Saturday, June 18, 2011

पिता

फादर्स डे, (२१-०६-२०११) के अवसर पर विशेष
वह तुम्हारा पिता ही है जिसने --
तुन्हें अपनी बाहों में उठाकर हृदय से लगाया था,
जब तुम इस पृथ्वी पर आए थे;
उंगली पकड़ाकर चलना सिखाया था,
जब तुम लड़खड़ाए थे.

वही है वह, जो सदा तुम्हें प्रोत्साहित करता है,
तुम्हारे सारे सत्प्रयासों को दिल से सराहता है,
कोई भी लक्ष्य जब तुम पाते हो,
खुश होता है, मंद-मंद मुस्काता है.

बाल मन - जब कोई झटका लगता है, उदास हो जाते हो,
उन क्षणों में तुन्हें मुस्कुराने की प्रेरणा देता है,
गालों पर लुढ़क आए अश्रुकणों को पोंछ,
पेट में गुदगुदी लगा हंसा देता है.


तुम्हारी कभी खत्म न होनेवाली शंकाएं,
उससे बात करते ही दूर भाग जाती हैं,
तुम्हारे तरह-तरह के प्रश्न --
धैर्यपूर्वक सुनता है,
समाधान निकालता है,
मार्गदर्शन करता है,
आगे बढ़ने की हिम्मत अनायास आ जाती है.

तुम्हारी छोटी उपलब्धि पर भी,
उसकी आंखें चमक जाती हैं,
आगे तुम बढ़ते हो,
छाती चौड़ी उसकी हो जाती है.

बार-बार मां की तरह,
सीने से नहीं लगाता है,
वात्सल्य, स्नेह और मधुर भाव,
कोशिश कर छुपाता है.

समय के प्रवाह में,
जब स्वयं पिता बन जाओगे,
कृत्रिम कठोरता का राज,
स्वयं समझ जाओगे.

Friday, June 10, 2011

काले धन की वापसी से कांग्रेस भयभीत क्यों

श्री नितिन गुप्ता (RIVALDO), बी.टेक., आई,आई.टी, मुंबई द्वारा दिनांक ४.६.११ को फेसबुक पर डाले गए उनके लेख WHY CONGRESS SCARED OF GETTING BLACK MONEY BACK का हिन्दी अनुवाद.
अनुवादक - विपिन किशोर सिन्हा, बी.टेक, आई.टी.,बी.एच.यू, वाराणसी.
उनलोगों ने ए. राजा पर कार्यवाही करने के लिए एक साल का वक्त लिया, कलमाडी को गिरफ़्तार करने के लिए छः महीने का समय लिया और बाबा रामदेव को बन्दी बनाने के लिए मात्र एक दिन! तथ्य यह है कि राजा और कलमाडी को गिरफ़्तार करने के लिए प्रधान मंत्री के पास टनों साक्ष्य थे और बाबा के खिलाफ़ एक भी नहीं.
एक नागरिक जो नेता को सिर्फ़ जूता दिखा देता है, उसी दिन तिहाड़ जेल भेज दिया जाता है. तिहाड़ जेल! १४ दिन की न्यायिक हिरासत में!! और उन पुलिस वालों का कुछ नहीं होता जो रामलीला मैदान में एकत्रित ५० हजार निहत्थे सत्यसाधकों पर बर्बरता से लाठियां बरसाते हैं और अश्रु गैस छोड़ते हैं. प्रधान मंत्री कहते हैं -- यह आवश्यक था.
सी.बी.आई. ने केन्द्रीय मंत्री दयानिधि मारन पर ४४० करोड़ रुपए घोटाले की रिपोर्ट सितम्बर २००७ (४४ महीने पहले) दी थी लेकिन एस. गुरुमूर्ति के लेख छपने के पहले उनसे एक बार भी पूछताछ नहीं की गई.
बाबा रामदेव और जूता दिखाने वाले पर कार्यवाही एक दिन में और अफ़ज़ल गुरु को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मृत्यु दंड अनुमोदित करने के बाद भी आज तक जीवन दान.
तर्क - दया याचिका लंबित है.
क्या यह बेशर्मी नहीं है कि अब एन्फोर्समेन्ट डाइरेक्ट्रेट को बाबा रामदेव की जांच करने के निर्देश दिए जा रहे हैं. इसी ईडी को लगभग ८ बिलियन डालर के टैक्स चोर हसन अली के मामले में शिथिलता बरतने पर सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी - What the hell is going on in this country. इसके कई उदाहरण हैं कि धारा १४४ का उल्लंघन करने वाले असंख्य निर्दोष पुलिस की गोलियों के शिकार होते हैं और हत्यारे तथा टैक्स चोर सरकारी संरक्षण पाते हैं.
हसन अली पर ईडी इतना मेहरबान क्यों था, एक साधारण आदमी भी अन्दाज़ लगा सकता है.
बाबा रामदेव के अनुसार - सरकार के प्रतिनिधियों से होटल में वार्ता के दौरान मुझे पत्र देने के लिए वाध्य किया गया जिसमें कहा गया है कि मैं अपना अनशन ६ जून तक समाप्त कर दूंगा. काला धन को छोड़कर मेरी सारी मांगें मान ली जाएंगी.
कांग्रेस भयभीत क्यों
दोनों गांधियों (सोनिया और राहुल) द्वारा चुनाव आयोग में आम चुनाव के दौरान दाखिल शपथ पत्र के अनुसार उनके पास कुल ३.६३ करोड़ की संपत्ति है. सोनिया के पास कार भी नहीं है!!
वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के लिए यह एक बहुत बड़ा कारण हो सकता है जो उन्हें स्विस बैंक के खाताधारकों के नाम सार्वजनिक करने से बार-बार रोकता है.
कुछ ऐसे ही वाध्यकारी कारण हैं जिनके चलते कांग्रेस शान्तिपूर्ण सत्याग्रहियों पर आधी रात को लाठियां बरसाने पर मज़बूर है. मकसद एक ही है - काले धन की रक्षा.
देश के प्रथम चर्चित परिवार के पास जमा है अथाह गुप्त काला धन.
सन १९९१ में पूरे देश में लाइसेंसी राज का बोलबाला था. भारत का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पादन का ८.५% था. देश उस समय एक बहुत बड़े संकट - बैलेन्स आफ़ पेमेन्ट से गुज़र रहा था. विश्व में देश की आर्थिक साख गिर गई थी. भारतीय रिजर्व बैंक ने भी सरकार को अतिरिक्त क्रेडिट देने से मना कर दिया था. इस संकट से उबरने के लिए भारत को अपना राजकोषीय सोना अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ़) के पास गिरवी रखना पड़ा था. इस प्रयास से विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ़ एक बिलियन डालर तक जा सका जिससे मात्र एक सप्ताह तक नियमित आयात किया जा सकता था. उस समय राजीव गांधी के पास स्विस बैंकों में २.२ बिलियन डालर जमा थे.
संदर्भ - अन्तर्रष्ट्रीय पत्रिका श्वीज़र इलस्ट्रेट का नवंबर ११, १९९१ अंक
जी हां, जब देश के पास सोना गिरवी रखने के बाद भी विदेशी मुद्रा भंडार मात्र १ बिलियन डालर था, राजीव गांधी के पास स्विस बैंक के उनके व्यक्तिगत खाते में इससे दूनी से भी अधिक रकम जमा थी. राजीव गांधी को भारत रत्न दिया गया. हमलोगों में से कितने ऐसा कर सकते हैं? वास्तविकता यह है कि भारत के सुरक्षित भंडार में जितने भी रत्न हैं, राजीव गांधी के पास उनसे कही ज्यादा थे. ज्वलंत प्रश्न है कि राजीव गांधी की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति का उत्तराधिकारी कौन बना. निस्सन्देह सोनिया गांधी.
गांधी परिवार ने रुस की कुख्यात खुफ़िया एजेन्सी के.जी.बी. से भी धन प्राप्त किया
संदर्भ - टाइम्स आफ़ इन्डिया (२७.६.९२), हिन्दू (४.७.९२)
रुस की खुफ़िया एजेन्सी केजीबी के गुप्त अभिलेखों के अनुसार गांधी परिवार ने कई बार चुनाव प्रचार के लिए केजीबी से धन प्राप्त किया - रिश्वत के अलावे क्या यह देश्द्रोह का संगीन मामला नहीं है?
रुस के राष्ट्रपति येल्तसिन द्वारा केजीबी के क्रियाकलापों की जांच के लिए नियुक्त प्रसिद्ध खोजी पत्रकार डा. येवजेनिया अलबैट्स ने अपनी पुस्तक दि स्टेट विदिन द स्टेट में लिखा है - सोवियत केजीबी भारत के प्रधान मंत्री आर गांधी के पुत्र के साथ सम्पर्क में है. राजीव गांधी ने अपने नियंत्रण में कार्यरत और सोवियत विदेश व्यापार संगठन के सहयोग से संचालित प्रतिष्ठान को व्यवसायिक लाभ पहुंचाने के लिए आभार व्यक्त किया है. आर गांधी ने गोपनीय जानकारी दी है कि इस माध्यम से उपलब्ध धन का अच्छा खासा भाग उनकी पार्टी के लिए उपयोग में लाया जाता है.
इसके अतिरिक्त केजीबी प्रमुख विक्टर चेब्रिकोव ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति से पत्र द्वारा गांधी परिवार को धन देने के लिए अधिकृत करने हेतु टिप्पणी लिखी थी - राजीव गांधी के परिवार के सदस्यों -- सोनिया गांधी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी की मां पाओला माइनियो को अमेरिकन डालर में भुगतान हेतु. उनके अनुसार ऐसा सोवियत संघ के हित के लिए आवश्यक था. इस धन का कुछ हिस्सा माइनियो परिवार द्वारा कांग्रेस पार्टी के कुछ विश्वस्त उम्मीदवारों को आम चुनाव के दौरान दिया गया.
इराक के पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसेन से सोनिया गांधी (एन्टोनियो माइनो) परिवार के व्यापारिक संबंध थे
सम्दर्भ - इंडियन एक्सप्रेस, २८.०१.०४
करवंचकों के स्वर्ग केमेन द्वीप में बैंक खाता
राहुल गांधी, जब वे हार्वार्ड में विद्यार्थी थे के खर्चे का भुगतान जिसमें ट्युशन फ़ीस भी शामिल है केमेन द्वीप के खाते से किया गया.
२-जी स्पेक्ट्रम घोटला
इस घोटाले पर मन मोहन सिंह का व्यवहार काफी रहस्यमय रहा --
नवंबर, २००७ - प्रधान मंत्री ने राजा द्वारा अपनाए गए स्पेक्ट्रम की नीलामी की प्रक्रिया पर आपत्ति जताई थी और पारदर्शिता बरतने का निर्देश दिया था.
राजा ने उत्तर दिया था - मैं पूर्व सरकार द्वारा अपनाई गई नीतियों के अनुसार ही कार्य कर रहा हूं.
जनवरी ३, २००८ - प्रधान मंत्री ने जानबूझकर राजा के पत्र को सिर्फ़ प्राप्ति का संदेश दिया. यह स्पष्ट संकेत था - आगे बढ़ो.
अक्टुबर २८, २००९ - जब सीबीआई ने राजा के कार्यालय पर छापा मारा, तो राजा का उत्तर था - मैं त्यागपत्र क्यों दूं? मैंने हर काम प्रधान मंत्री से विचार-विमर्श के बाद ही किया है.
प्रधान मंत्री ने उस वक्तव्य का खंडन नहीं किया.
डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने संपूर्ण धोखाधड़ी की जानकारी देते हुए प्रधान मंत्री को पत्र लिखा.
मई, २४, २०१० - इस धोखाधड़ी को अनुमोदित करते हुए प्रधान मंत्री ने स्वीकार किया कि राजा ने उन्हें बताया था कि वे सरकार की पूर्व निर्धारित नीतियों का ही अनुसरण कर रहे थे.
डा. स्वामी ने प्रधान मंत्री को राजा पर आपराधिक मुकदमा चलाने के लिए पर्याप्त साक्ष्यों के साथ पांच बार पत्र लिखा लेकिन प्रधान मंत्री की ओर से कोई उत्तर नहीं आया. प्रधान मंत्री की निष्क्रियता से निराश डा. स्वामी ने सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली.
नवंबर, २०१० - सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीरता से पूछा - डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दूर संचार मंत्री ए. राजा पर आपराधिक मुकदमा चलाने की अनुमति देने के आग्रह पर ११ महीनों तक प्रधान मंत्री ने क्यों उत्तर नहीं दिया?
नवंबर, २००७ में प्रधान मंत्री की आपत्तियां जनवरी, २००८ में अनापत्ति में बदल गईं और अन्त में मई, २०१० में स्वीकृति में परिवर्तित हो गईं.
प्रधान मंत्री को ऐसा करने के लिए किसने विवश किया, कोई सीधा-सरल आदमी भी अनुमान लगा सकता है. इस घोटाले का पैसा कहां गया? प्रधान मंत्री रिलीफ़ फ़ंड में तो कहीं से भी नहीं.
काला धन को वापस लाने के विषय पर भारत के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी कब तक कहते रहेंगे कि हम अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का सम्मान करते हैं, इसलिए ऐसा करना संभव नहीं है. अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं का सीधा मतलब गाड मदर सोनिया गांधी तो नहीं? क्या प्रणव मुखर्जी कुछ ज्वलंत प्रश्नों का उत्तर देंगे --
१. आपने जर्मनी द्वारा खाताधारकों के नाम घोषित करने के प्रस्ताव को क्यों ठुकरा दिया?
सन २००८ की शुरुआत में जर्मनी की खुफ़िया एजेन्सी ने लिशेन्स्टिन के बैंक के एक एक कर्मचारी को भारी रिश्वत खिलाकर एक सीडी प्राप्त की जिसमें १५०० कर वंचक खाताधारकों के विवरण थे. उनमें से आधे जर्मनी के नागरिक थे. जर्मन सरकार ने उन सबके यहां छापा डालकर आवश्यक कार्यवाही की. उसने दूसरे देशों को भी बिना किसी शुल्क के खाताधारकों के विवरण देने की पेशकश की थी. विश्व के कई देशों ने उस प्रस्ताव को स्वीकार किया, लेकिन भारत ने नहीं किया. ऐसा करने से किस अन्तर्राष्ट्रीय समझौते का उल्लंघन होता? इसके बदले सरकार ने जर्मनी के साथ एक टैक्स संधि पर हस्ताक्षर किया जिसके तहत कर वंचकों के नाम सार्वजनिक नहीं किए जा सकते. उसके बाद स्विस बैंक से भी २०१० में एक समझौते पर सरकार ने दस्तखत किया जिसके अनुसार समझौते की तिथि के बाद उस बैंक में जमा भारतीय धनराशि को वापस ले आने का प्रावधान है - अगर स्विस सरकार अनुमति दे तो. शर्तों के अनुसार ऐसी सूचनाएं किसी भी एजेन्सी या व्यक्ति को उपलब्ध नहीं कराई जा सकती, भले ही वह एन्फोर्समेन्ट डाइरेक्ट्रेट हो या भारत की संसद.
प्रधान मंत्री को लोकपाल विधेयक के दायरे से बाहर रखने के सरकार के हठ पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.
२. कुख्यात यूनियन बैंक आफ़ स्विट्ज़रलैंड (यू.बी.एस.) को भारत में बैंकिंग का लाइसेंस क्यों दिया गया?
विश्व के कालाधन खाताधारकों के स्वर्ग यूबीएस को भारत में बैंकिंग लाइसेंस देने का रिज़र्व बैंख मुखर विरोधी था. कारण था हसन अली खां द्वारा अवैध काले धन की जांच के लिए उस बैंक ने कोई सहयोग नहीं दिया था. फिर ऐसी कौन सी घटना घटी कि अचानक उसे २००८ में भारत में कार्य करने की छूट दे दी गई? सन २००२-०३ के बाद भारत में पहली बार किसी विदेशी बैंक को काम करने का नया लाइसेंस जारी किया गया वह भी यूबीएस के लिए. कितना महान चुनाव था यह!
एक तरफ वित्त मंत्री कहते हैं कि स्विस बैंक सहयोग नहीं कर रहे हैं और दूसरी ओर सबसे बड़े अपराधी बैंक को देश में काम करने का लाइसेंस जारी किया जा रहा है. श्री प्रणव मुखर्जी क्या बताने का कष्ट करेंगे कि ऐसा क्यों हो रहा है. दो पंक्तियों के बीच अलिखित आशय को क्या हम नहीं पढ़ सकते?
३. जी-२० सम्मेलन ले दौरान चुप्पी
जर्मनी की राजधानी बर्लिन में जी-२० ग्रूप के देशों के सम्मेलन में जब जर्मनी और फ़्रान्स स्विस बैंक और कर वंचकों के दूसरे आश्रय स्थलों को काली सूची में डालने की धमकी और सुझाव दे रहे थे, भारतीय प्रतिनिधि माण्टेक सिंह अहुलिवालिया और राकेश मोहन ने चुप्पी साध ली, एक शब्द भी नहीं बोले जबकि भारत विदेशों में जमा काले धन और कर चोरी का सबसे बड़ा शिकार है.
दो साल हो गए हैं. कबतक भारत की जनता से विश्वासघात करते रहेंगे?
भ्रष्टाचार की समाप्ति या विश्वसनीयता की समाप्ति
चुनाव प्रचार के दौरान सोनिया गांधी ने कहा था - हमें चुनिए, हम काले धन की गहन जांच कराएंगे. हमारी सरकार भ्रष्टाचार मिटाने के लिए प्रतिबद्ध है.
क्या वास्तव में ऐसा है? उनके पिछले क्रिया कलापों पर एक नज़र डाली जाय --
१. केजीबी जांच की हत्या कर देना
रुस की सरकार गांधी परिवार से केजीबी के संबंधों की पूरी जानकारी सारे अभिलेखों के साथ देने के लिए तैयार थी. शर्त इतनी ही थी कि सीबीआई, एफ़.आई.आर. की कापी के साथ औपचारिक अनुरोध पत्र भेजे. सीबीआई ने ऐसा कुछ नहीं किया. उसकी मज़बूरियां समझी जा सकती हैं.
२. बोफ़ोर्स के आरोपी क्वात्रोची का कानून से बचाव.
जून २००३ में इन्टरपोल ने यह खोज की कि स्विस बैंक में क्वात्रोची और मारिया के नाम से दो खाते थे जिनकी खाता संख्या थी - ५ ए५१५१५१६ एल और ५ ए५१५१५१६ एम. लंदन स्थित स्विस बैंक बी.एस.आई. एजी में जमा धनराशि थी - ३ मिलियन यूरो और १ मिलियन डालर. उन खातों को सीबीआई के निर्देशों पर फ़्रीज़ कर दिया गया. उन खातों के चालू करने के क्वात्रोची की कई अपीलों को ब्रिटिश कोर्ट ने खारिज़ कर दिया लेकिन २२ दिसंबर २००५ को तात्कालीन कानून मंत्री और वर्तमान में कर्नाटक के कुख्यात राज्यपाल हंस राज भारद्वाज ने पलटी मारते हुए अतिरिक्त सालिसिटर जेनरल बी. दत्ता को लंदन भेजकर उन खातों को पुनः खुलवाने का गंदा काम किया. उसके उपरांत इस सरकार ने क्वात्रोची का नाम विश्व की रेड एलर्ट वाली सूची से बिना किसी हिचक या शर्म के हटवा दिया. रेड एलर्ट की सूची में नाम रहने के कारण वह कहीं भी पकड़ा जाता तो उसे भारत भेजने का खतरा था.
बोफ़ोर्स के आरोपी क्वात्रोची के प्रति इतना सद्भाव और पक्षपात क्यों दिखाया गया, इसे हर कोई जानता है. वह काला धन अब कभी भी वापस नहीं लाया जा सकता है. क्यों? आप स्वयं सोच सकते हैं.
वित्त मंत्री से एक विनम्र अनुरोध
बिना किसी अपेक्षा के, प्रणव दादा! आपसे आग्रह है कि भविष्य में जब आपसे काला धन वापस लाने के संबंध में पूछा जाय, तो कृपया राष्ट्रीय दूर दर्शन पर जनता को बेवकूफ़ बनानेवाला अपना पुराना राग मत अलापिएगा - "हम अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं से बंधे हैं. हम किसी सार्वभौमिक राष्ट्र को विवरण देने के लिए वाध्य नहीं कर सकते............"
जर्मनी और अमेरिका ने उन्हीं बैंकों से अपने देश के खाताधारकों के नाम लिए, क्योंकि वे वास्तव में ऐसा चाहते थे. इसलिए कृपया तकनिकी कारण बताकर मुल्क को गुमराह मत कीजिए.
बाबा रामदेव और निहत्थे, सोए हुए, अहिंसक सत्याग्रहियों पर लाठी चार्ज
४ जून की रात में हुई इस बर्बर कार्यवाही के कुछ ही दिन पहले सोनिया के बड़बोले प्रवक्ता दिग्विजय सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहा था - अगर हम बाबा रामदेव से भयभीत होते, तो उन्हें कब का गिरफ़्तार कर चुके होते.
जाहिर है कांग्रेस बाबा से काफी भयभीत है.
सुब्रह्मण्यम स्वामी ने विश्वासपूर्वक बताया है कि सोनिया गांधी ने ४ जून की रात को १०.२० बजे बाबा रामदेव के खिलाफ़ कार्यवाही करने का गृह मंत्री पी चिदंबरम को आदेश देते हुए कहा -- उस अर्धनग्न भिखारी को बता दो कि उसकी क्या औकात है!
उस अर्धनग्न बाबा और पूरे देश को उसका असली(?) चेहरा या अपना असली चेहरा दिखाने के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद, सोनिया जी!
पूरी घटना के सारांश के रूप में बच्चों की एक पुरानी कविता की कुछ पंक्तियां बड़ी सामयिक लग रही हैं --
सोनिया, सोनिया...................हां बाबा
भ्रष्टाचार?............................ नहीं बाबा
काला धन?...........................नहीं बाबा
खाता दिखाओ........................भाड़ में जाओ

Monday, June 6, 2011

कांग्रेस और अधिनायकवाद


कांग्रेस बहुत प्रयास करती है कि जनता के बीच अपने को लोकतांत्रिक सिद्ध कर सके, लेकिन समय-समय पर ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो उसके अधिनायकवाद के चेहरे से लोकतंत्र का झीना आवरण हटा देती है. इस पार्टी में लोकतंत्र कभी नहीं रहा. एकबार नेताजी सुभाषचन्द्र बोस लोकतांत्रिक पद्धति से महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए. गांधीजी इस हार को पचा नहीं पाए. हारे हुए प्रत्याशी सीतारमैया की हार को उन्होंने अपनी हार घोषित कर दी. इतना इशारा पर्याप्त था. उनके शिष्यों ने नेताजी के साथ खुला असहयोग प्रारंभ कर दिया. नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को परेशान होकर अन्ततः इस्तीफ़ा देना पड़ा. १९४६-४७ में कांग्रेस कार्य समिति के अधिकांश सदस्यों (लगभग ९०%) की स्पष्ट राय थी कि सरदार पटेल आज़ाद भारत के प्रधानमंत्री बनें लेकिन गांधीजी ने अपनी पसंद थोपते हुए नेहरुजी को प्रधानमंत्री बना दिया. अधिनायकवाद की इस परंपरा को नेहरु-इन्दिरा के बाद सोनियाजी ने सफलतापूर्वक आज भी कायम रखा है. जब कांग्रेस की निरंकुश सत्ता केन्द्र में थी, तो किसी दूसरे प्रान्त में कोई भी गैरकांग्रेसी सरकार उसे कभी बर्दाश्त नहीं होती थी. केरल से लेकर कश्मीर, पंजाब से लेकर बंगाल -- कितनी बार गैरकांग्रेसी राज्य सरकारें कांग्रेस ने बर्खाश्त कराई, इसका लेखा-जोखा रखना भी मुश्किल है. इसके अतिरिक्त कांग्रेस कुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध जब भी जन आन्दोलन हुआ तो उसे कुचलने के लिए कांग्रेस ब्रिटिश प्रशासन से भी दो हाथ आगे चली गई. १९७४ में जे.पी. आन्दोलन के दौरान पटना में लोकनायक जय प्रकाश नारायण पर किए गए बर्बर लाठी चार्ज को कौन भूल सकता है? अगर नानाजी देशमुख जेपी के उपर लेट नहीं गए होते, तो जय प्रकाशजी का उस दिन बचना मुश्किल था. नानाजी का हाथ टूट गया लेकिन उन्होंने जेपी को बचा लिया. भ्रष्टाचार और निरंकुशता की प्रतीक बनी कांग्रेसी सरकार की मुसीबतें तब और बढ़ गईं जब इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इन्दिरा गांधी के लोक सभा सदस्य के लिए हुए चुनाव को ही भ्रष्ट तरीके अपनाने के कारण अवैध घोषित कर दिया. कोर्ट ने उन्हें छः साल तक चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया. जेपी के महा जन आन्दोलन में कोर्ट के इस फ़ैसले ने आग में घी का काम किया. इन्दिरा गांधी की सत्ता डगमगाने लगी. अब उनका असली चेहरा सामने आया. दिनांक २५ जून १९७५ को उन्होंने इमर्जेन्सी की घोषणा कर दी. जय प्रकाश नारायण समेत संपूर्ण विपक्ष (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर) के सारे छोटे-बड़े नेता २४ घंटे के अंदर गिरफ़्तार कर लिए गए. लाखों बेकसूर छात्रों और जनता को दमनकारी मीसा और डी.आई.आर के तहत जेलों में डालकर यातनाएं दी गईं. विपक्ष विहीन संसद से मनमाफ़िक संविधान संशोधन पास कराकर सारी कार्यवाही को वैध कराया गया. इस तरह इन्दिरा गांधी अगले चुनाव तक अपनी गद्दी बचाने में कामयाब रहीं लेकिन इमरजेन्सी के बाद संपन्न चुनाव में जनता ने उन्हें धूल चटा दी. राय बरेली से वे अपनी सीट भी नहीं बचा सकीं.
इतिहास अपने को पुनः दुहरा रहा है. महीना भी वही जून का ही है. पहले ही अन्ना हजारे के सत्याग्रह से घबराई सरकार बाबा रामदेव को बर्दाश्त नहीं कर सकी. अन्ना का सत्याग्रह भी भ्रष्टाचार के खिलाफ़ था लेकिन उनके साथ इंडिया (कुछ संभ्रान्त समाजसेवी और कारपोरेट इंगलिश मीडिया) के लोग जुड़े थे लेकिन बाबा रामदेव का आन्दोलन दूसरा जेपी आन्दोलन बनता जा रहा है. इसके साथ भारत (आम जनता) जुड़ा है. इंडिया को तो मनाना आसान था, अन्ना के कुछ खास लोगों को लोकपाल बिल की मसौदा समिति में सिर्फ़ शामिल कर लेने से काम बन गया लेकिन बाबा के भारत से निपटना टेढ़ी खीर साबित हो रही है और आगे होगी भी. कांग्रेसी सरकार के लिए क्या यह संभव है कि वह विदेशी खाताधारकों और कालाधन रखने वालों के नाम सार्वजनिक करे? जिस दिन यह काम होगा, उसी दिन यह पार्टी दफ़न हो जाएगी. कांग्रेस के किस पूर्व या वर्तमान अध्यक्ष/प्रधानमंत्री का नाम उस सूची में नहीं होगा. हजारों छोटे-बड़े नेता उसकी चपेट में आयेंगे. पार्टी फंड में चंदा देनेवाले असंख्य चहेते उद्योग पतियों के चेहरों से नकाब हट जाएगी. कांग्रेस बाबा की यह मांग मानकर आत्महत्या नहीं कर सकती. इसलिए ५ जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में बाबा रामदेव और सत्य साधकों पर जो जुर्म हुआ वह कही से भी अनपेक्षित या अस्वाभाविक नहीं था. ध्यान देने की बात है कि सोनिया-मनमोहन ने इस बर्बर कार्यवाही के लिए रात का वही प्रहर चुना जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए चुना था -- रात डेढ़ बजे. सत्ता बचाने के लिए २५ जून १९७५ को इन्दिरा गांधी ने भी यही किया था. तब भी लोकतंत्र कलंकित हुआ था और आज भी हो रहा है. लेकिन न तब जन आन्दोलन को कुचला जा सका था और न अब कुचला जा सकता है.
प्रकाश तिमिर से रुका है?
कभी सूर्य अंबुद में छुपा है?
प्रवाह बढ़ता ही रहेगा --
पवन क्या रोके रुका है?

Wednesday, June 1, 2011

यह संवैधानिक पद


अपने देश में प्रत्येक राज्य के लिए केन्द्र सरकार द्वारा मनोनीत एक राज्याध्यक्ष का संविधान में प्रावधान है. इस राज्याध्यक्ष को ही राज्यपाल या गवर्नर कहते हैं. यह राज्य का सर्वोच्च संवैधानिक पद होता है. लेकिन इस पद पर नियुक्ति के लिए क्या आवश्यक योग्यताएं और गुण होने चाहिए, इसका कही भी सांगोपांग वर्णन नहीं है. व्यवहार में ऐसा व्यक्ति जो सत्तारुढ़ दल के हाई कमान का विशेष कृपापात्र हो, लेकिन चुनाव हार गया हो, केन्द्रीय मंत्रिमंडल में स्थान पाने में नाकाम रहा हो, सक्रिय राजनीति में अप्रासंगिक हो गया हो, को खाने-पीने और सम्मानजनक रोज़गार देने के लिए किसी राज्य का राज्यपाल बना दिया जाता है. विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की ही भांति राज्यपाल पद की रेवड़ी भी अपने वफ़ादारों को बांटने की परंपरा नेहरु युग से ही चली आ रही है. कहने के लिए तो राज्यपाल भारत के राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होता है, लेकिन अक्सर वह केन्द्र में सत्तारुढ़ दल के विश्वस्त प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता है. प्रायः राज्यपाल संविधान में वर्णित लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर जनता के द्वारा चुनी हुई राज्य सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी करना ही अपना सबसे बड़ा कर्त्तव्य समझते हैं. भारत की संघीय व्यवस्था के लिए कही यह पद सबसे बड़ी चुनौती न बन जाय.
राज्यपाल पद का सबसे पहले दुरुपयोग पचास के दशक में आरंभ हुआ, जब केन्द्र की नेहरु सरकार के इशारे पर केरल की पहली गैर कांग्रेसी सरकार को जिसका नेतृत्व कम्युनिस्ट कर रहे थे, बहुमत रहते हुए बर्खास्त किया गया. उस समय कांग्रेस की अध्यक्ष इन्दिरा गांधी थीं. उन्हें गैर कांग्रेसी नेताओं और सरकार से जबर्दस्त व्यक्तिगत नफ़रत थी. उस सरकार को बर्खास्त करने के लिए राज्यपाल ने इन्दिरा गांधी को पसंद आनेवाली रिपोर्ट भेजी थी. पश्चिम बंगाल में जब ज्योति बसु पहली बार मुख्यमंत्री बने तो कांग्रेसी राज्यपाल धर्मवीर ने उनकी नाक में दम कर दिया था. जनता द्वारा लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी हुई बंगाल की सरकार को बर्खास्त करने के लिए उन्होंने न जाने कितने तिकड़म किए. विधान सभा सत्र के आरंभ में कैबिनेट द्वारा तैयार धन्यवाद भाषण को भी राज्यपाल ने पढ़ने से इन्कार कर दिया था. यह संविधान की अवहेलना थी, लेकिन केन्द्र द्वारा उनकी पीठ थपथपाई गई. जबतक धर्मवीर राज्यपाल रहे, मुख्यमंत्री ज्योति बसु का अधिकांश समय उनके दांव-पेंच से निपटने में ही व्यतीत होता रहा.
उत्तर प्रदेश के कुख्यात राज्यपाल रोमेश भंडारी को कौन भूल सकता है? उन्होंने भाजपा की बहुमत वाली सरकार, जिसका नेतृत्व कल्याण सिंह कर रहे थे, को एक झटके में बर्खास्त कर दिया और सूक्ष्म अल्पमत वाले लोकतांत्रिक कांग्रेस के जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री की शपथ दिला दी. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा ने राष्ट्रपति के सामने विधायकों की परेड कराई, लेकिन बात नहीं बनी. रोमेश भंडारी ने अपने कांग्रेसी आकाओं को खुश करने के लिए ही यह असंवैधानिक कृत्य किया था. भला हो इलाहाबाद हाई कोर्ट का जिसने जगदंबिका पाल की मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्ति को ही अवैध घोषित कर दिया. कल्याण सिंह पुनः मुख्य मंत्री बने और जगदंबिका पाल के नाम को पूर्व मुख्यमंत्रियों की सूची से भी निकाल दिया गया. हाई कोर्ट का ऐसा ही आदेश था. केन्द्र सरकार ने इस कुकृत्य के बाद भी रोमेश भंडारी को वापस नहीं बुलाया. ऐसा ही कारनामा आंध्र प्रदेश में भी हुआ, जब राज्यपाल चेन्ना रेड्डी ने दो तिहाई बहुमत वाली एन टी रामाराव की सरकार को केन्द्र सरकार के इशारे पर बर्खास्त कर दिया. केन्द्र में जबतक कांग्रेस की निरंकुश सत्ता रही, जम्मू-कश्मीर को इन हालातों से बार-बार गुजरना पड़ा.
ताज़ी घटना कर्नाटक की है. सर्वोच्च न्यायालय के प्रख्यात वकील और पूर्व केन्द्रीय विधि मंत्री घोर कांग्रेसी हंसराज भारद्वाज वहां के राज्यपाल हैं. उनको भाजपा की सरकार को अस्थिर रखने के विशेष मिशन के तहत ही वहां भेजा गया है. जब से उन्होंने पद संभाला कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदुरप्पा का जीना हराम कर दिया. पिछले हफ़्ते उन्होंने राज्य सरकार को बर्खास्त कर, विधान सभा को निलंबित रखते हुए राज्यपाल शासन (राष्ट्रपति शासन) की संस्तुति की थी. मुख्यमंत्री को शुरु से ही विवादित बनाने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी. सभी गैर भाजपाई येदुरप्पा को नापसंद करते हैं, वे विवादित हो भी सकते हैं लेकिन यह निर्विवाद है कि उन्हें आज भी विधान सभा में बहुमत प्राप्त है. राज्यपाल ने उन्हें विधान सभा का सत्र बुलाने की भी अनुमति नहीं दी. अगर बहुमत का फ़ैसला विधान सभा में नहीं होगा, तो क्या राजभवन में होगा? भाजपा भी अब कमजोर नहीं है. राष्ट्रपति के सामने विधायकों की एक बार फिर परेड कराई गई. भ्रष्टाचार के आरोपों से चहुंओर घिरी केन्द्र सरकार की हिम्मत नहीं हुई कि राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर येदुरप्पा सरकार को बर्खास्त करे. रिपोर्ट कूड़ेदान में डाल दी गई लेकिन एक अनुत्तरित प्रश्न आज भी वातावरण में तैर रहा है - राज्यों में राज्यपाल पद की आवश्यकता है भी क्या?