Monday, November 4, 2013

अंग्रेजी मानसिकता


      आजकल मैं बंगलोर में हूं, बेटे के पास। त्योहारों में अकेले वाराणसी में रहना थोड़ा खलता है। इसलिये हर साल की तरह इस साल भी मैंने बंगलोर में ही दीपावली मनाने का निश्चय किया। दीपावली के दिन पता ही नहीं लगा कि मैं वाराणसी के बाहर हूं। वही शोर-शराबा, वही उत्साह, वही तैयारी, वही सज़ावट और वही पटाखेबाज़ी। उत्तर भारतीय, मराठी, गुजराती, बंगाली और कर्नाटकवासी - सभी बड़े उत्साह से दीपावली मना रहे थे। सब जगह छुट्टी थी। स्कूल, कालेजअस्पताल और प्रेस तक बन्द थे। अखबार दूसरे दिन निकला। डेक्कन क्रोनिकल यहां का सर्वाधिक लोकप्रिय अंग्रेजी अखबार है। घर पर यही अखबार आता है; इसलिये मैं भी यही पढ़ता हूं। दीपावलीसे संबन्धित जो मुख्य समाचार इस अखबार के मुख्यपृष्ठ पर था, वह दीपावली की आतिशबाज़ी के कारण प्रदूषण से था। समाचार था कि इस बार पिछले सालों की तुलना में धुएं और आवाज़ का प्रदूषण कम था। जनता ने कितने उत्साह से यह पर्व मनाया, क्या-क्या आयोजन किये गये थे और किन-किन लोगों ने दीपावली की शुभकामनायें जनता को दी थी, इसका कहीं जिक्र तक नहीं था। अखबार के अन्दर पेज संख्या ८ पर गया, तो अनिल धरकर का लेख पढ़ने को मिला। शीर्षक था - Our obsession with the personality cult. पूरा लेख गुजरात में नरेन्द्र मोदी द्वारा सरदार पटेल की दुनिया की सबसे ऊंची लौह प्रतिमा स्थापित करने के विरोध में था। लेखक का मानना है कि प्रतिमा की स्थापना से भारत में व्यक्ति-पूजा की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, जो कही से भी प्रशंसनीय नहीं है। लेखक को मुंबई के विक्टोरिया टर्मिनल और वहां के हवाई अड्डे का नाम छत्रपति शिवाजी के नाम पर रखने का भी बहुत मलाल है।
      अंग्रेजी के लेखक, चाहे वे पत्रकार हों, इतिहासकार हों, उपन्यासकार हों, अपने Speriority complex से हमेशा ग्रस्त रहे हैं। भारत के देसी महापुरुष, देसी संस्कृति, देसी परंपरायें और देसी रहन-सहन उनके लिये सदा ही उपहास के विषय रहे हैं। उसी शृंखला में वे न तो शिवाजी को मान्यता देते हैं, न सरदार पटेल को और ना ही दीपावली के त्योहार को। इनका एजेन्डा गुप्त तो है लेकिन समाज पर अपना शिकंजा कसता जा रहा है। कारपोरेट घराने की मदद और कुकुरमुत्ते की तरह उग आये समाचार चैनलों के माध्यम से इन्होंने आंग्ल नववर्ष, क्रिसमस और वेलेन्टाइन डे को राष्ट्रीय त्योहार तो बना ही दिया है, अब कुदृष्टि बहुसंख्यक समुदाय के अन्दर गहरा पैठ रखने वाले उनके मुख्य त्योहारों पर है। ध्वनि और धूएं के नाम पर दीपावली को बदनाम करना, पानी के ज्यादा उपयोग पर होली को कोसना और नदियों एवं समुद्र के प्रदूषण के नाम पर गणेशोत्सव और दुर्गापूजा की आलोचना करना अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों का प्रमुख शगल है। इन महानुभावों को क्रिसमस और आंग्ल नववर्ष तथा शबेबारात के अवसर पर की जा रही आतिशबाज़ी कही दिखाई नहीं पड़ती। बकरीद के अवसर पर सामूहिक जीवहत्या और उसके कचड़े को मुख्य मार्ग पर फेंक देना कभी नज़र नहीं आता। ये लोग दिल्ली के औरंगज़ेब और अकबर मार्ग पर गलती से भी कोई टिप्पणी नहीं करेंगे लेकिन विक्टोरिया टर्मिनल को छत्रपति शिवाजी टर्मिनल के नामकरण पर सैकड़ों लेख लिख डालेंगे। ये लोग आज भी अंग्रेजों के शासन-काल को बेहतर मानते हैं। ये लोग नेहरू, इन्दिरा, राजीव, सोनिया और राहुल को इसलिये पसन्द करते हैं कि ये सभी आपस में अंग्रेजी में ही बात करते थे, करते हैं और करते रहेंगे। अंग्रेजी मीडिया इन्हें अंग्रेजों का वास्तविक उत्तराधिकारी मानती है। अंग्रेजी की प्रख्यात लेखिका एवं पत्रकार तवलीन सिंह ने अपनी पुस्तक ‘दरबार’ में इस मानसिकता का विस्तार से वर्णन किया है। हालांकि उन्होंने इस मानसिकता के विरोध में एक हल्की आवाज़ उठाई है परन्तु वे स्वयं इस मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त दिखती है। अंग्रेजी बोलनेवाले जिस Elite क्लास का उन्होंने प्रशंसा के साथ वर्णन किया है उसमें मर्दों के साथ औरतों के मुक्त विचरण, सार्वजनिक रूप से पार्टियों में शराब और सिगरेट का सेवन और सपना भी अंग्रेजी में देखने की आदत को अभिजात्य वर्ग की सामान्य आदतों के रूप में स्वीकार करना शामिल है। ऐसी ही पार्टियों के माध्यम से लेखिका ने सोनिया और राजीव गांधी से निकटता बढ़ाई थी, यह तथ्य उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है। उनके अनुसार राजनीति में आने के पहले सोनिया पूरी तरह अंग्रेजी रंग में रंगी थीं। यहां तक कि वे खाना भी इटालियन ही पसन्द करती थीं, कपड़े के नाम पर वे फ़्राक पहनती थीं और दोस्ती भी उन्हीं से करती थी जो अंग्रेजी अंग्रेजों की तरह बोल लेते थे। अगर कोई इटालियन बोलने वाला मिल गया, तो फिर क्या कहने। क्वात्रोची को इटालियन बोलने का ही लाभ मिला था।
      अपने देसी अन्दाज़ के ही कारण सरदार पटेल आज़ादी के पहले और बाद में भी अंग्रेजी अखबारों के किये खलनायक से कम नहीं थे। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू को इतना महिमामंडित किया कि सरदार पटेल, सुभासचन्द्र बोस, डा. राजेन्द्र प्रसाद, वीर सावरकर तो क्या गांधीजी का भी आभामंडल फीका पड़ गया। भारत के हर कोने में, चाहे वह पूरब हो या पश्चिम, उत्तर हो या दक्खिन, ७५% सड़को, मुहल्लों, स्कूलों, कालेजों, विश्वविद्यालयों, चौराहों, अस्पतालों, हवाई अड्डों, बस स्टेशन, शोध केन्द्रों, सेतुओं, योजनाओं और भवनों के नाम नेहरू, इन्दिरा, राजीव और संजय गांधी के नाम पर ही हैं। गांधी बाबा भी इनके पीछे ही हैं। पूरे हिन्दुस्तान में इनकी न जाने कितनी मूर्तियां लगी हैं, लेकिन सरदार पटेल की नरेन्द्र मोदी द्वारा एक प्रतिमा स्थापित करने पर इन काले अंग्रेज बुद्धिजीवियों (तथाकथित) को घोर आपत्ति है। सरदार पटेल उन्हें आज भी नेहरू को चुनौती देते दीख रहे हैं। एक तो करेला, उसपर नीम चढ़ा। मोदी के बदले राहुल प्रतिमा की स्थापना करते (जो असंभव था), तो उन्हें कोई विशेष आपत्ति नहीं होती। लेकिन ठेठ देसी नरेन्द्र मोदी ऐसा कर रहे हैं, उनके अनुसार यह लोहे की बर्बादी और व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने के निन्दनीय प्रयास के अलावा और कुछ भी नहीं है।
      अंग्रेजी अखबार आज़ादी के पहले अंग्रेजों का गुणगान करते थे। कांग्रेस और आज़ादी की जोरदार आलोचना करते थे। आज़ादी के बाद इनकी निष्ठा नेहरू-परिवार की चेरी बनी। इन्होंने आपात काल और इन्दिरा की शान में बेइन्तहां कसीदे काढ़े। जयप्रकाश नारायण और संपूर्ण क्रान्ति को जी भरकर कोसा। न तो वे देश को आज़ाद होने से रोक पाये और न ही १९७७ में जनता पार्टी को सत्तारुढ़ होने से डिगा सके। आज भी वे समय की नब्ज़ पहचान पाने में असमर्थ हैं। दूर अमेरिका और इंगलैन्ड में नरेन्द्र मोदी की विजय-दुन्दुभि अभी से सुनाई पड़ने लगी है लेकिन ये देखकर भी अन्धेपन का और सुनकर भी बहरेपन का अभिनय करने को विवश हैं। ये खाते हैं दाल-रोटी और पीते हैं शैंपेन। हंसते हैं हिन्दी में, बोलते अंग्रेजी में। लार्ड मैकाले की आत्मा गदगद हो रही होगी। जो काम गोरे अंग्रेज नहीं कर पाये, वह काले अंग्रेज कर रहे हैं - उनसे भी ज्यादा निष्ठा, ईमानदारी, लगन, भक्ति और शक्ति से।

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