Saturday, December 14, 2013

सपनों का सौदागर - अरविन्द केजरीवाल

  भोजपुरी में एक कहावत है - ना खेलब आ ना खेले देब, खेलवे बिगाड़ देब। इसका अर्थ है - न खेलूंगा, न खेलने दूंगा; खेल ही बिगाड़ दूंगा। दिल्ली में अरविन्द केजरीवाल और उनकी पार्टी ‘आप’ ने चुनाव के बाद गैर जिम्मेदराना वक्तव्य और काम की सारी सीमायें लांघ दी है। दिल्ली में पिछले १० वर्षों से कांग्रेस सत्ता में थी। वहां की दुर्व्यवस्था, भ्रष्टाचार और निकम्मेपन के लिये कांग्रेस और सिर्फ कांग्रेस ही जिम्मेदार है। इस चुनाव में दिल्ली की जनता ने कांग्रेस के खिलाफ़ मतदान किया जिसकी परिणति आप के उदय और भाजपा का सबसे बड़े दल के रूप में उभरना रही। इस समय आप के नेताओं के बयान कांग्रेस के विरोध में न होकर पूरी तरह भाजपा के अन्ध विरोध में आ रहे हैं। भाजपा की बस इतनी गलती है कि उसने अल्पसंख्यक सरकार बनाने से इन्कार कर दिया है। बस, यही बहाना है ‘आप’ के पास असंसदीय शब्दों में गाली-गलौज करने का। श्री हर्षवर्धन और भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के धैर्य और संयम की प्रशंसा करनी चाहिये कि उन्होंने अबतक शालीनता का परिचय देते हुए गाली-गलौज से अपने को दूर रखा है।
      आज मुझे यह कहने में न तो कोई झिझक हो रही है और न कोई संकोच कि अरविन्द केजरीवाल विदेशी शक्तियों के हाथ का खिलौना हैं। वे दो एन.जी.ओ. - ‘परिवर्तन’ तथा ‘कबीर’ और एक क्षेत्रीय पार्टी ‘आप’ के सर्वेसर्वा हैं। उनकी संस्थायें विदेशी पैसों से चलती हैं। उन्होंने अपनी संस्थाओं के लिये फ़ोर्ड फ़ाउन्डेशन, अमेरिका से वर्ष २००५ में १७२००० डालर तथा वर्ष २००६ में १९७००० डालर प्राप्त किये जिसके खर्चे का हिसाब-किताब वे आज तक नहीं दे पाये हैं, जबकि उक्त धनराशि प्राप्त करने की बात उन्होंने स्वीकार की है। फ़ोर्ड एक मंजे हुए उद्यमी हैं। बिना लाभ की प्रत्याशा के वे एक फूटी कौड़ी भी नहीं दे सकते। केजरीवाल की संस्थाओं के संबन्ध विश्व के तीसरे देशों की सरकारों को अस्थिर कर अमेरिकी हित के अनुसार सत्ता परिवर्त्तन कराने के लिये बेहिसाब धन खर्च करनेवाली कुख्यात संस्था ‘आवाज़’ से है। ‘आवाज़’ एक अमेरिकी एन.जी.ओ. है जिसका संचालन सरकार के इशारे पर वहां के कुछ बड़े उद्योगपति करते हैं। इस संस्था का बजट भारत के आम बजट के आस-पास है। यह संस्था अमेरिका के इशारे पर अमेरिका या पश्चिम विरोधी सरकार के खिलाफ Paid Agitation चलवाती है, वहां व्यवस्था और संविधान को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है और अन्त में अपनी कठपुतली सरकार बनवाकर सारे सूत्र अपने हाथ में ले लेती है। जैसमिन रिवोल्यूशन के नाम पर इस संस्था ने लीबिया में सत्ता-परिवर्त्तन किया, तहरीर चौक पर आन्दोलन करवाया, मिस्र को अव्यवस्था और अराजकता की स्थिति में ढकेल दिया तथा सीरिया में गृह-युद्ध कराकर लाखों निर्दोष नागरिकों को भेड़-बकरी की तरह मरवा दिया। वही पश्चिमी शक्तियां ‘आवाज़’ और फ़ोर्ड के माध्यम से केजरीवाल में पूंजी-निवेश कर रही हैं। यही कारण है कि कांग्रेस द्वारा बिना शर्त समर्थन देने के बाद भी अरविन्द केजरीवाल दिल्ली में सरकार बनाने से बार-बार इन्कार कर रहे हैं। उन्होंने दिल्ली की जनता से जो झूठे और कभी पूरा न होनेवाले हवाई वादे किये हैं, वे भी जानते हैं कि उन्हें पूरा करना कठिन ही नहीं असंभव है। दिल्ली की जनता ने उन्हें ७०/७० सीटें भी दी होती, तो क्या वे बिजली के बिल में ५०% की कटौती कर पाते, निःशुल्क पानी दे पाते या बेघर लोगों को पक्का मकान दे पाते? मुझे पुरानी हिन्दी फिल्म श्री ४२० की कहानी आंखों के सामने आ जाती है - नायक ने बड़ी चालाकी से बंबई के फुटपाथ पर सोनेवालों में इस बात का प्रचार किया कि गरीबों की भलाई के लिये एक ऐसी कंपनी आई है जो सिर्फ सौ रुपये में उन्हें पक्का मकान मुहैया करायेगी। गरीब लोगों ने पेट काटकर रुपये बचाये और कंपनी को दिये। लाखों लोगों द्वारा दिये गये करोड़ों रुपये पाकर कंपनी अपना कार्यालय बन्द कर भागने की फ़िराक में लग गई। फुटपाथ पर सोने वालों का अपना घर  पाने का सपना, सपना ही रह गया। राज कपूर ने आज की सच्चाई की भविष्यवाणी सन १९५४ में ही कर दी थी। आज भी तमाम चिट-फंड कंपनियां सपने बेचकर करोड़ों कमाती हैं और फिर चंपत हो जाती हैं। अरविन्द केजरीवाल भी सपनों के सौदागर हैं। इस खेल में फिलवक्त उन्होंने कम से कम दिल्ली में इन्दिरा गांधी और सोनिया गांधी को मात दे दी है। वे राजनीति की प्रथम चिट-फंड पार्टी के जनक है। तभी तो कांग्रेस द्वारा समर्थन दिये जाने के बाद भी, २८+८=३६ का जादुई आंकड़ा छूने के पश्चात भी राज्यपाल से मिलने का साहस नहीं कर पा रहे हैं। दिल्ली की अधिकारविहीन सरकार के पास गिरवी रखने के लिये  है भी क्या? कोई ताजमहल भी तो नहीं है। वे चन्द्रशेखर की तरह भारत के प्रधान मंत्री भी नहीं होंगे जो देश के संचित सोने को गिरवी रखकर कम से कम चार महीने अपनी सरकार चला ले।

      जिस अन्ना हजारे के कंधे पर खड़े होकर उन्होंने प्रसिद्धि पाई, उसी का साथ छोड़ा। अन्ना ने पिछले साल ६ दिसंबर को संवाददाता सम्मेलन में केजरीवाल को स्वार्थी और घोर लालची कहा था। अन्ना कभी झूठ नहीं बोलते। केजरीवाल का उद्देश कभी भी व्यवस्था परिवर्त्तन नहीं रहा है। सिर्फ हंगामा खड़ा करना और अव्यवस्था फैलाना ही उनका मकसद है। भारत को सीरिया और मिस्र बनाना ही उनका लक्ष्य है। साथ देने के लिये सपना देखने वाले गरीब, हत्या को मज़हब मानने वाले नक्सलवादी और पैन इस्लाम का नारा देनेवाले आतंकवादी तो हैं ही। लेकिन पानी के बुलबुले का अस्तित्व लंबे समय तक नहीं रहता। जनता सब देख रही है। जिस जनता ने राहुल की उम्मीदों पर झाड़ू फेर दिया है, अपनी उम्मीदों और सपनों के टूटने पर सपनों के सौदागर केजरीवाल के मुंह पर भी झाड़ू फेर दे, तो कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं होगा। शुभम भवेत। इति।

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