Wednesday, October 15, 2014

महाभारत-२


      युधिष्ठिर के धार्मिक एवं शान्तिप्रिय स्वभाव को लक्ष्य करके ही धृतराष्ट्र ने ऐसा संदेश भिजवाया था। मनुष्य जो भी करता है उसे उचित ठहराने की कोशिश अवश्य करता है। इसके लिये वह कभी धर्म का तर्क देता है, कभी सत्य का, कभी परंपरा का, कभी सिद्धान्त का, तो कभी नैतिकता का। वाकपटु मनुष्य असत्य को भी सत्य की चाशनी चढ़ाकर इस तरह प्रस्तुत करता है कि असत्य में सत्य का बोध होने लगता है और सत्य में असत्य का। एक पुरानी कहानी है कि सत्य और असत्य जुड़वा बहनें हैं। एक बार दोनों नदी किनारे स्नान करने गईं। अपना वस्त्र नदी के किनारे रख दोनों नदी में नहाने लगीं। असत्य ने पहले नहा लिया और सत्य के कपड़े पहन चलती बनी। सत्य नहाकर जब किनारे आई, तो पाया कि उसके कपड़े नदारद थे। मज़बूरी में उसे असत्य के कपड़े पहनने पड़े। तभी से लोग सत्य-असत्य के बीच भ्रम में पड़े रहते हैं। युधिष्ठिर को सुन्दर शब्दों में धर्म की चाशनी चढ़ाकर धृतराष्ट्र द्वारा भेजे गये संदेश की असली मंशा समझते देर नहीं लगी। उन्होंने उसी तरह का जटिल उत्तर भी दिया -
     यत्राधर्मो धर्मरूपाणि बिभ्रद कृत्स्नो धर्मः दृश्यतेअधर्मरूपः ।
     तथा धर्मो धारयन्धर्मरूपं विद्वांसस्तं सम्प्रश्यन्ति बुद्धयाः ॥
                (उद्योग पर्व २८;२)
     कही तो अधर्म ही धर्म का रूप धारण कर लेता है, कही पूर्णतया धर्म अधर्म जैसा दिखाई पड़ता है; तथा कही धर्म अत्यन्त वास्तविक स्वरूप धारण करके रहता है। विद्वान पुरुष अपनी बुद्धि से विचार करके उसके असली रूप को देख लेते हैं, समझ लेते हैं।
      युधिष्ठिर का उपरोक्त उत्तर संजय के सिर के उपर से गुजरा। दोनों अलग-अलग तल से बात कर रहे थे। अपने उत्तर को और सरल बनाते हुए युधिष्ठिर ने स्पष्ट किया -
      संजय! भिक्षावृत्ति ब्राह्मणों का धर्म है, क्षत्रियों का नहीं। मैं आजतक ज्येष्ठ पिताश्री को एक न्यायप्रिय महाराज के रूप में जानता था। अगर तुम्हारे द्वारा दिए गए प्रस्ताव पर उनकी सहमति है, तो यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। पुत्रमोह के कारण उनका अन्तर भी कलुषित हो जायेगा, इसकी अपेक्षा नहीं थी। अपने अधर्मी पुत्रों को सन्मार्ग पर लाने में असफल महाराज मुझे धर्म की शिक्षा दे रहे हैं। संजय, मैं नास्तिक नहीं हूं। इस पृथ्वी पर जो कुछ भी धन है, देवताओं, प्रजापतियों और ब्रह्माजी के लोक में जो भी वैभव है, वे सभी मुझको प्राप्त होते हैं, तो भी मैं उन्हें अधर्म से लेना नहीं चाहूंगा। लेकिन अधर्म से कोई अगर मेरे अधिकार का तृण भी लेना चाहेगा, तो मैं उसे पंगु बना दूंगा। अधर्म करना और सहना, दोनों दुष्कर्म की श्रेणी में आते हैं। न्याय के लिये अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है। मैं युद्ध नहीं चाहता, लेकिन अगर युद्ध अपरिहार्य हो, तो डरता भी नहीं। क्षत्रिय-कुल में जन्म लिया है, युद्ध से क्यों डरूं?
 अगले अंक में - श्रीकृष्ण का संजय को उत्तर


No comments:

Post a Comment