Wednesday, August 31, 2011

स्वामी अग्निवेश - एक रंगा सियार



दिनांक २८ अगस्त, २०११ को दिन के दो बजे न्यूज२४ चैनल से स्वामी अग्निवेश और केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल से हुई बातचीत का विडियो टेप के माध्यम से सजीव प्रसारण हुआ। यह विडियो आज भी यू-ट्‌यूब पर उपलब्ध है। इसमें अग्निवेश भगवा वस्त्र पहने हैं और मोबाइल से बात करते हुए स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। बातचीत हिन्दी में हुई थी, जो शब्दशः नीचे प्रस्तुत है -
"..................................................." फोन पर दूसरी ओर कपिल हैं, जिनकी आवाज़ सुनाई नहीं पड़ रही है।
अग्निवेश - "जय हो, जय हो कपिल जी, जय हो महाराज। बहुत जरुरी है कपिल जी, नहीं तो ये तो पागल की तरह हो रहे हैं, जैसे कोई हाथी हो।"
"..................................................."
अग्निवेश - "लेकिन जितना कंसीड करती जाती है गवर्नमेंट, उतना ही ज्यादा ये सिर पर चढ़ते हैं।"
"...................................................."
अग्निवेश - "बिल्कुल कंसीड नहीं करना चाहिए, फर्म होकर करिए।"
"..................................................."
अग्निवेश - "कोई सरकार को इस तरह से ये करे तो ये बहुत बुरी बात है। हमें शर्म महसूस हो रही है कि हमारी सरकार इतनी कमजोर हो गई है।"
"......................................................."
अग्निवेश - "देखिए न, इतनी बड़ी अपील करने के बाद भी अन्ना फास्ट नहीं तोड़ते। इतनी बड़ी चीज कह दी और इतनी उनके शब्दों में प्रधान मंत्री जी........................"
कुटिल मुस्कान के साथ अग्निवेश टहलते हुए स्थान बदल देते हैं, इसलिए आगे की बातचीत रिकार्ड नहीं की जा सकी, लेकिन बातचीत का जो अंश उपर दिया गया है, उतना ही स्वामी अग्निवेश के दोहरे चरित्र को उजागर करने के लिए पर्याप्त है।
अग्निवेश अप्रिल तक टीम अन्ना के सक्रिय सदस्य थे। अप्रिल में अन्नाजी द्वारा किए गए अनशन के दौरान वे हमेशा मंच पर विराजमान रहे। इस अगस्त क्रान्ति के दौरान भी वे अन्नाजी के मंच पर शुरुआती दिनों में देखे गए, लेकिन अनुभवी पुलिस अधिकारी किरण बेदी की आंखों ने भगवा वस्त्र में लिपटे इस ढोंगी संन्यासी के मुखबिरी चेहरे को पहचान लिया। अन्नाजी ने भी इस रंगे सियार से बात करना बंद कर दिया। अग्निवेश ने फिर भी हार नहीं मानी। उन्होंने पीएमो से सीधे फोन कराया और टीम अन्ना पर दबाव डलवाया कि उन्हें भी टीम में महत्वपूर्ण भूमिका के साथ रखा जाय। वे सरकार और टीम अन्ना के बीच मध्यस्थता के लिए सबसे उपयुक्त रहेंगे, ऐसा सुझाव भी पीएमो की ओर से दिया गया। लेकिन अन्नाजी टस से मस नहीं हुए क्योंकि उन्हें पक्का विश्वास हो चुका था कि अग्निवेश की निष्ठा कांग्रेस और सरकार के प्रति थी न कि भ्रष्टाचार विरोधी अगस्त-क्रान्ति के साथ। अन्ना टीम को यह भी पता चल गया था कि बाबा रामदेव का करीबी बनकर जून में इन्होंने ही सरकार के लिए मुखबिरी की थी और बाबा के आंदोलन को कुचलने में सरकार का उपकरण बने थे।
अग्निवेश की भूमिका आरंभ से ही संदिग्ध और विवादास्पद रही है। ये नक्सलवादियों, आतंकवादियों, विघटनकारियों और देशद्रोहियों के सलाहकार और सरकारी एजेन्ट हैं। ये भगवा वस्त्र पहनते हैं। भगवा रंग पवित्रता, त्याग, तपस्या, तप, और सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति समर्पण का प्रतीक है। जनमानस में इसके लिए अथाह श्रद्धा का भाव है। इसी का लाभ उठाने के लिए इस बहुरूपिए ने भगवा रंग धारण कर रखा है। ये अपने को आर्य समाजी कहते हैं, लेकिन आज की तिथि में आर्य समाज से भी इनका दूर-दूर का भी कोई नाता नहीं है। इनका आचरण महर्षि दयानन्द सरस्वती के पवित्र आदर्शों को कलंकित करने के समान है। भ्रष्टाचार एवं देशद्रोह को समर्थन करनेवाला यह ढ़ोंगी कहीं से भी भगवा वस्त्र का अधिकारी नहीं है। इन्हें भगवा वस्त्र का परित्याग कर स्वयं काला वस्त्र अपना लेना चहिए। वह दिन दूर नहीं जब जनता जनार्दन वस्त्रों के साथ इनका मुंह भी काला करके राजधानी की सड़कों पर घुमाएगी। कब तक ये अंडरग्राउंड रहेंगे?
पता नहीं इस सरकारी दलाल ने अपने नाम के पहले "स्वामी" उपसर्ग कहां से और कब लगा लिया। "स्वामी" शब्द बड़ा पवित्र और महान है। इसके उच्चारण से सबसे पहले स्वामी विवेकानन्द जी का चित्र आंखों के सामने साकार हो उठता है। अग्निवेश जैसा निकृष्ट व्यक्ति अपने नाम के आगे स्वामी लगाए, यह सह्य नहीं है। यह भारत की सभ्यता, संसकृति और गौरवशाली परंपरा का खुला अपमान है। भारत की जनता से अनुरोध है कि नक्सलवाद, आतंकवाद और भ्रष्टाचार के प्रबल समर्थक अग्निवेश को आज के बाद "रंगा सियार" ही कहकर संबोधित करे, भले ही कांग्रेस की सरकार उन्हें "भारत-रत्न" से ही क्यों न सम्मानित कर दे। उनके पापों की यह सबसे हल्की सज़ा होगी।

Friday, August 12, 2011

आरक्षण - संविधान की मूल प्रस्तावना का अपमान है



भारत के मूल संविधान की प्रस्तावना मूल रूप से अंग्रेजी में लिखी गई है। उसका हिन्दी अनुवाद भी उपलब्ध है, लेकिन विश्वसनीय संदर्भ के लिए अंग्रेजी प्रस्तावना ही दी जा रही है --
WE THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens --
JUSTICE, social, economic and political;
LIBERTY of thoughts, expression, faith and worship;
EQUALITY of status and opportunity;
and to promote among them
FRATERNITY assuring the dignity of individual and the unity and integrity of the Nation.
आरक्षण की व्यवस्था संविधान की मूल भावना का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है। यह कीचड़ से कीचड़ धोने का प्रयास है। यह संविधान द्वारा प्रदत्त सबको समान अवसर उपलब्ध कराने की गारंटी का भी उल्लंघन है। यह प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के भी खिलाफ़ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दलित समाज को सदियों से उपेक्षा और दुर्व्यवहार ही प्राप्त हुआ है। भारत के स्वर्णिम काल में जाति-व्यवस्था नहीं थी। तब वर्ण-व्यवस्था थी। और वह भी जन्मना नहीं थी। समाज को चार वर्णों में वर्गीकृत किया गया था जिसका एकमात्र आधार गुण-कर्म होता था। सबसे निम्न वर्ण के व्यक्ति को भी यह छूट थी कि अपने गुणों का विकास करके वह दूसरे वर्ण में प्रवेश पा सकता था। महर्षि बाल्मीकि और महर्षि वेद व्यास इसके उदाहरण हैं। शूद्र माँ के गर्भ से पैदा होने के बावजूद भी इन्होंने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। दूसरी ओर यह भी उदाहरण है कि देवराज इन्द्र के सिंहासन पर आसीन क्षत्रिय राजा नहुष को अपने कर्म का सम्यक पालन न करने के कारण अविलंब पदच्युत कर दिया गया। उन्हें मनुष्य योनि का भी अधिकारी नहीं माना गया। उन्हें सर्पयोनि में भेजा गया। श्रीकृष्ण स्वयं एक यादव थे। उनके घर में दूध-दही-मक्खन-घी का व्यवसाय होता था। उन्हें जन्मना वैश्य माना जाएगा लेकिन थे वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में कई श्रेष्ठ ब्राह्मण उपस्थित थे, लेकिन पितामह भीष्म की सलाह पर श्रीकृष्ण की ही अग्रपूजा की गई। कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र में उनके श्रीमुख से निकली वाणी ने श्रीमद्भगवद्गीता का रूप ले लिया।
सामाजिक कुरीतियां हर समाज में होती हैं लेकिन यह हिन्दू समाज का दुर्भाग्य था कि इसमें कुरीतियां कुछ ज्यादा ही प्रवेश कर गईं और दीर्घ काल तक बनी रहीं। अश्पृश्यता और जाति प्रथा इसी के कुपरिणाम थे। यह सत्य है कि दलित वर्ग को अनगिनत अत्याचारों का समना करना पड़ा है। फिर भी मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अंग्रेजों द्वारा अश्वेत नस्ल पर ढाए गए अत्याचारों के सामने ये कुछ भी नहीं हैं। अमेरिका में अश्वेत लोगों को कोई नागरिक अधिकार नहीं था दास-प्रथा को कानूनी संरक्षण प्राप्त था। रोम में उच्च वर्ग मनोरंजन के लिए हब्सियों को शेर के पिंजड़े में धकेल कर जिन्दगी और मौत का तमाशा देखते थे। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि विश्व के अनेक देशों में जहां गोरों का वर्चस्व था, वहां की मूल जातियों की सामूहिक हत्या की गई। उनका नामोनिशान मिटा दिया गया। कुछ ही दशक पहले अमेरिका में कानून बनाकर दासप्रथा समाप्त की गई और पददलित अश्वेत आबादी को सामान्य अधिकार दिए गए। आज अश्वेत समाज कंधा से कंधा मिलाकर अमेरिका के विकास में सहयोग कर रहा है। खेल-कूद में तो इस समाज का लगभग एकाधिकार है वहां। इतने अत्याचार सहने और देखने के बावजूद भी वहां के अश्वेत आबादी ने कभी आरक्षण की मांग नहीं की। अमेरिका में किसी के लिए कोई आरक्षण नहीं है, तभी वह संसार का सबसे विकसित और शक्तिशाली राष्ट्र बन पाया। वहां अश्वेतों को अवसर न मिल पाने की कोई शिकायत नहीं है। आज एक अश्वेत वहां का चुना हुआ राष्ट्रपति है। वह आरक्षण से नहीं आया है, अपने दम पर, अपनी प्रतिभा के बल पर आया है।
कर्म और गुण से डा. भीमराव अम्बेडकर बीसवीं सदी के सबसे बड़े ब्राह्मण थे। भारत के संविधान के निर्माण में उनका योगदान सबसे महत्त्वपूर्ण था। उन्हें संविधान निर्माता के रूप में भी जाना जाता है। मूल संविधान में सिर्फ अनुसूचित जातियों और जन जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान था, वह भी मात्र १० वर्षों के लिए। वे दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि आरक्षण की बैसाखी अगर सदा के लिए किसी वर्ग या जाति को थमा दी जाय, तो वह शायद ही कभी अपने पैरों पर खड़ा हो पाएगा। सामान्य विकास के लिए स्वस्थ प्रतियोगिता अत्यन्त आवश्यक है। आरक्षित वर्ग इस खुली प्रतियोगिता से वंचित हो जाता है। यही कारण है कि इस वर्ग का बहुसंख्यक समाज आज भी अपनी पुरानी अवस्था में ही है। आरक्षण के मुख्य दोष निम्नवत हैं --
१. समाज में विभाजन
२. सामाजिक समरसता का लोप
३. आपस में द्वेष व वैरभाव
४. बहुसंख्यक समाज की युवा पीढ़ी में घोर असंतोष
५. प्रतिभा की उपेक्षा
६. अयोग्य लोगों की योग्य लोगों पर वरीयता
७. प्रतिभा पलायन
८. बेरोजगारों में कुंठा
९. कार्य-संस्कृति का ह्रास
१०. भ्रष्टाचार
११. सरकारी संस्थानों का सफेद हाथी के रूप में परिवर्तन
आज़ादी के बाद हमारे पास जाति व्यवस्था को समाप्त करने का स्वर्णिम अवसर था जिसे हमने गंवा दिया। मूल संविधान में राजनीति से प्रेरित अनेकों संशोधन करके जाति-व्यवस्था को ही संविधान सम्मत बना दिया। अवसर कम हैं, अभ्यर्थी ज्यादा। ऐसे में हर जाति आरक्षण चाहती है। गुर्जर और जाट जैसी समर्थ जातियां भी क्रमशः अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग में आरक्षण के लिए आए दिन धरना, प्रदर्शन और हिन्सा करते हैं। हफ़्तों ट्रेनें भी बंद कर देते हैं। पूरा जनजीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अगर अनारक्षित वर्ग भी यही तरीके आरक्षण के विरोध में अपनाने लगे, तो देश का क्या होगा, समाज का क्या होगा? आरक्षण कही गृह-युद्ध का कारण न बन जाय। शिक्षा के क्षेत्र में भी आरक्षण लागू करके सरकार ने सारी सीमाएं तोड़ दी। अपने ही देश की युवा पीढ़ी को ज्ञान से वंचित कर दिया। क्या सारे अनारक्षित इतने संपन्न हैं कि वे अपने बच्चों को अमेरिका, इंगलैंड, आस्ट्रेलिया आदि देशों में, जहां आरक्षण नहीं है, भेज सकें? एक तरफ सरकार कहती है कि शिक्षा प्राप्त करना सभी नागरिकों का मौलिक अधिकार है, दूसरी ओर सारे विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में आरक्षण भी लागू करती है। मंशा स्पष्ट है -- अनारक्षितों को शिक्षा से वंचित करना। १०० में शून्य अंक पानेवाला छात्र प्रवेश पाता है और ७५ अंक पानेवाला छात्र सड़क पर टहलता है।
हर क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था लागू करने से अच्छा है कि जो वंचित हैं, दलित हैं, साधनहीन हैं, गरीबी रेखा के नीचे हैं, उन्हें आर्थिक सहायता, छात्रवृति, निःशुल्क कोचिंग आदि प्रदान करके बैसाखी के बदले अपने पैरों पर खड़ा होने का विश्वास भरा जाय। एक अयोग्य शिक्षक अपने शिष्यों को क्या शिक्षा देगा? एक अयोग्य चिकित्सक मरीजों की कैसे चिकित्सा करेगा? एक अयोग्य इंजीनियर कौन सा राष्ट्रनिर्माण करेगा? सरकारी विभागों में अनुशासनहीनता बढ़ती जा रही है। प्रोन्नति में आरक्षण ने तो कार्य संस्कृति को ही चौपट कर दिया है। भ्रष्टाचार भस्मासुर का रूप ले रहा है। कहने के लिए भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन भारत के अलावे कहां चुनाव क्षेत्र भी आरक्षित हैं? आरक्षित क्षेत्रों से कुछ जाति विशेष के प्रतिनिधि ही जब चुनाव लड़ेंगे, तो हमारे पास क्या विकल्प रह जाता है? हम अपने क्षेत्र से अपनी पसंद का प्रतिनिधि भी नहीं चुन सकते।
कुछ वर्ष पहले मेरे मित्र "विनोद" ने आरक्षण पर एक कविता लिखी थी, मैं उसे इस लेख के अंत में देना चाहूंगा -
यह धरती, नदी, नाले,
ये पर्वत, आकाश,
ये पौधे, वो फूल,
यह सूरज, प्रकाश।

ये हवा, वो खुशबू,
यह बारिश, वो मेघ,
यह चन्दा, वो तारे,
मेरा यह देश।

संसाधन, विकास,
अवसर व रास्ते,
सारे पराए हैं,
मेरे ही वास्ते।
प्रतिभा का धनी हूं,
योग्यता भरपूर है,
तुष्टिकरण आंधी में,
लक्ष्य बहुत दूर है।

सरकारी विभाग में,
इंजीनियर, प्रशासक,
सारे आरक्षित हैं,
सबकुछ है बंधक।

आरक्षण के कोटे से,
बेटा यदि होता,
आज की तारीख में,
बास बना होता।

आज भी अंधेरा है,
कल भी अंधेरा,
अंधेरा है कैरियर,
रोया सवेरा।

गैर अनुसूचित का,
एक योग्य बेटा हूं,
न्याय की फ़रियाद ले,
चौराहे पर लेटा हूं।

गर्भ के चुनाव में,
मैंने की गलती है,
यही तो है दोष मेरा,
यही भूल छलती है।
॥इति॥

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-७



प्रत्येक मनुष्य, मनुष्य ही नहीं प्रत्येक जीवात्मा में ईश्वर का अंश है। प्रकृति की प्रत्येक कृति ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति कराती है। प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का ही अवतार या रूप है, समस्या सिर्फ स्वयं को पहचानने की है। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वरत्व प्राप्त करने की क्षमता होती है। गीता के माध्यम से श्रीकृष्ण ने मानव जाति के लिए उस परम उपलब्धि हेतु संभावनाओं के अनन्त द्वार खोल दिए हैं। जीवन में विभिन्न भूमिकाओं का सामान्य मनुष्य की तरह निर्वाह करते हुए भी श्रीकृष्ण ईश्वरत्व को प्राप्त व्यक्ति हैं। अर्जुन एक सधारण मानव का प्रतिनिधित्व करता है। अर्जुन की द्विधा, अर्जुन के प्रश्न, अर्जुन का द्वन्द्व, एक साधारण परन्तु ईश्वर के प्रति समर्पण की प्रबल इच्छा वाले मनुष्य के हृदय में उत्पन्न होती हुई तर्कपूर्ण जिज्ञासाएं हैं, जिसका समाधान श्रीकृष्ण करते हैं। इस संवाद में श्रीकृष्ण कभी अर्जुन के तल (Level) पर आकर संभाषण करते हैं, तो कभी एक कदम आगे जाकर। संवाद करते-करते वे कभी-कभी उपर उठकर परमात्मा के तल को प्राप्त कर लेते हैं। जब वे ’मैं’ का प्रयोग करते हैं, उस समय वे परम पिता परमेश्वर के तल पर होते हैं। वे कई तलों पर खड़े होकर अर्जुन से संवाद स्थापित करते हैं। तलों का अन्तर समझ लेने से गीता का वास्तविक अर्थ आसानी से समझा जा सकता है। गीता का पाठक या श्रोता सबकुछ अपने ही तल पर घटित होते हुए देखना चाहता है। इससे कभी-कभी मतिभ्रम या विरोधाभास दिखाई देने लगता है।
वेदान्त का सर्वविदित वाक्य है -"एकं सद विप्रा बहुधा वदन्ति" - एक ही सत्य अनेक विद्वान अनेक तरह से कहते हैं। बायबिल में भी सत्य है, कुरान में भी सत्य है, वेदों में भी सत्य है। ये सभी अन्त में जाकर परम सत्ता के परम सत्य में विलीन हो जाते हैं। यह कहना कि मेरे ग्रंथ में प्रतिपादित सत्य ही असली सत्य है, बाकी सब मिथ्या, घोर अज्ञान है। आज दुनिया में फैली धार्मिक अशान्ति और हिन्सा का यही मूल कारण है। इतिहास साक्षी है कि इस विश्व में जितना नरसंहार धर्म के नाम पर हुआ है, उतना प्रथम-द्वितीय विश्वयुद्ध और हिरोशिमा-नागासाकी पर अणु बम के प्रहार से भी नहीं हुआ है। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो भी, जैसे भी, जिस रूप में मेरे पास आता है, मैं उसे उसी रूप में स्वीकार करता हूँ क्योंकि इस ब्राह्माण्ड के सारे रास्ते, चाहे वे कितने भी अलग-अलग क्यों न हों, मुझमे ही आकर मिलते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो की धर्मसभा के उद्‌घाटन भाषण में गीता का संदर्भ देते हुए जब श्रीकृष्ण की उपरोक्त उक्ति दुहराई, तो हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। सबके लिए यह रहस्योद्‌घाटन बिल्कुल नया था। उनके संबोधन के दौरान दो बार जबरदस्त करतलध्वनि हुई - पहली बार जब उन्होंने उपस्थित जन समुदाय sisters and brothers of America कहकर संबोधित किया और दूसरी बार जब गीता की उपरोक्त सूक्ति का भावार्थ अपने ओजपूर्ण स्वर में प्रस्तुत किया। ये दोनों चीजें शेष विश्व के लिए नई थीं । विश्व को एकता, भाईचारा, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, समानता और सौहार्द्र के मजबूत धागे में पिरोकर एक सुन्दर पुष्पहार बनाने की क्षमता मात्र गीता में है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश, न्यायमूर्ति एस. एन. श्रीवास्तव ने गत वर्ष एक फैसले के माध्यम से केन्द्र सरकार को गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने का परामर्श यूं ही नहीं दे दिया। गीता असंख्य महापुरुषों के जीवन की प्रेरणा रही है। इनमें स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, पंडित मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, विनोबा भावे, लाला लाजपत राय, महर्षि अरविन्द घोष, सर्वपल्ली डा. एस. राधाकृष्णन, भगत सिंह, सुखदेव, राम प्रसाद बिस्मिल, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आज़ाद और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे.कलाम का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
गीता किसी विशिष्ट व्यक्ति, जाति, वर्ग, पन्थ, धर्म, देशकाल या किसी रूढ़िग्रस्त संप्रदाय का ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यह सार्वलौकिक, सार्वकालिक धर्मग्रन्थ है। यह प्रत्येक देश, प्रत्येक जाति तथा प्रत्येक स्तर के स्त्री-पुरुष के लिए, सबके लिए है। केवल दूसरों से सुनकर या किसी से प्रभावित होकर मनुष्य को ऐसा निर्णय नहीं लेना चाहिए, जिसका प्रभाव सीधे उसके अपने व्यक्तित्व पर पड़ता हो। पूर्वाग्रह की भावना से मुक्त हुए सत्यान्वेषियों के लिए यह आर्षग्रन्थ आलोक-स्तंभ है. पूर्वाग्रहियों को इसमें कुछ नहीं मिलेगा। वही गीता अर्जुन ने सुनी, वही संजय ने और उसी गीता को संजय के माध्यम से धृतराष्ट्र ने भी सुनी। तीनों पर अलग-अलग प्रभाव पड़ा। अर्जुन के सारे मोह नष्ट हो गए और परम ज्ञानी हो गया। धृतराष्ट्र जहां थे, तहां रह गए। उनका मोह और प्रतिशोध इतना बढ़ गया कि महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद आलिंगन के बहाने छल से वीर भीमसेन की हत्या की असफल कोशिश भी की. ऐसा इसलिए हुआ कि वे आरंभ से ही पूर्वाग्रह से भरे थे। संजय का सत्य-अन्वेषण का प्रयास और तेज हो गया।
हिन्दुओं का आग्रह है कि वेद ही प्रमाण हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान, परंपरा की जानकारी। गीता चारो वेदों का सार-तत्त्व है। परमात्मा असीम है, सर्वव्यापी है। वह न संस्कृत में है, न संहिताओं में, न अरबी में, न हिब्रू में, न लैटिन में न अंग्रेजी में। पुस्तक तो उसका संकेत मात्र है। वह वस्तुतः हृदय में जागृत होता है।
प्रत्येक महापुरुष की अपनी शैली और अपने कुछ विशिष्ट शब्द होते हैं। श्रीकृष्ण ने भी गीता में कर्म, यज्ञ, वर्ण, वर्णसंकर, युद्ध, क्षेत्र, ज्ञान इत्यादि शब्दों का बार-बार प्रयोग किया है। इन शब्दों का विशेष आशय है। गीता के जिज्ञासु सुधि पाठकों के लिए इन शब्दों के गीता के संदर्भ में उचित अर्थ देने का नीचे प्रयास कर रहा हूँ। इन शब्दों के भावों को हृदय में रखकर यदि गीता का अध्ययन और श्रवण किया जाय, तो गीता रहस्य सरलता से हृदयंगम किया जा सकता है, ऐसा मेरा अनुभव है।
श्रीकृष्ण - परमात्मा।
अर्जुन - मनुष्य की चेतना।
विश्वास - संदेह गिरे बिना ओढ़ा गया आवरण।
श्रद्धा - संदेह के पूरी तरह गिर जाने के बाद उत्पन्न स्थिर भाव।
द्वन्द्व - सत्य तक पहुंचने का मार्ग।
सत्य - आत्मा ही सत्य है।
सनातन - आत्मा सनातन है, परमात्मा सनातन है।
युद्ध - दैवी और आसुरी संपदाओं का संघर्ष।
ज्ञान - परमात्मा की प्रत्यक्ष जानकारी।
योग - संसार के संयोग-वियोग से रहित अव्यक्त परमात्मा से मिलन का नाम।
ज्ञानयोग - आराधना ही कर्म है। स्वयं पर निर्भर होकर कर्म में प्रवृत्त होना ज्ञानयोग है।
निष्काम कर्मयोग- इष्ट पर निर्भर होकर समर्पण के साथ कर्म में प्रवृत्त होना निष्काम कर्मयोग है।
यज्ञ - साधना की विधि-विशेष का नाम यज्ञ है।
वर्ण - एक ही साधक का ऊंचा-नीचा स्तर।
कर्म - यज्ञ को कार्यरूप देना ही कर्म है।
वर्ण संकर - परमार्थ पद से च्युत हो जाना।
अवतार - व्यक्ति के हृदय में होता है, बाहर नहीं।
विराट दर्शन - योगी के हृदय में ईश्वर द्वारा दी गई अनुभूति।
हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। श्रीमद्भगवद्गीता का महात्म्य शब्द या वाणी में वर्णन करने की सामर्थ्य किसी में नहीं। मैं भी गीता का मर्मज्ञ नहीं हूँ। लेकिन शान्त जल में भी पत्थर फेंकने पर हिलोरें उठने लगती हैं। गत २३ जुलाई को हस्तक्षेप में भाई शेष नारायण सिंह ने और ३ अगस्त को प्रवक्ता में भाई पुरुषोत्तम मीणा ’निरंकुश’ ने अपने-अपने लेखों के माध्यम से गीता के विषय में कुछ भ्रान्तियां फैलाने के प्रयास किए। उससे मेरा मन गहरे में आहत हुआ - परिणाम आपके सामने है। प्रवक्ता के माध्यम से मैंने अपनी बात आप तक पहुंचाई है। सात कड़ियों के इस लेख के लिए सर्व प्रथम उपरोक्त लेखकद्वय के प्रति आभार प्रकट करना चाहूंगा। न उन्होंने कंकड़ फेंका होता, न लहरें उठतीं और न इस लेखमाला का सृजन होता। पाठकों ने अपनी उत्साहवर्धक टिप्पणी से मेरा मनोबल बनाए रखा, अन्यथा यह लेखमाला एक या दो अंकों से आगे नहीं जा सकती थी। महाभारत पर आधारित मेरे उपन्यास कहो कौन्तेय का प्रकाशन जारी रहेगा। अबतक ११ पुष्प प्रकाशित हो गए हैं, कहो कौन्तेय-१२ दिनांक १६.८.११ को पोस्ट करूंगा।
|| इति||

संदर्भ ग्रन्थ --
१. श्रीमद्भगद्गीता (गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित) - भगवान श्रीकृष्ण
२. महाभारत (गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित) - महर्षि वेदव्यास
३. गीता रहस्य - लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
४. गीता दर्शन - आचार्य रजनीश
५. कृष्ण-स्मृति - आचार्य रजनीश
६. यथार्थ गीता - स्वामी श्री अड़गड़ानन्दजी
७. श्रीमद्भगवद्गीता-प्रवाह - ईं. प्रभु नारायण श्रीवास्तव।

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-६



छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों का श्रीमद्भगवद्गीता पर एक आरोप यह भी है कि गीता जाति-व्यवस्था को न सिर्फ स्वीकृति देती है, वरन्‌ इसे ईश्वरीय भी मानती है। अपने समर्थन में वे गीता के अध्याय चार के निम्न श्लोक का उद्धरण देते हैं -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्‌॥
"चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं" - चार वर्णों की रचना मैंने की । तो क्या मनुष्यों को चार भागों में बांट दिया? श्रीकृष्ण कहते हैं - नहीं, "गुणकर्म विभागशः"- गुणों के माध्यम से कर्म चार भाग में बांटा। गुण एक पैमाना है। उस गुण के ही कारण मनुष्य एक वर्ण विषेश का प्रतिनिधित्व करेगा। सृष्टि के आरंभ से लेकर आजतक मनुष्यों का वर्गीकरण होता आया है। यह कोई नई बात नहीं है। गुण और कर्म के आधार पर वर्गीकरण न्यायोचित और स्वाभाविक है। जब यह विभाजन जन्मना हो जाता है, तो जातियां पैदा होती हैं। सनातन/हिन्दू धर्म का दर्शन विश्व में सर्वोत्तम है लेकिन कालक्रम में इसको माननेवालों के आचरण में क्षय आता गया। जिस व्यवस्था को श्रीकृष्ण गुणकर्म के आधार पर स्वीकृति देते हैं, वही व्यवस्था चुपके से जन्मना बन गई। दबे पांव इस कुरीति ने कब और कैसे सामाजिक स्वीकृति भी प्राप्त कर ली, यह शोध का विषय है। आशा थी कि देश के स्वतंत्र होने के बाद इस व्यवस्था को तिलांजलि दे दी जाएगी। महात्मा गांधी जाति व्यवस्था के मुखर विरोधी थे लेकिन उनके ही शिष्यों द्वारा निर्मित संविधान ने जन्मना जाति-व्यवस्था पर मुहर लगा दी। जाति के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था संविधान ने मात्र १० वर्षों के लिए की थी लेकिन इस लोकतंत्र ने इसे अनन्त काल का विस्तार दे दिया है। उपरी मन से भ्रष्ट राजनीतिज्ञ भी जाति का विरोध करते हैं लेकिन अंदर से सभी समर्थन करते हैं। यह सभी को सूट करता है। वोट-बैंक की राजनीति ने इसे स्थाई स्वरूप दे दिया है। एक धर्मनिरपेक्ष राज्य में जाति आधारित जनगणना का क्या औचित्य? लेकिन वह भी हो रहा है। हमने श्रीकृष्ण के गीता संदेश को भुला दिया। परिणाम सामने है - समाज में टूटन, बिखराव, वैमनस्य और अविश्वास। यह बीमारी इतनी बढ़ गई है कि अब लगता है इसके उपचार के लिए श्रीकृष्ण को पुनः आना ही पड़ेगा।
दुनिया का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है, जहां गुणकर्म के आधार पर समाज में वर्गों का निर्माण न हुआ हो। आज भी सरकार ने कानून बनाकर राजकीय सेवकों को चार श्रेणियों में बांट रखा है --
१. क्लास-१ -- नीति निर्माण, प्रबंधकीय, कार्यकारी और वित्तीय अधिकार से संपन्न उच्च अधिकारी।
२. क्लास-२ -- आदेश पालक अधिकारी।
३. क्लास-३ -- इन्हें आफिसियल या सबआर्डिनेट स्टाफ़ कहा जाता है। ये कार्यालय सहायक या तकनिकी सहायक कर्मचारी होते हैं।
४. क्लास-४ -- चपरासी, रनर, कूली, अकुशल श्रमिक।
क्लास-१ और २ में भी कई उपवर्ग हैं। इसी तरह क्लास-३ और ४ में भी सैकड़ों उपवर्ग हैं। उपरोक्त व्यवस्था आज का सच है जिसे संविधान सम्मत बताकर हर कोई मौन साध लेता है। क्या एक क्लास-१ के अधिकारी ( जिलाधिकारी का उदाहरण ले लें) और उसके चपरासी जो क्लास-४ का कर्मचारी होता है, के वेतन, ग्रेड वेतन, सुविधाओं, सामाजिक प्रतिष्ठा (social atatus) और रहन-सहन में कोई समानता है? दोनों सरकारी कर्मचारी हैं। एक के पास सरकारी कारों का काफ़िला है, तो दूसरे के पास सरकारी सायकिल भी नहीं। एक के पास कई एकड़ में विस्तृत आवास है, तो दूसरे के पास एक झोंपड़ी भी नहीं। दोनों सरकारी यात्रा करते हैं - एक हवाई जहाज के एक्ज़िक्युटीव क्लास में, दूसरा भारतीय रेल के सामान्य डिब्बे में, धक्के खाता हुआ खड़े-खड़े। इस विभाजन का आखिर आधार क्या है? गुण और कर्म ही न? बस, इस व्यवस्था की एक अच्छाई है, और वह यह है कि यह विभाजन जन्मना नहीं है। यहां श्रीकृष्ण के संदेश ने काम किया है।
श्रीकृष्ण ने जो भी कहा है, विश्वास के साथ कहा है। वे स्पष्ट कहते हैं कि चारों वर्णों की रचना गुणकर्म के आधार पर की गई। ध्यान देने की बात है कि यह व्यवस्था कही से भी जन्मना नहीं थी। ब्राह्मण अपने गुणकर्म से च्युत होता था, तो उस वर्ण से निष्कासन का विधान था और शूद्र भी अगर शुभ कर्म करता था, तो उच्चीकृत करके ब्राह्मण वर्ग में सम्मिलित किया जाता था। महर्षि बाल्मीकि और वेद व्यास जन्मना शूद्र ही थे। लेकिन स्वाध्याय, त्याग, तपस्या के द्वारा गुणों का विकास करके ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। एक ने रामायण लिखी, तो दूसरे ने महाभारत जिसमें गीता भी सम्मिलित है। परम ज्ञान की पुस्तक वेद को उसके विषय के अनुसार चार भागों में बांटकर सर्वसुलभ बनाने का पुनीत कार्य जिस कृष्ण द्वैपायन ने किया, वे एक कुंआरी केवट कन्या के अवैध पुत्र थे। आज सारा हिन्दू समाज उन्हें वेद व्यास के नाम से जानता है और पूजता है। गुणहीन ब्राह्मण का हमारे स्वर्ण काल में कोई स्थान नहीं था। महाभारत के शान्ति पर्व में शर- शय्या पर पड़े भीष्म पितामह श्रीकृष्ण की उपस्थिति में पांचो पाण्डव और द्रौपदी को राजा के धर्म-कर्म को विस्तार से समझाते हुए स्पष्ट कहते हैं --
"जो विद्वान-द्रोह और अभिमान से रहित, लज्जा-क्षमा-शम-दम आदि गुणों से युक्त बुद्धिमान, सत्यवादी, धीर, अहिंसक, राग-द्वेष से शून्य, सदाचारी, शास्त्रज्ञ और ज्ञान से संतुष्ट हो, वही ब्रह्मा के आसन पर बैठने का अधिकारी है - वही ब्राह्मण है।"
(शान्ति पर्व, महाभारत)
महर्षि वेद व्यास देखने में अत्यन्त कुरूप थे, रंग भी काला था लेकिन उन्होंने उपर वर्णित समस्त गुणों को धारण किया था; इसलिए वे वेद व्यास कहलाए। महाभारत काल से लेकर आजतक के वे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण थे। आज भी जो कथा वाचक रामायण, महाभारत, गीता या भागवत्पुराण पर प्रवचन देता है, उसे व्यास ही कहा जाता है और जिस आसन पर बैठकर वह श्रोताओं को संबोधित करता है, उसे व्यास गद्दी कहा जाता है।
पितामह भीष्म की शान्ति पर्व में ही एक और उक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण है --
"काठ का हाथी, चमड़े का हिरन, हिजड़ा मनुष्य, ऊसर खेत, नहीं बरसने वाला बादल, अपढ़ ब्राह्मण और रक्षा न करने वाला राजा -- ये सबके सब निरर्थक और त्याज्य हैं।"
श्रीकृष्ण ने गुणों के माध्यम से कर्म को चार भागों में बांटा। गुण ही एकमात्र पैमाना है, मापदण्ड है। तामसी गुण होगा तो आलस्य, निद्रा, प्रमाद, कर्म में न प्रवृत होने का स्वभाव, जानते हुए भी अकर्तव्य से निवृति न हो पाने की विवशता रहेगी। ऐसे लोगों को शूद्र की श्रेणी में रखा गया। उनके लिए कहा गया - "परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्‌।" जो महापुरुष अव्यक्त की स्थिति वाले हैं, अविनाशी तत्त्व में स्थित हैं, उनकी तथा इस पथ पर अग्रसर अपने से उन्नत लोगों की सेवा में लग जाओ। इससे दूषित संस्कारों का शमन होगा और साधना में प्रवेश दिलाने वाले संस्कार सबल हो जाएंगे।
क्रमशः तामसी गुण न्यून होने पर राजसी गुणों की प्रधानता तथा सात्विक गुण के साथ साधक की क्षमता वैश्य श्रेणी की हो जाती है। उस समय वही साधक इन्द्रिय संयम, आत्मिक संपत्ति का संग्रह स्वभावतः करने लगेगा। कर्म करते-करते उसी साधक में सात्विक गुणों का बाहुल्य हो जाएगा, राजसी गुण कम रह जाएंगे, तामसी गुण शान्त रहेंगे। उसी समय वही साधक क्षत्रिय श्रेणी में प्रवेश पा लेगा। शौर्य कर्म में प्रवृत रहने की क्षमता, पीछे न हटने का स्वभाव, समस्त भावों पर स्वामीभाव, प्रकृति के तीनों गुणों को काटने की क्षमता उसके स्वभाव में ढल जाएगी। वही कर्म और सूक्ष्म होने पर, मात्र सात्विक गुण कार्यरत रह जानेपर मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण, एकाग्रता, सरलता ध्यान, समाधि, ईश्वरीय निर्देश, आस्तिकता इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली स्वभाविक क्षमता के साथ वही साधक ब्राह्मण श्रेणी का कहा जाता है। यह ब्राह्मण श्रेणी के कर्म की निम्नतम सीमा है। जब वही साधक ब्रह्म में स्थित हो जाता है, तो उस अन्तिम सीमा में वह स्वयं न ब्राह्मण रहता है, न क्षत्रिय, न वैश्य, न शूद्र। किन्तु दूसरों के मार्गदर्शन हेतु वही ब्राह्मण है। कर्म एक ही है - नियत कर्म, आराधना। अवस्था भेद से इसी कर्म को उँची-नीची चार सीढ़ियों मे बांटा गया।
क्रमशः

Wednesday, August 10, 2011

श्रीमद्भगद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-५



छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों को जब कोई पुष्ट आरोप समझ में नहीं आता, तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या भाजपा द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को भी सांप्रदायिक करार देकर अपना कर्त्तव्यपालन कर लेते हैं। अब तो बिना कुछ किए भी संघ को समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में आवश्यकता से अधिक कवरेज प्राप्त होने लगा है। मुंबई में बम-विस्फोट पाकिस्तानी आतंकवादी करते हैं और डिग्गी राजा आरोपित करते हैं संघ को। सोनिया गांधी का अमेरिका में आपरेशन हुआ है (भारत में तो कोई योग्य डाक्टर है नहीं)। कौन सी बीमारी के लिए शल्य चिकित्सा हुई है, यह तो ज्ञात नहीं, लेकिन घोर आश्चर्य हो रहा है कि दिग्विजय सिंह ने इस बीमारी के लिए आर.एस.एस. को अबतक दोषी क्यों नहीं ठहराया है! इसी क्रम में छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों ने श्रीमद्भगवद्गीता को सांप्रदायिक ग्रंथ घोषित किया है।
धर्मनिरपेक्षता (secularism) का अर्थ धर्मविहीन नहीं होता है। धर्मनिरपेक्ष राज्य का अर्थ होता है - राज्य धर्म के मामलों में तटस्थ रहेगा। नागरिकों को अपना-अपना धर्म पालन करने की स्वतंत्रता रहेगी। राज्य किसी धर्म का पक्ष नहीं लेगा। लेकिन ऐसा हो रहा है क्या? आजकल भारत में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है - हिन्दू विरोध। आंख बंदकर आप हिन्दुओं का विरोध कीजिए, आप सेक्युलर घोषित कर दिए जाएंगे। गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की दो बोगियों में, जिन लोगों को जिन्दा जला दिया गया, अगर उनके मानवाधिकारों की बात आपने गलती से कर दी, तो आप घोषित सांप्रदायिक हैं। कश्मीर से अपनी बहू-बेटियों की इज्जत-आबरू, अपनी सारी संपत्ति, अपने प्रिय संबंधियों के प्राण लुटाकर जो बचे-खुचे हिन्दू जम्मू पहुंच गए, यदि उनकी चर्चा भूले से कोई कर दे, तो वह घोर सांप्रदायिक है। अब तो सेना की प्रशंसा करने में डर लगता है। सेना की प्रशंसा भी आजकल सांप्रदायिकता की श्रेणी में आता है। कारगिल विजय की वर्षगांठ के अवसर पर पाकिस्तान की खूबसूरत विदेश मंत्री का कार्यक्रम रखा जाता है। कारगिल विजय सांप्रदायिक शक्तियों की विजय थी और हिना रब्बानी के स्वागत में लाल कालीन बिछाना सेक्युलरिज्म है। बटाला हाउस मुठभेड़ में मारे गए परिवार से मिलने राहुल गांधी आज़मगढ़ जाते हैं, लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नरेन्द्र मोदी का नाम जिह्वा पर लाने के अपराध में देवबंद के कुलपति को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। ईसाई, मुस्लिम तुष्टिकरण और अंध हिन्दू विरोध धर्म निरपेक्षता है; भारतीय राष्ट्रीयता सांप्रदायिकता है।
धर्मनिरपेक्षता से अच्छा शब्द है सर्वधर्म समभाव। श्रीकृष्ण ने गीता में मानवता को सर्वधर्म समभाव का दिव्य अमर संदेश दिया है। धार्मिक प्रवृति के व्यक्तियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है - निष्काम और सकाम। पहले वर्ग में वे लोग हैं जिनका आध्यात्मिक स्तर सामान्य से ऊँचा है। वे निराकार या साकार परमात्मा को ही अपना सर्वस्व मानते हैं और अद्वैत में विश्वास करते हैं। स्वयं को उसी का अंश मानकर कर्म-साधना में रत रहते हैं। उनका सीधा संवाद परब्रह्म से होता है। दूसरा वर्ग उनलोगों का है, जो अपनी-अपनी पसंद और रुचि के अनुसार विभिन्न देवताओं की आराधना करते हैं। उनकी पूजा का फल भी कालक्रम में परमात्मा को ही प्राप्त होता है, बस बीच में देवता माध्यम बनते हैं। श्रीकृष्ण ने इसे निम्न श्लोक में स्पष्ट किया है --
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्‌॥
(गीता ७२१)
जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की मैं उसी देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।
वे आगे कहते हैं -
स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधन्मीहते।
लभते च ततः कामान्‌ मयैव विहितान्हितान्‌॥
(गीता ७/२२)
वह पुरुष उस श्रद्धा से युक्त हुआ उस देवता के पूजन की चेष्टा करता है और उस देवता से मेरे द्वारा ही विधान किए हुए उन इच्छित भोगों को निस्संदेह प्राप्त होता है।
सर्वधर्म समभाव पर इतना स्पष्ट और प्रेरणादायक संदेश विश्व के किसी अन्य धर्म ग्रंथ में है क्या? भारत के अतिरिक्त दूसरे देशों के लिए सेकुलरिज्म, जिसे हम आगे "सर्व धर्मसमभाव" कहेंगे, एक नया शब्द हो सकता है, भारत के लिए नहीं। विश्व के सभी प्रचलित धर्मों में (हिन्दू धर्म को छोड़कर) एक प्रकार की उपासना और एक पैगंबर पर जोर है। भारत के अतिरिक्त विश्व में कहीं भी उत्पन्न धर्म, धर्म की परिभाषा में नहीं आते। वे पंथ हैं और वो भी सेमेटिक पंथ, अर्थात एक देवता, एक पुस्तक और एक पूजा पद्धति का अनुसरण करने वाला पंथ। ऐसे पंथ को मानने वाले अपने पंथ को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। वे, जो इनके पंथ को नहीं मानते, उन्हें काफ़िर कहा जाता है। कफ़िरों को सही शिक्षा देकर, धर्मान्तरण कर अपने धर्म में दीक्षित करना शबाब (पुण्य) माना गया है। अगर समझाने-बुझाने पर भी काफ़िर अपने पुराने विश्वास पर अड़ा ही रहता है, तो उसकी हत्या करना धर्मसंगत माना गया है। ऐसा करने से सीधे जन्नत की प्राप्ति होती है। सेमेटिक पंथ को मानने वाले शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व में विश्वास नहीं करते। आज पूरा विश्व आतंकवाद की गिरफ़्त में है। उसका मुख्य कारण पंथों का सेमेटिक होना है। ऐसे में श्रीकृष्ण की उक्तियां पूरी मानवता का मार्गदर्शन करती हैं। गीता के अध्याय ७ के २१वें और २२वें श्लोक में सर्वधर्म समभाव का ही सिद्धान्त प्रतिपादित है।
भारत का सर्वधर्म समभाव वर्तमान संविधान की देन नहीं है और न किसी आधुनिक नेता की। यह भारत की सनातन परंपरा में, यहां के निवासियों के खून में रचा बसा है। पूजा व उपासना की स्वतंत्रता ही नहीं , मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता को भी उतना ही सम्मान मिला है। पूजा की यह स्वतंत्रता भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित रखी जा सकती है और उसका विस्तार परम आनन्द की प्राप्ति तक भी किया जा सकता है।
गीता के उपदेशों का भारत पर इतना गहरा प्रभाव था कि भारतवर्ष में अनेक संप्रदायों के जन्म और विस्तार होने के बाद भी परस्पर संप्रदायिक सद्‌भाव था। जबसे कुछ विदेशी हमलावरों ने जबर्दस्ती हिंसा के द्वारा अपना संप्रदाय दूसरों पर थोपना शुरु किया, तबसे सांप्रदायिकता का जन्म हुआ।
सोना एक धातु है, जिससे अपनी प्रकृति और रुचि के अनुसार अलग-अलग आभूषण बनाए जाते हैं, किन्तु सोना तत्व सभी गहनों में एक ही रहता है। उसी प्रकार "सृष्टि संरक्षण और विकास" का मूल धर्म एक होते हुए अनेक संप्रदायों का जन्म हुआ। समस्या तब खड़ी होती है जब सोने की अंगूठी पहनने वाला सभी लोगों को बलपूर्वक मात्र अंगूठी ही पहनने के लिए वाध्य करे और अगर अगर कोई सोने की जंजीर पहने, तो उसका गला काट दे। इस प्रकार संप्रदाय और पंथ स्वभाव है लेकिन सांप्रदायिकता विकृति है - अधार्मिक है।
भारतवर्ष में धर्म सर्वव्यापक था - यह जीवन की हर गतिविधि का एसिड टेस्ट था। गीता कहती है - "छिन्नद्वैधा यतात्यानः सर्वभूतहिते रताः" -- संपूर्ण भूतप्राणियों के हित में रत वह पुरुष अपनी संपूर्ण वासनाओं को जीत लेता है। एक धार्मिक पुरुष की यही विशेषता है। समाज के हित में व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के सूत्र, उसकी इच्छानुसार गीता में प्रतिपादित है। अपने-अपने धर्म के पालन पर श्रीकृष्ण इतना जोर देते हैं कि वे कह उठते हैं -
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वधर्मे निधनम्‌ श्रेयः पर धर्मोभयावहः॥
(गीता ३/३५)
अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म उत्तम है। अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म भय देने वाला है।
गीता में अपनी प्रकृति को परिष्कृत कर, उसका उत्तरोत्तर विकास कर व्यक्ति परिवार और इस ब्रह्माण्ड के साथ परस्पर पूरकता के साथ व्यवहार करने का स्पष्ट निर्देश देती है। यह व्यक्ति के लिए जितना सही है, उतना ही संप्रदाय, पन्थ, सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्र के लिए भी है। सभी अपनी सभ्यता और संस्कृति का विकास कर दूसरे को सुख दे सकते हैं, चाहे उनकी सभ्यता वाह्य दृष्टि से गुणहीन ही क्यों न दिखाई पड़े। व्यक्ति की निजता और स्वतंत्रता को संरक्षित और सुरक्षित रखने हेतु गीता में कथित श्रीकृष्ण का उपरोक्त वाक्य पूरे विश्व और संपूर्ण मानव जाति को सुख, शान्ति और सह अस्तित्व प्रदान करने के लिए मील का पत्थर है, आकाश में चमकता ध्रुवतारा है, जो सदियों से संपूर्ण मानव जाति को दिशा का ज्ञान कराता है।
भारत ने विश्व को शून्य (Zero) का उपहार देकर गणित और विज्ञान को गगन की ऊँचाइयों तक पहुंचाने में अद्वितीय योगदान दिया, ठीक उसी तरह सर्वधर्म समभाव का सिद्धान्त देकर गीता और इस देश ने विश्व और संपूर्ण मानवता का अप्रतिम कल्याण किया है। यह संभव ही नहीं कि पूरा विश्व एक ही धर्म का पालन करे। हमें विभिन्नताओं का सम्मान करना ही होगा। विषबुझी वासनाओं की जलती आग में झुलसती दुनिया, सशक्तों की स्वार्थपूर्ण संहारलीला की चक्की में पिसती जनता और त्रस्त मानवता के लिए गीता पूर्व के क्षितिज पर उगते हुए सूर्य की प्रथम किरण है। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
क्रमशः

Tuesday, August 9, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-४



कर्म गीता का मूलमंत्र है। निष्काम कर्मयोग में सारे दर्शन समाहित हैं। Work is worship -- कार्य ही पूजा है, का सिद्धान्त गीता से निकला (Derived) है। ईश्वर की प्राप्ति के लिए श्रीकृष्ण के पूर्व यह मान्यता थी कि संसार का परित्याग कर घने वन, पर्वत पर, नदी के किनारे या गुफा में संन्यास धारण करने से ईश्वर की प्राप्ति होती है। कृष्ण ने इस मान्यता का खंडन नहीं किया है लेकिन इसे एक अत्यन्त कठिन मार्ग अवश्य बताया है। फिर संन्यासी को भी आवश्यक कर्म तो करने ही पड़ते हैं। भोजन करना, सांस लेना, ध्यान करना कर्म ही तो हैं। कर्म से भागने से काम नहीं चलेगा।
"परित्राणाय साधूनाम," "छिन्नद्वैधा यतात्माः सर्वभूतहिते रताः," लोकसंग्रहमेवाऽपि सम्पृश्यन्कर्तुमर्हसि," अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।"
(गीता ४/८, ५/२५, ३/२०, १२/१३)
साधुओं के परित्राण के लिए, एकात्मकता की अनुभूति के कारण, संपूर्ण भूत प्राणियों के हित में रति, लोक कल्याण के भाव को देखते हुए कर्म, संपूर्ण भूतों में द्वेष-भाव से रहित, स्वार्थ रहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दया का भाव आदि ही सिद्ध पुरुषों के कर्म के आधार रहे हैं। हम सिद्ध तो नहीं हैं, किन्तु साधक तो बन ही सकते हैं। हमारी यात्रा आरंभ तो हो ही सकती है। कर्म की साधना के लिए कृष्ण जो सूत्र देते हैं, वह अद्भुत है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा तो संगोऽस्त्वकर्मणि॥
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में कभी नहीं। इसलिए तू कर्म के फल का हेतु मत हो, तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।
मनुष्य के पास वास्तव में वर्तमान का एक ही क्षण रहता है - न भविष्य, न भूत। वर्तमान में वह पूरी तन्मयता से अगर प्रवेश कर जाय, तो भविष्य और भूत की चिन्ता से वह कंपायमान नहीं होता है। श्रीकृष्ण इसीलिए कर्म में अधिकार की बात कर रहे हैं अर्थात वर्तमान में तन्मयता। कर्म करते समय फल की चिन्ता से कर्म की गुणवत्ता प्रभावित होती है और फल पर अधिकार संभव भी नहीं है। फिर कर्म-फल का कारण हम क्यों बनें? इससे अहंकार भी जन्म लेता है और कुण्ठा भी जन्म लेती है। कभी-कभी मन संशय में पड़ जाता है। जीवात्मा के रूप में अर्जुन का द्वन्द्व बिलकुल स्वाभाविक है। श्रीकृष्ण समाधान देते हुए कहते हैं -
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येद कर्मणः॥
अर्जुन! तू निर्धारित हुए कर्म को कर। अर्थात कर्म तो बहुत से हैं। उनमें से कोई एक चुना हुआ है, उसी नियत कर्म को कर। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं होगा। निष्काम कर्मयोग ऐसी कुंजी है जिससे पुनः शरीरों की यात्रा नहीं करनी पड़ती। "मोक्ष्यसेऽशुभात" - ऐसे कर्म को करने से संसार के अशुभ बंधन से मुक्ति पाई जा सकती है।
पूरी गीता का सार है - निष्काम कर्मयोग। सचिन तेन्दुलकर जब अन्तर्राष्ट्रीय मैच खेलता है, तो स्कोर बोर्ड को देखता नहीं है। गावास्कर भी यही करते थे। इनका स्कोर इनके साथी बताते हैं या शतक बनने के बाद दर्शक। बार-बार स्कोर बोर्ड को देखने से तन्मयता भंग होती है। चित्त को एकाग्र करके खेलेंगे तो रन बनेंगे ही। लेकिन निष्काम कर्मयोग इतना आसान है भी नहीं। इसकी राह में व्यक्ति का अहंकार सबसे बड़ी बाधा है। कर्म के फल का श्रेय, कर्ता यदि ईश्वर को अर्पित करता है, तो धीरे-धीरे वह अहंकार से मुक्त होता जाता है। फिर कर्म-फल की शुभ या शुभ प्रकृति से वह निर्लिप्त हो जाता है। शुभ भी अच्छा, अशुभ भी अच्छा। ऐसा नहीं कि कर्म करेंगे और फल नहीं आएगा। वह तो आएगा ही। अन्तर इतना ही पड़ेगा कि अहंकारी इसका श्रेय स्वयं लेता है और निरहंकारी श्रेय ईश्वर को देता है। निरहंकारी की फल के प्रति आसक्ति नहीं होती, इसलिए वह कष्ट नहीं पाता है। सारी निराशा, डिप्रेशन, सारे दुख का कारण है - अपेक्षा। दूसरे आपको दुख नहीं देते, आप स्वयं आमंत्रित करते हैं। पुत्र से अपेक्षाएं, पुत्री से अपेक्षाएं, पत्नी से अपेक्षाएं, भाई से अपेक्षाएं, मित्र से अपेक्षाएं...............मैंने इनलोगों के लिए क्या नहीं किया, बदले में मुझे क्या मिला? कभी-कभी ऐसा होता है कि आपने दूसरों से अपेक्षाओं का पहाड़ खड़ा कर लिया और उसे कुछ पता ही नहीं है। क्या यह सत्य नहीं कि आपके अधिकांश दुखों के कारण आपके वे अपने हैं, जिन्हें आप सर्वाधिक प्यार करते हैं? आप दुखी इसलिए हैं कि आप अपने प्यार का, त्याग का प्रतिदान चाहते हैं, जो अपेक्षा के अनुसार मिल नहीं पाता। इस "प्यार" और "त्याग" के पीछे आपका अहंकार है। जिस दिन आपका अहंकार समाप्त हो जाएगा प्रतिदान की अपेक्षा स्वतः समाप्त हो जाएगी। बच्चों का लालन-पालन करना कोई अनोखा काम नहीं है, फिर प्रतिदान कैसा? युगों-युगों से समस्त प्राणी यही तो करते आ रहे हैं। जब यह कार्य अहंकार शून्य होकर किया जाता है, तो यह पावन कर्त्तव्य बन जाता है, जिसे मातृ-धर्म या पितृ-धर्म कहते हैं। श्रीकृष्ण अपने धर्म के पालन पर विशेष जोर देते हैं। अहंकार रहित कर्म ही धर्म बन जाता है। कोई विशेष पूजा-पद्धति या प्रचलित कर्म-काण्ड गीता प्रणीत धर्म की परिभाषा में नहीं आते हैं।
छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों से मेरा प्रश्न है कि गीता द्वारा प्रतिपादित कर्म की परिभाषा क्या सार्वभौम और सर्वकालिक नहीं है? इस उच्च दर्शन में कहां सांप्रदायिकता दृष्टिगत होती है? वैसे यह भी सत्य है कि जिसकी सूंघने की शक्ति समाप्त हो जाती है, उसे रातरानी से भी खुशबू नहीं आती।
क्रमशः

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्मधर्मनिरपेक्षवादी : चर्चा-३



प्रवक्ता में इसी सप्ताह एक लंबे लेख में एक निरंकुश लेखक ने गीता के एक श्लोक को उद्धरित करते हुए टिप्पणी लिखी है -- "इस श्लोक का हिन्दी अनुवाद हिन्दुओं में आदरणीय मानेजाने वाले विद्वान आदि शंकर ने आठवीं शताब्दी में इस प्रकार किया है --"
लेखक के अज्ञान पर रोना आता है। क्या आदि शंकराचार्य ने हिन्दी में कोई ग्रंथ लिखा है? क्या आठवी शताब्दी में एक भाषा के रूप में हिन्दी का अस्तित्व था? निस्सन्देह, नहीं। परम आदरणीय शंकराचार्य वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वृहत्‌ महाभारत से गीता को बाहर निकालकर लिपिबद्ध किया और एक अद्वितीय विशिष्ट ग्रंथ से पूरे विश्व को नए सिरे से परिचित कराया। उन्होंने गीता पर टीका भी लिखी लेकिन संस्‌कृत में। उनका पूरा साहित्य ही संस्कृत में है। निरंकुश लेखक ने मनचाहा अर्थ हिन्दी में लिखकर उसे शंकराचार्य का अनुवाद बता छपवा दिया है। गीता की संस्कृत सरल है। अगर हाई स्कूल तक किसी ने संस्कृत मन लगा कर पढ़ी हो, तो गीता समझना उतना मुश्किल नहीं है लेकिन आदि शंकर की टीका समझने के लिए निरंकुश लेखक को कम से कम सौ जन्म लेने पड़ेंगे। इसलिए उनके लेख का कोई भी शब्द विश्वसनीय नहीं है।
हम पुनः पुरानी चर्चा पर लौट आते हैं।
चाणक्य ने कहा था कि इस समाज और राष्ट्र को दुष्टों की दुष्टता से जितनी क्षति नहीं हुई है, उससे कई गुणा अधिक क्षति सज्जनों की निष्क्रियता से हुई है। चाणक्य की यह उक्ति गीता संदेश का सार है। कुरुक्षेत्र में धर्मयुद्ध के लिए कौरवों और पाण्डवों की सेनाएं आमने-सामने खड़ी हैं। युद्ध की घोषणा हो चुकी है। ऐसे में अर्जुन के चित्त की स्थिति अचानक परिवर्तित होती है। एक क्षण पूर्व पूर्ण स्वस्थ संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, एक बीमार जैसा आचरण करता है, कहता है --
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
न शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥
(गीता १/३०)
हाथ से गाण्डीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत जलती है तथा मेरा मन भ्रमित सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं हूं।
मानसिक और शारिरिक दृष्टि से अस्थिर अर्जुन विषादग्रस्त है - स्वाभिमान शून्य होकर कर्त्तव्यच्युत हो गया है। यह कोई साधारण युद्ध नहीं था। एक तरफ दुर्योधन के रूप में आसुरी शक्तियां खड़ी थीं, तो दूसरी ओर अर्जुन के नायकत्व में दैवी शक्तियां। अर्जुन के पलायन का सीधा अर्थ था -- आसुरी शक्तियों की एक पक्षीय जीत। उस समय भी दो वर्ग थे - एक निपट भौतिकवादी जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था, जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी थी - भोग, लूट-खसोट। उस वर्ग के विरुद्ध कृष्ण को युद्ध इसीलिए करवाना पड़ा क्योंकि शान्ति के सभी प्रयास असफल हो गए थे, सभी मार्गों को दुर्योधन ने बंद कर दिया था। तब युद्ध इसलिए आवश्यक था कि शुभ शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है - पलायन की। वह संघर्ष टालना चाहता है, पलायन करना चाहता है। आज पुनः लगभग वैसी ही स्थिति है। कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में लेने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता, क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न जाय, इसके लिए लड़ाई है।
अर्जुन भला आदमी है, शुभ शक्तियों का प्रतीक, सीधा-सादा। सीधा सादा आदमी कहता है - मत झगड़ा करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं है, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जम कर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं, न भागने देते हैं। वे अर्जुन की बीमारी को पहचान जाते हैं। उसका शरीर स्वस्थ है, लेकिन मन अस्वस्थ है, चेतना बीमार है। वह द्विधा में है, द्वन्द्व में है। लेकिन अर्जुन है बहुत ईमानदार। अपनी दुर्बलता छिपाता नहीं। सबकुछ रख देता है खोलकर, श्रीकृष्ण के सामने। उनसे ही समाधान चाहता है। श्रीकृष्ण अर्जुन का मूल स्वभाव जानते हैं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि परिस्थितिजन्य क्षणिक वैराग के वशीभूत अर्जुन अगर युद्ध छोड़कर संन्यास भी ले ले, वन में जाकर ध्यान लगाने की चेष्टा भी करे, तो कर नहीं पाएगा। वह एक सच्चा क्षत्रिय है। वह वहां भी जब देखेगा कि आस पास वन में पशु-पक्षी भी एक दूसरे को सता रहे है, तो पेड़ों की टहनियों से धनुष बनाएगा और वही पशु-पक्षियों का शिकार करना आरंभ कर देगा। एकाएक धर्म-परिवर्तन संभव नहीं। कुरुक्षेत्र के मैदान में असली समस्या "अपनों" के कारण ही थी। अगर विरोधी पक्ष में पितामह, मामा, भाई-बंधु, मित्र, गुरु और अपनी ही सेना नहीं होती, तो अर्जुन सबको कबका गाजर-मूली की भांति काट चुका होता. ऐसा वह कई बार कर चुका था लेकिन एक बार भी मोहग्रस्त नहीं हुआ था। विश्व के आदि मनोवैज्ञानिक श्रीकृष्ण अर्जुन की मनोदशा से पूरी तरह अवगत थे, उन्होंने क्षण भर में ही बीमारी पहचान ली। यह "मैं" और "मेरा" के अहंकार से उत्पन्न मोह मात्र था। कृष्ण ने अर्जुन की सारी शंकाओं का निराकरण किया, बड़े धैर्य और विवेक से। अर्जुन की चेतना में नवजागरण का संचार किया, नव आत्म विश्वास की सृष्टि की, मन को स्वाभिमान से पूरित किया। विलक्षण परिणाम सामने आया। गीता-उपचार के बाद अर्जुन कहता है -
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादा्न्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गत संदेहः करिष्ये वचनं तव॥
(गीता १८/७३)
हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है। अब मैं संशय रहित होकर स्थित हूं। अतः आपकी आज्ञा का पालन करूंगा।
मोहग्रस्त अर्जुन गीता-संवाद के बाद आग में तपे कुन्दन के समान खरा बन जाता है। निष्काम कर्म भाव से, पूर्ण प्रतिबद्धता के साथ महासमर में प्रवेश करता है। परिणाम आता है - शुभ शक्तियों की अविस्मरणीय विजय।
कुछ लोग यह सोचते हैं कि युद्ध ने सदा नुकसान ही पहुंचाया है, वे गलत सोचते हैं। आज के भौतिक विकास का अधिकांश हिस्सा युद्धों के माध्यम से प्राप्त हुआ है। पहली बार रास्ते सेना भेजने के लिए बनाए गए थे - बारात भेजने के लिए नहीं। पहले बड़े मकान नहीं थे। बड़ा किला बना - वह युद्ध की आवश्यकता थी। पहली दीवाल दुश्मन से लड़ने या रक्षा के लिए बनी थी। चीन की दीवाल सबसे बड़ा प्रमाण है। पहले दीवालें बनीं, अब गगनचुंबी भवन हैं। मनुष्य के पास जितने भी साधन हैं, जितनी भी संपन्नता है और जितने भी वैज्ञानिक आविष्कार हैं, सब युद्ध के माध्यम से ही हुए। युद्ध के क्षण मनुष्य साधारण नहीं रह जाता है - असाधारण हो जाता है। मनुष्य का मस्तिष्क अपनी पूरी शक्ति से काम करने लगता है और युद्ध में एक छलांग लग जाती है मनुष्य की प्रतिभा की, जो शान्ति-काल में वर्षों में, सैकड़ों वर्षों में भी नहीं लग पाती।
क्रमशः

Sunday, August 7, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-२



श्रीकृष्ण को अच्छी तरह समझे बिना गीता तक नहीं पहुंचा जा सकता।
शरीर और आत्मा जैसी दो चीजें नहीं हैं। आत्मा का जो छोर दिखाई देता है, वह शरीर है और शरीर का जो छोर दिखाई नहीं पड़ता, वह आत्मा है। परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। परमात्मा और प्रकृति जैसा द्वन्द्व नहीं है कहीं। परमात्मा का जो हिस्सा दृश्य हो गया है, वह प्रकृति है और जो अब भी अदृश्य है, वह परमात्मा है। कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां प्रकृति समाप्त होती है और परमात्मा शुरु होता है। बस, प्रकृति ही लीन होते-होते परमात्मा बन जाती है और परमात्मा ही प्रकट होते-होते प्रकृति बन जाता है। अद्वैत का यही अर्थ है। इस अद्वैत की धारणा हमें स्पष्ट हो जाय, तो कृष्ण को समझा जा सकता है।
कृष्ण हैं एक बहती धारा, एक नदी, जो बरसात में सारे तटों को तोड़ देती है और गर्मी में सिमट जाती है। उसे तटों को डुबो लेने से न अहंकार होता है और सिमट जाने से न कोई क्षोभ। बुद्ध, महावीर, क्राइस्ट, मुहम्मद - सभी विशाल झील हैं। सबकी सीमाएं हैं, नियम हैं, मर्यादाएं हैं। कृष्ण असीम हैं। उन्हें किसी नियम में नहीं बांधा जा सकता, उनके लिए कोई मर्यादा निर्धारित नहीं की जा सकती। परमात्मा को भी बांधा जा सकता है क्या? कृष्ण सारे बंधनों को तोड़ते हैं। माया का बंधन, मोह का बंधन, अहंकार का बंधन, आसक्ति का बंधन, वचन का बंधन - कोई भी बंधन उन्हें स्वीकार नहीं। सारे बंधन अज्ञान और अहंकार जनित हैं। कृष्ण अकेले ही ऐसे पूर्ण व्यक्ति हैं जो धर्म की परम गहराइयों और ऊँचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं हैं, उदास नहीं हैं, रोते हुए नहीं हैं। साधारणतः सन्त का लक्षण ही गंभीर, उदास और रोता हुआ होना है। जिन्दगी से उदास, हारा हुआ, भागा हुआ। कृष्ण अकेले नाचते हुए व्यक्ति हैं - हँसते हुए, गाते हुए, बाँसुरी बजाते हुए। समस्त धर्मों ने जीवन के दो हिस्से कर रखे हैं - एक वह जो स्वीकार योग्य है और दूसरा वह जो इंकार योग्य है। अकेले कृष्ण ही समग्र जीवन को पूरा स्वीकार करते हैं। जीवन की समग्रता में स्वीकृति उनके व्यक्तित्व और जीवन में फलित हुई है। इसलिए इस देश ने बाकी अवतारों को अंशावतार कहा है और कृष्ण को कहा है - पूर्ण अवतार। जिसने कृष्ण को समझ लिया, वह मुक्त हो गया। निरहंकार, निर्लिप्त, अकर्ता और साक्षी भाव की अनुभूति के बिना क्या कोई कृष्ण को समझ सकता है?
श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था कि ऐसा समय न कभी था और न कभी होगा, जब तुम नहीं थे और मैं नहीं था। यह बात कृष्ण ने सिर्फ अर्जुन से नहीं कही थी। हर सजीव, हर स्त्री-पुरुष से कही थी और वह भी सदा के लिए। तत्त्व रूप से, विचार रूप से, आज भी प्रत्येक चराचर में वे विद्यमान हैं और उनके साथ विद्यमान है उनकी अमृत वाणी - गीता। महर्षि व्यास ने आज से पांच हजार वर्ष पूर्व ही गीता को मानव मात्र का धर्मशास्त्र घोषित किया थ। महाभारत के भीष्म पर्व में वे कहते हैं -
गीता सुगीता कर्त्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृताः ॥
गीता भली प्रकार मनन करके हृदय में धारण करने योग्य है, जो पद्मनाभ भगवान के श्रीमुख निःसृत वाणी है, फिर अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता?
गीता सार्वभौम है। धर्म के नाम पर प्रचलित विश्व के समस्त धर्मग्रंथओं में गीता का स्थान अद्वितीय है। यह स्वयं में धर्मशास्त्र ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मग्रंथो में निहित सत्य का मानदण्ड भी है। गीता वह कसौटी है, जिसमें प्रत्येक धर्मग्रंथ में छिपा सत्य प्रकट हो जाता है, परस्पर विरोधी कथनों का समाधान निकल आता है। प्रत्येक धर्मग्रंथ में, संसार में जीने-खाने की कला और कर्मकाण्डों का बाहुल्य है। जीवन को आकर्षक बनाने के लिए उन्हें करने के या न करने के रोचक भयानक वर्णनों से धर्मग्रंथ भरे पड़े हैं। कर्मकाण्डों की इस परंपरा को जनता धर्म समझने लगी है। जीवन-निर्वाह की कला के लिए निर्मित पूजा पद्धतियों मे देश-काल और परिस्थिति के अनुसार विभिन्नता स्वाभाविक है। धर्म के नाम पर पूरे विश्व में कलह का यही एकमात्र कारण है। गीता इन क्षणिक व्यवस्थाओं से उपर उठकर आत्मिक पूर्णता में प्रतिष्ठित करने का क्रियात्मक अनुशीलन है। इसका एक भी श्लोक किसी कर्मकाण्ड या पूजा-पद्धति के विषय में नहीं है। तथाकथित धर्मग्रंथों की भांति यह किसी को जन्नत या जहन्नुम के द्वन्द्व में फंसाकर नहीं छोड़ता, बल्कि उस अमरत्व की उपलब्धि कराता है, जिसके पीछे जन्म-मृत्यु का बंधन रह ही नहीं जाता।
गीता में श्रीकृष्ण के संदेश के मर्म में जाकर आत्मसात करके तदनुसार आचरण करते हुए मनुष्य आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर जा सकता है। लेकिन भगवान ने सामान्य जनों की जीवन-दृष्टि और व्यक्तित्व के विकास पर भी समाधान के साथ विस्तार से चर्चा की है। व्यक्तित्व के विकास में बुद्धि का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। जैसी श्रद्धा रहेगी, बुद्धि भी वैसी ही होगी। गीता कहती है -
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्धः स एव सः
अर्थात यह पुरुष श्रद्धामय है। जैसी उसकी श्रद्धा होती है, वैसा वह बन जाता है।
तत्परता एवं एकीकृत इन्द्रियों से ही उद्देश्य के प्रति समर्पण एवं समर्पण से श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा के गर्भ से बुद्धि तीक्ष्ण होती है और उत्तरोत्तर ज्ञान की वृद्धि होती है। भौतिक और आध्यात्मिक, दोनों प्रकार के विकास के लिए यही सूत्र काम आता है। एक विकसित व्यक्तित्व के २६ लक्षण गीता में बताए गए हैं। अभय, सत्त्व संशुद्धि (अन्तःकरण की निर्मलता), ज्ञान की प्राप्ति, भौतिक संपदा को दान करने की प्रवृत्ति, इन्द्रिय-संयम, स्वार्थरहित कर्म,, स्वाध्याय, श्रमसाध्य तप, सह्जता, सहअस्तित्व, सत्य, अक्रोध, त्याग शान्ति, दूसरों की निन्दा नहीं करना, प्राणियों के प्रति दया, निश्छल मन, तेज, क्षमाशीलता, लोभ नहीं करना, मधुरता, गलती करने पर संकोच, धैर्य, पवित्रता, द्वेष नहीं करना, निरहंकारिता, निष्ठा। ये समस्त गुण किसी एक धर्म से नहीं बंधे हैं। एक पूर्ण व्यक्ति के लिए उसके व्यक्तित्व में इन गुणों का होना आवश्यक माना गया है।
छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों से प्रश्न है कि इनमें से कौन से गुण मानवता विरोधी और सांप्रदायिक हैं जिसके आधार पर वे गीता का विरोध कर रहे हैं।
क्रमशः

Saturday, August 6, 2011

श्रीमद्भगवद्गीता और छद्म धर्मनिरपेक्षवादी - चर्चा-१



जबसे कर्नाटक और मध्य प्रदेश की सरकारों ने गीता के अध्ययन की विद्यालयों में व्यवस्था की है, स्वयं को प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष कहने वाले खेमे में एक दहशत और बेचैनी व्याप्त हो गई है। उनके पेट में दर्द होने लगा है। उनको यह डर सताने लग गया है कि अगर इसकी स्वीकृति हिन्दू धर्म के इतर भी हो गई, तो वे अपनी दूकान कैसे चला पाएंगे? गीता को विवादास्पद ग्रंथ घोषित करने के लिए इनलोगों ने एक अभियान-सा चला दिया है। जब से मैंने कहो कौन्तेय का एक अंक प्रतिदिन प्रवक्ता में देना आरंभ किया, अन्य विषयों पर लिखना ही बंद कर दिया था। समयाभाव मुख्य कारण था लेकिन इधर मैंने देखा कि कुछ स्तंभकारों द्वारा अपने हिन्दुत्व पर गर्व का दावा करते हुए हिन्दू धर्म ग्रंथों, यथा वेद, पुराण, उपनिषद, मनुस्मृति, रामायण, महाभारत, गीता........को आक्रमणकारी आर्यों की कृतियां बताकर, हिन्दुओं को इन्हें न मानने और आधुनिक समय के हिसाब से स्वयं को ढालने का परामर्श दिया जा रहा है। छद्म हिन्दुत्ववादियों से सावधान रहने की सलाह दी जा रही है। हिन्दू समाज को अगड़े, पिछड़े, अनुसूचित, आदिवासी आदि कई खेमों में तो हमारे संविधान और हमारे लोकतंत्र ने बांट ही रखा है, अब एक और खेमे में बांटने की तैयारी है - हिन्दू और आर्य अलग-अलग थे। इस देश के मूल निवासी हिन्दू थे और बाहर से आए आर्यों ने स्वयं को असली हिन्दू घोषित करके हिन्दुत्व का अपहरण कर लिया। बाद में इनलोगों ने (आर्यों ने) वेद, पुराण, गीता, रामायण आदि ग्रंथों की रचना करके, उनके माध्यम से अपने विचार और कर्मकाण्ड हिन्दू समाज पर इस तरह थोप दिया कि आज का हिन्दू इन्हें अपना ग्रंथ मानकर उनकी पूजा करने लगा। आर्यों को ये आक्रमणकारी और बाहर से से आया मानते हैं। इनके ज्ञान का आधार वही विदेशी लेखक हैं जिन्होंने सोची समझी रणनीति के तहत यह मिथ्या प्रचार किया। उद्देश्य था - एक झूठ को बार-बार कहकर सत्य के रूप में स्थापित करना। हिटलर की इस थ्योरी को हमारे देश के छद्म धर्म निरपेक्षवादियों ने आत्मसात कर लिया। इन्होंने सत्य का साक्षात्कार करने की कभी कोशिश ही नहीं की. इन्होंने डा. संपूर्णानंद (आर्यों का आदि देश), प्रो. राजबलि पाण्डेय को कभी पढ़ा ही नहीं। लोकमान्य तिलक और राहुल सांकृत्यायन को समझा ही नहीं। स्वातंत्र्यवीर सावरकर द्वारा लिखित भारतीय इतिहास के छ: स्वर्णिम पृष्ठ एवं पी. एन. ओक द्वारा लिखित इतिहास छूते ही इन्हें मलेरिया हो जाता है। इसके पीछे सोची समझी एक राजनीति है - भारत को एक सराय घोषित करना। भारत की सदियों पूर्व की राष्ट्रीयता को नकारना। आर्य बाहर से आए, मुसलमान भी बाहर से आए, यहूदी भी बाहर से आए, पारसी भी बाहर से आए, अंग्रेज भी बाहर से आए। इनके अनुसार भारत की अपनी कोई राष्ट्रीयता या पुरानी पहचान है ही नहीं। यहां रहने वाले सभी बाहरी हैं। इन पश्चिम परस्त तथाकथित प्रगतिशील लेखकों को यह पता ही नहीं है कि पश्चिम ने भी जब निष्पक्ष होकर अध्ययन किया तो पाया कि हिन्दू सभ्यता विश्व में सबसे पुरानी है। उनके अनुसार इसका अस्तित्व ५ लाख वर्ष पूर्व से है। लंदन के विश्वविख्यात ब्रिटिश म्युजियम के इंडियन गैलरी में एक शिलापट्ट पर यह सत्य स्वर्णाक्षरों में अंकित है। मैंने जुलाई, २००८ के अपने लंदन प्रवास के दौरान यह शिलापट्ट अपनी आंखों से देखा था। न चाहते हुए भी कहो कौन्तेय-११ के बाद कुछ दिनों के किए इसे विराम देना पड़ रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता के विषय में सप्रयास फैलाई जा रही धारणाओं ने मुझे आहत किया है। इसलिए प्रथम मैं गीता पर ही चर्चा कर रहा हूँ ताकि विधर्मियों द्वारा फैलाई गई भ्रान्त धारणाओं का प्रभाव नष्ट किया जा सके।
इस समाज में कोई देवी-देवताओं की पूजा करता है, तो कोई भूत-प्रेत की। परिवार और संगी-साथी द्वारा की गई पूजा की अमिट छाप मस्तिष्क पर पड़ जाती है। देवी की पूजा मिली तो जीवन भर देवी-देवी रटता है, परिवार में भूत-पूजा मिली तो भूत-भूत रटता है। भूत-भूत रटते-रटते इन स्वघोषित प्रगतिशील लेखकों को हर तरफ भूत ही दिखाई देने लगा है। क्या कारण है कि ये समझ नहीं पाते या न समझने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर रखी है? बाल की खाल निकालकर रटने पर भी क्यों वाक्य विन्यास ही इनके हाथ लगता है? क्यों ये सत्य से सप्रयास अपने को दूर रखते हैं? इनपर सिर्फ तरस खाया जा सकता है। ये दिग्भ्रान्त हैं। ऐसे भ्रान्त लोगों को गीता जैसा कल्याणकारी शास्त्र मिल भी जाय, तो वे उसे नहीं समझ सकते। पैतृक संपदा को कदाचित वे छोड़ भी सकते हैं, किन्तु दिल-दिमाग में अंकित मज़हबी पचड़ों को नहीं मिटा सकते। वे यथार्थ शास्त्र को भी अपनी ही रुढ़ियों, पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता, मान्यता और साम्प्रदायिकता के चश्मे से देखने के लिए विवश हैं। यदि उनके अनुरूप बात ढलती है, तो ठीक; नहीं ढलती है, तो शास्त्र ही गलत। ऐसे पात्रों के लिए गीता-रहस्य, रहस्य ही बनके रह जाता है। इसके वास्तविक पारखी सन्त और सदगुरु हैं। वही बता सकते हैं कि गीता क्या कहती है। सब नहीं जान सकते। सबके लिए सुलभ उपाय यही है कि इसे किसी महापुरुष के सान्निध्य में समझें, जिसके लिए श्रीकृष्ण ने विशेष बल दिया है। गीता के अध्याय-१८ के ६७वें श्लोक में श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है -
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योभ्यसूयति
हे अर्जुन! तेरे हित के लिए कहे हुए इस गीता रूप परम रहस्य को किसी काल में भी न तो तपरहित मनुष्य के प्रति कहना चाहिए और न भक्तिरहित के प्रति तथा सुनने की इच्छा न रखनेवाले के प्रति; उसके प्रति भी नहीं जो मेरी (ईश्वर) निन्दा करता है।
आज गीता पुस्तक के रूप में सर्वसुलभ है, इसलिए इन छद्म धर्मनिरपेक्षवादियों को भी मिल गई है। बन्दर के हाथ में उस्तरा। मनचाही व्याख्या कर पत्र-पत्रिकाओं में छपवा रहे हैं।
क्रमशः