Thursday, September 27, 2018

विकृति को बढ़ावा देनेवाले फैसले

         सुप्रीम कोर्ट देश का सर्वोच्च न्यायालय है। इसके फैसले कानून बन जाते हैं। अतः जिस फैसले से समाज का स्वस्थ तानाबाना तार-तार होता है, उसपर गंभीरता से विचार करने के बाद ही निर्णय अपेक्षित है। हाल में सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे फैसले आये हैं जिससे समाज में विकृति फैलने की पर्याप्त संभावनाएं हैं, भारत की सदियों पुरानी स्वस्थ परंपराएं जर्जर होने के कगार पर आ गई हैं।
*कुछ माह पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि दो वयस्क स्त्री-पुरुषों के साथ-साथ रहने (Living together) और परस्पर सहमति से यौन संबन्ध  स्थापित करने  में कोई कानूनी अड़चन नहीं है, यानि ऐसे संबन्ध कानूनन वैध हैं। यही नहीं, ऐसे संबन्धों से उत्पन्न सन्तान को पिता की संपत्ति में भी अधिकार होगा। दुनिया के सभी धर्मों ने विवाह संस्था को अनिवार्य माना है, इसीलिए इसे विश्वव्यापी मान्यता प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट का Living together वाला फैसला विवाह संस्था पर सीधा आक्रमण था, जिससे कई विकृतियां उत्पन्न हो सकती हैं।
*सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला कुछ ही दिन पहले समलैंगिकता पर आया। समलैंगिक विवाह और यौन संबन्ध को कोर्ट ने मान्यता प्रदान करते हुए इसे वैध घोषित किया। यह निर्णय पूर्ण रूप से प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन है। मनुष्य के अतिरिक्त किसी और प्राणी में समलैंगिकता नहीं पाई जाती है। पश्चिम में यौन-सुख की प्राप्ति के लिए नये-नये प्रयोगों ने इस विकृति को बढ़ावा दिया। हमारे सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम की इस विकृति को कानूनी जामा पहना दिया।
*कल सुप्रीम कोर्ट ने एक चौंका देनेवाला फैसला सुनाया जिसके अनुसार किसी महिला द्वारा विवाह के पश्चात भी अन्य पुरुषों से यौन-संबन्ध रखना वैध माना गया। इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। अब कोई महिला डंके की चोट पर कई पुरुषों से संबन्ध रख सकती है। उस महिला से जन्म लेनेवाले बालक/बालिका का वैध पिता तो उसका वैध पति ही माना जायेगा, परन्तु असली पिता/जैविक पिता की पहचान करना मुश्किल होगा। हमारे धर्म ग्रन्थों में पुरुषों के चार दुर्व्यसन बताए गए हैं --- १. मदिरापान, २. जूआ खेलना ३. अनावश्यक आखेट/हिंसा ४. परस्त्रीगमन। इनमें परस्त्रीगमन को सबसे बड़ा पाप बताया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपराधिक कृत्य न मानते हुए जायज ठहराया है। कुछ वर्षों के बाद किसी औरत को ‘पतिव्रता’ कहना गाली देने के समान हो जाएगा, ‘कुलटा’ कहलाना staus symbol हो जाएगा, जिस तरह आजकल Boy friend से वंचित लड़कियां स्वयं को हीन महसूस करती हैं। अधिक से अधिक पर पुरुषों से संबन्ध औरतों के सौन्दर्य और आकर्षक व्यक्तित्व का पर्याय बन जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी नहीं सोचा की इससे एड्स जैसी बीमारियों में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है।
समझ में नहीं आता कि हम किस दिशा में जा रहे हैं। समाज पतन की ओर उन्मुख है और हम शुतुर्मूर्ग की तरह आँखें चुराए मौनी बाबा बने हुए हैं।

Sunday, September 16, 2018

लोकतन्त्र में विरोध का अधिकार


           इस समय विरोध के अधिकार पर बहस जारी है, जिसे पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के जज डी.वाई. चन्द्रचूड़ की इस टिप्पणी ने और हवा दी है कि लोकतन्त्र में विरोध सेफ़्टी वाल्व का काम करता है। अगर उसे इस्तेमाल नहीं करने दिया गया तो कूकर फट जाएगा। यह टिप्पणी हाल ही के सबसे चर्चित विवादित उन पांच शहरी नक्सलियों की गिरफ़्तारी के संबन्ध में है जिन्हें पुलिस ने देशद्रोहियों की मदद के आरोप में गिरफ़्तार किया। इस समय ये घर में नज़रबन्द हैं।
      हमारा संविधान जाति, नस्ल आदि के भेदभावों से ऊपर उठकर सबको अभिव्यक्ति का अधिकार देता है, परन्तु भारत में जो विश्व का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है, इस अधिकार का जितना दुरुपयोग होता है, शायद विश्व के किसी कोने में नहीं होता होगा। सुप्रीम कोर्ट भी अभिव्यक्ति की आज़ादी की वकालत तो करता है, लेकिन नागरिकों के कर्त्तव्य पर मौन साध लेता है। सुप्रीम कोर्ट ने ही अपने आदेश से विरोध के रूप में किसी तरह के बन्द और सड़क जाम पर प्रतिबन्ध लगा रखा है, लेकिन उस आदेश की रोज ही धज्जियां उड़ाई जाती हैं और सुप्रीम कोर्ट कोई संज्ञान नहीं लेता। बन्द के दौरान की गई हिंसा और माब लिंचिंग में कोई अन्तर नहीं है। माब लिंचिंग पर तो सुप्रीम कोर्ट स्वतः संज्ञान ले लेता है और निन्दा के अलावे कार्यवाही भी करता है, पर बन्द के लिए उन तत्त्वों और राजनीतिक पार्टियों पर न तो कोई कार्यवाही करता है और न निन्दा करता है। अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देश के टुकड़े-टुकड़े करने वाले, नारे लगाने वालों और समाज को बांटने की कोशिश करनेवालों को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। इस समय समाज को बांटने वाले और सामाजिक समरसता को तार-तार करनेवाले संगठन और नेता कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। जब भी सरकार इनके पर कतरने की कोशिश करती है, न्यायपालिका आड़े आ जाती है। क्या कश्मीर के आतंकवादियों और नक्सलवादियों को अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर खुली छूट दी जा सकती है? क्या देश की एकता और अखंडता से समझौता किया जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट और सत्ता गंवाने के बाद विक्षिप्त हुई पार्टियों और नेताओं को इसपर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
      देश की आज़ादी की लंबी लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी ने कभी बन्द का आह्वान नहीं किया। एक बार असहयोग आन्दोलन के दौरान भीड़ ने जब चौराचौरी थाने पर कब्जा करके कई पुलिस वालों को ज़िन्दा जला दिया था, तो गांधीजी ने आन्दोलन ही वापस ले लिया। क्या ऐसी नैतिकता कोई भी राजनीतिक पार्टी दिखा सकती है? भारत में बन्द कम्युनिस्ट पार्टी की देन है। यह विचारधारा तो पूरे विश्व में आज मृतप्राय है, लेकिन इसकी गलत आदत सबसे ज्यादा भारत की जनता को लग गई है। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की यह एकमात्र सफलता है जो नासूर का रूप धारण करता जा रहा है। अमेरिका में भी ट्रंप के विरोधी कम संख्या में नहीं हैं, लेकिन कभी किसी ने अमेरिका बन्द या विरोध के नाम पर उग्र हिंसा या तोड़फोड़ की खबरें नहीं पढ़ी होगी। कभी-कभी ऐसा लगता है कि क्या अपना देश और अपनी जनता लोकतन्त्र का मतलब भी समझती है? छोटी-छोटी बातों के लिए आपस में उलझना और राष्ट्रीय संपत्ति को शत्रु की संपत्ति की तरह नष्ट कर देना अत्यधिक चिन्तनीय है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता अराजकता का रूप लेती जा रही है जिसे न कानून मान्यता देता है और न हमारा संविधान। लोकतन्त्र का भीड़तन्त्र का रूप लेते जाना कही इस मुहावरे को चरितार्थ तो नहीं कर रहा है -- बन्दर के हाथ में उस्तरा।

Sunday, September 9, 2018

सर्वोच्च न्यायालय और तुष्टीकरण


ऐसा लगता है कि जब से कांग्रेस ने सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ अवमानना की नोटिस दी थी, तब से सर्वोच्च न्यायालय दबाव में आ गया। कांग्रेस का यही उद्देश्य था और इसमें वह सफल रही। अवमानना की नोटिस के बाद सुप्रीम कोर्ट ने लगातार ऐसे कार्य किए और ऐसे फैसले लिए जिन्हें तुष्टीकरण की श्रेणी में डाला जा सकता है। करुणानिधि के निधन के बाद उनको दफ़नाए जाने की जगह को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने रात भर सुनवाई की। कर्नाटक में नई सरकार के गठन और विश्वास प्रस्ताव के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही त्वरित सुनवाई की और हैरान करने वाला फैसला सुनाया। कल को पूरा मरीना बीच कब्रगाह बन जाय, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक शक्ति का भी प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय कर रहा है। अबतक यही ज्ञात था कि भारत में संसद ही सर्वोच्च है और उसे ही कानून बनाने का अधिकार है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारणा को निर्मूल कर दिया। सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए वर्तमान विवादित कालेजियम सिस्टम के स्थान पर संसद ने एक बिल पारित किया था जिसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई थी। स्पष्ट है कि राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वह बिल कानून बन गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उसे रद्द कर दिया। उस कानून के लागू होने से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति में मनमानी और भाई-भतिजावाद पर रोक लगने का खतरा था। सारी सीमाओं को लांघते हुए संसद के दोनों सदनों से आम सहमति से पारित और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदित कानून को सु्प्रीम कोर्ट ने कैसे रद्द कर दिया, समझ के परे है। संसद और राष्ट्रपति - दोनों संवैधानिक संस्थाएं सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बौनी नजर आईं।
अभी-अभी शहरी नक्सलियों के प्रति अत्यधिक सहानुभूति दिखाते हुए सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने जिस तरह की टिप्पणी की है और आदेश पारित किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि सुप्रीम कोर्ट स्वयं एक पार्टी हो। राष्ट्रद्रोह में लिप्त होना और प्रधान मन्त्री की हत्या की साज़िश रचना सुप्रीम कोर्ट के लिए बहुत मामूली घटना लग रही है। सुप्रीम कोर्ट के चार न्यायाधीश सेवा में रहते हुए प्रेस कांफेरेन्स कर सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट उनपर कोई कार्यवाही नहीं कर सकता, लेकिन महाराष्ट्र का एक पुलिस अधिकारी अगर अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए प्रेस कांफेरेन्स करता है तो वह अवमानना का विषय बन जाता है और कड़ी फटकार का पात्र बन जाता है। क्या यह दोहरी मानसिकता या दोहरा मापदण्ड नहीं है?
कुछ ही दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा ३७७ को लगभग रद्द कर दिया है। अति आधुनिक और पश्चिम के अनैतिक खुलेपन से होड़ लेते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला सुनाते हुए प्रकृति के नियमों को भी ध्यान में नहीं रखा। प्रकृति ने सभी प्राणियों को मर्यादा में बांध रखा है। मनुष्य के अतिरिक्त कोई भी प्राणी प्रकृति प्रदत्त सीमा से बाहर जाकर यौनाचार करता दिखाई नहीं पड़ता। जंगल में रहने वाले स्वच्छन्द प्राणी भी प्राकृतिक क्रम में और सन्तानोत्त्पत्ति के लिए ही यौनाचार करता है। मनुष्यों के आदिवासी समाज में भी समलैंगिकता दूर-दूर तक प्रचलन में नहीं है। केवल तथाकथित सभ्य मानव ही अपने अहंकार की तुष्टि के लिए अमर्यादित चर्या की ओर आकृष्ट होता है। उससे भी आगे बढ़कर आज बहुशिक्षित समाज में विशेष रूप से पाश्चात्य समृद्ध देशों में व्यक्ति जिन कुंठाओं के बीच जीवन-यापन करता दिखाई देता है और जिस प्रकार के मादक पदार्थों के सेवन के बीच अपनी वासनाओं से संघर्ष करता है, वहाँ इस तरह की गतिविधियों का चलन तेजी से बढ़ा है। दूसरी बात यह भी है कि वहाँ हमारी तरह कोई समाज व्यवस्था नहीं है, जिसका अंकुश परोक्ष रूप से किसी व्यक्ति पर लगता हो। वहाँ की आबादी की इकाई व्यक्ति ही है और सारे कानून भी व्यक्ति को ध्यान में रखकर बने होते हैं। इसी का परिणाम यह रहा कि व्यक्ति स्वतंत्र रहने के बजाय स्वच्छन्द हो गया। सुप्रीम कोर्ट के समलैंगिकता के पक्ष में दिए गए फैसले से एक और विषम परिस्थिति देश और समाज के सामने आनेवाली है। जो लड़के या लड़की समलैंगिकता की ओर आकर्षित हो जाते हैं, वे शादी करने को कभी राजी नहीं होते। इस स्थिति में माँ-बाप को बिलखते हुए और समाज की दृष्टि में उपेक्षित होते हुए देखा जा सकता है। ऐसे लड़के-लड़कियों पर न किसी की सलाह का असर होता है और न ही विपरीत लिंगीय आकर्षण होता है। जीवन का एक तरह से यह एक बड़ा नैतिक विघटन और पतन है। स्वतंत्रता सबको चाहिए, किन्तु हमारे देश में समाज-व्यवस्था भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है, जितना कानून। अगर इसे ध्यान में नहीं रखा गया तो खाप पंचायतों का प्रचलन अपने आप बढ़ जाएगा।
हमारी परंपराएं कानून के समकक्ष मानी गई हैं। सभी तरह की सेवाओं पर भी इसका असर पड़ेगा। इस तरह के कानून तो समाज की मर्यादा के भीतर ही अपना अस्तित्व तय करें, उसी में देश और समाज का कल्याण शामिल है। अगर ऐसे ही फैसले आते रहें, तो एक काल के बाद हमें भी इस देश में सांस्कृतिक पवित्रता तार-तार होती दिखने लग जाएगी। चंद लोगों की मनमानी के कारण हमारे सनातन और पुराने ज्ञान की यही उच्छृंखल लोग सार्वजनिक स्थलों पर सरे आम होली जलाएंगे।

Thursday, September 6, 2018

माब लिंचिंग

     पूरे विश्व का मनुष्य तीन गुणों से युक्त है। वे हैं -- तमो गुण, रजो गुण और सत्व गुण। मनुष्य के रहन-सहन, खान-पान और व्यवहार में भी तीनों गुण परिलक्षित होते हैं। इन तीन गुणों की की व्यक्ति में उपस्थिति का अनुपात ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्धारण करता है। कम या अधिक मात्रा में ये तीनों गुण सदैव विद्यमान रहते हैं। इसीलिए गीता में भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने अर्जुन को तीनों गुणों से परे अर्थात गुणातीत होने का परामर्श दिया है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए गुणातीत होना अत्यन्त आवश्यक है, परन्तु व्यवहारिक जीवन में गुणातीत होना असंभव तो नहीं लेकिन अत्यन्त दुष्कर अवश्य है। क्रोध और हिंसा रजो गुण के अंग हैं जो प्रत्येक मनुष्य की स्वभाविक प्रवृत्ति है। माब लिंचिंग या भीड़ की हिंसा इसी की देन है। मनोवैज्ञानिकों ने गहन शोध के बाद यह निश्कर्ष निकाला है कि हर व्यक्ति, चाहे वह बड़ा से बड़ा अपराधी क्यों न हो, उचित और अनुचित का भेद समझता है। उसके अन्तस्‌ में उचित के प्रति समर्थन और अनुचित के प्रति विरोध सदैव रहता है, भले ही वह सुप्तावस्था में ही क्यों न हो। जब कोई चोर चोरी करते हुए पकड़ा जाता है, तो पास से गुजरने वाले व्यक्ति के मन में चोरी के प्रति सुप्त विरोध प्रकट हो जाता है। अगर भीड़ ने चोर को पकड़ा है, तो आसपास के लोग भी विरोध से सम्मोहित हो जाते हैं और ऐसा काम कर बैठते हैं जिसे अकेले करने के लिए वे सोच भी नहीं सकते थे। भीड़तंत्र में सभी सम्मोहन की स्थिति में होते हैं, इसलिए एक या दो मुखर व्यक्ति जो निर्देश ऊँचे स्वर में देते हैं, भीड़ बिना परिणाम का विचार किए उसका पालन करने लगती है। जनमानस सार्वजनिक स्थलों पर चोरी, लूट, महिलाओं से अभद्र व्यवहार, हिंसा आदि के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होता है। वह ऐसे अपराधियों को सजा देने के लिए कानून या पुलिस की प्रतीक्षा नहीं करता। वह हाथ के हाथ सजा देकर मामले का निपटारा कर देता है। भीड़ की इस मानसिकता के कारण शंका के आधार पर भी निर्दोष की हत्या हो जाती है। लेकिन भीड़ के इसी डर के कारण दिन के उजाले में सार्वजनिक स्थानों पर अपराधी अपराध करने से डरते भी हैं। भीड़तंत्र के लाभ भी हैं और हानियां भी हैं। कभी तो यह कानून-व्यवस्था को बनाये रखने में सहायक होता है और कभी कानून को ही अपने हाथ में ले लेता है। सिर्फ कानून बनाकर इसपर नियंत्रण नहीं पाया जा सकता। मनुष्यों में नैतिकता की मात्रा बढ़ाकर अर्थात सतो गुण की वृद्धि करके इसपर काबू पाया जा सकता है। इसके लिए विद्यालयों में उचित नैतिक शिक्षा की व्यवस्था करना आवश्यक है। सभी राजनीतिक दलों को दलीय स्वार्थ से ऊपर उठकर नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सर्वसम्मति से कार्य करना चाहिए। सभी धर्मों के नैतिक आदर्श से विद्यार्थियों को परिचित कराना चाहिए, तभी हम माब लिंचिंग पर नियंत्रण स्थापित कर सकते हैं।