादा मैं
क्षमा की मूर्ति वह।
छींक आने पर भी
गोद में समेट लेती थी।
उसकी धड़कन से
मेरा सीधा संवाद था।

बड़की माई का स्नेह
उम्र के साथ एहसास बढ़ता गया
डांटती भी थीं
पर स्नेह के साथ
आम लीची की चोरी पर
पड़ोस की ईया
जब गाली के साथ
शाप भी देती थीं,
आंखों में आंसू भर बड़की माई
सातों शावकों को बटोरकर
बार-बार समझाती थीं -
दूसरों के बगीचे से
क्यों तोड़ते हो आम-लीची,
अपने बगीचे में क्या कमी है?
मेरा मरा मुंह देखो
जो कल से ईया के बगीचे में जाओ।
क्या उनकी दी हुई कसम
हम चौबीस घण्टों से ज्यादा
याद रख पाये?

नींव पड़ी, दीवार बनी, छत पड़ा -
जीवन के उत्तरार्ध में
जब इमारत पर नज़र डालता हूं
कण-कण में
बाबूजी का अनुशासन
बड़का बाबूजी का प्यार
मां की ममता और
बड़की माई का स्नेह दीख पड़ता है।

इस चतुर्भुज को नमस्कार !
संयुक्त परिवार को नमस्कार !!
शत कोटि नमस्कार !!!

हृदय के अन्तस्तल से नमस्कार !!!!

Sunday, March 23, 2014

आडवानी की मृगतृष्णा

       महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच नहीं था। यह धृतराष्ट्र और पाण्डवों के बीच था। युद्ध के पहले भी धृतराष्ट्र ही हस्तिनापुर के राजा थे और युद्ध में अगर कौरवों की जीत हो जाती, तो वे ही राजा बने रहते। वनवास से लौटने के बाद इन्द्रप्रस्थ का राज्य युधिष्ठिर को वापस देने का वचन उन्होंने ही दिया था और उनके ही वचन-भंग का परिणाम महाभारत था। महाभारत के पूर्व भी उन्होंने कई कुटिल योजनायें बनाईं। पाण्डवों को लाक्षागृह में भेजकर जीवित जला देने की योजना उनके ही अनुमोदन के बाद बनी। भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण उनके ही सामने हुआ। वे आंखों से अंधे थे लेकिन अंधा होने का अर्थ यह कदापि नहीं था कि उनकी इच्छायें भी समाप्त हो गई थीं। वे दुर्योधन के माध्यम से सबकुछ देखना चाहते थे और अपनी सारी दबी हुई इच्छाओं की पूर्ति करना चाहते थे। वे इतने स्वार्थी थे कि अपने पुत्र को भी नहीं बक्शा। बड़ी चालाकी और सफ़ाई से उन्होंने अपने दुष्कृत्यों के लिये दुर्योधन को जिम्मेदार ठहराया। श्री मद्भागवद्गीता के अन्त में संजय ने युद्ध के परिणाम की भविष्यवाणी करते हुए यह स्पष्ट कर दिया था कि जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण और गाण्डीवधारी अर्जुन हैं, विजय वही होगी। अन्धे धृतराष्ट्र की आंखें फिर भी नहीं खुलीं। वे मृगतृष्णा के पीछे भागते रहे और युद्ध कराकर ही दम लिया। युद्ध के उपरान्त युधिष्ठिर सम्राट बने और वृद्ध धृतराष्ट्र को आजीवन जंगल में निवास करना पड़ा।

      सत्ता की मृगतृष्णा के पीछे बीजेपी के लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवानी भी धृतराष्ट्र बन गये हैं। बन्द आंखों से वे उन्हें सिर्फ़ प्रधानमंत्री की कुर्सी दिखाई पड़ती है। ईश्वर ने उन्हें लंबी उम्र दी है लेकिन यह उम्र आश्रम-व्यवस्था के अनुसार संन्यास ग्रहण करने की है। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से सोनिया जलें, राहुल जलें या केजरीवाल जलें, इसमें अस्वाभाविक कुछ भी नहीं। लेकिन आडवानी का जलना अनेक प्रश्नचिह्न खड़े करता है। मोदी का बीजेपी के चुनाव-अभियान का राष्ट्रीय संयोजक चुने जाने के तत्काल बाद आडवानी का कोप-भवन में जाना उनकी छोटी सोच का परिचायक था। नरेन्द्र मोदी को बीजेपी ने जब प्रधानमंत्री पद के लिये अपना उम्मीदवार घोषित किया, तो वे पुनः कोप-भवन में गये। अनुशासनहीनता की सारी सीमायें तोड़ते हुए उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को विरोध-पत्र लिखा और उसे भी राजनाथ सिंह को देने के पहले मीडिया को दे दिया। उनकी जगह किसी और ने यह कृत्य किया होता, तो पार्टी उसे कबका बाहर का रास्ता दिखा चुकी होती। लेकिन आगामी आम चुनाव में पार्टी की संभावनायें धूमिल न हों, इसलिये पाटी ने सख्ती नहीं बरती। लेकिन अब तो पानी सिर के उपर बह रहा है। आडवानी और उनकी चाण्डाल-चौकड़ी की हर संभव कोशिश हो रही है कि बीजेपी १६० क्लब में उलझी रहे। ऐसी स्थिति में नीतिश, ममता और नवीन पटनायक के समर्थन से प्रधानमंत्री की कुर्सी पा जाने का दिवास्वप्न आडवानी आज भी देख रहे हैं। लोकसभा के लिये गांधीनगर के बदले भोपाल की सीट का चुनाव करना इसी रणनीति का हिस्सा था। वे मतदाताओं और अपने समर्थकों को स्पष्ट संदेश देना चाहते थे कि मोदी उन्हें पसन्द नहीं हैं और मोदी पर उन्हें विश्वास भी नहीं है। मोदी उन्हें गांधीनगर से हरवा भी सकते हैं। बीजेपी के १६० क्लब के लिये यह उनका आखिरी प्रयास था। दिन-रात चुनाव प्रचार में व्यस्त नरेन्द्र मोदी के अभियान में बाधा डालना ही इसका उद्देश्य था। काफी मान-मनौवल के बाद पार्टी ने इस समस्या को सुलझा लिया, लेकिन मतदाताओं में यह संदेश भेजने में आडवानी सफल रहे कि पार्टी में सबकुछ ठीकठाक नहीं है। धृतराष्ट्र की दृष्टि रखने वाले आडवानी चुनाव के बाद भी किस महाभारत की योजना बनायेंगे, यह भविष्य के गर्भ में है। परन्तु इतना तो सत्य है ही कि उनके इन कृत्यों के कारण उनके समस्त पुण्य क्षीण हो चुके हैं। धृतराष्ट्र जन्मान्ध थे, आडवानी स्वार्थान्ध हैं। महाभारत के बाद धृतराष्ट्र को घनघोर जंगल में गुमनामी के दिन काटने पड़े। मृगतृष्णा के पीछे भाग रहे इक्कीसवीं सदी के धृतराष्ट्र के साथ भी ऐसा ही कुछ हो, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये।

Wednesday, March 19, 2014

शिशुपाल और केजरीवाल

         दिल्ली का मुख्यमन्त्री बनने के पहले अरविन्द केजरीवाल ने कांग्रेस और भ्रष्टाचार-विरोध का एक मुखौटा लगा रखा था जो समय के साथ-साथ तार-तार हो रहा है। कहते हैं कि इश्क और मुश्क छिपाए नहीं छुपते। केजरीवाल की हरकतें इस कहावत की सत्यता सिद्ध करती हैं। शक तो तभी होने लगा था, जब केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस ने बिना शर्त समर्थन दिया था। अब इस शक को साबित करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। केजरीवाल के अन्ध मोदी-विरोध ने शक की संभावना छोड़ी ही कहां है? 
महाभारत में एक पात्र है - शिशुपाल। वह श्रीकृष्ण का फ़ुफ़ेरा भाई था। वह कही से भी स्वयं को श्रीकृष्ण से कम नहीं समझता था। श्रीकृष्ण का अद्वितीय व्यक्तित्व उसकी ईर्ष्या का मुख्य कारण था। गुणों में तो वह श्रीकृष्ण का पासंग भी नहीं था लेकिन स्वयं को उनसे कम नहीं आंकता था। भक्ति करने के लिए तो प्रयास की आवश्यकता होती है लेकिन ईर्ष्या के लिये तो कुछ भी नहीं करना होता है। यह स्वभागत विकृति होती है जो दुष्ट-जनों में अत्यधिक मात्रा में पाई जाती है। शिशुपाल की यह ईर्ष्या सार्वजनिक रूप से सामने आई जब पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण का चुनाव प्रथम पूजन के लिए किया गया। यह चुनाव सर्वसम्मति से भीष्म पितामह की पहल पर किया था। पूरी सभा ने इसका अनुमोदन किया था। शिशुपाल को जब इसकी सूचना मिली, तो वह उग्र हो गया। अपनी असहमति और नाराज़गी को वह छिपा नहीं सका और यज्ञमंडप में ही उसने अशिष्टता प्रारंभ कर दी। उसने श्रीकृष्ण पर तरह-तरह के आरोप लगाते हुए गाली बकना शुरु कर दिया। पूरा यज्ञमंडप स्तब्ध था। युधिष्ठिर ने उसे रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन उसने उनकी बात नहीं मानी। उधर वह गाली दे रहा था, इधर श्रीकृष्ण मुस्कुराये जा रहे थे। अर्जुन से श्रीकृष्ण का यह अपमान सहन नहीं हुआ। वे शिशुपाल के वध के लिये आगे बढ़े लेकिन स्वयं श्रीकृष्ण ने उन्हें रोक दिया। अर्जुन को समझाते हुये उन्होंने शिशुपाल को सुनाते हुए कहा -
“अर्जुन! तुम तनिक भी चिन्ता मत करो। यह पापी अपने पापों के कारण स्वयं अपने अन्त को प्राप्त करेगा। यह मेरे प्रति घोर ईर्ष्या-भाव रखता है और प्रत्येक अवसर पर मेरा विरोध ही नहीं करता, मेरा अपमान भी करता है। इसकी माता इसके इस स्वभाव से परेशान रहती है। मैं तो इसका वध कबका कर चुका होता, परन्तु मैं स्वयं अपनी बुआ को दिये गए वचन के कारण विवश हूं। मैंने इसकी मां को वचन दिया है कि मैं इसके सौ अपराध क्षमा करूंगा। परन्तु जैसे ही इसके अपराधों की संख्या सौ के पार जायेगी, मैं तत्क्षण इसका वध कर दूंगा। संभवतः वह दिन आज आ गया है। मैं इसके अपराधों की गिनती कर रहा हूं। शीघ्र ही इसकी संख्या सौ पार करने वाली है। इसका अन्त निकट आ गया है। धैर्य रखो और देखते जाओ।”
श्रीकृष्ण का यह संदेश शिशुपाल और यज्ञमंडप में उपस्थित सभी राजाओं ने स्पष्ट सुना। श्रीकृष्ण का यह वचन शिशुपाल के लिए अन्तिम चेतावनी थी लेकिन उसने सुनकर भी अनसुना कर दिया और अपनी रफ़्तार से गाली बकता रहा। जैसे ही सौ गालियों की सीमा पार हुई उसकी गर्दन उसके धड़ से अलग थी। श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का अन्त कर दिया।
आज मैं सोचता हूं कि आखिर नरेन्द्र मोदी ने अरविन्द केजरीवाल का क्या बिगाड़ा है कि वे घूम-घूमकर, पानी पी-पीकर शिशुपाल की तरह गालियों की बौछार कर रहे हैं। पूरा देश मोदी की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है। गुजरात को विकास के शिखर पर पहुंचाने के कारण पूरी दुनिया उन्हें विकास पुरुष के रूप में जानती, पहचानती है। उनपर भ्रष्टाचार का कोई आरोप उनके धुर विरोधी शहज़ादा भी नहीं लगा सकते। अनुशासन और कर्त्तव्यनिष्ठा उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। सुशासन और सुप्रशासन उनके अमोघ अस्त्र हैं। वर्तमान परिवेश में उनका कोई विकल्प नहीं है। भारत की जो दुर्दशा पिछले १० वर्षों में हुई है उसके लिए वे कही से भी जिम्मेदार नहीं हैं। फिर क्या कारण है कि अरविन्द केजरीवाल कांग्रेस और सोनिया गांधी को छोड़कर नरेन्द्र मोदी के पीछे पड़े हुए हैं। अभी तक तो वे मल्लिका-ए-हिन्दुस्तान सोनिया और अमेरिकी कुबेर फ़ोर्ड के ही एजेन्ट के रूप में जाने जाते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि वे शिशुपाल के कलियुगी अवतार हैं। 

Sunday, March 9, 2014

केजरीवाल पहेली

वो कौन है, वो कौन है --
जो झूठ बोले है,
झूठ है ओढ़न, झूठ बिछावन,
झूठ खाए है --
बोलो-बोलो कौन ?
सिब्बल ?
नहीं।
सिंघवी ?
नहीं।
दिग्गी ?
दिग्गी नहीं किज्जी।

वो कौन है, वो कौन है --
जो खुद डर जाता है,
जिम्मेदारी लेकर भी,
जो भाग जाता है।
बोलो-बोलो कौन ?
राहुल ?
नहीं ।
सोनिया?
उहूं।
खुर्शीद  ?
खुर्शीद नहीं अरविन्द।

वो कौन है, वो कौन है --
जो गाली देता है,
गुरु-गोविन्द दोनों को
जो धोखा देता है --
बोलो-बोलो कौन ?
वीपी ?
नहीं ।
लालू ?
उहूं ।
सान्याल ?
सान्याल नहीं केजरीवाल ।

वो कौन है, वो कौन है --
जो ड्रामा करता है,
है विदूषक हीरो का पर,
ख्वाब रखता है ।
बोलो-बोलो कौन ?
महमूद ?
नहीं ।
जानी वाकर ?
नहीं ।
मुकरी ?
मुकरी नहीं कजरी ।

वो कौन है, वो कौन है --
जो भभकी देता है,
देवालय में जाकर भी
जो थूक देता है ।
बोलो-बोलो कौन ?
कुक्कूर ?
नहीं।
गीदड़ ?
उहूं ।
शृगाल ?
शृगाल नहीं केजरीवाल ।

वो कौन है, वो कौन है --
जो सीख देवे है,
खुद ही फेंके पत्थर
औ’ आरोप लगावे है।
बूझो-बूझो कौन ?
पड़ोसी ?
नहीं ।
दुश्मन ?
नहीं ।
बाप ?

बाप नहीं आप ।