Saturday, December 21, 2013

एक पाती राहुल बबुआ के नाम

      स्वस्ति श्री लिखीं चाचा बनारसी के तरफ़ से राहुल बबुआ को ढेर सारा प्यार, दुलार, चुम्मा। इहां हम राजी-खुशी हैं और उम्मीद करते हैं कि तुम भी अरविन्द-नमो के झटके से उबरने की कोशिश कर रहे होगे। बचवा, राजनीति में हार-जीत तो लगी ही रहती है। तुम्हारी दादी को भी राजनारायण ने १९७७ में तुम्हारे खानदानी गढ़, रायबरेली में ही पटखनी दे दी थी। लेकिन ढाई साल के बाद उन्होंने दुबारा दिल्ली दरबार पर कब्ज़ा किया। तुम दिलेरी से काम लो। दिल छोटा न करो। अपनी स्टाइल मत बदलो। अमिताभ बच्चन यंग्री यंगमैन की इमेज के कारण ही सुपर स्टार, मेगा स्टार और मिलेनियम स्टार बन गया। आज भी बहुतों को करोड़पति बना रहा है। तुम भी राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली के चुनाव के पहले जब बांह चढ़ाकर भाषण देते थे, तो मुझे जवानी का अमिताभ बच्चन ही दिखाई देता था। दागी नेताओं को बचाने वाले मनमोहन के अध्यादेश को जब तुमने फाड़ कर कूड़ेदान में फेंक दिया था, तो मेरा मन बाग-बाग हो गया था। मुझे पूरी उम्मीद हो गई थी कि जनता को यह अदा जरूर पसन्द आयेगी। लेकिन एहसान फ़रामोश जनता नमो और केजरीवाल के बहकावे में आ गई। उसने तुम्हारे समर्पण और त्याग के बारे में सोचा तक नहीं। भरी जवानी में तुम कुंआरे हो, गर्ल फ़्रेन्ड कैलिफोर्निया में बैठी है। तुम्हारी उमर के लड़के जिन्स-शर्ट पहनकर हर वीक-एन्ड में डेटिंग करते हैं। हिन्दुस्तान में रहकर तुम यह भी नहीं कर पाते हो। मोटी खादी का सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहनना तुम्हारे पेशे की मज़बूरी है। हिन्दुस्तान का शहज़ादा होने बा्वजूद  भी तुम कलावती के घर भोजन करते हो। इस बेवफ़ा पब्लिक ने सबकुछ भुला दिया और दौड़ पड़ी एक चाय वाले के पीछे। लेकिन निराश होकर स्टाइल बदलने की कवनो ज़रूरत नहीं है। बांह चढ़ाते रहो, कागज फाड़ते रहो, बुन्देलखण्ड में कलावती-रमावती के हाथ की रोटी खाते रहो। रामचन्द्र भी शबरी का जूठा बेर खाने के बाद ही रावण को जीत पाये थे। अमिताभ बच्चन भी कई फ़्लाप फिल्म देने के बाद ही मेगा स्टार बन पाया। कभी-कभी बियाह के बाद भी सितारे चमकते हैं। अमिताभे बच्चन का केस ले लो। जया भादुड़ी से बियाह के बादे वह चमका। तुम भी बियाह कर लो। हिन्दुस्तान की तो कैटरीना कैफ़ भी तुम्हे नहीं भायेगी। तुम्हारे परनाना को लेडी माउन्टबेटन भाती थीं, तुम्हारे वालिद को इटालियन पसन्द आई, तुम अगर कैलिफ़ोर्निया से बहू लाते हो, तो मुझे कोई एतराज़ नहीं होगा। रही बात पब्लिक की, तो इतना गांठ बांध लो - अभी भी यह जनता गोरी चमड़ी को अपना आका मानती है, अंग्रेजी को अपनी भाषा और कोट-टाई को नेशनल ड्रेस। मेरी बात पर अगर शक-सुबहा हो, तो अपनी मम्मी से ही पूछ लेना। इसीलिये हम सलाह दे रहे हैं कि बचवा, बियाह कर ही लो। अगर नहीं करोगे, तो अटल बिहारी वाजपेयी की तरह लंबा इन्तज़ार करना पड़ेगा। २०१४ के चुनाव का इन्तज़ार मत करो। जो करना है, अभी कर लो। उम्मीद का दामन मत छोड़ना। मरता वही जिसकी आशा मर जाती है। मीटिंग में माईक थामते ही गीत गाना - वो सुबहा कभी तो आयेगी ........।
      समलैंगिकों का दिल से समर्थन करके तुमने बहुत अच्छा काम किया। सुप्रीम कोर्ट के ये बुढ़वे जज जवानों के ज़ज़्बातों की कोई परवाह ही नहीं करते। तुमने जवानों का मिज़ाज़ बढ़िया से भांपा है। यह काम सांप्रदायिकता वाले विधेयक लाने से भी ज्यादा फलदायी है। तुम चाहे मुसलमानों के लिये जान भी दे दो, वे बिहार में नीतिश और यू.पी. में मुलायम को ही वोट देंगे। बाकी जगह जो बी.जे.पी. को हरायेगा उसको देंगे। तुम्हारे इस बिल से हिन्दू नाराज़ होंगे अलग से। मोदी की तलवार पर काहे को सान चढ़ा रहे हो। समलैंगिकता पर ही ध्यान लगाओ तो अच्छा। इसमें न हिन्दू का भेद है, न मुसलमान का, न सिक्ख का न इसाई का। तुम एक धर्म बनाओ - गे धर्म। इसका प्रचार-प्रसार करो। सब पीछे रह जायेंगे। तुम्हारा वोट बैंक इतना मज़बूत हो जायेगा कि अरविन्द केजरीवाल, नरेन्दर मोदी, बाबा रामदेव और बुढ़ऊ अन्ना भी एकसाथ मिलकर तुम्हारा मुकाबला नहीं कर सकते। आगे बढ़ मेरे पप्पू, समलैंगिक तुम्हारे साथ हैं। ज़िन्दगी में पहली बार तुमने लीक से हटकर हिम्मत का काम किया है। कामयाबी तुम्हारे कदमों का बोसा ले। जियो राजा।
      खत में ज्यादा राज़ की बातें लिखना ठीक नहीं है। इस देश में तो बज़ट भी लीक होता है और सुप्रीम कोर्ट का जजमेन्ट भी। इसलिये मिलने पर चाचा-मन्त्र दूंगा। थोड़ा लिखना, ज़्यादा समझना। भौजी को जै राम जी की कहना। अपना खयाल रखना। इति शुभ।
            तुम्हारा अपना - चाचा बनारसी।

      

Saturday, December 14, 2013

सपनों का सौदागर - अरविन्द केजरीवाल

  भोजपुरी में एक कहावत है - ना खेलब आ ना खेले देब, खेलवे बिगाड़ देब। इसका अर्थ है - न खेलूंगा, न खेलने दूंगा; खेल ही बिगाड़ दूंगा। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘आप’ ने चुनाव के बाद गैर जिम्मेदराना वक्तव्य और काम की सारी सीमायें लांघ दी है। दिल्ली में पिछले १० वर्षों से कांग्रेस सत्ता में थी। वहां की दुर्व्यवस्था, भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के लिये कांग्रेस और सिर्फ कांग्रेस ही जिम्मेदार है। इस चुनाव में दिल्ली की जनता ने कांग्रेस के खिलाफ़ मतदान किया जिसकी परिणति आप के उदय और भाजपा का सबसे बड़े दल के रूप में उभरना रही। इस समय आप के नेताओं के बयान कांग्रेस के विरोध में न होकर पूरी तरह भाजपा के अन्ध विरोध में आ रहे हैं। भाजपा की बस इतनी गलती है कि उसने अल्पसंख्यक सरकार बनाने से इन्कार कर दिया है। बस, यही बहाना है ‘आप’ के पास असंसदीय शब्दों में गाली-गलौज करने का। श्री हर्षवर्धन और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के धैर्य और संयम की प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने अबतक शालीनता का परिचय देते हुए गाली-गलौज से अपने को दूर रखा है।
      आज मुझे यह कहने में न तो कोई झिझक हो रही है और न कोई संकोच कि अरविन्द केजरीवाल विदेशी शक्तियों के हाथ का खिलौना हैं। वे दो एन.जी.ओ. - ‘परिवर्तन’ तथा ‘कबीर’ और एक क्षेत्रीय पार्टी ‘आप’ के सर्वेसर्वा हैं। उनकी संस्थायें विदेशी पैसों से चलती हैं। उन्होंने अपनी संस्थाओं के लिये फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन, अमेरिका से वर्ष २००५ में १७२००० डालर तथा वर्ष २००६ में १९७००० डालर प्राप्त किये जिसके खर्चे का हिसाब-किताब वे आज तक नहीं दे पाये हैं, जबकि उक्त धनराशि प्राप्त करने की बात उन्होंने स्वीकार की है। फ़ोर्ड एक मंजे हुए उद्यमी हैं। बिना लाभ की प्रत्याशा के वे एक फूटी कौड़ी भी नहीं दे सकते। केजरीवाल की संस्थाओं के संबन्ध विश्व के तीसरे देशों की सरकारों को अस्थिर कर अमेरिकी हित के अनुसार सत्ता परिवर्त्तन कराने के लिये बेहिसाब धन खर्च करनेवाली कुख्यात संस्था ‘आवाज़’ से है। ‘आवाज़’ एक अमेरिकी एन.जी.ओ. है जिसका संचालन सरकार के इशारे पर वहां के कुछ बड़े उद्योगपति करते हैं। इस संस्था का बजट भारत के आम बजट के आस-पास है। यह संस्था अमेरिका के इशारे पर अमेरिका या पश्चिम विरोधी सरकार के खिलाफ Paid Agitation चलवाती है, वहां व्यवस्था और संविधान को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है और अन्त में अपनी कठपुतली सरकार बनवाकर सारे सूत्र अपने हाथ में ले लेती है। जैसमिन रिवोल्यूशन के नाम पर इस संस्था ने लीबिया में सत्ता-परिवर्त्तन किया, तहरीर चौक पर आन्दोलन करवाया, मिस्र को अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति में ढकेल दिया तथा सीरिया में गृह-युद्ध कराकर लाखों निर्दोष नागरिकों को भेड़-बकरी की तरह मरवा दिया। वही पश्चिमी शक्तियां ‘आवाज़’ और फ़ोर्ड के माध्यम से केजरीवाल में पूंजी-निवेश कर रही हैं। यही कारण है कि कांग्रेस द्वारा बिना शर्त समर्थन देने के बाद भी अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में सरकार बनाने से बार-बार इन्कार कर रहे हैं। उन्होंने दिल्ली की जनता से जो झूठे और कभी पूरा न होनेवाले हवाई वादे किये हैं, वे भी जानते हैं कि उन्हें पूरा करना कठिन ही नहीं असंभव है। दिल्ली की जनता ने उन्हें ७०/७० सीटें भी दी होती, तो क्या वे बिजली के बिल में ५०% की कटौती कर पाते, निःशुल्क पानी दे पाते या बेघर लोगों को पक्का मकान दे पाते? मुझे पुरानी हिन्दी फिल्म श्री ४२० की कहानी आंखों के सामने आ जाती है - नायक ने बड़ी चालाकी से बंबई के फुटपाथ पर सोनेवालों में इस बात का प्रचार किया कि गरीबों की भलाई के लिये एक ऐसी कंपनी आई है जो सिर्फ सौ रुपये में उन्हें पक्का मकान मुहैया करायेगी। गरीब लोगों ने पेट काटकर रुपये बचाये और कंपनी को दिये। लाखों लोगों द्वारा दिये गये करोड़ों रुपये पाकर कंपनी अपना कार्यालय बन्द कर भागने की फ़िराक में लग गई। फुटपाथ पर सोने वालों का अपना घर  पाने का सपना, सपना ही रह गया। राज कपूर ने आज की सच्चाई की भविष्यवाणी सन १९५४ में ही कर दी थी। आज भी तमाम चिट-फंड कंपनियां सपने बेचकर करोड़ों कमाती हैं और फिर चंपत हो जाती हैं। अरविन्द केजरीवाल भी सपनों के सौदागर हैं। इस खेल में फिलवक्त उन्होंने कम से कम दिल्ली में इन्दिरा गांधी और सोनिया गांधी को मात दे दी है। वे राजनीति की प्रथम चिट-फंड पार्टी के जनक है। तभी तो कांग्रेस द्वारा समर्थन दिये जाने के बाद भी, २८+८=३६ का जादुई आंकड़ा छूने के पश्चात भी राज्यपाल से मिलने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली की अधिकारविहीन सरकार के पास गिरवी रखने के लिये  है भी क्या? कोई ताजमहल भी तो नहीं है। वे चन्द्रशेखर की तरह भारत के प्रधान मंत्री भी नहीं होंगे जो देश के संचित सोने को गिरवी रखकर कम से कम चार महीने अपनी सरकार चला ले।

      जिस अन्ना हजारे के कंधे पर खड़े होकर उन्होंने प्रसिद्धि पाई, उसी का साथ छोड़ा। अन्ना ने पिछले साल ६ दिसंबर को संवाददाता सम्मेलन में केजरीवाल को स्वार्थी और घोर लालची कहा था। अन्ना कभी झूठ नहीं बोलते। केजरीवाल का उद्देश कभी भी व्यवस्था परिवर्त्तन नहीं रहा है। सिर्फ हंगामा खड़ा करना और अव्यवस्था फैलाना ही उनका मकसद है। भारत को सीरिया और मिस्र बनाना ही उनका लक्ष्य है। साथ देने के लिये सपना देखने वाले गरीब, हत्या को मज़हब मानने वाले नक्सलवादी और पैन इस्लाम का नारा देनेवाले आतंकवादी तो हैं ही। लेकिन पानी के बुलबुले का अस्तित्व लंबे समय तक नहीं रहता। जनता सब देख रही है। जिस जनता ने राहुल की उम्मीदों पर झाड़ू फेर दिया है, अपनी उम्मीदों और सपनों के टूटने पर सपनों के सौदागर केजरीवाल के मुंह पर भी झाड़ू फेर दे, तो कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं होगा। शुभम भवेत। इति।

मल्लिका, शहज़ादा और समलैंगिकता

     समलैंगिक संबन्धों के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ़ एक बार सारी अनैतिक शक्तियां एकजूट हो रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को विवादास्पद बनाने की मुहीम में समलैंगिकों के साथ मल्लिका-ए-हिन्दुस्तान, शहज़ादा-ए-हिन्दुस्तान और दिल्ली के बेताज़ बादशाह भी शामिल हो गये हैं। नीचे पेश है, उनके वक्तव्य -
      ‘दिल्ली हाईकोर्ट के फ़ैसले को पलटने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से निराशा हुई है। लेकिन उन्हें उम्मीद है कि संसद इस मामले को सुलझायेगी और देश के सभी नागरिकों के (विशेष रूप से समलैंगिकों के) अधिकारों की स्वतंत्रता की रक्षा करेगी, जिसमें वे नागरिक भी शामिल हैं जो इस फ़ैसले से सीधे प्रभावित हुए हैं
                        --सोनिया गांधी, अध्यक्ष, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, नई दिल्ली, दिनांक १२-१२-२०१३
      ‘वे दिल्ली हाईकोर्ट के उस फ़ैसले से सहमत हैं, जिसने समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था। सरकार दिल्ली हाईकोर्ट के भारतीय दंड संहिता की धारा ३७७ पर दिए गए फ़ैसले को बहाल करवाने के लिए सभी विकल्पों पर विचार कर रही है।"
                        ---- राहुल गांधी, उपाध्यक्षभारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, नई दिल्ली, दिनांक १२-१२ २०१३
      ‘आम आदमी पार्टी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले से सहमत नहीं है। यह फ़ैसला संविधान के उदार मूल्यों के विपरीत और मानवाधिकारों का हनन करने वाला है। आप ने उम्मीद जताई है कि शीर्ष अदालत अपने फ़ैसले की समीक्षा करेगी और साथ ही संसद भी कानून को बदलने के लिये कदम उठायेगी।"
                        ---- प्रवक्ता, आप, नई दिल्ली, दिनांक १२-१२-२०१३
      उपरोक्त अधिकृत वक्तव्यों की विस्तार से व्याख्या करने की आवश्यकता नहीं है।  देश का अनपढ़ आदमी भी उनके संदेश और मन्तव्य को समझ सकता है। ये वक्तव्य देश के उन नेताओं के हैं जो देश की सरकार चला रहे हैं या जनता की नई आवाज़ होने का दावा कर रहे हैं। मेरे इस लेख का मकसद देश के इन शीर्ष नेताओं की मानसिकता से देश को अवगत कराना है।
      कांग्रेस ने आरंभ से ही अपने देश की संसकृति, सभ्यता और अखंडता को खंड-खंड करने का कभी सफल, तो कभी असफल प्रयास किया है। बांग्ला देश और पाकिस्तान १४ अगस्त, १९४७ के पूर्व अखंड भारत के ही हिस्से थे। देश के विभाजन का अक्षम्य अपराध कांग्रेस ने किया, सज़ा तीनों देशों के बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक, आज तक भुगत रहे हैं। कांग्रेस ने इस पाप के लिये आजतक न माफ़ी मांगी है और न खेद प्रकट किया है। भारतीय सभ्यता, संस्कृति और भाषा से इनका रिश्ता हमेशा छ्त्तीस का रहा है। बड़े दुःख के साथ इतिहास के पुराने पन्ने खोलने पड़ रहे हैं। जवाहर लाल नेहरू की रंगीन मिज़ाज़ी के प्रमाण अनेक पुस्तकों और लेडी माउन्टबैटन के साथ उनके प्रकाशित प्रेम-पत्रों में दर्ज़ है, जिन्हें नेट पर जाकर कोई भी पढ़ सकता है। पत्नी कमला नेहरू के देहान्त के बाद भारत कोकिला सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू से नेहरूजी के रिश्ते पत्नी की तरह थे। उनके प्रधान मंत्री बनने के बाद वे उनके साथ त्रिमूर्ती भवन में ही रहती थीं। नेहरूजी ने उनसे वादा किया था कि देश आज़ाद होने के बाद वे उनसे शादी कर लेंगे। लेकिन लेडी माउन्ट्बैटन के भारत आगमन के बाद सारे समीकरण बदल गये। जैसे-जैसे नेहरूजी और लेडी वायसराय के संबन्ध अन्तरंग होते गए, पद्मजा दूर होती गईं। एक दिन पद्मजा ने रोते हुए त्रिमूर्ति भवन हमेशा के लिये छोड़ दिया। नेहरूजी की बेवफ़ाई को जीवन भर सीने से लगाकर उन्होंने कुंवारा और एकाकी जीवन ही व्यतीत किया। और भी किस्से हैं ...........चर्चा फिर कभी।
      इन्दिरा गांधी ने नेहरू जी की इच्छा के खिलाफ़ विधर्मी से व्याह रचाया। महात्मा गांधी ने नव दंपत्ति का गांधीकरण किया, सिर्फ़ नाम से, जो आज भी चल रहा है। एक पुत्र की उत्पत्ति के बाद यह संबन्ध भी सिर्फ कागज पर ही रह गया। फ़िरोज़ गांधी को अकेले ही जीना पड़ा। विवाहेतर संबन्धों पर मौन ही रहा जाय तो अच्छा।
      युवा हृदय सम्राट राजीव गांधी को कोई स्वदेशी लड़की कभी भायी ही नहीं। खानदान में अबतक हिन्दू और मुसलमान का ही प्रवेश हुआ था। अब विदेशी क्रिश्चियन की बारी थी। उन्होंने इस कमी की पूर्ति की। धर्म निरपेक्षता के लिये यह आवश्यक भी था। सोनिया गांधी भारत की राजमाता (खुर्शीद आलम के शब्दों में) बनीं। शहज़ादा पीछे क्यों रहते? उन्हें हार्वार्ड यूनिवर्सिटी के अपने असफल शिक्षा-अवधि के दौरान कैलिफोर्नियायी गर्ल-फ्रेन्ड पसन्द आई। शादी हिन्दुस्तान के शहन्शाह बनने के बाद होनी थी। फिलहाल नमो ने सारा खेल बिगाड़ दिया है। अब आशा के केन्द्र समलैंगिक रह गये हैं। आम जनता ने तो चार राज्यों में धूल चटा दी है, अब समलैंगिक वोट-बैंक ही शायद नैया पार लगाये।
      इस मामले में सपनों के सौदागर अरविन्द केजरीवाल पीछे क्यों रहते। उनके प्रवक्ता कहते हैं कि युगों-युगों से विश्व के हर कोने में समलैंगिक संबन्ध रहे हैं। अतः इसे वैधानिकता प्रदान करना आवश्यक है। कोई इनसे पूछे कि क्या युगों-युगों से बलात्कार, वेश्यावृत्ति, हत्या, लूटपाट और भ्रष्टाचार का अस्तित्व नहीं रहा है? क्या इनको वैधानिक मान्यता देना आवश्यक नहीं है? केजरीवाल पिछले चुनाव में भाजपा से ४ सीटें कम पाकर दूसरे नंबर पर हैं। सरकार बना नहीं पा रहे हैं। शायद समलैंगिक वोट-बैंक पर उनकी भी नज़र हो।
      देश के हिन्दू और मुसलमान किसी विषय पर विरले ही एकमत होते हैं। अगर ये दोनों समुदाय समलैंगिक संबन्धों की एकसाथ मुखालफ़त कर रहे हैं, तो इसे नज़र अन्दाज़ करना पूरे समाज और संस्कृति के लिये घातक होगा। इस देश के हिन्दू और मुसलमानों का मूल (Origin) एक ही होने के कारण उनकी मौलिक संस्कृति एक है। सामाजिक और जीवन-मूल्य भी एक ही है। ये दोनों समुदाय जिनकी इस देश में संयुक्त आबादी ९६% है, कभी भी समलैंगिकता की वैधानिकता को स्वीकर नहीं कर सकते। यह अप्राकृतिक संबन्ध विकृत मानसिकता की उपज है। मनुष्यों के अतिरिक्त किसी भी योनि - पशु-पक्षी, पेड़-पौधे में ऐसे संबन्ध आज तक प्रकाश में नहीं आये हैं - होते ही नहीं हैं। ऐसे संबन्ध प्रकृति द्वारा प्रदत्त सृष्टि को निरन्तर आगे बढ़ाने के लिये पुरुष और स्त्री के नैसर्गिक संबन्धों को खुली अनैतिक चुनौती है। इसका पूरी शक्ति से विरोध होना चाहिए। उन अनैतिक शक्तियों को, जो इसे संवैधानिक जामा पहनाने की खुलेआम मांग कर रहे हैं को बेनकाब और ध्वस्त करने का समय भी आ गया है। सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला संविधान सम्मत, मानवाधिकार सम्मत, धर्म सम्मत, लोक सम्मत और सर्वजनहितकारी है। इस फ़ैसले के लिये सुप्रीम कोर्ट की जितनी प्रशंसा की जाय, कम होगी। जजों को कोटिशः बधाई। सभ्यता, संस्कृति, जीवन-मूल्यों और नैतिकता विरोधी ताकतों को आन्दोलन, जनजागरण और चुनाव के माध्यम से सबक सिखाना सभी हिन्दुस्तानियों का दायित्व और पुनीत कर्त्तव्य है।


Wednesday, November 27, 2013

मानवाधिकार आयोग के साथ एक दिन

        दिनांक २६-११-२०१३, मंगलवार को वाराणसी में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की फुल बेंच की बैठक हुई। वाराणसी के कमिश्नर के सभागार में आयोजित खुली सुनवाई का उद्घाटन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और वर्तमान अध्यक्ष, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, न्यायमूर्ति श्री बाककृष्णन ने किया। इस खुली सुनवाई (Open Hearing) में उत्तर प्रदेश पावर कार्पोरेशन लि. से संबन्धित कई मामले थे। इसे बिजली विभाग ने काफी गंभीरता से लिया था। अतः खुली बहस में हमलोग पूरी तैयारी से गए थे। लखनऊ से पावर कार्पोरेशन का प्रतिनिधित्व श्री राधे मोहन, निदेशक (पी एन्ड ए) तथा वाराणसी से पूर्वान्चल विद्युत वितरण निगम लि. का प्रतिनिधित्व मैं स्वयं, मुख्य अभियन्ता (प्रशासन) के रूप में कर रहा था। दो दिवसीय सुनवाई के लिये वाराणसी, गाज़ीपुर, जौनपुर और चन्दौली जिले के १२३ मामले सूचीबद्ध थे। सुनवाई के लिये दो न्यायालय गठित किए गए थे - एक कमिश्नर के सभागार में दूसरा वही प्रेक्षागृह में। एक तरफ शिकायतकर्त्ता बैठे थे और दूसरी तरफ जिला प्रशासन और संबन्धित विभागों के सरकारी अधिकारी। जज के अतिरिक्त सभी एक ही तरह की कुर्सियों पर बैठे थे। बैठने की व्यवस्था में कोई भेदभाव नहीं था।
सुनवाई की शुरुआत चन्दौली जिले की शिकायतों से हुई। दिन के १.३० बजे तक चन्दौली की सभी १४ शिकायतों का निस्तारण हो गया। माननीय न्यायाधीश ने सभी शिकायतों पर अपना निर्णय सार्वजनिक रूप से न सिर्फ सुना दिया बल्कि रिकार्ड भी करा दिया। दोपहर के बाद चार बजे गाज़ीपुर जिले की सभी १२ शिकायतों का निस्तारण इसी कोर्ट ने किया। अपनी दो दिवसीय खुली सुनवाई के दौरान सभी १२३ मामले निस्तारित किये गए। मानवाधिका आयोग का जनता के बीच जाकर खुली सुनवाई के द्वारा मामलों के निस्तारण का यह अभिनव प्रयोग था। इसके लिये न्यायमूर्ति श्री बालकृष्णन बधाई के पात्र हैं।
हाई स्कूल के हिन्दी के पाठ्यक्रम में महान कथाकार मुन्शी प्रेमचन्द की एक कहानी पढ़ी थी - पंच परमेश्वर। अंग्रेजी न्यायप्रणाली के आगमन के पूर्व भारत में गांव की पंचायत ही गांव के सभी दीवानी-फ़ौज़दारी मामलों की सुनवाई करती थी और अमूमन एक ही बैठक में फ़ैसला भी सुनाती थी। तब शायद सबको न्याय मिलता था। प्रेमचन्द ने इसी न्याप्रणाली का अत्यन्त सशक्त और प्रभावशाली वर्णन एक रोचक कहानी के माध्यम से ‘पंच परमेश्वर’ में किया था। प्रेमचन्द ही नहीं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की भी गहरी आस्था हिन्दुस्तान की पारंपरिक न्याय-व्यवस्था में थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘हिन्द स्वराज’ में स्पष्ट रूप से ग्राम पंचायत की वकालत की है। लेकिन आज़ादी के बाद हमने अंग्रेजों द्वारा लागू की गई न्याय-प्रणाली को ज्यों-का-त्यों स्वीकार लिया और पूरे भारत के न्याय को काले कोट वालों को सुपुर्द कर दिया। गांधीजी ने लिखा है कि ये काले कोट वाले (न्याय के दलाल) वेश्या से भी गये गुजरे हैं। वेश्या कम से कम पैसे लेकर देनेवाले को उपकृत तो करती है, लेकिन ये काले कोट वाले जिससे पैसा पाते हैं, उसीका अहित करते हैं। जबतक मुवक्किल का घर-द्वार बिक नहीं जाता, वह दौड़ता ही रहता है, उसका शोषण होता ही रहता है। ऐसी न्याय-व्यवस्था में उसी व्यवस्था के अवकाशप्राप्त न्यायाधीशों द्वारा खुली सुनवाई के दौरान मामलों का त्वरित और उचित निस्तारण मेरे लिये घोर आश्चर्य का विषय था। बिल्कुल पंच परमेश्वर की शैली में न्याय किया जा रहा था। न कोई वकील, न पैरोकार, न दलाल और ना ही कोई बिचौलिया। केस नंबर और शिकायतकर्त्ता के नाम की उद्घोषणा सर्वप्रथम की जाती थी। शिकायतकर्त्ता ध्वनि उद्घोषक के माध्यम से अपनी पूरी बात जज के सामने रखता था। संबन्धित सरकारी अधिकारी शिकायत का उत्तर देता था। जज और शिकायतकर्त्ता क्रास एक्जामिनेशन के लिये स्वतंत्र थे। अनुभवी जज कुछ ही मिनटों में सही स्थिति को भांप लेते थे। वादी-प्रतिवादी से जज की कुछ ही मिनटों के उत्तर-प्रत्युत्तर में दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता था। फैसला सुनकर मैं आंखें फाड़कर जज को देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था क्योंकि वहां ताली बजाने की मनाही थी। न्याय पाने में अपने घर से वाराणसी आने में हुए खर्चे के अलावे वादी का एक पैसा भी खर्च हुआ होगा, मुझे ऐसा नहीं लगा। सभी मामले दलित उत्पीड़न के थे। सुनवाई के पूर्व जिन दलितों की आंखों में निराशा और अविश्वास के भाव थे, सुनवाई के बाद उनकी आंखों में एक चमक थी। उन्हें न सिर्फ न्याय मिल रहा था बल्कि न्याय दीख भी रहा था।
मानवाधिकार आयोग ने एक अभिनव प्रयोग किया है। इसकी जितनी प्रशंसा की जाय, कम पड़ेगी। यह प्रयोग वर्तमान न्याय-प्रणाली को एक संदेश दे रहा है। क्या हमारा हाई कोर्ट, जिला कोर्ट और लोवर कोर्ट गांव, कस्बों में अपनी खुली अदालतें नहीं लगवा सकते हैं, जिसमें वादी हों, प्रतिवादी हों, गवाह हों लेकिन कोई काला कोट वाला न हो। 

Monday, November 4, 2013

अंग्रेजी मानसिकता


      आजकल मैं बंगलोर में हूं, बेटे के पास। त्योहारों में अकेले वाराणसी में रहना थोड़ा खलता है। इसलिये हर साल की तरह इस साल भी मैंने बंगलोर में ही दीपावली मनाने का निश्चय किया। दीपावली के दिन पता ही नहीं लगा कि मैं वाराणसी के बाहर हूं। वही शोर-शराबा, वही उत्साह, वही तैयारी, वही सज़ावट और वही पटाखेबाज़ी। उत्तर भारतीय, मराठी, गुजराती, बंगाली और कर्नाटकवासी - सभी बड़े उत्साह से दीपावली मना रहे थे। सब जगह छुट्टी थी। स्कूल, कालेजअस्पताल और प्रेस तक बन्द थे। अखबार दूसरे दिन निकला। डेक्कन क्रोनिकल यहां का सर्वाधिक लोकप्रिय अंग्रेजी अखबार है। घर पर यही अखबार आता है; इसलिये मैं भी यही पढ़ता हूं। दीपावलीसे संबन्धित जो मुख्य समाचार इस अखबार के मुख्यपृष्ठ पर था, वह दीपावली की आतिशबाज़ी के कारण प्रदूषण से था। समाचार था कि इस बार पिछले सालों की तुलना में धुएं और आवाज़ का प्रदूषण कम था। जनता ने कितने उत्साह से यह पर्व मनाया, क्या-क्या आयोजन किये गये थे और किन-किन लोगों ने दीपावली की शुभकामनायें जनता को दी थी, इसका कहीं जिक्र तक नहीं था। अखबार के अन्दर पेज संख्या ८ पर गया, तो अनिल धरकर का लेख पढ़ने को मिला। शीर्षक था - Our obsession with the personality cult. पूरा लेख गुजरात में नरेन्द्र मोदी द्वारा सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची लौह प्रतिमा स्थापित करने के विरोध में था। लेखक का मानना है कि प्रतिमा की स्थापना से भारत में व्यक्ति-पूजा की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, जो कही से भी प्रशंसनीय नहीं है। लेखक को मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनल और वहां के हवाई अड्डे का नाम छत्रपति शिवाजी के नाम पर रखने का भी बहुत मलाल है।
      अंग्रेजी के लेखक, चाहे वे पत्रकार हों, इतिहासकार हों, उपन्यासकार हों, अपने Speriority complex से हमेशा ग्रस्त रहे हैं। भारत के देसी महापुरुष, देसी संस्कृति, देसी परंपरायें और देसी रहन-सहन उनके लिये सदा ही उपहास के विषय रहे हैं। उसी शृंखला में वे न तो शिवाजी को मान्यता देते हैं, न सरदार पटेल को और ना ही दीपावली के त्योहार को। इनका एजेन्डा गुप्त तो है लेकिन समाज पर अपना शिकंजा कसता जा रहा है। कारपोरेट घराने की मदद और कुकुरमुत्ते की तरह उग आये समाचार चैनलों के माध्यम से इन्होंने आंग्ल नववर्ष, क्रिसमस और वेलेन्टाइन डे को राष्ट्रीय त्योहार तो बना ही दिया है, अब कुदृष्टि बहुसंख्यक समुदाय के अन्दर गहरा पैठ रखने वाले उनके मुख्य त्योहारों पर है। ध्वनि और धूएं के नाम पर दीपावली को बदनाम करना, पानी के ज्यादा उपयोग पर होली को कोसना और नदियों एवं समुद्र के प्रदूषण के नाम पर गणेशोत्सव और दुर्गापूजा की आलोचना करना अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों का प्रमुख शगल है। इन महानुभावों को क्रिसमस और आंग्ल नववर्ष तथा शबेबारात के अवसर पर की जा रही आतिशबाज़ी कही दिखाई नहीं पड़ती। बकरीद के अवसर पर सामूहिक जीवहत्या और उसके कचड़े को मुख्य मार्ग पर फेंक देना कभी नज़र नहीं आता। ये लोग दिल्ली के औरंगज़ेब और अकबर मार्ग पर गलती से भी कोई टिप्पणी नहीं करेंगे लेकिन विक्टोरिया टर्मिनल को छत्रपति शिवाजी टर्मिनल के नामकरण पर सैकड़ों लेख लिख डालेंगे। ये लोग आज भी अंग्रेजों के शासन-काल को बेहतर मानते हैं। ये लोग नेहरू, इन्दिरा, राजीव, सोनिया और राहुल को इसलिये पसन्द करते हैं कि ये सभी आपस में अंग्रेजी में ही बात करते थे, करते हैं और करते रहेंगे। अंग्रेजी मीडिया इन्हें अंग्रेजों का वास्तविक उत्तराधिकारी मानती है। अंग्रेजी की प्रख्यात लेखिका एवं पत्रकार तवलीन सिंह ने अपनी पुस्तक ‘दरबार’ में इस मानसिकता का विस्तार से वर्णन किया है। हालांकि उन्होंने इस मानसिकता के विरोध में एक हल्की आवाज़ उठाई है परन्तु वे स्वयं इस मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त दिखती है। अंग्रेजी बोलनेवाले जिस Elite क्लास का उन्होंने प्रशंसा के साथ वर्णन किया है उसमें मर्दों के साथ औरतों के मुक्त विचरण, सार्वजनिक रूप से पार्टियों में शराब और सिगरेट का सेवन और सपना भी अंग्रेजी में देखने की आदत को अभिजात्य वर्ग की सामान्य आदतों के रूप में स्वीकार करना शामिल है। ऐसी ही पार्टियों के माध्यम से लेखिका ने सोनिया और राजीव गांधी से निकटता बढ़ाई थी, यह तथ्य उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है। उनके अनुसार राजनीति में आने के पहले सोनिया पूरी तरह अंग्रेजी रंग में रंगी थीं। यहां तक कि वे खाना भी इटालियन ही पसन्द करती थीं, कपड़े के नाम पर वे फ़्राक पहनती थीं और दोस्ती भी उन्हीं से करती थी जो अंग्रेजी अंग्रेजों की तरह बोल लेते थे। अगर कोई इटालियन बोलने वाला मिल गया, तो फिर क्या कहने। क्वात्रोची को इटालियन बोलने का ही लाभ मिला था।
      अपने देसी अन्दाज़ के ही कारण सरदार पटेल आज़ादी के पहले और बाद में भी अंग्रेजी अखबारों के किये खलनायक से कम नहीं थे। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को इतना महिमामंडित किया कि सरदार पटेल, सुभासचन्द्र बोस, डा. राजेन्द्र प्रसाद, वीर सावरकर तो क्या गांधीजी का भी आभामंडल फीका पड़ गया। भारत के हर कोने में, चाहे वह पूरब हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्खिन, ७५% सड़को, मुहल्लों, स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों, चौराहों, अस्पतालों, हवाई अड्डों, बस स्टेशन, शोध केन्द्रों, सेतुओं, योजनाओं और भवनों के नाम नेहरू, इन्दिरा, राजीव और संजय गांधी के नाम पर ही हैं। गांधी बाबा भी इनके पीछे ही हैं। पूरे हिन्दुस्तान में इनकी न जाने कितनी मूर्तियां लगी हैं, लेकिन सरदार पटेल की नरेन्द्र मोदी द्वारा एक प्रतिमा स्थापित करने पर इन काले अंग्रेज बुद्धिजीवियों (तथाकथित) को घोर आपत्ति है। सरदार पटेल उन्हें आज भी नेहरू को चुनौती देते दीख रहे हैं। एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा। मोदी के बदले राहुल प्रतिमा की स्थापना करते (जो असंभव था), तो उन्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं होती। लेकिन ठेठ देसी नरेन्द्र मोदी ऐसा कर रहे हैं, उनके अनुसार यह लोहे की बर्बादी और व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने के निन्दनीय प्रयास के अलावा और कुछ भी नहीं है।
      अंग्रेजी अखबार आज़ादी के पहले अंग्रेजों का गुणगान करते थे। कांग्रेस और आज़ादी की जोरदार आलोचना करते थे। आज़ादी के बाद इनकी निष्ठा नेहरू-परिवार की चेरी बनी। इन्होंने आपात काल और इन्दिरा की शान में बेइन्तहां कसीदे काढ़े। जयप्रकाश नारायण और संपूर्ण क्रान्ति को जी भरकर कोसा। न तो वे देश को आज़ाद होने से रोक पाये और न ही १९७७ में जनता पार्टी को सत्तारुढ़ होने से डिगा सके। आज भी वे समय की नब्ज़ पहचान पाने में असमर्थ हैं। दूर अमेरिका और इंगलैन्ड में नरेन्द्र मोदी की विजय-दुन्दुभि अभी से सुनाई पड़ने लगी है लेकिन ये देखकर भी अन्धेपन का और सुनकर भी बहरेपन का अभिनय करने को विवश हैं। ये खाते हैं दाल-रोटी और पीते हैं शैंपेन। हंसते हैं हिन्दी में, बोलते अंग्रेजी में। लार्ड मैकाले की आत्मा गदगद हो रही होगी। जो काम गोरे अंग्रेज नहीं कर पाये, वह काले अंग्रेज कर रहे हैं - उनसे भी ज्यादा निष्ठा, ईमानदारी, लगन, भक्ति और शक्ति से।

Wednesday, October 30, 2013

अगर यह ब्लास्ट अहमदाबाद में होता

  कल्पना कीजिये कि दिनांक २७-१०-१३ को नरेन्द्र मोदी की पटना रैली के दौरान गांधी मैदान और पटना रेलवे स्टेशन पर हुए सिरियल बम ब्लास्ट जैसे बम ब्लास्ट राहुल गांधी की अहमदाबाद की रैली में हुए होते? देश-विदेश, सरकार, मीडिया, स्वघोषित सेकुलर, जातिवादी और वंशवादी पार्टियों की क्या प्रतिक्रिया होती? क्या नरेन्द्र मोदी वैसे विस्फोट के बाद एक दिन भी सत्ता में रह पाते? इन छद्म सेकुलरिस्टों ने बवाल मचा कर उन्हें कब का पदच्युत कर दिया होता। याद कीजिये - राम-मन्दिर - बाबरी मस्जिद का ढांचा गिरा था उत्तर प्रदेश में और कांग्रेसियों ने बर्खास्त की थीं राजस्थान, मध्यप्रदेश और हिमाचल की भाजपा की सरकारें। ऐसा लोकतंत्र और ऐसी संसदीय प्रणाली सिर्फ भारत में संभव है।
      देश की सबसे बड़ी और चुस्त सुरक्षा व्यवस्था का उपयोग करने वाले राजवंशी परिवार के राहुल गांधी कहते हैं कि इन लोगों ने मेरी दादी को मार डाला, मेरे पिता को मार डाला और अब मेरी जान के पीछे पड़े हैं। अपनी जान को खतरे में बताकर वे जनता से सहानुभूति की उम्मीद रखते हैं। अगले चुनाव में कांग्रेस के पास जनता से कहने के लिये है ही क्या? इस पार्टी ने सदा जनता की भावनाओं का दोहन किया है और दी है देश विभाजन की त्रासदी, कश्मीर की समस्या, चीन के हाथों शर्मनाक पराजय, विभाजन और उसके बाद के दंगों में लक्ष-लक्ष जनता कत्लेआम, १९८४ में सिक्खों का सामूहिक नरसंहार, गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी और समाज का विभाजन। आज जब नरेन्द्र मोदी कांग्रेस के कुकृत्यों का जवाब मांग रहे हैं, तो बौखलाए राजनेता षडयंत्र पर उतर आये हैं।
      नरेन्द्र मोदी की पटना की रैली के दौरान हुए बम-विस्फोट सुनियोजित थे। यहश विस्फोट नीतीश और कांग्रेस की युगलबन्दी का सीधा परिणाम था। नरेन्द्र मोदी को हमेशा के लिये मिटा देने की साज़िश थी। देश की राजनीति को इन छद्म सेकुलरिस्टों ने उस अंधेरी गली में ढकेल दिया है जहां सहिष्णुता का स्थान व्यक्तिगत घृणा ने ले लिया है। इन फ़ासिस्ट ताकतों को हिन्दुस्तान से कोई प्यार नहीं। इन्हें सिर्फ़ सत्ता चाहिये, चाहे वह नरेन्द्र मोदी की हत्या के मार्फ़त आये, आई.एस.आई. से हाथ मिलाकर आये, नक्सलवाद से आये, जातिवाद फैलाकर आये या जनता के भावनात्मक शोषण से आये।

      पटना में बम-विस्फोट होता है और देश का गृह-मंत्री मुम्बई में फिल्मी शो करता है। राहुल, सोनिया और प्रधानमंत्री संवेदना के दो बोल नहीं बोलते हैं। ओसमा बिन लादेन की मौत पर भी आंसू बहाने वाली मीडिया सलाह दे रही है कि मोदी को ब्लास्ट के बाद रैली नहीं करनी चाहिए थी। नीतीश ने तो कृतघ्नता की हद कर दी। अगर भाजपा का सहयोग नहीं मिला होता तो वे कभी भी बिहार के मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। लेकिन नरेन्द्र मोदी से व्यक्तिगत द्वेष उन्हें नीचता की इस हद तक ले जा सकता है, इसकी कल्पना नहीं थी। मोदी की अत्यन्त सफल रैलियों से आक्रान्त कोई आईएसआई और कांग्रेस से इतना घृणित समझौता कैसे कर सकता है? लालू ने आडवानी को सम्मान जनक ढंग से सिर्फ़ गिरफ़्तार किया था, जान से मारने की साज़िश नहीं रची थी। नीतीश लालू से कई योजन आगे निकल गये। केन्द्र और खुफ़िया एजेन्सियों की हिदायतों के बाद भी इरादतन लापरवाही बरती गई। बिहार सरकार का यह अपराध अक्षम्य है। इसका फ़ैसला जनता की अदालत में ही हो सकता है और वह दिन भी अब ज्यादा दूर नहीं। पटना में विस्फोट कराकर केन्द्र सरकार यू.पी और अन्य राज्यों की छद्म सेकुलरिस्ट सरकारों को यह संदेश भी देना चाहती है कि सुरक्षा, दंगों और शान्ति-व्यवस्था के नाम पर नरेन्द्र मोदी की होनेवाली रैलियां रोक दी जांय। कुछ भी कर सकती हैं ये स्वार्थी सरकारें, लेकिन जनता का मन नहीं बदल सकतीं। लोकनायक जय प्रकाश नारायण के बाद हिन्दुस्तान ने पहली बार नरेन्द्र मोदी के रूप में एक जन-नायक पाया है। उसे कई जयचन्द, कई मिरज़ाफ़र और कई पप्पू भी एक साथ मिलकर नहीं रोक सकते।

Friday, October 25, 2013

एक थे मन्ना डे

      कौन कहता है कि मन्ना डे अब नहीं रहे? उनकी सुरीली आवाज़ फ़िजाओं में अनन्त काल तक तैरती रहेगी। बेशक उन्हें उनके समकालीन गायक मुकेश, मो. रफ़ी और किशोर की तरह लोकप्रियता नहीं मिल पाई, लेकिन उनका क्लास और उनकी गायकी हर दृष्टि से अपने समकालीनों से बेहतर थी। मन्ना डे मुकेश, रफ़ी, किशोर या महेन्द्र कपूर के सारे गाने उतनी ही दक्षता से गा सकते थे, लेकिन कोई भी गायक मन्ना डे की तरह नहीं गा सकता था। मो. रफ़ी ने अपने जीवन-काल में ही अपने प्रशंसकों से कहा था - आप लोग मुझे सुनते हैं लेकिन मैं सिर्फ़ मन्ना डे को सुनता हूं। १९५० से १९७० के बीच की अवधि को संगीत की दृष्टि से हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण-युग कहा जाता है। इस कालखंड में मुकेश, रफ़ी, महेन्द्र कपूर और मन्ना डे की चार ‘एम’ की चौकड़ी ने अपनी-अपनी विधाओं से हिन्दी गीतों को हिमालय जैसी ऊंचाई प्रदान की। आज की तिथि में चारों ‘एम’ खामोश हैं, परन्तु उनकी सुरीली आवाज़ें सदियों-सदियों तक संगीत प्रेमियों को चरम आनन्द प्रदान करती रहेंगी।
बड़ी मुश्किल से मिलते हैं ऐसे लोग इस ज़माने में,
लगेंगी सदियां हमें आपको भुलाने में। 
मन्ना डे एक उच्चस्तरीय गायक थे। उनकी प्रतिभा को बहुत कम संगीतकारों ने पहचाना। श्रोता वर्ग भी उन्हें चरित्र नायकों, बुढ़े फ़कीर या कामेडियनों के गायक मानते थे। इस भ्रम को राज कपूर ने फ़िल्म श्री ४२० के माध्यम से तोड़ा। उन्होंने मन्ना दा का स्वर लिया और अविस्मरणीय़ गीत गवाया - प्यार हुआ इकरार हुआ .... दिल का हाल सुने दिलवाला। ये गाने मुकेश द्वारा गाये गये गीत, मेरा जूता है जापानी....से कम लोकप्रिय नहीं हुए। राजकपूर ने अपनी फिल्म ‘चोरी-चोरी’ के सारे गीत मन्ना डे से ही गवाए और सारे गीत मील के पत्थर बन गये। ‘आ जा सनम मधुर चांदनी में हम.......जहां भी जाती हूं वही चले आते हो - लता के साथ गाये इन युगल गीतों को कौन संगीत प्रेमी भूल सकता है? राज कपूर को प्रतिभा की सही पहचान थी। अगर उनका साथ नहीं मिला होता तो शायद मुकेश भी फिल्मी भेंड़चाल के शिकार हो गये होते। राजकपूर को मन्ना डे और मुकेश पर बहुत भरोसा था। नायक के रूप में अपनी अन्तिम फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ में उन्होंने मन्ना डे की आवाज़ में जो गीत - ऐ भाई ज़रा देख के चलो........गाया था, वह अविस्मरणीय बन गया।
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछ्ड़े चमन...सुर ना सजे क्या गाऊं मैं.........कसमें वादे प्यार वफ़ा सब........यारी है ईमान मेरा.......लागा चुनरी में दाग छुपाऊं कैसे.... मेरा नाम करेगा रोशन जग में मेरा राजदुलारा.....चलत मुसाफ़िर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया................नदिया बहे, बहे रे धारा......ज़िन्दगी कैसी है पहेली.............कितने गानों का मुखड़ा लिखें इस लेख में? मन्ना डे ने ३५०० से अधिक गाने गाये और सबके सब बेमिसाल।
मन्ना डे का जन्म १ मई १९१९ को कोलकाता में हुआ था। उस समय के प्रख्यात गायक के.सी.डे उनके चाचा थे। उन्हीं की प्रेरणा से मन्ना डे हिन्दी फिल्म जगत में आये। संगीत के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिये उन्हे भारत सरकार ने ‘पद्मश्री’ और पद्मभूषण’ से सम्मानित किया उन्हें फिल्म जगत में अपने अद्वितीय योगदान के लिए सर्वोच्च सम्मान ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ भी प्रदान किया गया। देर से ही सही मन्ना डे के साथ न्याय हुआ। उनके गायन में सागर सी गहराई थी।
प्यार के एक सागर में जब ज़िन्दगी किसी को एक पहेली लगती हो, तो दूर से आती है एक आवाज़ - आंधी कभी, तूफान कभी, कभी मजधार! जीत है उसी की, जिसने मानी नहीं हार। तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम। वह आवाज़ खामोश हो गई है। मन्ना डे नहीं रहे। विश्वास नहीं होता। संगीत का एक सफर अपनी सदी को छूने से पहले ठहर सा गया। फिर भी दुनिया भर में संगीत के करोड़ों प्रेमी उन्हें उनके गाये गीतों के जरिए अपने करीब महसूस करते रहेंगे। हिन्दी सिनेमा में मुश्किल गीतों की जब भी बारी आयेगी, मन्ना डे याद आयेंगे।

Sunday, October 20, 2013

प्रवक्ता.काम, एक हिन्दी पोर्टल ही नहीं, आन्दोलन है

        असफलताओं से निराश न होना, यह एक अद्भुत स्वभाव है जो विरले लोगों को ही प्राप्त होता है। यह भी सत्य है कि संघर्ष ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान करता है, लेकिन पूर्णता प्राप्त करने के पूर्व ही अधिकांश टूट भी जाते हैं। ऐसे अनगिनत साहित्यकार हैं जो आजकल के सुविधाभोगी साहित्यकारों की मठाधीशी के शिकार होकर गुमनामी के अन्धेरे में सदा के किए गुम हो गए। इन गुम होनेवाले लेखकों में मेरा भी नाम जुड़ने ही वाला था कि प्रवक्ता.काम का न्यू मिडिया में आविर्भाव हुआ। मैं बच गया। प्रवक्ता और संजीव सिन्हा को इस कार्य के लिए हार्दिक धन्यवाद।
      मैंने अबतक जितनी रचनाएं लिखी हैं उनमें से दो को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति मानता हूं। पहली कृति है - ‘दिदिया’। मेरे गांव में वे पैदा हुई थीं और रिश्ते में मेरी चचेरी बहन लगती थीं। वे एक महान स्वतंत्रता सेनानी थीं। आज़ादी के लिए कई बार जेल गई थीं। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रमुख नेता थीं जिसे  महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डा. राजेन्द्र प्रसाद और जय प्रकाश नारायण जैसी विभूतियां न सिर्फ जानती थीं, बल्कि सम्मान भी करती थीं। देश के बंटवारे के बाद उन्होंने व्यथित होकर कांग्रेस छोड़ दी और जय प्रकाश नारायण की प्रजा पार्टी में शामिल हो गईं। महाराज गंज संसदीय क्षेत्र से १९५२ का चुनाव भी लड़ा उन्होंने। उस समय प्रत्येक उम्मीदवार की पेटी अलग-अलग हुआ करती थी। मतदाता अपनी पसन्द के उम्मीदवार की पेटी में अपना मत डालता था। वे हर जगह से लीड कर रही थीं। सरकार और कांग्रेसियों को यह स्वीकार नहीं था। गणना के समय उनकी मतपेटी के मत निकालकर कांग्रेसी उम्मीदवार की मतपेटी में डाल दिए गए। वे मात्र तीन हजार मतों के अन्तर से चुनाव हार गईं। चुनाव आयोग से शिकायत भी की गई, लेकिन असफलता ही हाथ लगी। बिहार के तात्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ़ जाने की हिम्मत किसमें थी? चुनाव के बाद जय प्रकाश नारायण ने राजनीति से संन्यास ले लिया। साथ में दिदिया जिनका असली नाम श्रीमती तारा रानी श्रीवास्तव था, ने भी संन्यास ग्रहण कर लिया। उनका शेष जीवन हिन्दी साहित्य और स्त्री-शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बीता। उनके पति श्री फुलेना प्रसाद भी बिहार कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेता थे। १६ अगस्त, १९४२ को ‘करो या मरो’ आन्दोलन के दौरान महाराज गंज के थाने पर कब्जा करके तिरंगा फहराते हुए अंग्रेजों की बर्बरता के शिकार हुए। उन्हें सामने से गोली मारी गई और वे आठ गोली खाने के बाद थाना परिसर में ही शहीद हो गए। आज भी बिहार के महाराज गंज तहसील के मुख्य बाज़ार में प्रवेश करते ही लाल रंग का एक स्तंभ दिखाई पड़ता है। यह अमर शहीद फुलेना प्रसाद का ही स्मारक है। मैंने अपनी रचना में दिदिया के जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया था। जिसने भी पढ़ा, प्रशंसा की। मैंने उसे प्रकाशन के लिए हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कादम्बिनी’ में पंजीकृत डाक से भेजा। संपादक का उत्तर विलक्षण था। उन्होंने रचना वापस करते हुए टिप्पणी दी थी “आपकी रचना उत्कृष्ट है, लेकिन लंबी है। कहां छापूं?” कई वर्षों के बाद यह रचना मेरे कहानी संग्रह - ‘फ़ैसला’ में छपी।
      कई वर्षों के शोध के बाद मैंने एक और रचना लिखी - ‘राम ने सीता का परित्याग कभी किया ही नहीं’। इस रचना को भी छापने के लिए कोई पत्रिका तैयार नहीं हुई। मैंने अपने खर्च पर इसे एक पुस्तक के रूप में छपवाया और निःशुल्क बांटा। इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। मुझे प्रसन्नता है कि इस रचना को काशी के विद्वानों के अलावे देश भर के राम-भक्तों का प्रोत्साहन मिला। आधुनिक तुलसी श्रद्धेय मुरारी बापू ने इसे अपने प्रवचन में भी शामिल कर लिया। परन्तु प्रिन्ट मिडिया के मठाधीशों ने इसे छापकर मुझे कभी उपकृत नहीं किया।
      प्रवक्ता.काम के उदय के बाद मैंने प्रिन्ट मिडिया की ओर झांकना भी बन्द कर दिया। इस हिन्दी पोर्टल से मेरा परिचय महाभारत पर आधारित मेरे प्रथम उपन्यास ‘कहो कौन्तेय’ के माध्यम से हुआ। संजीव सिन्हा ने लगातार ९० दिनों तक लगभग प्रत्येक दिन इसका प्रकाशन किया। ९० अंकों में यह रचना प्रकाशित हुई। मुझे अब कुछ लोग जानने लगे थे। लेकिन प्रवक्ता पुरस्कार की कल्पना तो मैंने कभी की ही नहीं थी। मैं पुरस्कार की आशा से कभी लिखता भी नहीं। प्रवक्ता.काम और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने देश-विदेश के १६ श्रेष्ठ लेखकों को न्यू मिडिया में लेखन के लिए दिनांक १८ अक्टूबर को दिल्ली में सम्मानित किया। सूची में मेरा नाम भी था और मैंने स्वयं यह सम्मान ग्रहण किया। मेरे लिए यह सम्मान भारत-रत्न से कम नहीं है।
      कार्यक्रम में कन्स्टीचुशन क्लब का स्पीकर हाल पूरी तरह भरा था। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि कार्यक्रम में किसी राजनेता को नहीं बुलाया गया था। साहित्य मर्मज्ञ और शिखर के पत्रकारों की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।
      इस अत्यन्त सफल आयोजन के लिए प्रवक्ता.काम के संपादक संजीव सिन्हा और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति एवं निदेशक बधाई के पात्र हैं। प्रवक्ता.काम मात्र एक पोर्टल नहीं है बल्कि न्यू मिडिया द्वारा इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मिडिया की मठाधीशी को तोड़ने के लिए प्रभावशाली आन्दोलन है। यह एक शुरुआत है। आगे दूर, बहुत दूर तक जाना है। मैं अपनी समस्त शुभकामनाएं अर्पित करता हूं।


Thursday, October 10, 2013

एक पाती - लालू भाई के नाम


      आदरणीय लालू भाई,
            जै राम जी की।
            हम इहां राजी-खुशी से हैं। उम्मीद करते हैं कि आप भी रांची जेल में ठीकेठाक होंगें। ई सी.बी.आई का जजवा बउरा गया था क्या? ई बात उसका दिमाग में काहे नहीं घुसा कि आदमी जानवर का चारा कैसे खा सकता है? जानवर आदमी का चारा हज़म कर सकता है। गऊ माता को रोटी खिलाओ, वह खा लेगी, दाल पिलाओ - दूध बढ़ा देगी, लेकिन आदमी कैसे भूसा और पुआल खा सकता है? जब हमारे जैसा आर्डिनरी आदमी भी यह बात जानता है, तो जज के समझ में ई बतिया काहे नहीं आई? आप सोनिया भौजी को रंग-अबीर लगाते रह गए, वह मौका पाते ही ऐसा दाव मारी की आप परुआ बैल की तरह चारो खाने चित्त हो गए। देखिए जिसको बचाना था, उसको साफ बचा लिया। तनिको रेप नहीं आया। मायावती बहिन और मुलायम चाचा ने का कम पैसा कमाया था? इधर सीबीआई का जज आपको फंसा रहा था आ उधर वही सीबीआई बहिनजी और चाचा को क्लीन चिट दे रहा था। ई सब काम नीतिश भाई का है। वह आजकल दिल्ली दरबार का बहुत चक्कर लगा रहा है। उसका भी वही होगा जो आपका हुआ। काम निकल जाने के बाद ई जमाना में कवन किसको पूछता है!
      एक बात आपको बताना हम उचित समझते हैं। आप भी कहीं कहने मत लगिएगा कि जान न पहचान, एतना लंबा चिठ्ठी कौन लिख दिया? सो, परिचय बताना जरुरी है। हमारा आपका जन्म एके जिला में हुआ है। हम दोनों गंजी हैं - आप गो्पालगंजी हैं हम महराजगंजी हैं। जब आप पटना यूनिवरसिटी की राजनीति कर रहे थे, तो हम बीएचयू की छात्र राजनीति में सक्रिय थे। उस समय हिन्दुस्तान के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में आरएसएस वाले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और समाजवादी युवजन सभा में छात्र संघ को कब्जा करने के लिये गलाकाट मुकाबला हुआ करता था। बीएचयू में तो दोनों युवा संगठनों के नेता और कार्यकर्त्ता एक दूसरे के खिलाफ़ साल भर बाहें चढ़ाए रहते थे। आपस में समझौते की कभी गुंजायश ही नहीं रहती थी। लेकिन आपने गज़ब का काम किया। पटना यूनि्वर्सिटी का अध्यक्ष बनने के लिए आपने एसवाईएस का आरएसएस से समझौता करा दिया। विद्यार्थी परिषद वाले तैयारे नहीं हो रहे थे। आपने नानाजी देशमुख और गोविन्दाचार्य से उन्हें खूब डांट खिलवाई। अन्त में समझौता हुआ। आप अध्यक्ष पद के संयुक्त उम्मीदवार बने, सुशील मोदी महासचिव और रवि शंकर प्रसाद सह-सचिव के उम्मीदवार बने। कांग्रेस और कम्युनिस्ट गठबंधन के खिलाफ़ आप लोगों ने शानदार जीत हासिल की थी। जेपी आन्दोलन में भी आप तीनों कंधे से कंधा मिलाकर लड़ते रहे।  तब आप मेरे भी हीरो थे। लेकिन बुरा हो इस वोटतंत्र का! अल्पसंख्यक वोट के लिए आपने क्या नहीं किया! टोपी पहने, नमाज़ पढ़े, ज़कात दिये, रोज़ा इफ़्तार किये और आडवानी बाबा को गिरफ़्तार भी किए। लेकिन सोनिया भौजी की तरह यह कौम भी आपके साथ बेवफ़ाई कर गई। नीतिशवा का ज़ालीदार टोपी पहनना ढेर कारगर रहा। वह आपसे तेज निकला। आपका सब वोट-बैंक हड़प गया। पिछड़ों में अति पिछड़ा बनाया, दलितों में अति दलित तो मुसलमानों में पश्मान्दा मुसलमान बना डाला। दो  चुनावों में तो आपको चित्त कर ही दिया। अगर आपको भी  लोक सभा की २५ सीट मिली होती, तो किस सीबीआई की मजाल थी कि आपसे पूछताछ भी कर सके।
      ये पत्रकार भी बेपेंदी के लोटे होते हैं। हमेशा उगते सूरज  को ही प्रनामापाती करते हैं। कभी ये सब आपको मैनेजमेन्ट गुरु कहते थे, किंग मेकर कहते थे, धरती का बेटा कहते थे। आप थे भी। अनपढ़ रबड़ी को मुख्यमंत्री बना दिया, देवगोड़ा को प्रधानमंत्री बना दिया, गुजराल तो गुज़रे ज़माने की बात बन चुके थे। मनमोहन की तरह उन्होंने कभी सपने में भी सोचा था क्या कि वे पीएम बन जायेंगे? आप ने बना दिया। लेकिन आजकल के पत्रकार और कार्टूनिस्ट बहुत मज़ा ले रहे हैं। आपका फोटो मुंह में चारा दबाये और चक्की पीसते हुए छाप रहे हैं। मुकेशजी ठीके गा गये हैं - है मतलब की दुनिया सारी, यहां कोई किसी का यार नहीं, किसी को सच्चा प्यार नहीं।
      तेजस्वी को  आपने काजू-किशमिश-बादाम-अखरोट खाने वाली गायों का दूध पिला-पिलाकर बड़ा तो कर दिया है, लेकिन वह पार्टी संभाल पायेगा, कहना मुश्किल है। मीसा यह काम कर सकती है लेकिन रबड़ी उससे डरती हैं। वह आयेगी तो तेजस्वी का तेज डाउन हो जायेगा। सोनिया भौजी की तरह उसको भी पुत्र-मोह है। आरे बाडी लैंगवेज भी कवनो चीज होता है कि नहीं। प्रियंका में इन्दिरा जी का लूक है लेकिन भौजी को पप्पू ही पसंद है - भले ही वह कागज़ फाड़े या संविधान फाड़े। इधर सुनने में आया कि साधु यादव फिर से आपके घर का चक्कर लगा रहा है। आंख में तो वह तभी खटक गया था जब वह आपके बच्चों और भाइयों के साथ मिलकर आपकी इच्छा के विरुद्ध अपनी बहन को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दिया था। आप तो कान्ति सिंह को डमी सीएम बनाना चाहते थे। सुन्दरी कान्ति कान्तिहीन रह गई। रबड़ी को सीएम बनाना आपकी मज़बूरी बन गई। नहीं बनाते तो सधुइया उसको लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग तक जाता, आसाराम बापू के माफ़िक मुकदमा दर्ज़ कराता और जेल की चक्की जरुर पिसवा देता। आपने उसे बाहर का रास्ता दिखाया तो कांग्रेस में चला गया, फिर  नमो से मिलने अहमदाबाद गया। अब फिर बहिना-बहिना कहके रबड़ी के आगे-पीछे घूम रहा है। अब का बतायें - युगों-युगों से हर मेहरारू का अपने भाई और नैहर से प्रेम अपने शौहर से ज्यादा रहा है। कहावत भी है कि मैके का कुत्ता भी प्यारा होता है। द्वापर के युग में शकुनि गांधार से आकर हस्तिनापुर में बैठ गया। धृतराष्ट्र तो जन्मजात अंधे थे, गांधारी की आंख पर भी पट्टी बंधवा दिया। युधिष्ठिर को जुआ खिलाया, द्रौपदी का चीरहरण करवाया, महाभारत का युद्ध कराया; अपने तो मरा ही, सौ भांजों को भी ले डूबा। गांधारी को तब भी चेत नहीं आया। उनकी नज़र में श्रीकृष्ण ही अपराधी थे। उन्हीं को शाप दे डाला। यह परंपरा तब से चली आ रही है। भाई के लिए हिन्दुस्तान की हर औरत गांधारी बन जाती है।
      ढेर बतकही है लिखने के लिए, लेकिन केतना लिखें? कुछ बात अगली चिठियो में भी रहना चाहिये। इहां सब मज़े है। आप तो हरफनमौला हैं। जेलवो में समय बढ़िया से काट लेते होंगे। हां, सुना है कि वहां कैदियों को आप राजनीति पढ़ा रहे हैं। भगवान के वास्ते और बिहार के वास्ते ऐसा काम मत कीजिएगा। जब ये सारे कैदी आपसे राजनीति की शिक्षा पाकर सज़ा पूरी करने के बाद बाहर निकलेंगे, तो बिहार में क्या बचेगा? आपके राज में तो किडनैपिंग के डर से हम गांव आना भी छोड़ दिये थे। नीतिश भाई के आने के बाद बड़ी मुश्किल से गांव से संबन्ध बना पाए हैं - वह भी खटाई में पड़ जायेगा। हम तो मरद आदमी हैं, कोई ठिकाना ढूंढ़ ही लेंगे, लेकिन गाय गोरू का क्या होगा। बिहार में हरी घास का एक तिनका भी बच पाएगा क्या? गाय-गोरू या तो यूपी-बंगाल की राह पकड़ेंगे या फिर बांग्ला देश के कसाईखानों की। अब सीताराम-सीताराम जपने का समय आ गया है। आप वहां यही जपें, अगले जनम में तो कम से कम कल्याण हो ही जाएगा।  भैया, अब चिट्ठी बंद कर रहे हैं। थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना।
                                                                                                                                                आपका ही
                                                    विनोद बिहारी

      

Thursday, October 3, 2013

नीड़

तिनके, पत्ते थे साथ चुने
धागे थे अरमानों के बुने
हल्का झोंका भी सह न सका
सूखे पत्तों सा बिखर गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

हमने, तुमने मिलकर जिसकी
रचना की थी अपने खूं से
सपना ही कहें तो अच्छा है
जब आंख खुली तो सिहर गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

गलती मेरी या हवा की थी
मौसम की थी या ज़माने की
क्या भूलूं किसको याद करूं
किस गली-मोड़ से गुज़र गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

सोचा था उसका साथ है जब
कुदरत की है छाया मुझपर
अब थके पैर हैं दिशाहीन
न आये समझ मैं किधर गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।

कोई एक कदम चलकर भागा
कोई दो पग चलकर रूठ गया
तेरे जाने के बाद प्रिये
अपना भी हमसे बिछड़ गया
वह नीड़ अचानक उजड़ गया।



      

Friday, September 27, 2013

राहुल का ड्रामा

       दागी नेताओं को बचाने के लिए राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजे गए अध्यादेश पर आनन फानन में बुलाई गई प्रेस कान्फ़्रेन्स में राहुल गांधी एक बदले हुए तेवर में दिखाई पड़े। कांग्रेस के महासचिव अजय माकन प्रेस क्लब आफ़ इंडिया द्वारा आयोजित ‘प्रेस से मिलिए’ कार्यक्रम के दौरान पत्रकारों के प्रश्नों के उत्तर दे रहे थे। अचानक उनके मोबाइल में वी.आई.पी. टोन की घंटी बज उठी। वे तत्काल बाहर चले गए। एक मिनट बाद ही वे पत्रकारों के सामने थे। आते ही उन्होंने घोषणा की कि कांग्रेस के महासचिव माननीय राहुल गांधी आप लोगों को कुछ ही मिनटों के बाद संबोधित करेंगे। कुछ ही मिनटों में राहुल गांधी प्रकट भी हो गए। आते ही बिना किसी भूमिका के उन्होंने दोषी जन प्रतिनिधियों की सदस्यता समाप्त करने के उच्च्चतम न्यायालय के आदेश को निष्प्रभावी करने के लिए सरकार द्वारा लाए गए अध्यादेश को बिल्कुल बकवास करार दिया। इसे फाड़कर कूड़ेदान में फेंकने लायक बताया और यह भी कहा कि उनकी सरकार ने जो किया, वह गलत है। प्रेस को तीन मिनट के अपने संबोधन में राहुल काफी गुस्से में दिखे। अपना वक्तव्य पूरा करने के बाद वे एक मिनट भी नहीं रुके। आंधी की तरह आए थे, तूफ़ान की तरह चले गए।
क्या ड्रामा था! क्या बिना सोनिया और राहुल की स्वीकृति के प्रधान मंत्री ऐसा साहसिक अध्यादेश ला सकते थे? कदापि नहीं। एक सांस लेने के बाद दूसरी सांस के लिए हमेशा सोनिया से अनुमति लेनेवाले मनमोहन सिंह लोक सभा में दागी नेताओं को बचाने के लिए बिल लाते हैं, बिना चर्चा के संख्या बल से पास भी करा लेते हैं परन्तु कानून बनाने में सफल नहीं हो पाते हैं। शार्ट कट अपनाते हुए अध्यादेश का सहारा लेते हैं। क्या कोई विश्वास कर सकता है कि इस प्रक्रिया की भनक सोनिया या राहुल को नहीं थी? राहुल के जो तेवर आज देखने को मिले, वह तेवर अगर लोकसभा में बिल पेश करते समय दिखाई पड़ जाता, तो क्या प्रधान मंत्री इसे छू भी पाने का साहस कर पाते; पेश करने की बात तो बहुत दूर है। इस अति विवादित अध्यादेश की मिट्टी पलीद करने का सारा श्रेय राष्ट्रपति महोदय को जाता है। कल ही उन्होंने तीन केन्द्रीय मंत्रियों को बुलाकर अध्यादेश पर अपनी असहमति जता दी थी। प्रणव दा और प्रतिभा पाटिल में जमीन आसमान का फ़र्क है। अध्यादेश पर राष्ट्रपति का दस्तखत होना असंभव पाकर आज राहुल ने यह ड्रामा किया। यह ड्रामा ठीक उसी तरह का था जो उनकी माता जी ने सन २००२ में किया था। कांग्रेस पार्टी ने उन्हें अपना नेता चुन लिया था। कांग्रेस संसदीय दल का निर्णय और सहयोगी दलों के समर्थन पत्र के साथ प्रधान मंत्री पद के शपथ ग्रहण के लिए राष्ट्रपति से औपचारिक न्योता ग्रहण करने के लिए वे राष्ट्रपति भवन गई थीं। कुछ ही मिनटों में वे वापस आ गईं। वे भी राहुल की तरह ही तमतमाई हुई थीं। उन्होंने अपनी जगह मनमोहन सिंह को पार्टी का नेता घोषित किया और स्वयं त्याग की प्रतिमूर्ति बन गईं। चाटुकार मीडिया और कांग्रेसियों ने जी भरके यशोगान किया। सच्चाई यह थी कि एक विदेशी नागरिक को प्रधान मंत्री की शपथ दिलाने से तात्कालीन राष्ट्रपति ए.पी.जे. कलाम ने साफ़ मना कर दिया था। सुब्रह्मण्यम स्वामी ने उस दिन दोपहर में ही राष्ट्रपति से मुलाकात करके संविधान की वह धारा  पढ़ा दी  जिसके अनुसार Law of recipracation को भारत के संविधान में भी मान्यता मिली थी। इसके अनुसार सोनिया गांधी की दोहरी नागरिकता की स्थिति वाला कोई व्यक्ति अगर इटली में वहां के संविधान के अनुसार प्रधान मंत्री के पद पर नियुक्ति की पात्रता रखता हो, तो भारत में भी इटली  और भारत की संयुक्त नागरिकता वाला व्यक्ति प्रधान मंत्री बन सकता है। सोनिया के दुर्भाग्य से इटली का संविधान इसकी इज़ाज़त नहीं देता। अब्दुल कलाम जी ने सोनिया जी को संविधान की वह धारा सिर्फ़ दिखा भर दी थी। आगे की कहानी सबको पता है।
राहुल का यह ड्रामा पार्टी के लिए कितना शुभ होगा, यह तो सन २०१४ बतायेगा लेकिन मनमोहन सिंह के लिए अशुभ ही अशुभ है। सरकार की सारी नाकामियों का ठिकरा अब मनमोहन जी के सिर पर फूटनेवाला है। वे कांग्रेस के दूसरे नरसिंहा राव बनने वाले हैं। कुछ ही दिनों में ब्रेकिंग न्युज़ आनेवाला है - प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह का इस्तीफ़ा, राहुल  की ताज़पोशी। 

Wednesday, September 25, 2013

क्या नैरोबी, पेशावर और मुज़फ़्फ़र नगर में नरेन्द्र मोदी की सरकार है


केन्या की राजधानी नैरोबी में एक शापिंग माल में दिनांक २१-९-१३ को दिल दहला देनेवाला आतंकी हमला हुआ। पहले गैरमुस्लिम जनता की पहचान की गई। उन्हें माल में रोक लिया गया। बाकी को सुरक्षित बाहर निकाला गया। फिर रोके गए गैर मुस्लिम समुदाय पर अन्धाधुन्ध फायरिंग की गई। सैकड़ों बेकसूर निहत्थे लोग मारे गए। इसमें आधी संख्या महिलाओं और बच्चों की थी जिसमें कई हिन्दुस्तानी भी शामिल थे। भारत में इसके विरोध में न कहीं मोमबत्ती जलाई गई और ना ही कोई विरोध प्रदर्शन हुआ। इस घटना के २४ घंटे भी नहीं बीते थे कि पेशावर के एक प्राचीन चर्च में भीषण धमाका हुआ। रविवार की ईश-आराधना में शामिल ईसाई समुदाय के ६० से अधिक व्यक्ति मारे गए। यह जघन्य कार्यवाही भी धर्म के नाम पर की गई। मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा इस कड़ी की शुरुआत थी। इसमें भी बड़ी संख्या में बेकसूर बेरहमी से मारे गए। दंगा करानेवाला मंत्रिपरिषद में दहाड़ रहा है और निर्दोष ज़मानत के लिए अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं। राजनीतिक विरोधियों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है।
     इन तीनों स्थानों पर न तो नरेन्द्र मोदी की सरकार है और न भाजपा की। फिर भी आतंकवादी हमले हुए, दंगे हुए। भारत की सेकुलर मीडिया गुजरात के दंगों पर पिछले ११ सालों से छाती पीट रही है, लेकिन इन दंगों के लिए दोषी को भी दोषी कहने के मुद्दे पर मुंह सिल लेती है। यह सोचने का विषय है कि भारत समेत पूरी दुनिया में गैर मुस्लिमों पर ऐसे हमले क्यों हो रहे हैं? वह कौन सी मानसिकता है जो इन हमलावरों को प्रोत्साहित और पुरस्कृत करती है?
शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व और धार्मिक सहिष्णुता का अभाव ही इसका मूल कारण है। एक हिन्दू स्वभाव और संस्कार से ही शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व और सर्वधर्म समभाव में विश्वास करता है। वह हर धार्मिक अनुष्ठान में इसकी घोषणा भी करता है -
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुखभाग्भवेत।
ओम शान्तिः। ओम शान्तिः। ओम शान्तिः। 
       (गरुड़ पुराण, उत्तरखंड ३५.५१)
सभी सुखी हों, सभी निरापद हों, सभी शुभ देखें, शुभ सोचें। कोई कभी भी दुख को प्राप्त न हो।
ईसाई समुदाय के किसी उग्रवादी या अन्य संगठन ने विगत कई वर्षों में अन्य धर्मावलंबियों की इस प्रकार समूह में नृशंस हत्या की हो, ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। ईसा मसीह के उपदेश में करुणा, दया और प्रेम का संदेश है। इसका प्रभाव उनके अनुयायियों पर देखा जा सकता है। जनकल्याण के लिए चिकित्सालय और विद्यालय के साथ अन्य प्रकल्प चलाने में इनकी कोई सानी नहीं है।
इस्लाम की पुस्तकों में वर्णित ‘काफ़िर’ और ‘ज़िहाद’ शब्दों की गलत व्याख्या ही कथित इस्लामी आतंकवादियों को दूसरों पर जुल्म ढाने का लाइसेंस देती है। आज का पूरा विश्व जिस युग में प्रवेश कर गया है, वहां असहिष्णुता और घृणा का कोई स्थान हो ही नहीं सकता। विश्व-शान्ति के लिए सहिष्णुता, सर्वधर्म समभाव और शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व के भाव और संस्कार परम आवश्यक हो गए हैं। हम पुनः मध्य युग की ओर नहीं लौट सकते। लौटना संभव भी नहीं है। ऐसे में मुस्लिम विद्वानों और धर्म गुरुओं पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई है। उनसे अपेक्षा है कि ‘काफ़िर’ और ‘ज़िहाद’ की आज के परिवेश में मानवता के हित में उचित व्याख्या कर पूरे विश्व में शान्ति स्थापित करने के पुनीत कार्य में अपना अमूल्य योगदान दें।
 घृणा का प्रेम से जिस रोज अलंकरण होगा,
 धरा पर स्वर्ग का उस रोज अवतरण होगा।

Tuesday, September 17, 2013

आडवानीजी संघर्ष करो, सोनिया तुम्हारे साथ है

आदरणीय आडवानी बाबा, 
             सादर परनाम !
आगे समाचार इ है कि नीतिश कुमार के तरह-तरह के विरोध के बाद भी नरेन्दर मोदिया बिहार में भी लोकप्रिय होता जा रहा है। बिहार के लोगबाग नरेन्दर का इन्तज़ार बड़ी बेसब्री से कर रहा है। नीतीश तो आपके ही मानस पुत्र हैं। जब जरुरत थी तो सांप्रदायिक भाजपा से कवनो परहेज़ नहीं था; अब काम चलाऊ बहुमत पा गए तो सेकुलर बन गए। इ प्रधान मंत्री की कुरसिए ऐसी है कि जो भी उधर देखता है, रातोरात सेकुलर बन जाता है या बनने की कोशिश करने लगता है। आपको भी तो इ कुर्सिए न सेकुलर बनाई है वरना क्या कारण था आपको जिन्ना की तारीफ़ में कसीदा काढ़ने का। छद्म धर्मनिरपेक्षता की पोलपट्टी खोलनेवाले, रामरथ के सवार, राम जन्मभूमि आन्दोलन के मसीहा को भी अल्ला-हो-अकबर का नारा लगाना ही पड़ा। कबीर दास कह गए हैं - माया महा ठगनी हम जानी। अब देखिए, आप न घर के रहे न घाट के। जातो गवांए और भातो नहीं खाये। 
बाबा ! हमरी बात का बुरा मत मानिएगा। इ खत में हम उहे बात लिख रहे हैं, जो जनता कह रही है। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के चक्कर में पड़कर बुढ़ापा काहे खराब कर रहे हैं? कर्नाटक का अनन्त कुमार जो वहां पर येदुरप्पा के साथ-साथ भाजपा को भी ले डूबा, सुनते हैं आपका सलाहकार है और सुधीर कुलकर्णी आपका प्रवक्ता है। आप जो कल करने को होते हैं कुलकर्णिया दो दिन दिन पहले ही ट्वीट कर देता है। फिर भी आप उसपर ही विश्वास करते है। आपके साथ लगे इस गैंग आफ़ फ़ोर के चारों मेम्बर बहुते डेन्जरस हैं। आप खुद ही देखिए - संसदीय दल की बैठक के दिन आप तो कोप-भवन में थे और ये सभी मोदी को माला पहना रहे थे। आपको छोड़ ये सभी वक्त का मिज़ाज़ भांप चुके हैं। आप से लेटर-बम फोड़वाते हैं और स्वयं राजनाथ की चमचागीरी करते हैं। वैसे कोप-भवन में जाने का परिणाम इस आर्यावर्त्त में अच्छा ही रहा है। कैकयी के कोप-भवन में जाने से राम को वनवास तो जरुर मिला, लेकिन इसके बिना रावण-वध भी नहीं हो सकता था। कलियुग की इक्कीसवीं सदी में आप दो बार कोप-भवन में जा चुके हैं। दोनों बार रिजल्ट ठीके रहा है। मोदी को पी.एम. बनाने के लिए आपको एक बार और कोप-भवन में जाना पड़ेगा। इस बार इसको थोड़ा लंबा रखिएगा। ताज़पोशी के बादे बाहर आइयेगा। लेकिन आपको सलाह देना बेकारे है। आप तो वही कीजिएगा जो कुलकर्णी कहेगा। साठ के बाद लोग सठियाते हैं, आप तो अंठिया गए है। आरे, वर्ण-व्यवस्था बनाने वाले मनु महाराज और हमारे ऋषि-मुनि बुड़बक तो थे नहीं। पचहत्तर के बाद उन्होंने संन्यास आश्रम कम्पलसरी किया था। आप तो पचासी पार कर चुके हैं। काहे को लार टपका रहे हैं। अब राम-राम जपने का वक्त आ गया है। जिन्ना-जिन्ना जपकर काहे आकबद खराब कर रहे हैं? मरने के बाद स्मारको नहीं बनेगा।
पानी पी-पीकर आपको कट्टरवादी और सांप्रदायिक कहनेवाले कांग्रेसी आपसे बहुत आस लगाए हैं। क्या सोनिया गांधी और क्या दिग्गी बाबू, सब आपके लिए आंसू बहा रहे हैं। नीतीश तो नीतीश, लालू भी तारीफ़ कर रहे हैं। कांग्रेसी खेमे में आपकी लोकप्रियता अमिताभ बच्चन से भी ज्यादा है। कल बनारस के लंका चौराहे पर कांग्रेसी नारा लगा रहे थे - आडवानीजी संघर्ष करो, सोनिया तुम्हारे साथ है।
इहां यू.पी बिहार ही नहीं, सगरे हिन्दुस्तान में आपके पोता-पोती राजी-खुशी हैं। बस एके गड़बड़ है - सब नमो-नमो जप रहे हैं। अब चिठ्ठी बन्द करता हूं। थोड़ा लिखना, ज्यादा समझना। पयलग्गी कुबूअल कीजिएगा।
 आपका पोता 
जवान हिन्दुस्तानी

Saturday, August 24, 2013

नैतिकता का मज़ाक

          गत १० जुलाई को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया था - निचली अदालत से दो या दो साल से अधिक अवधि की सज़ा पाने वाले सभी जन प्रतिनिधियों की संसद और विधान सभा की सदस्यता रद्द कर दी जाएगी तथा हिरासत या जेल में रहकर कोई भी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ पाएगा। यह फ़ैसला संसद और विधान सभाओं में हत्या, बलात्कार, रिश्वत या अन्य गंभीर अपराध के घोषित अपराधियों के संसद या विधान सभाओं में बेरोकटोक पहुंचने और कानून बनाने में उनकी हिस्सेदारी को ध्यान में रखते हुए संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत लिया गया था। देश की आम जनता ने सर्वोच्च न्यायालय के इस अभूतपूर्व फ़ैसले पर अपनी हार्दिक प्रसन्नता व्यक्य की थी। एक आस बंधी थी कि अब लोकतंत्र  के सर्वोच्च मन्दिरों में अपराधी नहीं पहुंच पायेंगे। फ़ैसले की स्याही अभी सूखी भी नहीं थी कि कैबिनेट ने  सर्वसम्मत निर्णय से सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को पलटने का निर्णय ले लिया। दिनांक २२ अगस्त को केन्द्रीय मंत्रीमंडल ने दागी संसदों और विधायकों को तोहफ़ा देते हुए यह निर्णय लिया कि निचली अदालत से दो साल या उससे अधिक की सज़ा मिलने पर भी न तो सांसद-विधायकों की सदस्यता रद्द होगी और न ही हिरासत या जेल में रहने पर उनके चुनाव लड़ने पर रोक लगेगी। प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में सर्वोच्च न्यायालय के इस आशय के फ़ैसले को पलटने के लिए कैबिनेट ने जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन संबन्धी प्रस्ताव पर मुहर लगा दी। सरकार के इस फ़ैसले पर सभी राजनीतिक दलों ने अपनी सहमति पहले ही दे रखी है। जन प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन के इस विधेयक का सर्वसम्मति से लोक सभा और राज्य सभा में पास होना तय है।
संसद और विधान सभाओं में अपराधियों की संख्या इतनी बढ़ गई है कि वे जब चाहें अपने पक्ष में संविधान में संशोधन कराके अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं। आम जनता की भावनाओं का हमारी सरकार और हमारी संसद इतनी बेशर्मी से खुलेआम गला घोंटेगी, इसकी अपेक्षा नहीं थी। लेकिन मर्यादा और नैतिकता की सारी सीमाएं लांघ चुकी इस सरकार से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है? Party with a difference की बात करने वाली भारतीय जनता पार्टी की इस बिल को पास करने के लिए दी गई सहमति और भी आश्च्चर्यजनक है। नरेन्द्र मोदी अब किस मुंह से घूम-घूमकर नैतिकता की दुहाई दे पायेंगे? भाजपा के सांसद नरेन्द्र मोदी की हवा निकालने पर आमादा हैं। वे यह नहीं चाहते हैं कि देश का नेतृत्व एक ईमानदार और उच्च नैतिक मूल्यों से संपन्न नेता के पास जाय। इस विधेयक के समर्थन में लालू, मुलायम, मायावती, सोनिया आदि घोषित दागी नेता एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देंगे, यह तो प्रत्याशित था; लेकिन लाल कृष्ण आडवानी और अरुण जेटली भी उसी पंक्ति में खड़े हो जायेंगे, इसकी कही से भी उम्मीद नहीं थी। अब यह सिद्ध हो गया है कि सभी राजनीतिक दल और सारे नेता एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। अपनी तन्ख्वाह और अपने भत्ते बढ़ाने के लिए सारे सांसद किस तरह एकजूट हो जाते हैं, यह पहले भी देखा जा चुका है। ऐसा विधेयक बिना किसी चर्चा के संसद में दो मिनट में पारित हो जाता है।
सरकार में बैठे नेताओं और मौनी बाबा को तनिक भी सद्बुद्धि हो, तो वे संशोधन विधेयक लाने के पूर्व जनमत संग्रह करा लें। उन्हें जनता की राय मालूम हो जायेगी। लेकिन ऐसा करने की हिम्मत किसी में है क्या? कैबिनेट, सांसद और विधायकों के इन कृत्यों से देश की जनता का विश्वास इन जनतांत्रिक संस्थाओं से कही उठ न जाय। जनता का अविश्वास कालान्तर में लोकतंत्र के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। लेकिन इसकी चिन्ता ही किसे है? सब आज की मलाई चाटने में व्यस्त हैं। 

Saturday, August 17, 2013

चीन-पाक कोरिडोर और हमारी कुंभकर्णी नींद

राष्ट्रीय सुरक्षा की लगातार अनदेखी गहरी चिन्ता का विषय है। १९६२ के पहले सुरक्षा की अनदेखी तिब्बत पर चीन के कब्जे और साठ हज़ार वर्ग किलोमीटर भारतीय भूभाग पर चीन के अवैध कब्जे के रूप में सामने आई। १९६२ में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय नई पीढ़ी को भले ही याद न हो, लेकिन हमारे जैसे नागरिकों को एक शूल की भांति चुभता है। समझ में नहीं आता कि जिस देश ने अपने पड़ोसी देश का ऐसा विश्वासघात स्वयं झेला है, वह प्रत्यक्ष खतरे के प्रति क्यों आंखें मूंदकर बैठा है।
संसद ने पिछले ही हफ़्ते सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर यह दुहराया कि पूरा जम्मू और कश्मीर भारत का अविभाज्य अंग है। संसद ने यह संकल्प भी दुहराया कि पाक अधिकृत कश्मीर भी भारत का अंग है और हम इसे वापस लेकर रहेंगे। मुझे याद नहीं कि भारतीय संसद ने कितनी पर इस तरह का प्रस्ताव पारित किया है। चीन अधिकृत भूभाग को वापस लेने के कई प्रस्ताव भी हमारी संसद कई बार पारित कर चुकी है। लेकिन धरातल पर हमने इस दिशा में कभी कोई काम किया भी है क्या? संसद में हम जब-जब इस तरह का प्रस्ताव पारित करते हैं, चीन और पाकिस्तान की जनता हम पर हंसती हैं। हमारा प्रस्ताव धर्मशाला में स्थित तिब्बत की निर्वासित सरकार द्वारा पारित तिब्बत की आज़ादी के प्रस्ताव से ज्यादा अहमियत नहीं रखता। हम भारत की जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए ही ऐसे प्रस्ताव पारित करते हैं। सभी को ज्ञात है कि इसके पीछे हमारी कोई दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं होती। अभी-अभी जब हमने पूरे कश्मीर पर अपने अधिकार को जताते हुए संसद में प्रस्ताव पारित किया तो उसके तीसरे ही दिन नवाज़ शरीफ़ ने गुलाम कश्मीर से होकर चीन-पाक कोरिडोर के निर्माण को हरी झंडी दी। भारत के नक्शे में पूरा कश्मीर अभी भी भारत में ही दिखाया जाता है। अगर सरकार ऐसा मानती है, तो चीन-पाक कोरिडोर पर हमारी सरकार ने तीव्र विरोध क्यों नहीं दर्ज़ कराया? चीन और पाकिस्ता को जोड़ते हुए गुलाम कश्मीर से होकर पहले ही काराकोरम मार्ग का निर्माण चीन द्वारा किया जा चुका है। हमने तब भी खामोशी ओढ़ रखी थी। हम अब भी वही काम कर रहे हैं। चीन-पाक कोरिडोर भारतीय संप्रभुत्ता को चीन और पाकिस्तान की खुली चुनौती है। हमारे भूभाग से होकर कोई भी देश कोरिडोर कैसे बना सकता है? यह कोरिडोर चीन को सीधे ग्वादर बन्दरगाह तक पहुंचने का मार्ग प्रदान करेगा जो हमारे देश के लिए अत्यन्त खतरनाक है। चीन और पाकिस्तान की भारत को चारों तरफ़ से घेरने की रणनीति का यह एक सुविचारित हिस्सा है। चीन पहले से ही हमें घेरने के लिए म्यामार और श्रीलंका में अपने सैनिक ठिकाने स्थापित कर चुका है और मालदीव में अपने प्रयोग के लिए हवाई अड्डा बना चुका है। नेपाल में चीन समर्थक पार्टियों का ही बोलबाला है। निर्वाचित सरकार बनने के बाद वह जब चाहे नेपाल का इस्तेमाल अपने हित में कर सकता है। ऐसे में चीन-पाक कोरिडोर का निर्माण हमारी सुरक्षा के लिए कितना खतरनाक हो सकता है, यह छोटी सी बात हमारी समझ में क्यों नहीं आती? 
हम अपने भूभाग में दूसरे देशों द्वारा किसी भी अनधिकृत निर्माण की इज़ाज़त नहीं दे सकते। हमें चीन और पाकिस्तान को स्पष्ट चेतावनी देनी चाहिए। इसके बावजूद भी अगर वे अपनी ज़िद पर अड़े रहते हैं, तो भारत को सैन्य-शक्ति का इस्तेमाल कर इसे रोकना होगा। अगर हम इसे रोकने में कामयाब नहीं होते हैं तो इतिहास हमें कभी माफ़ नहीं करेगा। जो देश अपने इतिहास से सबक नहीं लेता है, उसका भूगोल बदल जाता है।

Thursday, August 15, 2013

आधुनिक शल्य - लाल कृष्ण आडवानी

          मद्र देश के राजा शल्य नकुल-सहदेव के सगे मामा थे। वे चले थे यह संकल्प लेकर कि वे अपने भांजों यानि पाण्डवों की ओर से युद्ध करेंगे। पाण्डवों को पूरा विश्वास था कि उनके मामाजी उनके शिविर में अपने आप आ जायेंगे। उनका यह विश्वास स्वाभाविक भी था। दुर्योधन राजा शल्य की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखे हुए था। यह तय हो गया था कि श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में शस्त्र नहीं उठायेंगे लेकिन अर्जुन के सारथि बनेंगे। युद्ध के निर्णायक पलों में सारथि का कौशल बहुत काम आता है। श्रीकृष्ण जैसा सारथि पूरे आर्यावर्त्त में दूसरा कोई नहीं था। राजा शल्य एक महारथी तो थे ही, श्रीकृष्ण के टक्कर के कुशल सारथि भी थे। दुर्योधन उन्हें कर्ण का सारथि बनाना चाहता था। लेकिन वे पाण्डवों के सगे मामा थे। उन्हें अपने पक्ष में ले आना कठिन ही नहीं असंभव भी लग रहा था। चिन्तित दुर्योधन को शकुनि ने सलाह दी - “शल्य को खातिरदारी और प्रशंसा अत्यन्त प्रिय है। हस्तिनापुर तक आनेवाले रास्ते में कालीन बिछा दो, गुलाब-जल का छिड़काव करा दो, स्थान-स्थान पर स्वागत-द्वार बनवा दो और अपने सचिवों को हर स्वागत द्वार पर फूल-मालाओं के साथ शल्य के स्वागत में तैनात कर दो। शल्य यह समझेंगे कि यह सारी व्यवस्था युधिष्ठिर ने की है। और इस तरह वे तुम्हारे निर्दिष्ट मार्ग पर चलकर सीधे तुम्हारे पास पहुंच जायेंगे। उनके आने पर हम उनका इतना स्वागत करेंगे कि वे अपने भांजों को भूल जायेंगे और हमारी ओर से युद्ध करना स्वीकार कर लेंगे।" सारी घटनाएं शल्य की योजना के अनुसार ही घटीं। दुर्योधन की आवाभगत से प्रसन्न शल्य ने न सिर्फ दुर्योधन की ओर से लड़ना स्वीकार किया, अपितु कर्ण का सारथि बनने के लिए भी ‘हां’ कर दी। शल्य के निर्णय की सूचना पाकर पाण्डव बहुत चिन्तित हुए। लेकिन श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे थे। कारण पूछने पर उन्होंने स्पष्ट किया कि समय आने पर शल्य का यह निर्णय भी पाण्डवों का ही भला करेगा। हुआ भी यही। भीष्म पितामह के शर-शय्या पर जाने और द्रोणाचार्य के निधन के बाद कर्ण कौरव सेना का सेनापति बना और शल्य उसके सारथि। श्रीकृष्ण की सलाह पर पांचों पाण्डवों ने उनके नेतृत्व में शल्य के शिविर में जाकर मुलाकात की। अपने उपर हुए दुर्योधन के अत्याचारों से उन्हें अवगत कराया। साथ ही यह भी बताया कि  द्यूत-क्रीड़ा के समय कर्ण द्वारा ही दुशासन को यह निर्देश दिया गया था कि द्रौपदी को निर्वस्त्र कर दो। शल्य आखिर थे तो पाण्डवों के ही मामा। वे द्रवित हुए बिना नहीं रह सके। पाण्डवों ने उन्हें अपने पक्ष में आने का न्योता दिया। लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इसे अस्वीकार कर दिया कि वे दुर्योधन को वचन दे चुके हैं। अतः अन्त समय में वचनभंग नहीं कर सकते। श्रीकृष्ण ने उनसे दूसरे ढंग से सहायता पहुंचाने का प्रस्ताव किया किया जिसपर उन्होंने अपनी सहमति दे दी। प्रस्ताव था - अर्जुन और कर्ण के युद्ध के समय शल्य अर्जुन की प्रशंसा करेंगे और कर्ण की वीरता और सामर्थ्य की निन्दा। वे कर्ण के मनोबल को गिराने की हर संभव कोशिश करेंगे। हत मनोबल और हत उत्साह से कोई युद्ध नहीं जीत सकता। श्रीकृष्ण की यह युक्ति काम आई। ऐन वक्त पर अर्जुन-कर्ण के निर्णायक युद्ध के वक्त जब श्रीकृष्ण अपनी बातों से अर्जुन का मनोबल बढ़ा रहे थे, शल्य योजनाबद्ध ढंग से कर्ण का मनोबल गिरा रहे थे। परिणाम वही हुआ जो ऐसी दशा में होना था। शाम ढलते-ढलते कर्ण को पराजय के साथ-साथ मृत्यु का भी वरण करना पड़ा।
भाजपा के तथाकथित भीष्म पितामह लाल कृष्ण आडवानी आजकल शल्य की ही भूमिका निभा रहे हैं। उनके जैसे नेता अगर चुनाव अभियान संभालेंगे, तो कांग्रेस को किसी दिग्विजय सिंह की आवश्यकता ही नहीं रहेगी। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर भुज में अपने भाषण के दौरान नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ सत्य को अनावृत किया था। क्या लालकिले से दिया गया प्रधान मंत्री का भाषण राजनीतिक नहीं था? भारत के प्रधानमंत्रियों का उल्लेख करते समय लाल बहादुर शास्त्री या अटल बिहारी वाजपेयी का नाम लेने से क्या स्वतंत्रता दिवस की फ़िज़ां खराब हो जाती? भारत की एकता और अखंडता के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करनेवाले लौह पुरुष सरदार पटेल का नाम ले लेने से भारत की मर्यादा घट जाती? देश के जवानों का सिर काट कर ले जानेवाले पाकिस्तान को कड़ी चेतावनी देने से विश्व शान्ति को खतरा उत्पन्न हो जाता? एक कठपुतली प्रधान मंत्री लाल किले की प्राचीर से भारत-विभाजन, आधे कश्मीर को पाकिस्तान को भेंट देनेवाले, १९४७ में हुए विश्व के सबसे बड़े सांप्रदायिक दंगे, तिब्बत को चीन को गिफ़्ट देनेवाले, १९६२ में चीन के हाथों भारत की पराजय के जिम्मेदार और १९८४ में देश की सर्वाधिक देशभक्त सिक्ख कौम का नरसंहार करानेवाले परिवार का गुणगान करता रहे, तो सब कुछ उचित; परन्तु एक देशभक्त इसपर प्रश्न पूछ दे तो बहुत अनुचित। किश्तवाड़ की हिंसा पर लाल कृष्ण आडवानी का कोई वक्तव्य आया हो, मुझे याद नहीं। लेकिन स्वतंत्रता दिवस के दिन ही भुज में नरेन्द्र मोदी के भाषण पर आडवानी की त्वरित प्रतिक्रिया हैरान करनेवाली है। समझ में नहीं आता कि वे भाजपा के लिए काम कर रहे हैं या कांग्रेस के लिए। बोलने के लिए सिर्फ वाणी की आवश्यकता होती है, परन्तु चुप रहने के लिए वाणी और विवेक, दोनों की आवश्यकता होती है।  

Monday, August 12, 2013

राष्ट्रीय सुरक्षा और घिनौनी राजनीति

        पिछले शुक्रवार को जम्मू के किश्तवाड़ में भड़की सांप्रदायिक हिंसा में कई लोग मारे गए। हिन्दुस्तान में दंगे और वो भी जम्मू-कश्मीर में कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है। सांप्रदायिक हिंसा के कारण ही पूरी कश्मीर घाटी से सभी हिन्दू वर्षों पहले पलायन कर गए। अब जम्मू भी कट्टरपंथियों की निगाह में खटक रहा है। यह उतनी बुरी बात नहीं है जितना इन घटनाओं पर छद्म सेक्यूलरवादियों का रवैया और उनके वक्तव्य। किश्तवाड़ में दस दिन पहले से ही पाकिस्तानी तत्त्वों ने माहौल बिगाड़ने की हर संभव कोशिश की थी। जगह-जगह अफ़ज़ल गुरु और मकबूल भट्ट की तस्वीरें चिपकाई गई थीं। हर नमाज़ के बाद मस्ज़िद से भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते थे। सरकार को खुफ़िया तंत्रों के माध्यम से इसकी पूर्ण जानकारी थी। लेकिन सरकार निष्क्रिय बनी रही और अन्ततः १० अगस्त को दंगा भड़क ही गया। दंगे में मारे गए लोगों की संख्या का सिर्फ़ अनुमान ही लगाया जा सकता है, क्योंकि सरकार ने मीडिया समेत किसी भी नेता को वहां पहुंचने नहीं दिया। घटना की निन्दा करने और उसपर प्रभावी नियंत्रण स्थापित करने के अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करने के बदले वहां के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने किश्तवाड़ के दंगे की तुलना २००२ के गुजरात दंगों से करके उसे न्यायोचित ठहराने की कोशिश की। कांग्रेस ने संसद के अन्दर और बाहर भी उमर अब्दुल्ला और फ़ारुख अब्दुल्ला का समर्थन किया। दंगे तो दंगे हैं - वे चाहे गुजरात में हों, हैदराबाद में हों या कश्मीर में हों, उनकी निन्दा ही होनी चाहिए। इससे कम कुछ भी नहीं। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए एक दंगे की आड़ में दूसरे दंगे को न्यायोचित ठहराना देशद्रोह के अलावा और कुछ भी नहीं। यह प्रवृति विघटन की ओर ले जाती है।
अब तो सैनिकों की शहादत पर भी राजनीति करने से कांग्रेसी बाज़ नहीं आ रहे हैं। पाकिस्तानी हिन्दुस्तानी सैनिकों का सिर काटकर ले जाते हैं, सरकार चुप रहती है। गश्त करते समय भारत के पांच सैनिकों की पाकिस्तानी सेना निर्मम हत्या कर देती है; रक्षा मंत्री उसे आतंकवादी कार्यवाही कहते हैं। एक टीवी चैनल पर बहस के दौरान एक कांग्रेसी नेता ने कहा कि भाजपा के शासन के दौरान सीमा पर पाकिस्तानी अतिक्रमण और जवानों की हत्या के मामले अधिक हुए थे, इसलिए वर्तमान में मात्र पांच जवानों की शहादत पर ज्यादा शोरगुल मचाने की ज़रुरत नहीं है। जवानों की शहादत और जीडीपी के आंकड़ों को समान समझने की आदत सत्ताधारी पार्टी कब छोड़ेगी? ऐसा संवेदनहीन वक्तव्य कांग्रेस पार्टी का ही कोई नेता दे सकता है। सेक्यूलर बिरादरी में नये-नये शामिल बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के मंत्रियों ने तो हद ही कर दी। आतंकी इशरत जहां को बिहार की बहादुर बेटी बताने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार शहीद हुए बिहार के चार सपूतों के शवों को देखने हवाई अड्डे पर जाना तो दूर श्रद्धांजलि के दो बोल भी नहीं बोले। उनके मंत्री ने तो यहां तक कहा कि सेना और पुलिस में तो लोग शहीद होने के लिए ही जाते हैं। क्या भारत के सभी मुसलमानों को इन सेकुलरवादियों ने पाकिस्तानी मान रखा है? क्या पाकिस्तान विरोध मुस्लिम विरोध का पर्याय बन चुका है? सेक्यूलरवादी अगर ऐसा मानते हैं, तो यह भारत के सभी मुसलमानों का घोर अपमान है। महज़ वोट की राजनीति के लिए देश की अस्मिता का बार-बार अपमान घोर निन्दनीय है।
जहां तक सांप्रदायिकता की बात है, तो इस देश में कांग्रेस से बड़ी दूसरी सांप्रदायिक पार्टी न हुई है और न होगी। इतिहास गवाह है कि इस पार्टी ने सांप्रदायिक आधार पर देश का बंटवारा किया जिसके फलस्वरूप १९४७ में पूरे देश में भयंकर दंगे हुए जिसमें लाखों हिन्दू-मुसलमान मारे गए। उन सांप्रदायिक दंगों का कलंक अभी ज्यों का त्यों था कि इन्दिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेसियों ने देशव्यापी हिन्दू-सिक्ख दंगा करा दिया जिसमें हजारों सिक्ख दंगे की भेंट चढ़ गए। सेक्यूलरवादियों को इन घटनाओं की याद नहीं आती। राष्ट्र पर आक्रमण और दंगों को क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के चश्मे से देखना राष्ट्रद्रोह के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इसकी बस निन्दा ही होनी चाहिए, तुलना नहीं।