Sunday, May 8, 2011

खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे



पाकिस्तान और भारत में वही अन्तर है, जो उर्दू और हिन्दी में. अरबी में लिख दीजिए तो उर्दू और देवनागरी में लिख दीजिए तो हिन्दी. एक व्याकरण एक भाव. पढ़ने और बोलने पर लिपि की सीमाएं अपने आप ध्वस्त हो जाती हैं. लेकिन पाकिस्तान इस तथ्य को स्वीकार करने से कतराता है, क्योंकि उसका निर्माण ही भारत से घृणा के आधार पर हुआ है. जब-जब दोनो देशों की जनता के बीच घृणा की मात्रा कम होने लगती है, वहां के वास्तविक शासक (फ़ौज़) घबराने लगते हैं. एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के अस्तित्व का कोई आधार ही नहीं है. वह जब भी अपना स्वतंत्र इतिहास लिखेगा, भारत का इतिहास लिखेगा. एक देश के रूप में १९४७ में वह एक स्वतंत्र देश तो बन गया लेकिन राष्ट्र के रूप में उसकी स्वतंत्र पहचान बन ही नहीं सकती. वह हमेशा भारतीय राष्ट्र का स्वाभाविक अंग ही रहेगा. इसे अंग्रेजी में इंडियन सब कण्टीनेन्ट और हिन्दी में अखंड भारत की राष्ट्रीयता कही जा सकती है. किसी भी राष्ट्र के लिए मौलिक सभ्यता, संस्कृति और गौरवशाली इतिहास से सुसंपन्न एक भूभाग की आवश्यकता होती है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि दोनों की सभ्यता, संस्कृति और इतिहास साझे हैं. यदि मज़हब ही राष्ट्रीयता की आवश्यक शर्त होती, तो सारे अरब देश एक राष्ट्र होते, बांग्ला देश पाकिस्तान से कभी अलग नहीं होता. पाकिस्तान के निर्माण के लिए गढ़ा गया द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त पूर्णतः अप्राकृतिक और अस्वाभाविक था. यह मुस्लिम सांप्रदायिकता का सबसे वीभत्स चेहरा था, जिसे सत्तालोलूप नेताओं द्वारा स्थापित किया गया और स्वीकार किया गया. पाकिस्तान के बंटवारे ने इस सिद्धान्त की धज्जियां उड़ा दीं. हिन्दू और मुसलमान बंट ही नहीं सकते. दोनों के खान-पान एक जैसे हैं, पहनावा-ओढ़ावा एक जैसा है, रीति रिवाज़ एक जैसे हैं, मान्यताएं एक जैसी हैं, भाषा एक है, बोली एक है, संगीत एक है, साहित्य एक है, रंग-रूप एक है, कद-काठी एक है विरासत एक है, इतिहास एक है.. कुछ ही हजार वर्ष पूर्व दोनों समानधर्मी भी थे. हिन्दुओं और मुसलमानों में समानताएं अधिक हैं, विषमताएं नगण्य. पाकिस्तान का शहादत हसन मंटो किसी भी अरब सहित्यकार की तुलना में प्रेमचन्द के ज्यादा करीब है. कट्टरपन्थी लाख कोशिश करें, वे मौलिकता को नष्ट नहीं कर सकते. पाकिस्तान के कट्टरपन्थी शासक इसी बात से भयभीत रहते हैं. जब भी उनकी गद्दी डगमगाने लगती है, वे भारत के विरुद्ध घृणा का प्रचार तेज कर देते हैं. इतिहास गवाह है, वे अपनी असफलताओं से पाकिस्तानी अवाम का ध्यान हटाने के लिए तीन बार भारत पर आक्रमण भी कर चुके हैं.
पाकिस्तान को भारत से ज्यादा अमेरिका और आतंकवाद से खतरा है. भारत से दुश्मनी करके भी एक देश के रूप में उसका आज का स्वरूप कायम रह सकता है. भारत ने कभी भी उसकी सार्वभौमिकता पर न कभी चोट पहुंचाई है और न कोई प्रश्न चिह्न ही खड़ा किया है. अमेरिका से दोस्ती उसके अस्तित्व के लिए अब भयानक खतरा है. पाकिस्तान इसे न निगल सकता है, न उगल सकता है. गत दस वर्षों से इस्लामिक आतंकवाद को सरकारी संरक्षण और प्रोत्साहन देकर पाकिस्तान ने अनगिनत बार भारत के आन्तरिक मामलों में खुला हस्तक्षेप किया है. कारगिल पर हमला, संसद पर हमला और मुंबई पर हमला भारत की प्रभुसत्ता पर सीधा हमला माना जा सकता था और अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत भारत द्वारा सैन्य कार्यवाही वैध सिद्ध की जा सकती थी. लेकिन भारत ने संयम से काम लिया (अधिकांश भारतवासी इसे कायरता मानते हैं). ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए अमेरिका द्वारा की गई कार्यवाही को पाकिस्तानी शासक सार्वभौमिकता का उल्लंघन नहीं मानते. नित्य ही अमेरिका के ड्रोन विमान उसकी वायुसीमा में घुसकर बम बरसा जाते हैं, पाकिस्तान गंभीरता से मौखिक विरोध भी नहीं कर पाता. जबरा मारे और रोने भी न दे. द्विराष्ट्रवाद के कृत्रिम सिद्धान्त की कमजोर बुनियाद पर निर्मित पाकिस्तान के लिए उसके द्वारा पाला पोसा गया इस्लामिक आतंकवाद ही भस्मासुर सिद्ध होगा. वह अब एक अमेरिकी उपनिवेश बनने की राह में है. पाकिस्तान के शासकों को अब इसका एहसास होने लगा है. लेकिन उन्हें पाकिस्तान की कम, अपनी कुर्सियों की चिन्ता ज्यादा है. आक्रमण पश्चिमोत्तर से हो रहा है, उन्हें सपना पूरब की मिसाइलों का आ रहा है. ओसामा की हत्या के बाद अपनी जनता में उभरे एक, बेबस, लाचार और कमजोर पाकिस्तान की ओर से ध्यान हटाने के लिए उसने भारत को फिर से अपना दुश्मन नंबर एक घोषित कर दिया है. सीमा पर सेना का जमाव करना शुरु कर दिया है. जनता में भारत के विरुद्ध घृणा का सरकारी प्रचार चरम पर है. मुमकिन है विक्षिप्तावस्था में वह मुंबई जैसी किसी आतंकवादी घटना को अंजाम भी दे दे. उसे लतिया अमेरिका रहा है, गुर्रा भारत पर रहा है.
खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे!

Monday, May 2, 2011

पाकिस्तान बेनकाब

आज सवेरे लगभग डेढ़ बजे (दिनांक ०२-०५-२०११) को अमेरिकी सुरक्षा बलों ने पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद से मात्र ६६.७७ किलो मीटर की दूरी पर स्थित एबटाबाद शहर में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन को मार गिराया. यह समाचार संसार के सभी न्यूज चैनलों की सुर्खियां बना हुआ है. अमेरिका का दावा है कि उसने इस अभियान में पाकिस्तानी सरकार, सेना या आई.एस.आई की कोई मदद नहीं ली. अमेरिका और पाकिस्तान हमेशा से झूठ बोलते रहे हैं. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद यदि विश्व में सबसे ज्यादा पाकिस्तान में फल-फूल रहा है, तो यह भी उतना ही सच है कि आतंकवाद को अमेरिका ने भी तबतक संरक्षण दिया, जबतक वह खुद इसका शिकार नहीं बना. ओसामा बिन लादेन अमेरिका का ब्रेन चाइल्ड था. रुस के खिलाफ़ १९८३ से १९८९ तक अमेरिका ने उसका इस्तेमाल अपने हितों के लिए अफ़गानिस्तान में किया. तालिबान और अल कायदा के आतंकवादियों को अमेरिकी और पाकिस्तानी सेना ने न सिर्फ़ प्रशिक्षण दिया, बल्कि आर्थिक मदद भी की. ओसामा बिन लादेन को अमेरिका ने ही भस्मासुर बनाया. अमेरिका इस्लामी आतंकवाद के खतरों को भांपने में पूरी तरह असफल रहा. उसके अनुसार भारत और रुस के खिलाफ़ आतंकवाद ज़ेहाद (धर्मयुद्ध) कहलाता है और अमेरिका के विरुद्ध आतंकवाद घृणित अपराध. अमेरिका ने हमेशा दोहरा मापदंड अपनाया है जिसका कुपरिणाम इस्लामिक आतंकवाद के रूप में पूरे विश्व को भुगतना पड़ रहा है. रुस के चेचेन्या में इस्लामी आतंकवाद को अमेरिकी समर्थन जगजाहिर है. दुनिया के दारोगा बने अमेरिकी राष्ट्रपति ने बड़े गर्व से घोषणा की है कि लादेन के खात्मे में उन्होंने पाकिस्तानी फ़ौज़, सरकार या आई.एस आई. की कोई मदद नहीं ली है. इस काम को उन्होंने अपने बलबूते, अपनी खुफ़िया एजेन्सी की पुख्ता सूचना के आधार पर अंजाम दिया. इससे बड़ा झूठ और हो ही नहीं सकता. एबटाबाद शहर मुख्य रूप से पाकिस्तानी सेना के अवकाश प्राप्त उच्च अधिकारियों द्वारा बसाया गया शहर है. उसमे सेना के रिटायर्ड जनरल सहित सैकड़ों उच्चाधिकारी रहते हैं. वह पाकिस्तान के सर्वोच्च सुरक्षा प्राप्त शहरों में से एक है. लादेन का आवास मध्य शहर में स्थित एक किलानुमा तीन मंजिले भवन में था जिसकी चहारदीवारी १८ फ़ीट ऊंची थी. पाकिस्तान की राजधानी से मात्र ६० किलो मीटर की दूरी पर अमेरिका इतना बड़ा सैन्य अभियान सफलता पूर्वक करे और पाकिस्तानी सरकार को इसकी तनिक भी भनक न हो, इसपर कोई मूर्ख ही विश्वास कर सकता है. राष्ट्रपति ओबामा यह झूठ सिर्फ़ इसलिए बोल रहे हैं कि पाकिस्तानी सरकार को अल कायदा के सीधे आक्रमण और आक्रोश से बचाया जा सके. इसमें वे कितना सफल होंगें, यह तो आनेवाला वक्त ही बताएगा.
पाकिस्तान एक सार्वभौमिक देश है, इसपर अब सन्देह होने लगा है. वह अब अमेरिका का एक उपनिवेश बन चुका है. अमेरिका जब चाहे, जहां चाहे, जिस तरह चाहे, पाकिस्तान की सार्वभौमिकता को तार-तार कर सकता है, पाकिस्तान चूं भी नहीं कर सकता. वह अपने मकड़जाल में बुरी तरह उलझ चुका है. कहने के लिए वह एक आणविक शक्ति है लेकिन उसके सभी आणविक संयंत्र और हथियार अमेरिका की निगरानी में हैं. अमेरिकी सेना पाकिस्तान के किसी भी भूभाग में बेखटके सैन्य अभियान चला सकती है, ड्रोन विमानों से कहीं भी कहर ढा सकती है. जिस ओसामा बिन लादेन को पिछले दस साल से पाकिस्तान ने दामाद की तरह सम्मान के साथ सैन्य सुरक्षा में रखा था, उसे अचानक अमेरिका को सौंपने के पीछे कितनी बड़ी मज़बूरी और कितना बड़ा दबाव रहा होगा, आसानी से समझा जा सकता है. सारे संसार से पिछले दस वर्षों से पाकिस्तान लगातार झूठ बोल रहा था कि लादेन पाकिस्तान में मौजूद नहीं है. तथ्य यह है कि वह पाकिस्तान के सबसे सुरक्षित स्थान में शानोशौकत से रह रहा था. उसकी हर तीन दिन के बाद डायलिसिस कराई जाती थी. पाकिस्तान के हुक्मरान दुनिया और अपनी जनता को कौन सा मुंह दिखाएंगे. सन १९७१ के बाद पाकिस्तान की यह सबसे बड़ी और शर्मनाक हार है. उसका चेहरा बेनकाब हो चुका है. जितना जल्दी हो सके, संयुक्त राष्ट्रसंघ को उसे आतंकवादी देश घोषित कर देना चाहिए. भारत की विदेश नीति की यह परीक्षा की घड़ी है. दाऊद इब्राहीम भी पाकिस्तान में ही छुपा है. क्या भारत अमेरिका जैसी कारवाई कर सकता है? क्या भारत को पाक अधिकृत कश्मीर और सीमावर्ती क्षेत्रों में चल रहे आतंकवादी शिविरों को नष्ट करने का अधिकार नहीं है? मनमोहनी सरकार शायद ही इतना साहस संजो सके. उसे अफ़ज़ल गुरु और कसाब को ब्रियानी खिलाने से फ़ुर्सत कहां?

Tuesday, April 19, 2011

नैतिकता और कानून



दुनिया में ऐसा कोई यंत्र नहीं बना है जिसके माध्यम से हम दूसरों के मन की बातों को जान सकें. अन्ना हजारे दूसरे गांधी बनना चाहते हैं, मीडिया में प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचना चाहते हैं या सचमुच भ्रष्टाचार का पूर्ण उन्मूलन चाहते हैं, यह तो वही जानें, लेकिन प्रस्तावित लोकपाल बिल, जिसके लिए उन्होंने ढाई दिन का अनशन किया था, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण स्थापित करने में कितना सफल हो पाएगा, यह पूर्ण संदेह के घेरे में है. यह बिल आने के पहले ही विवादों से घिर गया है. सरकारी पक्ष से जो मंत्री ड्राफ़्ट कमिटी में नामित किए गए हैं, प्रणव दादा को छोड़ सभी विवादित हैं. कोई २-जी स्कैम को घोटाला मानने के लिए ही तैयार नहीं है, तो कोई सी.वी.सी. की नियुक्ति में अपना दामन दागदार कर चुका है. अन्ना हजारे द्वारा नामित पिता-पुत्र भूषण द्वय भी गंभीर आरोपों के घेरे में हैं. शान्ति भूषण ने पिछले वर्ष अपने एक लेख में कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय के अबतक के मुख्य न्यायाधिशों में आधे भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायाधीशों को भ्रष्ट बनाने में वकीलों की भूमिका सर्वाधिक होती है. लोवर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अधिकांश वकील दलाली ही करते हैं. शान्तिभूषण और मुलायम सिंह के बीच हुई बतचीत की विवादास्पद सीडी में यदि तनिक भी सच्चाई है, तो मुलायम सिंह के लिए दो करोड़ रुपयों में सुप्रीम कोर्ट के जज को खरीदने का शान्तिभूषण द्वारा दिया गया आश्वासन दुर्भाग्यपूर्ण ही नहीं, निन्दनीय भी है. भारत में पुलिस के बाद सर्वाधिक भ्रष्ट पेशा वकिलों का ही है. महात्मा गांधी और डा. राजेन्द्र प्रसाद का युग कब का समाप्त हो चुका है. ये लोग गलत आदमी का मुकदमा हाथ में लेते ही नहीं थे. अब तो पैसे के लिए कोई वकील किसी का भी मुकदमा लड़ सकता है. राम जेठमलानी ने इन्दिरा गांधी के हत्यारे का मुकदमा जी जान से लड़ा था. मुंहमांगी रकम मिलने पर ये लोग दाउद इब्राहीम, कसाब और अफ़ज़ल गुरु के भी वकील बने हैं और आगे भी बन सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट के अधिकांश वकील किसी न किसी सामाजिक संगठन से जुड़े हैं. मानवाधिकार के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आए दर्ज़नों एनजीओ माओवादियों, आतंकवादियों, भ्रष्टाचारियों और देशद्रोहियों को संरक्षण देते हैं. इनमें धन की भूमिका सर्वाधिक है. वकील जितनी फ़ीस लेते हैं, उसका एक चौथाई भी अपनी घोषित आय में नहीं दिखाते हैं. अगर आप आयकर दाता हैं और अपना रिटर्न वकील के माध्यम से दाखिल करते हैं, तो आपको पता होगा कि आयकर बचाने के कितने अवैध नुस्खे इन वकीलों के पास होते हैं. ये लोग आम जनता को भी कानून में व्याप्त छिद्रों का सहारा लेकर भ्रष्टाचार सिखाते हैं. उत्तर प्रदेश के दो कुख्यात पूर्व मुख्य सचिव अखंड प्रताप सिंह और नीरा यादव भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के तहत गिरफ़्तार किए गए, कुछ दिन इन्होंने जेल में बिताए भी, लेकिन काबिल वकीलों ने इन्हें ज़मानत पर छुड़ा लिया. इनकी अवैध संपत्ति भी ज़ब्त नहीं की गई. ये दोनों अमृतपान करके तो आए नहीं हैं. शेष जीवन ये कदाचार से अर्जित धन के सहारे अपने बन्धु-बान्धवों और बाल-बच्चों के साथ ऐश से बिताएंगें. मरने के बाद सारे मुकदमें अपने आप समाप्त हो जाएंगें.
भारतीय समाज सिर्फ़ सरकारी कानून के अनुसार नहीं चलता है. देश में यह कानून है कि कोई भी व्यक्ति एक पत्नी के जीवित रहते या बिना तलाक लिए दूसरी शादी नहीं कर सकता. इस कानून की धज्जियां उड़ाते हुए करुणानिधि एक मृत और दो जीवित पत्नियों के पति होने के साथ-साथ तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद पर विराजमान हैं. पूर्व केन्द्रीय मंत्री राम विलास पासवान की पहली बिहारी पत्नी अभी जीवित हैं, उनसे पासवान जी का तलाक भी नहीं हुआ है, लेकिन दिल्ली में वे एक और पत्नी रखे हुए हैं. फ़िल्म अभिनेता धर्मेन्द्र ने मज़हब बदलकर हेमा मालिनी से दूसरी शादी की. नैतिकता का दंभ भरनेवाली भाजपा ने दोनों को सांसद बना दिया. औरतों के अधिकारों के लिए झंडा उठाने वाली शबाना आज़मी ने पहली पत्नी के रहते हुए जावेद अख्तर से दूसरी शादी की. प्रगतिशील मंचों ने उन्हें नेता बना दिया. आज भी हमारा समाज अपनी स्थापित मान्यताओं, परंपराओं और सामाजिक व्यवस्थाओं के आधार पर चलता है. अपने देश के आयातित कानून यहां की परिस्थितियों, संस्कृति और मान्यताओं के अनुकूल नहीं हैं, इसीलिए बेअसर हैं. सख्त से सख्त कानून बनाकर भी किसी को चरित्रवान नहीं बनाया जा सकता, नैतिकता अन्तःप्रेरणा से आती है. जिस गीता और कुरान को हिन्दू और मुसलमान पवित्रतम ग्रन्थ मानते हैं, हमारी न्याय प्रणाली ने उसको छूकर आम नागरिकों को झूठ बोलना सिखा दिया है. पहले पाठ्य पुस्तकों में राम, कृष्ण, गौतम, महावीर की कहानियां अवश्य रहा करती थीं, अब धर्मनिरपेक्षता के फ़ैशन ने इन्हें पाठ्य पुस्तकों से अलग कर दिया है. नैतिक शिक्षा के नाम पर छात्रों को ट्रैफ़िक के नियम पढ़ाए जाते हैं. क्या कोई बता सकता है कि कोर्ट में गीता, कुरान और बाइबिल का प्रयोग धर्मनिरपेक्षता की परिधि में आता है, लेकिन इन पवित्र ग्रन्थों में वर्णित नैतिक शिक्षा को पाठ्यक्रम में शामिल कर भारत के भावी नागरिकों को चरित्रवान बनाना, साम्प्रदायिकता की श्रेणी में क्यों आता है? माता-पिता के चरण-स्पर्श करना, बड़ों को सम्मान देना, कर्म को ही पूजा मानना (निष्काम कर्मयोग), सभी के लिए समभाव रखना, अर्थोपार्जन में ईमानदारी, ब्रह्मचर्य और चरित्रबल क्या हिस्ट्री, ज्योग्राफ़ी, फिजिक्स, केमीस्ट्री, इंजीनियरिंग, मेडिकल या प्रबंधन की पुस्तकों से सीखा जा सकता है? धर्म मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाता है. भारत को धर्मनिरपेक्षता की नहीं सर्वधर्म समभाव की आवश्यकता है. हमें इस्लाम की समानता, ईसाइयों का सेवा-भाव, हिन्दुओं की निष्काम कर्मयोग सहित सहिष्णुता और बौद्धों की अहिंसा की एक साथ आवश्यकता है. महात्मा गांधी ने नैतिकता का मूल्य गहराई से समझा था. उनके व्यक्तित्व में जो भी अच्छाइयां थीं, उनका श्रेय वे गीता और रामायण को ही देते थे. रामराज्य उनका अभीष्ट था. उनकी कांग्रेस में अनैतिक व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं था. उनके आश्रम की पूरी दिनचर्या कार्यकर्ताओं को सुसंस्कार और धर्म से जोड़ती थी. वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यकर्ताओं में चरित्र-निर्माण का सफल प्रयास कर रहा है. चरित्रवान नागरिक ही भ्रष्टाचारमुक्त सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं. यह सीधा, सरल सूत्र हमारे अन्ना हजारे जी की समझ में जितनी जल्दी आ जाय, उतना ही अच्छा. शुभस्य शीघ्रम.

Tuesday, April 12, 2011

खोदा पहाड़, निकली चुहिया

कपिल सिब्बल और दिग्विजय सिंह, कांग्रेस के ये दो नेता अनर्गल प्रलाप के लिए ही ज्यादा जाने जाते हैं. आम जनता इनकी बातों को गंभीरता से कम ही ग्रहण करती है. लेकिन लोकपाल बिल के संबंध में कपिल सिब्बल का यह कथन कि अगर कोई गरीब बच्चा साधन के अभाव में स्कूल जाने से वंचित रह जाता है, एक गरीब आदमी धन के अभाव में उचित चिकित्सा न मिलने के कारण दम तोड़ देता है, तो ऐसे में लोकपाल बिल क्या उसके किसी काम आ सकता है, अत्यन्त विचारणीय है. अन्ना हज़ारे की इच्छाओं के अनुरूप यदि लोकपाल बिल पास हो जाता है, लागू भी हो जाता है, तो क्या भ्रष्टाचार रुक जाएगा? इस देश में दहेज विरोधी कानून, बलात्कार विरोधी कानून, हत्या विरोधी कानून वर्षों से अस्तित्व में हैं. क्या किसी भी घटना में कोई कमी आई है? अन्ना हजारे को मालूम हो या न हो, लेकिन सभी सरकारी कर्मचारियों को यह मालूम होगा कि भ्रष्टाचार, कदाचार और वित्तीय अनियमितताओं की जांच के लिए प्रत्येक प्रान्त में महालेखाकार (एकाउन्टेन्ट जेनेरल) की अधिकार प्राप्त आडिट टीमें प्रत्येक विभाग की सभी इकाइयों में हर साल आडिट करती हैं. इन अधिकार प्राप्त टीमों की रिपोर्ट पर सीधी कर्यवाही करना अनिवार्य होता है. लेकिन ये टीमें किस तरह आडिट करती हैं, सबको ज्ञात है. आने के पूर्व ही उनकी आवभगत शुरु हो जाती है. उन्हें स्टेशन से लेना, अच्छे होटल में ठहराना, उनके नाश्ते-खाने-पीने की सर्वोत्तम व्यवस्था करना और आडिट के समय कार्यालय में ड्राई फ्रुट्स, वेट फ्रुट्स, मिठाई, नमकीन और शीतल-उष्ण पेयों की हर पंद्रह मिनट के बाद व्यवस्था करना आडिट कराने वाली इकाई की जिम्मेदारी होती है. आडिट पार्टी रस्मादायगी के लिए कुछ रफ़ नोट्स भी बनाती हैं जिसे डिसकशन के बाद ड्राप भी कर दिया जाता है. चलते चलाते आडिट पार्टी को दक्षिणा के रूप में वापसी के वातानुकूलित क्लास के टिकट के साथ इच्छित धनराशि भेंट में दी जाती है. ये सारे खर्चे किसी अधिकारी या कर्मचारी की ज़ेब से नहीं होते. ये सभी खर्च उस इकाई को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवंटित मद के ओ ऐंड एम (आपरेशन ऐंड मेन्टेनैन्स) के सरकारी पैसे से ही किए जाते हैं. इस तरह हर वर्ष एकाउंटेन्ट जनरल द्वारा आडिट किए जाने की रस्म अदायगी भ्रष्टाचार में एक और नगीना जोड़कर पूरी की जाती है.
जब लेनेवाले और देनेवाले में सहर्ष आपसी सहमति बन जाती है, तो भ्रष्टाचार, सदाचार बन जाता है, परंपरा बन जाती है. कोर्ट-कचहरी, नगरपालिका, अस्पताल, स्कूल, बिजली, जलकल, पुलिस, ब्लाक, जिला मुख्यालय, सचिवालय.............ऐसी कौन सी जगह है जहां अवैध लेन-देन ने दस्तूर का रूप नहीं ले लिया है. टेंडर, ठेकेदारी और सुविधा शुल्क ने कहां पैर नहीं फैलाया है? रेल, खेल, सेल, भेल.................कितने विभागों का नाम गिनाया जाय. किस परीक्षा का प्रश्न-पत्र गोपनीय रह गया है? फ़र्जी पायलट हवाई जहाज उड़ा रहे हैं. मनरेगा ने ग्राम प्रधानों को राजा बना दिया और और सांसद-विधायक निधियों ने जन प्रतिनिधियों को महाराजा. अन्ना हजारे सहब! लोकपाल बिल की ड्राफ़्ट कमिटी में अपने चमचे शान्ति भूषण और उनके बेटे प्रशान्त भूषण को नामित करा देने भर से नेताओं और नौकरशाहों में व्याप्त भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश लग पाएगा, इसमें संदेह ही संदेह है. देश में दावानल की तरह फैल रही गरीबी, बेरोजगारी, कुपोषण, अशिक्षा, शोषण, जनसंख्या विस्फोट और कदाचार को दूर करने में यह बिल कितना सार्थक हो पाएगा, क्या इसका उत्तर किसी के पास है?
अन्ना साहब को न भारत की जानकारी है, न भारत की मूल समस्याओं की. इंडिया शाइनिंग के कुछ ग्लैमर पसंद कार्यकर्त्ता, कारपोरेट घरानों से नियंत्रित मीडिया और सरकार की सहयता से चलाया गया आन्दोलन कभी प्रभावकारी नहीं हो सकता. हिन्दुस्तान की असली समस्या यहां पर लागू आयातित संविधान है. हमारी न्याय प्रणाली और इंडियन पेनल कोड आज भी वही है जो अंग्रेजों ने बनाया था. ब्यूरोक्रेसी में आई.सी.एस का नाम बदलकर आई.ए,एस. कर दिया गया, लेकिन मानसिकता और कार्यप्रणाली में रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया. शिक्षा के क्षेत्र में हम पहले से ज्यादा गुलाम नज़र आते हैं. अंग्रेजी ने हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं को लील लिया है. अपने देश की संसद की कर्यवाही देखकर ऐसा लगता है जैसे हम इंगलैंड के हाउस आफ़ कामन्स में बैठे हों. जिनको अंग्रेजी नहीं आती है, वे सांसद हाथ उठाने के अलावा पूरे पांच साल तक सदन में एक शब्द भी नहीं बोलते.यह वही संसद है जहां लालू और मुलायम की हिन्दी का अक्सर मज़ाक उड़ाया जाता है. जबतक भारत की बहुसंख्यक जनता की अभिलाषाओं के अनुसार शुद्ध भारतीय संविधान नहीं बनाया जाता, कोई भी बिल निरर्थक सिद्ध होगा. अन्ना साहब! हिम्मत हो तो इस दिशा में कार्य कीजिए. आपका आन्दोलन सरकार के साथ नूरा कुश्ती थी. पूंजीवादी प्रचार तंत्र ने इसे दूसरी आज़ादी का आन्दोलन कहा. ड्राफ़्ट कमिटी में अपने आदमियों को रखवाने की मांग बहुत साफ़्ट डिमांड थी. इसे मान लेने में सरकार को क्या कठिनाई हो सकती थी. आपसे जनता की अपेक्षाएं अचानक बढ़ गई थीं. लेकिन हुआ क्या? खोदा पहाड़, निकली चुहिया. गांधीजी ने सीना ठोककर आज़ादी के बाद स्वदेशी के रास्ते रामराज्य की स्थापना की घोषणा की थी. यह बात दूसरी है कि उनकी असामयिक मृत्यु के बाद उनके मानस पुत्रों ने ही उनके सिद्धान्तों, आदर्शों और व्यवस्थाओं की धज्जियां उड़ा दी. गोड्से ने गांधी के शरीर की हत्या की थी, नेहरू-इन्दिरा परिवार ने उनकी आत्मा की हत्या की है. क्या बिना स्वदेशी और समाजवाद के भारत के उत्थान की कल्पना की जा सकती है, रामराज्य का सपना देखा जा सकता है? खादी के झकझक सफ़ेद कपड़े, और टोपी पहनकर ढाई दिन के अनशन के बाद कोई गांधी या जयप्रकाश नहीं बन सकता, सरकारी सन्त जरुर बन सकता है.

Wednesday, April 6, 2011

हम विश्वव-विजेता हैं

वर्षों बाद एक परिणाम जिसने सभी भारतीयों को एक साथ एक बहुत बड़ी खुशी का तोहफ़ा दिया, वह था क्रिकेट का वर्ल्ड कप. चाहे कितने भी राजनीतिक मतभेद रहे हों, कितनी भी क्षेत्रीयता रही हो, कितनी भी भाषाएं रही हों, आपस में कितनी भी प्रतिद्वंद्विता रही हो, सारे भारतवासी विगत शनिवार, दो, अप्रिल की रात में नींद को त्याग झूम रहे थे - एक साथ, एक ही समय, एक ही मस्ती में. कभी-कभी शक होने लगता है कि विविधताओं का यह देश वाकई एक राष्ट्र है भी क्या? क्रिकेट को देखकर विश्वास दृढ़ हो जाता है कि यह एक अति प्राचीन राष्ट्र है और रहेगा भी. क्रिकेट है तो फ़िरंगियों का खेल, जिन्होंने हमारी राष्ट्रीयता को खंडित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें सपने में भी यह आभास नहीं रहा होगा कि अंग्रेजियत का ध्वजवाहक यह खेल ही भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में सबसे सहायक सिद्ध होगा. आज यह खेल भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक बन चुका है.
भारत में क्रिकेट ने एक लंबी यात्रा तय की है. शुरु में यह राजे-रजवाड़ों और अंग्रेजीपरस्त अमीरज़ादों का ही खेल था. आम जनता न इसे खेलती थी, न देखती थी और न सुनती ही थी. १९६९ तक इसकी कमेन्ट्री सिर्फ़ अंग्रेजी में की जाती थी. नवाब पटौदी (जूनियर) तक यह खेल उच्च वर्ग के भी सर्वोच्च वर्ग तक ही सीमित था. टीम में शामिल खिलाड़ी सिर्फ़ टेस्ट मैच में ही मिलते थे, पांच दिनों के लिए. फिर अलग हो जाते थे. टेस्ट मैच भी हर वर्ष नहीं हुआ करते थे. कप्तान खिलाड़ियों के साथ रहना पसंद नहीं करता था. नवाब पटौदी अपनी कप्तानी के दौरान टास के कुछ घंटे पूर्व विशेष विमान से आते थे, शेष खिलाड़ी ट्रेन से. वे अन्य खिलाड़ियों से अलग किसी पंचसितारा होटल में रुकते थे. सभी खिलाड़ी अपना-अपना खेल खेलते थे. चयन में क्षेत्रीयता और पूर्वाग्रह का बोलबाला था. बिहार और यू.पी. का खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने के विषय में सोच भी नहीं सकता था. बिहार की ओर से ढेरों रण्जी ट्राफ़ी के मैच खेलने वाले, कई राष्ट्रीय रिकार्ड अपने नाम करने वाले अद्वितीय प्रतिभाशाली बल्लेबाज़ रमेश सक्सेना को मात्र एक टेस्ट मैच में अवसर दिया गया. रण्जी ट्राफ़ी में में वे लगातार डबल सेन्चुरी और ट्रीपल सेण्चुरी बनाते रहे लेकिन उन्हें दूध की मक्खी की तरह हमेशा की तरह राष्ट्रीय टीम से बाहर कर दिया गया. विख्यात लेग स्पिनर और गुगली विशेषज्ञ आनन्द शुक्ला राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने के लिए जीवन भर तरसते ही रहे. अनगिनत हिन्दी भाषी खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट के दरवाज़े पर दस्तक देते-देते बूढ़े हो गए लेकिन बंबई के एकाधिकार वाला क्रिकेट बोर्ड उनकी पुकार अनसुनी करता रहा. १९७० में सामन्तवादी दीवारें कमजोर पड़ीं. वाडेकर के नेतृत्व में गावास्कर के उदय ने भारत को जीत का स्वाद चखाया. हरियाणा के अनगढ़ देहाती जाट कपिल ने जिसे अच्छी तरह अंग्रेजी बोलना भी नहीं आता था, १९८३ में जब सात समुन्दर पार लंदन के लार्ड्स स्टेडियम में विश्व-विजेता वेस्ट इंडीज को हराकर क्रिकेट का विश्व कप भारत के नाम किया, तब भारतियों को पहली बार यह एहसास हुआ कि वे भी क्रिकेट खेल सकते हैं. गांव के बढ़ई से बल्ला बनवाकर, रबर की गेंद से गांव के किशोर आम के बगीचे में क्रिकेट खेलने लगे. क्रिकेट आम जनता का खेल बन गया. अगर यह राजे-रजवाड़ों और अंग्रेजियत में सीमित रहता, तो विश्व कप हमारे लिए सपना ही होता. क्या रांची के हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन के पंप आपरेटर पान सिंह का बेटा महेन्द्र सिंह धोनी टीम इंडिया का कप्तान बनने का सपना देख सकता था? क्या एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का छोटा किशोर सचिन तेन्दूलकर विश्व क्रिकेट का सिरमौर बन सकता था?
क्रिकेट आज आम जनता का सबसे लोकप्रिय खेल बन चुका है. परिणाम समने है - भारत संसार में नंबर एक है. टेस्ट क्रिकेट, एक दिवसीय और टी-२० - सबकी चैंपियनशीप हमारे पास है. हम विश्व विजेता हैं. भारत के सभी प्रान्तों, सभी संप्रदाय, सभी भाषाओं और सभी नागरिकों को इसने एक सूत्र में पिरो दिया है. धोनी और तेन्दूलकर सबके प्यारे हैं, चाहे वे कांग्रेसी हों, भाजपाई हों, मार्क्सवादी हों, ममताई हों. बड़े धैर्य के साथ यह सीमा के पार भी शान्ति और भाईचारे का प्रभावी संदेश प्रेषित कर रहा है. पत्थर पिघलने लगे हैं.
राजनीति तोड़ती है, पूरब को पच्छिम से,
क्रिकेट है जोड़ती, उत्तर को दक्खिन से.


Thursday, March 17, 2011

एटमी करार और सांसदों की खरीद-फ़रोख्त

पिछले सात-आठ वर्षों के घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि केन्द्रीय सरकार का सत्ता केन्द्र कहीं और है. मनमोहन सिंह मात्र कठपुतली हैं, डोर कहीं और से खींची जाती है. अगर इस डोर का स्रोत देश में ही कहीं होता, तो बात उतनी गंभीर नहीं थी, लेकिन विकिलीक्स के ताजे खुलासे ने यह सिद्ध कर दिया है कि सत्ता के संचालन का मुख्य केन्द्र अमेरिका में है. वहां से जारी निर्देशों का अनुपालन, वाया १०,जनपथ, हमारे बेबस प्रधानमंत्री करते हैं.
सन २००८ में, अमेरिका समर्थित एटमी बिल पास कराने के समय सरकार पर अविश्वास मत के दौरान आए संकट को टालने के लिए सांसदों की जमकर खरीद-फरोख्त की गई थी. उस समय पेशी में दिए गए लाखों रुपयों की गड्डियां संसद में लहराकर भाजपा सांसदों ने सनसनी फैला दी थी, लेकिन अमेरिका समर्थित मीडिया ने इसकी जमकर खिल्ली उड़ाई थी. ऐसा प्रचार किया जा रहा था, जैसे एटमी बिल पास होते ही, देश को अनन्त ऊर्जा मिलने लगेगी, आवश्यकता से अधिक बिजली पैदा होगी, देश विकास के सोपान पर चढ़ने लगेगा और पश्चिमी देशों की तरह समृद्धि उसके कदम चूमने लगेगी. जिसने भी उसका विरोध किया, उसे खलनायक बनाकर पेश किया गया. सोमनाथ चटर्जी और ए.पी.जे.कलाम भी इस कूट चाल को समझ नहीं पाए. ऐसा नहीं कि अमेरिकी धन का उपयोग सिर्फ़ सांसदों को खरीदने में किया गया, मीडिया पर भी करोड़ों रुपए खर्च किए गए.
सोनिया गांधी के परम विश्वासपात्र कैप्टेन सतीश शर्मा के सहयोगी नचिकेता कपूर ने सरकार द्वारा विश्वास मत प्राप्त करने के बाद अपने आका अमेरिकी राजदूत को इसकी सूचना देते हुए बताया कि इस प्रकरण में उस समय तक पचास करोड़ खर्च हो चुके थे. विकिलीक्स ने अपने ताज़े खुलासे में इसी सत्य की पुष्टि की है. अजीत सिंह समेत राष्ट्रीय लोकदल के सांसदों को खरीदने के लिए प्रति सांसद दस करोड़ रुपए दिए गए. हर पार्टी के बिकाऊ सांसदों को खरीदने का जिम्मा अमर सिंह ने अंबानियों की मदद से उठाया. अमर सिंह का नार्को टेस्ट कराया जाय, तो सच बिल्कुल सामने आ जाएगा. मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को संकट में डाला था. इसमें उनका कोई निजी हित रहा हो. ऐसा भी नहीं था. वैसे भी मनमोहन सिंह अपनी मर्जी से क्या करते हैं? वे बहुत अच्छे यस मैन हैं. अमेरिका और सोनिया गांधी की जो इच्छा थी, उन्होंने वही किया. लगा दी दांव पर अपनी सरकार. अगर यह जूआ वे नहीं खेलते तो एकदिन भी प्रधानमंत्री नहीं रहते. खेल लिया तो दूसरी पारी भी पा गए. उनका पूरा कार्यकाल ही सौदेबाज़ी का रहा है. बाज़ी बिछाई गई, १०, जनपथ के इशारे पर. पासा फेंकने के लिए सतीश शर्मा, नचिकेता कपूर, मुकेश अंबानी और अमर सिंह तो कमर कसके पहले से ही तैयार थे. अब भेद खुल गया है तो मनमोहन सिंह जम्मू की एक और यात्रा कर लेंगे, सारी जिम्मेदारी अपने सिर ले लेंगे.
भ्रष्टाचार और कांग्रेस का बड़ा गहरा नाता है. इन्दिरा गांधी द्वारा रोपा गया यह नन्हा बिरवा खाद-पानी और उचित रखरखाव पाकर वटवृक्षों का विशाल वन बन चुका है. किसी भी कांग्रेसी को काले धन से परहेज़ नहीं. अपनी सरकार के खिलाफ़ जीत के लिए पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव द्वारा शिबू सोरेन समेत झारखंड मुक्ति मोरचे के सांसदों की संसद भवन में संपन्न खरीद-फ़रोख्त को कौन भूल सकता है? कांग्रेस ने भ्रष्टाचार की ऐसी गंगा बहा दी है, जिसमें उसके धुर विरोधी भी मौका पाते ही डुबकी लगाने से नहीं चुकते. अब भ्रष्टाचार के खिलाफ़ जनमानस भी उद्वेलित नहीं होता. इसे सामाजिक स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस सफल रही है. कांग्रेस और भ्रष्टाचार के सबसे बड़े शत्रु राम मनोहर लोहिया के शिष्य लालू-मुलायम इस दौड़ में एक दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में हैं. एटमी बिल के समर्थन में एकाएक खड़े हो जाने वाले सभी व्यक्तियों और दलों की भूमिका संदिग्ध है.
अमेरिका से एटमी करार के बाद भी हमें क्या मिला? कितने परमाणु बिजली घरों का निर्माण हुआ? आणविक ऊर्जा ने हमारे पावर ग्रिड में कितने मेगावाट का योगदान किया. प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करार के बाद अभी तक एक भी नया परमाणु बिजली घर अस्तित्व में नहीं आया. रुस के चेर्नोबिल और जापान के फुकुशिमा आणविक बिजली घरों में विस्फोट के बाद रिसाव के कारण फैल रहे विकिरण से विश्व समुदाय की आंखें खुल जानी चाहिए. न्यूक्लियर कंट्रोल ब्रीफ़केस अपनी कांख में दबाए अमेरिका के राष्ट्रपति विश्व-भ्रमण करते रहें. वे ट्रिगर दबाएं या न दबाएं, सुनामी ट्रिगर दबा ही देगी. परमाणु ऊर्जा, चाहे वह बिजली घर के रूप में हो या परमाणु बम के - सर्वथा त्याज्य है.

Saturday, March 5, 2011

ज़िन्दा कौमें पांच साल इन्तज़ार नहीं करतीं

आखिर दूसरे का पाप कबतक अपने सिर पर ढोते रहेंगे मनमोहन सिंह? क्या भारत के किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में इतनी भयंकर अनियमितताएं, इतने अधिक भ्रष्टाचार और इतनी ज़्यादा बेबसी का रिकार्ड रहा है? प्रधानमंत्री की आड़ में कौन शासन कर रहा है, कौन नैतिकता की मर्यादाओं को ताक पर रखकर अपने निर्णय लागू करवा रहा है? देश और जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है. पी.जे.थामस, जैसा नाम से ही स्पष्ट है, मनमोहन सिंह के रिश्तेदार नहीं हो सकते. वे उनकी जाति, पंथ या प्रांत के भी नहीं हैं. उनकी औकात नहीं कि मनमोहन सिंह को रिश्वत देकर खरीद सकें. फिर कौन सी मज़बूरी थी जिसने प्रधानमंत्री को विपक्ष की नेता की लिखित असहमति को दरकिनार कर पी.जे.थामस जैसे भ्रष्ट और दागी व्यक्ति को मुख्य सतर्कता आयुक्त के संवैधानिक पद पर नियुक्त करने के लिए विवश किया? क्या सोनिया गांधी से थामस की घनिष्ठता ही उनकी नियुक्ति के लिए पर्याप्त योग्यता नहीं मानी गई? क्या चिदंबरम कांग्रेस की राजमाता के निर्देशों पर चित्त नहीं हुए? क्या मनमोहन की बासुरी में फूंक १०, जनपथ से नहीं भरी गई? क्या प्रधानमंत्री में लेषमात्र भी स्वाभिमान शेष है? क्या देश ने ऐसा कठपुतली और बेबस प्रधानमंत्री अपने इतिहास में पहले कभी देखा था?
उच्चतम न्यायालय ने जैसी कठोर टिप्पणियों के साथ केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर पी.जे.थामस की नियुक्ति खारिज़ की है, उससे केन्द्रीय सरकार और विशेष रूप से प्रधानमंत्री के लिए मुंह छुपाना भी मुश्किल हो गया है. वास्तव में यह मनमोहन सिंह के गाल पर प्रत्यक्ष और सोनिया गांधी के गाल पर परोक्ष जोरदार तमाचा है. न्यायपालिका के इस प्रहार के साथ ही केन्द्र सरकार की बची-खुची प्रतिष्ठा भी मिट्टी में मिल गई है.
१९७३ बैच के आई.ए.एस. अधिकारी, थामस को २००५-०६ में सी.वी.सी पद के लिए अयोग्य मानते हुए उनकी दावेदारी को निरस्त कर दिया गया था, लेकिन २००८ में फिर से उन्हें इस पद के दावेदारों में शामिल कर लिया गया और अन्ततः सितम्बर २०१० में उनके नाम पर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने विपक्ष की नेता की असहमति को दरकिनार करते हुए अंतिम मुहर लगा दी. इस मामले से उनलोगों का भी मुखौटा उतरा है जो थामस को लगातार प्रोन्नति देते गए और जिनलोगों की कृपा से थामस एडीशनल सेक्रेटरी, चीफ सेक्रेटरी होते हुए सेक्रेटरी भारत सरकार और अन्त में सीवीसी के पद तक पहुंच गए. थामस की नियुक्ति के मामले में सबसे विचित्र बात रही है कि गलती का एहसास होने के बाद भी इसे स्वीकार नहीं किया गया. जो अनजाने में गलती करता है, वह क्षमा के योग्य हो सकता है, लेकिन जो जानबूझकर जीती मक्खी निगलता है, वह सहानुभूति का पात्र नहीं हो सकता. अच्छा होता, सर्वोच्च न्यायालय ने मनमोहन सिंह और पी. चिदंबरम के लिए उचित दंड की भी व्यवस्था की होती. सरकार ने ऐसा ही रवैया २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले में भी अपनाया था. तरह-तरह के कुतर्क देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि २-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कोई गड़बड़ी नहीं हुई. सीएजी रिपोर्ट को ही कपिल सिब्बल ने खारिज़ कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में भी हस्तक्षेप करना पड़ा. सिब्बल को फटकार मिली, राजा को जेल जाना पड़ा और सरकार को विपक्ष की मांग के आगे घुटने टेकने पड़े. संसद के एक सत्र को बलि चढ़ाने के बाद संयुक्त संसदीय समिति का गठन करना ही पड़ा.
सरकार भ्रष्टाचार के मामलों में तनिक भी गंभीर नहीं है. भ्रष्टाचारियों को पकड़ने के बदले उनके कृत्यों पर लीपापोती करने का प्रयास इतनी नसीहतों के बाद भी पूर्ववत जारी है. काले धन के मामले में भी सरकार का रवैया गले उतरने वाला नहीं है. भारत के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी और टैक्स चोर हसन अली के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी कि उसे अभी तक गिरफ़्तार क्यों नहीं किया गया? उससे गंभीरता से पूछताछ क्यों नहीं की गई? सरकार की लापरवाही और हसन की गिरफ़्तारी न होने के कारण वह अपने काले धन का करीब ३०-३५ हज़ार करोड़ रुपए स्विस बैंकों से निकालकर सुरक्षित ठिकानों मे पहुंचा चुका है. यदि हसन अली गिरफ़्तार होता तो उसे यह मौका नहीं मिलता और दूसरी तमाम जानकारियां भी सरकार को मिल सकती थीं, जिनके आधार पर काले धन को वापस लाया जा सकता था. हसन अली देश के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए अपने काले धन को सुरक्षित करने में जुटा है और सरकार सोई हुई है.
आज यह एक ज्वलन्त प्रश्न है कि सरकार आखिर किसकी है - भ्रष्टाचारियों की, काला बाज़ारियों की, रिश्वतखोरों, चापलूसों और कारपोरेट घरानों की या जनता की? लोहिया ने कहा था कि ज़िन्दा कौमें पांच साल तक इंतज़ार नहीं करतीं. पूर्णतया श्रीहीन हो चुकी इस कठपुतली सरकार को बदलने के लिए जनता को क्या पांच साल इंतज़ार करना चाहिए? यह एक यक्ष प्रश्न है जिसपर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है.