Wednesday, April 6, 2011

हम विश्वव-विजेता हैं

वर्षों बाद एक परिणाम जिसने सभी भारतीयों को एक साथ एक बहुत बड़ी खुशी का तोहफ़ा दिया, वह था क्रिकेट का वर्ल्ड कप. चाहे कितने भी राजनीतिक मतभेद रहे हों, कितनी भी क्षेत्रीयता रही हो, कितनी भी भाषाएं रही हों, आपस में कितनी भी प्रतिद्वंद्विता रही हो, सारे भारतवासी विगत शनिवार, दो, अप्रिल की रात में नींद को त्याग झूम रहे थे - एक साथ, एक ही समय, एक ही मस्ती में. कभी-कभी शक होने लगता है कि विविधताओं का यह देश वाकई एक राष्ट्र है भी क्या? क्रिकेट को देखकर विश्वास दृढ़ हो जाता है कि यह एक अति प्राचीन राष्ट्र है और रहेगा भी. क्रिकेट है तो फ़िरंगियों का खेल, जिन्होंने हमारी राष्ट्रीयता को खंडित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. उन्हें सपने में भी यह आभास नहीं रहा होगा कि अंग्रेजियत का ध्वजवाहक यह खेल ही भारत को एकता के सूत्र में पिरोने में सबसे सहायक सिद्ध होगा. आज यह खेल भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक बन चुका है.
भारत में क्रिकेट ने एक लंबी यात्रा तय की है. शुरु में यह राजे-रजवाड़ों और अंग्रेजीपरस्त अमीरज़ादों का ही खेल था. आम जनता न इसे खेलती थी, न देखती थी और न सुनती ही थी. १९६९ तक इसकी कमेन्ट्री सिर्फ़ अंग्रेजी में की जाती थी. नवाब पटौदी (जूनियर) तक यह खेल उच्च वर्ग के भी सर्वोच्च वर्ग तक ही सीमित था. टीम में शामिल खिलाड़ी सिर्फ़ टेस्ट मैच में ही मिलते थे, पांच दिनों के लिए. फिर अलग हो जाते थे. टेस्ट मैच भी हर वर्ष नहीं हुआ करते थे. कप्तान खिलाड़ियों के साथ रहना पसंद नहीं करता था. नवाब पटौदी अपनी कप्तानी के दौरान टास के कुछ घंटे पूर्व विशेष विमान से आते थे, शेष खिलाड़ी ट्रेन से. वे अन्य खिलाड़ियों से अलग किसी पंचसितारा होटल में रुकते थे. सभी खिलाड़ी अपना-अपना खेल खेलते थे. चयन में क्षेत्रीयता और पूर्वाग्रह का बोलबाला था. बिहार और यू.पी. का खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने के विषय में सोच भी नहीं सकता था. बिहार की ओर से ढेरों रण्जी ट्राफ़ी के मैच खेलने वाले, कई राष्ट्रीय रिकार्ड अपने नाम करने वाले अद्वितीय प्रतिभाशाली बल्लेबाज़ रमेश सक्सेना को मात्र एक टेस्ट मैच में अवसर दिया गया. रण्जी ट्राफ़ी में में वे लगातार डबल सेन्चुरी और ट्रीपल सेण्चुरी बनाते रहे लेकिन उन्हें दूध की मक्खी की तरह हमेशा की तरह राष्ट्रीय टीम से बाहर कर दिया गया. विख्यात लेग स्पिनर और गुगली विशेषज्ञ आनन्द शुक्ला राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने के लिए जीवन भर तरसते ही रहे. अनगिनत हिन्दी भाषी खिलाड़ी टेस्ट क्रिकेट के दरवाज़े पर दस्तक देते-देते बूढ़े हो गए लेकिन बंबई के एकाधिकार वाला क्रिकेट बोर्ड उनकी पुकार अनसुनी करता रहा. १९७० में सामन्तवादी दीवारें कमजोर पड़ीं. वाडेकर के नेतृत्व में गावास्कर के उदय ने भारत को जीत का स्वाद चखाया. हरियाणा के अनगढ़ देहाती जाट कपिल ने जिसे अच्छी तरह अंग्रेजी बोलना भी नहीं आता था, १९८३ में जब सात समुन्दर पार लंदन के लार्ड्स स्टेडियम में विश्व-विजेता वेस्ट इंडीज को हराकर क्रिकेट का विश्व कप भारत के नाम किया, तब भारतियों को पहली बार यह एहसास हुआ कि वे भी क्रिकेट खेल सकते हैं. गांव के बढ़ई से बल्ला बनवाकर, रबर की गेंद से गांव के किशोर आम के बगीचे में क्रिकेट खेलने लगे. क्रिकेट आम जनता का खेल बन गया. अगर यह राजे-रजवाड़ों और अंग्रेजियत में सीमित रहता, तो विश्व कप हमारे लिए सपना ही होता. क्या रांची के हेवी इंजीनियरिंग कारपोरेशन के पंप आपरेटर पान सिंह का बेटा महेन्द्र सिंह धोनी टीम इंडिया का कप्तान बनने का सपना देख सकता था? क्या एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का छोटा किशोर सचिन तेन्दूलकर विश्व क्रिकेट का सिरमौर बन सकता था?
क्रिकेट आज आम जनता का सबसे लोकप्रिय खेल बन चुका है. परिणाम समने है - भारत संसार में नंबर एक है. टेस्ट क्रिकेट, एक दिवसीय और टी-२० - सबकी चैंपियनशीप हमारे पास है. हम विश्व विजेता हैं. भारत के सभी प्रान्तों, सभी संप्रदाय, सभी भाषाओं और सभी नागरिकों को इसने एक सूत्र में पिरो दिया है. धोनी और तेन्दूलकर सबके प्यारे हैं, चाहे वे कांग्रेसी हों, भाजपाई हों, मार्क्सवादी हों, ममताई हों. बड़े धैर्य के साथ यह सीमा के पार भी शान्ति और भाईचारे का प्रभावी संदेश प्रेषित कर रहा है. पत्थर पिघलने लगे हैं.
राजनीति तोड़ती है, पूरब को पच्छिम से,
क्रिकेट है जोड़ती, उत्तर को दक्खिन से.


No comments:

Post a Comment