महाभारत की रचना महर्षि वेद व्यास ने की। यह भारत
का सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ है जिसमें वह सबकुछ है जो इस लोक में घटित हुआ है, हो रहा
है और होनेवाला है। यह हमें अनायास ही युगों-युगों से चले आ रहे उस संघर्ष की याद दिलाता
है जो मानव हृदय को आज भी उद्वेलित कर रहा है। द्वापर के अन्तिम चरण में आर्यावर्त्त
और विशेष रूप से हस्तिनापुर की गतिविधियों को कथानक के रूप में , क्रमवद्ध तथा नियोजित
विधि से अपने में समेटे, यह अद्भुत ग्रन्थ मानवीय मूल्यों, आस्थाओं, आदर्शों, दर्शन
और संवेदना के उत्कर्ष तथा कल्पनातीत पतन - दोनों के चरम की झलक प्रस्तुत करता है।
महाभारत की कथा मनुष्य के चरित्र की संभावनाओं और विसंगतियों के प्रकाशन का साक्षात
उदाहरण है जो आज भी प्रासंगिक है। मैं इसके कुछ मुख्य अंशों को अपनी भाषा, शैली और
विवेचना के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूं।
पाण्डव
१२ वर्षों के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास के बाद विराटनगर में डेरा डाले हैं। पांचाल
नरेश द्रुपद के राजपुरोहित के माध्यम से उन्होंने धृतराष्ट्र के पास इन्द्रप्रस्थ का
राज वापस करने का सन्देश भिजवाया। दुर्योधन उनका राज वापस करने के लिये कतई तैयार नहीं
था। धृतराष्ट्र ने अपना उत्तर अपने मन्त्री एवं दूत सन्जय के
माध्यम से भिजवाया। सन्जय पाण्डवों के पास जाकर सन्देश सुनाते हैं -
न चेद भागं कुरवोअन्यत्र युद्धात प्रयछन्ते तुभ्यमजातशत्रो
।
भैक्षचर्यामन्धकवृष्णिराज्ये श्रेयो मन्ये न तु
युद्धेन राज्यम ॥
हे अजातशत्रु! यदि कौरव युद्ध किये बिना तुमको तुम्हारे
राज्य का हिस्सा नहीं देते, तो अन्धक तथा वॄष्णिवंश के क्षत्रियों
के राज्य में भिक्षा मांगकर तुम निर्वाह करो, यही तुम्हारे लिए
अच्छा है। युद्ध करके राज्य प्राप्त करें यह तुम्हारे यश के अनुरूप नहीं है।
धृतराष्ट्र महाभारत का सबसे बड़ा खलनायक है।
पिता यदि अपनी सन्तान को गलत मार्ग पर चलने से नहीं रोक पाता है, तो वह अपराधी है परन्तु अपराध क्षमायोग्य है। लेकिन पिता अपनी ही सन्तान को
गलत मार्ग पर चलने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित करता है, तो
यह बड़े अपराध की श्रेणी में आता है जो किसी भी काल में क्षम्य नहीं है। वह हमेशा किसी
भी कीमत पर सिर्फ अपने बेटों का ही कल्याण चाहता है। लेकिन दुनिया की नज़रों अच्छा दीखने
की लालसा भी उसके मन में किसी से कम नहीं है। कूटनीति और कूटयोजना बनाने में वह सिर्फ
दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की सलाह
लेता है परन्तु अपने निर्णय को अनुमोदित कराने के लिये भीष्म, द्रोण और विदुर की भी सहमति का प्रयास करता है। अपने इस प्रयास में अक्सर वह
सफल नहीं होता था लेकिन सलाह-मशविरा करने का ढोंग वह हमेशा करता था। सभा ने तय किया
था कि संजय के माध्यम से हस्तिनापुर नरेश युधिष्ठिर को उत्तर भिजवायेंगे लेकिन क्या
उत्तर भिजवायेंगे, इसका निर्णय दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण की चाण्डाल चौकड़ी ने किया। संजय
को यह भी निर्देश दिया गया कि कहे गये संदेश में अपनी ओर से वे कोई जोड़-घटाव या गुणा-भाग
नहीं करेंगे। यह संदेश धृतराष्ट्र ही नहीं, विश्व के समस्त स्वार्थी
और तानाशाह शासकों की मनोदशा का प्रत्यक्ष दर्पण है। अन्धक और वृष्णिवंश की राजधानी
द्वारिका थी। श्रीकृष्ण से पाण्डवों की मैत्री को लक्ष्य बनाकर यह संदेश भिजवाया गया
था। स्पष्ट सलाह थी कि राज्य के लिये भयंकर विनाशकारी युद्ध करने से अच्छा होगा कि
युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ द्वारिका में भिक्षा मांगकर अपना जीवन-निर्वाह करें।
ऐसा संदेश एक निर्लज्ज तानाशाह ही दे सकता था।
अगले अंक में युधिष्ठिर का उत्तर
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