Thursday, April 20, 2023

जीवन

 

जीवन का दॄष्टिकोण

महा‌न्‌वैज्ञानिक आइन्स्टीन दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक माने जाते हैं। उनकी पत्नी मिलेवा मैरिक भी वैज्ञानिक थीं। उन्होंने कई शोध कार्यों में आइन्स्टीन का सक्रिय सहयोग किया था। शोध में वाद-विवाद भी होता है जो आइन्स्टीन को पसन्द नहीं था। इसलिए मिलेवा ने अपनी दिशा बदल ली। वह साहित्य और कविता में रुचि लेने लगी। एक दिन आइन्स्टीन ने उसकी एक कविता सुनी जिसमें उसने नायिका के मुखमंडल की तुलना पूर्णिमा के चाँद से की थी। आइन्स्टीन ने उसका उपहास उड़ाते हुए कहा कि अब जबकि चाँद की सतह की वास्तविक तस्वीरें हमतक पहुँच गई हैं और यह सिद्ध हो चुका है कि चाँद की सतह उबड़-खाबड़ है, तुम अभी भी एक सुंदर युवती के मुखमंडल की तुलना चाँद से कर रही हो। मिलेवा ने उत्तर दिया कि तुम्हें कविता समझ में नहीं आ सकती। तुम दुनिया को Theory of relativity समझा सको, यही बहुत है। उस समय तक वैज्ञानिकों ने Theory off relativity को मान्यता नहीं दी थी।

आइन्स्टीन और मिलेवा दोनों सही थे। दोनों की व्याख्यायें स्वयं द्वारा स्वीकृत जीवन के दृष्टिकोण पर आधारित थीं। जीवन के दो दृष्टिकोण होते हैं -- पहला 2+2=4. इसका अर्थ है - जो आंखें देख रही हैं वही सत्य है। इस दृष्टिकोण वाले व्यक्ति वैज्ञानिक और गणितज्ञ बनते हैं। दूसरा दृष्टिकोण कल्पना और प्रतीकों पर आधारित है। ऐसे दृष्टिकोण वाले व्यक्ति कवि और साहित्यकार बनते हैं। आदिकवि बाल्मीकि, महर्षि व्यास, कालिदास, शेक्सपियर, तुलसीदास आदि इस दृष्टिकोण की विभूतियाँ थीं। भारत का संपूर्ण साहित्य, इतिहास और दर्शन प्रतीकों के रूप में है। रामचरित मानस के सुंदरकांड में वर्णन है कि समुद्र लांघने के क्रम में हनुमान जी को सुरसा ने बाधा पहुँचाई। वह हनुमानजी को निगलने के लिये उनके सम्मुख आई और अपने मुख का विस्तार किया। वर्णन है -- सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। २+२=४ माननेवाले इसे असंभव मानते हैं और इस आधार पर पूरी रामकथा को ही मिथ्या करार देते हैं। आइन्स्टीन की तरह वे प्रतीकों को समझने में असमर्थ हैं। एक योजन को अगर एक कोस भी मान लें तो भी इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी जीव अपने मुँह का विस्तार सौ कोस तक नहीं कर सकता। यहाँ कवि ने प्रतीक का सहारा लिया है। उनके कहने का अर्थ इतना ही है कि सुरसा ने हनुमानजी को निगलने के लिये अपने मुख का विस्तार इतना बड़ा कर दिया जो असंभव-सा दीख रहा था। बंकिम चन्द ने वन्दे मातरम राष्ट्रगीत में भारत माता की कल्पना माँ दुर्गा के रूप में की है। आज भी करोड़ों लोग वन्दे मातरम्‌गाते समय भारत को माँ दुर्गा के रूप में ही देखते हैं। हिमालय से कन्या कुमारी तक माइक्रोस्कोप लेकर ढूँढ लीजिए, कहीं भी आपको ऐसी भारत माता नहीं मिलेंगी। बंकिम चन्द ने प्रतीकों के माध्यम से भारत माता का चित्र बनाया है जिसमें उन्होंने लेखनी रूपी ब्रश से श्रद्धा, भक्ति और अटूट देशभक्ति का रंग भरा है। २+२=४ वालों को यह बात समझ में नहीं आ सकती है।

मेरे एक मित्र हैं -श्री विजय सिंघल। वे कंप्यूटर के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने कंप्यूटर पर ५० से अधिक पुस्तकें लिखी हैं। आजकल वे फ़ेसबुक पर बाल्मीकि रामायण के श्लोकों की व्याख्या कर रहे हैं। कंप्यूटर का जानकार भी २+२=४ की थ्योरी में विश्वास करता है। इस सिद्धान्त को ध्यान में रखकर अपने प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्या नहीं की जा सकती। यह ठीक वैसा ही होगा जैसे राम नवमी को प्रभु श्रीराम का जन्मदिन मानने के लिये कोई श्रीराम का जन्म प्रमाण पत्र दिखाने की मांग करे। सिंहलजी के सिद्धान्त पर बाल्मीकि रामायण का जो भी श्लोक खरा नहीं उतरता उसे वे प्रक्षिप्त घोषित कर देते हैं। अबतक वे ५० प्रतिशत श्लोकों को प्रक्षिप्त घोषित कर चुके हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमें बाल्मीकि रामायण का जो रूप प्राप्त है वह श्रुति और स्मृति के माध्यम से विरासत में प्राप्त हुआ है जिसमें प्रक्षिप्त अंश होना अस्वभाविक नहीं है। विद्वानों ने बाल्मीकि रामायण के पूरे उत्तर कांड और बालकांड के कुछ श्लोकों को ही प्रक्षिप्त माना है। इस आधार पर बाल्मीकि रामायण के ५० प्रतिशत से अधिक भाग को प्रक्षिप्त घोषित करना आदि कवि के साथ न सिर्फ अन्याय होगा बल्कि पाप भी होगा। हमें कोई अधिकार नहीं कि हम एक पवित्र और अद्वितीय कृति को अपनी व्यक्तिगत धारणा के आधार पर विवादास्पद और प्रक्षिप्त सिद्ध करें। २+२=४ की मानसिकता वाले तथाकथित विद्वान हमारे प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्या न करें तो हम उनके आभारी रहेंगे।

२+२ भी ४ के बराबर होता है, यह भी सत्य नहीं है। २+२, चार के सबसे ज्यादा करीब होता है। यह ३.९९९९९९९९९९९ भी हो सकता है और ४.०००००००००००००१ भी हो सकता है। इस विषय पर चर्चा फिर कभी।

 

समलैंगिक विवाह और सुप्रीम कोर्ट

 समलैंगिक विवाह और सुप्रीम कोर्ट

विभिन्न मत मतान्तरों के बावजूद भी दुनिया के सभी धर्म इस बात पर एकमत हैं कि इस ब्रह्मांड में एक सर्वशक्तिमान ईश्वर है, भले ही उसे किसी नाम से पुकारा जाय।इसी तरह दुनिया के सारे समुदायों  और धर्मों ने सृष्टि  को एक व्यस्थित ढंग से चलाने के लिये विवाह संस्था को मान्यता दी है। इसमें ध्यान देने की बात है कि विवाह सिर्फ पुरुष और स्त्री का ही हो सकता है क्योंकि सृष्टि चलाने के लिए यह अनिवार्य शर्त है। बिना विवाह के भी स्त्री-पुरुष के मिलन से सृष्टि चल सकती है लेकिन वह व्यवस्था  अराजक और आने वाली पीढ़ी के लिए विनाशक होगी। यही कारण है कि दुनिया के प्रत्येक भाग में विवाह संस्था को मान्यता दी गई है। सनातन धर्म में तो इसे जन्म जन्मान्तर का बंधन कहा गया है। हिन्दू विवाह पद्धति में कन्यादान के समय अपनी कन्या का हाथ वर के हाथ में देते हुए पिता यह मंत्र दुहराता है -- अहं सन्तानोत्पन्नार्थ त्वाम्‌ माम कन्या समर्पये। अर्थ है मैं तुम्हें सन्तान उत्पन्न करने के लिये अपनी कन्या समर्पित करता हूँ। विवाह कोई मौज-मस्ती का खेल नहीं है बल्कि परम पिता की सृष्टि को आगे बढ़ाने का एक परम पवित्र संस्कार है। पता नहीं यह छोटी सी बात सुप्रीम कोर्ट के तथाकथित विद्वान्‌ न्यायाधीशों की समझ में क्यों नहीं आ रही। उन्होंने हमारी सनातन परंपरा और मूल्यों को ध्वस्त करने की जैसे सौगंध ले रखी है। इस वाद के पहले सुप्रीम कोर्ट ने समलैगिक संबन्धों और बिना विवाह के Live in relation को मान्यता प्रदान कर रखी है जिसके परिणामस्वरूप लड़कियों के शरीर का उपयोग करके उसके शरीर को टुकड़े-टुकड़े करके चील-कौवों को खिलाने की घटनाएं सामने आ चुकी हैं। पता नहीं अधार्मिक, अप्राकृतिक और अनैतिक संबन्धों को वैधता प्रदान करने में सुप्रीम कोर्ट को कौन सा आनन्द आ रहा है।

इस समय समलैंगिक  विवाह को वैधता प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में नियमित बहस चल  रही है। भारत सरकार के सालिसिटर जनरल श्री तुषार मेहता से मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चन्द्रचूड़ स्वयं बहस कर रहे हैं। उनके तर्कों को पढ़ने-सुनने के बाद ऐसा लग रहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को मान्यता देने का पहले ही मन बना रखा है। ज्ञात हो कि जस्टिस चन्द्रचूड़ के एक मित्र के बेटे ने जो दिल्ली का एक बहुत बड़ा वकील है, समलैंगिक विवाह कर रखा है और सुप्रीम कोर्ट की कालेजियम ने उसका नाम अपनी अनुशंसा के साथ सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने के लिए सरकार के पास भेज रखा है। सरकार ने उसका नाम वापस कर दिया है। कोर्ट समलैंगिक विवाह को वैध घोषित कर अपनी खुन्नस निकाल सकता है। अगर ऐसा होता है तो यह भारत और  सनातन धर्म के लिये अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण होगा।

Sunday, September 11, 2022

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

 

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

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            यज्ञशाला में उपस्थित सभी ब्राह्मण अष्टावक्र की आकृति देख जोर से हँसे, परन्तु अष्टावक्र ने उधर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। शास्त्रार्थ आरंभ करने का प्रथम अवसर बन्दी को दिया गया -- विषय था -- अंकशास्त्र। बन्दी ने कहा --

            "अष्टावक्र! क्या यह सत्य नहीं है कि यह सृष्टि एक से संचालित होती है। एक ही अग्नि अनेक प्रकार से प्रकाशित होती है, एक सूर्य सारे जगत्‌ को प्रकाशित करता है, शत्रुओं को नाश करनेवाला देवराज इन्द्र एक ही वीर है तथा पितरों का ईश्वर यमराज भी एक ही है।”

            अष्टावक्र ने तत्क्षण कहा --

            "विद्वन्‌! आपके कथन से दो की महत्ता कम नहीं होती। इन्द्र और अग्नि -- ये दो देवता हैं, नारद और पर्वत -- ये देवर्षि भी दो हैं, दो ही अश्विनी कुमार हैं, रथ के पहिये भी दो होते हैं और विधाता ने पति और पत्नी -- ये सहचर भी दो बनाये हैं।”

            बन्दी ने अगला प्रश्न किया --

            "यह संपूर्ण प्रजा कर्मवश तीन प्रकार के जन्म धारण करती है, सभी कर्मों का प्रतिपादन भी तीन वेद ही करते हैं, अध्वर्युजन भी प्रातः, मध्याह्न, और सायं -- इन तीनों समय यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं, कर्मानुसार भोगों को  प्राप्त करने के लिये स्वर्ग, मृत्यु और नरक -- ये तीन लोक भी तीन ही हैं तथा वेदों में कर्मजन्य ज्योतियाँ भी तीन ही हैं।“

            अष्टावक्र ने चार अंक की महत्ता बताई --

            "मनुष्यों के लिये आश्रम चार हैं, वर्ण भी चार हैं, ऊँकार के अकार, उकार, मकार और अर्द्धमात्रा -- ये चार ही वर्ण हैं तथा परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी भेद से वाणी भी चार ही प्रकार की मानी गई है।“

            बन्दी ने अगला प्रश्न किया --

            "यज्ञ की अग्नियाँ -- गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सभ्य और आवसथ्व -- पाँच हैं, पंक्ति छन्द भी पाँच पदोंवाला है, यज्ञ भी -- अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास, चातुर्मास्य और सोम -- पाँच ही प्रकार के हैं तथा संसार में पवित्र नद भी पाँच ही प्रसिद्ध हैं।“

            अष्टावक्र बोले --

            "वेदों में इस प्रकार वर्णन है कि अग्नि का आधान करते समय दक्षिणा में गौएँ छः ही देनी चाहिये, कालचक्र में ऋतुएँ भी छः ही रहती हैं, मनसहित ज्ञानेन्द्रियाँ भी छः ही हैं, कृत्तिकाएँ छः हैं तथा समस्त वेदों में साधक यज्ञ भी छः ही कहे गए हैं।“

            बन्दी -- "ग्राम्य पशु सात हैं, वन्य पशु भी सात हैं, यज्ञ को पूर्ण करनेवाले छन्द भी सात  हैं और वीणा के तार भी सात ही प्रसिद्ध हैं।“

            अष्टावक्र -- "सैकड़ों वस्तुओं का तौल करनेवाले शाण (तोल) के गुण आठ होते हैं, सिंह का नाश करनेवाले शरभ के चरण भी आठ होते हैं, देवताओं में वसु नामक देवताओं को भी आठ ही सुना है और सभी यज्ञों में यज्ञस्तंभ के कोण भी आठ ही कहे गये हैं।“

            बन्दी -- "पितृयज्ञ में समिधा छोड़ने के मंत्र नौ कहे गये हैं, सृष्टि में प्रकृति के विभाग भी नौ ही किये गये हैं, बृहती छन्द के अक्षर भी नौ ही हैं और जिनसे अनेकों प्रकार की संख्याएँ उत्पन्न होती हैं ऐसे एक से लेकर अंक भी नौ ही हैं।“

            अष्टावक्र -- "संसार में दिशाएँ दस हैं, सहस्र की संख्या भी सौ को दस बार गिनने से होती है, गर्भवती स्त्री भी गर्भधारण  दस मास ही करती है, तत्त्व का उपदेश करनेवाले भी दस हैं तथा पूजन योग्य भी दस ही हैं।“

            बन्दी -- "पशुओं के शरीर में ग्यारह विकारोंवाली इन्द्रियाँ ग्यारह होती हैं, यज्ञ के स्तंभ ग्यारह होते हैं, प्राणियों के विकार भी ग्यारह हैं तथा देवताओं में रुद्र भी ग्यारह ही कहे गये हैं।“

            अष्टावक्र -- "एक वर्ष में महीने बारह होते हैं, जगती छन्द के चरणों में भी बारह ही अक्षर होते हैं, प्राकृत यज्ञ बारह दिन का ही कहा गया है और धीर पुरुषों ने आदित्य भी बारह ही कहे हैं।“

                --शेष अगले समापन अंक में

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

 

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

                                                                        --२--

 

            मिथिला में राजा जनक अपने मुख्य पुरोहित बन्दी की देखरेख में ‘समृद्धि संपन्न यज्ञ’ कर रहे थे। अष्टावक्र अपने मामा के साथ राज महल के द्वार पर पहुँचे और द्वारपाल को राजा से मिलने की अपनी इच्छा से अवगत कराया। द्वारपाल ने प्रणाम करते हुए कहा --

            "हे ऋषिवर! राजाज्ञा के अनुसार हर किसी को यज्ञशाला में प्रवेश की अनुमति नहीं है। उसमें केवल वृद्ध और विद्वान्‌ ब्राह्मण ही प्रवेश पा सकते हैं।“

            अष्टावक्र ने द्वारपाल को समझाते हुए कहा --

            "द्वारपाल! मनुष्य अधिक उम्र या बाल पक जाने से वृद्ध या परिपक्व नहीं हो जाता। ब्राह्मणों में वही बड़ा माना जाता है जो वेदों का सच्चा ज्ञाता हो -- ऐसा ऋषि-मुनियों का मत है। मैं राजपुरोहित बन्दी से शास्त्रार्थ करने के  लिये लंबी यात्रा करके आया हूँ। तुम महाराज को यह सूचना दे दो।“

            अष्टावक्र के उत्तर से प्रभावित हो, द्वारपाल उन्हें राजा के पास ले गया। राजा जनक द्वारा आगमन का प्रयोजन पूछे जाने पर अष्टावक्र ने कहा --

            "राजन्‌! आप एक धर्मपारायण, कर्त्तव्यनिष्ठ और चक्रवर्ती सम्राट हैं। आपकी सहमति से आपके राजपुरोहित बन्दी ने यह कैसा नियम बना रखा है कि जो भी विद्वान्‌ उससे शास्त्रार्थ में पराजित हो जायेगा, उसे जल में डुबो दिया जायेगा? मैं उससे शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करना चाहता हूँ। आप अनुमति प्रदान करें।"

            राजा आठों अंगों से टेढ़े अष्टावक्र को देखकर विस्मित हुए परन्तु उनकी वाणी के ओज से प्रभावित भी हुए। उन्होंने पहले स्वयं परीक्षा लेने का निर्णय लिया और पूछा --

            "ब्रह्मन्‌! जो पुरुष तीस अवयव, बारह अंश, चौबीस पर्व और तीन सौ साठ अरों वाले पदार्थ को जानता है, वह बड़ा विद्वान्‌ है?"

            अष्टावक्र ने उत्तर दिया --

            "राजन्‌! जिसमें पक्षरूप में चौबीस पर्व, ऋतुरूप छः नाभि, मासरूप बारह अंश और दिनरूप तीन सौ साठ अरे हैं, वह निरन्तर घूमनेवाला संवत्सररूप कालचक्र आपकी रक्षा करे।"

            अष्टावक्र के उत्तर से प्रभावित राजा ने दूसरा प्रश्न किया --

            "सोने के समय कौन नेत्र नहीं मूँदता? जन्म लेने के बाद किसमें गति नहीं होती? हृदय किस में नहीं होता और वेग से कौन बढ़ता है?

            अष्टावक्र ने उत्तर दिया --

            "मछली सोने के समय नेत्र नहीं मूँदती, अंडा उत्पन्न होने पर भी चेष्टा नहीं करता, पत्थर में हृदय नहीं होता और नदी वेग से बहती है।"

            आश्चर्य से राजा जनक की आँखें फटी की फटी रह गईं। वे अष्टावक्र की विद्वता का लोहा मान गये। उन्होंने बन्दी से शास्त्रार्थ की अनुमति प्रदान कर दी। यज्ञशाला में बन्दी और अष्टावक्र के बीच शास्त्रार्थ आरंभ हुआ। निर्णायक स्वयं राजा जनक थे।

            --- शेष अगले अंक में

 

अष्टावक्र -- अद्भुत ज्ञानी

अद्वितीय ज्ञानी अष्टावक्र

                                    विपिन किशोर सिन्हा

                                                                                    --१--

            रूप और सौन्दर्य मनुष्य का वाह्य आवरण होता है तथा ज्ञान उसका आन्तरिक अलंकार। महान्‌ ज्ञानी ऋषि अष्टावक्र आन्तरिक अलंकार से युक्त एक अद्भुत विद्वान्‌ थे। वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता महर्षि उद्दालक उनके नाना थे और उद्भट विद्वान्‌ श्वेतकेतु उनके मामा। अपने पिता के आश्रम में रहते हुए महर्षि श्वेतकेतु को मानवी के रूप में साक्षात्‌ देवी सरस्वती के दर्शन हुए थे। महर्षि अष्टावक्र ने नाना उद्दालक और मामा श्वेतकेतु से ही सारी विद्यायें और सारा ज्ञान प्राप्त किया था।

            महर्षि उद्दालक के आश्रम में कहोड नाम का एक ब्राह्मण शिक्षा प्राप्त कर रहा था। वह अत्यन्त मेधावी, परिश्रमी, अनुशासनप्रिय और गुरुभक्त था। उसने अल्प काल में ही अपने गुरु से वेद-वेदान्तों की शिक्षा प्राप्त कर ली। वह महर्षि उद्दालक का प्रिय शिष्य बन गया। महर्षि ने उसे हर दृष्टि से योग्य पाकर अपनी कन्या सुजाता का ब्याह उससे कर दिया। कहोड सर्वगुण संपन्न था, परन्तु अहंकार पर विजय प्राप्त नहीं कर पाया था।

            उचित समय पर सुजाता गर्भवती हुई। उसका गर्भ अग्नि के समान तेजस्वी था। एक दिन उसके पति ऋषि कहोड आश्रम में अपने शिष्यों को वेदपाठ करा रहे थे। पत्नी सुजाता भी पास में ही बैठी थी। वह अपने पुत्र को गर्भ में ही ज्ञानी बनाने के लिये संकल्पबद्ध थी। महर्षि कहोड स्वयं भी वेदपाठ कर रहे थे। गर्भ में सुन रहा अष्टावक्र बोल पड़ा --

            "पिताजी! आप सदैव वेदपाठ करते हैं, परन्तु आपका उच्चारण अशुद्ध होता है।“

            सभी शिष्यों के समक्ष गर्भस्थ शिशु की यह उक्ति सुन गुरु कहोड का अहंकार आहत हो गया। वे क्रोध से उबल पड़े और अपने ही गर्भस्थ शिशु को शाप दे डाला --

                        "तू गर्भ में रहकर भी टेढ़ी-मेढ़ी बात करता है। जैसी तेरी बातें हैं, तेरे अंग भी वैसे ही हो जायेंगे। तेरे अंग आठ स्थान से टेढ़े होंगे और तेरा नाम अष्टावक्र होगा।“

            ऋषि की वाणी सत्य सिद्ध हुई। सुजाता ने जिस शिशु को जन्म दिया, वह आठों अंगों से टेढ़ा था। नामकरण तो पहले ही हो चुका था -- अष्टावक्र

            राजा जनक मिथिला के राजा थे। उनके दरबार में बन्दी नाम का एक उद्भट ज्ञानी एवं तर्कशास्त्री विद्वान्‌ रहता था। वह उनका मुख्य पुरोहित था एवं उनक विशेष कृपापात्र था। उसे अपने ज्ञान का अत्यधिक अहंकार था। वह स्वयं को पृथ्वी का सबसे बड़ा ज्ञानी और तर्कशास्त्री मानता था। कोई भी विद्वान्‌ शास्त्रार्थ में उसके सामने ठहर नहीं पाता था। अपनी लगातार सफलता से उत्साहित होकर उसने एक राजाज्ञा पारित करा दी थी कि इस पृथ्वी का जो भी विद्वान्‌ शास्त्रार्थ में उसे पराजित कर देगा, उसे मनोवांछित धन प्रदान किया जायेगा और पराजित होने की दशा में बन्दी जल समाधि ले लेगा। परन्तु चुनौती देनेवाला विद्वान्‌ अगर बन्दी से पराजित होगा, तो उसे अनिवार्य रूप से जल समाधि लेनी पड़ेगी। अनेक विद्वान्‌ धन के लोभ में मिथिला आये और बन्दी से शास्त्रार्थ में पराजित होने के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए।

            अष्टावक्र के जन्म के बाद परिवार चलाने के लिये अतिरिक्त धन की आवश्यकता थी। ऋषि कहोड को अपने ज्ञान और अपनी विद्वता पर अत्यधिक अभिमान और विश्वास था। उन्होंने बन्दी को हराकर धनप्राप्ति का निर्णय लिया। महर्षि उद्दालक और सुजाता उहें रोकते रहे, परन्तु वे मिथिला के  लिये चल  पड़े। मिथिला पहुँचकर उन्होंने बन्दी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। शास्त्रार्थ कई दिनों तक चला, परन्तु अन्तिम विजय बन्दी को ही मिली। ऋषि कहोड को जल समाधि लेनी पड़ी।

            अष्टावक्र जब बारह वर्ष के थे, तो उहें यह कहानी ज्ञात हुई। उहोंने बाल्यकाल में ही अपने नाना उद्दालक और मामा श्वेतकेतु के सान्निध्य में वेद-वेदांगों का सांगोपांग अध्ययन पूरा कर लिया था। उनकी तर्कशक्ति अद्भुत थी। वे अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये विकल थे। एक दिन उन्होंने अपने पूज्य नाना और पूज्या माता से अनुमति प्राप्त कर मामा श्वेतकेतु के साथ मिथिला के लिये प्रस्थान कर ही दिया।

        -- शेष अगले अंक में


Saturday, June 18, 2022

मुसलमानों से अपील

          स्पेन यूरोप का एक समृद्ध् रोमन कैथोलिक देश था। था तो यह एक प्रायद्वीप लेकिन इसकी दक्षिणी सीमा के पास ही उत्तरी अफ़्रिका था, जो उस समय तक पूरी तरह एक इस्लामी साम्राज्य बन चुका था। सन्‌ ७११ में उत्तरी अफ़्रिका के मुस्लिम शासक ने स्पेन पर, जिसे उस समय आइबेरियन प्रायद्वीप कहा जाता था, पर इस्लाम की विस्तारवादी नीतियों के तहत आक्रमण कर दिया।आज का पुर्तगाल भी उस समय आइबेरियन प्रायद्वीप का हिस्सा था। सात साल तक चले लंबे युद्ध के बाद मुस्लिम शासकों ने स्पेन पर कब्ज़ा कर लिया। स्पेन के मूल निवासी ईसाई थे और कुछ संख्या यहुदियों की भी थी। मुस्लिम शासन के दौरान दोनों समुदायों के मतावलंबी दोयम दर्ज़े के नागरिक बन गए। उनकी धन-संपत्ति और औरतों पर मुसलमानों ने जबरन अधिकार करना शुरु कर दिया। स्पेन की औरतें बहुत सुंदर होती हैं। उन्हें पाने के लिए मुसलमानों ने चार-चार शादियाँ आरंभ कर दी। गैर मुस्लिम जनता भय से ग्रस्त और त्रस्त थी। अपनी माँ-बहन-बेटियों और जान-माल की रक्षा के लिए अधिकांश आबादी ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। उनके पुराने चर्च और ऐतिहासिक स्मारक तोड़ दिए गए और उनके स्थान पर मस्ज़िदों का निर्माण कराया गया। इन सारी घटनाओं के कारण धर्म परिवर्तन के बाद भी स्पेनवासियों के हृदय में विद्रोह की आग सुलगती रही। जब सारा स्पेन इस्लाम स्वीकार कर रहा था, तभी कुछ देशभक्त और स्वाभिमानी ईसाइयों ने स्पेन के उत्तरी भाग में, जो दुर्गम पहाड़ियों से घिरा है, शरण ली और भारत के महाराणा प्रताप की तरह सदियों तक युद्ध करते रहे। उनका संपर्क स्पेन के मुख्य भाग के नागरिकों से निरन्तर बना रहा। जब-जब स्पेन के प्राचीन धरोहरों, चर्चों और धार्मिक प्रतीकों को नष्ट करके मस्ज़िदें बनाई जाती थीं, स्पेन का स्वाभिमान आहत होता था, जो सन्‌ १४९२ में खुले विद्रोह के रूप में सामने आया और सन्‌ १५०२ में इसका परिणाम स्पेन से इस्लाम की विदाई के रूप में फलित हुआ स्पेनवासियों ने अपना पुराना ईसाई धर्म पुनः अपना लिया और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्वयं को स्थापित किया। आज वहाँ ईसाइयों की आबादी ९७% है।

                        भारत में इस्लाम की कहानी स्पेन से मिलती-जुलती है। यहाँ के मुसलमान भी मूलतः हिन्दू हैं। श्रीराम, श्रीकृष्ण और श्री शंकर उनके भी पूर्वज हैं। उनके पूर्वजों के पवित्र धर्मस्थलों को नष्ट कर उनके स्थान पर बनाई गईं मस्ज़िदों को देखकर उनक स्वाभिमान भी आहत होना चाहिए, उन्हें भी वेदना होनी चाहिए।

                        भारत के मुसलमानो! जागो। इतिहास और सत्य को स्वीकार करो। अपनी खोई हुई पहचान प्राप्त करो। अपनी जड़ों की ओर लौट आओ जो गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी, कावेरी आदि पवित्र नदियों के जल से सिंचित होती हैं। भारत माता तुम्हारी भी माँ हैं। इनकी चरणों में बैठकर अपने पूर्वजों का ध्यान करो। उज्ज्वल भविष्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। समय और अवसर बार-बार नहीं आते। इसका उपयोग करो। हिन्दुस्तान ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्ला देश भी तुम्हारा है।

                                                वन्दे मातरम्‌ ! !

कम्युनिज़्म और इस्लाम

         एक समय था, जब कम्युनिज़्म ने विश्व के एक बड़े भूभाग पर आधिपत्य जमा रखा था। सोवियत रुस के नेतृत्व में इस विचारधारा ने पूर्वी यूरोप, एशिया और अमेरिका के कई देशों में अपनी सरकारें बना ली थी। इस विचारधारा का प्रसार वैचारिक आदान-प्रदान से कम और बन्दूक की नोक पर अधिक हुआ था। इसको माननेवाले कार्ल मार्क्स को अपना मसीहा और लाल किताब को अपना धर्मग्रन्थ मानते थे। वे लोग वैचारिक मतभेद रखनेवाले दूसरे लोगों को बर्दाश्त नहीं करते थे। कम्युनिज़्म के नाम पर लाखों हत्यायें हुईं। चूंकि यह विचारधारा मानव के मूल स्वभाव और मानवता के प्रतिकूल थी, इसलिये सोवियत संघ के बिखराव के बाद विश्व से लुप्तप्राय हो गई।

कम्युनिज़्म की तरह ही इस्लाम भी सत्ता-प्राप्ति के लिये एक राजनीतिक अभियान है। कम्युनिस्ट कहते थे -- दुनिया के मज़दूरो! एक हो जाओ और पूरे विश्व में कम्युनिज़्म को स्थापित कर दो। इसी तर्ज़ पर इस्लाम के अनुयायी कहते हैं -- दुनिया के मुसलमानो! एक हो जाओ और पूरी दुनिया में इस्लाम को स्थापित कर दो। इसके लिये कोई भी उचित/अनुचित तरीका अपनाने की उहें पूरी छूट है। वे भी एक ही किताब और एक ही मसीहा से मार्गदर्शन पाते हैं। इस्लाम को न माननेवाले उनकी दृष्टि में काफ़िर हैं, जिन्हें समाप्त करने या इस्लाम स्वीकार कराने के लिए उन्हें यातना देना, हत्या कर देना, उनके माल-असबाब और उनकी औरतों पर कब्ज़ा कर लेना धर्मसंगत है। इसी आधार पर तलवार की धार के बल पर इस्लाम का विस्तार हुआ। यही कारण है कि इस्लामी जगत में इस्लामी आतंकवाद का विरोध नहीं होता है और इसे ज़िहाद के नाम से ख्याति दिलाई जाती है। इस्लाम में तर्क और विचार-विमर्श की गुंजाइश नहीं है। यह धर्म नहीं, राजनीतिक अभियान है जो मानवता विरोधी होने के कारण समय के प्रवाह में प्राकृतिक न्याय के अनुसार उसी गति को प्राप्त होगा जिसे कम्युनिज़्म ने प्राप्त किया। अति सर्वत्र वर्जयेत।