Monday, November 29, 2010

राजमाता का राज जमाता

पिछले ३ नवंबर को दीपावली मनाने के लिए बच्चों के पास बंगलोर जा रहा था. वाराणसी के लाल बहादुर शास्त्री एयर्पोर्ट से इंडियन एयर लाइंस की फ़्लाइट पकड़नी थी. समय से दो घंटे पहले ही पहुंचकर चेक इन की सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद, एक खाली कुर्सी देख बैठ गया. तभी उदघोषणा हुई कि इंडियन एयर लाइंस के पैसेंजर सुरक्षा जांच के लिए प्रस्थान करें. वाराणसी के पुराने एयरपोर्ट में सुरक्षा जांच के लिए मात्र एक ही मार्ग है, अतः देखते ही देखते लंबी लाईन लग गई. मैं ५५ पार कर चुका हूं. लगातार खड़े होने पर पैर और कमर में दर्द शुरू हो जाता है. अतः अपनी कुर्सी पर ही बैठा रहा. इंतज़ार कर रहा था कि लाइन ज़रा छोटी हो जाय तो मैं भी सुरक्षा जांच के लिए प्रस्थान करूं. लेकिन यह क्या? लाइन छोटी होने के बदले और बड़ी होने लगी. मज़बूरी में मुझे उठना ही पड़ा - लाइन में लग गया. चींटी की चाल से लाइन सरकने लगी. एक घंटे के बाद मैं जांच कर्मियों के सामने पहुंचा. पैर दर्द कर रहे थे और प्यास भी लग रही थी. तभी मेरी दृष्टि दाहिनी ओर लगे एक सूचना-पट्ट की ओर गई. उसपर भारत के उन अति विशिष्ट व्यक्तियों की सूची थी, जिन्हें सुरक्षा जांच से मुक्त रखा गया था. सुरक्षा जांच की पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजरने के कारण स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर यह जानने की उत्सुकता पैदा हो गई कि आखिर वे कौन-कौन से अति भाग्यशाली व्यक्ति हैं, जिन्हें घंटों लाइन में खड़ा होकर पसीना बहाने से हमेशा के लिए मुक्ति दे दी गई है. लगभग ढाई दर्ज़न अति विशिष्ट व्यक्तियों का लिस्ट में उल्लेख था -- राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान मंत्री, लोक सभा अध्यक्ष..............................................श्री राबर्ट बढेरा. लिस्ट में किसी का नाम नहीं लिखा था, पद ही लिखा था. सिर्फ़ एक आदमी का नाम लिखा था -- श्री राबर्ट बढेरा. बुढ़ापे में स्मरण शक्ति कुछ कमज़ोर हो जाती है, हालांकि मैं समाचार-पत्र नित्य पढ़ता हूं. मुझे याद ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये मिस्टर बढ़ेरा हैं कौन? मैं अपने अज्ञान और अपनी उलझनों में खोया था कि सुरक्षा कर्मी ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा -- कहां खोए हैं मिस्टर? सुरक्षा जांच के लिए आगे बढ़िए. मैंने आगे बढ़ने के पहले उससे प्रश्न किया - क्या आप बताने का कष्ट करेंगे कि ये मिस्टर राबर्ट बढेरा कौन हैं, जिन्हें सुरक्षा जांच से परमानेंट मुक्ति मिली हुई है. वह मेरी अज्ञानता पर हंसा. फिर हिकारत से मुझे देखते हुए बोला - विचित्र आदमी हैं आप! देखने से तो पढ़े-लिखे मालूम पड़ते हैं. आपको इतना भी नहीं मालूम है कि बढेराजी, माननीया सोनिया गांधीजी के एकमात्र दामाद हैं? मुझे अपनी अज्ञानता पर अफ़सोस हुआ. खैर, मेरा नंबर आ चुका था. सुरक्षा जांच मुकम्मिल हुई. कोई आपत्तिजनक सामान नहीं मिला. मुझे अंदर जाने की इज़ाज़त मिल गई.
बात आई और गई, इसपर सोचने-समझने की कोई विशेष आवश्यकता तो थी नहीं, लेकिन क्या करूं, मेरा दिमाग फ़ालतू की बातों में कुछ ज्यादा ही उलझ जाता है. सोचने लगा - सुरक्षा जांच से मुक्त किए गए अति विशिष्ट व्यक्तियों के पदों का ही उल्लेख था सूची में. सिर्फ़ एक ही व्यक्ति का नाम लिखा था, आगे पीछे कोई पद नहीं लिखा था. यह नाम - राबर्ट बढेरा, राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री के साथ लिखा जाना कुछ अटपटा सा लग रहा था. अचानक मेरे ज्ञान-चक्षु खुले. वैसे भी काशी में ज्ञान-प्राप्ति तो होती ही है. भगवान बुद्ध की तरह मुझे भी ज्ञान प्राप्त हो गया. मुझे अपनी सभ्यता-संस्कृति की याद आई. यद्यपि सब मन ही मन यह मानते हैं - जमाता दशमो ग्रह, लेकिन प्रत्यक्ष उसकी देवता की भांति पूजा करते हैं. श्री राबर्ट बढेरा वर्तमान सरकार की राजमाता श्रीमती सोनिया गांधी के एकमात्र राज जमाता हैं. उन्हें सुरक्षा जांच से छूट नहीं मिलेगी, तो तुम्हें मिलेगी मिस्टर बी. के. सिन्हा, बूढ़े खूसट! मेरी सारी उलझनें समाप्त हो गईं. विमान पकड़ने के लिए फिर लाइन में लग गया.

Friday, November 26, 2010

बिहारःराष्ट्रीय राजनीति की प्रयोगशाला

वैदिक काल से लेकर आजतक, बिहार राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय करता रहा है. कहा जाता है कि जबतक बिहार पिछड़ा रहेगा, भारत तरक्की नहीं कर सकता; जबतक बिहार नहीं सुधरेगा, हिन्दुस्तान नहीं सुधर सकता. इतिहास भी इसकी पुष्टि करता है. देश ही नहीं विश्व को लोकतंत्र की दिशा दिखलाने वाला विश्व का पहला गणतंत्र बिहार में ही था - वैशाली का लिच्छवी गणतंत्र. जिस काल को भारत का स्वर्ण-युग कहा जाता है, वह बिहार के सर्वोच्च विकास का ही युग था. चाणक्य-चन्द्रगुप्त और सम्राट अशोक के काल में भारत को सोने की चि्ड़िया कहकर संबोधित किया जाता था. शिक्षा में जहां नालन्दा विश्वविद्यालय ने विदेशियों को भी अभिभूत किया था, वही राजनीति और अर्थशास्त्र में चाणक्य द्वारा स्थापित ऊंचे मापदंड आज भी मार्गदर्शन प्रदान करते हैं. अफ़गानिस्तान से लेकर जापान, चीन से लेकर वियतनाम, लंका से लेकर म्यामार, थाईलैंड से लेकर कोरिया, कंबोडिया से लेकर इंडोनेशिया - एशिया के इतने बड़े भूभाग पर शताब्दियों तक बिना एक भी सैनिक को भेजे भारत ने अपनी सांस्कृतिक पताका फहराई है, इसका श्रेय बिहार को ही जाता है. अपने अहिंसा के सिद्धांत से विश्व और मानवता की सेवा करने वाले महात्मा बुद्ध को ज्ञान बिहार में ही मिला था. विश्व-विजेता सिकन्दर के पूर्ण विश्व-विजय का सपना मगध (बिहार) ने ही चूर-चूर किया था. उसे पंजाब से ही वापस लौट जाने के लिए मगध की विशाल सैन्य-शक्ति और चाणक्य-नीति ने ही विवश किया था. उसके सेनापति सेल्यूकस ने राजा बनने के बाद सिकन्दर के अधूरे सपने को पूरा करने का निर्णय लिया. भारत में पहुंचने के बाद उसे भी समर्पण करना पड़ा. अपनी पुत्री हेलेन को चन्द्रगुप्त से ब्याहकर उसे ऐतिहासिक अनाक्रमण संधि करने के लिए वाध्य होना पड़ा. विदेशियों के लगातार आक्रमण और स्वदेशी राजाओं के क्षुद्र स्वार्थ ने भारत के संघीय स्वरूप को बहुत चोट पहुंचाई. राजा रजवा्ड़ों और रियासतों में बिखरा भारत विदेशियों का चरागाह बन गया. हजार वर्ष की वह अवधि, बिहार ही नही, भारत के भाल पर भी कलंक था. लेकिन बिहार ने हार नहीं मानी. १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता-संग्राम में वीर कुंवर सिंह के नेतृत्व में बिहार ने अंग्रेजों से लोहा लिया. नीलहों (अंग्रेज) के खिलाफ़ महात्मा गांधी के चंपारन सत्याग्रह को कौन भूल सकता है? दक्षिण अफ़्रिका से लौटने के बाद महात्मा गांधी ने पहला आंदोलन चंपारण में ही शुरू किया था, जिसे अभूतपूर्व सफलता मिली. असहयोग आंदोलन की पहली प्रयोगशाला बिहार ही था. आज़ादी के बाद कांग्रेसी कुशासन से मुक्ति के लिए जब पूरा देश छटपटा रहा था, तो बिहार ने ही दिशा दी. लोकनायक जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति का बिगुल बिहार से ही फूंका गया. १९४७ के बाद सबसे बड़े आंदोलन का केन्द्र बिहार ही बना. अभूतपूर्व जनांदोलन को कुचलने के लिए श्रीमती इन्दिरा गांधी को १९७५ में आपातकाल थोपना पड़ा. अंग्रेजी हुकूमत को भी लज्जित करनेवाली यातनाएं कांग्रेसी सरकार ने विरोधियों को दी. जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेई, लाल कृष्ण आडवानी, जार्ज फर्नांडिस आदि राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को भी नहीं बक्शा गया. लाखों बेकसुरों को जेल में ठूंस दिया गया. लेकिन बिहार ने समर्पण नहीं किया. संपूर्ण क्रान्ति की मशाल जलाए रखी. नीतीश कुमार और सुशील मोदी उसी आंदोलन की देन हैं. लालू यादव की राजनीतिक यात्रा भी उसी आंदोलन से शुरू हुई थी, लेकिन सत्ता की मलाई के लिए वे उसी कांग्रेस की गोद में बैठ गए, जिसने उनकी पीठ पर कई बार लाठियां बरसाई थी. वक्त आने पर बिहार ने कांग्रेस का सफाया ही कर दिया. कांग्रेसी सूर्य भी अस्ताचल को जा सकता है, इसका एहसास देशवासियों को बिहार ने ही १९७७ में कराया था.
दुर्भाग्य से कुछ बीमारियां भी बिहार में पनपीं और देशव्यापी बन गईं. इनमें जातिवाद और भ्रष्टाचार की उत्त्पत्ति का स्रोत बिहार को माना जा सकता है. कांग्रेसी राज और लालू राज ने इसे भरपूर खाद पानी दिया. अतुलित खनिज सम्पदा, उपजाऊ जमीन और मेधावी बिहार (जिसमें झारखंड भी शामिल है) विकास की दौड़ में पिछड़ता गया, पिछड़ता गया. स्वार्थी राजनेताओं ने अपने परिवारवाद, वंशवाद और तुच्छ लाभ के लिए बिहार को माफ़ियाओं, भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और दुराचारियों का अभयारण्य बना दिया. लेकिन ५ साल पहले बिहार ने स्वयं सारी गन्दगी साफ़ करने का निर्णय लिया और एन.डी.ए. को विधान सभा चुनाओं में स्पष्ट बहुमत दिया. नीतीश के नेतृत्व में जनता दल (यू) और भाजपा की सरकार ने पहली बार ईमानदारी से अपने सीमित संसाधनों का उपयोग करते हुए विकास को प्राथमिकता दी. परिणामस्वरूप जनता ने इस चुनाव में दिल खोलकर एन.डी.ए. को समर्थन दिया. इतनी सीटें तो इमर्जेंसी के बाद जनता पार्टी को भी नहीं मिली थीं - तीन चौथाई बहुमत! है न आश्चर्य की बात. जातिवादी लालू २२ सीट पाकर मुंह छुपाए घर में बैठे हैं. उनकी पत्नी और राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी दोनों यादव बहुल क्षेत्रों - राघोपुर और सोनपुर से बुरी तरह पराजित हो चुकी हैं. अवसरवादी पासवान ३ सीटें पाकर बौखलहाट में चुनाव में धांधली का आरोप लगा रहे हैं. युवराज राहुल गांधी की कांग्रेस ४ पर सिमट गई है. कभी मुख्य विपक्षी रही कम्यूनिस्ट पार्टी १ सीट लेकर हाशिए पर पहुंच चुकी है. मायावती का दलित कार्ड पूरी तरह बेअसर रहा. नीतीश और मोदी की जोड़ी ने २४३ में से २०६ सीटें (जनता दल यू-११०, भाजपा-९१) जीतकर सारी राजनीतिक भविष्यवाणियों को ध्वस्त कर दिया. बिहार की जनता ने जातिवाद, भ्रष्टाचार, गुंडाराज, वंशवाद, परिवारवाद और आतंकवाद को पूरी तरह नकारते हुए पूरे देश को एक महान संदेश दिया है. वैसे भी बिहार से उठी आवाज़ देर-सवेर पूरे मुल्क की आवाज़ बनती ही है. राष्ट्रहित में संकीर्णताओं को त्यागने का यही सही समय है. बुद्ध ने विवेकानन्द से सहमति जता दी है --
उठो, जागो और तबतक मत रुको, जबतक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाय.


Tuesday, November 16, 2010

जय-जय हे राजा ! जय भ्रष्टाचार !!


लगता है कि हम हिन्दुस्तानियों के रक्त में भ्रष्टाचार का समावेश पूरी तरह हो चुका है. अब न तो भ्रष्टाचार करने वाले शर्म से मुंह छुपाते हैं और ना ही बड़े-बड़े घोटालों की खबरें सुनकर जनता ही उद्वेलित होती है. भ्रष्टाचार में लिप्त होना उतना खतरनाक रोग नहीं है, जितना इसे सामाजिक स्वीकृति मिलना. हमारे डाक्टरों को किसी ऐसी पद्धति के आविष्कार करने की आवश्यकता है जिससे खून में हिमोग्लोबिन, व्हाइट ब्लड सेल, रेड ब्लड सेल, प्लेटलेट कांउट और सुगर की तरह भ्रष्टाचार के भी न्यूनतम और अधिकतम स्तर की जांच हो सके. सरकार यह घोषित करे कि आम जनता, सरकारी कर्मचारी, विधायक, सांसद और मंत्रियों में इसकी मिनिमम और मैक्सीमम वैल्यू कितनी हो. सेवा में आने के पहले इसकी जांच अनिवार्य कर दी जाय. रिपोर्ट में भ्रष्टाचार, वैल्यू रेंज में आने पर ही नियुक्ति पत्र दिया जाय. आज़ादी के बाद भारतवासियों के जिस एक गुण में बेतहाशा वृद्धि हुई है, वह है भ्रष्टाचार. ऐसा नहीं है कि सत्ता के शीर्ष पर बैठे देश के कर्णधार इस रोग से अनजान हों. देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने लोकसभा में विपक्ष के नेता के एक प्रश्न कि पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्यवन में काफ़ी भ्रष्टाचार हो रहा है; के उत्तर में कहा था - जहां धन खर्च होता है, वहां थोड़ी-बहुत हेराफेरी की संभावना से इंकार नही किया जा सकता, लेकिन सिर्फ़ इसके कारण हम अपनी विकास योजनाओं को नहीं रोक सकते. पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इन्दिरा गांधी की यह स्वीकारोक्ति -- Corruption is a world wide phenomenon - अभी भी पुरानी पीढ़ी के स्मृति पटल पर है. कांग्रेस को भ्रष्टाचार की जननी कहा जा सकता है; लेकिन आश्चर्य तब होता है कि उसका विरोध करके जो विपक्ष सत्ता में आया, वह कांग्रेसी नेताओं से भी दो कदम आगे बढ़ गया. उन्होंने भ्रष्टाचार के इतने ऊंचे और नियमित मापदंड स्थापित किए कि जनता में इसकी प्रतिक्रिया ही समाप्त हो गई. लालू, मुलायम, मायावती, जयललिता, मधु कोड़ा, शिबू सोरेन ..............कितनों का नाम गिनाया जाय, सभी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे होने के बाद भी जननेता बने हुए हैं. इस कड़ी में सबसे ताज़ा नाम पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री ए. राजा का है. उन्होंने भ्रष्टाचार का वह सर्वोच्च रिकार्ड स्थापित किया है जिसे तोड़ना किसी दूसरे के लिए असंभव तो नहीं, अत्यन्त कठिन अवश्य होगा.
तात्कालीन दूर संचार मंत्री श्री ए. राजा ने मनमाने तरीके से अपनी पसंदीदा कंपनियों को टू जी स्पेक्ट्रम की रेवड़ी बांटी. इस मामले में भारत सरकार की जांच एजेंसी "कैग" के अनुसार जनवरी २००८ में सरकार ने नौ कंपनियों को टू जी स्पेक्ट्रम आवंटित किए. इनसे सरकार को कुल १०७७२.६८ करोड़ रुपए मिले. आवंटन के बाद युनिटेक ने अपनी ६०% और स्वान टेलिकाम ने ४५% हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचकर ९५०० करोड़ रुपए प्राप्त किए, जबकि युनिटेक ने १६५१ करोड़ और स्वान ने १५३७ करोड़ रुपए लाइसेंस फीस के नाम पर सरकार को दिए थे. घोटाले से सरकार को १.७६ लाख करोड़ रुपयों का नुकसान हुआ है. श्री राजा को कितने हजार करोड़ रुपयों का फ़ायदा हुआ है, सिर्फ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता है. मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. शायद कोर्ट कुछ पता लगा सके !
मान्यवर ए. राजा ने काफ़ी नौटंकी के बाद अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया. पानी सिर के काफ़ी उपर चला गया था. अतः बेमन से उनका त्यागपत्र स्वीकार करना प्रधानमंत्री की मज़बूरी बन गई. प्रश्न यह उठता है कि क्या इस्तीफ़ा ले लेना ही पर्याप्त है? श्री राजा ने देश को १.७६ लाख करोड़ के राजस्व का नुकसान पहुंचाया है. इसकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी? अगर श्री राजा चीन में मंत्री होते, तो वहां की सरकार उनके साथ क्या सुलूक करती? वहां भ्रष्टाचार की सज़ा मौत है. लेकिन हमारे लोकतांत्रिक भारत में उन्हें सलाखों के पीछे भी नहीं रखा जा सकता. उनकी पार्टी के अध्यक्ष श्री करुणानिधि अभी भी उनकी पीठ ठोक रहे हैं. घोटाले के हजारों करोड़ रुपयों में से कुछ हजार करोड़ उनके कोष में भी गए ही होंगे.
राष्ट्रमंडल घोटाला, आदर्श कदाचार;
जय-जय हे राजा! जय भ्रष्टाचार!!

Saturday, November 13, 2010

सोनिया पर सुदर्शन चक्र

गत १० नवंबर को भोपाल में श्रीमती सोनिया गांधी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व सर संघचालक श्री सुदर्शन की टिप्पणी पर बवाल मचा हुआ है. कांग्रेसी तो सारी लोकतांत्रिक मर्यादाओं को तोड़कर संघ के कार्यालयों पर विरोध प्रदर्शन के साथ तोड़फोड़ भी कर रहे हैं. ऐसे में संघ द्वारा अपनाया गया संयम सराहनीय है. अभी भी संघ के पास समर्पित कार्यकर्त्ताओं का पूरे देश में एक ऐसा मज़बूत नेटवर्क है जो कांग्रेसियों को उन्हीं की भाषा और शैली में करारा जवाब देने का दमखम रखता है. संघ नेतृत्व के एक इशारे पर वे कांग्रेसियों के दफ़्तर के भी शीशे तोड़ सकते हैं. पर वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि वे एक अति अनुशासित संगठन के सदस्य हैं और संघ हिंसा या ऐसे अलोकतांत्रिक गतिविधियों में विश्वास नहीं करता.
श्री सुदर्शन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख रहे हैं. संघ का कोई भी अधिकारी उलूल-जुलूल बातें नहीं करता है. उनके वक्तव्य को यूं ही हवा में उड़ा देने के बदले गंभीरता से विचार करना चाहिए. क्या यह सत्य नहीं है कि श्रीमती सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला हैं और आज की तारीख में भी भारत के साथ-साथ उनके पास इटली की भी नागरिकता है. भारत सरकार की मास्टर कुंजी उनके पास होने के कारण यह सत्य असत्य में परिवर्तित नहीं हो सकता है. श्री सुदर्शन ने उन्हें विदेशी महिला कहकर क्या गलत कहा? कांगेस की यह दुखती रग है. जब भी कोई इसे दबाता है, तो वे बौखला जाते हैं और चाय की प्याली में तूफ़ान मचा देते हैं. वंशवाद के पोषक तत्त्व यह चाहते हैं कि पूरा हिन्दुस्तान यह भूल जाय कि श्रीमती सोनिया गांधी विदेशी मूल की महिला हैं. कांग्रेसी अपने स्वार्थ के कारण यह मानें या न मानें, लेकिन यह भी सच है की सोनिया गांधी की भारत के प्रति निष्ठा हमेशा संदेह के घेरे में रही है. कांग्रेस के दुबारा सत्ता में आने के बाद भारत ने जिस तेजी से अपने राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करते हुए अमेरिका की गोद में बैठने की जल्दीबाजी की है, वह किसी से छुपा नहीं है. किसी भी देश को इतना एहसानफ़रामोश नहीं होना चाहिए जितना भारत हो रहा है. रूस ने हमेशा गाढ़े वक्त में भारत की मदद की है. कश्मीर के मुद्दे पर सुरक्षा परिषद में उसने कितनी बार भारत के हित में ’वीटो’ का इस्तेमाल किया है, इसकी गिनती नहीं की जा सकती. वह हमारा अत्यन्त विश्वसनीय सामरिक सहयोगी रहा है, लेकिन आज हमारी विदेश नीति में उसका स्थान कहां है? जितना महत्त्व हम अमेरिका को दे रहे हैं, उसका आधा भी अगर रूस को देते, तो हम अधिक फ़ायदे में रहते. दक्षिणपंथी विचारधारा की भाजपा सरकार के समय भी रूस से हमारे संबंध सर्वाधिक मधुर थे. अमेरिका इस कदर हम पर हावी नहीं था. क्या बिना श्रीमती सोनिया गांधी की सहमति या इशारे के श्री मनमोहन सिंह इतना आगे बढ़ सकते थे कि अपनी सरकार को दांव पर लगाकर अमेरिका से परमाणु समझौता कर लेते? परमाणु समझौता हुए दो साल से ज्यादा हो गए, लेकिन अमेरिकी सहयोग से क्या एक भी परमाणु विद्युत घर की स्थापना हो सकी है? यह समझौता कागजी है और भारत की जनता की आंखों में धूल झोंकनेवाला है. अमेरिका एक बनिया देश है. वह सबसे पहले अपना व्यापारिक हित देखता है. उसके लिए भारत एक मित्र-देश नहीं, बल्कि एक उम्दा बाज़ार है. इसके उलट रूस हमें एक सहज मित्र-राष्ट्र के रूप में मान्यता देता है. वह हमारी आणविक, सामरिक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बिना किसी अतिरिक्त शर्तों के आगे आ सकता है. लेकिन हम उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाने से कतराने लगे हैं. श्रीमती सोनिया गांधी के इशारे पर हमारी विदेश नीति पूरी तरह पश्चिम परस्त हो गई है, जो हमारे राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल है.

Wednesday, November 10, 2010

ओबामा के बदलते चेहरे

भारत-यात्रा के दौरान ओबामा को देखकर मुझे बरबस स्व. इन्दिरा गाँधी की याद आ गई. चुनाव के दौरान वे जहां जाती थीं, अपना वेश, शैली और कथन भी उसी के अनुसार ढाल लेती थीं. जब वे बिहार में जनसभा को संबोधित करती थीं, तो सिर पर पल्लू रखना नहीं भूलती थीं और जब बंगाल में जाती थीं, तो, तो उल्टा पल्लू ले लेती थीं. आदिवासी इलाकों के दौरों के समय वे आदिवासियों के साथ नृत्य भी कर लेती थीं. जनप्रिय नारों, जैसे - गरीबी हटाओ - के माध्यम से उन्होंने एक लंबी अवधि तक भारत पर शासन किया. आज़ादी के ६३ वर्षों के बाद भी देश से गरीबी कितनी हटी, यह सभी को मालूम है, लेकिन इस लोकलुभावन नारे ने कांग्रेस को कई बार संजीवनी अवश्य प्रदान की. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भी भारत के दौरे पर इसी शैली को अपनाते हुए नज़र आए. मुंबई में वे राष्ट्रपति के रूप में कम व्यापारी के रूप में अधिक दिखे. पहली बार किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत के उद्योगपतियों के आगे अपनी झोली फैलाई. स्पाइस जेट ने अमेरिकी विमान खरीदने के लिए उन्हें आश्वस्त किया, तो रिलायंस ने पावर प्रोजेक्ट के लिए कल-पूर्जे खरीदने का वादा किया. टाटा समूह ने पूंजी निवेश का आश्वासन दिया, तो साफ़्टवेयर कंपनियों ने अमेरिकियों को अधिक रोज़गार देने का वचन दिया. मुंबई में वे अपनी पत्नी के साथ बच्चों के बीच थिरके भी. आतंकवादियों द्वारा आंशिक रूप से नष्ट किए गए होटल में रुककर उन्होंने यह संदेश देने का प्रयास किया कि वे आतंकवाद के विरोधी हैं, लेकिन जिस पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकवाद ने सैकड़ों निर्दोषों की बलि ली थी, उसके नाम तक का भी उच्चारण करने से कतरा गए. उनके लिए अमेरिका में आतंकवादी हमला ही आतंकवाद की श्रेणी में आता है. उन्होंने मुम्बई में अमेरिकी निजी घराने के उद्योगपतियों के ब्रांड एम्बैसडर के रूप में ही स्वयं को पेश किया. वे कितना सफल रहे, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन किसी राष्ट्राध्यक्ष के लिए व्यवसाइयों और उद्योगपतियों के हित में दूसरे देश में जाकर झोली फैलाकर मांगना कही से भी गरिमामय नहीं लगा. हम भारतीय इस बात पर अवश्य गर्व कर सकते हैं कि हमने अपनी स्थिति कम से कम इतनी तो अवश्य सुधार ली है कि विश्व की एकमात्र महाशक्ति को भी हमारे सामने झोली फैलाने के लिए विवश होना पड़ा. पहले यह आदत हमारी थी.
अपने दिल्ली प्रवास के दौरान मिस्टर ओबामा बिल्कुल बदले नज़र आए. यहां वे एक चतुर राजनेता और कुशल वक्ता की भूमिका में थे. संसद के केन्द्रीय कक्ष में भारत के सांसदों को संबोधित करते हुए अपने ३५ मिनट के संबोधन में उन्होंने ३६ बार तालियां बजवाईं. लालकृष्ण आडवानी भी ताली बजा रहे थे और सीताराम येचूरी भी. कांग्रेसी तो सिर्फ़ ताली बजाने के लिए ही बुलाए गए थे. अपने संबोधन में भी उन्होंने कोई ठोस आश्वासन नहीं दिया. आतंकवाद पर उनका वक्तव्य औपचरिक था, तो सुरक्षा परिषद में भारत की सदस्यता के विषय में उन्होंने सिर्फ़ विचार व्यक्त किया कि इस महान राष्ट्र को स्थाई सदस्यता मिलनी चाहिए. इसके लिए अपनी ओर से पहल करने के लिए उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा. उन्होंने यह तो इच्छा व्यक्त की कि भारत की साफ़्टवेयर कंपनियां अधिक से अधिक अमेरिकियों को रोज़गार दें, लेकिन अपने देश के कई प्रान्तों द्वारा भारत से आउटसोर्सिंग पर लगाए गए प्रतिबंध पर उन्होंने पूरी तरह चुप्पी साध ली. वे ५० हजार अमेरिकियों को रोज़गार दिलाने का लक्ष्य लेकर भारत आए थे, लेकिन एक भी भारतीय को रोज़गार दिलाने का झूठा वादा भी नहीं किया.
प्रिन्ट मीडिया, सरकारी मीडिया और टीवी चैनलों ने मिस्टर बराक ओबामा को परमात्मा का दर्जा देने के लिए अपने को समर्पित कर दिया. राहुल गाँधी का उनके साथ डिनर लेना मुख्य समाचार बन गया. ऐसा लग रहा था कि उनके साथ डिनर लेने से सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो जाएगी. ओबामा और मिशेल की हर अदा पर मीडिया फ़िदा था. पता नहीं हम भारतवासियों का स्वाभिमान कब जागृत होगा?
ओबामा अपनी नाटकबाज़ी के लिए ही जाने जाते हैं. इसी के बल पर वे राष्ट्रपति भी बने. भारत में भी उनकी नाटकबाज़ी हिट रही. यह बात दूसरी है कि स्वयं उनके देश में अब उनका असली चेहरा सामने आने लगा है. तभी तो कुछ सप्ताह पूर्व हुए मध्यावधि चुनाव में उनकी पार्टी को करारी शिकश्त मिली है.

Monday, November 1, 2010

मार्क्सवादियों को सपने में भी क्यों आता है संघ


राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ निस्संदेह एक हिन्दू संगठन है. लेकिन उसके अनुसार हिन्दुस्तान में रहनेवाला हर व्यक्ति जिसकी निष्ठा भारत में है - हिन्दू है. कई मुसलमान भी इस संगठन से जुड़े हुए हैं. भारत के पूर्व रेल मंत्री श्री जाफ़र शरीफ़ ने लोकसभा में स्वीकार किया था कि वे कांग्रेस में आने के पहले संघ की शाखाओं में जाते थे. संघ का मूल उद्देश्य है -- हिन्दू समाज की विकृतियों यथा - जातिवाद और छूआछूत को मिटाकर हिन्दू समाज में एकता स्थापित करना. इसके स्वयंसेवक एक दूसरे को जातिवाचक संबोधनों से नहीं पुकारते. वे एक दूसरे को प्रथम नाम से ही बुलाते हैं. श्री अटल बिहारी वाजपेयी को सभी वाजपेयीजी कहकर बुलाते हैं लेकिन संघ के छोटे-बड़े सभी स्वयंसेवक उन्हें अटलजी ही कहते हैं. स्वयंसेवक एक दूसरे से कभी उसकी जाति नहीं पूछते. यह किसी भी दूसरे संप्रदाय या धर्म का विरोध नहीं करता. यह चरित्रवान, देशभक्त नागरिकों का निर्माण करता है. संघ का सपना है -- भारत को पुनः विश्वगुरु के आसन पर स्थापित करना, इसे पुनः सोने की चिड़िया के रूप में संसार में मान्यता दिलवाना. संघ की राष्ट्रीयता से प्रभावित होकर ही सन १९६३ के गणतंत्र दिवस के परेड में शामिल होने के लिए पं. जवाहर लाल नेहरू ने संघ को आमंत्रित किया था और संघ के स्वयंसेवकों ने उसमें भाग भी लिया था. १९६५ के भारत-पाक युद्ध के दौरान प्रधान मंत्री स्व. लाल बहादुर शास्त्री के आग्रह पर संघ ने कई महत्त्वपूर्ण सरकारी प्रतिष्ठानों की सुरक्षा की जिम्मेदारी सफलता पूर्वक संभाली थी. देश के किसी भाग में भूकंप हो, बाढ़ आई हो, सुनामी घटित हुई हो, संघ के स्वयंसेवक सबसे पहले पहुंचकर राहत कार्य आरंभ कर देते हैं. संघ की यही राष्ट्रीयता कम्युनिस्टों को खटकती है. उन्हें यह डर हमेशा सताता रहता है कि अगर संघ इस देश में सफल हो गया तो उनकी दूकान बंद हो जाएगी.
पूर्व जनसंघ और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी को आम जनता संघ का राजनीतिक धड़ा मानती हैं. संघवाले इससे इंकार करते हैं और भाजपा वाले भी स्वीकार नहीं करते, लेकिन यह सत्य है कि भाजपा संघ की एक राजनीतिक इकाई है. विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, सेवा समर्पण संस्थान, वनवासी कल्याण आश्रम, सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती आदि दर्जनों संगठन संघ के आनुषांगिक घटकों के रूप में देश के कोने-कोने में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं. बी.बी.सी. के सर्वे के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है. महात्मा गांधी के रामराज्य का सपना ही संघ का सपना है. दुनिया के हर देश के कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी होते हैं. लेनिन और स्टालिन ने राष्ट्रवाद से प्रेरित हो सोवियत संघ का जो विस्तार किया था, वह किसी से छुपा नहीं है. चीन के ५६ प्रान्तों के एकीकरण में माओ की भूमिका सर्वोपरि थी. रूस और चीन के अंध राष्ट्रवाद ने कालान्तर में विस्तारवाद का रूप ले लिया. चीन ने तिब्बत को हड़पा तो रूस ने उज़्बेकिस्तान, कज़ाकिस्तान आदि एशिया के देशों को. कुछ दशक पूर्व दोनों कम्युनिस्ट देश थे लेकिन रूस के अधिकार में रहे "चेन माओ" द्वीप पर चीन के दावे ने दोस्ती को दुश्मनी में बदल दिया. न रूस ने राष्ट्रवाद से समझौता किया न चीन ने. चीन आज भी अपनी विस्तारवादी नीति से बाज़ नहीं आ रहा. भारत के अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख को आज भी वह अपने नक्शे में दिखाता है. भारत और चीन से सामान्य संबंधों के बीच चीन का विस्तारवाद ही रोड़ा बन हर बार सामने आ जाता है. संघ का राष्ट्रवाद विस्तारवाद का समर्थन नहीं करता. आश्चर्य तब होता है जब अंधराष्ट्रवादी लेनिन, स्टालिन और माओ को अपना आदर्श मानने वाले भारत के कम्युनिस्ट यहां राष्ट्रवाद का मुखर विरोध करते हैं. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इन्होंने अंग्रेजों का समर्थन किया, १९६२ में भारत पर चीन के आक्रमण के समय चीन का समर्थन किया और अब भारत की एकता और अखंडता को तार-तार करने के लिए प्रतिबद्ध नक्सलवाद और इस्लामिक आतंकवाद का कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष समर्थन करते हैं. अरुन्धती राय, मेधा पाटकर, मकबूल फ़िदा हुसेन जैसे फ़िरकापरस्तों को अपने लेखों, पत्र-पत्रिकओं के माध्यम से महिमामंडित कर राष्ट्रवाद पर खुले हमले के लिए प्रोत्साहित करते हैं.
जबतक जनसंघ या भाजपा का जनाधार कमजोर था, तबतक भारत के कम्युनिस्टों को इनके साथ मोर्चा बनाने तथा सरकार में शामिल होने में तनिक भी एतराज़ नहीं था. नई पीढ़ी को भले ही यह पता न हो लेकिन जिनकी उम्र ५० के उपर है, उन्हें अवश्य याद होगा कि बिहार में १९६७ में स्व. महामाया प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में गठित पहली गैरकांग्रेसी सरकार में, कम्युनिस्ट और जनसंघ, दोनों के मंत्री शामिल थे. इमर्जेन्सी का जनसंघ के साथ सीपीएम ने भी विरोध किया था. यह बात और है कि मौकापरस्त कम्युनिस्टों (सीपीआई) का एक धड़ा इन्दिरा गांधी की गोद में बैठकर सत्ता-सुख भोगता रहा. इमर्जेन्सी के दौरान मैं काशी हिन्दू विश्वविद्यालय का छात्र था. कम्युनिस्ट पार्टी के छात्र विंग (स्टूडेंट फ़ेडेरेशन आफ इंडिया) के कार्यकर्त्ता विद्यार्थी परिषद, संघ और समाजवादी छात्रों की गिरफ़्तारी के लिए खुलेआम कांग्रेसी कुलपति की मुखबिरी कर रहे थे. उन्हीं की अनुशंसा पर रात में छात्रावासों पर छापा मारकर पुलिस ने सैकड़ों छात्रों को गिरफ़्तार कर मीसा और डी.आई.आर के तहत जेल की हवा खिलाई. १९७७ में केन्द्र में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो सी.पी.एम. ने अपना खुला और बिना शर्त समर्थन दिया. याद रहे, उस सरकार में सबसे बड़ा घटक जनसंघ ही था. १९८९ में वी.पी. सिंह के नेतृत्व में केन्द्र में जब दूसरी गैरकांग्रेसी सरकार बनी, तो भाजपा और सीपीएम एकसाथ बाहर से समर्थन दे रहे थे. उस समय कम्युनिस्टों को न भाजपा सांप्रदायिक लग रही थी न राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ. ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और अंधविरोध तब शुरू हुआ जब कम्युनिस्टों को यह एहसास हुआ कि भारतीय राजनीति में भाजपा कांग्रेस की सब्सिटीट्युट बनकर उभर रही है. अब उन्हें कांग्रेस से परहेज़ नहीं है क्योंकि यह एक छद्म राष्ट्रवादी दल है.जिस कांग्रेस ने आपातकाल के दौरान सीपीएम कार्यकर्ताओं पर दिल दहला देनेवाले अमानवीय अत्याचार किए थे, उसी कांग्रेस की पालकी सीताराम येचूरी, प्रकाश कारंत और सोमनाथ चटर्जी पांच साल तक ढोते रहे. कामरेड सोमनाथ ने तो पद के लिए पार्टी ही छोड़ दी. कम्युनिस्ट पार्टी को मुस्लिम लीग धर्मनिरपेक्ष दिखाई देती है और भाजपा सांप्रदायिक.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निष्काम राष्ट्रभक्ति कभी न कभी रंग अवश्य लाएगी. रावण पर राम और कंस पर कृष्ण की विजय की तरह ही राष्ट्रवादियों के हाथों दे्शद्रोहियों की पराजय निश्चित है. जैसे-जैसे भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ रही है, कम्युनिस्टों का क्षेत्र सीमित होता जा रहा है. राष्ट्रवाद का उदय कम्युनिस्टों के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है. यही कारण है कि उनके सपनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भूत हमेशा आता है और वे मुसलमानों से भी ज्यादा संघ का अंधविरोध करते हैं.

--ई-पत्रिका हस्तक्षेप में दिनांक २९.१०.२०१० को प्रकाशित