Wednesday, May 18, 2016

हर युग में महाभारत


महाभारत के समय भी दो वर्ग थे -- एक निपट भौतिकवादी, जो शरीर के अतिरिक्त कुछ भी स्वीकार नहीं करता था और जिसकी दृष्टि मात्र भोग पर थी। आत्मा के होने, न होने से कोई मतलब न था। जिन्दगी का अर्थ था भोग और लूट, खसोट। उसी वर्ग के खिलाफ कृष्ण को युद्ध करवाना पड़ा। जरुरी हो गया था कि शुभ की शक्तियां कमजोर और नपुंसक सिद्ध न हों। आज फिर करीब-करीब हालत वैसी ही हो गई है।
शुभ में एक बुनियादी कमजोरी होती है। वह लड़ने (संघर्ष) से हटना चाहता है - पलायनवादी होता है। अर्जुन भला आदमी है। अर्जुन शब्द का अर्थ ही होता है -- अ+रिजु, मतलब सीदा-सादा, तनिक भी आड़ा-तिरछा नही। सीदा-सादा आदमी कहता है कि झगड़ा मत करो, जगह छोड़ दो। कृष्ण अर्जुन से कही ज्यादा सरल हैं, लेकिन सीधे-सादे नहीं। कृष्ण की सरलता की कोई माप नहीं, लेकिन सरलता कमजोरी नहीं है। और पलायन भी नहीं है। न दैन्यं न पलायनं। वे जमकर खड़े हो जाते हैं। न भागते हैं और न भागने देते हैं। वह निर्णयात्मक क्षण फिर आ गया है। लड़ना तो पड़ेगा ही। गांधी, बिनोवा, बुद्ध, महावीर काम नहीं आयेंगे। एक अर्थ में ये सभी अर्जुन हैं। वे कहेंगे -- हट जाओ, मर जाओ, भीक्षाटन कर लो, पर लड़ो नहीं।
कृष्ण जैसे व्यक्तित्व की फिर आवश्यकता है जो कहे कि शुभ को भी लड़ना चाहिए। शुभ को भी तलवार हाथ में रखने की हिम्मत रखनी चाहिए। निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता। अशुभ हो ही नहीं सकता। क्योंकि लड़ने के लिए कोई लड़ाई नहीं है। अशुभ जीत न पाए, लड़ाई इसलिए है।

Saturday, May 14, 2016

काश! यह इतना आसान होता


गीता के छठे अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि ऐसा नहीं है कि यह गीता रहस्य मैं तुम्हें पहली बार बता रहा हूँ। सृष्टि के आरंभ में मैंने यह रहस्य सूर्य को बताया था, सूर्य ने इसे मनु को बताया और मनु ने इक्ष्वाकु को। कालान्तर में यह ज्ञान लुप्त हो गया। इसीलिए मैं आज तुम्हें फिर से वह ज्ञान दे रहा हूँ। भगवान के इस कथन पर अर्जुन का चौंकना स्वाभाविक था। उसने प्रश्न किया -
“आप तो मेरे समकालीन हैं। इसी युग में पैदा हुए हैं, फिर यह ज्ञान सूर्य को कैसे दिया?"
भगवान मे मुस्कुराते हुए कहा कहा कि मैं आज भी हूँ और सृष्टि के आरंभ में भी था। तुम भी पहले भी थे और आज भी हो। फर्क इतना ही है कि मुझे सब याद है और तुम सब विस्मृत कर चुके हो।
मनुष्य अपने आप को पहचान ले तो स्मृतियां स्वयं आ जाती हैं। जिस दिन वह अपनी आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार कर लेता है, वह परमात्मा को प्राप्त कर लेता है। लेकिन यह है अत्यन्त कठिन और असंभव-सा। अर्जुन को इसकी अनुभूति कराने के लिए भगवान को स्वयं अपने श्रीमुख से गीता के १८ अध्याय कहने पड़े, तब अर्जुन ने स्वीकार किया कि उसने अपनी स्मृति को पा लिया है। पश्चात उसने स्वयं को भगवान को समर्पित करते हुए कहा कि उसके समस्त संदेह मिट गए हैं और वह अब वैसा ही करेगा जैसा भगवान कहेंगे।
अर्जुन भाग्यशाली था और परम भक्त भी था। सबकुछ समर्पण करने के बाद उसने वह पा लिया जिसके लिए तपस्वी ऋषि-मुनि जन्म-जन्म तक तरसते हैं। हमलोगों के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि हम एक क्षण परमात्मा पर विश्वास करते हैं, तो दूसरे ही क्षण शंका उठा देते हैं। आधुनिक विज्ञान ने इसमें और योगदान दिया है। जिस दिन हम अपना सुख-दुःख, यश-अपयश, जय-पराजय, हानि-लाभ को परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करते हुए उसे सौंप देंगे उसी दिन समस्त कष्टों से मुक्ति पा जायेंगे। काश! यह इतना आसान होता।

Sunday, May 8, 2016

भोजन के लिए दुर्योधन का श्रीकृष्ण को आमंत्रण

महाभारत का युद्ध टालने और दुर्योधन को समझाने के लिए अन्तिम प्रयास के रूप में श्रीकॄष्ण को हस्तिनापुर की राजसभा में युधिष्ठिर के दूत के रूप में भेजने का निर्णय लिया गया। श्रीकृष्ण ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया। हस्तिनापुर के मुख्य द्वार पर श्रीकृष्ण का भव्य स्वागत किया गया। सबसे औपचारिक मुलाकात के बाद श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का मन टटोलने के लिए राजकीय अतिथि गृह के बदले दुर्योधन के महल में ही जाने का निर्णय लिया।
दुर्योधन के आश्चर्य की सीमा नहीं थी। उसने कल्पना भी नहीं की थी कि श्रीकृष्ण सीधे उसके महल में आयेंगे। वह तो उनके राजसभा में पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा कर रहा था। पूर्व व्यवस्था भी यही थी। लेकिन श्रीकृष्ण औरों की दी हुई व्यवस्था में कब बंधने वाले थे। उनका प्रत्येक कार्य सदैव एक नई व्यवस्था की रचना करता था। 
श्रीकृष्ण को अपने महल में देख दुर्योधन थोड़ा हड़बड़ाया अवश्य, परन्तु शीघ्र ही स्वयं को संयत करते हुए श्रीकृष्ण का उचित स्वागत-सत्कार किया। कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान किया, फिर भोजन के लिए प्रार्थना की। केशव द्र्योधन के घर भोजन कैसे करते? उसका आग्रह स्वीकार नहीं किया। कारण पूछने पर गंभीर वाणी में साफ-साफ उत्तर दिया -
“राजन! अपना उद्देश्य पूर्ण होने के बाद ही दूत द्वारा भोजनादि ग्रहण करने का विधान है। जब मेरा कार्य पूर्ण हो जाय, तब मेरा और मेरे सहयोगियों का उचित सत्कार करना। मैं शल्य नहीं हूँ, अतः काम, क्रोध, द्वेष, स्वार्थ, कपट अथवा लोभ में पड़कर धर्म को नहीं छोड़ सकता। भोजन या तो प्रेमवश किया जाता है या आपत्ति में पड़ने पर। मेरे प्रति तुम्हारे मन में कोई प्रेम-भाव नहीं है और मैं किसी आपत्ति में भी नहीं हूँ। यह अन्न भी तुम्हारा नहीं है। इसपर पाण्डवों का स्वाभाविक अधिकार है। इसे तुमने अधर्म और अन्याय से दस्यु की भांति प्राप्त किया है। अतः धर्म-पथ पर चलने वाले पुरुष के लिए अखाद्य है। पूरे हस्तिनापुर में सिर्फ विदुरजी का ही अन्न खाने योग्य है। मैं उन्हीं के घर भोजन करूंगा।"
दुर्योधन निरुत्तर था। श्रीकृष्ण ने विदुरजी का आतिथ्य स्वीकार किया। भोजनोपरान्त रात्रि विश्राम भी वहीं किया।

Friday, May 6, 2016

द्रौपदी की हँसी


महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। हस्तिनापुर के सिंहासन पर युधिष्ठिर का अभिषेक भी संपन्न हो चुका था। कुरुक्षेत्र की रणभूमि में भीष्म पितामह सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा में शर-शैया पर यातना सहते हुए लेटे हुए थे। उस युग में श्रीकृष्ण और विदुर के बाद भीष्म पितामह ही राजनीति, धर्म और शास्त्र के सबसे बड़े ज्ञाता थे। श्रीकृष्ण की सलाह पर एक दिन सभी पाण्डव उनसे ज्ञान का संचित भंडार प्राप्त करने के लिए उनके समीप बैठे। श्रीकृष्ण के आग्रह पर पितामह ने अपने ज्ञान का कोष पाण्डवों के समक्ष खोल दिया। उस समय पाण्डवों के साथ द्रौपदी भी वहाँ उपस्थित थीं। वेद, पुराण, उपनिषद और शास्त्रों में वर्णित समस्त ज्ञान से छोटी-छोटी रोचक कहानियों के माध्यम से पितामह ने पाण्डवों को प्रवीण किया। श्रीकृष्ण भी बड़े ध्यान से पितामह का प्रवचन सुन रहे थे। सर्वत्र शान्ति थी। एकाएक द्रौपदी खिलखिलाकर हँसीं। सभी लोग आश्चर्य से द्रौपदी का मुंह देखने लगे। द्रौपदी को अपनी गलती का एहसास हुआ और शीघ्र ही चुप हो गईं। लेकिन पितामह द्रौपदी की हँसी का रहस्य जानने के लिए आतुर हो उठे। उन्होंने द्रौपदी से प्रश्न किया -
" प्रिय द्रौपदी। इतने गंभीर विचार-विमर्श के दौरान तुम्हारी हँसी का कारण क्या है। तुम इस पृथ्वी की सबसे बड़ी विदुषी महिला हो। तुम अकारण हँस नहीं सकती। मृत्यु के पूर्व तुम्हारी हँसी का कारण जानना चाहता हूँ।"
  द्रौपदी ने कोई कारण न बताते हुए कहा कि उसे अनायास हँसी आ गई थी। इसके पीछे कोई कारण नहीं था। परन्तु भीष्म कहाँ मानने वाले थे। उन्होंने बार-बार जोर देकर कहा कि द्रौपदी जैसी विदुषी और नीति की ज्ञाता महिला कभी भी अकारण नहीं हँस सकती, और वह भी अपने श्रेष्ठ जनों के सामने। श्रीकृष्ण ने भी द्रौपदी से अपनी हँसी का रहस्य उद्घाटित करने का आग्रह किया। कोई चारा न पाकर द्रौपदी ने अपने मन की बात कह ही दी --
“पूज्य पितामह! आपके श्रीमुख से हमने ज्ञान की वे बातें श्रवण और मनन की जो अभी तक हमें ज्ञात नहीं था। आपने महाराज युधिष्ठिर को धर्म, सत्य और न्याय का पाठ पढ़ाया। मुझे इस बात पर हँसी आई कि सबकुछ जानते हुए भी आपने कुरुओं की भरी सभा में मेरे अपमानजनक चीरहरण का विरोध क्यों नहीं किया। मुझे आपकी कथनी और करनी में जब स्पष्ट अन्तर दीख पड़ा तो अनायास ही मेरे मुँह से हँसी फूट पड़ी। मेरी इस धृष्टता के लिए आप मुझे क्षमा करें।"
भीष्म पितामह मुस्कुराए और बोले -
“पुत्री! मनुष्य जिस प्रकार का भोजन करता है, उसकी बुद्धि भी वैसी ही हो जाती है। उस समय मैं अन्याय और अधर्म से प्राप्त धृतराष्ट्र और दुर्योधन द्वारा प्रदत्त भोजन करता था, जिसके कारण मेरा रक्त अशुद्ध हो गया था और बुद्धि भी न्याय-अन्याय का विचार करने में असमर्थ हो गई थी और मैं चाहकर भी तुम्हारे प्रति हो रहे अन्याह का विरोध नहीं कर सका। मेरा मन पाण्डवों के साथ था और शरीर दुर्योधन के साथ। मैं चाहकर भी उस महा अन्याय को रोक नहीं पाया। पुत्री! यह पुरुष अर्थ का दास है। अर्थ किसी का भी दास नहीं। इसी अर्थ से कौरवों ने मुझे बाँध रखा था और मैं नपुंसकों जैसी बातें करने लगा था। अब महाधनुर्धर अर्जुन के बाणों से बींधकर मेरा दूषित रक्त शरीर से बाहर आ चुका है और मेरी आत्मा शुद्ध हो गई है। इसीलिए अब मैं धर्म, सत्य   और न्याय की भाषा बोल रहा हूँ। पुत्री मेरे अपराध के लिए मुझे क्षमा कर देना।"
द्रौपदी ने पितामह के चरणों में अपना सिर रख दिया और अपने आँसुओं से उन्हें प्रच्छालित कर दिया। द्रौपदी के मन का सन्देह सदा के लिए मिट गया था।