Thursday, March 29, 2018

बिजली विभाग का निजीकरण

          पता नहीं क्यों, बिजली विभाग पर भाजपा की कुदृष्टि हमेशा से ही क्यों रही है? जब-जब भाजपा की सरकार आई है, बिजली विभाग को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है। जब भाजपा के स्व. राम प्रकाश गुप्त यू.पी. के मुख्यमन्त्री थे और नरेश अग्रवाल ऊर्जा मन्त्री थे तो बिजली विभाग को चार टुकड़ों में बांट दिया गया जिससे प्रशासनिक खर्च तो बढ़ गया, हासिल कुछ भी नहीं हुआ। सरकारी संगठनों का निजीकरण किसी भी समस्या का समाधान नहीं है। ५० और ६० के दशक में विद्युत उत्पादन और वितरण स्थानीय स्तर पर था, जिसे मार्टिन बर्न जैसी कंपनियां संभालती थीं। तब बिजली सिर्फ बड़े शहरों को मिला करती थी। सरकार ने इसे सर्वसाधारण को सुलभ बनाने के लिए राष्ट्रीयकरण किया और प्रत्येक प्रान्त में राज्य विद्युत परिषद अस्तित्व में आए। निस्सन्देह इसका लाभ गरीबों और गांवों को भी मिला। फिर आरंभ हुआ लाभ और हानि की गणना का सिलसिला। लगभग सभी सरकारों ने बिजली विभाग को घाटे का संगठन घोषित किया और अपने स्तर से निजीकरण के प्रयास किए। वितरण के क्षेत्र में अलग-अलग क्षेत्रों के लिए अलग-अलग वितरण कंपनियां बनाई गईं। इससे प्रशासनिक खर्च बढ़ने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिला। इस बीच स्वयं बिजली विभाग ने उन बिन्दुओं और व्यवस्था  को चिह्नित किया जिसमें सुधार करके उपभोक्ताओं की कठिनाइयां कम की जा सकती थीं और इसे एक लाभ वाले संगठन में परिवर्तित किया जा सकता था। इसकी शुरुआत online billing से हुई। मैंने स्वयं कंप्यूटर बिलिंग सर्विस सेन्टर में अधिशासी अभियन्ता के रूप में कार्य करते हुए व्यवस्था का अध्ययन किया और बड़ी मिहनत से online billing के पक्ष में एक शोधपत्र तैयार किया जिसे मैंने लखनऊ, शक्ति भवन में एक उच्चस्तरीय कार्यशाला में तात्कालीन चेयरमैन को भेंट भी किया। उन्होंने सार्वजनिक रूप से मेरे प्रयास की सराहना की और online billing के लिए सघन प्रयास करने का आश्वासन भी दिया। स्वाभाविक है, सारे अच्छे कामों के प्रयोग के लिए पहले शहरों को ही चुना जाता है। पूर्वांचल में इसके लिए वाराणसी को चुना गया और online billing की शुरुआत की गई। मैं आरंभ से अन्त तक इस योजना से जुड़ा रहा। मुझे परम संतुष्टि और खुशी मिली जब वाराणसी शहर में कुछ आरंभिक कठिनाइयों के बावजूद online billing सफलता पूर्वक काम करने लगी। अब बिल में हेराफेरी की संभावना नगण्य हो गई और राजस्व वसूली में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज़ की गई। वाराणसी में मिली सफलता के बाद पूरे प्रदेश में online billing की व्यवस्था लागू की गई, जो एक बहुत बड़ा सुधार था। फिर बिजली की चोरी रोकने और तारों का जाल कम से कम करने पर कार्य आरंभ हुआ। सरकार ने धन की व्यवस्था की और विद्युत कर्मियों ने एचटी लाइन को भूमिगत करने का काम हाथ में लिया। नंगे एलटी तारों की जगह एबीसी लगाने का कार्य युद्धस्तर पर किया गया जिससे कंटियामारी पर विराम लगा और लाइन लास कम हुआ। केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियों के अनुसार हजारों गांवों का विद्युतीकरण किया गया। अब जब उपरोक्त सुधारों के कारण मुख्य शहरों की विद्युत व्यवस्था में उल्लेखनीय सुधार हुआ और विभाग लाभ अर्जित करने की स्थिति में आया, तो सरकार इन्हीं चुने हुए शहरों को निजी हाथों में देने का निर्णय ले रही है, जो निन्दनीय है और जनविरोधी भी है। इससे सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा होता है। अगर सरकार सुधार के मामले में इतनी ही गंभीर है, तो क्यों नहीं ग्रामीण क्षेत्रों का वितरण निजी हाथों में देने का फैसला लेती है? क्या कोई भी निजी कंपनी बलिया, गाजीपुर या सोनभद्र के सुदूर गांवों की बिजली आपूर्ति और राजस्व वसूली का दायित्व ले सकती है? मैं दावे के साथ कह सकता हूं -- नहीं और कभी नहीं। बिजली विभाग जब बछिया को पाल-पोस कर दुधारु गाय बना देता है तो ये निजी कंपनियां गिद्ध की तरह मलाई खाने के लिए मंडराने लगती हैं। सरकार और जनता को यह बात समझ में आनी चाहिए।
     रेलवे में दस रुपए का टिकट नहीं कटाने पर रेलवे का मजिस्ट्रेट बेटिकट यात्री को जेल भेज देता है, जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है, लेकिन बिजली विभाग में जो जे.ई. या एस.डी.ओ. किसी उपभोक्ता को रंगे हाथ बिजली चोरी करते हुए पकड़ता है, उसे एफ.आई.आर. दायर करके लंबी कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। अगर रेलवे के मजिस्ट्रेट की तरह बिजली विभाग के अधिकारियों को भी अधिकार मिल जाये, तो बिजली की चोरी पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। सबसे पहले जनता और सरकार के दिमाग में यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि बिजली विभाग कोई Commercial organisation नहीं है। यह चिकित्सा, शिक्षा, न्याय, सिंचाई आदि विभागों की तरह एक Wefare organisation है जिसमें जनता का हित सर्वोपरि है। गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों के लिए लगभग मुफ़्त आपूर्ति, किसानों और ग्रामीणों के लिए लागत के एक चौथाई मूल्य पर, बुनकरों आदि समाज के कमजोर तबकों के लिए आधे मूल्य पर विद्युत आपूर्ति क्या कोई Commercial organisation कर सकता है? कदापि नहीं। क्या बिजली विभाग की यही नियति है कि पहले इसका निजीकरण से सरकारीकरण किया गया और अब फिर सरकारीकरण से निजीकरण किया जाय। अबतक का अनुभव तो यही रहा है कि निजी कंपनियां शोषण का प्रयाय रही हैं। कुछ वर्षों के बाद सरकार पुनः सरकारीकरण करने के लिए बाध्य होगी, लेकिन तबतक बहुत नुकसान हो चुका होगा। यह दिल्ली से दौलताबाद की दौड़ बन्द होनी चाहिए। जनहित में ईश्वर सरकार को सद्बुद्धि दे। बिजली कर्मचारियों से भी अपेक्षा है कि वे भी अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए जिस डाल पर बैठे हैं, उसे ही काटने का प्रयास बंद कर दें जो वे अबतक करते आये हैं। उपभोक्ता को अपनी आय का स्रोत न समझकर अपना मित्र समझें, तभी समाज का भी सहयोग संभव है।

Wednesday, March 14, 2018

आरक्षण

        मेरे गांव में एक दलित (चमार) है। लालजी राम उसका नाम है। उसकी पत्नी ने मेरी माँ की बहुत सेवा की थी। लालजी राम भी मेरे पिताजी के हर आदेश पर एक पैर पर खड़ा रहता था। वह लगभग रोज ही सवेरे मेरे घर आता था। आम के बगीचे की देखभाल उसी के जिम्मे थी। पिताजी तो अब नहीं रहे, लेकिन मेरे परिवार के सभी लोग उसे आज भी बहुत प्यार करते हैं। उसमें और उसकी पत्नी में एक ही बुरी आदत थी। वह यह कि दोनों अत्यधिक कच्ची शराब का सेवन करते थे। पसिया टोली मेरे घर के पास ही है जो आज भी नीतीश कुमार की शराबबंदी को ठेंगा दिखाते हुए देसी शराब का जिले में सबसे बड़ा केन्द्र बन चुका है। लालजी की पत्नी पाँच साल पहले कच्ची शराब के सेवन से इस लोक से चली गई। लालजी भी शराबियों के आपसी संघर्ष में एक बार बुरी तरह पिटा जिसके कारण रीढ़ की हड्डी में चोट आई, फलस्वरूप वह मुश्किल से चल-फिर सकता है, कोई काम नहीं कर सकता। वृद्धावस्था पेंशन और मेरे घर से प्राप्त आर्थिक सहायता ही उसका संबल है। उसके दो बच्चे हैं। बारी-बारी से दोनों उसे खिलाते हैं। बड़े बेटे वीरेन्द्र का पढ़ने में मन नहीं लगा। किसी तरह कक्षा आठ तक पढ़ा। उसके बाद वह जयपुर चला गया जहां मेरे गांव के अधिकांश युवक दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करते हैं। छोटा बेटा प्रदीप पढ़ने में कुछ अच्छा था। उसे हमलोगों ने प्रोत्साहित किया, रुपए-पैसे, किताब-कापी की व्यस्था की। येन केन प्रकारेण उसने बी.ए. पास कर लिया। मुझे उम्मीद थी कि दलितों के आरक्षण कोटे के तहत उसे नौकरी मिल जाएगी। लेकिन वहां हर एक पद के लिए उसकी प्रतियोगिता दलित समाज के क्रीमी लेयर के उन लड़कों से थी जिनके पिता आरक्षण का लाभ लेकर सरकारी नौकरी पाने के बाद शहरों में बस गए थे। प्रदीप ने कई प्रयास किए लेकिन हर बार असफलता ही मिली। इस बीच उसकी शादी भी हो गई। अत्यधिक तनाव और आर्थिक तंगी के कारण उसके पेट में दर्द रहने लगा। डाक्टरों ने बताया कि उसके पेट में ट्यूमर है। सबने उसे टाटा मेमोरियल हास्पीटल, मुंबई जाने की सलाह दी। लेकिन वहां जाकर इलाज़ कराना उसके वश में नहीं था। गांव के ही कुछ युवक पिछली गर्मियों में घर आए थे। वे उसे लेकर जयपुर गए। वहां सवाई माधो सिंह अस्पताल में उसका इलाज हुआ। आपरेशन करके ट्यूमर बाहर निकाल दिया गया। गांव के जो युवक जयपुर में रह रहे थे, उन्होंने ही चन्दा लगाकर उसका इलाज कराया। इलाज में डेढ़ लाख रुपए खर्च हुए। जातीय भावना से ऊपर उठकर युवकों ने उसका इलाज़ कराया। अभी होली में प्रदीप से मेरी मुलाकात हुई थी। अब वह ठीक है। वह सरकारी नौकरी पाने की उम्र पार कर चुका है। एक कंपनी के घरेलू उत्पाद घूम-घूमकर बेचकर वह अपनी आजीविका चला रहा है।
बिहार के पिछले विधान सभा के चुनाव में लालू-नीतीश गठबन्धन को प्रचंड बहुमत मिला था। मैं जब भी घर जाता हूं, लालजी मुझसे मिलने अवश्य आता है। मैं जबतक रहता हूं, उसे खैनी खाने के लिए प्रतिदिन बीस रुपए देता हूं। मेरे चचेरे बड़े भाई स्थानीय राजनीति में सक्रिय रहते हैं। वे भाजपा के मंडल अध्यक्ष हैं। विधान सभा चुनाव के बाद मैं घर गया था। मैंने लालजी से पूछा - “चुनाव में तुमने किसे वोट दिया था?” उसने भैया को न बताने के आश्वासन के बाद बताया -- “ मैं सबसे झूठ बोल सकता हूं, लेकिन आपसे नहीं। आप मनोज भैया को मत बताइयेगा। उन्होंने मुझसे कमल पर वोट डालने के लिए कहा था, लेकिन मैंने तीर (नीतीश) को वोट दिया।” मैंने फिर प्रश्न किया -- “तीर में तुम्हें क्या अच्छाई दिखाई पड़ी?” “ बबुआ आप समझते नहीं। लालू भैया ने मीटिंग में कहा था कि कमल वाले पावर में आने पर दलितों का आरक्षण खत्म कर देंगे।” उसने तपाक से उत्तर दिया। मैंने उससे पूछा कि आरक्षण से तुम्हें कभी कोई फायदा हुआ है? तुम्हारा बी.ए. पास बेटा दर-दर की ठोकरें खाता रहा, लेकिन उसे चपरासी की भी नौकरी नहीं मिली। इसके बाद भी तुमने लालू की बातों पर विश्वास कर लिया। उसने कहा कि जाने दीजिए; बिरादरी के किसी न किसी को फायदा तो मिलता ही होगा।
मैं उसकी त्याग-भावना के आगे नतमस्तक था। मैं घर जाता हूं तो वह पहले की तरह ही आने का समाचार पाकर मिलने के लिए आता है और खैनी का पैसा लेता है। उसका बेटा प्रदीप सायकिल से अब भी घूम-घूमकर घरेलू उत्पाद बेचता है। प्रदीप की पत्नी मेरे ही घर में झाड़ू-पोंछा करती है। लालजी का परिवार साठ साल पहले जैसा था, आज भी वैसा ही है। उसे आरक्षण की आजतक कोई सुविधा नहीं मिली लेकिन वह आरक्षण नीति में किसी तरह के बदलाव का प्रबल विरोधी है।