Sunday, October 20, 2013

प्रवक्ता.काम, एक हिन्दी पोर्टल ही नहीं, आन्दोलन है

        असफलताओं से निराश न होना, यह एक अद्भुत स्वभाव है जो विरले लोगों को ही प्राप्त होता है। यह भी सत्य है कि संघर्ष ही मनुष्य को पूर्णता प्रदान करता है, लेकिन पूर्णता प्राप्त करने के पूर्व ही अधिकांश टूट भी जाते हैं। ऐसे अनगिनत साहित्यकार हैं जो आजकल के सुविधाभोगी साहित्यकारों की मठाधीशी के शिकार होकर गुमनामी के अन्धेरे में सदा के किए गुम हो गए। इन गुम होनेवाले लेखकों में मेरा भी नाम जुड़ने ही वाला था कि प्रवक्ता.काम का न्यू मिडिया में आविर्भाव हुआ। मैं बच गया। प्रवक्ता और संजीव सिन्हा को इस कार्य के लिए हार्दिक धन्यवाद।
      मैंने अबतक जितनी रचनाएं लिखी हैं उनमें से दो को मैं अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति मानता हूं। पहली कृति है - ‘दिदिया’। मेरे गांव में वे पैदा हुई थीं और रिश्ते में मेरी चचेरी बहन लगती थीं। वे एक महान स्वतंत्रता सेनानी थीं। आज़ादी के लिए कई बार जेल गई थीं। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रमुख नेता थीं जिसे  महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, डा. राजेन्द्र प्रसाद और जय प्रकाश नारायण जैसी विभूतियां न सिर्फ जानती थीं, बल्कि सम्मान भी करती थीं। देश के बंटवारे के बाद उन्होंने व्यथित होकर कांग्रेस छोड़ दी और जय प्रकाश नारायण की प्रजा पार्टी में शामिल हो गईं। महाराज गंज संसदीय क्षेत्र से १९५२ का चुनाव भी लड़ा उन्होंने। उस समय प्रत्येक उम्मीदवार की पेटी अलग-अलग हुआ करती थी। मतदाता अपनी पसन्द के उम्मीदवार की पेटी में अपना मत डालता था। वे हर जगह से लीड कर रही थीं। सरकार और कांग्रेसियों को यह स्वीकार नहीं था। गणना के समय उनकी मतपेटी के मत निकालकर कांग्रेसी उम्मीदवार की मतपेटी में डाल दिए गए। वे मात्र तीन हजार मतों के अन्तर से चुनाव हार गईं। चुनाव आयोग से शिकायत भी की गई, लेकिन असफलता ही हाथ लगी। बिहार के तात्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह और देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के खिलाफ़ जाने की हिम्मत किसमें थी? चुनाव के बाद जय प्रकाश नारायण ने राजनीति से संन्यास ले लिया। साथ में दिदिया जिनका असली नाम श्रीमती तारा रानी श्रीवास्तव था, ने भी संन्यास ग्रहण कर लिया। उनका शेष जीवन हिन्दी साहित्य और स्त्री-शिक्षा के प्रचार-प्रसार में बीता। उनके पति श्री फुलेना प्रसाद भी बिहार कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेता थे। १६ अगस्त, १९४२ को ‘करो या मरो’ आन्दोलन के दौरान महाराज गंज के थाने पर कब्जा करके तिरंगा फहराते हुए अंग्रेजों की बर्बरता के शिकार हुए। उन्हें सामने से गोली मारी गई और वे आठ गोली खाने के बाद थाना परिसर में ही शहीद हो गए। आज भी बिहार के महाराज गंज तहसील के मुख्य बाज़ार में प्रवेश करते ही लाल रंग का एक स्तंभ दिखाई पड़ता है। यह अमर शहीद फुलेना प्रसाद का ही स्मारक है। मैंने अपनी रचना में दिदिया के जन्म से लेकर मृत्यु तक की घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया था। जिसने भी पढ़ा, प्रशंसा की। मैंने उसे प्रकाशन के लिए हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘कादम्बिनी’ में पंजीकृत डाक से भेजा। संपादक का उत्तर विलक्षण था। उन्होंने रचना वापस करते हुए टिप्पणी दी थी “आपकी रचना उत्कृष्ट है, लेकिन लंबी है। कहां छापूं?” कई वर्षों के बाद यह रचना मेरे कहानी संग्रह - ‘फ़ैसला’ में छपी।
      कई वर्षों के शोध के बाद मैंने एक और रचना लिखी - ‘राम ने सीता का परित्याग कभी किया ही नहीं’। इस रचना को भी छापने के लिए कोई पत्रिका तैयार नहीं हुई। मैंने अपने खर्च पर इसे एक पुस्तक के रूप में छपवाया और निःशुल्क बांटा। इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है। मुझे प्रसन्नता है कि इस रचना को काशी के विद्वानों के अलावे देश भर के राम-भक्तों का प्रोत्साहन मिला। आधुनिक तुलसी श्रद्धेय मुरारी बापू ने इसे अपने प्रवचन में भी शामिल कर लिया। परन्तु प्रिन्ट मिडिया के मठाधीशों ने इसे छापकर मुझे कभी उपकृत नहीं किया।
      प्रवक्ता.काम के उदय के बाद मैंने प्रिन्ट मिडिया की ओर झांकना भी बन्द कर दिया। इस हिन्दी पोर्टल से मेरा परिचय महाभारत पर आधारित मेरे प्रथम उपन्यास ‘कहो कौन्तेय’ के माध्यम से हुआ। संजीव सिन्हा ने लगातार ९० दिनों तक लगभग प्रत्येक दिन इसका प्रकाशन किया। ९० अंकों में यह रचना प्रकाशित हुई। मुझे अब कुछ लोग जानने लगे थे। लेकिन प्रवक्ता पुरस्कार की कल्पना तो मैंने कभी की ही नहीं थी। मैं पुरस्कार की आशा से कभी लिखता भी नहीं। प्रवक्ता.काम और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने देश-विदेश के १६ श्रेष्ठ लेखकों को न्यू मिडिया में लेखन के लिए दिनांक १८ अक्टूबर को दिल्ली में सम्मानित किया। सूची में मेरा नाम भी था और मैंने स्वयं यह सम्मान ग्रहण किया। मेरे लिए यह सम्मान भारत-रत्न से कम नहीं है।
      कार्यक्रम में कन्स्टीचुशन क्लब का स्पीकर हाल पूरी तरह भरा था। मुझे इस बात से अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि कार्यक्रम में किसी राजनेता को नहीं बुलाया गया था। साहित्य मर्मज्ञ और शिखर के पत्रकारों की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।
      इस अत्यन्त सफल आयोजन के लिए प्रवक्ता.काम के संपादक संजीव सिन्हा और माखन लाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति एवं निदेशक बधाई के पात्र हैं। प्रवक्ता.काम मात्र एक पोर्टल नहीं है बल्कि न्यू मिडिया द्वारा इलेक्ट्रानिक और प्रिन्ट मिडिया की मठाधीशी को तोड़ने के लिए प्रभावशाली आन्दोलन है। यह एक शुरुआत है। आगे दूर, बहुत दूर तक जाना है। मैं अपनी समस्त शुभकामनाएं अर्पित करता हूं।


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